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سُورَةُ الجُمُعَةِ

62. अल-जुमुआ

(मदीना में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

आयत 9 के वाक्यांश ‘इज़ा नूदि-य लिस्सलाति मिंय्यौमिल जुमुअति' अर्थात् 'जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुआ (जुमा) के दिन' से लिया गया है। यद्यपि इस सूरा में जुमा की नमाज़ के नियम-सम्बन्धी आदेश दिए गए हैं, लेकिन समग्र रूप से जुमा इसकी वार्ताओं का शीर्षक नहीं है, बल्कि दूसरी सूरतों के नामों की तरह यह नाम भी चिह्न ही के रूप में है।

उतरने का समय

आयत एक से आठ तक के उतरने का समय सन् 07 हिजरी है और शायद ये ख़ैबर की विजय के अवसर पर या उसके बाद के क़रीबी समय में उतरी हैं। आयत दस से सूरा के अन्त तक की आयतें हिजरत के बाद क़रीबी समय ही में उतरी है, क्योंकि नबी (सल्ल.) ने मदीना तय्यिबा पहुँचते ही पाँचवें दिन जुमा क़ायम कर दिया था और सूरा की आख़िरी आयत में जिस घटना की ओर संकेत किया गया है, वह साफ़ बता रहा है कि वह जुमा क़ायम होने का सिलसिला शुरू होने के बाद अनिवार्य रूप से किसी ऐसे ही समय में घटी होगी, जब लोगों को दीनी इज्तिमाआत (धार्मिक सभाओं) के आदाब (शिष्टाचार) की पूरी ट्रेनिंग अभी नहीं मिली थी।

विषय और वार्ता

जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं, इस सूरा के दो भाग अलग-अलग समयों में उतरे हैं, इसी लिए दोनों के विषय अलग हैं और जिनसे सम्बोधन है वे भी अलग हैं। पहला भाग उस समय उतरा जब यहूदियों के समस्त प्रयास विफल हो चुके थे जो इस्लाम के पैग़ाम का रास्ता रोकने के लिए पिछले सालों में उन्होंने किए थे। इन आयतों के उतरने के समय [उनका सबसे बड़ा गढ़ ख़ैबर] भी बिना किसी असाधारण अवरोध के विजित हो गया। इस अन्तिम पराजय के बाद अरब में यहूदी ताक़त का बिल्कुल ख़ातिमा हो गया। वादियुल क़ुरा, फ़दक, तैमा, तबूक सब एक-एक करके हथियार डालते चले गए, यहाँ तक कि अरब के सभी यहूदी इस्लामी राज्य की प्रजा बनकर रह गए। यह अवसर था जब अल्लाह ने इस सूरा में एक बार फिर उनको सम्बोधित किया और शायद यह अन्तिम सम्बोधन था जो क़ुरआन मजीद में उनसे किया गया। इसमें उन्हें सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं-

  1. तुमने इस रसूल को इसलिए मानने से इंकार कर दिया कि यह उस क़ौम में भेजा गया था जिसे तुम तुच्छ समझकर 'उम्मी' कहते हो। तुम्हारा निष्कृष्ट भ्रम यह था कि रसूल अनिवार्यतः तुम्हारी अपनी क़ौम ही का होना चाहिए और [यह कि] 'उम्मियों' में कभी कोई रसूल नहीं आ सकता। लेकिन अल्लाह ने इन्हीं उम्मियों में से एक रसूल उठाया है जो तुम्हारी आँखों के सामने उसकी किताब सुना रहा है, आत्माओं को विकसित कर रहा है और उन लोगों को सत्यमार्ग दिखा रहा है जिनकी पथभ्रष्टता का हाल तुम स्वयं भी जानते हो। यह अल्लाह की उदार कृपा है जिसे चाहे प्रदान करे।
  2. तुमको तौरात का वाहक बनाया था, मगर तुमने उसकी ज़िम्मेदारी को न समझा, न अदा की [यहाँ तक कि तुम] जान-बूझकर अल्लाह की आयतों को झुठलाने से भी बाज़ नहीं रहते, और इस पर भी तुम्हारा दावा यह है कि तुम अल्लाह के चहेते हो और रिसालत (पैग़म्बरी) की नेमत सदा के लिए तुम्हारे नाम लिख दी गई है।
  3. तुम अगर वाक़ई अल्लाह के चहेते होते और तुम्हें अगर विश्वास होता कि उसके यहाँ तुम्हारे लिए बड़े आदर और सम्मान एवं प्रतिष्ठा का स्थान सुरक्षित है तो तुम्हें मौत का ऐसा भय न होता कि अपमानजनक जीवन स्वीकार्य है, मगर मौत किसी तरह भी स्वीकार्य नहीं । तुम्हारी यह दशा आप ही इस बात का प्रमाण है कि अपनी करतूतों को तुम स्वयं जानते हो और तुम्हारी अन्तरात्मा ख़ूब जानती है कि इन करतूतों के साथ मरोगे तो अल्लाह के यहाँ इससे अधिक अपमानित होगे, जितने दुनिया में हो रहे हो।

दूसरा भाग इस सूरा में लाकर इसलिए सम्मिलित किया गया है कि अल्लाह ने यहूदियों के सब्त के मुक़ाबले में मुसलमानों को जुमुआ (जुमा) प्रदान किया है और अल्लाह मुसलमानों को सचेत करना चाहता है कि वे अपने जुमा के साथ वह मामला न करें जो यहूदियों ने सब्त के साथ किया था। यह भाग उस समय उतरा था जब मदीना में एक दिन ठीक जुमा की नमाज़ के वक़्त एक तिजारती क़ाफ़िला आया और उसके ढोल-ताशों की आवाज़ सुनकर 12 आदमियों के सिवा मस्जिदे-नबवी में तमाम मौजूद लोग क़ाफ़िले की ओर दौड़ गए। हालाँकि उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ख़ुतबा दे रहे थे। इसपर यह आदेश दिया गया कि जुमुआ की अज़ान होने के बाद हर प्रकार के क्रय-विक्रय और हर दूसरी व्यस्तता अवैध (हराम) है।

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سُورَةُ الجُمُعَةِ
62. अल-जुमुआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡمَلِكِ ٱلۡقُدُّوسِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) अल्लाह का महिमागान कर रही है हर वह चीज़ जो आसमानों में है और हर वह चीज़ जो ज़मीन में है- बादशाह है अत्यन्त पवित्र, प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी।1
1. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-57 अल-हदीद, टिप्पणी 1, 2; सूरा-59 अल-हन, टिप्पणी 36, 37, 411 आगे के विषय से यह भूमिका बड़ा गहरा सम्बन्ध रखती है। अरब के यहूदी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के व्यक्तित्व, गुणों और कारनामों में रिसालत (पैग़म्बरी) की स्पष्ट निशानियाँ सर की आँखों से देख लेने के बावजूद केवल इस कारण आपका इंकार कर रहे थे कि अपनी क़ौम और नस्ल से बाहर के किसी व्यक्ति की रिसालत मान लेना उन्हें अत्यन्त नापसन्द था। आगे की आयतों में इसी नीति पर उनकी निन्दा की जा रही है, इसलिए वार्ता की शुरुआत इस भूमिकात्मक वाक्य से किया गया है। इसमें पहली बात यह फ़रमाई गई है कि सृष्टि की हर चीज़ अल्लाह का महिमागान कर रही है। अर्थात् यह पूरी सृष्टि इस बात पर गवाह है कि अल्लाह उन तमाम त्रुटियों और कमज़ोरियों से मुक्त है जिनके कारण यहूदियों ने अपनी वंशीय श्रेष्ठता की धारणा बना रखी है। अपनी सारी मखलूक (सृष्टि) के साथ उसका मामला समान रूप से न्याय, दया और पालन-क्रिया का है। कोई विशेष नस्ल और क़ौम उसकी चहेती नहीं है कि वह चाहे कुछ करे, बहरहाल उसकी कृपाएँ उसी के लिए ख़ास रहें। फिर फ़रमाया गया कि वह बादशाह है, अर्थात् दुनिया की कोई ताक़त उसके अधिकारों को सीमित करनेवाली नहीं है। तुम बन्दे और प्रजा हो। तुम्हें यह पद कब से प्राप्त हो गया कि तुम यह तय करो कि वह तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए अपना पैग़म्बर किसे बनाए और किसे न बनाए। इसके बाद कहा गया कि वह क़ुद्रूस (अत्यन्त पवित्र) है, अर्थात् इससे कहीं अधिक पावन और पवित्र है। उसके फैसले में किसी भूल-चूक या ग़लती की सम्भावना हो। अन्त में अल्लाह के दो और गुण बताए गए हैं। एक यह कि वह प्रभुत्वशाली हैं, अर्थात् उससे लड़कर कोई जीत नहीं सकता। दूसरी यह कि वह तत्त्वदर्शी है, अर्थात् जो कुछ करता है वह बिलकुल बुद्धि और विवेक के अनुसार ही होता है और उसके उपाय ऐसे सुदृढ़ होते हैं कि दुनिया में कोई उनका तोड़ नहीं कर सकता।
هُوَ ٱلَّذِي بَعَثَ فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 1
(2) वही है जिसने उम्मियों2 के अन्दर एक रसूल ख़ुद उन्हीं में से उठाया, जो उन्हें उसकी आयतें सुनाता है, उनकी जिंदगी संवारता है और उनकी किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देता है3, हालाँकि इससे पहले वे खुली गुमराही में पड़े हुए थे।4
2. यहाँ उम्मी' शब्द का प्रयोग यहूदी पारिभाषिक शब्द के रूप में आया है और इसमें एक सूक्ष्म व्यंग्य छिपा हुआ है। इसका अर्थ यह है कि जिन अरबों की यहूदी उपेक्षा के साथ उम्मी कहते हैं और अपने मुक़ाबले में हीन समझते हैं, उन्हीं में प्रभुत्वशाली और सर्वत्र अल्लाह ने एक रमूल उठाया है। वह गुट नहीं उठ खड़ा हुआ है, बल्कि उसका उठानेवाला वह है जो जगत् का सम्राट है, प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है, जिसकी शक्ति से लड़कर ये लोग अपना ही कुछ बिगाड़ेंगे, उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मालूम होना चाहिए कि कुरआन मजीद में उम्मी का शब्द अनेक स्थानों पर आया है और सब जगह उसके एक ही अर्थ नहीं हैं, बल्कि विभिन्न अवसरों पर वह विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। [यहाँ] वह शब्द विशुद्ध रूप से यहूदी पारिभाषिक शब्द के रूप में [आया] है, जिससे मुराद दुनिया के तमाम दीर-यहूदी हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-3आले-इमरान, टिप्पणी 4)
3. क़ुरआन मजीद में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के ये गुण चार जगहों पर बयान किए गए हैं। [(1) सूरा-2, अल-बक़रा, आयत 129, (2) सूरा-2 अल-बकरा, आयत 1513 (3) सूरा-3 आले-इमरान, आयत 164; (4) सूरा-62 अल-जमुआ की यह आयत 2] हर जगह इन [गुणों को बयान करने का उद्देश्य भिन्न-भिन्न है। [यहाँ इसका] अभिप्राय यहूदियों को यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल.) तुम्हारी आँखों के सामने जो काम कर रहे हैं, वह स्पष्ट रूप से एक रसूल का काम है। वह अल्लाह की आयतें सुना रहे हैं जिनकी भाषा, विषय, शैली, हर चीज़ इस बात की गवाही देती है कि वास्तव में वे अल्लाह ही के आयतें हैं। वह लोगों की जिंदगियाँ सँवार रहे हैं और उनको उच्च श्रेणी के नैतिक गुणों से आभूषित कर रहे हैं। यह वही काम है जो इससे पहले तमाम नबी करते रहे हैं। फिर वे हर वक्त अपने व्यवहार और कथन से और अपनी जिंदगी के नमूने से लोगों को अल्लाह की किताब का मकसद समझा रहे हैं और उनको उस विवेक और तत्त्वदर्शिता की शिक्षा दे रहे हैं जो नबियों के सिवा आज तक किसी ने नहीं दी है। यही चरित्र व आचरण और काम ही तो नबियों का वह स्पष्ट गुण है जिससे वे पहचाने जाते हैं। फिर यह कैसी हठधर्मी है कि जिसका सच्चा रसूल होना उसके कारनामों से खुले तौर पर साबित हो रहा है, उसको मानने से तुमने सिर्फ़ इसलिए इंकार कर दिया कि अल्लाह ने उसे तुम्हारी क़ौम के बजाय उस क़ौम में से उठाया है जिसे तुम 'उम्मी' कहते हो।
وَءَاخَرِينَ مِنۡهُمۡ لَمَّا يَلۡحَقُواْ بِهِمۡۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 2
(3) और (इस रसूल का जा जाना) उन दूसरे लोगों के लिए भी है जो अभी उनसे नहीं मिले हैं।5 अल्लाह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।6
5. अर्थात् मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) सिर्फ़ अरब क़ौम तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया भर की उन दूसरी क़ौमों और नस्लों के लिए भी है जो अभी आकर ईमानवालों में शामिल नहीं हुई हैं, मगर आगे क़ियामत तक आनेवाली हैं। यह आयत उन आयतों में से एक है जिनमें स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) सम्पूर्ण मानव-जाति की ओर [रसूल बनाकर भेजे गए हैं और [आप सल्ल०] की पैग़म्बरी हमेशा के लिए है। क़ुरआन मजीद की दूसरी जगहें, जहाँ इस विषय को स्पष्ट किया गया है (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-34 सबा, टिप्पणी 47)
6. अर्थात् यह उसी की सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता का चमत्कार है कि ऐसी अनघड़ उम्मी क़ौम में उसने ऐसा महान नबी पैदा किया जिसकी शिक्षा और मार्गदर्शन इतना क्रान्तिकारी है और फिर ऐसे विश्वव्यापी शाश्वत नियमों से युक्त हैं जिनपर सम्पूर्ण मानव-जाति मिलकर एक उम्मत (समुदाय) बन सकती है और हमेशा-हमेशा उन नियमों से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकती है। यह एक मोजज़ा (चमत्कार) है जो अल्लाह की कुदरत से सामने आया है और अल्लाह ही ने अपनी तत्त्वदर्शिता के कारण जिस व्यक्ति, जिस देश और जिस क़ौम को चाहा है, इसके लिए चुन लिया है।
ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 3
(4) यह उसकी कृपा है, जिसे चाहता है प्रदान करता है, और वह बड़ा कृपा करनेवाला है।
مَثَلُ ٱلَّذِينَ حُمِّلُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ ثُمَّ لَمۡ يَحۡمِلُوهَا كَمَثَلِ ٱلۡحِمَارِ يَحۡمِلُ أَسۡفَارَۢاۚ بِئۡسَ مَثَلُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 4
(5) जिन लोगों को तौरात का वाहक बनाया गया था, मगर उन्होंने उसका भार न उठाया,7 उनकी मिसाल उस गधे 8 की-सी है जिसपर किताबें लदी हुई हों। इससे भी ज़्यादा बुरी मिसाल है उन लोगों की जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया है।9 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह मार्ग नहीं दिखाया करता।
7. इस वाक्य के दो अर्थ हैं- एक आम और दूसरा ख़ास। आम अर्थ यह है कि जिन लोगों पर तौरात के ज्ञान व व्यवहार और उसके अनुसार दुनिया के मार्गदर्शन का भार रखा गया था, मगर उन्होंने न अपनी इस ज़िम्मेदारी को समझा और न इसका हक़ अदा किया। ख़ास अर्थ यह है कि तौरात का वाहक गरोह होने की हैसियत से जिनका काम यह था कि सबसे पहले आगे बढ़कर उस रसूल का साथ देते, जिसके आने की स्पष्ट शुभ-सूचना तौरात में दी गई थी, मगर उन्होंने सबसे बढ़कर इसका विरोध किया और तौरात की शिक्षा के तक़ाज़े (अपेक्षा) को पूरा न किया।
8. अर्थात् जिस तरह गधे पर किताबें लदी हों और वह नहीं जानता कि उसकी पीठ पर क्या है इसी तरह ये तौरात को अपने ऊपर लादे हुए हैं और नहीं जानते कि यह किताब किस लिए आई है और उनसे क्या चाहती है?
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ هَادُوٓاْ إِن زَعَمۡتُمۡ أَنَّكُمۡ أَوۡلِيَآءُ لِلَّهِ مِن دُونِ ٱلنَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 5
(6) इनसे कहो, "ऐ लोगो जो यहूदी बन गए हो,10 अगर तुम्हें यह घमंड है कि बाक़ी सब लोगों को छोड़कर बस तुम ही अल्लाह के चहेते11 हो तो मौत की कामना करो अगर तुम अपने इस दावे में सच्चे हो।"12
10. यह बात ध्यान देने योग्य है, "ऐ यहूदियो!" नहीं कहा है, बल्कि "ऐ वे लोगो जो यहूदी बन गए हो" या "जिन्होंने यहूदियत अपना ली है" फ़रमाया है। इसका कारण यह है कि असल दीन जो मूसा (अलैहि०) और उनसे पहले और बाद के नबी लाए थे, वह तो इस्लाम ही था। इन नबियों में से कोई भी यहूदी न था और न उनके समय में यहूदियत पैदा हुई थी। यह धर्म इस नाम के साथ बहुत बाद की पैदावार है। इसकी निस्बत उस ख़ानदान से है जो हज़रत याकूब (अलैहि०) के चौथे बेटे यहूदाह की नस्ल से था। इस नस्ल के अन्दर काहिनों (ज्योतिषियों) और रिब्बियों (धार्मिकजनों) और अहबार (धर्मशास्त्रियों) ने अपने-अपने विचारों, दृष्टिकोणों और रुझानों के अनुसार अक़ीदों, रस्मों और धार्मिक परंपराओं का ढाँचा सैकड़ों साल में तैयार किया, उसका नाम यहूदियत (यहूदी मत) है। अल्लाह के रसूलों की लाई हुई रब्बानी हिदायत (ईश-मार्गदर्शन) का बहुत ही थोड़ा अंश उसमें सम्मिलित है और उसका हुलिया भी अच्छा-खासा बिगड़ चुका है। इसी कारण कुरआन मजीद में अधिकतर स्थानों पर इनको 'अल्लज़ी-न हादू' कहकर सम्बोधित किया गया है, अर्थात् “ऐ वे लोगो जो यहूदी बनकर रह गए हो!" उनमें सब के सब इसराईली ही न थे, बल्कि वे ग़ैर-इसराईली लोग भी थे जिन्होंने यहूदियत क़बूल कर ली थी। क़ुरआन में जहाँ बनी इसराईल को सम्बोधित किया गया है, वहाँ 'ऐ बनी इसराईल' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं और जहाँ यहूदी मत के अनुयायियों को सम्बोधित किया गया है, वहाँ 'अल्लज़ी-न हादू' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
11. क़ुरआन मजीद में अनेक जगहों पर उनके इस दावे का विवरण दिया गया है। [देखिए सूरा-2, अल-बक़रा, आयत 80, 111; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 24; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 18]
وَلَا يَتَمَنَّوۡنَهُۥٓ أَبَدَۢا بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 6
(7) लेकिन ये हरगिज़ उसकी कामना न करेंगे अपनी उन करतूतों की वजह से जो ये कर चुके हैं।13 और अल्लाह इन ज़ालिमों को भली-भाँति जानता है।
13. दूसरे शब्दों में वे ज़बान से भले ही कैसे हो लम्बे-चौड़े दावे करें, मगर उनके दिल खूब जानते हैं कि अल्लाह और उसके दीन के साथ उनका मामला क्या है और आख़िरत में उसके क्या परिणाम निकलने की आशा की जा सकती है। इसी लिए वे अल्लाह की अदालत का सामना करने से जी चुराते हैं।
قُلۡ إِنَّ ٱلۡمَوۡتَ ٱلَّذِي تَفِرُّونَ مِنۡهُ فَإِنَّهُۥ مُلَٰقِيكُمۡۖ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) इनसे कहो, "जिस मौत से तुम भागते वह तो तुम्हें आकर रहेगी, फिर तुम उसके सामने पेश किए जाओगे जो छिपे और खुले का जाननेवाला है और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।"
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نُودِيَ لِلصَّلَوٰةِ مِن يَوۡمِ ٱلۡجُمُعَةِ فَٱسۡعَوۡاْ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَذَرُواْ ٱلۡبَيۡعَۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 8
(9) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुमा के दिन 14 तो अल्लाह के ज़िक्र की ओर दौड़ो और क्रय-विक्रय छोड़ दो।15 यह तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है अगर तुम जानो।
14. इस वाक्य में तीन बातें मुख्य रूप से ध्यान देने योग्य हैं- एक यह कि इसमें नमाज़ के लिए मुनादी (एलान) करने का उल्लेख है। दूसरी यह कि किसी ऐसी नमाज़ की मुनादी का उल्लेख है जो मुख्य रूप से जुमा के दिन ही पढ़ी जानी चाहिए। तीसरी यह इन दोनों चीज़ों का उल्लेख इस तरह नहीं किया गया है कि तुम नमाज़ के लिए मुनादी करो और जुमा के दिन एक विशेष नमाज़ पढ़ा करो, बल्कि वर्णन-शैली और प्रसंग व सन्दर्भ साफ़ बता रहा है कि नमाज़ की मुनादी और जुमा की विशेष नमाज़, दोनों पहले से चल रही थी, अलबत्ता लोग यह ग़लती कर रहे थे कि जुमा की मुनादी सुनकर नमाज़ के लिए दौड़ने में सुस्ती दिखाते थे और ख़रीदने-बेचने में लगे रहते थे, इसलिए अल्लाह ने यह आयत केवल इस उद्देश्य के लिए उतारी कि लोग इस मुनादी और इस विशेष नमाज़ का महत्व महसूस करें और अनिवार्य (फ़र्ज़) जानकर उसकी ओर दौड़ें। इन तीनों बातों पर अगर विचार किया जाए तो इनसे यह सैद्धान्तिक वास्तविकता निश्चित रूप से साबित हो जाती है कि अल्लाह रसूल (सल्ल०) को कुछ ऐसे आदेश भी देता था जो कुरआन में अवतरित नहीं हुए और उन आदेशों का पालन भी उसी तरह अनिवार्य था जिस तरह कुरआन में उतरनेवाले आदेश। नमाज़ की मुनादी वही अज़ान है जो आज सारी दुनिया में हर दिन पाँच वक़्त हर मस्जिद में दी जा रही है, मगर क़ुरआन में किसी जगह न उसके शब्द बयान किए गए हैं, न कहीं यह आदेश दिया गया है कि नमाज़ के लिए लोगों को इस तरह पुकारा करो। यह चीज़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की निश्चित की हुई है। क़ुरआन में दो जगह सिर्फ़ उसकी पुष्टि की गई है। एक इस आयत में, दूसरे सूरा-5 माइदा की आयत 58 में। इसी तरह जुमा की यह ख़ास नमाज़ जो आज सारी दुनिया के मुसलमान अदा कर रहे हैं, इसका भी क़ुरआन में न आदेश दिया गया है, न समय और न अदा करने का तरीक़ा बताया गया है। यह तरीक़ा भी रसूल (सल्ल०) का जारी किया हुआ है और क़ुरआन की यह आयत केवल उसके महत्त्व और उसके अनिवार्य होने की तीव्रता बताने के लिए उतरी है। इस खुले प्रमाण के बावजूद जो व्यक्ति यह कहता है कि शरई आदेश केवल वही हैं जो कुरआन में बयान हुए हैं, वह वास्तव में सुन्नत का नहीं, स्वयं क़ुरआन का इंकारी है। जुमा वास्तव में एक इस्लामी पारिभाषिक शब्द है। अज्ञानकाल में अरबवासी इसे यौमे-अरूबा (अरबों का दिन) कहा करते थे। इस्लाम में जब उसको मुसलमानों के इज्तिमा (सम्मेलन) का दिन क़रार दिया गया तो उसका नाम जुमुआ रखा गया। इस्लाम से पहले सप्ताह का एक दिन उपासना के लिए ख़ास करने और उसे [अपने] समुदाय का प्रतीक घोषित करने का तरीक़ा अहले-किताब में मौजूद था। यहूदियों के यहाँ इस उद्देश्य के लिए सब्त का दिन (शनिवार) निर्धारण किया गया था। ईसाइयों ने अपने आपको यहूदियों से अलग करने के लिए अपना सामुदायिक प्रतीक इतवार का दिन (रविवार) क़रार दिया था। इस्लाम ने इन दोनों समुदायों से अपने समुदाय (मिल्लत) को अलग करने के लिए ये दोनों दिन छोड़कर जुमा को सामूहिक उपासना के लिए इख़्तियार किया।
15. इस आदेश में ज़िक्र से मुराद खुतबा (नमाज़ से पहले का भाषण) है, क्योंकि अज़ान के बाद पहला काम जो नबी (सल्ल०) करते थे वह नमाज़ नहीं, बल्कि खुतबा था और नमाज़ आप हमेशा ख़ुतबे के बाद अदा फ़रमाते थे। टीकाकार इसपर सहमत हैं कि ज़िक्र से मुराद या तो ख़ुतबा है या फ़िर ख़ुतबा और नमाज़ दोनों। खुतबे के लिए अल्लाह का ज़िक्र' का शब्द प्रयोग करना स्वयं यह अर्थ रखता है कि इसमें वे बातें होनी चाहिएँ जो अल्लाह की याद से मेल खाती हों। इसी कारण ज़मख़्शरी ने कश्शाफ़' में लिखा है कि ख़ुतबे में अत्याचारी शासकों का गुणगान या उनका नाम लेना और उनके लिए दुआ करना, 'अल्लाह के ज़िक्र' से तनिक भी मेल नहीं खाता, बल्कि यह तो शैतान का ज़िक्र है। 'अल्लाह के ज़िक्र की ओर दौड़ो' का अर्थ यह नहीं है कि भागते हुए आओ, बल्कि इसका अर्थ यह है कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचने की कोशिश करो। टीकाकार भी इसपर सहमत हैं कि इसका अर्थ है एहतिमाम और फ़िक्र करना। उनके नज़दीक 'दौड़ना' यह है कि आदमी अजान की आवाज़ सुनकर तुरन्त मस्जिद पहुँचने की फ़िक्र और कोशिश में लग जाए और मामला इतना ही नहीं है, हदीस में भागकर नमाज़ के लिए आने से साफ़ तौर पर रोका गया है। 'क्रय-विक्रय छोड़ दो' का अर्थ केवल क्रय-विक्रय हो छोड़ना नहीं है, बल्कि नमाज़ के लिए जाने की चिन्ता, कोशिश और एहतिमाम के अलावा हर दूसरी व्यस्तता छोड़ देना है। क्रय-विक्रय' का उल्लेख मुख्य रूप से सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि जुमा [का दिन वहाँ क्रय-विक्रय का ख़ास दिन होता था] लेकिन केवल क्रय-विक्रय ही से मना नहीं किया गया है, बल्कि दूसरे तमाम काम भी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं, और चूंकि अल्लाह ने साफ़-साफ़ इससे मना फ़रमा दिया है, इसलिए इस्लामी फुकहा (धर्मशास्त्री) इसपर सहमत हैं कि जुमा की अज़ान के बाद क्रय-विक्रय' और हर प्रकार का कारोबार हराम (अवैध) है। यह आदेश निश्चित रूप से जुमा की नमाज़ के अनिवार्य (फ़र्ज़) होने की दलील है। अलबत्ता नबी (सल्ल०) के अनुसार औरतों, बच्चों, गुलाम, रोगी और यात्रियों पर जुमा फ़र्ज़ नहीं किया गया है।
فَإِذَا قُضِيَتِ ٱلصَّلَوٰةُ فَٱنتَشِرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 9
(10) फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो धरती में फैल जाओ और अल्लाह की कृपा तलाश करो।16 और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करते रहो17, शायद कि तुम्हें सफलता मिल जाए।18
16. इसका अर्थ यह नहीं है कि जुमा की नमाज़ के बाद ज़मीन में फैल जाना और रोज़ी की तलाश में लग जाना ज़रूरी है। बल्कि यह कथन अनुमति (इजाज़त) के अर्थ में है। चूँकि जुमा की अज़ान सुनकर सब कारोबार छोड़ देने का आदेश दिया गया था, इसलिए कहा गया कि नमाज़ ख़त्म हो जाने के बाद तुम्हें इजाज़त है कि फैल जाओ और अपने जो कारोबार भी करना चाहो, करो। यह ऐसा ही है जैसे एहराम की हालत में शिकार से मना करने के बाद कहा, "जब तुम एहराम खोल दो तो शिकार करो" (सूरा-5 अल-माइदा, आयत 2)। इसका अर्थ यह नहीं है कि एहराम खोलने के बाद अवश्य ही शिकार करो, बल्कि इससे मुराद यह है कि इसके बाद शिकार पर कोई पाबन्दी बाक़ी नहीं रहती, चाहो तो शिकार कर सकते हो। इसलिए जो लोग इस आयत से यह सिद्ध करते हैं कि कुरआन के अनुसार इस्लाम में जुमा की छुट्टी नहीं है, वे ग़लत कहते हैं। अगर सप्ताह में कोई एक दिन सामान्य छुट्टी के लिए निर्धारित करना एक सांस्कृतिक आवश्यकता हो तो जिस तरह यहूदी उसके लिए स्वाभाविक रूप से शनिवार को और ईसाई रविवार को चुन लेते हैं, उसी तरह मुसलमान अनिवार्यतः इस उद्देश्य के लिए जुमा ही को चुनेगा।
17. अर्थात् अपने कारोबार में लगकर भी अल्लाह को भूलो नहीं, बल्कि हर हाल में उसको याद रखो और उसे याद करते रहो। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-33 अल-अहज़ाब, टिप्पणी 63)
وَإِذَا رَأَوۡاْ تِجَٰرَةً أَوۡ لَهۡوًا ٱنفَضُّوٓاْ إِلَيۡهَا وَتَرَكُوكَ قَآئِمٗاۚ قُلۡ مَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ مِّنَ ٱللَّهۡوِ وَمِنَ ٱلتِّجَٰرَةِۚ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 10
(11) और जब उन्होंने व्यापार और खेल-तमाशा होते देखा तो उसकी ओर लपक गए और तुम्हें खड़ा छोड़ दिया।19 उनसे कहो, जो कुछ अल्लाह के पास है वह खेल-तमाशे और कारोबार से अच्छा है।20 और अल्लाह सबसे अच्छी रोज़ी देनेवाला है।21
19. यह है वह घटना जिसके कारण ऊपर की आयतों में जुमा के आदेश दिए गए हैं। मदीना तैयिबा में शाम से एक व्यापारिक क़ाफ़िला ठीक जुमा की नमाज़ के वक़्त आया और उसने ढोल-ताशे बजाने शुरू किए, ताकि आबादी के लोगों को उसके आने की सूचना हो जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उस वक़्त ख़ुतबा दे रहे थे। ढोल-ताशों की आवाजें सुनकर लोग बेचैन हो गए और 12 आदमियों के सिवा बाक़ी सब बक़ीअ की ओर दौड़ गए जहाँ क़ाफ़िला उतरा हुआ था। [इस स्थिति के पैदा हो जाने का कारण वास्तव में यह था कि अभी मदीना का आरंभिक समय था] उस वक़्त एक ओर तो सहाबा (रज़ि०) की सामूहिक ट्रेनिंग आरंभिक चरण में थी और दूसरी ओर मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने अपने प्रभाव से काम लेकर मदीना तैयिबा के निवासियों की सख्त आर्थिक नाकेबन्दी कर रखी थी जिसके कारण से मदीना में आवश्यक वस्तुएँ दुर्लभ हो गई थीं। हज़रत हसन बसरी (रह०) फ़रमाते हैं कि उस वक़्त मदीना में लोग भूखों मर रहे थे और क़ीमतें बहुत चढ़ी हुई थीं (इब्ने-जरीर)। इस हालत में जब एक तिजारती क़ाफ़िला आया तो लोग इस अंदेशे से कि कहीं हमारे नमाज़ से फ़ारिग होते-होते सामान बिक न जाए, घबराकर उसकी ओर दौड़ गए। यह एक ऐसी कमज़ोरी और ग़लती थी जो उस वक़्त अचानक ट्रेनिंग (तरबियत) की कमी और कठिन परिस्थितियों के कारण सामने आ गई थी।
20. यह वाक्य बता रहा है कि सहाबा (रजि०) से जो ग़लती हुई थी वह किस प्रकार की थी। अगर (अल्लाह अपनी पनाह में रखे) उसकी वजह ईमान की कमी और आखिरत की अपेक्षा जानते-बूझते दुनिया को प्राथमिकता देनी होती, तो अल्लाह के ग़ज़ब और डांट-फटकार का अन्दाज़ कुछ और होता, लेकिन चूंकि ऐसी कोई ख़राबी वहाँ न थी, बल्कि जो कुछ हुआ था प्रशिक्षण की कमी के कारण हुआ था, इसलिए पहले एक शिक्षक के ढंग से जुमा के नियम बताए गए, फिर उस ग़लती पर पकड़ करके प्रतिपालक (मुरब्बी) के ढंग से समझाया गया कि जुमा का खुतबा सुनने और उसकी नमाज़ अदा करने पर जो कुछ तुम्हें अल्लाह के यहाँ मिलेगा, वह इस दुनिया के कारोबार और खेल तमाशों से अच्छा है।