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سُورَةُ النَّجۡمِ

53. अन-नज्म

(मक्का में उतरी, आयतें 62)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वन-नज्म' (क़सम है तारे की) से लिया गया है और केवल प्रतीक के रूप में इसे इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हजरत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि "पहली सूरा, जिसमें सजदे की आयत उतरी, अन-नज्म है।" साथ ही यह कि यह क़ुरआन मजीद की वह पहली सूरा है जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क़ुरैश के एक जन-समूह में (और इब्‍ने-मर्दूया की रिवायत के अनुसार काबा में) सुनाया था। जन-समूह में काफ़िर और मोमिन सब मौजूद थे। आख़िर में जब आपने सजदे की आयत पढ़कर सजदा किया तो तमाम उपस्थित लोग आप (सल्ल०) के साथ सजदे में गिर गए और बहुदेववादियों के वे बड़े-बड़े सरदार तक, जो विरोध में आगे-आगे थे, सजदा किए बिना न रह सके। इब्‍ने-सअद का बयान है कि इससे पहले रजब सन् 05 नबवी में सहाबा किराम की एक छोटी-सी जमाअत हबशा की ओर हिजरत कर चुकी थी। फिर जब उसी साल रमज़ान में यह घटना घटित हुई तो हबशा के मुहाजिरों तक यह क़िस्सा इस रूप में पहुँचा कि मक्का के इस्लाम-विरोधी मुसलमान हो गए हैं। इस ख़बर को सुनकर उनमें से कुछ लोग शव्वाल सन् 05 नबवी में मक्का वापस आ गए, मगर यहाँ आकर मालूम हुआ कि ज़ुल्म की चक्की उसी तरह चल रही है जिस तरह पहले चल रही थी। अन्ततः हबशा को दूसरी हिजरत घटित हुई जिसमें पहली हिजरत से भी अधिक लोग मक्का छोड़कर चले गए। इस तरह यह बात लगभग निश्चित रूप से मालूम हो जाती है कि यह सूरा रमज़ान 05 नबवी में उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

उतरने के समय के इस विवरण से मालूम हो जाता है कि वे परिस्थितियाँ क्या थीं जिनमें यह सूरा उतरी। [मक्का के इस्लाम-विरोधियों की बराबर यह कोशिश रहती थी कि] ईश्वरीय वाणी को न ख़ुद सुनें, न किसी को सुनने दें और उसके विरुद्ध तरह-तरह की भ्रामक बातें फैलाकर सिर्फ़ अपने झूठे प्रोपगंडे के बल पर आप (सल्ल०) की दावत (आह्‍वान) को दबा दें। इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन पवित्र हरम (काबा) में जब यह घटना घटी कि नबी (सल्ल०) की ज़बान से इस सूरा नज्म को सुनकर आप (सल्ल०) के साथ क़ुरैश के इस्लाम विरोधी भी सजदे में गिर गए, तो बाद में उन्हें बड़ी परेशानी हुई कि यह हमसे क्या कमज़ोरी ज़ाहिर हुई। और लोगों ने भी इसके कारण उनपर चोटें करनी शुरू कर दी कि दूसरों को तो इस वाणी को सुनने से मना करते थे, आज ख़ुद उसे न सिर्फ़ यह कि कान लगाकर सुना, बल्कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ सजदे में भी गिर गए। अन्तत: उन्होंने यह बात बनाकर अपना पीछा छुड़ाया कि साहब! हमारे कानों ने तो "अब तनिक बताओ तुमने कभी इस 'लात' और 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?" के बाद मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से ये शब्द सुने थे, "ये ऊच्च कोटी की देवियाँ हैं और इनकी सिफ़ारिश की अवश्य आशा की जा सकती है।" इसलिए हमने समझा कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे तरीक़े पर वापस आ गए हैं, हालाँकि कोई पागल आदमी ही यह सोच सकता था कि इस पूरी सूरा के संदर्भ में उन वाक्यों की भी कोई जगह हो सकती है जो उनका दावा था कि उनके कानों ने सुने हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखें, सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 96-101)

विषय और वार्ता

व्याख्यान का विषय मक्का के इस्लाम-विरोधियों को उस नीति की ग़लती पर सावधान करना है जो वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के सिलसिले में अपनाए हुए थे। वार्ता इस तरह आरंभ हुई है कि मुहम्मद (सल्ल०) बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं, जैसा कि तुम उनके बारे में प्रचार करते फिर रहे हो और न इस्लाम की यह शिक्षा और आमंत्रण उन्होंने स्वयं अपने दिल से घड़ा है, जैसा कि तुम अपनी दृष्टि में समझे बैठे हो, बल्कि जो कुछ वे पेश कर रहे हैं, वह विशुद्ध वह्य (प्रकाशना) है जो उनपर अवतरित की जाती है। जिन सच्चाइयों को वे तुम्हारे सामने बयान करते हैं, वे उनकी अपनी कल्पना और अन्दाज़े की उपज नहीं हैं, बल्कि उनकी आँखों देखी सच्चाइयाँ हैं। इसके बाद क्रमश: तीन विषय लिए गए हैं—

एक, यह कि सुननेवालों को समझाया गया है कि जिस दीन (धर्म) का तुम अनुसरण कर रहे हो, उसका आधार केवल अटकल और मनमानी कल्पनाओं पर स्थिर है। तुमने जो अक़ीदे (धारणाएँ) अपना रखे हैं, उनमें से कोई अक़ीदा भी किसी ज्ञान और प्रमाण पर आधारित नहीं है, बल्कि कुछ इच्छाएँ हैं जिनके लिए तुम कुछ कतिपय अंधविश्वासों को सच्चाई समझ बैठे हो। यह एक बहुत बड़ी बुनियादी ग़लती है जिसमें तुम लोग पड़े हुए हो। इस ग़लती में तुम्हारे पड़ने का मूल कारण यह है कि तुम्हें आख़िरत की कोई चिन्ता नहीं है, बस दुनिया ही तुम्हारी अभीष्ट बनी हुई है, इसलिए तुम्हें सत्य के ज्ञान की कोई चाह नहीं है।

दूसरा, यह कि लोगों को यह बताया गया है कि अल्लाह ही सम्पूर्ण जगत् का मालिक एवं सर्वाधिकारी है। सीधे रास्ते पर वह है जो उसके रास्ते पर हो और गुमराह वह जो उसकी राह से हटा हुआ हो।हर एक के कर्म को वह जानता है और उसके यहाँ अनिवार्य रूप से बुराई का बदला बुरा और भलाई का बदला भला मिलकर रहना है।

तीसरा, यह कि सत्य धर्म के उन कुछ आधारभूत तथ्यों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया है जो क़ुरआन मजीद के अवतरण से सैकड़ों वर्ष पहले हज़रत इबराहीम और हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित धर्म-ग्रंथों में बयान हो चुके थे, ताकि उनको मालूम हो जाए कि ये वे आधारभूत तथ्य हैं जो हमेशा से अल्लाह के नबी बयान करते चले आए हैं।

इन वार्ताओं के बाद अभिभाषण को इस बात पर समाप्त किया गया है कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब आ लगी है जिसे कोई टालनेवाला नहीं है। उस घड़ी के आने से पहले मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरआन मजीद के द्वारा तुम लोगों को उसी तरह सचेत किया जा रहा है, जिस तरह पहले लोगों को सचेत किया गया था। अब क्या यही वह बात है जो तुम्हें अनोखी लगी है, जिसकी तुम हँसी उड़ाते हो?

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سُورَةُ النَّجۡمِ
53. अन-नज्म
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
وَٱلنَّجۡمِ إِذَا هَوَىٰ
(1) क़सम है तारे की,1 जबकि वह डूबा,
1. मूल अरबी में शब्द 'अन-नज्म' प्रयुक्त हुआ है। टीकाकारों में से कुछ के नज़दीक इससे तात्पर्य सुरैया (कृतिका नक्षत्र) है। कुछ के नज़दीक इससे तात्पर्य जोहरा (शुक्र तारा) [है और कुछ के नज़दीक यहाँ अन-नज्म बोलकर तारे मुराद लिए गए हैं, अर्थात् मतलब यह है कि जब सुबह हुई और सब सितारे डूब गए।
مَا ضَلَّ صَاحِبُكُمۡ وَمَا غَوَىٰ ۝ 1
(2) तुम्हारा साथी2 न भटका है, न बहका है।3
2. तात्पर्य हैं अल्लाह के रसूल (सल्ल०)। 'तुम्हारा साथी' कहकर आप (सल्ल०) का उल्लेख करने का मकसद क़ुरैश के लोगों को यह एहसास दिलाना है कि जिस व्यक्ति का तुमसे उल्लेख किया जा रहा है, वह तुम्हारे यहाँ बाहर से आया हुआ कोई अजनबी आदमी नहीं है कि उससे तुम्हारी पहले की कोई जान-पहचान न हो। तुम्हारा बच्चा बच्चा जानता है कि वह कौन है, क्या है, किस चरित्र और आचरण का इंसान है।
3. यह है वह असल बात जिसपर डूबनेवाले तारे या तारों की क़सम खाई गई है। यह क़सम जिस पहलू में खाई गई है, वह यह है कि रात के अंधेरे में जब तारे निकले हुए हों, एक व्यक्ति अपने आसपास की चीज़ों को साफ नहीं देख सकता और विभिन्न चीज़ों की धुंधली-सी शक्लें देखकर उनके बारे में ग़लत अन्दाजे कर सकता है, लेकिन जब तारे डूब जाएँ और सुबह रौशन व प्रकाशमान हो जाए तो हर चीज़ अपने असल रूप में आदमी के सामने आ जाती है। ऐसा ही मामला तुम्हारे यहाँ मुहम्मद (सल्ल०) का भी है। उनका जीवन और व्यक्तित्व अँधेरे में छिपा हुआ नहीं है। वे तुम्हारे जाने-पहचाने आदमी हैं और यह बात रौशन सुबह की तरह नुमायाँ है कि वे बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं।
وَمَا يَنطِقُ عَنِ ٱلۡهَوَىٰٓ ۝ 2
(3) वह अपने मन की इच्छाओं से नहीं बोलता,
إِنۡ هُوَ إِلَّا وَحۡيٞ يُوحَىٰ ۝ 3
(4) यह तो एक वह्य (प्रकाशना) है जो उसपर अवतरित की जाती है।4
4. मतलब यह है कि जिन बातों की वजह से तुम उसपर यह आरोप लगाते हो कि वह गुमराह या भटक गया है, वह उसने अपने दिल से नहीं पड़ ली है, न उनकी प्रेरक उसकी अपने मन की इच्छा है, बल्कि ये ख़ुदा की ओर से उसपर वह्य (प्रकाशना) के ज़रिये से उतारी गई हैं और उतारी जा रही हैं। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि नबी (सल्ल०) के बारे में अल्लाह का कथन कि "आप अपने मन की इच्छा से नहीं बोलते, बल्कि जो कुछ आप कहते हैं, वह एक व्हय है जो आप पर उतारी जाती है" आप (सल्ल०) को जबान से निकलनेवाली किन-किन बातों से सम्बन्धित है? क्या इसके तहत वे सारी बातें आ जाती है जो आप बोलते थे या कुछ बातें इसके तहत आती हैं और कुछ नहीं आती। इसका उत्तर यह है कि जहाँ तक क़ुरआन मजीद का संबंध है, वह तो इस कथन के तहत आती ही है, रहीं वे दूसरी बातें जो क़ुरआन के अलावा नबी (सल्ल०) की जबान से अदा होती थीं, तो वे निश्चित रूप से तीन प्रकार की ही हो सकती थी- एक प्रकार की बातें वे जो आप धर्म के प्रचार-प्रसार और अल्लाह की ओर बुलाने के लिए करते थे, या क़ुरआन मजीद के विषय, उसकी शिक्षाएँ और उसके आदेशों की व्याख्या के रूप में करते थे, या क़ुरआन हो के उद्देश्य व मंशा को पूरा करने के लिए उपदेश देते व नसीहत फ़रमाते और लोगों को शिक्षा देते थे। इन मामलों में तो आप (सल्ल०) की हैसियत वास्तव में कुरआन के अधिकारिक प्रवक्ता और अल्लाह के बनाए हुए विधिवत प्रतिनिधि की थी। ये बातें यद्यपि उस तरह शब्दश: आप पर नहीं उतारी जाती थीं जिस तरह क़ुरआन आप पर उतारा जाता था, मगर ये निश्चित रूप से थीं उसी ज्ञान पर आधारित, जो वह्य के जरिये से आप (सल्ल०) को दिया गया था। इनमें और क़ुरआन में अन्तर केवल यह था कि क़ुरआन के शब्द और अर्थ सब कुछ अल्लाह की ओर से थे, और इन दूसरी बातों में अर्थ और मतलब वे थे जो अल्लाह ने आप (सल्ल०) को सिखाए थे और उनको अदा आप (सल्ल०) अपने शब्दों में करते थे। इसी अन्तर के कारण क़ुरआन को वस्ये-जली (प्रत्यक्ष वह्य) और आप (सल्ल०) के इन दूसरे कथनों को वहय ख़फ़ी (सूक्ष्म प्रकाशना) कहा जाता है। दूसरे प्रकार की बातें वे थीं जो आप (सल्ल०) अल्लाह के कलिमे को बुलंद करने की जिद्दोजुहद और दीन क़ायम करने की सेवाओं के सिलसिले में करते थे। इनमें से भी, उन बातों के अलावा जिनमें आप (सल्ल०) ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है कि ये अल्लाह के हुक्म से नहीं हैं या जिनमें आप (सल्ल०) ने सहाबा (रजि०) से मश्विरा तलब फ़रमाया है और उनकी राय स्वीकार की है या जिनमें आप (सल्ल०) से कोई बात या काम हो जाने के बाद अल्लाह ने उसके खिलाफ़ मार्गदर्शन अवतरित कर दी है, शेष तमाम बातें उसी तरह वस्ये-खफ़ी पर आधारित थीं, जिस तरह पहली क़िस्म की बातें। तीसरे प्रकार की बातें वे थी जो नबी (सल्ल०) एक इंसान होने की हैसियत से जिंदगी के आम मामलों में करते थे, जिनका संबंध नुबूवत के कर्तव्यों में से न था। [इस तरह की बातों के सिलसिले में भी यह सैद्धान्तिक तथ्य सामने रहना चाहिए कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुख से कोई बात अपनी जिंदगी के इस निजी पहलू में भी कभी सत्य के विरुद्ध न निकलती थी, बल्कि हर वक्त हर हाल में आप (सल्ल०) की कथनी-करनी उन मर्यादाओं में सीमित रहती थीं जो अल्लाह ने एक पैग़म्बराना और परहेजगाराना (ईशपरायण) जिंदगी के लिए आप (सल्ल०) को बता दी थीं। इसलिए वास्तव में वह्य का नूर उनमें भी काम कर रहा था। यही बात है जिनका उल्लेख कुछ सही हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से किया गया है। मुस्लद अहमद में हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) की रिवायत है कि एक मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "मैं कभी सत्य के सिवा कोई बात नहीं कहता।" (इस बारे में विस्तृत वार्ता के लिए देखिए मेरी किताब 'तफ़हीमात' भाग-1, लेख 'रिसालत और उसके हुक्म')
عَلَّمَهُۥ شَدِيدُ ٱلۡقُوَىٰ ۝ 4
(5) उसे जबरदस्त ताक़तवाले ने शिक्षा दी है, 5
5. अर्थात् कोई इंसान उसको सिखानेवाला नहीं है, जैसा कि तुम अटकल लगाते हो, बल्कि यह ज्ञान उसको एक ऐसे माध्यम से प्राप्त हो रहा है जो मानवीय सीमा से परे है। 'जबरदस्त ताक़तवाले' से तात्पर्य कुछ के नज़दीक अल्लाह की हस्ती है, लेकिन टीकाकारों की बड़ी अकसरियत इसपर सहमत है कि इससे मुराद जिवरील (अलैहि०) हैं। [अगर सूरा-81 तकवीर, आयत 19-23 और सूरा-2 बक़रा की आयत 57 को] सूरा-53 नज्म की इस आयत के साथ मिलाकर पढ़ा जाए तो इस बात में किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं रहती कि यहाँ जबरदस्त ताक़तवाले शिक्षक से तात्पर्य जिबरील अमीन ही हैं, न कि अल्लाह।
ذُو مِرَّةٖ فَٱسۡتَوَىٰ ۝ 5
(6-7) जो बड़ा सूझ-बूझवाला है।6 वह सामने आ खड़ा हुआ, जबकि वह ऊपरी क्षितिज पर था,7
6. मूल अरबी शब्द 'जू मिर्रः' प्रयुक्त किया गया है। [ इस शब्द के बहुत-से अर्थ बताए गए हैं- ख़ूबसूरत और शानदार, शक्तिशाली, सूझ-बूझवाला (तत्वदर्शी), स्वस्थ और स्वस्थ अंगोंवाला, सलाह व राय की क्षमता रखनेवाला और बुद्धिमान। अल्लाह ने यहाँ जिबरील (अलैहि०) के लिए यह बहुअर्थी शब्द इसी लिए प्रयुक्त किया है कि उनमें मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की शक्तियों का कमाल पाया जाता है। हिंदी-उर्दू भाषा में कोई शब्द इन तमाम अर्थों का वाहक नहीं है। इस वजह से हमने अनुवाद में इसके केवल एक ही अर्थ को ग्रहण किया है क्योंकि शारीरिक शक्तियों के कमाल का उल्लेख इससे पहले के वाक्य में आ चुका है।
7. क्षितिज से तात्पर्य है आसमान का पूर्वी किनारा, जहाँ से सूरज निकलता है और दिन की रौशनी फैलती है। इसी को सूरा-81 तकवीर की आयत 23 में उफुले-मुबीन' कहा गया है। दोनों आयतें स्पष्ट करती हैं कि पहली बार जिबरील (अलैहि०) जब नबी (सल्ल0) को नज़र आए उस वक्त वे आसमान के पूर्वी किनारे से प्रकट हुए थे।
وَهُوَ بِٱلۡأُفُقِ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 6
0
ثُمَّ دَنَا فَتَدَلَّىٰ ۝ 7
(8) फिर क़रीब आया और ऊपर रुक गया,
فَكَانَ قَابَ قَوۡسَيۡنِ أَوۡ أَدۡنَىٰ ۝ 8
(9) यहाँ तक कि दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम दूरी रह गई।8
8. अर्थात् आसमान के ऊपरी पूर्वी किनारे से प्रकट होने के बाद जिबरील (अलैहि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ओर आगे बढ़ना शुरू किया, यहाँ तक कि बढ़ते-बढ़ते वे आप (सल्ल०) के ऊपर आकर वायुमण्डल में थम गए। फिर वे आपकी ओर झुके और इतने क़रीब हो गए कि आप (सल्ल०) के और उनके बीच सिर्फ दो कमानों के बराबर या कुछ कम दूरी रह गई। चूँकि तमाम कमानें लाज़िमन एक ही नाप की नहीं होती और उनके हिसाब से किसी दूरी को जब बयान किया जाएगा तो दूरी के परिमाण में ज़रूर कमी-बेशी होगी, इसलिए दूरी का अन्दाज़ा बताने के लिए बताया कि दो कमानों के बराबर या कुछ कम दूरी रह गई।
فَأَوۡحَىٰٓ إِلَىٰ عَبۡدِهِۦ مَآ أَوۡحَىٰ ۝ 9
(10) तब उसने अल्लाह के बन्दे को वह्य (प्रकाशना) पहुँचाई, जो वह्य भी उसे पहुँचानी थी।9
9. मूल अरबी शब्द हैं 'फ़ औहा इला अब्दिही मा औहा'। इस वाक्य के दो अनुवाद हो सकते हैं। एक यह "उसने वक्ष्य की उसके बन्दे पर जो कुछ भी वस्य की" और दूसरा यह कि "उसने वस्य की अपने बन्दे पर जो कुछ भी वय की"। पहला अनुवाद किया जाए तो इसके अर्थ ये होंगे कि जिवरील (अलैहि०) ने वस्य की अल्लाह के बन्दे पर, जो कुछ भी उसको वह्य करनी थी। और दूसरा अनुवाद किया जाए तो अर्थ यह होगा कि अल्लाह ने वय की जिबरील (अलैहि०) के वास्ते से अपने बन्दे पर जो कल भी उसको वह्य करनी थी। टीकाकारों ने इन दोनों अर्थों को बयान किया है, मगर संदर्भ और प्रसंग को देखते हुए यहाँ पहला अर्थ ही ज़्यादा उचित मालूम होता है।
مَا كَذَبَ ٱلۡفُؤَادُ مَا رَأَىٰٓ ۝ 10
(11) नज़र ने जो कुछ देखा, दिल ने उसमें झूठ न मिलाया।10
10. अर्थात् यह अवलोकन, जो दिन की रौशनी में और पूरी तरह जागने की हालत में, खुली आँखों से मुहम्मद (सल्ल०) को हुआ, उसपर उनके दिल ने यह नहीं कहा कि यह नज़र का धोखा है, या यह कोई जिन्न या शैतान है जो मुझे नज़र आ रहा है, या मेरे सामने कोई काल्पनिक आकृति आ गई है और मैं जागते में कोई सपना देख रहा हूँ। बल्कि उनके दिल ने ठीक-ठीक वही कुछ समझा जो उनकी आँखें देख रही थीं। उन्हें इस मामले में कोई सन्देह नहीं हुआ कि वास्तव में ये जिबरील (अलैहि०) हैं और जो सन्देश ये पहुँचा रहे हैं वह वास्तव में खुदा की ओर से वह्य (प्रकाशना) है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि आख़िर वह क्या बात है जिसके कारण अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ऐसे विचित्र और असाधारण अवलोकन के बारे में बिल्कुल ही कोई सन्देह न हुआ। इस प्रश्न पर जब हम विचार करते हैं तो इसके पाँच कारण हमारी समझ में आते हैं- एक यह कि वे बाह्य परिस्थितियाँ, जिनमें अवलोकन हुआ था, इसके सही होने का यकीन दिलानेवाली थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह अवलोकन अंधेरे में, या मुराकबे (ध्यान) की हालत में या सपने में या अर्द्धजागरण की हालत में नहीं हुआ था, बल्कि रौशन सुबह शुरू हो चुकी थी, आप (सल्ल०) पूरी तरह जागे हुए थे। खुले वातावरण और दिन की पूरी रौशनी में अपनी आँखों से यह दृश्य ठीक उसी तरह देख रहे थे, जिस तरह कोई व्यक्ति दुनिया के दूसरे दृश्य देखता है। दूसरा यह कि आप (सल्ल०) की अपनी आन्तरिक स्थिति भी उसके सही होने का विश्वास दिलानेवाली थी। आप (सल्ल०) पूरी तरह अपने होश व हवास में थे। पहले से आप (सल्ल०) के मन में इस तरह का कोई विचार न था कि आप (सल्ल०) को ऐसा कोई अवलोकन होना चाहिए या होनेवाला है, और इस स्थिति में अचानक आप (सल्ल०) को इस मामले से वास्ता पड़ा। इसपर यह सन्देह करने की कोई गुंजाइश न थी कि आँखें किसी वास्तविक दृश्य को नहीं देख रही हैं, बल्कि एक काल्पनिक आकृति सामने आ गई है। तीसरे यह कि जो हस्ती इन परिस्थितियों में आप (सल्ल०) के सामने आई थी, वह ऐसी महान, ऐसी शानदार, ऐसी सुन्दर और इतनी ज्यादा रौशन थी कि न आप (सल्ल०) के मन में कभी इससे पहले ऐसी हस्ती का विचार आया था, जिसकी वजह से आप (सल्ल०) को यह गुमान होता कि वह आप (सल्ल०) के अपने विचार के अनुसार है, और न कोई जिन्न या शैतान इस शान का हो सकता है कि आप (सल्ल०) उसे फ़रिश्ते के सिवा और कुछ समझते। चौथा यह कि जो शिक्षा वह हस्ती दे रही थी, वह भी इस अवलोकन के सही होने का इत्मीनान दिलानेवाली थी। इसके जरिए से अचानक जो ज्ञान और सम्पूर्ण जगत के तथ्यों पर आच्छादित जो ज्ञान आप (सल्ल०) को मिला, उसकी कोई कल्पना पहले से आप (सल्ल०) के मन में न थी कि आप (सल्ल०) उसपर यह सन्देह करते कि ये मेरे अपने ही विचार हैं जो संग्रहीत होकर मेरे सामने आ गए हैं। पाँचवाँ और सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि अल्लाह जब किसी व्यक्ति को अपनी नुबूवत के लिए चुन लेता है तो उसके दिल को सन्देहों, भ्रमों और वसवसों से पाक करके विश्वास और आज्ञाकारिता के भाव से भर देता है। इस हालत में उसकी आँखें जो कुछ देखती हैं और उसके कान जो कुछ सुनते हैं, उसके सही होने के बारे में कोई मामूली-सा संकोच भी उसके मन में पैदा नहीं होता। वह पूरे दिल के इत्मीनान के साथ हर उस सच्चाई को मान लेता है जो उसके रब की ओर से उसपर प्रकट की जाती है, भले ही वह किसी अवलोकन के रूप में हो जो उसे आँखों से कराया जाए या इलहामी (ईश्वरीय) ज्ञान के रूप में हो जो उसके मन में डाला जाए, या वह्य के सन्देश के रूप में हो जो उसको शब्दशः सुनाया जाए। इन तमाम शक्लों में पैग़म्बर को इस बात की पूरी चेतना होती है कि वह हर प्रकार के शैतानी हस्तक्षेप से पूरी तरह सुरक्षित है और जो कुछ भी उस तक किसी रूप में पहुँच रहा है, वह ठीक-ठीक उसके रब की ओर से है। ईश-प्रदत्त तमाम एहसासों की तरह पैग़म्बर की यह चेतना और अनुभूति भी एक ऐसी विश्वसनीय चीज़ है जिसमें भ्रम की कोई संभावना नहीं। जिस तरह मछली को अपने तैराक होने का, परिंदे को अपने परिंदा होने को और इंसान का अपने इंसान होने का एहसास बिल्कुल ईश-प्रदत्त होता है और इसमें किसी भ्रम का कोई अंश नहीं हो सकता, इसी तरह पैग़म्बर को अपने पैग़म्बर होने का एहसास भी ख़ुदा का दिया हुआ होता है। उसके दिल में कभी एक क्षण के लिए भी यह भ्रम और वसवसा नहीं आता कि शायद उसे पैग़म्बर होने की ग़लतफ़हमी हो गई है।
أَفَتُمَٰرُونَهُۥ عَلَىٰ مَا يَرَىٰ ۝ 11
(12) अब क्या तुम उस चीज़ पर उससे झगड़ते हो जिसे वह आँखों से देखता है?
وَلَقَدۡ رَءَاهُ نَزۡلَةً أُخۡرَىٰ ۝ 12
(13-14) और एक बार फिर उसने 'सिदरतुल मुन्तहा' (परली सीमा पर बेर) के पास उसको उतरते देखा,
عِندَ سِدۡرَةِ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 13
0
عِندَهَا جَنَّةُ ٱلۡمَأۡوَىٰٓ ۝ 14
(15) जहाँ पास ही जन्नतुल मावा (ठिकानेवाली जन्नत) है।11
11. यह जिबरील (अलैहि०) से नबी (सल्ल०) की दूसरी मुलाक़ात का उल्लेख है जिसमें वह आप (सल्ल०) के सामने अपनी असली सूरत में प्रकट हुए। इस मुलाक़ात की जगह 'सिद्रतुल मुन्तहा' बताया गया है और साथ ही यह फ़रमाया गया है कि उसके करीब 'जन्नतुल मावा' स्थित है। 'सिदरह' अरबी भाषा में बेरी के पेड़ को कहते हैं और मुन्तहा का अर्थ है 'अन्तिम सिरा'। सिद्रतुल मुन्तहा का शाब्दिक अर्थ है 'वह बेरी का पेड़ जो आख़िरी या इन्तिहाई सिरे पर स्थित है।' अल्लामा आलूसी (रह०) ने 'रूहुल मआनी' में इसकी व्याख्या यह की है कि "इसपर हर ज्ञानी और विद्वान का ज्ञान समाप्त हो जाता है, आगे जो कुछ है, उसे अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता।" क़रीब-क़रीब यही व्याख्या इने-जरीर ने अपनी टीका में और इने-असीर ने 'अन-निहायह फ़ी गरीबिल हदीस चल-असर' में की है। हमारे लिए यह जानना कठिन है कि इस भौतिक जगत् की अन्तिम सीमा पर वह बेरी का पेड़ कैसा है और उसका वास्तविक स्वरूप और दशा क्या है। ये अल्लाह की सृष्टि के वे गूढ़ रहस्य हैं जिन तक हमारी बुद्धि की पहुँच नहीं है। बहरहाल वह कोई ऐसी ही चीज़ है जिसके लिए इंसानी भाषा के शब्दों में 'सिदरह' से अधिक उचित शब्द अल्लाह के नज़दीक और कोई न था। 'जन्नतुल मावा' के शाब्दिक अर्थ हैं, 'वह जन्नत जो ठहरने की जगह बने।' हज़रत हसन बसरी (रह०) कहते है कि यह वही जन्नत है जो आखिरत में ईमानवालों और अल्लाह का डर रखनेवालों को मिलनेवाली है, और इसी आयत से उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि वह जन्नत आसमान में है। क़तादा (हल) कहते हैं कि यह वह जन्नत है जिसमें शहीदों की आत्माएँ (रूहें) रखी जाती हैं, इससे तात्पर्य वह जन्नत नहीं है जो आखिरत में मिलनेवाली है। इब्ने अब्बास (रजि०) भी यही कहते हैं और इसमें वह इतनी बढ़ोतरी और कर देते हैं कि आखिरत में जो जन्नत ईमानवालों को दी जाएगी, वह आसमान में नहीं है. बल्कि उसकी जगह यही धरती है।
إِذۡ يَغۡشَى ٱلسِّدۡرَةَ مَا يَغۡشَىٰ ۝ 15
(16) उस समय उस बेर पर छा रहा था, जो कुछ छा रहा था।12
12. अर्थात् उसकी शान और उसकी दशा बयान से बाहर है। वे ऐसी ज्योतियाँ थीं कि न इनसान इनकी कल्पना कर सकता है और न कोई इनसानी भाषा उसके गुणों की वाहक है।
مَا زَاغَ ٱلۡبَصَرُ وَمَا طَغَىٰ ۝ 16
(17) निगाह न चुधियाई, न सीमा से आगे बढ़ी।13
13. अर्थात् एक ओर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की असीम सहनशीलता का हाल यह था कि ऐसी सशक्त आलोकों के सामने भी आप (सल्ल०) की निगाह में कोई चकाचौंध पैदा न हुई और आप (सल्ल०) पूरे शान्त-भाव से उनको देखते रहे। दूसरी ओर आप (सल्ल०) के धैर्य और एकाग्रता का कमाल यह था कि जिस उद्देश्य के लिए आप (सल्ल०) को बुलाया गया था, उसी पर आप (सल्ल०) अपने मन और अपनी दृष्टि को जमाए रहे और जो आश्चर्यजनक दृश्य वहाँ थे, उनको देखने के लिए आप (सल्ल०) ने एक तमाशाई की तरह हर ओर निगाहें दौड़ानी शुरू न कर दी। इसका उदाहरण ऐसा है जैसे किसी व्यक्ति को एक महान प्रतापी बादशाह के दरबार में हाज़िरी का मौका मिलता है और वहाँ वह कुछ शान व शौकत उसके सामने आती है जो उसकी कल्पना की आँखों ने भी कभी न देखी थी। अब अगर वह व्यक्ति संकीर्ण हृदय का हो तो वहाँ पहुँचकर भौंचक्का रह जाएगा, और अगर दरबारी आदाब को न जानता हो तो बादशाह के उच्चपद से ग़ाफ़िल होकर दरबार की सजावट का नज़ारा करने के लिए हर ओर मुड़-मुड़कर देखने लगेगा, लेकिन एक विशाल हृदय, सभ्य और कर्तव्यपरायण व्यक्ति न तो वहाँ पहुँचकर हतप्रभ होगा और न दरबार का तमाशा देखने में व्यस्त हो जाएगा, बल्कि वह पूरी गरिमा के साथ हाज़िर होगा और अपना सारा ध्यान उस उद्देश्य पर केन्द्रित रखेगा जिसके लिए शाही दरबार में उसे तलब किया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की यही खूबी है जिसकी प्रशंसा इस आयत में की गई है।
لَقَدۡ رَأَىٰ مِنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِ ٱلۡكُبۡرَىٰٓ ۝ 17
(18) और उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियाँ देखीं।14
14. यह आयत इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह को नहीं, बल्कि उसकी बड़ी शानवाली निशानियों को देखा था। और चूँकि सन्दर्भ की दृष्टि से यह दूसरी मुलाक़ात भी उसी हस्ती से हुई थी जिससे पहली मुलाक़ात हुई, इसलिए अनिवार्य रूप से यह मानना पड़ेगा कि ऊपरी चितिज पर जिसको आप (सल्ल.) ने पहली बार देखा था वह भी अल्लाह न था, और दूसरी बार सिदरतुल मुन्तहा के पास जिसको देखा वह भी अल्लाह न था। अगर आप (सल्ल0) ने इन मौक़ों में से किसी मौके पर भी तेजमय अल्लाह को देखा होता तो यह इतनी बड़ी बात थी कि यहाँ ज़रूर उसे स्पष्ट कर दिया जाता। हज़रत मूसा (अलैहि०) के बारे में क़ुरआन मजीद में फ़रमाया गया है कि उन्होंने अल्लाह को देखने की प्रार्थना की थी और उन्हें उत्तर दिया गया था कि "तुम मुझे नहीं देख सकते" (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 143) । अब यह स्पष्ट है कि अगर यह श्रेय, जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को प्रदान किया गया था, नबी (सल्ल०) को प्रदान कर दिया जाता तो उसका महत्त्व स्वयं ऐसा था कि उसे स्पष्ट शब्दों में बयान कर दिया जाता। लेकिन हम देखते हैं कि क़ुरआन मजीद में कहीं यह नहीं फ़रमाया गया है कि नबी (सल्ल०) ने अपने रब को देखा था बल्कि 'मेराज की घटना' का उल्लेख करते हुए सूरा-17 बनी इस्राईल में भी यह कहा गया है कि "हम अपने बन्दे को इसलिए ले गए थे कि उसको अपनी निशानियाँ दिखाएँ।" और यहाँ सिद्रतुल मुन्तहा पर हाज़िरी के सिलसिले में भी यह कहा गया है कि "उसने अपने रब की बड़ी निशानियाँ देखीं।" [यह सही है कि कुछ रिवायतों के अनुसार नबी (सल्ल०) ने जिवरील को नहीं, बल्कि अल्लाह को देखा था, लेकिन एक तो ये हदीसें कमज़ोर हैं और उनके मुक़ाबले में वे हदीसें ज़्यादा भरोसेमंद हैं जिनमें इस बात को स्पष्ट किया गया है कि नबी (सल्ल०) ने अल्लाह को नहीं, बल्कि हज़रत जिबरील (अलैहि०) को देखा था। दूसरे ये रिवायतें कुरआन मजीद के बयानों से टकराती भी हैं। इसलिए इनकी बात किसी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकती।]
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱللَّٰتَ وَٱلۡعُزَّىٰ ۝ 18
(19-20) अब तनिक बताओ, तुमने कभी इस लात' और इस उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?15
15. अर्थ यह है कि जो शिक्षा मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं उसको तुम लोग गुमराही और पथभ्रष्टता करार देते हो, हालाँकि यह ज्ञान उनको अल्लाह की ओर से दिया जा रहा है और अल्लाह उनको आँखों से वे वास्तविकताएँ दिखा चुका है, जिनकी गवाही वे तुम्हारे सामने दे रहे हैं। अब ज़रा तुम ख़ुद देखो कि जिन अक़ीदों की पैरवी पर तुम आग्रह किए चले जा रहे हो वे कितनी अनुचित हैं और उनके मुक़ाबले में जो व्यक्ति तुम्हें सीधा रास्ता बता रहा है उसका विरोध करके आख़िर तुम किसको हानि पहुँचा रहे हो। इस सिलसिले में मुख्य रूप से उन तीन देवियों को उदाहरण के रूप में लिया गया है जिनको मक्का, ताइफ़, मदीना और हिजाज़ के आस-पास के लोग सबसे ज़्यादा पूजते थे। उनके बारे में सवाल किया गया है कि कभी तुमने बुद्धि से काम लेकर सोचा भी कि ज़मीन व आसमान की खुदाई के मामलों में इनका कोई मामूली-सा दखल भी हो सकता है ? या जगत् के स्वामी से वास्तव में इनका कोई रिश्ता हो सकता है? (1) लात का स्थान ताइफ़ में था और बनी सकीफ़ उसके इस सीमा तक श्रद्धालु थे कि जब अबरहा हाथियों की फ़ौज लेकर खानाकाबा को तोड़ने के लिए मक्का पर चढ़ाई करने जा रहा था, उस समय उन लोगों ने केवल अपने इस उपास्य के आस्ताने को बचाने के लिए उस ज़ालिम को मक्का का रास्ता बताने के लिए मार्गदर्शक (गाइड) दिए, ताकि वह लात को हाथ न लगाए. हालाँकि तमाम अरबवालों की तरह सकीफ़ के लोग भी यह मानते थे कि काबा अल्लाह का घर है। लात के अर्थ में विद्वानों में मतभेद है। इब्ने जरीर तबरी की खोज यह है कि यह अल्लाह का स्त्रीलिंग है, अर्थात् वास्तव में यह शब्द अल्लाहतुन था जिसे अल्लात कर दिया गया। जमख़्शरी के नज़दीक यह लवा-यलवा से बना है, जिसके अर्थ मुड़ने और किसी की ओर झुकने के हैं। चूँकि मुशरिक लोग इबादत के लिए उसकी ओर रुजू करते और उसके आगे झुकते और उसका तवाफ़ (परिक्रमा) करते थे, इसलिए इसको लात कहा जाने लगा। (2) 'उज्जा' इज्जत से है और इसका अर्थ इज्जतवाली है। यह कुरैश की ख़ास देवी थी और इसका स्थान मक्का और ताइफ के बीच नख्ला की घाटी में हुराज़ नामक जगह पर स्थित था। काबा की तरह इसकी ओर भी हदी (कुरबानी) के जानवर ले जाए जाते और तमाम बुतों से बढ़कर इसकी इज्जत की जाती थी। (3) मनात का स्थान मक्का और मदीना के बीच लाल सागर के किनारे क़ुदैद नामक जगह पर था और ख़ास तौर पर खुजाआ और औस व ख़ज़रज के लोग इसके प्रति बहुत श्रद्धा-भाव रखते थे। इसका हज और तवाफ़ (परिक्रमा) किया जाता और इसपर नज़ की कुरबानियाँ चढ़ाई जाती थीं। हज के ज़माने में जब हाजी लोग बैतुल्लाह (काबा) के तवाफ़ और अरफ़ात और मिना से फ़ारिग़ हो जाते तो वहीं से मनात की ज़ियारत (दर्शन) के लिए लब्बैक-लब्बैक (मैं हाज़िर हूँ, मैं हाज़िर हूँ) की आवाजें ऊँची की जाती और जो लोग इस दूसरे 'हज' की नीयत कर लेते, वे सफ़ा और मरवा के दर्मियान 'सई' न करते थे।
وَمَنَوٰةَ ٱلثَّالِثَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰٓ ۝ 19
0
أَلَكُمُ ٱلذَّكَرُ وَلَهُ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 20
(21) क्या बेटे तुम्हारे लिए हैं और बेटियाँ ख़ुदा के लिए?16
16. अर्थात् इन देवियों को तुमने सारे जहानों के पालनहार अल्लाह की बेटियाँ क़रार दे दिया और यह बेहूदा अक़ीदा ईजाद करते वक़्त तुमने यह भी न सोचा कि अपने लिए तो तुम बेटी की पैदाइश को अपमान समझते हो और चाहते हो कि तुम्हें बेटा मिले, मगर अल्लाह के लिए तुम औलाद भी प्रस्तावित करते हो तो बेटियाँ।
تِلۡكَ إِذٗا قِسۡمَةٞ ضِيزَىٰٓ ۝ 21
(22) यह तो फिर बड़ी धांधली का बँटवारा हुआ!
إِنۡ هِيَ إِلَّآ أَسۡمَآءٞ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَمَا تَهۡوَى ٱلۡأَنفُسُۖ وَلَقَدۡ جَآءَهُم مِّن رَّبِّهِمُ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 22
(23) वास्तव में ये कुछ नहीं हैं, मगर बस कुछ नाम जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इनके लिए कोई सनद नहीं उतारी।17 वास्ताविकता यह है कि लोग सिर्फ अटकल के पीछे चल रहे हैं और मन की इच्छाओं के भक्त बने हुए हैं।18 हालाँकि उनके रब की ओर से उनके पास मार्गदर्शन आ चुका है।19
17. अर्थात् तुम जिनको देवी और देवता कहते हो, वे न देवियाँ हैं और न देवता, न उनके अन्दर ईश्वरत्व (ख़ुदा होने) का कोई गुण पाया जाता है, न खुदाई के अधिकारों का कोई मामूली-सा हिस्सा उन्हें हासिल है। तुमने अपने तौर पर उनको ख़ुदा की सन्तान और उपास्य और ख़ुदाई में शरीक ठहरा लिया है। ख़ुदा की ओर से कोई प्रमाण ऐसा नहीं आया है जिसे तुम अपनी इन काल्पनिक बातों के प्रमाण में पेश कर सको।
18. दूसरे शब्दों में, उनकी गुमराही के मूल कारण दो हैं। एक यह कि वे किसी चीज़ को अपना अक़ीदा (धारणा) और दीन (धर्म) बनाने के लिए सत्य-ज्ञान की कोई ज़रूरत महसूस नहीं करते, बल्कि सिर्फ़ अटकल और गुमान से एक बात स्वीकार कर लेते हैं और फिर उसपर इस तरह ईमान ले आते हैं कि मानो वही हक़ीकत है। दूसरे यह कि उन्होंने यह रवैया असल में अपने मन की इच्छाओं की पैरवी में अपनाया है। उनका मन यह चाहता है कि कोई ऐसा उपास्य हो जो दुनिया में उनके काम तो बनाता रहे और आख़िरत अगर पेश आनेवाली हो तो वहाँ उन्हें बख्शवाने का जिम्मा भी ले ले, मगर हराम व हलाल (वैध-अवैध) की कोई पाबन्दी उनपर न लगाए और नैतिकता के किसी ज़ाब्ले में उनको न कसे। इसी लिए वे नबियों के लाए हुए तरीक़े पर एक ख़ुदा की चन्दगी करने के लिए तैयार नहीं होते और इन ख़ुद के घड़े हुए देवियों और देवताओं की इबादत ही उनको पसन्द आती है।
أَمۡ لِلۡإِنسَٰنِ مَا تَمَنَّىٰ ۝ 23
(24) क्या इसान जो कुछ चाहे उसके लिए वही सत्य है?20
20. इस आयत का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि क्या इंसान को यह अधिकार है कि जिसको चाहे उपास्य बना ले? और एक तीसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि क्या इंसान इन उपास्यों से अपनी मुरादें पा लेने की जो तमन्ना रखता है, वह कभी पूरी हो सकती है?
فَلِلَّهِ ٱلۡأٓخِرَةُ وَٱلۡأُولَىٰ ۝ 24
(25) दुनिया और आख़िरत का मालिक तो अल्लाह ही है।
۞وَكَم مِّن مَّلَكٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ لَا تُغۡنِي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـًٔا إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ أَن يَأۡذَنَ ٱللَّهُ لِمَن يَشَآءُ وَيَرۡضَىٰٓ ۝ 25
(26) आसमानों में कितने ही फ़रिश्ते मौजूद हैं, उनकी सिफ़ारिश कुछ भी काम नहीं आ सकती जब तक कि अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति के हक में उसकी इजाज़त न दे जिसके लिए वह कोई निवेदन सुनना चाहे और उसको पसन्द करे।21
21. अर्थात् तमाम फ़रिश्ते मिलकर भी अगर किसी की शिफ़ारिश' करें तो वह उसके हक़ में लाभप्रद नहीं हो सकती, कहाँ यह कि तुम्हारे इन बनावटी उपास्यों की सिफ़ारिश किसी की बिगड़ी बना सके। ख़ुदाई के अधिकार सारे के सारे बिल्कुल अल्लाह के हाथ में हैं । फ़रिश्ते भी उसके समक्ष किसी की सिफ़ारिश करने की उस वक्त तक हिम्मत नहीं कर सकते, जब तक वह उन्हें इसकी इजाज़त न दे और किसी के हक़ में उनकी सिफ़ारिश सुनने पर राज़ी न हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ لَيُسَمُّونَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ تَسۡمِيَةَ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 26
(27) मगर जो लोग आखिरत को नहीं मानते, वे फरिश्तों को देवियों की संज्ञा देते हैं,22
22. अर्थात् एक मूर्खता तो उनकी यह है कि इन अधिकारविहीन फ़रिश्तों को, जो अल्लाह से सिफारिंश तक करने की हिम्मत नहीं रखते, उन्होंने उपास्य बना लिया है। इसपर और मूर्खता यह कि वे उन्हें औरतें समझते हैं और उनको खुदा की बेटियाँ करार देते हैं। इन सारी अज्ञानताओं में उनके लिप्त होने का मूल कारण यह है कि वे आख़िरत को नहीं मानते। अगर वे आखिरत को माननेवाले होते तो कभी ऐसी ग़ैर- ज़िम्मेदाराना बातें न कर सकते थे। आखिरत के इंकार ने उन्हें अंजाम से निश्चिन्त बना दिया है और वे समझते हैं कि ख़ुदा को मानने या न मानने, या हज़ारों ख़ुदा मान बैठने से कोई अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि इनमें से किसी अक़ीदे का भी कोई अच्छा या बुरा नतीजा दुनिया की मौजूदा जिंदगी में निकलता नज़र नहीं आता। ख़ुदा का इंकार करनेवाले हों, या मुशरिक लोग या एक अल्लाह को माननेवाले (एकेश्वरवादी), सबको खेतियाँ पकती हैं और जलती भी हैं। सब बीमार भी होते हैं और स्वस्थ भी होते रहते हैं। हर तरह के अच्छे और बुरे हालात सबपर गुज़रते हैं, इसलिए यह उनके नज़दीक कोई बड़ा महत्त्वपूर्ण और गम्भीर मामला नहीं है कि आदमी किसी को उपास्य माने या न माने या जितने और जैसे चाहे उपास्य बना ले। सत्य और असत्य का फ़ैसला जब उनके नज़दीक इसी दुनिया में होता है और उसका आश्रय इसी दुनिया में जाहिर होनेवाले नतीजों पर है तो ज़ाहिर है कि यहाँ के नतीजे न किसी अक़ीदे के सत्य होने का निश्चित फैसला कर देते हैं न किसी दूसरे अक़ीदे के असत्य होने का। इसलिए ऐसे लोगों के लिए एक अक़ीदे को अपनाना और दूसरे अकीदे को रद्द कर देना सिर्फ एक मनमौजी मामला है।
وَمَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّۖ وَإِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـٔٗا ۝ 27
(28) हालाँकि इस मामले का कोई ज्ञान उन्हें प्राप्त नहीं है, वे केवल अटकल के पीछे चल रहे हैं,23 और अटकल सत्य की जगह कुछ भी काम नहीं दे सकती।
23. अर्थात् फरिश्तों के बारे में यह अक़ीदा उन्होंने कुछ इस वजह से नहीं अपनाया है कि उन्हें ज्ञान के किसी माध्यम से यह मालूम हो गया है कि वे औरतें हैं और खुदा की बेटियाँ हैं, बल्कि उन्होंने सिर्फ़ अपनी अटकल और गुमान से एक बात मान ली है और उसपर ये आस्ताने बनाए बैठे हैं जिनसे मुरादें माँगी जा रही हैं और नज़रें और नियाजें इनपर चढ़ाई जा रही हैं।
فَأَعۡرِضۡ عَن مَّن تَوَلَّىٰ عَن ذِكۡرِنَا وَلَمۡ يُرِدۡ إِلَّا ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 28
(29) अत: ऐ नबी ! जो व्यक्ति हमारे ज़िक्र से मुँह फेरता है24 और दुनिया की जिंदगी के सिवा जिसे कुछ अभीष्ट नहीं है, उसे उसके हाल पर छोड़ दो।25
24. ज़िक्र का शब्द यहाँ कई अर्थ दे रहा है। इससे तात्पर्य क़ुरआन भी हो सकता है, सिर्फ नसीहत भी मुराद हो सकती है, और इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि खुदा का ज़िक्र (नाम) सुनना ही जिसे गवारा नहीं है।
25. अर्थात् उसके पीछे न पड़ो और उसे समझाने पर अपना वक़्त बर्बाद न करो, क्योंकि ऐसा [भौतिकवादी और अनीश्वरवादी] व्यक्ति किसी ऐसी दावत को क़बूल करने के लिए तैयार न होगा जिसकी नींव ईश्वरवाद पर हो, जो दुनिया के भौतिक लाभों से उच्चतर उद्देश्यों और मूल्यों की ओर बुलाती हो और जिसमें मूल उद्देश्य आख़िरत की शाश्वत सफलता और कल्याण को क़रार दिया जा रहा हो। इस क़िस्म के भौतिकवादी और ईश-विमुख इंसान पर अपनी मेहनत लगाने के बजाय तवज्जोह उन लोगों की ओर करो जो ख़ुदा का ज़िक्र सुनने के लिए तैयार हों और सांसारिकता (भौतिकवाद) के रोग के शिकार न हों।
ذَٰلِكَ مَبۡلَغُهُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 29
(30) इन लोगों26 के ज्ञान की पहुँच बस यहीं तक है।27 यह बात तेरा रब ही अधिक जानता है कि उसके रास्ते से कौन भटक गया है और कौन सीधे रास्ते पर है,
26. यह सन्दर्भ से हटकर बीच में आया एक वाक्य है जो वार्ता-क्रम को बीच में तोड़कर पिछली बात के स्पष्टीकरण के रूप में कहा गया है।
27. अर्थात् ये लोग दुनिया और उसके लाभों से आगे न कुछ जानते हैं, न सोच सकते हैं, इसलिए इनपर मेहनत लगाना व्यर्थ है।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ بِمَا عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ بِٱلۡحُسۡنَى ۝ 30
(31) और ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का मालिक अल्लाह ही है,28- ताकि अल्लाह29 बुराई करनेवालों को उनके कर्म का बदला दे और उन लोगों को अच्छी जज़ा (बदला) से नवाज़े जिन्होंने अच्छी नीति अपनाई है,
28. दूसरे शब्दों में, किसी आदमी के पथभ्रष्ट या संमार्ग पर होने का फैसला न इस दुनिया में होना है, न इसका फ़ैसला दुनिया के लोगों की राय पर छोड़ा गया है। इसका फ़ैसला तो अल्लाह के हाथ में है। वही ज़मीन व आसमान का मालिक है और उसी को यह मालूम है कि दुनिया के लोग जिन अलग-अलग राहों पर चल रहे हैं उनमें से सन्मार्ग कौन-सा है और पथभ्रष्टता की राह कौन-सी है। इसलिए तुम इस बात की कोई परवाह न करो कि यह अरब के मुशरिक और ये मक्का के इस्लाम-विरोधी तुमको बहका और भटका हुआ आदमी बता रहे हैं और अपने अज्ञान ही को सत्य और संमार्ग समझ रहे हैं। ये अगर अपने इसी झूठ दंभ में मग्न रहना चाहते हैं तो इन्हें मग्न रहने दो। इनसे वाद-विवादों में समय नष्ट करने और सिर खपाने की कोई ज़रूरत नहीं।
29. यहाँ से फिर वही वार्ता-क्रम शुरू हो जाता है जो ऊपर से चला आ रहा था। मानो सन्दर्भ से हटकर बीच में आए वाक्य को छोड़कर वार्ता-क्रम यूँ है, "उसे उसके हाल पर छोड़ दो, ताकि अल्लाह बुराई करनेवालों को उनके कर्म का बदला दे।"
ٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ إِلَّا ٱللَّمَمَۚ إِنَّ رَبَّكَ وَٰسِعُ ٱلۡمَغۡفِرَةِۚ هُوَ أَعۡلَمُ بِكُمۡ إِذۡ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَإِذۡ أَنتُمۡ أَجِنَّةٞ فِي بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡۖ فَلَا تُزَكُّوٓاْ أَنفُسَكُمۡۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱتَّقَىٰٓ ۝ 31
(32) जो बड़े-बड़े गुनाहों30 और खुले-खुले अश्लील कर्मों31 से बचते हैं, यह और बात है कि कुछ कुसूर उनसे हो जाए।32 बेशक तेरे रब की माफ़ी का दामन बहुत विस्तृत है।33 वह तुम्हें उस समय से खूब जानता है जब उसने ज़मीन से तुम्हें पैदा किया और जब तुम अपनी माँओं के पेटों में अभी भ्रूण अवस्था ही में थे। अतएव अपने मन की पवित्रता के दावे न करो, वही अच्छी तरह जानता है कि वास्तव में डर रखनेवाला (मुत्तकी) कौन हैं।
30. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-4 निसा, टिप्पणी 53
31. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अनआम, टिप्पणी 130; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 89
أَفَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي تَوَلَّىٰ ۝ 32
(33-34) फिर ऐ नबी! तुमने उस व्यक्ति को भी देखा जो अल्लाह के मार्ग से फिर गया और थोड़ा-सा देकर रुक गया?34
34. इशारा हैं वलीद बिन मुगीरह की ओर जो क़ुरैश के बड़े सरदारों में से एक था। इब्ने जरीर तबरी की रिवायत है कि यह व्यक्ति पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दावत क़बूल करने पर तैयार हो गया था, मगर जब उसके एक मुशरिक दोस्त को मालूम हुआ कि वह मुसलमान होने का इरादा कर रहा है तो उसने कहा कि तुम बाप-दादा के धर्म को न छोड़ो, अगर तुम्हें आख़िरत के अज़ाब का ख़तरा है तो मुझे इतनी रकम दे दो, मैं जिम्मा लेता हूँ कि तुम्हारे बदले वहाँ का अज़ाब मैं भुगत लूँगा। वलीद ने यह बात मान ली और अल्लाह की राह पर आते-आते उससे फिर गया, मगर जो रक़म उसने अपने मुशरिक दोस्त को देनी तय की थी, वह भी बस थोड़ी-सी दी और बाकी रोक ली। इस घटना की ओर संकेत करने से अभिप्राय मक्का के इस्लाम-विरोधियों को यह बताना था कि आखिरत से निश्चिन्तता और दीन की वास्तविकता से बेख़बरी ने उनको कैसी अज्ञानताओं और मूर्खताओं में डाल रखा है।
وَأَعۡطَىٰ قَلِيلٗا وَأَكۡدَىٰٓ ۝ 33
0
أَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلۡغَيۡبِ فَهُوَ يَرَىٰٓ ۝ 34
(35) क्या उसके पास परोक्ष का ज्ञान है कि वह वास्तविकता को देख रहा है?35
35. अर्थात् क्या उसे मालूम है कि यह रवैया उसके लिए लाभप्रद है? क्या वह जानता है कि आख़िरत के आजाब से कोई इस प्रकार भी बच सकता है?
أَمۡ لَمۡ يُنَبَّأۡ بِمَا فِي صُحُفِ مُوسَىٰ ۝ 35
(36-37) क्या उसे उन बातों को कोई ख़बर नहीं पहुँची जो मूसा के ग्रन्थों और उस इबराहीम के ग्रन्थों में बयान हुई हैं जिसने वफ़ा का हक़ अदा कर दिया?36
36. आगे उन शिक्षाओं का सारांश बयान किया जा रहा है जो हज़रत मूसा और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ग्रन्थों में अवतरित हुई थीं। हज़रत मूसा (अलैहि०) के ग्रन्थों से तात्पर्य तौरात है। रहे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ग्रन्थ तो वे आज दुनिया में कहीं मौजूद नहीं हैं और यहूदियों और ईसाइयों के पवित्र ग्रन्थों में भी उनका कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। केवल कुरआन मजीद ही वह किताब है जिसमें दो जगहों पर इबराहीमी-ग्रन्थों की शिक्षाओं के कुछ अंश उद्धधृत किए गए हैं, एक यह जगह, दूसरी सूरा-87 अल-आला की अन्तिम आयतें।
وَإِبۡرَٰهِيمَ ٱلَّذِي وَفَّىٰٓ ۝ 36
0
أَلَّا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰ ۝ 37
(38) "यह कि कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा,37
37. इस आयत से तीन बड़े उसूल निकलते हैं। एक यह कि हर व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का ज़िम्मेदार है। दूसरा यह कि एक व्यक्ति के काम की ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती, अलावा इसके कि उस काम के होने में उसका अपना कोई हिस्सा हो। तीसरा यह कि कोई व्यक्ति अगर चाहे भी तो किसी दूसरे व्यक्ति के कार्य की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले सकता, न असल अपराधी को इस आधार पर छोड़ा जा सकता है कि उसकी जगह सज़ा भुगतने के लिए कोई और व्यक्ति अपने आपको पेश कर रहा है।
وَأَن لَّيۡسَ لِلۡإِنسَٰنِ إِلَّا مَا سَعَىٰ ۝ 38
(39) और यह कि इंसान के लिए कुछ नहीं है मगर वह जिसके लिए उसने प्रयास किया है,38
38. इस कथन से तीन महत्त्वपूर्ण नियम निकलते हैं। एक, यह कि हर व्यक्ति जो कुछ भी पाएगा, अपने कर्म का फल पाएगा। दूसरा, यह कि एक व्यक्ति के कर्म का फल दूसरा नहीं पा सकता, अलावा इसके कि उस कर्म में उसका अपना कोई हिस्सा हो। तीसरा, यह कि कोई व्यक्ति प्रयत्न व कार्य के बिना कुछ नहीं पा सकता। इन तीनों नियमों को कुछ लोग संसार के आर्थिक मामलों पर ग़लत तरीके से लागू करके इनसे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कोई व्यक्ति अपनी मेहनत की कमाई के सिवा किसी चीज़ का वैध मालिक नहीं हो सकता। लेकिन यह बात कुरआन मजीद ही के दिए हुई अनेक क़ानूनों और आदेशों से टकराती है। जैसे विरासत का क़ानून, जिसके अनुसार एक व्यक्ति की छोड़ी हुई सम्पत्ति में से बहुत-से लोग हिस्सा पाते हैं और उसके जायज वारिस करार पाते हैं, जबकि यह मीरास उनकी अपनी मेहनत की कमाई नहीं होती। इसी तरह ज़कात और सदक़ों का आदेश, जिनके अनुसार एक आदमी का माल दूसरों को सिर्फ़ उनके शरई और अख्लाक़ी हक़ की बुनियाद पर मिलता है और वे उसके जायज़ मालिक होते हैं, हालाँकि इस माल के पैदा करने में उनकी मेहनत का कोई हिस्सा नहीं होता। कुछ दूसरे लोग इन नियमों को आख़िरत से सम्बद्ध मानकर ये प्रश्न करते हैं कि क्या इन नियमों के अनुसार एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति के लिए किसी रूप में भी लाभप्रद हो सकता है? और क्या एक व्यक्ति अगर दूसरे आदमी के लिए या उसके बदले कोई कर्म करे तो वह उसकी ओर से स्वीकार किया जा सकता है? और क्या यह भी संभव है कि एक व्यक्ति अपने कर्म के बदले (सवाब) को दूसरे की ओर हस्तांतरित कर सके? इन प्रश्नों का उत्तर अगर नहीं में हो तो 'ईसाले-सवाब' (सुकर्म-फल किसी मित्र-व्यक्ति को भेजना) और हज्जे-बदल' (किसी व्यक्ति के बदले में हज करना) आदि सब अवैध हो जाते हैं, बल्कि दूसरे के हक़ में इस्तिग़फ़ार (माफ़ी) की दुआ भी निरर्थक हो जाती है, क्योंकि यह दुआ भी उस व्यक्ति का अपना अमल नहीं है जिसके हक़ में यह दुआ की जाए। मगर यह आत्यांतिक दृष्टिकोण मोअतजिला के सिवा मुसलमानों में से किसी ने नहीं अपनाए हैं। अहले-सुन्नत एक व्यक्ति के लिए दूसरे की दुआ के लाभप्रद होने को तो सर्वसम्मति से मानते हैं, क्योंकि वह क़ुरआन से सिद्ध है, अलबत्ता 'ईसाले-सवाब' और दूसरे के बदले उसकी ओर से किसी नेक काम के लाभप्रद होने में उनके बीच सैद्धान्तिक रूप में नहीं, बल्कि केवल विवरणों में मतभेद है- (1) 'ईसाले-सवाब' यह है कि एक आदमी कोई नेक काम करके अल्लाह से दुआ करे कि उसका अज व सवाब (पुण्य) किसी दूसरे व्यक्ति को दे दिया जाए। इस मामले में इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़ई (रह०) फ़रमाते हैं कि ख़ालिस बदनी (शारीरिक) इबादतें, जैसे नमाज़, रोज़ा और क़ुरआन की तिलावत आदि का सवाब दूसरे को नहीं पहुँच सकता, अलबत्ता माली इबादतें, जैसे सदक़ा या माली व बदनी मिली-जुली इबादतें, जैसे हज का सवाब दूसरे को पहुँच सकता है। इसके विपरीत हनफ़ियों का मत यह है कि इंसान अपने हर नेक अमल का सवाब दूसरे को हिबा कर सकता है, चाहे वह नमाज़ हो या रोज़ा या क़ुरआन की तिलावत या ज़िक्र या सदक़ा या हज व उमरा । यही बात बहुत-सी हदीसों से भी साबित है। मगर इस सिलसिले में चार बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ- एक यह कि ईसाल उसी कर्म के सवाब का हो सकता है जो सिर्फ अल्लाह के लिए और शरीअत के नियमों के अनुसार किया गया हो, वरना स्पष्ट है कि और अल्लाह के लिए या शरीअत के विरुद्ध जो काम किया जाए उसपर खुद अमल करनेवाले ही को किसी प्रकार का सवाब नहीं मिल सकता, यहाँ यह कि वह किसी दूसरे को दिया जा सके। दूसरी बात यह है कि जो लोग अल्लाह के यहाँ नेक और सदाचारी लोगों की हैसियत से मेहमान हैं, उनको तो सवाब का हदिया (उपहार) निश्चित ही पहुँचेगा। मगर जो वहाँ अपराधी के रूप में हवालात में बन्द हैं, उन्हें किसी सवाब के पहुँचाने की आशा नहीं है । अल्लाह के मेहमानों को तोहफ़ा तो पहुँच सकता है, मगर आशा नहीं कि अल्लाह के अपराधी को तोहफ़ा पहुँच सके। उसके लिए अगर कोई व्यक्ति किसी ग़लतफ़हमी की बुनियाद पर ईसाले-सवाब करेगा तो उसका सवाब नष्ट न होगा, बल्कि अपराधी को पहुँचने के बजाय असल करनेवाले ही की ओर पलट आएगा, जैसे मनीआर्डर अगर भेजे जानेवाले को न पहुँचे तो भेजनेवाले वापस मिल जाता है। तीसरी बात यह है कि 'ईसाले-सवाब' तो सम्भव है, पर 'ईसाले-अज़ाब' संभव नहीं है, यानी यह तो हो सकता है कि आदमी नेकी करके किसी दूसरे के लिए सवाब बख़्श दे और वह उसको पहुँच जाए, मगर यह नहीं हो सकता कि आदमी गुनाह करके उसका अज़ाब किसी को बखो और वह उसे पहुँच जाए। और, चौथी, बात यह है कि नेक काम के दो लाभ हैं- एक, इसके वे नतीजे जो कर्म करनेवाले की अपनी रूह और उसके अख़लाक़ पर पड़ते हैं और जिनके आधार पर वह अल्लाह के यहाँ भी जज़ा (सवाब) का हक़दार होता है। दूसरे, इसका वह अज़ जो अल्लाह पुरस्कार के रूप में उसे देता है। 'ईसाले-सवाब' का ताल्लुक़ पहली चीज़ से नहीं है, बल्कि सिर्फ दूसरी चीज़ से है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक व्यक्ति व्यायाम करके कुश्ती की कला में महारत हासिल करने की कोशिश करता है। इससे जो ताक़त और महारत उसमें पैदा होती है वह बहरहाल उसकी ज़ात ही के लिए खास है, दूसरे की ओर वह हस्तान्तरित नहीं हो सकती। इसी तरह अगर वह किसी दरबार का नौकर है और पहलवान को हैसियत से उसके लिए एक वेतन निश्चित है, तो वह भी उसी को मिलेगा किसी और को न दिया जाएगा। अलबत्ता जो इनाम उसके बेहतर काम पर प्रसन्न होकर उसका संरक्षक उसे दे, उसके हक़ में वह निवेदन कर सकता है कि वह उसके गुरु, या माँ-बाप या दूसरे उपकारियों को उसकी ओर से दे दिए जाएँ। ऐसा ही मामला भले कामों का है कि उनके आध्यात्मिक लाभ दूसरों को नहीं दिए जा सकते और उनका बदला किसी को नहीं दिया जा सकता, मगर उनके अज्र व सवाब के बारे में वह अल्लाह से दुआ कर सकता है कि वह उसके किसी क़रीबी रिश्तेदार या उसके किसी उपकारी को दे दिया जाए। इसी लिए इसको 'ईसाले-जजा' (जज़ा का पहुँचाना) नहीं, बल्कि 'ईसाले-सवाब' कहा जाता है। (2) एक व्यक्ति की कोशिश के किसी और व्यक्ति के लिए लाभदायक होने की दूसरी शक्ल यह है कि आदमी या तो दूसरे की इच्छा और संकेत के कारण उसके लिए कोई नेक काम करे या उसकी इच्छा और संकेत के बिना उसकी ओर से कोई ऐसा कर्म करे जो वास्तव में अनिवार्य तो उसके जिम्मे था, मगर वह स्वयं उसे अदा न कर सका। इसके बारे में हनफ़ी फुकहा (धर्मशास्त्री) कहते हैं कि इबादतें तीन प्रकार की होती हैं। एक खालिस बदनी, जैसे नमाज। दूसरी ख़ालिस माली, जैसे जकात। और तीसरी बदनी और मालो मिली-जुली, जैसे हज। इनमें से पहली किस्म में नियावत (नायब बनाना) नहीं चल सकती, जैसे एक व्यक्ति की ओर से दूसरा व्यक्ति नायब (प्रतिनिधि) बनकर नमाज नहीं पढ़ सकता। दूसरी क़िस्म में नियाचत हो सकती है, जैसे बीवी के जेवरों की जकात शौहर दे सकता है। तीसरी क़िस्म में नियाबत सिर्फ़ उस शक्ल में हो सकती है, जबकि असल आदमी जिसकी ओर से कोई काम किया जा रहा है, अपनी जिम्मेदारी स्वयं अदा करने से अस्थाई रूप से नहीं, बल्कि अस्थाई रूप से विवश हो, जैसे हज्जे-बदल (बदले में हज) ऐसे आदमी की ओर से हो सकता है जो स्वयं हज के लिए जाने की शक्ति न रखता हो और न यह आशा हो कि वह कभी इस योग्य हो सकेगा। मालिकी और शाफ़िई भी इसके क़ायल हैं। अलबत्ता इमाम मालिक हज्जे-बदल के लिए यह शर्त लगाते हैं कि अगर बाप ने वसीयत की हो कि उसका बेटा उसके बाद उसकी ओर से हज करे तो वह हज्जे-बदल कर सकता है वरना नहीं। मगर हदीसें इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट हैं कि बाप का इशारा या वसीयत हो या न हो, बेटा उसकी ओर से हज्जे-बदल कर सकता है। इस सिलसिले में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि नायब के रूप में किसी फ़र्ज का अदा करना सिर्फ उन्हीं लोगों के हक में लाभप्रद हो सकता है जो खुद फ़र्ज़ अदा करने के इच्छुक हों और मजबूरी की वजह से अदा न कर सके हों। लेकिन अगर किसी आदमी ने सामर्थ्य के बावजूद जान-बूझकर हज नहीं किया और उसके दिल में इस फर्ज का एहसास तक न था, उसके लिए चाहे कितने ही हजे-बदल किए जाएँ, वे उसके हक में लाभप्रद नहीं हो सकते।
وَأَنَّ سَعۡيَهُۥ سَوۡفَ يُرَىٰ ۝ 39
(40) और यह कि उसका प्रयास बहुत जल्द ही देखा जाएगा,39
39. अर्थात् आख़िरत में लोगों के कामों की जाँच-पड़ताल होगी और यह देखा जाएगा कि कौन क्या करके आया है। यह वाक्य चूकि पहले वाक्य के तुरन्त बाद आया है, इसलिए इससे अपने आप यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पहले वाक्य का ताल्लुक आख़िरत के इनाम व सज़ा ही से है और उन लोगों की बात सही नहीं है जो इसे इस दुनिया के लिए एक आर्थिक नियम बनाकर पेश करते हैं। कुरआन को किसी आयत का ऐसा मतलब लेना सही नहीं हो सकता जो प्रसंग व सन्दर्भ के भी विरुद्ध हो और कुरआन के दूसरे स्पष्टीकरणों से भी टकराता हो।
ثُمَّ يُجۡزَىٰهُ ٱلۡجَزَآءَ ٱلۡأَوۡفَىٰ ۝ 40
(41) फिर उसका पूरा बदला उसे दे दिया जाएगा,
وَأَنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 41
(42) और यह कि आख़िरकार पहुँचना तेरे रब ही के पास है,
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَضۡحَكَ وَأَبۡكَىٰ ۝ 42
(43) और यह कि उसी ने हँसाया और उसी ने रुलाया,40
40. अर्थात् खुशी और दुख, दोनों के असबाब (उपक्रम) उसी की ओर से हैं। अच्छे और बुरे भाग्य को डोर उसी के हाथ में है। किसी को अगर राहत और खुशी मिली है तो उसी के देने से हुई है और किसी को मुमोचतों और दुखों से वास्ता पड़ा है तो उसी की इच्छा से पड़ा है। कोई दूसरी हस्ती इस स्ष्टि में ऐसी नही है जिसका भाग्यों के बनाने और बिगाड़ने में किसी तरह का हाथ हो।
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَمَاتَ وَأَحۡيَا ۝ 43
(44) और यह कि उसी ने मौत दी और उसी ने जिंदगी प्रदान की
وَأَنَّهُۥ خَلَقَ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰ ۝ 44
(45) और यह कि उसी ने नर और मादा का जोड़ा पैदा किया
مِن نُّطۡفَةٍ إِذَا تُمۡنَىٰ ۝ 45
(46) एक बूंद से, जब वह टपकाई जाती है,41
41. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 27-30; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 77
وَأَنَّ عَلَيۡهِ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰ ۝ 46
(47) और यह कि दूसरी जिंदगी देना भी उसी के ज़िम्मे है,42
42. ऊपर की दोनों आयतों को साथ मिलाकर इस आयत को देखा जाए तो महसूस होता है कि वार्ता के क्रम से ख़ुद ब ख़ुद अपने आप मरने के बाद की जिंदगी का प्रमाण भी निकल रहा है। जो ख़ुदा मौत देने और जिंदगी प्रदान करने की सामर्थ्य रखता है और जो ख़ुदा वीर्य की मामूली-सी बूंद से इंसान जैसा प्राणी पैदा करता है, बल्कि एक ही रचना-तत्त्व और पैदाइश के तरीके से औरत और मर्द की दो अलग-अलग जातियाँ पैदा कर दिखाता है, उसके लिए इंसान को दोबारा पैदा करना कुछ कठिन नहीं है।
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَغۡنَىٰ وَأَقۡنَىٰ ۝ 47
48) और यह कि उसी ने धनी किया और जायदाद प्रदान की,43
43. मूल अरबी में शब्द 'अक़ना' प्रयुक्त हुआ है जिसके विभिन्न अर्थ भाषाविदों और क़ुरआन के टीकाकारों ने बयान किए हैं। एक अर्थ अरज़ा' (राज़ी कर दिया), दूसरे अर्थ क़न-न-अ' (सन्तुष्ट कर दिया), तीसरा अर्थ ज़रूरत से ज़्यादा दिया, चौथा अर्थ 'अक़ना कुनयतुन' से बनाया गया है, जिसका अर्थ है बाक़ी और सुरक्षित रहनेवाला माल, जैसे मकान और ज़मीन [आदि, और] इन सबसे अलग [पाँचवां अर्थ] 'अफ़-क़-र' (फ़क़ीर अर्थात् मुहताज कर दिया)।
وَأَنَّهُۥ هُوَ رَبُّ ٱلشِّعۡرَىٰ ۝ 48
(49) और यह कि वही शिअरा (नामक तारे) का रब है,44
44. शिअरा आसमान का सबसे रौशन (प्रकाशमान) तारा है, जिसे मिर्ज़मुल-जौज़ा, अल-कलबुल अकबर, अल-कलबुल जब्बार, अश-शिअा अल-अबूर आदि नामों से भी याद किया जाता है। यह सूरज से 23 गुना अधिक रौशन है, मगर ज़मीन से इसकी दूरी आठ प्रकाश वर्ष से भी अधिक है, इसलिए यह सूरज से छोटा और कम नज़र आता है। मिस्त्रवासी इसकी पूजा करते थे, क्योंकि इसके उदय के समय में नील (दरिया) का लाभ पहुँचाने का कार्य शुरू होता था, इसलिए वे समझते थे कि यह उसी के उदय की देन है। अज्ञानकाल में अरब के लोगों का भी यह विश्वास था कि यह सितारा लोगों के भाग्य पर प्रभावी होता है। इसी आधार पर ये अरब के उपास्यों में शामिल था। अल्लाह के कथन का मतलब यह है कि तुम्हारे भाग्य शिअरा नहीं बनाता, बल्कि उसका रब बनता है।
وَأَنَّهُۥٓ أَهۡلَكَ عَادًا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 49
(50) और यह कि उसी ने प्राचीन आद45 को नष्ट किया,
45. आदे ऊला से तात्पर्य है प्राचीन आद क़ौम, जिसकी ओर हज़रत हूद (अलैहि०) भेजे गए थे।
وَثَمُودَاْ فَمَآ أَبۡقَىٰ ۝ 50
(51) और समूद को ऐसा मिटाया कि उनमें से किसी को बाक़ी न छोड़ा,
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ هُمۡ أَظۡلَمَ وَأَطۡغَىٰ ۝ 51
(52) और उनसे पहले नूह की क़ौम को तबाह किया, क्योंकि वे थे ही बड़े अत्याचारी और सरकश लोग,
وَٱلۡمُؤۡتَفِكَةَ أَهۡوَىٰ ۝ 52
(53) और औंधी गिरनेवाली बस्तियों को उठा फेंका,
فَغَشَّىٰهَا مَا غَشَّىٰ ۝ 53
(54) फिर छा दिया उनपर वह कुछ जो (तुम जानते ही हो कि) क्या छा दिया।46
46. औंधी गिरनेवाली बस्तियों से तात्पर्य लूत की क़ौम की बस्तियाँ हैं और "छा दिया उनपर जो कुछ छा दिया" से तात्पर्य शायद मृत सागर का पानी है जो उनकी बस्तियों के धरती में धंस जाने के बाद उनपर फैल गया था और आज तक वह इस क्षेत्र पर छाया हुआ है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكَ تَتَمَارَىٰ ۝ 54
(55) अत:47 ऐ इंसान ! अपने रब की किन-किन नेमतों में तू शक करेगा? 48
47. [अधिक सही बात यह है कि यह वाक्य भी हज़रत इबराहीम और हज़रत मूसा (अलैहि०) की किताबों के लेख का एक हिस्सा है, क्योंकि बाद का यह वाक्य कि "यह एक चेतावनी है पहले आई हुई चेतावनियों में से," इस बात की ओर संकेत कर रही है कि इससे पहले का पूरा वाक्य पिछली चेतावनियों में से है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत मूसा (अलैहि०) की किताबों में अवतरित हुई थीं।
48. मूल अरबी में शब्द 'त-त-मारा' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ सन्देह करने का भी है और झगड़ने का भी। सम्बोधन हर सुननेवाले से है। [अल्लाह के कथन का मतलब यह है कि पिछले नबी अपनी क़ौमों से कहते थे कि जिन नेमतों से तुम इस दुनिया में लाभ उठा रहे हो,] ये सारी नेमतें तुम्हें ख़़ुदा ने और अकेले एक ही ख़ुदा ने प्रदान की हैं, इसलिए उसी का तुम्हें कृतज्ञ होना चाहिए और उसी की बन्दगी तुम्हें करनी चाहिए। मगर वे लोग [इसमें सन्देह करते थे, इसलिए] इसको नहीं मानते थे और इसी बात पर नबियों से झगड़ते थे। अब क्या तुझे इतिहास में यह नज़र नहीं आता कि ये क़ौमें अपने इस सन्देह और इस झगड़े का क्या अंजाम देख चुकी हैं ? क्या तू भी वही सन्देह और वही झगड़ा करेगा जो दूसरों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो चुका है?
هَٰذَا نَذِيرٞ مِّنَ ٱلنُّذُرِ ٱلۡأُولَىٰٓ ۝ 55
(56) यह एक चेतावनी है पहले आई हुई चेतावनियों में से।49
49. मूल अरबी शब्द हैं 'हाज़ा नज़ीरुम मिनन-नु-ज़ुरिल ऊला'। इस वाक्य की व्याख्या में टीकाकारों के तीन कथन हैं- एक, यह कि चेतावनी से तात्पर्य मुहम्मद (सल्ल०) हैं। दूसरा, यह कि इससे तात्पर्य क़ुरआन है। तीसरे, यह कि इससे तात्पर्य पिछली नष्ट की गई क़ौमों का अंजाम है, जिसके वृत्तान्त का वर्णन उपर्युक्त आयतों में हुआ है । सन्दर्भ की दृष्टि से हमारी दृष्टि में यही तीसरी व्याख्या प्राथमिकता की अधिकारिणी है।
أَزِفَتِ ٱلۡأٓزِفَةُ ۝ 56
(57) आनेवाली घड़ी क़रीब आ लगी है।50
50. अर्थात् यह विचार न करो कि सोचने के लिए अभी बहुत समय पड़ा है। फैसले की घड़ी को दूर न समझो। जिसको भी अपने अंजाम की चिन्ता करनी है, वह एक क्षण की देर किए बिना संभल जाए, क्योंकि हर साँस के बाद यह सम्भव है कि दूसरी साँस लेने की नौबत न आए।
لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ كَاشِفَةٌ ۝ 57
(58) अल्लाह के सिवा कोई उसको हटानेवाला नहीं।51
51. अर्थात् फ़ैसले की घड़ी जब आ जाएगी तो न तुम उसे रोक सकोगे और न तुम्हारे अल्लाह के अलावा उपास्यों में से किसी का यह बलबूता है कि वह उसको टाल सके। टाल सकता है तो अल्लाह ही टाल सकता है, और वह इसे टालनेवाला नहीं है।
أَفَمِنۡ هَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ تَعۡجَبُونَ ۝ 58
(59) अब क्या यही वे बातें हैं जिनपर तुम आश्चर्य प्रकट करते हो?52
52. अर्थ यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) जिस चीज़ की ओर दावत दे रहे हैं, वह यही कुछ तो है जो तुमने सुन ली। अब क्या यही वे बातें हैं जिनपर तुम कान खड़े करते हो और आश्चर्य से इस तरह मुँह तकते हो कि मानो कोई बड़ी विचित्र और निराली बातें तुम्हें सुनाई जा रही हैं ?
وَتَضۡحَكُونَ وَلَا تَبۡكُونَ ۝ 59
(60) हँसते हो और रोते नहीं हो?53
53. अर्थात् बजाय इसके कि तुम्हें अपनी अज्ञानता और पथभ्रष्टता पर रोना आता, तुम लोग उलटा इस सच्चाई का मज़ाक़ उड़ाते हो जो तुम्हारे सामने प्रस्तुत की जा रही है।
وَأَنتُمۡ سَٰمِدُونَ ۝ 60
(61) और गा-बजाकर उन्हें टालते हो?54
54. मूल अरबी में शब्द 'सामिदून' प्रयुक्त हुआ है जिसके दो अर्थ शब्दकोष में बताए गए हैं। एक तो यह कि यमनी भाषा में सुमूद का अर्थ गाना-बजाना है और आयत का संकेत इस ओर है कि मक्का के इस्लाम-विरोधी कुरआन की आवाज़ को दबाने और लोगों का ध्यान दूसरी और हटाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से गाना शुरू कर देते थे। दूसरा अर्थ यह कि सुमूद घमंड के तौर पर सिर झुकाने को कहते हैं। मक्का के इस्लाम-विरोधी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास से जब गुज़रते तो गुस्से के साथ मुँह ऊपर उठाए हुए निकल जाते थे। इसी अर्थ की दृष्टि से 'सामिदून' का मतलब क़तादा ने 'ग़ाफ़िल लोग' और सईद बिन ज़ुबैर ने 'मुँह फेरनेवाले' बयान किया है।
فَٱسۡجُدُواْۤ لِلَّهِۤ وَٱعۡبُدُواْ۩ ۝ 61
(62) झुक जाओ अल्लाह के आगे और बन्दगी करो।55
55. इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई (रह०) और अधिकतर विद्वानों के नज़दीक इस आयत पर सजदा करना ज़रूरी है। इमाम मालिक (रह०) यद्यपि स्वयं इस की तिलावत करके सजदा ज़रूर करते थे, मगर उनका मत यह था कि यहाँ सजदा करना अनिवार्य नहीं है।