(23) अपने रब की ओर देख रहे होंगे17।
17. टीकाकारों में से कुछ ने इसे लाक्षणिक अर्थ में लिया है। वे कहते हैं कि किसी की ओर देखने के शब्द मुहावरे के तौर पर उससे आशाएँ जोड़ने, उसके फ़ैसले का इन्तिज़ार करने, उसकी कृपा का उम्मीदवार होने के अर्थ में बोले जाते हैं, लेकिन अधिकांश हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से इसकी जो व्याख्या उद्धृत है, वह यह है कि आख़िरत में अल्लाह के प्रतिष्ठित बन्दों को अपने रब का दीदार (दर्शन) नसीब होगा। बुख़ारी की रिवायत है कि "तुम अपने रब को स्पष्टतः (एलानिया) देखोगे।" मुस्लिम और तिर्मिज़ी में हज़रत सुहैब (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "जब जन्नती लोग जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे तो अल्लाह उनसे पूछेगा कि क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कुछ और दूं? वे कहेंगे कि क्या आपने हमारे चेहरे रौशन नहीं कर दिए ? क्या आपने हमें जन्नत में दाख़िल नहीं कर दिया और जहन्नम से बचा नहीं लिया? इस पर अल्लाह परदा हटा देगा और उन लोगों को जो कुछ इनाम मिले थे, उनमें से कोई इनाम भी उन्हें इससे अधिक प्रिय न होगा कि वे अपने रब के दीदार का सौभाग्य प्राप्त करें।" और यही वह अधिक इनाम है जिसके बारे में कुरआन में कहा गया है कि "जिन लोगों ने अच्छा कर्म किया उनके लिए अच्छा बदला है और उसपर और भी" (सूरा-10 यूनुस, आयत 26)। बुखारी और मुस्लिम में हज़रत अबू सईद खुदरी और हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) से रिवायत है कि लोगों ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या हम क्रियामत के दिन अपने रब को देखेंगे?" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि क्या तुम्हें सूरज और चाँद को देखने में कोई कठिनाई होती है, जबकि बीच में बादल भी न हो। लोगों ने अर्ज़ किया, नहीं। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "इसी तरह तुम अपने रब को देखोगे।" इसी रिवायत से मिलती-जुलती एक और रिवायत बुख़ारी व मुस्लिम में हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह से रिवायत की गई है। मुस्नद अहमद, तिर्मिज़ी, दारे-कुनी, इब्ने-जरीर, इब्नुल-मुंज़िर, तबरानी, बैहक़ी, इब्ने-अबी शैबा और कुछ दूसरे हदीस के आलिमों ने थोड़े शाब्दिक मतभेद के साथ हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि०) की रिवायत बयान की है, जिसका विषय यह है कि जन्नतियों में कम से कम दर्जे का जो आदमी होगा वह अपने राज्य के फैलाव दो हज़ार साल की दूरी तक देखेगा और इनमें सबसे अधिक महानता रखनेवाले लोग हर दिन दो बार अपने रब को देखेंगे। फिर नबी (सल्ल०) ने यही आयत पढ़ी कि "उस दिन कुछ चेहरे खिले हुए होंगे, अपने रब की ओर देख रहे होंगे।" इब्ने-माजा में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह की रिवायत है कि अल्लाह उनकी ओर देखेगा और वे अल्लाह की ओर देखेंगे। फिर जब तक अल्लाह उनसे परदा न फ़रमा लेगा, उस वक़्त तक वे जन्नत की किसी नेमत की ओर तवज्जोह न करेंगे और उसी की ओर देखते रहेंगे। ये और दूसरी बहुत-सी रिवायतें हैं जिनके आधार पर अहले-सुन्नत' लगभग मतैक्य होकर इस आयत का यही अर्थ लेते हैं कि आख़िरत में जन्नतवाले अल्लाह के दीदार का सौभाग्य प्राप्त करेंगे, और उसकी पुष्टि कुरआन मजीद की इस आयत से भी होती है कि "कदापि नहीं, वे (अर्थात् दुराचारी) उस दिन अपने रब के दीदार से महरूम होंगे" (सूरा-83 अल-मुतफिफफ़ीन, आयत 15)। इससे अपने आप यह परिणाम निकलता है कि यह महरूमी दुराचारियों के लिए होगी न कि सदाचारियों के लिए।
यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि आख़िर इंसान ख़ुदा को देख कैसे सकता है ? देखने के लिए तो अनिवार्य है कि कोई चीज़ किसी विशेष दिशा, स्थान, रूप और रंग में सामने मौजूद हो, रौशनी की किरणें उससे प्रस्फुटित होकर इंसान की आँख पर पड़ें और आँख से दिमाग के चक्षु-केन्द्र तक उसका चित्र बिम्बित हो। क्या अल्लाह रब्बुल-आलमीन की ज़ात के बारे में इस तरह देखने के क़ाबिल होने के बारे में सोचा भी जा सकता है कि इंसान उसको देख सके? लेकिन यह सवाल वास्तव में एक बड़े भ्रम पर आधारित है। इसमें दो चीज़ों के बीच अन्तर नहीं किया गया है। एक चीज़ है देखने की वास्तविकता और दूसरी चीज़ है देखने का कार्य होने का वह विशेष रूप जिससे हम इस दुनिया में परिचित हैं। देखने की वास्तविकता यह है कि देखनेवाले में देखने का गुण मौजूद हो, वह नेत्रहीन न हो और देखी जानेवाली चीज़ उसपर प्रकट हो, उससे छिपी न हो, लेकिन दुनिया में हमको जिस चीज़ का अनुभव और निरीक्षण होता है वह सिर्फ़ देखने का वह विशेष रूप है जिससे कोई इंसान या पशु व्यावहारिक रूप से किसी चीज़ को देखा करता है, और उसके लिए अनिवार्य रूप से यह ज़रूरी है कि देखनेवाले के शरीर में आँख नामक एक अंग मौजूद हो, उस अंग में देखने की क्षमता पाई जाती हो, उसके सामने एक ऐसी सीमित साकार रंगदार चीज़ ज़ाहिर हो जिससे रौशनी की किरणें प्रस्फुटित होकर आँख पर पड़ें और आँख में उसका रूप समा सके। अब अगर कोई आदमी यह समझता है कि देखने की वास्तविकता का व्यावहारिक प्रकटीकरण केवल उसी विशेष रूप में हो सकता है जिससे हम इस दुनिया में परिचित हैं, तो यह ख़ुद उसके अपने दिमाग की तंगी है, वरना वास्तव में ख़ुदा की ख़ुदाई में देखने की ऐसी अनगिनत शक्लें संभव हैं जिन्हें हम सोच भी नहीं सकते। इस मामले में जो आदमी उलझता है वह स्वयं बताए की उसका ख़ुदा दृष्टिवाला है या दृष्टिहीन? अगर वह दृष्टिवाला है और अपनी सारी सृष्टि और उसकी एक-एक चीज़ को देख रहा है, तो क्या वह इसी तरह आँख नामक एक अंग से देख रहा है जिससे दुनिया में मनुष्य और पशु देख रहे हैं? और इससे देखने का काम उसी तरीके से हो रहा है जिस तरह हमसे होता है ? स्पष्ट है कि इसका उत्तर नहीं में है और जब उसका उत्तर नहीं में है तो आख़िर किसी बुद्धि और विवेकवाले इंसान को यह समझने में क्यों कठिनाई होती है। आख़िरत में जन्नतवालों को अल्लाह का दीदार उस विशेष रूप में नहीं होगा जिसमें इंसान दुनिया में किसी चीज़ को देखता है, बल्कि वहाँ देखने की वास्तविकता कुछ और होगी जिसे हम यहाँ यथार्थ रूप में समझ नहीं सकते? तथा तथ्य यह है कि आख़िरत के मामलों को ठीक-ठीक समझ लेना हमारे लिए उससे अधिक कठिन है जितना एक-दो साल के बच्चे के लिए यह समझना कठिन है कि दाम्पत्य जीवन क्या होता है, हालाँकि जवान होकर उसे स्वयं उससे सामना करना होता है।