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سُورَةُ المُنَافِقُونَ

63. अल-मुनाफ़िक़ून

(मदीना में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

पहली आयत के वाक्यांश "इज़ा जा-अ कल-मुनाफ़िकून" अर्थात् "ऐ नबी, जब ये 'मुनाफ़िक़' तुम्हारे पास आते हैं" से लिया गया है। यह इस सूरा का नाम भी है और इसके विषय का शीर्षक भी, क्योंकि इसमें मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) ही की नीति की समीक्षा की गई है।

उतरने का समय

यह सूरा बनी अल-मुस्तलिक़ के अभियान [जो सन् 06 हि० में घटित हुआ था] से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की वापसी पर या तो यात्रा के बीच में उतरी है या नबी (सल्ल०) के मदीना तय्यिबा पहुँचने के बाद तुरन्त ही उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस विशेष घटना के बारे में यह सूरा उतरी है, उसका उल्लेख करने से पहले यह ज़रूरी है कि मदीना के मुनाफ़िक़ों के इतिहास पर एक दृष्टि डाल ली जाए, क्योंकि जो घटना उस समय घटित हुई थी, वह मात्र आकस्मिक घटना न थी, बल्कि उसके पीछे एक पूरा घटना-क्रम था जो अन्तत: इस परिणाम तक पहुँची। मदीना तय्यिबा में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के आने से पहले औस और ख़ज़रज के क़बीले आपस के घरेलू युद्धों से थककर [ख़ज़रज क़बीले के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई-बिन-सलूल के नेतृत्व और श्रेष्ठता पर लगभग सहमत हो चुके थे] और इस बात की तैयारियाँ कर रहे थे कि उसको अपना बादशाह बनाकर विधिवत रूप से उसकी ताजपोशी का उत्सव मनाएँ, यहाँ तक कि इसके लिए ताज भी बना लिया गया था। ऐसी स्थिति में इस्लाम की चर्चा मदीना पहुंँची और उन दोनों क़बीलों के प्रभावशाली व्यक्ति मुसलमान होने शुरू हो गए। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुंँचे तो अंसार के हर घराने में इस्लाम इतना फैल चुका था कि अब्दुल्लाह बिन उबई बेबस हो गया और उसको अपनी सरदारी बचाने का इसके सिवा कोई उपाय दिखाई न दिया कि वह स्वयं भी मुसलमान हो जाए। हालाँकि उसको इस बात का बड़ा दुख था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसकी बादशाही छीन ली है। कई वर्षों तक उसका यह कपटपूर्ण ईमान और अपनी सत्ता छिन जाने का यह दुख तरह-तरह के रंग दिखाता रहा। बद्र की लड़ाई के बाद जब बनू-क़ैनुक़ाअ के यहूदियों के स्पष्टतः प्रतिज्ञा-भंग करने और बिना किसी उत्तेजना के सरकशी करने पर जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनपर चढ़ाई की तो यह व्यक्ति उनकी मदद के लिए उठ खड़ा हुआ। (इब्‍ने-हिशाम, भाग-3, पृ० 51-52)

उहुद के युद्ध के अवसर पर इस व्यक्ति ने खुला विद्रोह किया और ठीक समय पर अपने तीन सौ साथियों को लेकर लड़ाई के मैदान से उलटा वापस आ गया। जिस नाज़ुक घड़ी में उसने यह हरकत की थी, उसकी गंभीरता का अन्दाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि क़ुरैश के लोग तीन हज़ार की सेना लेकर मदीना पर चढ़ आए थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उनके मुक़ाबले में केवल एक हज़ार आदमी साथ लेकर प्रतिरक्षा के लिए निकले थे। इन एक हज़ार में से भी यह मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) तीन सौ आदमी तोड़ लाया और नबी (सल्ल०) को सिर्फ़ सात सौ के जत्थे के साथ तीन हज़ार शत्रुओं का मुक़ाबला करना पड़ा। फिर 4 हि० में बनी नज़ीर के अभियान का अवसर आया और इस अवसर पर इस व्यक्ति ने और इसके साथियों ने और भी अधिक खुलकर इस्लाम के विरुद्ध इस्लाम के दुश्मनों की मदद की। [यह थी वह पृष्ठभूमि जिसके साथ वह और उसके मुनाफ़िक़ साथी बनू-मुस्तलिक़ के अभियान में शरीक हुए थे। इस अवसर पर उन्होंने एक साथ दो ऐसे बड़े उपद्रव खड़े कर दिए जो मुसलमानों की एकता को बिल्कुल टुकड़े-टुकड़े कर सकते थे, किन्तु पवित्र क़ुरआन की शिक्षा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की संगति से ईमानवालों को जो उत्कृष्ट प्रशिक्षण प्राप्त था उसके कारण वे दोनों उपद्रव ठीक समय पर समाप्त हो गए और ये मुनाफ़िक़ स्वयं अपमानित होकर रह गए।

इनमें से एक उपद्रव तो वह था जिसका उल्लेख सूरा-24 नूर में गुज़र चुका है और दूसरा उपद्रव यह है जिसका इस सूरा में उल्लेख किया गया है। इस घटना का [संक्षिप्त विवरण यह है कि] बनू-मुस्तलिक़ को पराजित करने के बाद अभी इस्लामी सेना उस बस्ती में ठहरी हुई थी जो मुरैसीअ नामक कुएँ पर आबाद थी कि अचानक पानी पर दो व्यक्तियों का झगड़ा हो गया। उनमें से एक का नाम जहजाह-बिन-मसऊद ग़िफ़ारी था जो हज़रत उमर (रज़ि०) के सेवक थे और उनका घोड़ा संभालने का काम करते थे और दूसरे व्यक्ति सिनान-बिन-दबर अल-जुहनी थे जिनका क़बीला खज़रज के एक क़बीले का प्रतिज्ञाबद्ध मित्र था। मौखिक कटुवचन से आगे बढ़कर नौबत हाथापाई तक पहुँची और जहजाह ने सिनान के एक लात मार दी, जिसे अपनी पुरानी यमनी परम्पराओं की वजह से अंसार अपना बड़ा अपमान समझते थे। इसपर सिनान ने अंसार को मदद के लिए पुकारा और जहजाह ने मुहाजिरों को आवाज़ दी। इब्‍ने-उबई ने इस झगड़े की खबर सुनते ही औस और खज़रज के लोगों को भड़काना और चीख़ना शुरू कर दिया कि दौड़ो और अपने मित्र क़बीले की मदद करो। उधर से कुछ मुहाजिर भी निकल आए। क़रीब था कि बात बढ़ जाती और उसी जगह अंसार और मुहाजिर आपस में लड़ पड़ते, जहाँ अभी-अभी वे मिलकर एक दुश्मन क़बीले से लड़े थे और उसे परास्त करके अभी उसी के क्षेत्र में ठहरे हुए थे। लेकिन यह शोर सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) निकल आए और आपने फ़रमाया, "यह अज्ञानकाल की पुकार कैसी? तुम लोग कहाँ और यह अज्ञान की पुकार कहाँ? इसे छोड़ दो यह बड़ी गन्दी चीज़ है।'' इसपर दोनों ओर के भले लोगों ने आगे बढ़कर मामला ख़त्म करा दिया और सिनान ने जहजाह को माफ़ करके समझौता कर लिया। इसके बाद हर वह व्यक्ति जिसके मन में निफ़ाक़ (कपट) था, अब्दुल्लाह-बिन-उबई के पास पहुँचा और इन लोगों ने जमा होकर उससे कहा कि "अब तक तो तुमसे आशाएँ थी और तुम प्रतिरक्षा कर रहे थे, मगर अब मालूम होता है कि तुम हमारे मुक़ाबले में इन कंगलों के सहायक बन गए हो।" इब्‍ने-उबई पहले ही खौल रहा था, इन बातों से वह और भी अधिक भड़क उठा। कहने लगा, "यह सब कुछ तुम्हारा ही किया-धरा है, तुमने इन लोगों को अपने देश में जगह दी, इनपर अपने माल बाँटे, यहाँ तक कि अब ये फल-फूलकर स्वयं हमारे ही प्रतिद्वन्द्वी बन गए। हमारी और इन कुरैश के कंगलों (या मुहम्मद के साथियों) की दशा पर यह कहावत चरितार्थ होती है कि अपने कुत्ते को खिला-पिलाकर मोटा कर ताकि तुझी को फाड़ खाए। तुम लोग इनसे हाथ रोक लो तो ये चलते-फिरते नज़र आएँ। ख़ुदा की क़सम! मदीना वापस पहुँचकर हममें से जो प्रतिष्ठित है, वह हीन को निकाल देगा।" [नबी (सल्ल०) को जब इस बात का ज्ञान हुआ तो] आपने तुरन्त ही कूच का आदेश दे दिया, हालाँकि नबी (सल्ल०) के सामान्य नियम के अनुसार वह कूच का समय न था। लगातार तीस घंटे चलते रहे, यहाँ तक कि लोग थककर चूर हो गए। फिर आपने एक जगह पड़ाव किया और थके हुए लोग धरती पर कमर टिकाते ही सो गए। यह आपने इसलिए किया कि जो मुरैसीअ के कुएँ पर घटित हुआ था, उसका प्रभाव लोगों के मन से मिट जाए [लेकिन] धीरे-धीरे यह बात तमाम अंसार में फैल गई और उनमें इब्‍ने-उबई के विरुद्ध अत्यन्त रोष उत्पन्न हो गया। लोगों ने इब्‍ने-उबई से कहा कि जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से माफ़ी माँगो। मगर उसने बिगड़कर उत्तर दिया, "तुमने कहा कि उनपर ईमान लाओ, मैं ईमान ले आया; तुमने कहा कि अपने माल की ज़कात दो, मैंने ज़कात भी दे दी। अब बस यही कसर रह गई है कि मैं मुहम्मद को सजदा करूँ।" इन बातों से उसके विरुद्ध अंसारी मुसलमानों का क्रोध और अधिक बढ़ गया और हर ओर से उसपर फिटकार पड़ने लगी। जब यह क़ाफ़िला मदीना तय्यिबा में दाखिल होने लगा तो अब्दुल्लाह-बिन-उबई के बेटे जिनका नाम भी अब्दुल्लाह ही था, तलवार खींचकर बाप के आगे खड़े हो गए और बोले, "आपने कहा था कि मदीना वापस पहुँचकर प्रतिष्ठित हीन को निकाल देगा। अब आपको मालूम हो जाएगा कि इज़्ज़त (प्रतिष्ठा) आप की है या अल्लाह और उसके रसूल की। ख़ुदा की क़सम ! आप मदीना में दाखिल नहीं हो सकते जब तक अल्लाह के रसूल (सल्ल.) आपको अनुमति न दें।" इसपर इब्‍ने-उबई, चीख उठा, "खज़रज के लोगो! तनिक देखो, मेरा बेटा ही मुझे मदीना में दाख़िल होने से रोक रहा है। लोगों ने यह ख़बर नबी (सल्ल.) तक पहुँचाई और आपने फ़रमाया “अब्दुल्लाह से कहो कि अपने बाप को घर आने दे।" अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने कहा, "उनका हुक्म है तो अब आप दाख़िल हो सकते हैं।"

ये थीं वे परिस्थितियाँ जिनमें यह सूरा, प्रबल सम्भावना यह है कि नबी (सल्ल०) के मदीना पहुँचने के बाद, उतरी।

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سُورَةُ المُنَافِقُونَ
63. अल-मुनाफ़िक़ून
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ قَالُواْ نَشۡهَدُ إِنَّكَ لَرَسُولُ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِنَّكَ لَرَسُولُهُۥ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَكَٰذِبُونَ
(1) ऐ नबी! जब ये मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं, "हम गवाही देते हैं कि आप निश्चय ही अल्लाह के रसूल हैं।" हाँ, अल्लाह जानता है कि तुम अवश्य ही उसके रसूल हो, मगर अल्लाह गवाही देता है कि ये मुनाफ़िक़ बिलकुल झूठे हैं।1
1. अर्थात् जो बात वे ज़बान से कह रहे हैं, वह है तो अपनी जगह सच्ची, लेकिन चूंकि उनकी अपनी धारणा वह नहीं है जिसे वे ज़बान से व्यक्त कर रहे हैं, इसलिए अपने इस कथन में वे झूठे हैं कि वे आपके रसूल होने की गवाही देते हैं।
ٱتَّخَذُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ جُنَّةٗ فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 1
(2) इन्होंने अपनी कसमों को ढाल बना रखा है2 और इस प्रकार ये अल्लाह के रास्ते से ख़ुद रुकते हैं और दुनिया को रोकते हैं।3 कैसी बुरी हरकतें हैं जो ये लोग कर रहे हैं।
2. अर्थात् अपने मुसलमान और ईमानवाला होने का विश्वास दिलाने के लिए जो क़समें वे खाते हैं, उनसे वे ढाल का काम लेते हैं, ताकि मुसलमानों के गुस्से से बचे रहें और उनके साथ मुसलमान वह बर्ताव न कर सकें जो खुले-खुले दुश्मनों से किया जाता है। इन कसमों से मुराद वे क़समें भी हो सकती हैं जो वे आमतौर पर अपने ईमान का यकीन दिलाने के लिए खाया करते थे और वे क़समें भी हो सकती हैं जो अपनी किसी कपटपूर्ण हरकत के पकड़े जाने पर वे खाते थे, ताकि मुसलमानों को यह विश्वास दिलाएँ कि वह हरकत उन्होंने कपट के कारण नहीं की थी और वे क्रसमें भी हो सकती हैं जो अब्दुल्लाह बिन उबय्य ने हज़रत जैद बिन अरक़म की दी हुई ख़बर को झुठलाने के लिए खाई थी। इन तमाम सम्भावनाओं के साथ एक सम्भावना यह भी है कि अल्लाह ने उनके इस कथन को कसम क़रार दिया हो कि "हम गवाही देते हैं कि आप अल्लाह के रसूल हैं।"
3. मूल वाक्य 'सद्दू अन सबोलिल्लाह' का अर्थ यह भी है कि वे अल्लाह के रास्ते से ख़ुद रुकते हैं और यह भी कि वे उस रास्ते से दूसरों को रोकते हैं। इसलिए हमने अनुवाद में दोनों अर्थ लिख दिए हैं। पहले अर्थ की दृष्टि से मतलब यह होगा कि अपनी इन क़समों के जरीए से मुसलमानों के अन्दर अपनी जगह सुरक्षित कर लेने के बाद वे अपने लिए ईमान के तक़ाज़े पूरे न करने और ख़ुदा और रसूल के आज्ञापालन से बचने की आसानियाँ पैदा कर लेते हैं। दूसरे अर्थ की दृष्टि से मतलब यह होगा कि अपनी इन झूठी क़समों की आड़ में वे शिकार खेलते हैं, इस्लाम के प्रति गैर-मुस्लिमों को बदगुमान करने और सीधे-सादे मुसलमानों के दिलों में सन्देह और वस्वसे डालने के लिए वे ऐसी-ऐसी चालें चलते हैं जो केवल एक मुसलमान बना हुआ मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) ही इस्तेमाल कर सकता है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ فَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 2
(3) यह सब कुछ इस कारण से है कि इन लोगों ने ईमान लाकर फिर कुफ्र (इनकार) किया, इसलिए इनके दिलों पर मुहर लगा दी गई, अब ये कुछ नहीं समझते।4
4. इस आयत में ईमान लाने से मुराद ईमान का इक़रार करके मुसलमानों में शामिल होना है। और कुफ्र करने से मुराद दिल से ईमान न लाना और उसी कुफ्र पर क़ायम रहना है जिस पर वे अपने ईमान के ज़ाहिरी इक़रार से पहले क़ायम थे। कहने का मतलब यह है कि जब उन्होंने खूब सोच-समझकर सीधे-सीधे ईमान या साफ़-साफ़ कुफ्र (इंकार) का तरीका अपनाने के बजाय यह कपटपूर्ण नीति अपनाने का निर्णय किया तो अल्लाह की ओर से उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई और उनसे यह सुअवसर छीन लिया गया कि वे एक सच्चे और बे-लाग और सज्जन व्यक्ति की-सी नीति अपनाएँ। यह आयत उन आयतों में से है जिनमें अल्लाह की ओर से किसी के दिल पर मुहर लगाने का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट तरीके से बयान कर दिया गया है। इन मुनाफ़िक़ों की यह दशा इस कारण नहीं हुई कि अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी थी इसलिए ईमान उनके अन्दर उतर ही न सका और वे विवशतापूर्वक मुनाफ़िक़ बनकर रह गए। बल्कि उसने उनके दिलों पर यह मुहर उस वक़्त लगाई जब उन्होंने ईमान की अभिव्यक्ति के बावजूद कुफ्र पर जमे रहने का फैसला कर लिया, तब उनसे विशुद्ध ईमान का सौभाग्य छीन लिया गया और उसी कपटपूर्ण निफ़ाक़ के साधन उनके लिए जुटा दिए गए जिसे उन्होंने स्वयं अपनाया था।
۞وَإِذَا رَأَيۡتَهُمۡ تُعۡجِبُكَ أَجۡسَامُهُمۡۖ وَإِن يَقُولُواْ تَسۡمَعۡ لِقَوۡلِهِمۡۖ كَأَنَّهُمۡ خُشُبٞ مُّسَنَّدَةٞۖ يَحۡسَبُونَ كُلَّ صَيۡحَةٍ عَلَيۡهِمۡۚ هُمُ ٱلۡعَدُوُّ فَٱحۡذَرۡهُمۡۚ قَٰتَلَهُمُ ٱللَّهُۖ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 3
(4) इन्हें देखो तो इनके डील-डौल तुम्हें बड़े शानदार नज़र आएँ, बोलें तो तुम इनकी बातें सुनते रह जाओ।5 मगर वास्तव में ये मानो लकड़ी के कुन्दे हैं जो दीवार के साथ चुनकर रख दिए गए हों।6 हर ज़ोर की आवाज़ को ये अपने विरुद्ध समझते हैं7, ये पक्के दुश्मन हैं8, इनसे बचकर रहो।9 अल्लाह की मार इनपर10, ये किधर उलटे फिराए जा रहे हैं ?11
5. हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) बयान करते हैं कि अब्दुल्लाह बिन उबय्य बड़े डील-डौल का, स्वस्थ, रूपवान और खूब बोलनेवाला व्यक्ति था और यही शान उसके बहुत-से साथियों की थी। ये सब मदीना के रईस लोग थे। जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सभा में आते तो दीवारों से तकिए लगाकर बैठते और बड़ी लच्छेदार बातें करते।
6. अर्थात् जो दीवारों के साथ तकिए लगाकर बैठते हैं, ये इंसान नहीं हैं, बल्कि लकड़ी के कुंदे हैं। उनको लकड़ी की मिसाल देकर यह बताया गया कि ये नैतिकता की रूह (आत्मा) से ख़ाली हैं जो मानवता की मूल आत्मा है। फिर उन्हें दीवार से लगे हुए कुंदों की उपमा देकर यह भी बता दिया गया कि ये बिल्कुल निकम्मे हैं, क्योंकि लकड़ी भी अगर कोई लाभ देती है तो उस वक़्त जब वह किसी छत में या किसी दरवाज़े में या किसी फ़र्नीचर में लगकर इस्तेमाल हो रही हो। दीवार से लगाकर कुन्दे की शक्ल में जो लकड़ी रख दी गई हो वह कोई फ़ायदा भी नहीं देती।
10. यह बद-दुआ नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला की ओर से उनके बारे में इस फैसले की घोषणा है कि वे उसकी मार के हक़दार हो चुके हैं, उनपर उसकी मार पड़कर रहेगी। यह भी हो सकता है कि ये शब्द अल्लाह ने शाब्दिक अर्थों में इस्तेमाल न फ़रमाए हों, बल्कि अरबी मुहावरे के अनुसार धिक्कार और फिटकार और निन्दा के लिए इस्तेमाल किए हों।
11. यह नहीं बताया गया कि उनको ईमान से निफ़ाक़ (कपटाचार) की ओर उलटा फिरानेवाला कौन है? इसे स्पष्ट न करने से खुद ही यह मतलब निकलता है कि उनकी इस औंधी चाल का कोई एक प्रेरक नहीं, बल्कि बहुत-से प्रेरक इसमें क्रियाशील हैं। शैतान है, बुरे मित्र हैं, उनके अपने मन के स्वार्थ हैं। किसी की पली इसकी प्रेरक है, किसी के बच्चे इसके प्रेरक हैं, किसी की बिरादरी के बुरे लोग इसके प्रेरक हैं। किसी को ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार ने इस राह पर हाँक दिया है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ يَسۡتَغۡفِرۡ لَكُمۡ رَسُولُ ٱللَّهِ لَوَّوۡاْ رُءُوسَهُمۡ وَرَأَيۡتَهُمۡ يَصُدُّونَ وَهُم مُّسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 4
(5) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ ताकि अल्लाह का रसूल तुम्हारे लिए मगफ़िरत (क्षमा) की दुआ करे, तो सिर झटकते हैं और तुम देखते हो कि वे बड़े घमंड के साथ आने से रुकते हैं।12
12. अर्थात् केवल इसी पर बस नहीं करते कि रसूल के पास माफ़ी के लिए दुआ कराने न आएँ, बल्कि यह बात सुनकर घमंड और दंभ के साथ सर को झटका देते हैं और रसूल के पास आने और माफ़ी माँगने को अपना अपमान समझकर अपनी जगह जमे बैठे रहते हैं। यह उनके ईमानवाले न होने की खुली निशानी है।
سَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ أَسۡتَغۡفَرۡتَ لَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ لَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 5
(6) ऐ नबी, तुम चाहे उनके लिए माफ़ी की दुआ करो या न करो, उनके लिए बराबर है, अल्लाह कदापि उन्हें माफ़ न करेगा।13 अल्लाह फ़ासिक़ लोगों (अवज्ञाकारियों) को हरगिज़ रास्ता नहीं दिखाता।14
13. यह बात सूरा-9 तौबा में (जो सूरा-63 मुनाफिकून के तीन साल बाद उतरी है) और अधिक ताकीद के साथ फ़रमाई [गई है। (देखिए सूरा-9 तौबा की आयत 80 और आयत 84)]
14. इस आयत में दो विषयों का उल्लेख किया गया है- एक यह कि माफ़ी की दुआ सिर्फ हिदायत पाए हुए लोगों के ही हक़ में फ़ायदेमंद हो सकती है। जो व्यक्ति हिदायत से फिर गया हो और जिसने आज्ञापालन के बजाय अवज्ञा का रास्ता अपना लिया हो, उसके लिए कोई आम आदमी को तो छोड़िए, खुद अल्लाह का रसूल भी माफ़ी की दुआ करे तो उसे माफ़ नहीं किया जा सकता। दूसरे यह कि ऐसे लोगों को सन्मार्ग (हिदायत) प्रदान करना अल्लाह का तरीक़ा नहीं है जो उसकी हिदायत न चाहते हों।
هُمُ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ لَا تُنفِقُواْ عَلَىٰ مَنۡ عِندَ رَسُولِ ٱللَّهِ حَتَّىٰ يَنفَضُّواْۗ وَلِلَّهِ خَزَآئِنُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 6
(7) ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि रसूल के साथियों पर ख़र्च करना बन्द कर दो ताकि ये बिखर जाएँ, हालाँकि ज़मीन और आसमानों के ख़ज़ानों का मालिक अल्लाह ही है, मगर ये मुनाफ़िक़ समझते नहीं हैं।
يَقُولُونَ لَئِن رَّجَعۡنَآ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ لَيُخۡرِجَنَّ ٱلۡأَعَزُّ مِنۡهَا ٱلۡأَذَلَّۚ وَلِلَّهِ ٱلۡعِزَّةُ وَلِرَسُولِهِۦ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَلَٰكِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 7
(8) ये कहते हैं कि हम मदीना वापस पहुँच जाएँ तो जो इज्ज़तवाला है, वह बेइज़्ज़त को वहाँ से निकाल बाहर करेगा 15, हालाँकि इज़्ज़त तो अल्लाह और उसके और धारवालों के लिए है16, मगर ये मुनाफिक जानते नहीं हैं।
15. हज़रत जैद बिन अरकम (रजि०) कहते हैं कि जब मैंने अब्दुल्लाह बिन उबय्य का यह कथन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तक पहुँचाया और उसने आकर साफ़ इंकार कर दिया और उसपर क़सम खा गया, तो अंसार के बड़े-बूढों ने और खुद मेरे अपने चचा ने मुझे बहुत बुरा-भला कहा, यहाँ तक कि मुझे यह महसूस हुआ कि नबी (सल्ल०) ने भी मुझे झूठा और अब्दुल्लाह बिन उबय्य को सच्चा समझा है। इस बात से मुझे ऐसा दुख हुआ जो उम्र भर कभी नहीं हुआ और मैं मन मसोसकर अपनी जगह बैठ गया, फिर जब ये आयतें उतरीं तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझे बुलाकर हँसते हुए मेरा कान पकड़ा और फ़रमाया कि लड़के का कान सच्चा था, अल्लाह ने इसकी ख़ुद पुष्टि कर दी। (इब्ने-जरीर, तिर्मिजी में भी इससे मिलती-जुलती रिवायत मौजूद है।)
16. अर्थार्त इज़्ज़त अल्लाह के अस्तित्व का अनिवार्य गुण है और रसूल के लिए रसूल होने के कारण और मोमिनों के लिए ईमान के कारण। रहे कुफ्फार (इकार करनेवाले), फासिक (अवज्ञाकारी) और मुनाफिक (कपदाचारी), तो वास्तविक इजाजत में उनका सिरे से कोई हिस्सा ही नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُلۡهِكُمۡ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 8
(9) ऐ लोगो17 जो ईमान लाए हो। तुम्हारे पाल और तुम्हारी सन्ताने तुमको अल्लाह की याद से ग़ाफिल (बेसुध) न कर दें।18 जो लोग ऐसा करें वही घाटे में रहनेवाले हैं।
17. अब तमाम उन लोगों को जो इस्लाम के दायरे में दाख़िल हों, यह देखे बिना कि सच्चे मोमिन ही या ईमान का सिर्फ़ जजान से इकरार करनेवाले, आम सम्बोधन करके एक उपदेश दिया जा रहा है।
18. माल और सन्तान का उल्लेख तो खास तौर से इसलिए किया गया है कि इंसान अधिकतर इन्हीं के फायदे के लिए ईमान के तकाज़ों से मुंह मोड़कर निफाक (कपटाचार) या ईमान की कमजोरी या फिरक (दुराचार) व नाफरमानी (अवज्ञा) में पड़ जाता है, वरना वास्तव में मुराद दुनिया की हर वह चीज़ है जो इंसान को अपने अन्दर इतना व्यस्त कर ले कि वह खुदा की याद से गाफिल (बेसुध) हो जाए। खुदा की याद से यह गफलत ही सारी खराबियों की असल जड़ है। अगर इंसान को यह याद रहे कि वह आजाद नहीं है, बल्कि एक खुदा का बन्दा है और वह खुदा उसके तमाम कर्मों की खबर रखता है, और उसके सामने जाकर एक दिन उसे अपने कर्मों का उत्तर देना है, तो वह कभी किसी गुमराही और दुष्कर्म में लिप्त न हो और ईसानी कमजोरी से उसका कदम अगर किसी समय फिसल भी जाए तो होश आते ही वह तुरन्त सँभल जाएगा।
وَأَنفِقُواْ مِن مَّا رَزَقۡنَٰكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ فَيَقُولَ رَبِّ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنِيٓ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ فَأَصَّدَّقَ وَأَكُن مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 9
(10) जो रोज़ी हमने तुम्हें दी है उसमें से खा करो, इससे पहले कि तुममें से किसी की मौत का वात आ जाए और उस वास्त वह कहे कि "ए मेरे रख। क्यों न तूने मुझे थोड़ी-सी गुहलत और दे दी कि मैं सदाका (दान) देता और नेक लोगों में शामिल हो जाता।"
وَلَن يُؤَخِّرَ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِذَا جَآءَ أَجَلُهَاۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 10
(11) हालाँकि जब किसी के कर्म करने की मुहलत (कविधि) पूरी होने का वात आ जाता है तो अल्लाह किसी व्यक्ति को कदापि और अधिक गुहलत नहीं देता, और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी खबर रखता है।