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سُورَةُ الحَاقَّةِ

69. अल-हाक़्क़ा

(मक्का में उतरी, आयतें 52)

परिचय

नाम

सूरा के पहले शब्द 'अल-हाक़्क़ा' (होकर रहनेवाली) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

 

उतरने का समय

इस सूरा की वार्ताओं से मालूम होता है कि यह [मक्का के आरम्भिक काल में उस समय] अवतरित हुई थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के प्रति विरोध ने अभी अधिक उग्र रूप धारण नहीं किया था।

विषय और वार्ता

आयत 1 से 37 तक परलोक का उल्लेख है और आगे सूरा के अंत तक क़ुरआन के अल्लाह की ओर से अवतरित होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने का उल्लेख किया गया है। सूरा के पहले भाग का प्रारम्भ इस बात से हुआ है कि क़ियामत का आना और आख़िरत (परलोक) का घटित होना एक ऐसा तथ्य है जो अवश्य ही सामने आकर रहेगा। फिर आयत 4 से 12 तक यह बताया गया है कि पूर्व समय में जिन जातियों ने भी परलोक का इनकार किया है, वे अन्ततः ईश्वरीय यातना की भागी होकर रहीं। इसके बाद आयत 17 तक प्रलय (क़ियामत) का चित्रण किया गया है कि वह किस प्रकार घटित होगी। फिर आयत 18 से 37 तक यह बताया गया है कि उस दिन समस्त मनुष्य अपने प्रभु के न्यायालय में उपस्थित होंगे, जहाँ उनका कोई भेद छिपा न रह जाएगा। हरेक का कर्मपत्र उसके हाथ में दे दिया जाएगा। [सुकर्मी] अपना हिसाब दोषरहित देखकर प्रसन्न हो जाएँगे और उनके हिस्से में जन्नत (स्वर्ग) का शाश्वत सुख एवं आनन्द आएगा। इसके विपरीत जिन लोगों ने न ख़ुदा के अधिकार को माना और न उसके बन्दों का हक़ अदा किया, उन्हें ख़ुदा की पकड़ से बचानेवाला कोई न होगा और वे जहन्नम (नरक) की यातना में ग्रस्त हो जाएँगे। सूरा के दूसरे भाग (आयत 38 से सूरा के अन्त तक) में मक्का के इस्लाम-विरोधियों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि तुम इस क़ुरआन को कवि और काहिन (भविष्यवक्ता) की वाणी कहते हो, हालाँकि यह अल्लाह की अवतरित की हुई वाणी है, जो एक प्रतिष्ठित सन्देशवाहक (रसूल) के मुख से उच्चारित हो रही है। रसूल (सन्देशवाहक) को इस वाणी में अपनी ओर से एक भी शब्द घटाने या बढ़ाने का अधिकार नहीं। यदि वह इसमें अपनी मनगढ़न्त कोई चीज़ सम्मिलित कर दे तो हम उसकी गर्दन की रग (या हृदय-नाड़ी) काट दें।

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سُورَةُ الحَاقَّةِ
69. अल-हाक़्क़ा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱلۡحَآقَّةُ
(1) होकर रहनेवाली!1
1. मूल अरबी में शब्द 'अल-हाक़्क़ा' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है-वह घटना जिसको अवश्य घटित होकर रहना है। क़ियामत के लिए यह शब्द प्रयोग करना और फिर वार्ता की शुरुआत ही इससे करना अपने आप यह स्पष्ट करता है कि इसका सम्बोधन उन लोगों से है जो उसके आने को झुठला रहे थे। उनको सम्बोधित करके कहा जाता है कि तुम लोग जितना चाहो उसका इंकार कर लो, वह तो घटित होकर रहनेवाली है, तुम्हारे इंकार से उसका आना रुक नहीं जाएगा।
مَا ٱلۡحَآقَّةُ ۝ 1
(2) क्या है वह होकर रहनेवाली?
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا ٱلۡحَآقَّةُ ۝ 2
(3) और तुम क्या जानो कि वह क्या है होकर रहनेवाली?2
2. एक के बाद एक, ये दो प्रश्न सुननेवालों को चौंकाने के लिए किए गए हैं ताकि वे बात के महत्त्व को समझें और पूरा ध्यान देकर आगे की बात सुनें।
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ وَعَادُۢ بِٱلۡقَارِعَةِ ۝ 3
(4) समूद3 और आद ने उस अचानक टूट पड़नेवाली आफ़त4 को झुठलाया।
3. मक्का के इस्लाम-विरोधी चूँकि क़ियामत को झुठला रहे थे और उसके आने की ख़बर को मज़ाक़ समझते थे, इसलिए पहले उनको सावधान किया गया कि वह तो घटित होकर रहनेवाली है, तुम चाहे मानो या न मानो, वह बहरहाल आकर रहेगी। इसके बाद अब उनको बताया जा रहा है कि यह [कोई] सादा-सा मामला नहीं है, बल्कि इसका अत्यन्त गहरा ताल्लुक़ क़ौमों की नैतिकता और फिर उनके भविष्य से है। तुमसे पहले गुज़री हुई क़ौमों का इतिहास गवाह है कि जिस क़ौम ने भी आख़िरत का इंकार करके इसी दुनिया की जिंदगी को वास्तविक जिंदगी समझा और इस बात को झुठला दिया कि इंसान को अन्ततः ख़ुदा की अदालत में अपना हिसाब देना होगा, वह सख़्त नैतिक बिगाड़ में ग्रस्त हुई, यहाँ तक कि ख़ुदा के अज़ाब ने आकर दुनिया से उसे उखाड़ फेंका।
4. एल अरबी शब्द 'अल-क़ारिअः' है। क़-र-अ अरबी भाषा में ठोकने, कूटने, खड़खड़ा देने और एक चीज़ को दूसरी चीज़ पर मार देने के लिए बोला जाता है। क़ियामत को घटित होकर रहनेवाली कहने के बाद अब उसके लिए यह दूसरा शब्द उसकी भयावहता की कल्पना कराने के लिए प्रयुक्त किया गया है।
فَأَمَّا ثَمُودُ فَأُهۡلِكُواْ بِٱلطَّاغِيَةِ ۝ 4
(5) तो समूद एक भीषण घटना5 से नष्ट किए गए।
5. सूरा-7 आराफ़, आयत 78 में इसको 'अर-रजफ़:' (दहला देनेवाली आफ़त) कहा गया है। सूरा-11 हूद आयत 67 में इसके लिए अस-सैह: (ज़ोरदार धमाके) का शब्द प्रयुक्त किया गया है। सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, आयत 17 में फ़रमाया गया है कि इनपर अपमान का अज़ाब टूट पड़ा और यहाँ उसी अज़ाब को अत्तागिया' (भीषण घटना) कहा गया है। यह एक ही घटना की विभिन्न स्थितियों का वर्णन है।
وَأَمَّا عَادٞ فَأُهۡلِكُواْ بِرِيحٖ صَرۡصَرٍ عَاتِيَةٖ ۝ 5
(6) और आद एक बड़ी तेज़ तूफ़ानी आँधी से तबाह किए गए।
سَخَّرَهَا عَلَيۡهِمۡ سَبۡعَ لَيَالٖ وَثَمَٰنِيَةَ أَيَّامٍ حُسُومٗاۖ فَتَرَى ٱلۡقَوۡمَ فِيهَا صَرۡعَىٰ كَأَنَّهُمۡ أَعۡجَازُ نَخۡلٍ خَاوِيَةٖ ۝ 6
(7) अल्लाह ने उसको लगातार सात रात और आठ दिन उनपर लगाए रखा। (तुम वहाँ होते) तो देखते कि वे वहाँ इस तरह पछड़े पड़े हैं जैसे वे खजूर के बोसीदा (जर्जर) तने हों।
فَهَلۡ تَرَىٰ لَهُم مِّنۢ بَاقِيَةٖ ۝ 7
(8) अब क्या उनमें से कोई तुम्हें बाक़ी बचा नज़र आता है?
وَجَآءَ فِرۡعَوۡنُ وَمَن قَبۡلَهُۥ وَٱلۡمُؤۡتَفِكَٰتُ بِٱلۡخَاطِئَةِ ۝ 8
(9) और यही भारी अपराध फ़िरऔन और उससे पहले के लोगों ने और तलपट हो जानेवाली बस्तियों6 ने किया।
6. मुराद है 'लूत की क़ौम की बस्तियाँ' जिनके बारे में सूरा-11 हूद (आयत 82) और सूरा-15 अल-हिज्र (आयत 74) में फ़रमाया गया है कि हमने उनको तलपट करके रख दिया।
فَعَصَوۡاْ رَسُولَ رَبِّهِمۡ فَأَخَذَهُمۡ أَخۡذَةٗ رَّابِيَةً ۝ 9
(10) उन सबने अपने रब के रसूल की बात न मानी तो उसने उनको बड़ी सख्ती के साथ पकड़ा।
إِنَّا لَمَّا طَغَا ٱلۡمَآءُ حَمَلۡنَٰكُمۡ فِي ٱلۡجَارِيَةِ ۝ 10
(11) जब पानी का तूफ़ान हद से गुज़र गया7 तो हमने तुमको नाव में सवार कर दिया था8,
7. संकेत है नूह के तूफ़ान की ओर जिसमें एक पूरी क़ौम इसी बड़े अपराध के कारण डुबो दी गई और केवल वे लोग बचा लिए जिन्होंने अल्लाह के रसूल की बात मान ली थी।
8. यद्यपि नाव (नौका) में सवार वे लोग किए गए थे जो हज़ारों वर्ष पहले गुज़र चुके थे, लेकिन चूंकि बाद की पूरी इंसानी नस्ल उन्हीं लोगों की सन्तान है जो उस समय तूफ़ान से बचाए गए थे, इसलिए फ़रमाया कि हमने तुमको नाव में सवार करा दिया। मतलब यह है कि तुम आज दुनिया में इसलिए मौजूद हो कि अल्लाह ने उस तूफ़ान में केवल इंकार करनेवालों को डुबोया था और ईमान लानेवालों को बचा दिया था।
لِنَجۡعَلَهَا لَكُمۡ تَذۡكِرَةٗ وَتَعِيَهَآ أُذُنٞ وَٰعِيَةٞ ۝ 11
(12) ताकि इस घटना को तुम्हारे लिए एक शिक्षाप्रद यादगार बना दें और याद रखनेवाले कान उसकी याद सुरक्षित रखें।9
9. अर्थात् वे कान नहीं जो सुनी अनसुनी कर दें और जिनके परदे पर से आवाज़ उचटकर गुज़र जाए, बल्कि वे कान जो सुनें और बात को दिल तक उतार दें। यहाँ बज़ाहिर कान का शब्द इस्तेमाल किया गया है, मगर मुराद है सुननेवाले लोग जो उस घटना को सुनकर उसे याद रखें और उससे शिक्षा लें और इस बात को कभी न भूलें कि आख़िरत के इंकार और ख़ुदा के रसूल को झुठलाने का अंजाम कैसा भयानक होता है।
فَإِذَا نُفِخَ فِي ٱلصُّورِ نَفۡخَةٞ وَٰحِدَةٞ ۝ 12
(13) फिर10 जब एक बार सूर में फूंक मार दी जाएगी
10. आगे आनेवाली आयतों को पढ़ते हुए यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद में कहीं तो क़ियामत के तीन मरहले अलग-अलग बयान किए गए हैं जो एक के बाद एक अलग-अलग-समयों में सामने आएँगे और कहीं सबको समेटकर पहले मरहले से अन्तिम मरहले तक की घटनाओं को एक जगह बयान कर दिया गया है। उदाहरण के रूप में सूरा-27 नम्ल, आयत 87 में सूर के पहली बार फूँके जाने का उल्लेख किया गया है। सूरा-39 जुमर, आयत 67-70 में सूर के दूसरी और तीसरी बार फूँके जाने [का उल्लेख] है। सूरा-20 ता-हा, आयत 102-112; सूरा-21 अंबिया, आयत 101-103; सूरा-36 या-सीन, आयत 51-53 और सूरा-50 क़ाफ़, आयत 20-22 में सिर्फ़ सूर के तीसरी बार फूँके जाने का उल्लेख है। (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 78; सूरा-22 हज, टिप्पणी 1; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 46-47) लेकिन यहाँ और बहुत-सी दूसरी जगहों पर क़ुरआन में पहली बार सूर फूँके जाने को लेकर जन्नत और जहन्नम में लोगों के दाख़िल होने तक क़ियामत की तमाम घटनाओं को एक ही क्रम में बयान कर दिया गया है।
وَحُمِلَتِ ٱلۡأَرۡضُ وَٱلۡجِبَالُ فَدُكَّتَا دَكَّةٗ وَٰحِدَةٗ ۝ 13
(14) और ज़मीन और पहाड़ों को उठाकर एक ही चोट में चूरा-चूरा कर दिया जाएगा,
فَيَوۡمَئِذٖ وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ ۝ 14
(15) उस दिन वह होनेवाली घटना सामने आ जाएगी।
وَٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَهِيَ يَوۡمَئِذٖ وَاهِيَةٞ ۝ 15
(16) उस दिन आसमान फटेगा और उसका बंधन ढीला पड़ जाएगा,
وَٱلۡمَلَكُ عَلَىٰٓ أَرۡجَآئِهَاۚ وَيَحۡمِلُ عَرۡشَ رَبِّكَ فَوۡقَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ ثَمَٰنِيَةٞ ۝ 16
(17) फ़रिश्ते उसके किनारों पर होंगे और आठ फ़रिश्ते उस दिन तेरे रब का अर्श (सिंहासन) अपने ऊपर उठाए हुए होंगे11।
11. यह आयत अस्पष्ट और उपलक्षित (मुतशाबिहात) में से है जिसका अर्थ निश्चित करना कठिन है। हम न यह जान सकते हैं कि अर्श' (सिंहासन) क्या चीज़ है और न यही समझ सकते हैं कि क़ियामत के दिन आठ फ़रिश्तों के उसको उठाने की स्थिति क्या होगी। मगर इस बात की बहरहाल कल्पना नहीं की जा सकती है कि अल्लाह 'अर्श' पर बैठा होगा और आठ फ़रिश्ते उसको 'अर्श' समेत उठाए हुए होंगे। आयत में यह भी नहीं कहा गया है कि उस समय अल्लाह अर्श पर बैठा हुआ होगा, और ईश्वरीय सत्ता की जो कल्पना हमको कुरआन मजीद में दी गई है वह भी यह ख़याल करने में बाधक है कि वह शरीर और दिशा और स्थान से परे सत्ता किसी जगह विराजमान हो और कोई मखलूक (संरचित प्राणी) उसे उठाए। इसलिए खोज कुरेद करके इसका अर्थ निश्चित करने की कोशिश करना अपने आपको गुमराही के ख़तरे में डाल देना है। अलबत्ता यह बात समझ लेना चाहिए कि कुरआन मजीद में अल्लाह की सत्ता और शासन और उसके मामलों की कल्पना कराने के लिए लोगों के सामने वही नक़्शा पेश किया गया है जो दुनिया में बादशाही का नक्शा होता है, और उसके लिए वही परिभाषाएँ इस्तेमाल की गई हैं जो इंसानी भाषाओं में राज्य और उससे सम्बंधित मामलों के लिए इस्तेमाल की जाती है, क्योंकि मनुष्य का मन और बुद्धि इसी नक्शे और इन्हीं परिभाषाओं की सहायता से किसी हद तक सृष्टि की सत्ता और शासन के मामलों को समझ सकती है। यह सब कुछ मूल वास्तविकता को इंसानी समझ से क़रीबतर करने के लिए है, इसको बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में ले लेना दुरुस्त नहीं है।
يَوۡمَئِذٖ تُعۡرَضُونَ لَا تَخۡفَىٰ مِنكُمۡ خَافِيَةٞ ۝ 17
(18) वह दिन होगा जब तुम लोग पेश किए जाओगे, तुम्हारा कोई रहस्य भी छिपा न रह जाएगा।
فَأَمَّا مَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِيَمِينِهِۦ فَيَقُولُ هَآؤُمُ ٱقۡرَءُواْ كِتَٰبِيَهۡ ۝ 18
(19) उस समय जिसका कर्मपत्र उसके सीधे हाथ में दिया जाएगा12 वह कहेगा, "लो देखो, पढ़ो मेरा कर्मपत्र,13
12. सीधे हाथ में कर्मपत्र का दिया जाना ही स्पष्ट कर देगा कि उसका हिसाब चुकता है और वह अल्लाह की अदालत में अपराधी की हैसियत से नहीं, बल्कि नेक इंसान की हैसियत से पेश हो रहा है। गुमान यह है कि कर्मपत्रों के बाँटे जाने के समय नेक इंसान खुद सीधा हाथ बढ़ाकर अपना कर्मपत्र लेगा। क्योंकि मौत के समय से हश्र के मैदान में हाज़िरी तक उसके साथ जो मामला पेश आया होगा उसकी वजह से उसको पहले ही यह इत्मीनान हासिल हो चुका कि मैं यहाँ इनाम पाने के लिए पेश हो रहा हूँ, न कि सज़ा पाने के लिए। कुरआन मजीद में यह बात जगह-जगह बड़े स्पष्ट शब्दों में बताई गई है कि मौत के समय ही से यह बात इंसान पर स्पष्ट हो जाती है कि वह खुशकिस्मत आदमी की हैसियत से दूसरे लोक में जा रहा है या बदकिस्मत आदमी की हैसियत से। (विस्तार के लिए देखिए, सूरा-8 अनफ़ाल, आयत 50; सूरा-16 नहल, आयत 28, 32, टिप्पणी 26 सहित। सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत 97; सूरा-20 ता-हा, आयत 102-103, 124-126, टिप्पणी 79, 30, 107 सहित। सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 103, टिप्पणी 98 सहित। सूरा-25 फुरक़ान, आयत 24, टिप्पणी 38 सहित। सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 89, टिप्पणी 109 सहित। सूरा-34 अस-सबा, आयत 51, टिप्पणी 72 सहित। सूरा-36 यासीन, आयत 26, 27, टिप्पणी 22, 23 सहित। सूरा-40 मोमिन, आयत 45-46, टिप्पणी 63 सहित। सूरा-47 मुहम्मद, आयत 27, टिप्पणी 37 सहित। सूरा-50 क़ाफ़, आयत 19-23, टिप्पणी 22, 23, 25 सहित।)
13. अर्थात् कर्मपत्र मिलते ही प्रसन्न हो जाएगा और अपने साथियों को दिखाएगा। सूरा-84 इंशिक़ाक़, आयत 9 में बयान हुआ है कि "वह ख़ुश-खुश अपने लोगों की ओर पलटेगा।"
إِنِّي ظَنَنتُ أَنِّي مُلَٰقٍ حِسَابِيَهۡ ۝ 19
(20) मैं समझता था कि मुझे ज़रूर अपना हिसाब मिलनेवाला है।''14
14. अर्थात् वह अपनी ख़ुशकिस्मती का कारण यह बताएगा कि वह दुनिया में आख़िरत से ग़ाफ़िल (बेसुध) न था, बल्कि यह समझते हुए जिंदगी बसर करता रहा कि एक दिन उसे ख़ुदा के सामने हाज़िर होना और अपना हिसाब देना है।
فَهُوَ فِي عِيشَةٖ رَّاضِيَةٖ ۝ 20
(21) अत: वह मनपसंद ऐश में होगा,
فِي جَنَّةٍ عَالِيَةٖ ۝ 21
(22) उच्च स्थान जन्नत में,
قُطُوفُهَا دَانِيَةٞ ۝ 22
(23) जिसके फलों के गुच्छे झुके पड़ रहे होंगे।
كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ هَنِيٓـَٔۢا بِمَآ أَسۡلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡأَيَّامِ ٱلۡخَالِيَةِ ۝ 23
(24) (ऐसे लोगों से कहा जाएगा) मज़े से खाओ और पियो अपने उन कर्मों के बदले जो तुमने बीते हुए दिनों में किए हैं।
وَأَمَّا مَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِشِمَالِهِۦ فَيَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي لَمۡ أُوتَ كِتَٰبِيَهۡ ۝ 24
(25) और जिसका कर्मपत्र उसके बाएँ हाथ में दिया जाएगा15 वह कहेगा, “काश! मेरा कर्मपत्र मुझे न दिया गया होता16
15. सूरा-84 इंशिक्राक में फ़रमाया गया है, "और जिसका कर्मपत्र उसकी पीठ के पीछे दिया जाएगा", शायद इसकी शक्ल यह होगी कि अपराधी को चूँकि पहले ही से अपने अपराधी होने की जानकारी होगी और वह जानता होगा कि इस कर्मपत्र में उसका क्या कच्चा-चिट्ठा अंकित है, इसलिए वह बड़ी बददिली के साथ अपना बायाँ हाथ बढ़ाकर उसे लेगा और तुरन्त पीठ के पीछे छिपा लेगा ताकि कोई देखने न पाए।
16. अर्थात् मुझे यह कर्मपत्र देकर हश्र के मैदान में एलानिया सबके सामने अपमानित व रुसवा न किया जाता और जो सजा भी देनी थी, दे डाली जाती।
وَلَمۡ أَدۡرِ مَا حِسَابِيَهۡ ۝ 25
(26) और मैं न जानता कि मेरा हिसाब क्या है?'17
17. अर्थात् मुझे न बताया जाता कि मैं दुनिया में क्या कुछ करके आया हूँ। दूसरा अर्थ इस आयत का यह भी हो सकता है कि मैंने कभी यह न जाना था कि हिसाब क्या बला होती है। मुझे कभी यह ख़याल तक न आया था कि एक दिन मुझे अपना हिसाब भी देना होगा और मेरा सब किया-कराया मेरे सामने रख दिया जाएगा।
يَٰلَيۡتَهَا كَانَتِ ٱلۡقَاضِيَةَ ۝ 26
(27) "काश! मेरी वही मौत (जो दुनिया में आई थी) निर्णायक होती।18
18. अर्थात् दुनिया में मरने के बाद मैं हमेशा के लिए खत्म हो गया होता और कोई दूसरा जीवन न होता।
مَآ أَغۡنَىٰ عَنِّي مَالِيَهۡۜ ۝ 27
(28) आज मेरा माल मेरे कुछ काम न आया।
هَلَكَ عَنِّي سُلۡطَٰنِيَهۡ ۝ 28
(29) मेरा सारा प्रभुत्त्व समाप्त हो गया।''19
19. मूल अरबी शब्द हैं 'ह-ल-क अन्नी सुलतानियः' । 'सुलतान' का शब्द प्रमाण व युक्ति के लिए भी प्रयुक्त होता है और सत्ता और प्रभुत्व के लिए भी। अगर उसे प्रमाण व युक्ति के अर्थ में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि जो दलीलबाज़ियाँ मैं किया करता था वे यहाँ नहीं चल सकतीं। मेरे पास अपनी सफ़ाई में पेश करने के लिए अब कोई युक्ति नहीं रखी। और सत्ता व प्रभुत्व के अर्थ में लिया जाए तो मुराद यह होगी कि दुनिया में जिस शक्ति के बल-बूते पर मैं अकड़ता था वह यहाँ ख़त्म हो चुकी है। अब यहाँ कोई मेरी सेना नहीं, कोई मेरा आदेश माननेवाला नहीं । मैं एक बेबस और लाचार बन्दे की हैसियत से खड़ा हूँ जो अपनी प्रतिरक्षा के लिए कुछ नहीं कर सकता।
خُذُوهُ فَغُلُّوهُ ۝ 29
(30) (आदेश होगा) पकड़ो इसे और इसकी गरदन में तौक़ डाल दो,
ثُمَّ ٱلۡجَحِيمَ صَلُّوهُ ۝ 30
(31) फिर इसे जहन्नम में झोंक दो,
ثُمَّ فِي سِلۡسِلَةٖ ذَرۡعُهَا سَبۡعُونَ ذِرَاعٗا فَٱسۡلُكُوهُ ۝ 31
(32) फिर इसको सत्तर हाथ लंबी जंजीर में जकड़ दो।
إِنَّهُۥ كَانَ لَا يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 32
(33) यह न महिमावान अल्लाह पर ईमान लाता था
وَلَا يَحُضُّ عَلَىٰ طَعَامِ ٱلۡمِسۡكِينِ ۝ 33
(34) और न मुहताज को खाना खिलाने पर उभारता था।20
20. अर्थात् ख़ुद किसी मुहताज को खाना खिलाना तो दूर की बात, किसी से यह कहना भी पसन्द न करता था कि ख़ुदा के भूखे बन्दों को रोटी दे दो।
فَلَيۡسَ لَهُ ٱلۡيَوۡمَ هَٰهُنَا حَمِيمٞ ۝ 34
(35) अत: आज न यहाँ इसका कोई हमदर्द दोस्त है
وَلَا طَعَامٌ إِلَّا مِنۡ غِسۡلِينٖ ۝ 35
(36) और न घावों के धोवन के सिवा इसके लिए कोई खाना,
لَّا يَأۡكُلُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡخَٰطِـُٔونَ ۝ 36
(37) जिसे अपराधियों के सिवा कोई नहीं खाता।
فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَا تُبۡصِرُونَ ۝ 37
(38) अत: नहीं21, मैं क़सम खाता हूँ उन चीज़ों की भी जो तुम देखते हो
21. अर्थात् तुम लोगों ने जो कुछ समझ रखा है, बात वह नहीं है।
وَمَا لَا تُبۡصِرُونَ ۝ 38
(39) और उनकी भी जिन्हें तुम नहीं देखते।
إِنَّهُۥ لَقَوۡلُ رَسُولٖ كَرِيمٖ ۝ 39
(40) यह एक प्रतिष्ठित रसूल का कथन है22,
22. [वार्ता का सन्दर्भ बताता है कि] यहाँ प्रतिष्ठित रसूल से मुराद मुहम्मद (सल्ल०) हैं और सूरा-81 अत-तक्वीर (आयत 19) में इससे मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं। [चूँकि कुरआन को लोग] नबी (सल्ल०) की ज़बान से और नबी (सल्ल०) जिबरील (अलैहि०) की ज़बान से सुन रहे थे, इसलिए एक पहलू से यह नबी (सल्ल०) का कथन था और दूसरे पहलू से जिबरील (अलैहि०) का कथन। लेकिन आगे चलकर यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि वास्तव में यह सारे जहानों के रब का उतारा हुआ है जो मुहम्मद (सल्ल०) के सामने जिबरील (अलैहि०) की ज़बान से और लोगों के सामने मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से अदा हो रहा है। ख़ुद रसूल का शब्द भी इस तथ्य का प्रमाण है कि यह इन दोनों की अपनी वाणी नहीं है, बल्कि सन्देशवाहक होने की हैसियत से उन्होंने उसको सन्देश भेजनेवाले की ओर से प्रस्तुत किया है।
وَمَا هُوَ بِقَوۡلِ شَاعِرٖۚ قَلِيلٗا مَّا تُؤۡمِنُونَ ۝ 40
(41) किसी कवि का कथन नहीं है। तुम लोग थोड़ा ही ईमान लाते हो।23
23. 'थोड़ा ही ईमान लाते हो' का एक अर्थ अरबी मुहावरे के अनुसार यह हो सकता है कि तुम ईमान नहीं लाते। और दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि क़ुरआन को सुनकर कभी तुम्हारा मन स्वयं पुकार उठता है कि यह इंसान की वाणी नहीं हो सकती, मगर फिर तुम अपनी ज़िद पर अड जाते हो और उस पर ईमान लाने से इंकार कर देते हो।
وَلَا بِقَوۡلِ كَاهِنٖۚ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 41
(42) और न यह किसी काहिन का कथन है, तुम लोग थोड़ा ही विचार करते हो।
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 42
(43) यह सारे जहानों के रब की ओर से अवतरित हुआ है।24
24. कहने का मतलब यह है कि जो कुछ तुम्हें नज़र आता है और जो कुछ तुमको नज़र नहीं आता, उस सबकी क़सम मैं इस बात पर खाता हूँ कि यह कुरआन सारे जहानों के रब का उतारा हुआ है जो एक ऐसे रसूल की जबान से अदा हो रहा है जो प्रतिष्ठित है। अब देखिए कि यह कसम किस अर्थ में खाई गई है। जो कुछ लोगों को नज़र आ रहा था, वह यह था कि- i इस वाणी को एक ऐसा व्यक्ति पेश कर रहा था जिसका सुशील होना मक्का के समाज में किसी से छिपा हुआ न था। ऐसे व्यक्ति से यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वह अपने दिल से एक बात गढ़कर उसे सारे जहानों के प्रभु की बात क़रार देगा। ii इस वाणी को प्रस्तुत करने में अपना कोई निजी स्वार्थ उस व्यक्ति के सामने नहीं है, बल्कि यह काम करके तो उसने अपने [सारे ही सांसारिक हितों को त्याग दिया है।] व्यक्तिगत हितों का इच्छुक इस तरह कांटों में अपने आपको नहीं घसीटा करता। iii समाज में से जो लोग उस व्यक्ति पर ईमान ला रहे थे उनके जीवन में सहसा एक क्रान्ति पैदा हो जाती थी। किसी कवि या ज्योतिषी की वाणी में यह प्रभाव आख़िर कब देखा गया है कि वह लोगों में ऐसा ज़बरदस्त नैतिक परिवर्तन पैदा कर दे। iv क़ुरआन की भाषा कवियों या ज्योतिषियों की भाषा से बिल्कुल भिन्न है। (इसपर विस्तृत वार्ता हम सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 7, सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 142-145 और सूरा-52 अत-तूर, टिप्पणी 22 में कर चुके हैं।) v पूरे अरब में कोई व्यक्ति इतनी अच्छी भाषा न जानता था जिसकी वाणी क़ुरआन के मुक़ाबले में लाई जा सकती हो। vi ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) की भाषा भी अपनी साहित्यिक शान के पहलू से क़ुरआन की साहित्यिक शान से बहुत भिन्न थी। कोई भाषाविद नबी (सल्ल.) के अपने आख्यान और क़ुरआन को सुनकर यह नहीं कह सकता था कि ये दोनों एक ही व्यक्ति की वाणी हैं। vii क़ुरआन जिन विषयों और वार्ताओं पर सम्मिलित था, पैग़म्बरी के दावे से एक दिन पहले तक भी मक्का के लोगों ने कभी वे बातें मुहम्मद (सल्ल०) को ज़बान से न सुनी थीं, और वे यह भी जानते थे कि इन जानकारियों के प्राप्त करने का कोई ज़रीआ आप (सल्ल०) के पास नहीं है। (इसकी व्याख्या हम सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 107 और सूरा-25 अल-फुरकान, टिप्पणी 12 में कर चुके हैं।) viii ज़मीन से लेकर आसमान तक इस विशाल जगत में एक ज़बरदस्त तत्त्वदर्शितापूर्ण क़ानून और व्यापक अनुशासन व प्रबन्ध काम करता नज़र आ रहा था। उसके अन्दर कहीं शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और आख़िरत के इंकार के लिए कोई गवाही नहीं पाई जाती, बल्कि हर ओर तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत ही की सत्यता की गवाहियाँ मिलती थीं। यह सब कुछ तो वे देख रहे थे, और जो कुछ वे नहीं देख रहे थे वह यह था कि वास्तव में अल्लाह के सिवा कोई उपास्य नहीं है। क़ियामत ज़रूर आनेवाली है। मुहम्मद (सल्ल०) को वास्तव में अल्लाह ही ने अपना रसूल नियुक्त किया है और उनपर अल्लाह ही की ओर से यह कुरआन उतर रहा है। इन दोनों प्रकार के तथ्यों की क़सम खाकर वह बात कही गई है जो ऊपर की आयतों में इर्शाद हुई है।
وَلَوۡ تَقَوَّلَ عَلَيۡنَا بَعۡضَ ٱلۡأَقَاوِيلِ ۝ 43
(44) और अगर इस (नबी) ने स्वयं गढ़कर कोई बात हम से जोड़ी होती
لَأَخَذۡنَا مِنۡهُ بِٱلۡيَمِينِ ۝ 44
(45) तो हम इसका दाहिना हाथ पकड़ लेते
ثُمَّ لَقَطَعۡنَا مِنۡهُ ٱلۡوَتِينَ ۝ 45
(46) और इसकी गरदन की रग काट डालते,
فَمَا مِنكُم مِّنۡ أَحَدٍ عَنۡهُ حَٰجِزِينَ ۝ 46
(47) फिर तुममें से कोई (हमें) इस काम से रोकनेवाला न होता।25
25. असुल मक़सद यह बताना है कि नबी को अपनी ओर से वह्य (प्रकाशना) में कोई कमी-बेशी करने का अधिकार नहीं है, और अगर वह ऐसा करेगा तो हम उसको कड़ी सज़ा देंगे। मगर इस बात को ऐसे ढंग से बयान किया गया है कि जिससे आँखों के सामने यह चित्र खिंच जाता है कि एक बादशाह का नियुक्त किया हुआ अधिकारी उसके नाम से कोई जालसाज़ी करे तो बादशाह उसका हाथ पकड़कर उसका सर क़लम कर दे। कुछ लोगों ने इस आयत से यह ग़लत प्रमाण निकाला है कि जो व्यक्ति भी नबी होने का दावा करे, उसके दिल की रग या गरदन की रग अगर अल्लाह की ओर से तुरन्त न काट डाली जाए तो यह उसके नबी होने का प्रमाण है। हालाँकि इस आयत में जो बात फ़रमाई गई है वह सच्चे नबी के बारे में है, नुबूवत के झूठे दावेदारों के बारे में नहीं है। झूठे दावेदार तो नुबूवत ही नहीं, ख़ुदाई तक के दावे करते हैं और ज़मीन पर मुद्दतों दनदनाते फिरते हैं। उनकी सच्चाई का कोई सबूत नहीं है। [(और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 23)]
وَإِنَّهُۥ لَتَذۡكِرَةٞ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 47
(48) वास्तव में यह परहेज़गार लोगों के लिए एक नसीहत है।26
26. अर्थात् क़ुरआन उन लोगों के लिए नसीहत है जो ग़लत तरीक़ों और उसके बुरे नतीजों से बचना चाहते हैं। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2, अल-बक़रा, टिप्पणी 3)
وَإِنَّا لَنَعۡلَمُ أَنَّ مِنكُم مُّكَذِّبِينَ ۝ 48
(49) और हम जानते हैं कि तुममें से कुछ लोग झुठलानेवाले हैं।
وَإِنَّهُۥ لَحَسۡرَةٌ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 49
(50) ऐसे इंकार करनेवालों के लिए निश्चय ही यह पछतावे का कारण है।27
27. अर्थात् अन्तत: उन्हें इस बात पर पछताना पड़ेगा कि उन्होंने क्यों इस क़ुरआन को झुठलाया।
وَإِنَّهُۥ لَحَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 50
(51) और यह बिल्कुल विश्वसनीय सत्य है।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 51
(52) अत: ऐ नबी! अपने महिमावान रब के नाम की तस्बीह (गुणगान) करो।