(79) जिसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता।39
39. यह खंडन है [मक्का के इस्लाम-विरोधियों के] उन आरोपों का जो वे क़ुरआन पर लगाया करते थे। वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ज्योतिषी क़रार देते थे और कहते थे कि यह वाणी आपके मन में जिन्न और शैतान डालते हैं। इसका उत्तर क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर दिया गया, जैसे सूरा-26 शूअरा में कहा गया है "इसको लेकर शैतान नहीं उतरे हैं, न यह वाणी उनको सजती है और न वे ऐसा कर ही सकते हैं। वे तो इसके सुनने तक से दूर रखे गए हैं," (आयत 210 से 212)। इसी विषय को यहाँ इन शब्दों में बयान किया गया है कि इसे "पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता।" अर्थात् शैतानों का इसे लाना या इसके उतरते समय उसमें हस्तक्षेप करना तो दूर की बात, जिस समय यह सुरक्षित पट्टिका से नबी (सल्ल०) पर उतारा जाता है, उस समय पवित्रों अर्थात् पवित्र फ़रिश्तों के सिवा कोई क़रीब फटक भी नहीं सकता। फ़रिश्तों के लिए 'पवित्रों' का शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि अल्लाह ने उनको हर प्रकार की अपवित्र भावनाओं और इच्छाओं से मुक्त रखा है।
इस आयत की यही टीका हज़रत अनस बिन मालिक (रजि०), इब्ने-अब्बास (रजि०), सईद बिन ज़ुबैर, इक्रिमा, मुजाहिद, क़तादा, अबुल आलिया, सुद्दी, जहाक़ और इब्ने-जैद (रजि०) ने बयान की है और वार्ता सन्दर्भ के साथ भी यही बात मेल खाती है, क्योंकि वार्ता-क्रम यह स्वयं बता रहा है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आखिरत के बारे में मक्का के इस्लाम विरोधियों के ग़लत विचारों का खंडन करने के बाद अब क़ुरआन मजीद के बारे में उनके झूठे गुमानों और अटकलों का खंडन किया जा रहा है और तारों की स्थितियों की क़सम खाकर यह बताया जा रहा है कि यह एक उच्च कोटि की किताब है, अल्लाह के सुरक्षित लेख में अंकित है जिसमें किसी मखलूक (सृष्टि) की घुसपैठ की कोई संभावना नहीं और नबी (सल्ल०) पर यह ऐसे तरीके से उतरती है कि पवित्र फ़रिश्तों के सिवा कोई इसे छू तक नहीं सकता। कुछ टीकाकारों ने इस आयत में 'ला' को 'नहीं' के अर्थ में लिया है और आयत का अर्थ यह बताया है कि "कोई ऐसा व्यक्ति इसे न छूए जो पवित्र न हो" या "किसी ऐसे व्यक्ति को इसे न छूना चाहिए जो अपवित्र हो", और कुछ दूसरे टीकाकार यद्यपि 'ला' को 'नहीं' के अर्थ में लेते हैं और आयत का अर्थ यह बताते हैं कि "इस किताब को 'पवित्रों' के सिवा कोई नहीं छूता।" मगर उनका कहना यह है कि यह निषेध उसी तरह 'नहीं' के अर्थ में है जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का यह कथन कि "मुसलमान मुसलमान का भाई है, वह उसपर ज़ुल्म करता।" इसमें यद्यपि ख़बर दी गई है कि मुसलमान मुसलमान पर जुल्म नहीं करता, लेकिन वास्तव में इससे यह आदेश निकलता है कि मुसलमान मुसलमान पर ज़ुल्म न करे। इसी तरह इस आयत में यद्यपि कहा गया है कि पवित्र लोगों के सिवा क़ुरआन को कोई नहीं छूता, मगर इससे आदेश यह निकलता है कि जब तक कोई व्यक्ति पवित्र न हो, वह इसको न छुए।
लेकिन वास्तविकता यह है कि यह टीका आयत के प्रसंग एवं संदर्भ से मेल नहीं खाती। संदर्भ से अलग करके तो इसके शब्दों से यह अर्थ निकाला जा सकता है, मगर जिस वार्ता-क्रम में यह आयत आई है, उसमें रखकर इसे देखा जाए तो यह कहने का सिरे से कोई अवसर दिखाई नहीं देता कि "इस किताब को पवित्र लोगों के सिवा कोई न छूए।" क्योंकि यहाँ तो इस्लाम का इंकार करनेवाले सम्बोधित हैं और उनको यह बताया जा रहा है कि यह सारे जहान के रब, अल्लाह की उतारी हुई किताब है, इसके बारे में तुम्हारा यह गुमान निश्चित रूप से ग़लत है कि इसे शैतान नबी (सल्ल.) के दिल में डाल देते हैं। इस जगह पर शरई हुक्म (धर्म-सम्बन्धी आदेश) बयान करने का आख़िर क्या मौक़ा हो सकता था कि कोई व्यक्ति पवित्रता के बिना इसको हाथ न लगाए? अधिक से अधिक जो बात कही जा सकती है, वह यह है कि यह आयत यद्यपि यह आदेश देने क लिए नहीं उतरी है, लेकिन वार्ता-सन्दर्भ इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि जिस तरह अल्लाह के यहाँ इस किताब को सिर्फ 'पवित्र' ही छू सकते हैं, उसी तरह दुनिया में भी कम से कम वे लोग, जो इसके ईश-वाणी होने पर ईमान रखते हैं, इसे नापाकी की हालत में छूने से बचें। फ़ुक़्हा (धर्मशास्त्रियों) के मस्लक (मत) इस सिलसिले में निन्नलिखित हैं-
हनफ़ी मस्लक को व्याख्या इमाम अलाउद्दीन अल-काशानी ने 'बदाइउस-सनाअ' में यूँ की है : जिस तरह बे-वुजू नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है, उसी तरह कुरआन मजीद को हाथ लगाना जाइज़ नहीं है। अलबत्ता अगर वह गिलाफ़ के अन्दर हो तो हाथ लगाया जा सकता है। ग़िलाफ़ से अभिप्रेत कुछ फ़ुक़्हा के नज़दीक जिल्द है और कुछ के नज़दीक वह थैली या लिफ़ाफ़ा या जुज़दान है जिसके अन्दर क़ुरआन रखा जाता है और उसमें से निकाला भी जा सकता है। इसी तरह टीका (तफ़सीर) की किताबों को भी बे-वुजू हाथ न लगाना चाहिए, न किसी ऐसी चीज़ को जिसमें कुरआन की कोई आयत लिखी हुई हो। अलबत्ता फ़िक़ह की किताबों को हाथ लगाया जा सकता है, अगरचे पसंदीदा यही है कि उनको भी बे-बुजू हाथ न लगाया जाए, क्योंकि इनमें भी कुरआनी आयतें प्रमाण के रूप में लिखी होती हैं। कुछ हनफ़ी फ़ुक़हा इस बात के क़ायल हैं कि किताब के सिर्फ उस हिस्से को बे-वुजू हाथ लगाना सही नहीं है जहाँ क़ुरआन की आयत लिखी हुई हो, बाक़ी रही टिप्पणियाँ, तो चाहे वे सादा हों या उनमें स्पष्टीकरण के रूप में कुछ लिखा हुआ हो, उनको हाथ लगाने में हरज नहीं। मगर सही बात यह है कि टिप्पणियाँ भी किताब ही का एक अंश हैं और उनको हाथ लगाना किताब ही को हाथ लगाना है । रहा क़ुरआन पढ़ना, तो वह वुजू के बिना जाइज़ है। फ़तावा आलमगीरी में बच्चों को इस आदेश से अलग रखा गया है। शिक्षा के लिए क़ुरआन मजीद बच्चों के हाथ में दिया जा सकता है, चाहे वे वुजू से हों या बे-वुज़ू।
शाफ़ई मस्लक को इमाम नववी ने अल-मिनहाज में इस तरह बयान किया है, "नमाज़ और तवाफ़ की तरह किताब का हाथ लगाना और उसके किसी पन्ने को छूना भी वुजू के बिना हराम है। इसी तरह क़ुरआन को जिल्द को छूना भी मना है, और अगर क़ुरआन किसी थैली, गिलाफ़ या संदूक में हो या क़ुरआन-पाठ के लिए उसका कोई अंश तख़्ती पर लिखा हुआ हो तो उसको भी हाथ लगाना जाइज़ नहीं। अलबत्ता कुरआन किसी के सामान में रखा हो या टीका की किताबों में लिखा हुआ हो या किसी सिक्के में उसका कोई अंश अंकित हो, तो उसे हाथ लगाना हलाल (वैध) है। बच्चा अगर बे-वुजू हो तो वह भी क़ुरआन को हाथ लगा सकता है और बे वुजू आदमी अगर कुरआन पढ़े तो वह लकड़ी या किसी और चीज़ से उसका पन्ना पलट सकता है।"
मालिकिया का मस्लक जो 'अल-फ़िक़ह अलल मज़ाहिबिल अर-बआ' में बयान किया गया है, वह यह है कि आम फुकहा के साथ वे इस बात में सहमत हैं कि किताब को हाथ लगाने के लिए वुजू शर्त है। लेकिन क़ुरआन की शिक्षा के लिए वे शिक्षक और छात्र दोनों को इससे अलग करते हैं। बल्कि उस औरत के लिए भी जिसे महावारी हो रही हो, शिक्षा देने के उद्देश्य से किताब को हाथ लगाना जाइज़ कहते हैं। इल्ले-कुदामा ने 'अल मुग़नी' में इमाम मालिक (रह०) का यह कथन भी उदृद्धत किया है कि जनाबत (अर्थात् वह नापाकी जिसमें गुस्ल अनिवार्य है) की हालत में तो क़ुरआन पढ़ने से मना किया गया है, मगर माहवारी की हालत में औरत को कुरआन पढ़ने की इजाज़त है, क्योंकि एक लंबी मुद्दत तक अगर हम उसे क़ुरआन पढ़ने से रोकेंगे तो वह भूल जाएगी।
हंबली मस्लक के आदेश जो इब्ने क़ुदामा ने उद्धृत किए हैं, ये हैं कि "जनाबत की हालत में और माहवारी और प्रसूति को अवस्था में क़ुरआन या उसकी किसी पूरी आयत को पढ़ना जाइज़ नहीं है, अलबत्ता बिस्मिल्लाह, अलहम्दुलिल्लाह वगैरह कहना जाइज़ है, क्योंकि यद्यपि ये भी किसी न किसी आयत के अंश हैं, मगर इनका उद्देश्य क़ुरआन पाठ नहीं होता। रहा क़ुरआन को हाथ लगाना, तो वह किसी हाल में वुजू के बिना जाइज़ नहीं, अलबत्ता क़ुरआन की कोई आयत किसी पत्र या फ़िक़ह की किसी किताब या किसी और लेख के सिलसिले में लिखी हो तो उसे हाथ लगाना मना नहीं है। इसी तरह क़ुरआन अगर किसी चीज़ में रखा हुआ हो, तो उसे वुजू के बगैर उठाया जा सकता है। टीका की पुस्तकों को हाथ लगाने के लिए भी वुजू शर्त नहीं है, साथ ही बे वुजू आदमी को अगर किसी तात्कालिक ज़रूरत के लिए क़ुरआन को हाथ लगाना पड़े, तो वह तयम्मुम कर सकता है।"
'अल-फ़िक़ह अलल मज़ाहिबिल अर-बआ' में हंबली मस्लक का यह मसला भी लिखा है कि बच्चों के लिए शिक्षा के उद्देश्य से भी वुजू के बिना क़ुरआन को हाथ लगाना ठीक नहीं है और यह उनके अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि वे क़ुरआन उनके हाथ में देने से पहले उन्हें वुज़ू कराएँ।
ज़ाहिरिया का मस्लक यह है कि कुरआन पढ़ना और उसको हाथ लगाना हर हाल में जाइज़ है, चाहे आदमी बे-वुजू हो, जनाबत की हालत में हो या औरत माहवारी की हालत में हो। इब्ने-हज़म ने अलमुहल्ला, भाग-1, पृ० 77 से 84 में इस मसले पर सविस्तार वार्ता की है, जिसमें उन्होंने इस मस्लक के सही होने की दलीलें दी हैं और यह बताया है कि फ़ुक़हा ने क़ुरआन पढ़ने और उसको हाथ लगाने के लिए जो शर्ते बयान की हैं, उनमें से कोई भी क़ुरआन और सुन्नत से प्रमाणित नहीं है।