61. अस-सफ़्फ़
(मदीना में उतरी, आयतें 14)
परिचय
नाम
चौथी आयत के वाक्यांश ‘युक़ातिलू-न फ़ी सबीलिही सफ़्फ़ा' (जो उसके मार्ग में इस तरह पंक्तिबद्ध होकर लड़ते हैं) से लिया गया है। अभिप्राय यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'सफ़्फ़' आया है।
उतरने का समय
इसके विषयों पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह सूरा शायद उहुद की लड़ाई के फ़ौरन बाद के समय में उतरी होगी, क्योंकि इसमें सूक्ष्मत: जिन स्थितियों की ओर संकेत का आभास होता है, वे स्थितियाँ उसी कालखण्ड की हैं।
विषय और वार्ता
इसका विषय है मुसलमानों को ईमान में सत्य-निष्ठा अपनाने और अल्लाह की राह में जान लड़ाने पर उभारना। इसमें कमज़ोर ईमानवाले मुसलमानों को भी सम्बोधित किया गया है और उन लोगों को भी जो ईमान का झूठा दावा करके इस्लाम में दाख़िल हो गए थे, और उनको भी जो निष्ठावान एवं निश्छल थे। वर्णनशैली से स्वयं मालूम हो जाता है कि कहाँ किसको सम्बोधित किया गया है। आरंभ में तमाम ईमानवालों को सचेत किया गया है कि अल्लाह की दृष्टि में अत्यन्त घृणित और वैरी हैं वे लोग जो कहें कुछ और करें कुछ; और अत्यन्त प्रिय हैं वे लोग जो सत्य-मार्ग में लड़ने के लिए सीसा पिलाई हुई दीवार की तरह डटकर खड़े हों। फिर आयत 5 से 7 तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की उम्मत (समुदाय) के लोगों को सचेत किया गया है कि अपने रसूल और अपने दीन (धर्म) के साथ तुम्हारा रवैया वह न होना चाहिए जो मूसा (अलैहि०) और ईसा (अलैहि०) के साथ बनी-इसराईल (इसराईल की संतान) ने अपनाया। [और जिसका] परिणाम यह हुआ कि उस क़ौम के स्वभाव का साँचा ही टेढ़ा होकर रह गया और उससे संमार्ग का सौभाग्य ही छीन लिया गया। फिर आयत 8-9 में पूरी चुनौती के साथ एलान किया गया कि यहूदी और ईसाई और उनसे साँठ-गाँठ रखनेवाले मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) अल्लाह के इस प्रकाश (नूर) को बुझाने की चाहे कितनी ही कोशिश कर लें, यह पूरी चमक-दमक के साथ संसार में फैलकर रहेगा, और बहुदेववादियों को चाहे कितना ही अप्रिय हो, सच्चे रसूल (सल्ल०) का लाया हुआ धर्म हर दूसरे धर्म पर प्रभावी होकर रहेगा। इसके बाद आयत 10 से 13 में ईमानवालों को बताया गया है कि दुनिया और आख़िरत (लोक और परलोक) में सफलता का मार्ग केवल एक है, और वह यह है कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) पर सच्चे दिल से ईमान लाओ और अल्लाह की राह में जान-माल से जिहाद (जान-तोड़ कोशिश) करो। अन्त में ईमानवालों को शिक्षा दी गई है कि जिस तरह हज़रत ईसा (अलैहि०) के निष्ठावान साथियों ने अल्लाह की राह में उनका साथ दिया था, उसी तरह वे भी 'अल्लाह के सहायक' बनें ताकि शत्रुओं के मुक़ाबले में उनको भी उसी तरह अल्लाह की सहायता और समर्थन प्राप्त हो, जिस तरह पहले ईमान लानेवालों को प्राप्त हुआ था।
---------------------