64. अत-तग़ाबुन
(मदीना में उतरी, आयतें 18)
परिचय
नाम
इसी सूरा के आयत 9 के वाक्यांश 'ज़ालि क यौमुत-तगाबुन' अर्थात् "वह दिन होगा एक-दूसरे के मुक़ाबले में लोगों की हार-जीत (तग़ाबुन) का" से उद्धृत है । तात्पर्य यह कि वह सूरा जिसमें शब्द 'तग़ाबुन' आया है।
उतरने का समय
मुक़ातिल और कल्बी कहते हैं कि इसका कुछ अंश मक्की है और कुछ मदनी। मगर अधिकतर टीकाकार पूरी सूरा को मदनी ठहराते हैं। किन्तु वार्ता की विषय-वस्तु पर विचार करने पर अनुमान होता है कि सम्भवत: यह मदीना तय्यिबा के आरम्भिक कालखण्ड में अवतरित हुई होगी। यही कारण है कि इसमें कुछ रंग मक्की सूरतों का और कुछ मदनी सूरतों का पाया जाता है।
विषय और वार्ता
इस सूरा का विषय ईमान और आज्ञापालन का आमंत्रण और सदाचार की शिक्षा है। वार्ता का क्रम यह है कि पहली चार आयतों में संबोधन सभी इंसानों से है। फिर आयत 5 से 10 तक उन लोगों को सम्बोधित किया गया है जो क़ुरआन के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करते और इसके बाद आयत 11 से अन्त तक की आयतों की वार्ता का रुख़ उन लोगों की ओर है जो इस आमंत्रण को स्वीकार करते हैं। सभी इंसानों को सम्बोधित करके कुछ थोड़े-से वाक्यों में उन्हें चार मौलिक सच्चाइयों से अवगत कराया गया है—
एक यह कि इस जगत् का स्रष्टा, मालिक और शासक एक ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके पूर्ण और दोषमुक्त होने की गवाही इस ब्रह्माण्ड की हर चीज़ दे रही है।
दूसरे यह कि यह ब्रह्माण्ड निरुद्देश्य और तत्त्वदर्शिता से रिक्त नहीं है, बल्कि इसके स्रष्टा ने सर्वथा सत्य और औचित्य के आधार पर इसकी रचना की है। यहाँ इस भ्रम में न रहो कि यह व्यर्थ तमाशा है जो निरर्थक शुरू हुआ और निर्रथक ही समाप्त हो जाएगा।
तीसरे यह कि तुम्हें जिस सुन्दरतम रूप के साथ ईश्वर ने पैदा किया है और फिर जिस प्रकार इंकार और ईमान का अधिकार तुमपर छोड़ दिया है, यह कोई फल-रहित और निरर्थक काम नहीं है। वास्तव में ईश्वर यह देख रहा है कि तुम अपनी स्वतंत्रता को किस तरह प्रयोग में लाते हो।
चौथे यह कि तुम दायित्व मुक्त और अनुत्तरदायी नहीं हो । अन्तत: तुम्हें अपने स्रष्टा की ओर पलटकर जाना है, जिसपर मन में छिपे हुए विचार तक प्रकट हैं।
इसके बाद वार्ता का रुख़ उन लोगों की ओर मुड़ता है जिन्होंने इनकार (अधर्म) की राह अपनाई है और उन्हें [विगत विनष्ट जातियों के इतिहास का ध्यान दिलाकर बताया जाता है कि उन] के विनष्ट होने के मूल कारण केवल दो थे, एक यह कि उसने (अल्लाह ने) जिन रसूलों को उनके मार्गदर्शन के लिए भेजा था, उनकी बात मानने से उन्होंने इनकार किया। दूसरे यह कि उन्होंने परलोक की धारणा को भी रद्द कर दिया और अपनी दंभपूर्ण भावना के अन्तर्गत यह समझ लिया कि जो कुछ है बस यही सांसारिक जीवन है। मानव-इतिहास के इन दो शिक्षाप्रद तथ्यों को बयान करके सत्य के न माननेवालों को आमंत्रित किया गया है कि वे होश में आएँ और यदि विगत जातियों के जैसा परिणाम नहीं देखना चाहते तो अल्लाह और उसके रसूल और मार्गदर्शन के उस प्रकाश पर ईमान ले आएँ जो अल्लाह ने क़ुरआन मजीद के रूप में अवतरित किया है। इसके साथ उनको सचेत किया जाता है कि अन्ततः वह दिन आनेवाला है जब समस्त अगले और पिछले एक जगह एकत्र किए जाएंँगे और तुममें से हर एक का ग़बन सबके सामने खुल जाएगा। फिर सदैव के लिए सारे इंसानों के भाग्य का निर्णय [उनके ईमान और कर्म के आधार पर कर दिया जाएगा] । इसके बाद ईमान की राह अपनानेवालों को सम्बोधित करके कुछ महत्त्वपूर्ण आदेश उन्हें दिए जाते हैं-
एक यह कि दुनिया में जो मुसीबत आती है, अल्लाह की अनुज्ञा से आती है। ऐसी स्थितियों में जो व्यक्ति ईमान पर जमा रहे, अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, अन्यथा घबराहट या झुंझलाहट में पड़कर जो आदमी ईमान की राह से हट जाए उसका दिल अल्लाह के मार्गदर्शन से वंचित हो जाता है।
दूसरे यह कि ईमानवाले व्यक्ति का काम केवल ईमान ले आना ही नहीं है, बल्कि ईमान लाने के बाद उसे व्यवहारतः अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) की आज्ञा का पालन करना चाहिए।
तीसरे यह कि ईमानवाले व्यक्ति का भरोसा अपनी शक्ति या संसार की किसी शक्ति पर नहीं, बल्कि केवल अल्लाह पर होना चाहिए।
चौथे यह कि ईमानवाले व्यक्ति के लिए उसका धन और उसके बाल-बच्चे एक बहुत बड़ी परीक्षा हैं, क्योंकि अधिकतर इन्हीं का प्रेम मनुष्य को ईमान और आज्ञापालन के मार्ग से हटा देता है। इसलिए ईमानवालों को [इनके मामले में बहुत] सतर्क रहना चाहिए।
पाँचवें यह कि हर मनुष्य पर उसकी अपनी सामर्थ्य ही तक दायित्व का बोझ डाला गया है। अल्लाह को यह अपेक्षित नहीं है कि मनुष्य अपनी सामर्थ्य से बढ़कर काम करे। अलबत्ता ईमानवाले व्यक्ति को जिस बात की कोशिश करनी चाहिए वह यह है कि अपनी हद तक ख़ुदा से डरते हुए जीवन व्यतीत करने में कोई कमी न होने दे।
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يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ لَهُ ٱلۡمُلۡكُ وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ
(1) अल्लाह का गुणगान कर रही है हर वह चीज़ जो आसमानों में है और हर वह चीज़ जो जमीन में है।1 उसी की बादशाही है2 और उसी के लिए प्रशंसा है3 और उसे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।4
1. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-57 हदीद, टिप्प्णी 1। बाद के विषयों पर विचार करने से यह बात स्वयं समझ में आ जाती है कि वार्ता का आरंभ इस वाक्य से क्यों किया गया है। संदर्भ को देखते हुए इस भूमिका का अर्थ यह है कि ज़मीन से लेकर आसमानों के आत्यन्तिक फैलावों तक जिधर भी तुम दृष्टि डालोगे, अगर तुम बुद्धि के अंधे नहीं हो तो तुम्हें साफ़ महसूस होगा कि एक कण से लेकर विशालकाय आकाश-गंगाओं तक हर चीज़ न केवल खुदा के अस्तित्व की गवाही दे रही है, बल्कि इस बात की गवाही भी दे रही है कि उसका ख़ुदा हर कमी, दोष और कमज़ोरी और ग़लती से पाक (मुक्त) है, वरना यह अत्यन्त तत्त्वदर्शितापूर्ण व्यवस्था अस्तित्व ही में न आ सकती थी, कहाँ यह कि आदि से अन्त तक ऐसे अटल तरीके से चल सकती।
2. अर्थात् यह सम्पूर्ण सृष्टि अकेले उसी का साम्राज्य है । वह केवल इसको बनाकर और एक बार गति देकर नहीं रह गया है, बल्कि वही इस पर व्यावहारिक रूप से हर क्षण शासन कर रहा है। इस शासन और सत्ता में किसी दूसरे का बिल्कुल कोई दखल या हिस्सा नहीं है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ فَمِنكُمۡ كَافِرٞ وَمِنكُم مُّؤۡمِنٞۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ 1
(2) वही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुममें से कोई इंकार करनेवाला है और कोई ईमान लानेवाला है।5 और अल्लाह वह सब कुछ देख रहा है जो तुम करते हो।6
5. इसके चार अर्थ हैं और चारों अपनी-अपनी जगह सही हैं-
(1) एक यह कि वही तुम्हारा स्रष्टा है। फिर तुममें से कोई उसके स्रष्टा होने का इंकार करता है और कोई इस वास्तविकता को मानता है। यह अर्थ पहले और दूसरे वाक्य को मिलाकर पढ़ने से सामने आता है।
(2) दूसरे यह कि उसी ने तुमको इस तरह पैदा किया है कि तुम इंकार करना चाहो तो कर सकते हो और ईमान लाना चाहो तो ला सकती हो। इसलिए अपने ईमान और इंकार, दोनों के तुम खुद ज़िम्मेदार हो। इस अर्थ की पुष्टि बाद का यह वाक्य करता है कि "अल्लाह वह सब कुछ देख रहा है, जो तुम करते हो।"
(3) तीसरा अर्थ यह है कि उसने तो तुमको सद्प्रकृति पर पैदा किया था, जिसका तक़ाज़ा यह था कि तुम सब ईमान का रास्ता अपनाते, मगर इस विशुद्ध प्रकृति पर पैदा होने के बाद तुममें से कुछ लोगों ने सत्य से इंकार की नीति अपनाई जो उनकी प्राकृतिक संरचना एवं स्वभाव के प्रतिकूल थी और कुछ ने ईमान का मार्ग अपनाया जो उनकी प्रकृति के अनुकूल थी। यह विषय इस आयत को सूरा-30 रूम की आयत 30 के साथ मिलाकर पढ़ने से समझ में आता है। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-30 रूम, टिप्पणी 42-47) यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि आसमानी किताबों ने कभी इंसान के जन्मजात गुनाहगार होने की वह अवधारणा प्रस्तुत नहीं की है जिसे डेढ़ हज़ार साल से ईसाई मत ने अपनी मूल धारणा बना रखी है। आज ख़ुद केथोलिक विद्वान यह कहने लगे हैं कि बाइबल में इस अवधारणा की कोई बुनियाद मौजूद नहीं है।
(4) चौथा अर्थ यह है कि अल्लाह ही तुमको अनस्तित्व से अस्तित्व में लाया। यह एक ऐसा मामला था कि अगर तुम इसपर सीधे और साफ़ तरीके से सोच-विचार करते और यह देखते कि अस्तित्व ही वह अस्ल नेमत है जिसके कारण तुम दुनिया की दूसरी नेमतों से फ़ायदा उठा रहे हो, तो तुममें से कोई व्यक्ति भी अपने पैदा करनेवाले के मुक़ाबले में कुफ्र (इंकार) और विद्रोह की नीति न अपनाता। लेकिन तुममें से कुछ ने सोचा ही नहीं या ग़लत तरीके से सोचा और कुफ्र (इंकार) का रास्ता अपना लिया और कुछ ने ईमान का वही रास्ता अपनाया जो सम्यक् विचार एवं चिन्तन को अपेक्षित था।
6. इस वाक्य में 'देखने' का मतलब सिर्फ़ देखना ही नहीं है, बल्कि इससे अपने आप यह अर्थ निकलता है कि जैसे तुम्हारे कर्म हैं, उनके अनुसार तुमको इनाम या सज़ा दी जाएगी।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَصَوَّرَكُمۡ فَأَحۡسَنَ صُوَرَكُمۡۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ 2
(3) उसने ज़मीन और आसमानों को सोद्देश्य पैदा किया है और तुम्हारा रूप बनाया है और बड़ा सुन्दर बनाया है, और उसी की ओर आख़िरकार तुम्हें पलटना है।7
7. इस आयत में तीन बातें क्रमवार बयान की गई हैं जिनके बीच एक बहुत गहरा तार्किक संबंध है-
पहली बात यह फ़रमाई गई कि अल्लाह ने यह सृष्टि सोद्देश्य पैदा की है। सृष्टि की संरचना को सोद्देश्य कहने का अर्थ यह है कि यह एक तत्त्वदर्शी स्रष्टा का अत्यन्त गंभीर काम है। इसकी हर चीज़ अपने पीछे एक समुचित उद्देश्य रखती है और यह उद्देश्य इतना स्पष्ट है कि अगर कोई बुद्धिवाला व्यक्ति किसी चीज़ की स्थिति को अच्छी तरह समझ ले तो यह जान लेना उसके लिए कठिन नहीं होता कि ऐसी एक चीज़ के पैदा करने का बुद्धिसंगत और तत्त्वदर्शिता पर आधारित उद्देश्य क्या हो सकता है। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 46; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 11; सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 26; सूरा-16 अन-नल, टिप्पणी 6; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 15, 16; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 102; सूरा-29 अल-अन्कबूत, टिप्पणी 75; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 6; सूरा-44 अद-दुख़ान, टिप्पणी 34; सूरा-45 अल-जासिया, टिप्प्णी 28)
दूसरी बात यह फ़रमाई गई है कि इस सृष्टि में अल्लाह ने इंसान को बेहतरीन रूप पर पैदा किया है। रूप से मुराद सिर्फ़ इंसान का चेहरा नहीं है, बल्कि इससे मुराद उसकी पूरी जिस्मानी बनावट है और वे क्षमताएँ और शक्तियाँ भी इसके अर्थ में शामिल हैं, जो इस दुनिया में काम करने के लिए आदमी को दी गई हैं। इन दोनों हैसियतों से इंसान को धरती की मख़लूकात (प्राणियों) में सबसे बेहतर बनाया गया है और इसी कारण वह इस योग्य हुआ कि उन तमाम चीज़ों पर शासन करे जो ज़मीन और उसके चारों ओर पाई जाती हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 91)।
इन दो बातों से, जो ऊपर बयान की गई हैं, बिल्कुल एक तार्किक परिणाम के रूप में वह तीसरी बात अपने आप निकलती है जो आयत के तीसरे वाक्यांश में बयान हुई है कि "उसी की ओर अन्तत: तुम्हें पलटना है।" स्पष्ट है कि जब ऐसी एक तत्त्वदर्शितापूर्ण और सोद्देश्य सृष्टि-व्यवस्था में एक अधिकार प्राप्त मख़लूक (सृष्टि) पैदा की गई है तो तत्त्वदर्शिता का तक़ाज़ा कदापि यह नहीं है कि उसे यहाँ बे-नकेल ऊँट की तरह ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर छोड़ दिया जाए। बल्कि अनिवार्य रूप से उसका तक़ाज़ा यह है कि यह सृष्ट प्राणी (मख़लूक़) उस हस्ती के सामने उत्तरदायी हो जिसने उसे इन अधिकारों के साथ अपनी सृष्टि में यह स्थान और दर्जा प्रदान किया है। 'पलटने' से मुराद इस आयत में मात्र पलटना नहीं है, बल्कि उत्तरदायित्व के लिए पलटना है। और बाद की आयतों में स्पष्ट कर दिया गया है कि यह वापसी इस जीवन में नहीं, बल्कि मरने के बाद दूसरी ज़िंदगी में होगी। क्योंकि वर्तमान जीवन में इस उत्तरदायित्व का निर्वाह पूरी तरह हो ही नहीं सकता, यह उसी समय हो सकता है] जब सम्पूर्ण मानव-जाति की जीवन-लीला ख़त्म हो जाए और तमाम अगले-पिछले एक ही समय में जवाबदेही के लिए जमा किए जाएँ। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 30; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 10-11; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 105; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 135; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 9; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 27; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 5, 6; सूरा-38 साँद, टिप्पणी 29, 30; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 80; सूरा-45 अल-जासिया, टिप्पणी 27-29)
يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَيَعۡلَمُ مَا تُسِرُّونَ وَمَا تُعۡلِنُونَۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ 3
(4) ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का उसे ज्ञान है। जो कुछ तुम छिपाते हो और जो कुछ तुम प्रकट करते हो 8, सब उसको मालूम है, और वह दिलों का हाल तक जानता है।9
8. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है, "जो कुछ तुम छिपकर करते हो और जो कुछ तुम एलानिया करते हो।"
9. अर्थात् वह इंसान के केवल उन कर्मों ही से अवगत नहीं है जो लोगों की जानकारी में आ जाते हैं, बल्कि उन कर्मों को भी जानता है जो सब से छिपे रह जाते हैं। साथ ही यह कि वह कर्मों के ज़ाहिरी रूप ही को नहीं देखता, बल्कि यह भी जानता है कि इंसान के हर कर्म के पीछे क्या इरादा और क्या उद्देश्य काम कर रहा था] और जो कुछ उसने किया, किस नीयत से किया और क्या समझते हुए किया। यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर इंसान विचार करे तो उसे अन्दाज़ा हो सकता है कि न्याय केवल आख़िरत ही में हो सकता है और केवल ख़ुदा ही की अदालत में सही न्याय होना संभव है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह आयत भी अल्लाह के इस कथन से गहरा तार्किक संबंध रखती है कि "उसने ज़मीन और आसमानों को सोद्देश्य पैदा किया है।" सोद्देश्य पैदा करने का अनिवार्य तक़ाज़ा यह है कि इस जगत् में सही और पूर्ण न्याय हो। यह न्याय अनिवार्यत: उसी शक्ल में स्थापित हो सकता है, जबकि न्याय स्थापित करनेवाले की दृष्टि से इंसान जैसे ज़िम्मेदार (उत्तरदायी) प्राणी का न केवल यह कि कोई काम छिपा न रह जाए, बल्कि वह नीयत भी उससे छिपी न रहे जिसके साथ किसी व्यक्ति ने कोई कर्म किया हो। और स्पष्ट है कि जगत्-स्रष्टा के सिवा कोई दूसरी हस्ती ऐसी नहीं हो सकती जो इस प्रकार का न्याय कर सके।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُۥ كَانَت تَّأۡتِيهِمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالُوٓاْ أَبَشَرٞ يَهۡدُونَنَا فَكَفَرُواْ وَتَوَلَّواْۖ وَّٱسۡتَغۡنَى ٱللَّهُۚ وَٱللَّهُ غَنِيٌّ حَمِيدٞ 5
(6) इस अंजाम के हक़दार वे इसलिए हुए कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली दलीलें और निशानियाँ लेकर आते रहे11, मगर उन्होंने कहा, "क्या मनुष्य हमारा मार्गदर्शन करेंगे?"12 इस तरह उन्होंने मानने से इंकार कर दिया और मुँह फेर लिया, तब अल्लाह भी उनसे बेपरवाह हो गया, और अल्लाह तो है ही बे-नियाज़ (निस्पृह) और स्वत: प्रशंसित।13
11. अर्थात् एक तो वे ऐसी खुली निशानियाँ लेकर आते थे जो उनके अल्लाह की ओर से नियुक्त होने की खुली-खुली गवाही देती थीं। दूसरे वे जो बात भी पेश करते थे, अत्यन्त उचित और खुले प्रमाणों के साथ पेश करते थे। तीसरे उनकी शिक्षा में कोई बात अस्पष्ट न थी, बल्कि वे साफ़-साफ़ बताते थे कि सत्य क्या है और असत्य क्या।
12. यह थी उनकी तबाही की पहली और बुनियादी वजह । मानव-जाति को दुनिया में सही रास्ता [बताने के लिए उसके पैदा करनेवाले ने] नबियों को खुले प्रमाणों के साथ भेजा, ताकि लोगों के लिए उनके (नबियों के) सत्य पर होने में सन्देह करने का कोई उचित कारण न रहे, मगर उन्होंने सिरे से यही बात मानने से इंकार कर दिया कि इंसान ख़ुदा का रसूल हो सकता है। इसके बाद उनके लिए सन्मार्ग पाने की कोई शक्ल बाक़ी न रही। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 11)
زَعَمَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَن لَّن يُبۡعَثُواْۚ قُلۡ بَلَىٰ وَرَبِّي لَتُبۡعَثُنَّ ثُمَّ لَتُنَبَّؤُنَّ بِمَا عَمِلۡتُمۡۚ وَذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ 6
(7) इंकारियों ने बड़े दावे से कहा है कि वे मरने के बाद कदापि दोबारा न उठाए जाएँगे।14 उनसे कहो, "नहीं, मेरे रब की क़सम! तुम ज़रूर उठाए जाओगे,15 फिर ज़रूर तुम्हें बताया जाएगा कि तुमने (दुनिया में) क्या कुछ किया है,16 और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान है।’’17
14. अर्थात् हर ज़माने में सत्य के इंकारी दूसरी जिस बुनियादी गुमराही में गिरफ्तार रहे हैं और जो अन्ततः उनके जो विनाश का कारण बनो, वह यह थी। हालाँकि आखिरत के किसी इंकारी के पास न पहले यह जानने का कोई साधन था, न आज है, न कभी हो सकता है कि मरने के बाद कोई दूसरी जिंदगी नहीं है, लेकिन इन मूों ने हमेशा बड़े जोर के साथ यही दावा किया है।
15. [सूरा-10 यूनुस (आयत 53) और सूरा-34 सबा (आयत 3) के बाद] यह तीसरी जगह है जहाँ अल्लाह ने अपने नबी से फ़रमाया है कि अपने रब की क़सम खाकर लोगों से कहो कि ज़रूर ऐसा होकर रहेगा।
यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि एक आख़िरत (परलोक) को न माननेवाले के लिए आख़िर इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि आप उसे आख़िरत के आने की ख़बर क़सम खाकर दें या क़सम खाए बिना दें? वह जब इस चीज़ को नहीं मानता तो सिर्फ़ इस कारण कैसे मान लेगा कि आप क़सम खाकर उससे यह बात कह रहे हैं? इसका उत्तर यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सम्बोधित वे लोग थे जो अपने व्यक्तिगत ज्ञान और अनुभव के आधार पर यह बात खूब जानते थे कि आपने कभी उम्र भर झूठ नहीं बोला है, इसलिए चाहे ज़बान से वे आपके विरुद्ध कैसे ही आरोप गढ़ते रहे हों, अपने दिलों में यह सोच भी नहीं सकते थे कि ऐसा सच्चा इंसान कभी अल्लाह की क़सम खाकर वह बात कह सकता है जिसके सत्य होने का उसे ज्ञान और विश्वास न हो।
يَوۡمَ يَجۡمَعُكُمۡ لِيَوۡمِ ٱلۡجَمۡعِۖ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلتَّغَابُنِۗ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَيَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا يُكَفِّرۡ عَنۡهُ سَيِّـَٔاتِهِۦ وَيُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ 8
(9) (उसका पता तुम्हें उस दिन चल जाएगा) जब इकट्ठा होने के दिन वह तुम सबको इकट्ठा करेगा।19 वह दिन होगा एक-दूसरे के मुकाबले में लोगों की हार-जीत का 20। जो अल्लाह पर ईमान लाया है और भले कर्म करता हैं 21, अल्लाह उसके गुनाह झाड़ देगा और उसे ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, ये लोग हमेशा-हमेशा उनमें रहेंगे। यही बड़ी सफलता है।
19. 'इकट्ठा होने के दिन' से मुराद है क़ियामत और सबको इकट्ठा करने से मुराद है उन सभी इंसानों को एक ही समय में जिंदा करके जमा करना जो सृष्टि के आरम्भ से क्रियामत तक दुनिया में पैदा हुए हों। यह विषय क़ुरआन मजीद में जगह-जगह खोलकर बयान किया गया है, जैसे, सूरा-11 हूद [(आयत 103) और सूरा-56 वाक़िआ (आयत 50)]
20. मूल में अरबी शब्द 'यौमुत्तग़ाबुन' इस्तेमाल हुआ है। 'तग़ाबुन' का अर्थ है कुछ लोगों का कुछ लोगों के साथ ग़बन (दगाबाज़ी और खियानत) का मामला करना या एक व्यक्ति का दूसरे को हानि पहुँचाना और दूसरे का उसके हाथों नुक़सान उठा जाना। या एक का हिस्सा दूसरे को मिल जाना और उसका अपने हिस्से से वंचित रह जाना या कारोबार में एक फ़रीक़ (पक्ष) का घाटा उठाना और दूसरे फरीक़ (पक्ष) का नफा उठा ले जाना या कुछ लोगों का कुछ दूसरे लोगों के मुकाबले में ग़ाफ़िल या कमज़ोर राय सिद्ध होना। अब इस बात पर विचार कीजिए कि आयत में क़ियामत के बारे में फ़रमाया गया है, 'ज़ालि-क यौमुत्तग़ाबुन' अर्थात् "वह दिन होगा तग़ाबुन का"। इन शब्दों से अपने आप यह मतलब निकलता है कि दुनिया में तो रात-दिन तग़ाबुन होता ही रहता है, लेकिन यह तग़ाबुन ज़ाहिरी और नज़रों का धोखा है, वास्तविक और असली तग़ाबुन नहीं है। अस्ल तग़ाबुन क़ियामत के दिन होगा। वहाँ जाकर पता चलेगा कि वास्तव में घाटा किसने उठाया और कौन लाभ कमा ले गया। वास्तव में किसका हिस्सा किसे मिल गया और कौन अपने हिस्से से महरूम रह गया। वास्तव में धोखा किसने खाया और कौन होशियार निकला। वास्तव में किसने अपनी तमाम जीवन-पूँजी एक ग़लत कारोबार में खपाकर अपना दीवाला निकाल दिया और किसने अपनी शक्तियों और योग्यताओं, कोशिशों, मालों और समयों को लाभ के सौदे पर लगा करके वे सारे फ़ायदे लूट लिए जो पहले व्यक्ति को भी प्राप्त हो सकते थे, अगर वह दुनिया की वास्तविकता को समझने में धोखा न खाता।
कुछ टीकाकारों ने इसका मतलब यह बताया है कि उस दिन जन्नतवाले दोज़ख़वालों का वह हिस्सा मार ले जाएँगे जो उनको जन्नत में मिलता, अगर वे जन्नतियों के-से काम करके आए होते। और दोज़ख़वाले जन्नतियों का वह हिस्सा लेंगे जो उन्हें दोज़ख़ में मिलता, अगर उन्होंने दुनिया में दोज़खियों के-से काम किए होते। इस विषय की पुष्टि [कुछ हदीसों से भी होती है (देखिए बुख़ारी, किताबुर्रिक़ाक़)]। कुछ और टीकाकार कहते हैं कि उस दिन ज़ालिम को उतनी नेकियाँ मज़लूम (उत्पीड़ित) लूट ले जाएगा जो उसके जुल्म का बदला हो सकें या मज़लूम के उतने गुनाह ज़ालिम पर डाल दिए जाएँगे जो उसके हक़ के बराबर वज़न रखते हों। यह विषय भी अनेकों हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से उद्धृत है। (बुख़़ारी, किताबुर्रिकाक़)
कुछ दूसरे टीकाकारों ने कहा है कि 'तग़ाबुन' का शब्द अधिकतर तिजारत के मामले में बोला जाता है और कुरआन मजीद में जगह-जगह उस रवैये को जो काफ़िर और मोमिन अपनी दुनिया की जिंदगी में इख्तियार करते हैं, तिजारत (व्यवसाय) की उपमा दी गई है। मोमिन अगर अवज्ञा का रास्ता छोड़कर आज्ञापालन का रास्ता अपनाता है और अपनी जान-माल और मेहनतें अल्लाह के रास्ते में खपा देता है तो मानो वह घाटे का सौदा छोड़कर एक ऐसे व्यवसाय में अपनी पूँजी लगा रहा है जो अन्ततः फ़ायदा देनेवाली है। और एक जिन विधर्मी आज्ञापालन का रास्ता छोड़कर अल्लाह की अवज्ञा और उसके प्रति विद्रोह के मार्ग में अपना सब कुछ लगा देता है, तो मानो वह एक ऐसा व्यापारी है जिसने हिदायत (सन्मार्ग) के बदले गुमराही (पथभ्रष्टता) ख़रीदी है और अन्तत: वह इसका घाटा उठानेवाला है। दोनों का नफा और नुकसान क़ियामत के दिन ही खुलेगा। यह विषय क़ुरआन मजीद में बहुत-से स्थानों पर बयान हुआ है। मिसाल के तौर पर नीचे की आयतें देखिए-सूरा-2 अल-बक़रा, आयतें, 16, 175, 207; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 77, 1773 सूरा-4 अन-निसा, आयत 74; सूरा-9 अत-तौबा, आयत 111; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 95; सूरा-35 फ़ातिर, आयत 29; सूरा-61 अस-सफ़्फ़ आयत 10
एक और शक्ल तग़ाबुन' की यह भी है कि दुनिया में लोग कुफ्र व फ़िस्ल (इंकार व अवज्ञा) और ज़ुल्म व सरकशी पर बड़े इत्मीनान से आपस में सहयोग करते रहते हैं और यह भरोसा रखते हैं कि हमारे दर्मियान बड़ी गहरी मुहब्बत और दोस्ती है, मगर जब ये लोग आख़िरत में पहुँचेंगे तो उनपर यकायक यह बात खुलेगी कि हम सबने बहुत बड़ा धोखा खाया है। सब एक-दूसरे को गालियाँ देंगे, एक-दूसरे को धिक्कारेंगे और हर एक यह चाहेगा कि अपने अपराधों की अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी दूसरे पर डाल कर उसे कठोर से कठोर सज़ा दिलवाए। यह विषय भी कुरआन में जगह-जगह बयान किया गया है, जिसकी कुछ मिसालें इन आयतों मे देखी जा सकती हैं-सूरा-2 अल-बकरा, आयत 167; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 37-39; सूरा-14 इबराहीम, आयतें 21, 22; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 101; सूरा-29 अल अन्कबूत, आयतें 12, 13, 25; सूरा-31 लुक़मान, आयत 33; सूरा-33 अल-अहज़ाब, आयतें 67, 68; सूरा-34 अस-सबा, आयतें 31-33; सूरा-35 अल-फ़ातिर, आयत 18; सूरा-37 स-साफ़्फ़ात, आयतें 27-33; सूरा-38 साँद, आयतें 59-61; सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, आयत 29; सूरा-43 अज-जुखरुफ़, आयत 67; सूरा-44 अद-दुखान, आयत 41; सूरा-70 अल-मआरिंज, आयत 10-14; सूरा-80 अ-ब-स, आयतें 34-37
مَآ أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ يَهۡدِ قَلۡبَهُۥۚ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ 10
(11) कोई23 मुसीबत कभी नहीं आती मगर अल्लाह के हुक्म ही से आती है।24 जो व्यक्ति अल्लाह पर ईमान रखता हो अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है,25 अल्लाह को हर चीज़ का ज्ञान है।26
23. अब वार्ता का रुख ईमानवालों की ओर है। इस वार्ता-क्रम को पढ़ते हुए यह बात नज़र में रहनी चाहिए कि जिस ज़माने में ये आयतें उतरी हैं, वह मुसलमानों के लिए सख़्त मुसीबतों का ज़माना था।
24. यह विषय सूरा-57 अल-हदीद, आयत 22, 23 में भी गुज़र चुका है और वहाँ टिप्पणी 39 से 42 में हम इसकी व्याख्या कर चुके हैं। जो तथ्य मुसलमानों के दिल व दिमाग में बिठाना है, वह यह कि न मुसीबतें ख़ुद आ जाती हैं, न दुनिया में किसी की यह ताक़त है कि अपने अधिकार से जिस पर जो मुसीबत चाहे भेज दे। यह तो पूरे तौर से अल्लाह की मरज़ी पर निर्भर है कि किसी पर कोई मुसीबत आने दे या न आने दे और अल्लाह की मरज़ी बहरहाल किसी न किसी मस्लहत के आधार पर होती है जिसे इंसान न जानता है, न समझ सकता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ وَأَوۡلَٰدِكُمۡ عَدُوّٗا لَّكُمۡ فَٱحۡذَرُوهُمۡۚ وَإِن تَعۡفُواْ وَتَصۡفَحُواْ وَتَغۡفِرُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ 13
(14) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम्हारी पत्नियों और तुम्हारी सन्तानों में से कुछ तुम्हारे शत्रु हैं, उनसे होशियार रहो। और अगर तुम माफ़ करो और जाने दो और दरगुज़र से काम लो तो अल्लाह बड़ा ही माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।29
29. अर्थात् दुनिया के नाते-रिश्ते की दृष्टि से यद्यपि ये लोग वे हैं जो इंसान को सर्वप्रिय होते हैं, लेकिन धर्म की दृष्टि से ये तुम्हारे 'दुश्मन' हैं। यह दुश्मनी चाहे इस हैसियत से हो कि वे तुम्हें भलाई से रोकते और बुराई की ओर माइल (आकृष्ट) करते हों या इस हैसियत से कि वे तुम्हें ईमान से रोकते और कुफ़्र की ओर खींचते हों या इस हैसियत से कि उनकी सहानुभूतियाँ दुश्मनों के साथ हों । बहरहाल यह है ऐसी चीज़ कि तुम्हें इससे सावधान रहना चाहिए और उनकी मुहब्बत में गिरफ्तार होकर अपनी आख़िरत बर्बाद न करनी चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम उन्हें दुश्मन समझकर उनसे सख़्त बर्ताव करने लगो, बल्कि मक़सद केवल यह है कि उनका सुधार अगर न कर सको तो कम से कम अपने आपको बिगड़ने से बचाए रखो। ([अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा 9 तौबा, आयतें] 23, 24; सूरा-58 अल-मुजादला, टिप्पणी 37; सूरा-60 अल-मुम्तहिना, टिप्पणी 1-3; सूरा-63 अल-मुनाफ़िकून, टिप्पणी 18)
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُمۡ وَٱسۡمَعُواْ وَأَطِيعُواْ وَأَنفِقُواْ خَيۡرٗا لِّأَنفُسِكُمۡۗ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ 15
(16) अतः जहाँ तक तुम्हारे बस में हो अल्लाह से डरते रहो31 और सुनो और आज्ञा का पालन करो और अपने माल ख़र्च करो, यह तुम्हारे हो लिए बेहतर है। जो अपने दिल की तंगी से सुरक्षित रह गए, बस वही सफलता पानेवाले हैं।32
31. क़ुरआन मजीद में एक जगह फ़रमाया गया है कि अल्लाह से ऐसा डरो, जैसा कि उससे डरने का हक़ है (आले-इमरान, आयत 102 )। दूसरी जगह फ़रमाया, "अल्लाह किसी प्राणी को उसकी सामर्थ्य से अधिक ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता।" (सूरा-2, अल-बक़रा, आयत 286) और यहाँ फ़रमाया जा रहा है, "जहाँ तक तुम्हारे बस में हो, अल्लाह से डरते रहो।" इन तीनों आयतों को मिलाकर विचार कीजिए तो मालूम होता है कि पहली आयत वह कसौटी हमारे सामने रख देती है जिस तक पहुँचने की हर मोमिन को कोशिश करनी चाहिए। दूसरी आयत यह सैद्धान्तिक बात हमें बताती है कि अल्लाह के दीन में आदमी बस उतने ही का पाबन्द है जिसकी वह सामर्थ्य रखता हो और यह तीसरी हर मोमिन को हिदायत करती है कि वह अपनी हद तक तक्रवा (परहेज़गारी) की कोशिश में कोई कसर न उठा रखे। इस मामले में अगर वह स्वयं सुस्ती से काम लेगा तो पकड़ से न बच सकेगा, अलबत्ता जो चीज़ उसकी सामर्थ्य से बाहर होगी (और इसका निर्णय अल्लाह ही बेहतर कर सकता है कि क्या चीज़ किसकी सामर्थ्य से वास्तव में बाहर थी) उसके मामले में उससे पूछ-गछ न की जाएगी।
32. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-59 अल-हश्र, टिप्पणी 19