(मदीना में उतरी, आयतें 120)
परिचय
नाम:
इस सूरा का नाम पंद्रहवें रुकूअ की आयत-112 'हल यस्ततीउ रब्बु-क अंय्युनज़्ज़ि-ल अलैना माइदतम मिनस्समाइ' (क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक ख़्वान (थाल) उतार सकता है?) के शब्द ‘माइदा' से लिया गया है।
उतरने का समय
सूरा के विषयों से स्पष्ट होता है और रिवायतों से इसकी पुष्टि होती है कि यह “हुदैबिया की संधि” के बाद सन् 06 हि० के आख़िर या सन् 07 हि० के शुरू में उतरी है। ज़ी-कादा सन् 06 हि० की घटना है कि नबी (सल्ल.) चौदह सौ मुसलमानों के साथ उमरा करने के लिए मक्का तशरीफ़ ले गए। परन्तु सत्य के विरोधी कुरैशियों ने दुश्मनी के जोश में अरब की प्राचीनतम धार्मिक परम्पराओं के विपरीत आपको उमरा न करने दिया और बड़े वाद-विवाद के बाद यह बात स्वीकार की कि अगले साल आप (सल्ल.) ज़ियारत (दर्शन) के लिए आ सकते हैं। इस अवसर पर ज़रूरत आ पड़ी कि मुसलमानों को एक ओर तो काबा की ज़ियारत के लिए सफ़र के आदाब (नियम) बताए जाएँ और दूसरी ओर उन्हें ताकीद की जाए कि विधर्मो दुश्मनों ने उन्हें उमरा से रोककर जो अन्याय किया है, उसके उत्तर में वे स्वयं कोई उत्पीड़न का पथ न अपनाएँ, इसलिए कि बहुत-से विरोधी क़बीलों के हज का मार्ग इस्लामी इलाक़ों से होकर जाता था और मुसलमानों के लिए यह संभव था कि जिस तरह इन्हें काबे की ज़ियारत से रोका गया है, उसी तरह वे भी उनको रोक दें।
उतरने का कारण
सूरा आले इमरान और सूरा निसा के उतरने के समय से इस सूरा के उतरने तक पहुँचते-पहुँचते परिस्थितियों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका था। या तो वह समय था कि उहुद की लड़ाई के सदमे ने मुसलमानों के लिए मदीना के क़रीबी माहौल को भी ख़तरनाक बना दिया था या अब यह समय आ गया कि अरब में इस्लाम एक अजेय शक्ति दिखाई पड़ने लगा और इस्लामी राज्य एक ओर नज्द तक, दूसरी ओर शाम (सीरिया) की सीमाओं तक, तीसरी ओर लाल सागर के तट पर और चौथी ओर मक्का के क़रीब तक फैल गया। अब इस्लाम मात्र एक अक़ीदा और दृष्टिकोण ही न था जिसका शासन सिर्फ़ दिलों और दिमाग़ों तक सीमित हो, बल्कि वह एक स्टेट भी था जिसकी हुक्मरानी व्यावहारिक रूप से अपनी सीमाओं में रहनेवाले तमाम लोगों के जीवन पर छाई हुई थी।
फिर इन कुछ वर्षों में इस्लामी सिद्धान्तों एवं धारणाओं के अनुसार मुसलमानों की अपनी एक स्थायी सभ्यता बन चुकी थी जो जीवन के तमाम क्षेत्रों में दूसरों से अलग अपना एक विशिष्ट गौरव रखती थी। नैतिकता, रहन-सहन, संस्कृति, हर चीज़ में अब मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों से बिल्कुल अलग पहचाने जाते थे। इस्लामी जीवन का ऐसा पूर्ण स्वरूप बन जाने के बाद ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इस ओर से पूरे तौर पर निराश हो चुकी थी कि ये लोग, जिनकी अपनी एक अलग संस्कृति बन चुकी है, फिर कभी उनमें आ मिलेंगे। हुदैबिया में समझौते से पहले तक मुसलमानों के रास्ते में एक बड़ी रुकावट यह थी कि वे करैशी विरोधियों के साथ एक लगातार संघर्ष में उलझे हुए थे और उन्हें अपने आह्वान का क्षेत्र विस्तृत करने की छूट न मिलती थी। इस रुकावट को हुदैबिया की बाह्य किन्तु वास्तविक जीत ने दूर कर दिया। इससे उनको न केवल यह कि अपने राज्य की सीमाओं में शान्ति मिल गई, बल्कि इतनी मोहलत भी मिल गई कि आस-पास के क्षेत्रों में इस्लाम की दावत को लेकर फैल जाएँ।
वार्ताएँ
ये परिस्थितियाँ थीं जब सूरा माइदा उतरी। यह सूरा नीचे लिखे तीन बड़े-बड़े विषयों पर सम्मिलित है-
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