58. अल-मुजादला
(मदीना में उतरी, आयतें 22)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम 'अल-मुजादला' भी है और 'अल-मुजादिला' भी। यह नाम पहली ही आयत के शब्द 'तुजादिलु-क' (तुमसे तकरार कर रही है) से लिया गया है।
उतरने का समय
सूरा-33 (अहज़ाब) में अल्लाह ने मुँहबोले बेटे के सगा बेटा होने को नकारते हुए केवल यह कहकर छोड़ दिया था कि "और अल्लाह ने तुम्हारी उन बीवियों (पत्नियों) को, जिनसे तुम 'ज़िहार' करते हो, तुम्हारी माएँ नहीं बना दिया है।" (ज़िहार से अभिप्रेत है पत्नी को माँ की उपमा देना।) मगर उसमें यह नहीं बताया गया था कि ज़िहार करना कोई पाप या अपराध है और न यह बताया गया था कि इस कर्म के विषय में शरीअत का क्या आदेश है। इसके विपरीत इस सूरा में ज़िहार का पूरा क़ानून बयान कर दिया गया है। इससे मालूम होता है कि ये विस्तृत आदेश उस संक्षिप्त आदेश के बाद उतरे हैं। [इस तथ्य के अन्तर्गत यह ] बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इस सूरा के उतरने का समय अहज़ाब के अभियान (शव्वाल, 05 हिजरी) के बाद का है।
विषय और वार्ता
इस सूरा में मुसलमानों को उन विभिन्न समस्याओं के बारे में आदेश दिए गए हैं जो समस्याएँ उस समय पैदा हो गई थीं। सूरा के आरंभ से आयत 6 तक ज़िहार' के बारे में शरीअत के आदेश बयान किए गए हैं और उसके साथ मुसलमानों को अत्यन्त कड़ाई के साथ सावधान किया गया है कि इस्लाम के बाद भी अज्ञानकाल के तरीक़ों पर जमे रहना और अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाओं को तोड़ना निश्चित रूप से ईमान के विपरीत कर्म है, जिसकी सज़ा दुनिया में भी अपमान और अपयश है और आख़िरत में भी उसपर कड़ी पूछ-गच्छ होनी है। आयत 7 से 10 तक में मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की इस नीति पर पकड़ गई है कि वे आपस में गुप्त कानाफूसियाँ करके तरह-तरह की शरारतों की योजनाएँ बनाते थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यहूदियों की तरह ऐसे ढंग से सलाम करते थे, जिससे दुआ के बजाय बद-दुआ का पहलू निकलता था। इस संबंध में मुसलमानों को तसल्ली दी गई है कि मुनाफ़िक़ों की ये कानाफूसियाँ तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकर्ती, इसलिए तुम अल्लाह के भरोसे पर अपना काम करते रहो, और इसके साथ उनको यह नैतिक शिक्षा भी दी गई है कि सच्चे ईमानवालों का काम पाप और अत्याचार एवं अन्याय और रसूल की अवज्ञा के लिए कानाफूसियाँ करना नहीं है, वे अगर आपस में बैठकर एकान्त में कोई बात करें भी तो वह भलाई और ईशपरायणता (तक़वा) की बात होनी चाहिए। आयत 11 से 13 तक में मुसलमानों को सभा-सम्बन्धी कुछ नियम सिखाए गए हैं और कुछ ऐसे सामाजिक दोषों को दूर करने के लिए निर्देश दिए गए हैं जो पहले भी लोगों में पाए जाते थे और आज भी पाए जाते हैं। आयत 14 से सूरा के अन्त तक मुस्लिम समाज के लोगों को, जिनमें सच्चे ईमानवाले और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और दुविधाग्रस्त सब मिले-जुले थे, बिल्कुल दो-टूक तरीक़े से बताया गया है कि धर्म में आदमी के निष्ठावान होने की कसौटी क्या है। एक प्रकार के मुसलमान वे हैं जो इस्लाम के दुश्मनों से दोस्ती रखते हैं, अपने हित के लिए दीन से विद्रोह करने में वे कोई संकोच नहीं करते। दूसरे प्रकार के मुसलमान वे हैं जो अल्लाह के दीन (ईश्वरीय धर्म) के मामले में किसी और का ध्यान रखना तो अलग रहा स्वयं अपने बाप, भाई, सन्तान और परिवार तक की वे परवाह नहीं करते। अल्लाह ने इन आयतों में स्पष्ट रूप से कह दिया है कि पहले प्रकार के लोग चाहे कितनी ही क़समें खा-खाकर अपने मुसलमान होने का विश्वास दिलाएँ, वास्तव में वे शैतान के दल के लोग हैं और अल्लाह के दल में सम्मिलित होने का सौभाग्य केवल दूसरे प्रकार के मुसलमानों को प्राप्त है।
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