(38) अल्लाह फ़रमाएगा : जाओ, तुम भी उसी जहन्नम में चले जाओ जिसमें तुमसे पहले गुज़रे हुए जिन और इंसानों के गिरोह जा चुके हैं। हर गिरोह जब जहन्नम में दाखिल होगा तो अपने अगले गिरोह पर लानत करता हुआ दाखिल होगा, यहाँ तक कि जब सब वहाँ जमा हो जाएँगे तो हर बादवाला गिरोह पहले गिरोह के पक्ष में कहेगा कि ऐ रब ! ये लोग थे जिन्होंने हमें पथभ्रष्ट किया, इसलिए इन्हें आग का दोहरा अज़ाब दे। जवाब में कहा जाएगा : हर एक के लिए दोहरा अज़ाब ही है पर तुम जानते नहीं हो।30
30. अर्थात बहरहाल तुममें से प्रत्येक समुदाय किसी के पीछे था तो किसी के आगे भी था। अगर किसी गिरोह के अगलों ने उसके लिए विरासत स्वरूप भ्रष्ट चिंतन और दूषित कर्म और कर्म छोड़ा था तो स्वयं वह भी अपने पिछलों के लिए वैसी ही मीरास छोड़कर दुनिया से विदा हुआ। अगर एक गिरोह के गुमराह होने की कुछ ज़िम्मेदारी उसके पहलों पर आती है तो उसके पिछलों को गुमराही का बहुत कुछ बोझ स्वयं उसपर भी आता है। इसी कारण कहा कि हर एक के लिए दोहरा अज़ाब है। एक अज़ाब स्वयं गुमराही अपनाने का और दूसरा अज़ाब दूसरों को गुमराह (पथभष्ट) करने का । एक सज़ा अपने अपराधों की और दूसरी सज़ा दूसरों के लिए अपराध अपनाने की मीरास छोड़ आने की। हदीस में इसी विषय की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि “जिसने किसी नई गुमराही की शुरुआत की, जो अल्लाह और उसके रसूल के निकट अप्रिय हो, तो उसपर उन सब लोगों के गुनाह की ज़िम्मेदारी आ पड़ेगी जिन्होंने उसके निकाले हुए तरीके का अनुसरण किया, बिना इसके कि स्वयं इन कर्म करनेवालों की ज़िम्मेदारी में कोई कमी हो।” दूसरी हदीस में है, "दुनिया में जो इंसान भी अन्याय के साथ क़त्ल किया जाता है उसकी अन्यायपूर्ण हत्या का एक हिस्सा आदम के उस पहले बेटे को पहुँचता है जिसने अपने भाई की हत्या की थी, क्योंकि इंसान की हत्या का रास्ता सबसे पहले उसी ने खोला था।” इससे मालूम हुआ कि जो व्यक्ति या गिरोह किसी ग़लत विचार या ग़लत रवैये की बुनियाद डालता है, वह केवल अपनी ही ग़लती का ज़िम्मेदार नहीं होता, बल्कि दुनिया में जितने इंसान उससे प्रभावित होते हैं उन सबके गुनाह की ज़िम्मेदारी का भी एक हिस्सा उसके हिसाब में लिखा जाता रहता है और जब तक उसकी इस ग़लती का प्रभाव चलता रहता है, उसके हिसाब में दर्ज किया जाता रहता है। साथ ही इससे यह भी मालूम हुआ कि हर व्यक्ति अपनी नेकी या बदी का केवल अपने व्यक्तित्व की सीमा तक ही ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि इस बात का भी जवाबदेह है कि उसकी नेकी या बदी का क्या प्रभाव दूसरों की ज़िन्दगी पर पड़ा।
उदाहरण के रूप में एक व्यभिचारी को लीजिए। जिन लोगों की शिक्षा-दीक्षा से, जिनकी संगति के प्रभाव से, जिनके बुरे उदाहरणों के देखने से और जिनके प्रलोभनों से उस व्यक्ति के भीतर व्यभिचार की बुराई पली-बढ़ी, वे सब उसके व्यभिचारी बनने में भागीदार हैं और स्वयं उन लोगों ने ऊपर जहाँ-जहाँ से इस कुदृष्टि व बुरी चाह और दुष्कर्म की मीरास पाई है वहाँ तक उसकी ज़िम्मेदारी पहुँचती है, यहाँ तक कि यह सिलसिला उस पहले इंसान पर जाकर समाप्त होता है जिसने सबसे पहले मानवजाति को मनोकामना पूरा करने का यह ग़लत रास्ता दिखाया। यह उस व्यभिचारी के हिसाब का दूसरा हिस्सा है जो उसके समकालिकों और उसके पूर्वजों से ताल्लुक़ रखता है। फिर वह स्वयं भी अपने व्यभिचार का ज़िम्मेदार है। उसको भले और बुरे की जो पहचान दी गई थी, उसमें अन्तरात्मा की जो शक्ति रखी गई थी, उसके भीतर आत्मसंयम की जो क्षमता दी गई थी, उसको नेक लोगों से भलाई और बुराई का जो ज्ञान प्राप्त हुआ था, उसके सामने भले लोगों के जो उदाहरण मौजूद थे, उसको यौन-दुराचरण के दुष्परिणामों की जो जानकारी थी, उनमें से किसी चीज़ से भी उसने लाभ न उठाया और अपने आपको मन की उस अंधी कामना के सुपुर्द कर दिया जो केवल अपनी तुष्टि चाहती थी, चाहे वह किसी तरीके से हो। यह उसके हिसाब का वह हिस्सा है जो उसके अपने व्यक्तित्व से संबंध रखता है। फिर यह व्यक्ति उस बुराई को, जिसे उसने कमाया और जिसे स्वयं अपनी कोशिश से वह पालता-पोसता रहा, दूसरों में फैलाना शुरू करता है, किसी गन्दे रोग की छूत कहीं से लगाता है और उसे अपनी नस्ल में और न जाने किन-किन नस्लों में फैलाकर न जाने कितनी ज़िन्दगियों को खराब कर देता है, कहीं अपना वीर्य छोड़ आता है और जिस बच्चे को पालने-पोसने का बोझ उसे स्वयं उठाना चाहिए था, उसे किसी और की कमाई का अवैध भागीदार, उसके बच्चों के अधिकारों में जबरदस्ती का शरीक, उसकी मीरास में नाहक का हक़दार बना देता है और अधिकारों के इस हनन का सिलसिला न जाने कितनी नस्लों तक चलता रहता है। किसी युवती को फुसलाकर दुराचार के रास्ते पर डालता है और उसके अन्दर उन बुरे गुणों को उभार देता है जो उससे फैलकर न जाने कितने परिवारों और कितनी नस्लों तक पहुंचते हैं और कितने घर बिगाड़ देते हैं। अपनी सन्तान, अपने रिश्तेदार, अपने दोस्तों और अपने समाज के दूसरे लोगों के सामने अपने चरित्र की एक बुरी मिसाल पेश करता है और न जाने कितने व्यक्तियों के चाल-चलन खराब करने का कारण बन जाता है जिसके प्रभाव बाद की नस्लों में लम्बी. मुद्दत तक चलते रहते हैं। यह सारा बिगाड़ जो उस आदमी ने समाज में फैलाया, न्याय की अपेक्षा है कि यह भी उसके हिसाब में लिखा जाए और उस समय तक लिखा जाता रहे जब तक उसकी फैलाई हुई खराबियों का सिलसिला दुनिया में चलता रहे।
इसी प्रकार नेकी के प्रति भी सोचना और समझना चाहिए । जो नेक मीरास अपने पूर्वजों से हमको मिली है, उसका बदला और सवाब उन सब लोगों को पहुँचना चाहिए जो आरंभिककाल से लेकर हमारे समय तक उसको आगे बढ़ाने में हिस्सा लेते रहे हैं । फिर इस मीरास को लेकर उसे संभालने और विकसित करने में जो सेवा हम करेंगे, उसका बदला हमें भी मिलना चाहिए। फिर अपनी भली कोशिश के जो प्रभाव हम दुनिया में छोड़ जाएंगे, उन्हें भी हमारी भलाइयों के हिसाब में उस समय तक निरंतर अंकित होते रहना र चाहिए, जब तक ये प्रभाव बाकी रहें और उनके प्रभावों का सिलसिला मानवजाति में चलता रहे और उनके लाभों से दुनिया फ़ायदा उठाती रहे।
बदले और प्रतिफल की यह शक्ल जो कुरआन प्रस्तुत कर रहा है, प्रत्येक बुद्धि रखनेवाला स्वीकार करेगा कि सही और पूरा न्याय यदि हो सकता है तो इसी तरह हो सकता है। इस वास्तविकता को आगर अच्छी तरह समझ लिया जाए तो इससे उन लोगों की प्रान्तियाँ भी दूर हो सकती हैं जिन्होंने प्रतिफल के लिए वर्तमान के इसी सांसारिक जीवन को पर्याप्त समझ लिया है, और उन लोगों का भ्रम भी जो यह विचार रखते हैं कि इंसान को उसके कर्मों का पूरा बदला आवागमन के रूप में मिल सकता है। वास्तव में इन दोनों गिरोहों ने न तो इंसानी काम और उसके प्रभावों और परिणामों की व्यापकता को समझा है और न न्यायोचित प्रतिफल और उसकी अपेक्षाओं को। एक इंसान आज अपने पचास-साठ साल के जीवन में जो अच्छे या बुरे कर्म करता है, उनकी ज़िम्मेदारी में न जाने कितनी पीढ़ियाँ सम्मलित हैं जो गुज़र चुकी और आज यह संभव नहीं कि उन्हें इसका इनाम या सज़ा पहुँच सके। फिर उस व्यक्ति के ये अच्छे या बुरे कर्म जिन्हें वह आज कर रहा है उसकी मौत के साथ समाप्त नहीं हो जाएँगे, बल्कि उनके प्रभावों का सिलसिला आगे सदियों तक चलता रहेगा। हज़ारों, लाखों बल्कि करोड़ों इंसानों तक फैलेगा और उसके हिसाब का खाता उस समय तक खुला रहेगा जब तक ये प्रभाव चल रहे हैं और फैल रहे हैं। किस तरह संभव है कि आज ही इस दुनिया की ज़िन्दगी में उस व्यक्ति को उसकी कमाई (किए) का पूरा बदला मिल जाए, जबकि अभी उसकी कमाई (किए) के प्रभावों का लाखवाँ हिस्सा भी प्रकट नहीं हुआ है। फिर इस दुनिया का सीमित जीवन और उसकी सीमित संभावनाएँ सिरे से इतनी गुंजाइश ही नहीं रखतीं कि यहाँ किसी को उसकी कमाई का पूरा बदला मिल सके। आप किसी ऐसे व्यक्ति के अपराध के बारे में सोचिए जो उदाहरणतः दुनिया में एक महायुद्ध की आग भड़काता है और उसकी इस हरकत के अनगिनत बुरे नतीजे हज़ारों वर्ष तक अरबों इंसानों तक फैलते हैं। क्या कोई बड़ी-से-बडी शारीरिक, नैतिक, आध्यात्मिक या भौतिक सज़ा भी, जो इस दुनिया में दी जानी संभव है, उसके इस अपराध की पूरी तरह न्यायपूर्ण सज़ा हो सकती है ? इसी तरह क्या दुनिया का कोई बड़े से बड़ा पुरस्कार भी, जिसकी कल्पना आप कर सकते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति के लिए काफी हो सकता है जो उम्र-भर मानवजाति की भलाई के लिए काम करता रहा हो और हज़ारों साल तक अनगिनत इंसान जिसकी कोशिशों के फल से लाभ उठाए चले जा रहे हों। कर्म और प्रतिफल के मामले को इस पहलू से जो व्यक्ति देखेगा, उसे विश्वास हो जाएगा कि कर्म-प्रतिफल के लिए एक दूसरी ही दुनिया अपेक्षित है, जहाँ तमाम अगली और पिछली नस्लें जमा हों, तमाम इंसानों के खाते बन्द हो चुके हों, हिसाब करने के लिए एक जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला ख़ुदा न्याय की कुर्सी पर बैठा हो और कर्म का पूरा बदला पाने के लिए इंसान के पास असीम जीवन और उसके चारों ओर इनाम व सज़ा की असीम संभावनाएँ मौजूद हों।
फिर इसी पहलू पर विचार करने से आवागमनवालों की एक और बुनियादी ग़लती को भी दूर किया जा सकता है, जिसमें पड़कर उन्होंने आवागमन का चक्कर प्रस्तावित किया है। वे इस सच्चाई को नहीं समझे कि केवल एक ही छोटे-से पचास वर्षीय जीवन के कारनामे का फल पाने के लिए उससे हज़ारों गुना ज़्यादा लम्बा जीवन आपेक्षित है, कहाँ यह कि उस पचास वर्षीय जीवन के समाप्त होते ही हमारा एक दूसरा और फिर तीसरा दायित्त्वपूर्ण जीवन इसी दुनिया में शुरू हो जाए और इन जीवनों में भी हम और अधिक ऐसे काम करते चले जाएँ जिनका अच्छा या बुरा फल हमें मिलना ज़रूरी हो। इस तरह तो हिसाब चुकता होने के बजाय और ज्यादा बढ़ता ही चला जाएगा और उसके चुकता होने की नौबत कभी आ ही न सकेगी।