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سُورَةُ المُزَّمِّلِ

73. अल-मुज़्ज़म्मिल

(मक्का में उतरी, आयतें 20)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुज़्ज़म्मिल' (ओढ़-लपेटकर सोनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका शीर्षक नहीं है।

उतरने का समय

इस सूरा के दो खण्ड हैं (पहला खण्ड आरम्भ से आयत 19 तक और सूरा का शेष भाग दूसरा खण्ड है।) दोनों खण्ड दो अलग-अलग समयों में अवतरित हुए हैं। पहला खण्ड सर्वसम्मति से मक्की है। रहा यह प्रश्न कि यह मक्की जीवन के किस कालखण्ड में अवतरित हुआ है, तो इस खण्ड की वार्ताओं के आन्तरिक साक्ष्य [से मालूम होता है कि पहली बात यह कि यह नबी (सल्ल०) की नुबूवत के प्रारम्भिक काल ही में अवतरित हुआ होगा जबकि अल्लाह की ओर से इस पद के लिए आपको प्रशिक्षित किया जा रहा था। दूसरी बात यह कि उस समय कुरआन मजीद का कम से कम इतना अंश अवतरित हो चुका था कि उसका पाठ करने में अच्छा-खासा समय लग सके। तीसरी बात यह कि [उस समय] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) इस्लाम का खुले रूप में प्रचार करना आरम्भ कर चुके थे और मक्का में आपका विरोध ज़ोरों से होने लगा था। दूसरे खण्ड के सम्बन्ध में यद्यपि बहुत-से टीकाकारों ने यह विचार व्यक्त किया है कि वह भी मक्का ही में अवतरित हुआ है, किन्तु कुछ दूसरे टीकाकारों ने उसे मदनी ठहराया है। और इस [के अन्दर ख़ुदा के मार्ग में युद्ध का उल्लेख और ज़कात फ़र्ज़ होने के आदेश की मौजूदगी] से इसी विचार को समर्थन मिलता है।

विषय और वार्ता

पहली 7 आयतों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि जिस महान कार्य का बोझ आपपर डाला गया है, उसके दायित्वों के निर्वाह के लिए आप अपने आपको तैयार करें और उसका व्यावहारिक रूप यह बताया गया है कि रातों को उठकर आप आधी-आधी रात या उससे कुछ कम-ज़्यादा नमाज़ पढ़ा करें। आयत 8 से 14 तक नबी (सल्ल.) को यह शिक्षा दी गई है कि सबसे कटकर उस प्रभु के हो रहें जो सारे जगत् का मालिक है। अपने सारे मामले उसी को सौंपकर निश्चिन्त हो जाएँ। विरोधी जो बातें आपके विरुद्ध बना रहे हैं उनपर धैर्य से काम लें, उनके मुँह न लगें और उनका मामला ईश्वर पर छोड़ दें कि वही उनसे निबट लेगा। इसके बाद आयत 15 से 19 तक मक्का के उन लोगों को, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विरोध कर रहे थे, सावधान किया गया है कि हमने उसी तरह तुम्हारी ओर एक रसूल भेजा है जिस तरह फ़िरऔन की ओर भेजा था। फिर देख लो कि जब फ़िरऔन ने अल्लाह के रसूल की बात न मानी तो उसका क्या परिणाम हुआ। यदि मान लो कि दुनिया में तुमपर कोई यातना नहीं आई तो क़ियामत के दिन तुम कुफ़्र (इनकार) के दण्ड से कैसे बच निकलोगे? ये पहले खण्ड की वार्ताएँ हैं। दूसरे खण्ड में तहज्जुद की नमाज़ (अनिवार्य नमाज़ों के अतिरिक्त रात में पढ़ी जानेवाली नमाज़ जो अनिवार्य तो नहीं है किन्तु ईमानवालों के जीवन में इसका महत्त्व कुछ कम भी नहीं है) के सम्बन्ध में उस आरम्भिक आदेश के सिलसिले में कुछ छूट दे दी गई जो पहले खण्ड के आरम्भ में दिया गया था। अब यह आदेश दिया गया कि जहाँ तक तहज्जुद की नमाज़ का सम्बन्ध है, वह तो जितनी आसानी से पढ़ी जा सके, पढ़ लिया करो, किन्तु मुसलमानों को मौलिक रूप से जिस चीज़ का पूर्ण रूप से आयोजन करना चाहिए वह यह है कि पाँच वक़्तों की अनिवार्य नमाज़ पूरी पाबन्दी के साथ क़ायम रखें, ज़कात (दान) देने के अनिवार्य कर्त्तव्य का ठीक-ठीक पालन करते रहें और अल्लाह के मार्ग में अपना माल शुद्ध हृदयता के साथ ख़र्च करें । अन्त में मुसलमानों को यह शिक्षा दी गई है कि जो भलाई के काम तुम दुनिया में करोगे वे विनष्ट नहीं होंगे, बल्कि अल्लाह के यहाँ तुम्हें उनका बड़ा प्रतिदान प्राप्त होगा।

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سُورَةُ المُزَّمِّلِ
73. अल-मुज्जम्मिल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُزَّمِّلُ
(1) ऐ ओढ़-लपेटकर सोनेवाले1!
1. इन शब्दों के साथ नबी (सल्ल०) को सम्बोधित करने से यह स्पष्ट होता है कि उस समय या तो आप सो चुके थे या सोने के लिए चादर ओढ़कर लेट गए थे। इस अवसर पर आपको "ऐ ओढ़-लपेटकर सोनेवाले" कहकर पुकारना संबोधन की एक सूक्ष्म शैली है जिससे अपने आप यह अर्थ निकलता है कि अब वह समय बीत गया जब आप आराम से पाँव फैलाकर सोते थे। अब आपपर एक बड़े काम का बोझ डाल दिया गया है जिसके तक़ाज़े कुछ और हैं।
قُمِ ٱلَّيۡلَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 1
(2) रात को नमाज़ में खड़े रहा करो, मगर कम2,
2. इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि रात नमाज़ में खड़े रहकर गुज़ारो और उसका कम हिस्सा सोने में लगाओ, दूसरा यह कि पूरी रात नमाज़ में गुज़ार देने की माँग तुमसे नहीं है, बल्कि आराम भी करो और रात का एक छोटा हिस्सा इबादत में भी लगाओ। लेकिन आगे के विषय से पहला अर्थ ही अधिक अनुकूलता रखता है और इसी की पुष्टि सूरा-76 अद-दहर की आयत 26 से भी होती है।
نِّصۡفَهُۥٓ أَوِ ٱنقُصۡ مِنۡهُ قَلِيلًا ۝ 2
(3) आधी रात या उससे कुछ कम कर लो,
أَوۡ زِدۡ عَلَيۡهِ وَرَتِّلِ ٱلۡقُرۡءَانَ تَرۡتِيلًا ۝ 3
(4) या उससे कुछ अधिक बढ़ा दो3, और क़ुरआन को ख़ूब ठहर-ठहरकर पढ़ो।4
3. यह उस समयावधि की व्याख्या है जिसे इबादत में गुज़ारने का हुक्म दिया गया था। इसमें आपको अधिकार दिया गया कि चाहे आधी रात नमाज़ में लगाएँ या उससे कुछ कम कर दें या उससे कुछ अधिक। लेकिन वार्ता-शैली से मालूम होता है कि प्राथमिकता-योग्य आधी रात है, क्योंकि उसी को मानदण्ड (मेआर) बताकर कमी व बेशी का अधिकार दिया गया है।
4. अर्थात् तेज़-तेज़ भागम-भाग न पढ़ो, बल्कि धीरे-धीरे एक-एक शब्द ज़बान से अदा करो और एक-एक आयत पर ठहरो ताकि मन पूरी तरह अल्लाह की वाणी के अर्थ को समझे और उसके विषयों का प्रभाव ग्रहण करे।
إِنَّا سَنُلۡقِي عَلَيۡكَ قَوۡلٗا ثَقِيلًا ۝ 4
(5) हम तुमपर एक भारी वाणी उतारनेवाले हैं।5
5. मतलब यह है कि तुमको रात की नमाज़ का यह आदेश इसलिए दिया जा रहा है कि एक भारी वाणी हम तुमपर उतार रहे हैं जिसका बोझ उठाने के लिए तुममें उसकी सहन-शक्ति पैदा होनी आवश्यक है और यह शक्ति तुम्हें इसी तरह प्राप्त हो सकती है। क़ुरआन को भारी वाणी इस कारण भी कहा गया है कि उसके आदेशों पर अमल करना, उसकी शिक्षा का नमूना बनकर दिखाना, उसकी दावत को लेकर सारी दुनिया के मुक़ाबले में उठना और उसके अनुसार धारणाओं, दृष्टिकोणों, चरित्र व आचरण और संस्कृति व सभ्यता की पूरी व्यवस्था में क्रान्ति पैदा कर देना एक ऐसा काम है जिससे बढ़कर किसी भारी काम की कल्पना नहीं की जा सकती। और इस कारण भी इसको भारी वाणी कहा गया है कि इसके अवतरण को सहन करना बड़ा कठिन काम था। [जैसा कि हदीसों में स्पष्ट शब्दों में उल्लिखित है।]
إِنَّ نَاشِئَةَ ٱلَّيۡلِ هِيَ أَشَدُّ وَطۡـٔٗا وَأَقۡوَمُ قِيلًا ۝ 5
(6) वास्तव में रात का उठना6 मन (नफ़्स) पर क़ाबू पाने के लिए बहुत प्रभावकारी7 और क़ुरआन ठीक पढ़ने के लिए अधिक अनुकूल है।8
6. मूल में अरबी शब्द 'नाशि-अ-तल्लैल' प्रयुक्त हुआ है, जिसके बारे में टीकाकारों और भाषाविदों के चार अलग-अलग कथन है- एक कथन यह कि नाशिअ: से मुराद ख़ुद नाशे है, अर्थात् वह आदमी जो रात को उठे। दूसरा कथन यह है कि इससे मुराद रात के समय हैं। तीसरा कथन यह है कि इसका अर्थ है रात को उठना। और चौथा कथन यह है कि यह शब्द केवल रात को उठने के लिए नहीं बोला जाता, बल्कि सोकर उठने के लिए बोला जाता है। हज़रत आइशा (रजि०) और मुजाहिद (रह०) ने इसी चौथे कथन को हख़्तियार किया है।
7. मूल में अरबी शब्द 'अ-शद-दु-वत-आ' प्रयुक्त हुआ है। [यह बड़े व्यापक अर्थोंवाला शब्द है।] इसका मतलब यह है कि रात को इबादत के लिए उठना और देर तक ठहरे रहना एक ऐसा मुजाहिदा (तपस्या) है, जो मन को दबाने और उसपर काबू पाने का बड़ा प्रभावकारी ज़रीआ है। दूसरा अर्थ यह है कि यह दिल और ज़बान के बीच ताल-मेल और सामंजस्य पैदा करने का बड़ा प्रभावकारी साधन है। तीसरा अर्थ यह है कि यह आदमी के बाह्य व अन्तर में ताल-मेल और सामंजस्य पैदा करने का बड़ा उपयोगी साधन है। चौथा अर्थ यह है कि इसकी पाबन्दी करने से आदमी में बड़ा जमाव और मजबूती पैदा होती है।
إِنَّ لَكَ فِي ٱلنَّهَارِ سَبۡحٗا طَوِيلٗا ۝ 6
(7) दिन के समयों में तो तुम्हारे लिए बहुत व्यस्तताएँ हैं।
وَٱذۡكُرِ ٱسۡمَ رَبِّكَ وَتَبَتَّلۡ إِلَيۡهِ تَبۡتِيلٗا ۝ 7
(8) अपने रब के नाम का ज़िक्र किया करो9 और सबसे कटकर उसी के हो रहो।
9. दिन के समय की व्यस्तताओं का उल्लेख करने के बाद यह कहना कि "अपने रब के नाम का ज़िक्र किया करो" से अपने आप यह मतलब ज़ाहिर होता है कि दुनिया में हर तरह के काम करते हुए भी अपने रब की याद से कभी ग़ाफ़िल न हो और किसी न किसी रूप में उसका ज़िक्र करते रहो। (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-33 अल-अहज़ाब, टिप्पणी 63)
رَّبُّ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ فَٱتَّخِذۡهُ وَكِيلٗا ۝ 8
(9) वह पूरब और पश्चिम का मालिक है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं, इसलिए उसी को अपना 'वकील' बना लो।10
10. 'वकील' उस व्यक्ति को कहते हैं जिसपर भरोसा करके कोई व्यक्ति अपना मामला उसके सुपुर्द कर दे। लगभग इसी अर्थ में हम हिंदी-उर्दू में वकील का शब्द उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं जिसके हवाले अपना मुक़द्दमा करके एक आदमी सन्तुष्ट हो जाता है कि उसकी ओर से वह अच्छी तरह मुक़द्दमा लड़ेगा और उसे स्वयं अपना मुक़द्दमा लड़ने की ज़रूरत न रहेगी। अत: आयत का मतलब यह है कि इस दीन की दावत पेश करने पर तुम्हारे विरुद्ध विरोधों का जो तूफ़ान उट खड़ा हुआ है उसपर तुम्हें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। तुम्हारा रब वह है जो पूरब व पश्चिम, यानी सारी सृष्टि का मालिक है, जिसके सिवा ख़ुदाई के अधिकार किसी के हाथ में नहीं हैं। तुम अपना मामला उसी के हवाले कर दो और सन्तुष्ट हो जाओ कि अब तुम्हारा मुक़द्दमा वह लड़ेगा, तुम्हारे विरोधियों से वह निमटेगा और तुम्हारे सारे काम वह बनाएगा।
وَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَٱهۡجُرۡهُمۡ هَجۡرٗا جَمِيلٗا ۝ 9
(10) और जो बातें लोग बना रहे हैं उनपर सब्र करो और सज्जनता के साथ उनसे अलग हो जाओ।11
11. 'अलग हो जाओ' का मतलब यह नहीं है कि उनसे बाइकॉट करके अपना प्रचार बन्द कर दो, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनके मुँह न लगो, उनकी बेहूदगियों को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दो और उनकी किसी बदतमीज़ी का जवाब न दो। फिर यह पहलू बचाना भी किसी दुख और क्रोध और झुंझलाहट के साथ न हो, बल्कि उस तरह का पहलू बचाना हो जिस तरह एक सज्जन पुरुष किसी बाज़ारी आदमी को गाली सुनकर उसे नज़रअंदाज़ कर देता है और दिल पर मैल तक नहीं आने देता। यद्यपि आप (सल्ल०) पहले ही से इसी तरीक़े पर काम कर रहे थे, [इसके बावजूद] क़ुरआन में यह आदेश इसलिए दिया गया कि विरोधियों को बता दिया जाए कि तुम जो हरकतें कर रहे हो उनका उत्तर न देने की वजह कमज़ोरी नहीं है, बल्कि अल्लाह ने ऐसी बातों के जवाब में अपने रसूल को यही शिष्टतापूर्ण तरीक़ा अपनाने की शिक्षा दी है।
وَذَرۡنِي وَٱلۡمُكَذِّبِينَ أُوْلِي ٱلنَّعۡمَةِ وَمَهِّلۡهُمۡ قَلِيلًا ۝ 10
(11) इन झुठलानेवाले ख़ुशहाल लोगों से निमटने का काम तुम मुझपर छोड़ दो 12 और उन्हें तनिक देर इसी हालत पर रहने दो।
12. इन शब्दों में स्पष्ट संकेत इस बात की ओर है कि मक्का में वास्तव में जो लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को झुठला रहे थे और तरह-तरह के फ़रेब देकर और तास्सुबात (पक्षपातों) को उभारकर लोगों को आप (सल्ल०) के विरोध पर तत्पर कर रहे थे, वे क़ौम के ख़ुशहाल लोग थे, क्योंकि उन्हीं के हितों पर इस्लाम के इस सुधार-सन्देश की चोट पड़ रही थी।
إِنَّ لَدَيۡنَآ أَنكَالٗا وَجَحِيمٗا ۝ 11
(12) हमारे पास (उनके लिए) भारी बेड़ियाँ हैं13 और भड़कती हुई आग,
13. जहन्नम में भारी बेड़ियाँ अपराधियों के पाँव में इसलिए नहीं डाली जाएँगी कि वे भाग न सकें, बल्कि इसलिए डाली जाएँगी कि वे उठ न सकें। यह भागने से रोकने के लिए नहीं, बल्कि अज़ाब के लिए होंगी।
وَطَعَامٗا ذَا غُصَّةٖ وَعَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 12
(13) और गले में फँसनेवाला खाना और दर्दनाक अज़ाब ।
يَوۡمَ تَرۡجُفُ ٱلۡأَرۡضُ وَٱلۡجِبَالُ وَكَانَتِ ٱلۡجِبَالُ كَثِيبٗا مَّهِيلًا ۝ 13
(14) यह उस दिन होगा जब ज़मीन और पहाड़ काँप उठेंगे और पहाड़ों का हाल ऐसा हो जाएगा जैसे रेत के ढेर हैं जो बिखरे जा रहे हैं।14
14. चूँकि उस समय पहाड़ों के अंशों को बाँधकर रखनेवाली कशिश ख़त्म हो जाएगी, इसलिए पहले तो वे बारीक भुरभुरी रेत के टीले बन जाएँगे, फिर जो भूकम्प ज़मीन को हिला रहा होगा उसके कारण यह रेत बिखर जाएगी और सारी ज़मीन एक चटियल मैदान बन जाएगी।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ رَسُولٗا شَٰهِدًا عَلَيۡكُمۡ كَمَآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ رَسُولٗا ۝ 14
(15) तुम लोगों के पास 15 हमने उसी तरह एक रसूल तुमपर गवाह बनाकर भेजा है।16 जिस तरह हमने फ़िरऔन की ओर एक रसूल भेजा था।
15. अब मक्का के उन इस्लाम-विरोधियों को सम्बोधित किया जा रहा है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को झुठला रहे थे और आप (सल्ल०) के विरोध में सक्रिय थे।
16. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को लोगों पर गवाह बनाकर भेजने का मतलब यह भी है कि आप दुनिया में उनके सामने अपने कथन और कर्म से सत्य की गवाही दें और यह भी कि आख़िरत में जब अल्लाह की अदालत क़ायम होगी उस समय आप (सल्ल०) यह गवाही दें कि मैंने इन लोगों के सामने सत्य प्रस्तुत कर दिया था। (और ज़्यादा व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 144; सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 64; सूरा-16 अन-नल, आयत 84, 89; सूरा-33 अल-अहज़ाब, टिप्पणी 82; सूरा-48 फ़तह, टिप्पणी 14)
فَعَصَىٰ فِرۡعَوۡنُ ٱلرَّسُولَ فَأَخَذۡنَٰهُ أَخۡذٗا وَبِيلٗا ۝ 15
(16) (फिर देख लो जब) फ़िरऔन ने उस रसूल की बात न मानी तो हमने उसको बड़ी सख्ती के साथ पकड़ लिया।
فَكَيۡفَ تَتَّقُونَ إِن كَفَرۡتُمۡ يَوۡمٗا يَجۡعَلُ ٱلۡوِلۡدَٰنَ شِيبًا ۝ 16
(17) अगर तुम मानने से इंकार करोगे तो उस दिन कैसे बच जाओगे जो बच्चों को बूढ़ा कर देगा17
17. अर्थात् एक तो तुम्हें डरना चाहिए कि अगर हमारे भेजे हुए रसूल की बात तुमने न मानी तो वह बुरा अंजाम तुम्हें दुनिया ही में देखना होगा जो फ़िरऔन इससे पहले इसी अपराध के नतीजे में देख चुका है, लेकिन अगर मान लो कि दुनिया में तुमपर कोई अज़ाब न भी भेजा गया तो क़ियामत के दिन के अज़ाब से कैसे बच निकलोगे?
ٱلسَّمَآءُ مُنفَطِرُۢ بِهِۦۚ كَانَ وَعۡدُهُۥ مَفۡعُولًا ۝ 17
(18) और जिसकी सख़्ती से आसमान फटा जा रहा होगा? अल्लाह का वादा तो पूरा होकर ही रहना है।
إِنَّ هَٰذِهِۦ تَذۡكِرَةٞۖ فَمَن شَآءَ ٱتَّخَذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلًا ۝ 18
(19) यह एक उपदेश है, अब जिसका जी चाहे अपने रब की ओर जाने का रास्ता इख़्त‍ियार कर ले।
۞إِنَّ رَبَّكَ يَعۡلَمُ أَنَّكَ تَقُومُ أَدۡنَىٰ مِن ثُلُثَيِ ٱلَّيۡلِ وَنِصۡفَهُۥ وَثُلُثَهُۥ وَطَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلَّذِينَ مَعَكَۚ وَٱللَّهُ يُقَدِّرُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَۚ عَلِمَ أَن لَّن تُحۡصُوهُ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡۖ فَٱقۡرَءُواْ مَا تَيَسَّرَ مِنَ ٱلۡقُرۡءَانِۚ عَلِمَ أَن سَيَكُونُ مِنكُم مَّرۡضَىٰ وَءَاخَرُونَ يَضۡرِبُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَبۡتَغُونَ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَءَاخَرُونَ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ فَٱقۡرَءُواْ مَا تَيَسَّرَ مِنۡهُۚ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَقۡرِضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗاۚ وَمَا تُقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُم مِّنۡ خَيۡرٖ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِ هُوَ خَيۡرٗا وَأَعۡظَمَ أَجۡرٗاۚ وَٱسۡتَغۡفِرُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمُۢ ۝ 19
(20) ऐ नबी!18 तुम्हारा रब जानता है कि तुम कभी दो तिहाई रात के लगभग और कभी आधी रात और कभी एक तिहाई रात इबादत में खड़े रहते हो,19 और तुम्हारे साथियों में से भी एक गरोह यह अमल करता है।20 अल्लाह ही रात और दिन के समयों का हिसाब रखता है, उसे मालूम है कि तुम लोग समयों की ठीक गिनती नहीं कर सकते, इसलिए उसने तुमपर कृपा की। अब जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ सकते हो पढ़ लिया करो।21 उसे मालूम है कि तुममें कुछ मरीज़ होंगे, कुछ दूसरे लोग अल्लाह के अनुग्रह (रोज़ी) की खोज में सफ़र करते हैं22, और कुछ और लोग अल्लाह की राह में युद्ध करते हैं।23 अत: जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ा जा सके, पढ़ लिया करो, नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो24 और अल्लाह को अच्छा कर्ज देते रहो25। जो कुछ भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे, उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे, वही ज़्यादा बेहतर है और उसका बदला बहुत बड़ा है।26 अल्लाह से क्षमा माँगते रहो, निस्सन्देह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।
18. यह आयत जिसके अन्दर तहज्जुद की नमाज़ के आदेश में कमी की गई है, उसके बारे में रिवायतें अलग-अलग हैं। हज़रत आइशा (रजि०) से एक रिवायत यह है कि पहले आदेश के बाद यह दूसरा आदेश एक साल के बाद उतरा और रात का क़ियाम (नमाज़) फ़र्ज़ से नफ़्ल कर दिया गया (हदीस : मुस्लिम)। दूसरी रिवायत यह है कि यह आदेश पहले हुक्म के आठ महीने बाद आया था और एक तीसरी रिवायत में सोलह महीने बयान किए गए हैं (हदीस : अबू दाऊद)। लेकिन सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) का बयान है कि यह आदेश दस साल बाद उतरा है (हदीस : इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी हातिम)। हमारे नज़दीक यही कथन अधिक सही है, इसलिए कि पहले शुरू की आयतों का विषय साफ़ बता रहा है कि वह मक्का के शुरू के ज़माने में उतरा है, इसके विपरीत कि यह आयत 20 अपने विषयों की खुली गवाही के अनुकूल मदीने में उतरी हुई लगती है, जब दुश्मनों से लड़ाई का सिलसिला शुरू हो चुका था और ज़कात के फ़र्ज़ हो जाने का आदेश भी आ चुका था। इस कारण अनिवार्य रूप से सूरा के दोनों खण्डों के उतरने के समय में कम से कम दस साल की दूरी ही होनी चाहिए।
19. यद्यपि आरंभिक आदेश आधी रात या उससे कुछ कम या ज़्यादा खड़े रहने का था, लेकिन चूंकि नमाज़ में तल्लीन हो जाने की वजह से समय का अन्दाज़ा न रहता था इसलिए कभी दो तिहाई रात तक इबादत में गुज़र जाती थी और कभी यह अवधि घटकर एक तिहाई रह जाती थी।
23. यहाँ अल्लाह ने पाक रोज़ी की तलाश और अल्लाह के रास्ते के जिहाद का उल्लेख जिस तरह एक साथ किया है और बीमारी की मजबूरी के अलावा इन दोनों कामों को तहज्जुद की नमाज़ से छूट या इसमें कमी का कारण बताया है, इससे अन्दाज़ा होता है कि इस्लाम में वैध तरीकों से रोज़ी कमाने का कितना बड़ा महत्त्व है।
24. टीकाकार इसपर सहमत हैं कि इससे मुराद पाँच वक्तों की फ़र्ज़ नमाज और फ़र्ज जकात अदा करना है।
25. इब्ने ज़ैद (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद ज़कात के अलावा अपना माल ख़ुदा की राह में ख़र्च करना है। अल्लाह को कर्ज देने और अच्छा क़र्ज़ देने के अर्थ की व्याख्या हम इससे पहले कई जगहों पर कर चुके हैं। (देखिए, सूरा-2 अल बक़रा, टिप्पणी 267; सूरा-5 अल-माइदा, टिप्पणी 33; सूरा-57 अल-हदीद, टिप्पणी 16)
26. मतलब यह है कि तुमने आगे अपनी आख़िरत के लिए जो कुछ भेज दिया वह तुम्हारे लिए उससे अधिक लाभकारी है जो तुमने दुनिया ही में रोक रखा और किसी भलाई के काम में अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए ख़र्च न किया। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) की रिवायत है कि एक [मौक़े पर] नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम्हारा अपना माल तो वह है जो तुमने अपनी आख़िरत के लिए आगे भेज दिया और जो कुछ तुमने रोक रखा वह तो वारिस का माल है।" (हदीस : बुख़ारी, नसई, मुस्तद अबू याला)