59. अल-हश्र
(मक्का में उतरी, आयतें 24)
परिचय
नाम
दूसरी आयत के वाक्यांश 'अख़-र-जल्लज़ी-न क-फ़-रू मिन अहलिल किताबि मिन दियारिहिम लिअव्वलिल हश्र' अर्थात् 'अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले (हश्र) में उनके घरों से निकाल बाहर किया' से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अल- हश्र' शब्द आया है।
उतरने का समय
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) [फ़रमाते हैं कि सूरा हश्र] बनी-नज़ीर के अभियान के बारे में उतरी थी जिस तरह सूरा-8 (अन्फ़ाल) बद्र के युद्ध के विषय में उतरी थी। [(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) विश्वस्त उल्लेखों के अनुसार इस अभियान का समय रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० है।]
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
इस सूरा की वार्ताओं को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि मदीना तय्यिबा और हिजाज़ के यहूदियों के इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाए, क्योंकि इसके बिना आदमी ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अन्ततः उनके विभिन्न क़बीलों के साथ जो मामला किया, उसके वास्तविक कारण क्या थे। [यह इतिहास पहली सदी ईसवी के अन्त से शुरू होता है,] जब सन् 70 ई० में रूमियों (रोमवासियों) ने फ़िलस्तीन में यहूदियों का क़त्ले-आम किया और फिर सन् 132 ई० में उन्हें इस भू-भाग से बिल्कुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि यह क्षेत्र फ़िलस्तीन के दक्षिण से बिल्कुल मिला हुआ था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, वहाँ ठहर गए और फिर धीरे-धीरे अपने जोड़-तोड़ और सूदी (ब्याज के) कारोबारों के ज़रिए उनपर क़ब्ज़ा जमा लिया। ऐला, मक़ना, तबूक, तैमा, वादिउल-क़ुरा, फ़दक और ख़ैबर पर उनका क़ब्ज़ा उसी समय में क़ायम हुआ और बनी-क़ुरैज़ा, बनी-नज़ीर, बनी-बहदल और बनी-कैनुक़ाअ ने भी उसी समय आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्ज़ी जमाया। यसरिब में आबाद होनेवाले क़बीलों में से बनी-नज़ीर और बनी-क़ुरेज़ा अधिक प्रसिद्ध और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उनको अपने संप्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको उन्होंने दबा लिया और व्यावहारिक रूप से इस हरी-भरी जगह के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के बाद औस और ख़ज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए [और उन्होंने कुछ दिनों बाद यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से पहले, हिजरत के आरंभ तक, हिजाज़ में सामान्य रूप से और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की स्थिति की स्पष्ट रूप-रेखाएँ ये थीं—
भाषा, पहनावा, संस्कृति एवं सभ्यता, हर दृष्टि से उन्होंने पूरी तरह से अरब-संस्कृति का रंग अपना लिया था। उनके और अरबों के बीच शादी-ब्याह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिल्कुल न हुए थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक अपने यहूदी पक्षपात को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पक्षपात और वंशगत गर्व और अहंकार पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे जिसका अर्थ केवल अपढ़ ही नहीं बल्कि असभ्य और उज्जड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन 'उम्मियों' को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका माल हर वैध या अवैध तरीक़े से मार खाना इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ थी। वे बहुत-सी ऐसी कलाएँ जानते थे जो अरबों में नहीं पाई जाती थीं और बाहर की दुनिया से उनके व्यावसायिक संबंध भी थे। वे अपने व्यापार में ख़ूब लाभ बटोरते थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था, जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फाँस रखा था। मगर इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में सामान्य रूप से उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से न बिगाड़ें और न उनकी आपसी लड़ाइयों में भाग लें। इसके अलावा अपनी रक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी न किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्रीपूर्ण संबंध भी स्थापित [कर रखे थे।] यसरिब में बनी-क़ुरैज़ा और बनी-नज़ीर औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी-क़ैनुक़ाअ ख़ज़रज के। ये परिस्थितियाँ थीं जब मदीना में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आप (सल्ल०) ने इस राज्य को स्थापित करते ही सबसे पहले जो काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई, और दूसरा यह था कि इस मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक समझौता तय किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ न डालेगा और बाहरी शत्रुओं के मुक़ाबले में ये सब मिलकर बचाव करेंगे। इस समझौते के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं—
''.....यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च, और यह कि इस समझौते में शरीक लोग हमलावर के मुक़ाबले में एक-दूसरे की मदद करने के पाबन्द होंगे, और यह कि वे शुद्ध हृदयता के साथ एक-दूसरे का हित चाहेंगे और उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक-दूसरे के साथ न्याय करेंगे। गुनाह और ज़्यादती नहीं करेंगे और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की मदद की जाएगी, और यह कि जब तक लड़ाई रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे, और यह कि उस समझौते में शरीक लोगों के लिए यसरिब में किसी भी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है, और यह कि इस समझौते में शरीक होनेवालों के दरमियान अगर कोई ऐसा विवाद या मतभेद पैदा हो जिससे फ़साद का ख़तरा हो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के क़ानून के अनुसार रसूल मुहम्मद (सल्ल०) करेंगे....... और यह कि क़ुरैश और उसका समर्थन करनेवालों को शरण नहीं दी जाएगी, और यह कि यसरिब पर जो हमलावर हो उसके मुक़ाबले में समझौते में शरीक लोग एक-दूसरे की सहायता करेंगे......... । हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का ज़िम्मेदार होगा।" (इब्ने-हिशाम, भाग 2, पृष्ठ 147-150)
यह एक निश्चित और स्पष्ट समझौता था जिसकी शर्ते यहूदियों ने स्वयं स्वीकार की थीं, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०), इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी दुश्मनी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) के विरोध को अपना जातीय लक्ष्य बना लिया। आप (सल्ल०) को पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको कणभर भी संकोच न था। समझौते के विरुद्ध खुली-खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र की लड़ाई से पहले ही वे अपना चुके थे, मगर जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों को क़ुरैश पर खुली विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनकी दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। बनी-नज़ीर का सरदार काब-बिन-अशरफ़ चीख़ उठा कि "ख़ुदा की क़सम ! अगर मुहम्मद (सल्ल०) ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है तो ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।" फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे, उनके बड़े भड़काऊ मर्सिये (शोक गीत) कहकर मक्कावालों को बदला लेने पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र की लड़ाई के बाद खुल्लम-खुल्ला अपना समझौता तोड़ दिया, बनी-क़ैनुक़ाअ था, जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा) सन् 02 हि० के अन्त में उनके महल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए [और अन्त में उन्हें] अपना सब माल-हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्ने-साद, इब्ने-हिशाम, तारीख़े-तबरी)। इसके बाद जब शव्वाल 03 हि० में कुरैश के लोग बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए तो इन यहूदियों ने समझौते का पहला और खुला विरोध इस तरह किया कि मदीना की प्रतिरक्षा में आप (सल्ल०) के साथ शरीक न हुए, हालाँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को भारी क्षति पहुँची तो उनका सहास और बढ़ गया। यहाँ तक कि बनी-नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्यंत्र रचा जो ठीक समय पर असफल हो गया। [इन घटनाओं के बाद] अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का सवाल बाक़ी ही न रहा। नबी (सल्ल०) ने उनको अविलम्ब यह चेतावनी भेज दी कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे मालूम हो गई है, इसलिए दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाओ। इसके बाद अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी आबादी में पाया जाएगा, उसकी गर्दन मार दी जाएगी। [अब्दुल्लाह-बिन-उबई के] झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल०) की चेतावनी का यह उत्तर दिया कि "हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो हो सके, कर लीजिए।" इसपर रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनका घेराव कर लिया और सिर्फ़ कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने के लिए राज़ी हो गए कि हथियार के सिवा जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लाद कर ले जा सकेंगे, ले जाएंँगे। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की धरती ख़ाली करा ली गई। उनमें से सिर्फ़ दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष शाम (सीरिया) और ख़ैबर की ओर निकल गए। यही घटना है जिसकी इस सूरा में विवेचना की गई है।
विषय और वार्ता
सूरा का विषय, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, बनी-नज़ीर के अभियान (युद्ध) की समीक्षा है। इसमें सामूहिक रूप से चार विषय बयान किए गए हैं—
- पहली चार आयतों में दुनिया को उस अंजाम से शिक्षा दिलाई गई है जो अभी-अभी बनी-नज़ीर ने देखा था। अल्लाह ने बताया है कि [बनी नज़ीर का यह देश निकाला स्वीकार कर लेना] मुसलमानों को शक्ति का चमत्कार नहीं था, बल्कि इस बात का परिणाम था कि वे अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से लड़ गए थे, और जो लोग अल्लाह की ताक़त से टकराने की दुस्साहस करें, वे ऐसे ही परिणामों से दोचार होते हैं।
- आयत 5 में युद्ध के क़ानून का यह नियम बताया गया है कि युद्ध-सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए दुश्मन के क्षेत्रों में जो ध्वंसात्मक कार्रवाई की जाए उसे धरती में फ़साद फैलाने का नाम नहीं दिया जाता।
- आयत 6 से 10 तक यह बताया गया है कि उन देशों की ज़मीनों और जायदादों का बन्दोबस्त किस तरह किया जाए जो लड़ाई या समझौते के नतीजे में इस्लामी राज्य के अधीन हो जाएँ।
- आयत 11 से 17 तक मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के उस रवैये की समीक्षा की गई है जो उन्होंने बनी-नज़ीर की लड़ाई के मौक़े पर अपनाई थी।
- आयत 18 से सूरा के अन्त तक पूरे का पूरा एक उपदेश है जिसका सम्बोधन उन तमाम लोगों से है जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में सम्मिलित हो गए हों, मगर ईमान के वास्तविक भाव से वंचित रहें। इसमें उनको बताया गया है कि वास्तव में ईमान का तक़ाज़ा क्या है।
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هُوَ ٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن دِيَٰرِهِمۡ لِأَوَّلِ ٱلۡحَشۡرِۚ مَا ظَنَنتُمۡ أَن يَخۡرُجُواْۖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمۡ حُصُونُهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَأَتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِنۡ حَيۡثُ لَمۡ يَحۡتَسِبُواْۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَۚ يُخۡرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيۡدِيهِمۡ وَأَيۡدِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فَٱعۡتَبِرُواْ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ 1
(2) वही है जिसने अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले में2 उनके घरों से निकाल बाहर किया।3 तुम्हें हरगिज़ यह गुमान न था कि वे निकल जाएँगे, और वे भी यह समझे बैठे थे कि उनकी गढ़ियाँ उन्हें अल्लाह से बचा लेंगी।4 मगर अल्लाह ऐसे रुख से उनपर आया जिधर उनका ख़्याल भी न गया था।5 उसने उनके दिलों में रौब डाल दिया। नतीजा यह निकला कि वे स्वयं अपने हाथों से भी अपने घरों को बर्बाद कर रहे थे और ईमानवालों के हाथों भी बर्बाद करवा रहे थे।6 अत: शिक्षा ग्रहण करो ऐ देखनेवाली आँख रखनेवालो!7
2. मूल अरबी शब्द हैं 'लि अव्वलिल हश्र'। हश्र का अर्थ है 'बिखरे हुए लोगों को इकट्ठा करना', या 'बिखरे हुए लोगों को जमा करके निकालना' और 'लि अव्वलिल हश्र' का अर्थ है पहले हश्र के साथ या पहले हश्र के अवसर पर। यहाँ हश्र से अभिप्रेत मुसलमानों की सेना का जमा होना है जो बनी नज़ीर से युद्ध के लिए जमा हुई थी और 'लि अव्वलिल हश्रि' का अर्थ यह है कि अभी मुसलमान उनसे लड़ने के लिए जमा ही हुए थे और मरने-मारने की नौबत भी न आई थी कि अल्लाह की कुदरत से वे देश से निकल जाने (जिला-वतनी) के लिए तैयार हो गए। दूसरे शब्दों में यहाँ ये शब्द 'पहले ही हल्ले' के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।
3. यद्यपि नबी (सल्ल०) से बनी नज़ीर का बाक़ायदा लिखित समझौता था, लेकिन उन्होंने बहुत-से छोटे-बड़े उल्लंघन करने के बाद अन्त में एक खुला काम ऐसा किया था जिसका मतलब था समझौता तोड़ देना । वह यह कि उन्होंने समझौते के दूसरे फ़रीक़ (पक्ष) अर्थात् मदीना के इस्लामी राज्य के अध्यक्ष को क़त्ल करने की साज़िश की थी और वह कुछ इस तरह खुल गई थी कि जब उनपर समझौता तोड़ने का आरोप लगाया गया तो वे उसका इंकार न कर सके। इसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको दस दिन का नोटिस दे दिया कि इस अवधि में मदीना छोड़कर निकल जाओ, वरना तुम्हारे विरुद्ध युद्ध किया जाएगा।
7. इस घटना में शिक्षा के कई पहलू हैं। सबसे पहले तो स्वयं मुसलमानों को उनके अंजाम से शिक्षा दिलाई गई कि कहीं वे भी अपने आपको यहूदियों की तरह अल्लाह की चहेती सन्तान न समझ बैठे और इस भ्रम में न पड़ जाएँ कि खुदा के आख़िरी नबी (सल्ल०) की उम्मत में होना ही अपने आपमें उनके लिए अल्लाह की कृपा और उसके समर्थन की ज़मानत है जिसके बाद धर्म व नैतिकता के किसी तकाज़े की पाबन्दी उनके लिए अनिवार्य नहीं रहती। इसके साथ दुनिया भर के उन लोगों को भी इस घटना से शिक्षा दिलाई गई है कि जो जान-बूझकर सत्य का विरोध करते हैं और फिर अपने धन व शक्ति और अपने संसाधनों पर यह भरोसा करते हैं कि ये चीजें उनको ख़ुदा की पकड़ से बचा लेंगी।
مَا قَطَعۡتُم مِّن لِّينَةٍ أَوۡ تَرَكۡتُمُوهَا قَآئِمَةً عَلَىٰٓ أُصُولِهَا فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيُخۡزِيَ ٱلۡفَٰسِقِينَ 4
(5) तुम लोगों ने खजूरों के जो पेड़ काटे या जिनको अपनी जड़ों पर खड़ा रहने दिया, यह सब अल्लाह ही की अनुज्ञा से था9 और अल्लाह ने यह अनुमति इसलिए दी ताकि उल्लंघनकारियों को अपमानित और रुसवा करे।10
9. यह संकेत है उस मामले की तरफ़ कि मुसलमानों ने जब घेराव शुरू किया तो बनी नज़ीर की बस्ती के चारों ओर जो खजूरों के बाग़ थे, उनके बहुत-से पेड़ों को उन्होंने काट डाला या जला दिया, ताकि घेराव आसानी के साथ किया जा सके और जो पेड़ सैनिक गतिविधि में रुकावट नहीं बन रहे थे, उनको खड़ा रहने दिया। इसपर मदीना के मुनाफ़िक़ और बनी क़ुरैज़ा और स्वयं बनी नज़ीर ने शोर मचा दिया कि मुहम्मद तो धरती में बिगाड़ पैदा करने से मना करते हैं, मगर यह देख लो कि हरे-भरे फलदार पेड़ काटे जा रहे हैं। यह आख़िर 'धरती में बिगाड़ पैदा करना' नहीं तो फिर क्या है ? इस पर अल्लाह ने यह हुक्म अवतरित किया कि तुम लोगों ने जो पेड़ काटे और जिनको खड़ा रहने दिया, उनमें से कोई काम भी अवैध नहीं है, बल्कि दोनों को अल्लाह की अनुमति प्राप्त है। इससे यह शरई मस्अला (धर्मादेश) निकलता है कि फ़ौजी आवश्यकताओं के लिए जो विध्वंसनात्मक कार्रवाई अनिवार्य हो, वह 'धरती में बिगाड़' की परिभाषा में नहीं आती।
10. अर्थात् अल्लाह का इरादा यह था कि इन पेड़ों को काटने से भी उनका अपमान और रुसवाई हो और न काटने से भी। काटने में उनके अपमान और रुसवाई का पहलू यह था कि जो बाग़ उन्होंने अपने हाथों से लगाए थे और जिन बागों के वे एक लम्बे समय से मालिक चले आ रहे थे, उनके पेड़ उनकी आँखों के सामने काटे जा रहे थे और वे काटनेवालों को किसी तरह न रोक सकते थे। इसके बाद अगर वे मदीना में रह भी जाते तो उनकी कोई इज़्ज़त बाक़ी न रहती। रहा पेड़ों को न काटने में अपमान का पहलू, तो वह यह था कि जब वे मदीना से निकले तो उनकी आँखें यह देख रही थीं कि कल तक जो हरे-भरे बाग़ उनकी मिल्कियत थे, वे आज मुसलमानों के कब्जे में जा रहे हैं। उनका बस चलता तो वे उनको पूरी तरह उजाड़कर जाते और एक सुरक्षित पेड़ भी मुसलमानों के क़ब्जे में न जाने देते। मगर विवशता के साथ वे सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़कर सन्ताप और निराशा के साथ निकल गए।
وَمَآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡهُمۡ فَمَآ أَوۡجَفۡتُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ خَيۡلٖ وَلَا رِكَابٖ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُۥ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ 5
(6) और जो माल अल्लाह ने उनके कब्जे से निकालकर अपने रसूल की ओर पलटा दिए11, वे ऐसे माल नहीं हैं जिनके लिए तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों, बल्कि अल्लाह अपने रसूलों को जिसपर चाहता है, प्रभुत्व प्रदान कर देता है, और अल्लाह को हर चीज़ पर सामर्थ्य प्राप्त है।12
11. अब उन जायदादों और मालों का उल्लेख हो रहा है, जिनके मालिक पहले बनी नज़ीर थे और जो उनके देश निकाला दिए जाने के बाद इस्लाम राज्य के कब्जे में आए। उनके बारे में यहाँ से आयत 10 तक अल्लाह तआला ने बताया है कि उनका प्रबन्ध किस तरह किया जाए। इस जगह विचार करने की बात यह है कि अल्लाह ने जो कुछ पलटा दिया उनसे अल्लाह ने अपने रसूल की तरफ़' के शब्द प्रयोग किए हैं। इन शब्दों से स्वतः यह अर्थ निकलता है कि यह धरती और वे सारी चीजें जो यहाँ पाई जाती हैं, वास्तव में उन लोगों का हक़ नहीं हैं जो अल्लाह के बाग़ी हैं। इसलिए जो माल भी एक जाइज़ और सत्य पर आधारित लड़ाई के नतीजे में दुश्मनों से निकलकर ईमानवालों के क़ब्जे में आएँ, उनको वास्तविक स्थिति यह है कि उनका मालिक उन्हें अपने भ्रष्ट कर्मचारियों के कब्जे से निकालकर अपने आज्ञाकारी कर्मचारियों की ओर पलटा लाया है। इसी लिए इन सम्पत्तियों और मालों को इस्लामी क़ानून की परिभाषा में 'फ़ै' (पलटाकर लाए हुए माल) करार दिया गया है।
12. अर्थात् इन मालों का मुसलमानों के कब्जे में आना प्रत्यक्ष रूप से लड़नेवाली सेना के बाहुबल का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस सामूहिक शक्ति का परिणाम है जो अल्लाह ने अपने रसूल और उसकी उम्मत (समुदाय) और उसकी स्थापित की हुई व्यवस्था को प्रदान किया है। इसलिए ये ग़नीमत के मालों से बिल्कुल अलग हैसियत रखते हैं और लड़नेवाली सेना का यह हक़ नहीं है कि गनीमत की तरह इनको भी उसमें बाँट दिया जाए।
इस तरह शरीअत में ग़नीमत और फ़ै का आदेश अलग-अलग कर दिया गया है। गनीमत वे चल सम्पत्तियाँ हैं जो युद्ध की कार्रवाइयों के दौरान में शत्रु की सेनाओं से प्राप्त हों। इनके अलावा शत्रु देश की ज़मीने, मकान और दूसरी अचल व चल सम्पत्तियाँ गनीमत की परिभाषा से बाहर और 1 में शामिल हैं। गनीमत का आदेश सूरा-8 अनफाल, आयत 41 में आया है, और फ़ै का आदेश यह है कि उसे सेना में बाँटा न
जाए, बल्कि वे पूरी की पूरी उन ख़र्चों के लिए ख़ास कर दी जाए जो आगे की आयतों में बयान हो रहे हैं। इन दोनों प्रकार के मालों में अन्तर "तुमने उसपर अपने घोड़े और ऊँट नहीं दौड़ाए हैं" के शब्दों से स्पष्ट किया गया है। घोड़े और ऊँट दौड़ाने से अभिप्रेत है सामरिक कार्रवाई।
مَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰ فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ كَيۡ لَا يَكُونَ دُولَةَۢ بَيۡنَ ٱلۡأَغۡنِيَآءِ مِنكُمۡۚ وَمَآ ءَاتَىٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَىٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 6
(7) जो कुछ भी अल्लाह बस्तियों के लोगों से अपने रसूल की तरफ़ पलटा दे, वह अल्लाह और रसूल और रिश्तेदारों और यतीमों और मुहताजों और यात्रियों के लिए है13 ताकि वह तुम्हारे मालदारों ही के दर्मियान चक्कर न खाता रहे।14 जो कुछ रसूल तुम्हें दे वह ले लो, और जिस चीज़ से वह तुमको रोक दे उससे रुक जाओ। अल्लाह से डरो, अल्लाह कठोर सज़ा देनेवाला है।15
13. इस आयत में यह बताया गया है कि इन मालों के हक़दार कौन-कौन हैं।
इनमें सबसे पहला हिस्सा अल्लाह और रसूल का है। इस आदेश पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जिस तरह अमल किया, उनका विवरण यह है कि नबी (सल्ल०) इस हिस्से में से और अपने बीवी-बच्चों का ख़र्च (नफ़क़ा) ले लेते थे और बाकी आमदनी जिहाद के लिए हथियारों और सवारी के जानवर जुटाने पर ख़र्च करते थे (बुख़ारी, मुस्लिम, मुस्नद अहमद आदि)। नबी (सल्ल०) के बाद यह हिस्सा मुसलमानों के बैतुलमाल में शामिल कर दिया गया, ताकि यह उस मिशन की सेवा में ख़र्च हो जो अल्लाह ने अपने रसूल के सुपुर्द किया था।
दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों का है और उनसे अभिप्रेत अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रिश्तेदार हैं, अर्थात् बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब। यह हिस्सा इसलिए निर्धारित किया गया था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपने निज और अपने बाल-बच्चों के हक़ों के अदा करने के साथ-साथ अपने उन रिश्तेदारों के हक़ भी अदा फ़रमा सकें जो आप (सल्ल०) की सहायता के मुहताज हों या आप (सल्ल०) जिनकी सहायता करने की ज़रूरत महसूस फ़रमाएँ। नबी (सल्ल०) के देहान्त के बाद यह भी एक अलग और स्थाई हिस्से की हैसियत से बाक़ी नहीं रहा, बल्कि मुसलमानों के दूसरे मुहताजों, यतीमों और मुसाफिरों के साथ बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब के मुहताज लोगों के हक़ भी बैतुलमाल के ज़िम्मे आ गए, अलबत्ता इस कारण उनका हक़ दूसरों के मुक़ाबले में प्रमुख समझा गया कि ज़कात में उनका हिस्सा नहीं है।
14. यह क़ुरआन मजीद की महत्त्वपूर्ण मौलिक आदेशों में से है जिसमें इस्लामी समाज और राज्य की आर्थिक नीति का यह बुनियादी नियम बताया गया है कि धन की गर्दिश पूरे समाज में आम होनी चाहिए ऐसा न हो कि माल सिर्फ मालदारों ही में घूमता रहे या धनवान निरन्तर अधिक धनवान और निर्धन निरन्तर अधिक निर्धन होता चला जाए। कुरआन मजीद में इस नीति को केवल बयान कर देने ही पर नहीं किया गया है, बल्कि इसी उद्देश्य के लिए सूद (ब्याज) हराम किया गया है, ज़कात अनिवार्य की गई है, ग़नीमत के मालों में से खुम्स (पाँचवाँ हिस्सा) निकालने का आदेश दिया गया है। नफ़्ल सदक़ों (ऐसे दान जो अनिवार्य न हों) के लिए जगह-जगह उभारा गया है। मीरास का ऐसा कानून बनाया गया है कि हर मरनेवाले की छोड़ी हुई दौलत अधिक से अधिक विस्तृत क्षेत्र में फैल जाए। नैतिक दृष्टि से कंजूसी को अत्यन्त निन्दनीय और दानशीलता को सर्वोच्च गुण बताया गया है। ख़ुशहाल वर्गों को यह समझाया गया है कि उनके माल में माँगनेवालों और वंचितों का हक़ है जिसे 'खैरात' (दान) नहीं, बल्कि उनका हक़ समझकर ही उन्हें अदा करना चाहिए, और इस्लामी राज्य मी की आमदनी के एक बहुत बड़े स्रोत अर्थात ] के बारे में यह क़ानून बना दिया गया है कि इसका एक भाग अनिवार्य रूप से समाज के मुहताज वर्गों को सहारा देने के लिए खर्च किया जाए। इस सिलसिले में यह बात भी दृष्टि में रहनी चाहिए कि इस्लामी राज्य के आय-स्रोतों की अति महत्त्वपूर्ण मदें दो हैं- एक ज़कात, दूसरी फ़ै। ज़कात मुसलमानों के निसाब (एक निश्चित मात्रा) से ज़्यादा पूरी पूँजी पर, मवेशियों, व्यापार-धन और कृषि उपज से वुसूल की जाती है और वह अधिकतर मुहताजों के लिए ही ख़ास है और] में जिज़या और खिराज (टैक्स) समेत वे तमाम आमदनियाँ शामिल हैं, जो ग़ैर-मुस्लिमों से प्राप्त हों, और उनका भी बड़ा हिस्सा मुहताजों ही के लिए ख़ास किया गया है। यह खुला हुआ संकेत इस ओर है कि एक इस्लामी राज्य को अपनी आय-व्यय-व्यवस्था और सामूहिक रूप से देश के तमाम आर्थिक और वित्तीय मामलों की व्यवस्था इस तरह करनी चाहिए कि धन-दौलत के स्रोतों पर मालदार और असर-रुसूख रखनेवालों का एकाधिकार क़ायम न हो और दौलत का बहाव न निर्धनों से धनवानों की ओर होने पाए, न वह धनवानों ही के चक्कर लगाती रहे।
وَٱلَّذِينَ تَبَوَّءُو ٱلدَّارَ وَٱلۡإِيمَٰنَ مِن قَبۡلِهِمۡ يُحِبُّونَ مَنۡ هَاجَرَ إِلَيۡهِمۡ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمۡ حَاجَةٗ مِّمَّآ أُوتُواْ وَيُؤۡثِرُونَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ وَلَوۡ كَانَ بِهِمۡ خَصَاصَةٞۚ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ 8
(9) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन घर-बार छोड़कर आनेवालों से पहले ही ईमान लाकर घर-बार त्याग करके आ बसनेवाले आवास (दारुल-हिजरत) में बसे हुए थे।17 ये उन लोगों से प्रेम करते हैं जो घर-बार छोड़कर उनके पास आए हैं और जो कुछ भी उनको दे दिया जाए, उसकी कोई अपेक्षा तक ये अपने दिलों में महसूस नहीं करते और अपने मुक़ाबले में दूसरों को प्राथमिकता देते हैं, चाहे अपनी जगह ख़ुद मुहताज हों।18 वास्तविकता यह है कि जो लोग अपने दिल की तंगी से बचा लिए गए, वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।19
17. अभिप्रेत है अंसार। अर्थात् फ़ै में केवल मुहाजिरों ही का हक़ नहीं है, बल्कि पहले से जो मुसलमान दारुल-इस्लाम में आबाद हैं, वे भी इसमें से हिस्सा पाने के अधिकारी हैं।
18. यह प्रशंसा है मदीना तैयिबा के अंसार की। मुहाजिर जब मक्का और दूसरे स्थानों से हिजरत करके उनके शहर में आए तो उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की सेवा में यह पेशकश की हमारे खजूर और अन्य फलों के बाग़ हाज़िर हैं, आप इन्हें हमारे और इन मुहाजिर भाइयों के बीच बाँट दें। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि ये लोग तो बाग़बानी नहीं जानते, ये उस क्षेत्र से आए हैं जहाँ बाग़ नहीं हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपने इन बातों में काम तुम करो और पैदावार में से हिस्सा इन्हें दो ? उन्होंने कहा, "हमने सुना और पालन किया" (बुख़ारी, इब्ने जरीर)। फिर जब बनी नज़ीर के क्षेत्र पर विजय मिली तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया कि अब बन्दोबस्त की एक शक्ल यह है कि तुम्हारी जायदाद और यहूदियों के छोड़े हुए बागों को मिलाकर एक कर दिया जाए, फिर इस सबको पूरा-पूरा तुम्हारे और मुहाजिरों के बीच बाँट दिया जाए। और दूसरी शक्ल यह है कि तुम अपनी जायदादें अपने पास रखो और यह छोड़ी हुई ज़मीन मुहाजिरों में बाँट दी जाए। अंसार ने अर्ज किया कि ये जायदादें आप इनमें बाँट दें और हमारी जायदादों में से भी जो कुछ आप चाहें, इनको दे सकते हैं। इस पर हज़रत अबू बक्र (रजि०) पुकार उठे, "ऐ अंसार के लोगो ! अल्लाह तुम्हें बेहतरीन बदला प्रदान करे" (यह्या बिन आदम बलाजुरी) । इस तरह अंसार की रज़ामंदी से यहूदियों के छोड़े हुए माल मुहाजिरों ही में बाँटे गए और अंसार में से सिर्फ़ हज़रत अबू दुजाना, हज़रत सहल बिन हुनैफ़ और (कुछ रिवायतों के अनुसार) हज़रत हारिस बिन सिमा को हिस्सा दिया गया, क्योंकि ये लोग बहुत ग़रीब थे। (बलाजुरी, इब्ने-हिशाम, रूहुल मआनी)
وَٱلَّذِينَ جَآءُو مِنۢ بَعۡدِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا وَلِإِخۡوَٰنِنَا ٱلَّذِينَ سَبَقُونَا بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَا تَجۡعَلۡ فِي قُلُوبِنَا غِلّٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ رَبَّنَآ إِنَّكَ رَءُوفٞ رَّحِيمٌ 9
(10) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन अगलों के बाद आए हैं,20 जो कहते हैं कि "ऐ हमारे रब! हमें और हमारे उन सब भाइयों को माफ़ कर दे जो हमसे पहले ईमान लाए हैं और हमारे दिलों में ईमानवालों के लिए कोई विद्वेष न रखाऐ हमारे रब! तू बड़ा मेहरबान और दयावान है।"21
20. यहाँ तक जो आदेश दिए गए हैं उनमें यह फैसला कर दिया गया है कि फ़ै के माल में केवल वर्तमान नस्लों ही का हक़ नहीं है, बल्कि बाद के आनेवालों का हक़ भी है। क़ुरआन मजीद का यही वह महत्त्वपूर्ण क़ानूनी फ़ैसला है जिसकी रौशनी में हज़रत उमर (रजि०) ने इराक़, शाम (सीरिया) और मिस्र के विजित देशों की ज़मीनों और जायदादों का और इन देशों की पिछली हुकूमतों और उनके शासकों की जायदादों का नया बन्दोबस्त किया। उन देशों पर जब विजय प्राप्त हुई तो सहाबा किराम (रज़ि०) को यह उलझन हुई कि तलवार के बल पर जीते जानेवाले क्षेत्र ग़नीमत हैं या फै। कुछ लोगों ने इन क्षेत्रों को ग़नीमत क़रार देते हुए इन्हें सेना के लोगों में बाँट देने की माँग की, जबकि कुछ लोगों ने इन्हें फ़ै क़रार दिया और इनके वितरण का विरोध किया। वार्ता और बातचीत के बाद हज़रत उमर (रजि०)] ने पूरे इत्मीनान के साथ यह कायम कर ली कि इन इलाक़ों को वितरित न होना चाहिए। चुनांचे उन्होंने बाँटने की माँग करनेवालों को [उत्तर देकर सन्तुष्ट करने की कोशिश की] लेकिन लोग सन्तुष्ट न हुए और उन्होंने कहना शुरू किया कि आप ज़ुल्म कर रहे हैं। अन्तत: हज़रत उमर (रज़ि०) ने मज्लिसे-शूरा (सलाहकार समिति) की मीटिंग की और उसके सामने मामला रखा। इस अवसर पर जो भाषण हज़रत उमर (रज़ि०) ने दिया उसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं-
"मैंने आप लोगों को केवल इसलिए कष्ट दिया है कि आप उस अमानत को उठाने में मेरे साथ सम्मिलित हों जिसका भार आपके मामलों को चलाने के लिए मेरे ऊपर रखा गया है। ........ आपके पास अल्लाह को किताब है जो सत्य बोलती है। ख़ुदा की क़सम! मैंने अगर कोई बात कही है, जिसे मैं करना चाहता हूँ, तो इससे मेरा उद्देश्य सत्य के सिवा कुछ नहीं है............ मैं यह देख रहा हूँ कि किसरा की भूमि के बाद अब किसी और क्षेत्र पर विजय प्राप्त होनेवाली नहीं है, ...... हमारी सेनाओं ने जो ग़नीमतें प्राप्त की थीं, वे तो मैं पाँचवाँ हिस्सा निकालकर उनमें बाँट चुका हूँ और अभी जो ग़नीमतें बँटी नहीं हैं, मैं उनको बाँटने की चिन्ता में लगा हुआ हूँ। अलबत्ता ज़मीनों के बारे में मेरी राय यह है कि इन्हें और उनके किसानों को न बाँ, बल्कि उनपर टैक्स और किसानों पर जिज़या लगा दूँ जिसे वे हमेशा अदा करते रहें और यह इस वक़्त के आम मुसलमानों और लड़नेवाली सेनाओं और मुसलमानों के बच्चों के लिए और बाद को आनेवाली नस्लों के लिए फै हो। क्या आप लोग नहीं देखते कि हमारी इन सीमाओं के लिए अनिवार्यतः ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो इनकी रक्षा करते रहें? क्या आप नहीं देखते कि ये बड़े-बड़े देश शाम, अल-जज़ोरा, कूफ़ा, बसरा, मिस्र, इन सबमें सेनाएँ रहनी चाहिएँ और उनको पाबन्दी से वेतन मिलने चाहिएँ? अगर मैं इन ज़मीनों को उनके किसानों समेत बाँट दूँ तो ये ख़र्चे कहाँ से आएँगे?''
यह बहस दो-तीन दिन चलती रही। हज़रत उस्मान (रजि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत तलहा (रजि०), हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रजि०) आदि ने हज़रत उमर (रज़ि०) की राय से सहमति व्यक्त की, लेकिन फैसला न हो सका। अन्तत: हज़रत उमर (रजि०) उठे और उन्होंने फ़रमाया कि मुझे अल्लाह की किताब से एक दलील मिल गई है जो इस समस्या का हल कर देनेवाली है। इसके बाद उन्होंने सूरा हश्र की यही आयतें (आयत 6 से 10 तक) पढ़ीं और इनसे यह नतीजा निकाला कि अल्लाह की दी हुई इन सम्पत्तियों में सिर्फ़ इस ज़माने के लोगों का ही हिस्सा नहीं है, बल्कि बाद के आनेवालों को भी अल्लाह ने उनके साथ शरीक किया है। फिर यह कैसे सही हो सकता है कि इस फ़ै को जो सबके लिए है, हम इन विजेताओं में बाँट दें और बादवालों के लिए कुछ न छोड़ें? साथ ही अल्लाह का कथन है, "ताकि यह माल तुम्हारे धनवानों ही में चक्कर न लगाता रहे"। लेकिन अगर मैं इसे विजेताओं में बांट दूं तो यह तुम्हारे धनवानों ही में चक्कर लगाता रहेगा और दूसरों के लिए कुछ न बचेगा। यह दलील थी जिसने सबको सन्तुष्ट कर दिया और इस बात पर सहमति हो गई कि इन तमाम विजित क्षेत्रों को आम मुसलमानों के लिए फै क़रार दिया जाए। जो लोग इन ज़मीनों पर काम कर रहे हैं, उन्हीं के हाथों में उन्हें रहने दिया जाए और उनपर टैक्स और जिज़या लगा दिया जाए (किताबुल खिराज : अबू यूसुफ, पृ० 23 से 27 व 35, अहकामुल क़ुरआन : अल-जस्सास)।
इस निर्णय के अनुसार विजित ज़मीनों की असल हैसियत यह क़रार पाई कि मुस्लिम मिल्लत (समुदाय) सामूहिक रूप से इनकी मालिक है। जो लोग पहले से इन ज़मीनों पर काम कर रहे थे, उनको मिल्लत ने अपनी ओर से काश्तकार के तौर पर बाक़ी रखा है। वे इन ज़मीनों पर इस्लामी राज्य को एक निश्चित लगान अदा करते रहेंगे। एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल को निरन्तर ये काश्तकारी के हक़ उनकी मीरास में मुंतकिल (हस्तांतरित) होते रहेंगे और वे इन हक़ों को बेच भी सकेंगे, मगर ज़मीन के असल मालिक वे न होंगे, बल्कि मुस्लिम मिल्लत उनकी मालिक होगी।
21. इस आयत में यद्यपि मूल अभिप्राय केवल यह बताना है कि फ़ै के वितरण में हाज़िर और मौजूद लोगों का ही नहीं, बाद में आनेवाले मुसलमानों और उनकी आइन्दा आनेवाली नस्लों का हिस्सा भी है, लेकिन साथ-साथ इसमें एक महत्त्वपूर्ण नैतिक शिक्षा भी मुसलमानों को दी गई है और वह यह कि किसी मुसलमान के दिल में किसी दूसरे मुसलमान के लिए ईष्या और द्वेष न होना चाहिए और मुसलमानों के लिए सही रीति यह है कि वे अपने बुजुर्गों के लिए माफ़ी की दुआ करते रहें, न यह कि वे उनपर फिटकार भेजें और उन्हें बुरा कहें। मुसलमानों को जिस रिश्ते ने एक-दूसरे के साथ जोड़ा है, वह वास्तव में ईमान का रिश्ता है। अगर किसी व्यक्ति के दिल में ईमान का महत्त्व दूसरी तमाम चीज़ों से बढ़कर हो तो निश्चित रूप से वह उन सब लोगों का हितैषी होगा जो ईमान के रिश्ते से उसके लिए भाई हैं। उनकी दुर्भावना, ईर्ष्या, द्वेष और घृणा उसी वक़्त उसके मन में जगह पा सकती है, जबकि ईमान का मूल्य उसकी दृष्टि में घट जाए और किसी दूसरी चीज़ को वह इससे ज़्यादा महत्त्व देने लगे। इसलिए यह बिल्कुल ईमान का तक़ाज़ा है कि एक ईमानवाले का दिल किसी दूसरे ईमानवाले के विरुद्ध घृणा व ईर्ष्या से ख़ाली हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡتَنظُرۡ نَفۡسٞ مَّا قَدَّمَتۡ لِغَدٖۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ 17
(18) ऐ लोगो28 जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो, और प्रत्येक व्यक्ति यह देखे कि उसने कल के लिए क्या सामान किया है।29 अल्लाह से डरते रहो, अल्लाह निश्चित रूप से तुम्हारे उन तमाम कर्मों की ख़बर रखता है जो तुम करते हो।
28. क़ुरआन मजीद का नियम है कि जब कभी मुनाफ़िक़ मुसलमानों के निफ़ाक़ (कपट) पर पकड़ की जाती है तो साथ-साथ उन्हें उपदेश भी दिया जाता है, ताकि उनमें से जिसके अन्दर भी अभी कुछ अन्तरात्मा का जीवन बाकी है, वह अपनी इस रीति पर लज्जित हो और खुदा से डरकर उस गढ़े से निकलने की चिन्ता करे जिसमें मन की दासता ने उसे गिरा दिया है। आयत 18 से 24 तक में यही उपदेश दिया गया है।
29. कल से तात्पर्य आख़िरत है मानो दुनिया की यह पूरी जिंदगी 'आज' है और 'कल' वह क़ियामत का दिन है जो इस आज के बाद आनेवाला है। इस आयत में हर व्यक्ति को आप ही अपना उत्तरदायी बनाया गया है जब तक किसी व्यक्ति में स्वयं अपने बुरे और भले की पहचान पैदा न हो जाए, उसको सिरे से यह एहसास ही नहीं हो सकता कि जो कुछ वह कर रहा है, वह आख़िरत में उसके भविष्य को सँवारनेवाला है या बिगाड़नेवाला। और जब उसके अन्दर यह एहसास पैदा हो जाए तो उसे स्वयं ही अपना हिसाब लगाकर यह देखना होगा कि वह अपने समय, अपनी पूँजी, अपनी मेहनत, अपनी योग्यताओं और अपनी कोशिशों को जिस राह में लगा रहा है, वह उसे जन्नत की ओर ले जा रही है या जहन्नम की ओर।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡقُدُّوسُ ٱلسَّلَٰمُ ٱلۡمُؤۡمِنُ ٱلۡمُهَيۡمِنُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡجَبَّارُ ٱلۡمُتَكَبِّرُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ 22
(23) वह अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई उपास्य नहीं, वह बादशाह है36 बड़ा ही पवित्र37, सर्वथा सलामती38, अमन (निश्चिन्तता) देनेवाला39,निगहबान40, सब पर प्रभुत्व रखनेवाला41, अपना आदेश बलपूर्वक लागू करनेवाला42, और बड़ा ही होकर रहनेवाला।43 पाक है अल्लाह उस शिर्क (बहुदेववाद के कर्म) से जो लोग कर रहे हैं।44
36. मूल में अरबी शब्द 'अल-मलिक' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ यह है कि असल बादशाह वही है तथा स्वतन्त्र रूप से मलिक शब्द का प्रयोग करने से यह अर्थ भी निकलता है कि वह किसी विशेष क्षेत्र या विशेष राज्य का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जगत् का बादशाह है। सम्पूर्ण सृष्टि पर उसका साम्राज्य और उसका शासन है। हर चीज़ का वह मालिक है। हर वस्तु उसके अधिकार और उसके आदेश के अधीन है और उसके संप्रभुत्व (Sovereignty) को सीमित करनेवाली कोई वस्तु नहीं है। क़ुरआन मजीद में अनेक स्थानों पर अल्लाह की बादशाही के इन सारे पहलुओं को स्पष्ट रूप से बयान किया गया है। [देखिए सूरा-30 अर-रूम, आयत 26; सूरा-32 अस-सजदा, आयत 5; सूरा-57 अल-हदीद, आयत 5; सूरा-36 या-सीन, आयत 83; सूरा-25 अल-फुरक़ान, आयत 2; सूरा-85 अल-बुरूज, आयत 16; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 23; सूरा-13 अर-अद, आयत 41; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 88; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 26]
लेकिन क़ुरआन मजीद केवल इतना कहने पर बस नहीं करता कि अल्लाह सृष्टि का बादशाह है, बल्कि बाद के वाक्यों में यह स्पष्ट करता है कि वह ऐसा बादशाह है जो बड़ा ही पवित्र है, सर्वथा सलामती है, अमन देनेवाला है, निगहबान है, सबपर प्रभावी है, अपना आदेश बलपूर्वक लागू करनेवाला है और बड़ा ही होकर रहनेवाला है, सृष्टि की योजना बनानेवाला है, उसको करनेवाला है और उसके अनुसार रूप बनानेवाला है।
37. मूल में अरबी शब्द 'कुद्दूस' प्रयुक्त हुआ है। यहाँ यह शब्द अपने अति उत्तमता सूचक रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसकी धातु कुद्स का अर्थ है तमाम अवगुणों से पाक और पवित्र होना और कुद्दूस' का अर्थ यह है कि वह इससे बहुत ही उच्च और महान है कि उसकी सत्ता में कोई दोष या कमी या कोई अवगुण पाया जाए, बल्कि वह एक पवित्रतम सत्ता है जिसके बारे में किसी बुराई की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यहाँ यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि 'कुसियत' (पवित्रता) वास्तव में सम्प्रभुत्व के सर्वप्रथम अनिवार्य गुणों में से है। इंसान की बुद्धि और प्रकृति यह मानने से इंकार करती है कि सम्प्रभुत्व रखनेवाली कोई ऐसी सत्ता हो जो दुष्ट, दुश्चरित्र और बुरी नीयत व इरादा रखनेवाली हो, जिसमें घृणित भाव तथा दुर्गुण पाए जाते हों, जिसके शासन से उसकी जनता को भलाई मिलने के बजाय, बुराई का ख़तरा लगा रहता हो। इसी कारण इंसान जहाँ भी सम्प्रभुत्व को केन्द्रीयता प्रदान करता है, वहाँ पवित्रता' नहीं भी होती तो उसे मौजूद मान लेता है, क्योंकि पवित्रता' के बिना पूर्ण सम्प्रभुत्व अकल्पनीय है। लेकिन यह स्पष्ट है कि अल्लाह के सिवा वास्तव में कोई सम्प्रभुत्व भी 'पवित्र' नहीं है और नहीं हो सकता। एक व्यक्ति की बादशाही हो या जनता का सम्प्रभुत्व या साम्यवादी व्यवस्था का शासन या इंसानी हुकूमत की कोई दूसरी शक्ल, बहरहाल उसके हक़ में 'पवित्रता' की कल्पना तक नहीं की जा सकती।
41. मूल में अरबी शब्द 'अल-अज़ीज़' प्रयुक्त हुआ है जिससे अभिप्रेत है ऐसी जबरदस्त हस्ती जिसके मुक़ाबले में कोई सर न उठा सकता हो, जिसके फ़ैसलों में रुकावट डालना किसी के वश में न हो, जिसके आगे सब बे-बस और बे-ज़ोर हों।
42. मूल में अरबी शब्द 'अल-जब्बार' प्रयुक्त हुआ है जिसकी धातु जब है। जब का अर्थ है किसी वस्तु को ताक़त से ठीक करना, किसी चीज़ का बलपूर्वक सुधार करना, यद्यपि अरबी भाषा में कभी जब्र केवल सुधार के लिए भी बोला जाता है और कभी सिर्फ ज़बरदस्ती के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ सुधार के लिए बल का प्रयोग है। अतः अल्लाह को जब्बार इस अर्थ में कहा गया है कि वह अपनी सृष्टि का प्रबन्ध बलपूर्वक ठीक रखनेवाला और अपने इरादे को जो पूर्णत: तत्त्वदर्शिता पर आधारित होता है, बलपूर्वक लागू करनेवाला है। इसके अतिरिक्त शब्द 'जब्बार' में महानता का अर्थ भी शामिल है। अरबी भाषा में खजूर के उस पेड़ को जब्बार कहते हैं जो इतना ऊँचा और बड़ा हो कि उसके फल तोड़ना किसी के लिए आसान न हो। इसी तरह कोई काम जो बड़ा महान हो 'जब्बार का काम' कहलाता है।
43. मूल में अरबी शब्द 'अल-मुतकब्बिर' प्रयुक्त हुआ है जिसके दो अर्थ हैं। एक वह जो वास्तव में बड़ा न हो, मगर ख़ामख़ाह बड़ा बने। दूसरा वह जो वास्तव में बड़ा हो और बड़ा ही होकर रहे। इंसान हो या शैतान या कोई और रचना, चूँकि बड़ाई वास्तव में उसके लिए नहीं है, इसलिए उसका अपने आपको बड़ा समझना और दूसरों पर अपनी बड़ाई जताना एक झूठा दावा और निकृष्टतम दोष है। इसके विपरीत अल्लाह वास्तव में बड़ा है और बड़ाई वास्तव में उसी के लिए है और सृष्टि की हर चीज़ उसके मुक़ाबले में तुच्छ व तिरस्कृत है, इसलिए उसका बड़ा होना और बड़ा ही होकर रहना कोई 'दावा' और 'बनावट' नहीं, बल्कि एक वास्तविक तथ्य है, एक दुर्गुण नहीं बल्कि एक सद्गुण हैं जो उसके सिवा किसी में नहीं पाया जाता।
44. अर्थात् उसकी सत्ता और उसके अधिकार और गुणों में, या उसकी ज़ात में जो लोग भी किसी मख़लूक़ (सृष्टि) को उसका साझीदार ठहरा रहे हैं, वे वास्तव में एक बहुत बड़ा झूठ बोल रहे हैं। अल्लाह इससे पाक है कि किसी अर्थ में भी कोई उसका साझीदार हो।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡخَٰلِقُ ٱلۡبَارِئُ ٱلۡمُصَوِّرُۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ 23
(24) वह अल्लाह ही है जो सृष्टि की योजना बनानेवाला और उसको लागू करनेवाला और उसके अनुसार रूप बनानेवाला है।45 उसके लिए उत्तम नाम हैं।46 हर चीज़ जो आसमानों और ज़मीन में है उसकी तस्बीह (महिमागान) कर रही है,47 और वह प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदर्शी है।48
45. अर्थात् पूरी दुनिया और दुनिया की हर चीज़ संरचना की आरंभिक योजना से लेकर अपने विशेष रूप में अस्तित्व में आने तक बिल्कुल उसी की बनाई और परवरिश की हुई है। कोई चीज़ भी न स्वयं अस्तित्व में आई है, न संयोग से पैदा हो गई है, न उसके बनने और पलने-पढ़ने में किसी दूसरे का कणभर भी कोई दख़ल है। यहाँ अल्लाह के रचना-कार्य को तीन अलग चरणों में बयान किया गया है, जो एक के बाद एक घटित होते हैं- पहला चरण खल्क है जिसका अर्थ निश्चय करना या योजना बनाना है। इसकी मिसाल ऐसी है जेसे कोई इंजीनियर एक इमारत बनाने के लिए पहले यह इरादा करता है कि उसे ऐसी और ऐसी इमारत अमुक विशेष उद्देश्य के लिए बनानी है और अपने मन में उसका नक्शा ( Design) सोचता है कि इस उद्देश्य के लिए प्रस्तावित इमारत का विस्तृत और साविक रूप यह होना चाहिए। दूसरा चरण है 'बर' जिसका वास्तविक अर्थ है-जुदा करना, चाक करना, फाड़कर अलग करना। ख़ालिक़ (स्रष्टा) के लिए बारी का शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि वह अपने सोचे हुए नक्शे को लागू करता और उस चीज़ को, जिसका रूप उसने सोचा है, मस्तिष्क से निकाल कर अस्तित्व में लाता है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे इंजीनियर ने इमारत का जो नशा मन में बनाया था, उसके अनुसार वह ठीक नाप-तौल करके ज़मीन पर लाइनें खींचता है, फिर नींव खोदता है, दीवारें उठाता है और निर्माण के सारे व्यावहारिक मरहले तय करता है। तीसरा चरण तस्वीर है जिसका अर्थ है शक्ल-सूरत बनाना, और यहाँ इससे तात्पर्य है एक चीज़ को उसका अन्तिम पूर्ण रूप दे देना। इन तीनों में अल्लाह के काम और इंसानी कामों के बीच सिरे से कोई समानता नहीं है। इंसान की कोई योजना भी ऐसी नहीं है जो पिछले नमूनों से न लिया गया हो, मगर अल्लाह की हर योजना बेमिसाल और उसकी अपनी ईजाद है। इंसान जो कुछ भी बनाता है, अल्लाह के पैदा किए हुए पदार्थों को जोड़-जाड़कर बनाता है। वह किसी चीज़ को अनस्तित्व से अस्तित्व में नहीं लाता, बल्कि जो कुछ मौजूद है उसे विभिन्न ढंगों से संजोता और रूपान्तरित करता है। इसके विपरीत अल्लाह ने तमाम चीज़ों को अनस्तित्व से अस्तित्व में लाया है और वह पदार्थ भी अपने आपमें उसी का पैदा किया हुआ है जिससे उसने यह दुनिया बनाई है। इसी तरह शक्ल-सूरत बनाने के मामले में भी इंसान ईजाद करनेवाला नहीं, बल्कि अल्लाह के बनाए रूपों को नक़ल करनेवाला और भोंडा नक़ल करनेवाला है। वास्तविक रूप देनेवाला अल्लाह है, जिसने हर जाति, हर प्रजाति और हर व्यक्ति का रूप अनुपम बनाया है और कभी एक रूप को हू-ब-हू नहीं दोहराया है।
45. अर्थात् पूरी दुनिया और दुनिया की हर चीज़ संरचना की आरंभिक योजना से लेकर अपने विशेष रूप में अस्तित्व में आने तक बिल्कुल उसी की बनाई और परवरिश की हुई है। कोई चीज़ भी न स्वयं अस्तित्व में आई है, न संयोग से पैदा हो गई है, न उसके बनने और पलने-पढ़ने में किसी दूसरे का कणभर भी कोई दख़ल है। यहाँ अल्लाह के रचना-कार्य को तीन अलग चरणों में बयान किया गया है, जो एक के बाद एक घटित होते हैं- पहला चरण खल्क है जिसका अर्थ निश्चय करना या योजना बनाना है। इसकी मिसाल ऐसी है जेसे कोई इंजीनियर एक इमारत बनाने के लिए पहले यह इरादा करता है कि उसे ऐसी और ऐसी इमारत अमुक विशेष उद्देश्य के लिए बनानी है और अपने मन में उसका नक्शा ( Design) सोचता है कि इस उद्देश्य के लिए प्रस्तावित इमारत का विस्तृत और साविक रूप यह होना चाहिए। दूसरा चरण है 'बर' जिसका वास्तविक अर्थ है-जुदा करना, चाक करना, फाड़कर अलग करना। ख़ालिक़ (स्रष्टा) के लिए बारी का शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि वह अपने सोचे हुए नक्शे को लागू करता और उस चीज़ को, जिसका रूप उसने सोचा है, मस्तिष्क से निकाल कर अस्तित्व में लाता है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे इंजीनियर ने इमारत का जो नशा मन में बनाया था, उसके अनुसार वह ठीक नाप-तौल करके ज़मीन पर लाइनें खींचता है, फिर नींव खोदता है, दीवारें उठाता है और निर्माण के सारे व्यावहारिक मरहले तय करता है। तीसरा चरण तस्वीर है जिसका अर्थ है शक्ल-सूरत बनाना, और यहाँ इससे तात्पर्य है एक चीज़ को उसका अन्तिम पूर्ण रूप दे देना। इन तीनों में अल्लाह के काम और इंसानी कामों के बीच सिरे से कोई समानता नहीं है। इंसान की कोई योजना भी ऐसी नहीं है जो पिछले नमूनों से न लिया गया हो, मगर अल्लाह की हर योजना बेमिसाल और उसकी अपनी ईजाद है। इंसान जो कुछ भी बनाता है, अल्लाह के पैदा किए हुए पदार्थों को जोड़-जाड़कर बनाता है। वह किसी चीज़ को अनस्तित्व से अस्तित्व में नहीं लाता, बल्कि जो कुछ मौजूद है उसे विभिन्न ढंगों से संजोता और रूपान्तरित करता है। इसके विपरीत अल्लाह ने तमाम चीज़ों को अनस्तित्व से अस्तित्व में लाया है और वह पदार्थ भी अपने आपमें उसी का पैदा किया हुआ है जिससे उसने यह दुनिया बनाई है। इसी तरह शक्ल-सूरत बनाने के मामले में भी इंसान ईजाद करनेवाला नहीं, बल्कि अल्लाह के बनाए रूपों को नक़ल करनेवाला और भोंडा नक़ल करनेवाला है। वास्तविक रूप देनेवाला अल्लाह है, जिसने हर जाति, हर प्रजाति और हर व्यक्ति का रूप अनुपम बनाया है और कभी एक रूप को हू-ब-हू नहीं दोहराया है।गए हैं, जिन्हें तिर्मिज़ी और इब्ने माजा ने हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) की रिवायत से विस्तार से बयान किया है। क़ुरआन और हदीस में अगर आदमी इन नामों को ध्यानपूर्वक पढ़े तो वह आसानी से समझ सकता है कि दुनिया की किसी दूसरी भाषा में अगर अल्लाह को याद करना हो तो कौन-से शब्द उसके लिए उचित होंगे।