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سُورَةُ القِيَامَةِ

75. अल-क़ियामह

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-क़ियामह' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है और यह केवल नाम ही नहीं है, बल्कि विषय-वस्तु की दृष्टि से इस सूरा का शीर्षक भी है, क्योंकि इसमें क़ियामत ही पर वार्ता की गई है।

उतरने का समय

इसके विषय में एक अन्दरूनी गवाही ऐसी मौजूद है जिससे मालूम होता है कि यह बिल्कुल आरंभिक समय की उतरी सूरतों में से है। आयत 15 के बाद अचानक वार्ता-क्रम तोड़कर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) [को वह्य ग्रहण करने के बारे में कुछ आदेश दिए गए हैं। आयत 16 से लेकर आयत 19 तक का] यह संविष्ट वाक्य अपने संदर्भ और प्रसंग की दृष्टि से भी और रिवायतों के अनुसार भी इस कारण वार्ता के दौरान आया है कि जिस समय हज़रत जिबरील (अलैहि०) यह सूरा नबी (सल्ल०) को सुना रहे थे, उस समय आप इस आशंका से कि कहीं बाद में भूल न जाएँ, उसके शब्द अपनी मुबारक ज़बान से दोहराते जा रहे थे। इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय की है जब प्यारे नबी (सल्ल०) को वह्य के उतरने का नया-नया अनुभव हो रहा था और अभी आप (सल्ल०) को वह्य ग्रहण करने की आदत अच्छी तरह नहीं पड़ी थी। क़ुरआन मजीद में इसके दो उदाहरण और भी मिलते हैं। एक सूरा-20 ता-हा (आयत 114) में, दूसरा सूरा-87 अल-आला (आयत 6) में। बाद में जब नबी (सल्ल०) को वह्य ग्रहण करने का अच्छी तरह अभ्यास हो गया तो इस तरह के आदेश देने की कोई आवश्यकता बाक़ी नहीं रही। इसी लिए क़ुरआन में इन तीन जगहों के सिवा इसका कोई और उदाहरण नहीं मिलता।

विषय और वार्ता

यहाँ से क़ुरआन के अन्त तक जो सूरतें पाई जाती हैं, उनमें से अधिकतर अपनी विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से उस समय की उतरी हुई मालूम होती हैं जब सूरा-74 अल-मुद्दस्सिर की शुरू की आयतों के बाद क़ुरआन के उतरने का सिलसिला बारिश की तरह आरंभ हो गया था। इस सूरा में आख़िरत के इंकारियों को सम्बोधित करके उनके एक-एक सन्देह और एक-एक आपत्ति का उत्तर दिया गया है। बड़ी मज़बूत दलीलों के साथ क़ियामत और आख़िरत की संभावना, उसके घटित होने और उसके अनिवार्यतः घटित होने का प्रमाण दिया गया है और यह भी साफ़-साफ़ बता दिया गया है कि जो लोग भी आखिरत का इंकार करते हैं, उनके इंकार का मूल कारण यह नहीं है कि उनकी बुद्धि उसे असंभव समझती है, बल्कि उसका मूल प्रेरक यह है कि उनकी मनोकामनाएँ उसे मानना नहीं चाहतीं। इसके साथ लोगों को सचेत कर दिया गया है कि जिस वक़्त के आने का तुम इंकार कर रहे हो, वह आकर रहेगा, तुम्हारा सब किया-धरा तुम्हारे सामने लाकर रख दिया जाएगा और वास्तव में तो अपना कर्मपत्र देखने से भी पहले तुममें से हर आदमी को स्वयं मालूम होगा कि वह दुनिया में क्या करके आया है।

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سُورَةُ القِيَامَةِ
75. अल-क़ियामह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
لَآ أُقۡسِمُ بِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ
(1) नहीं1, मैं क़सम खाता हूँ क़ियामत के दिन की,
1. वार्ता का आरंभ 'नहीं' से करना ख़ुद इस बात को सिद्ध करता है कि पहले से कोई बात चल रही थी जिसके खंडन में यह सूरा उतरी है। अत: यहाँ 'नहीं' कहने का मतलब यह है कि तुम जो कुछ समझ रहे हो वह सही नहीं मैं क़सम खाकर कहता हूँ कि वास्तविक बात यह है। आगे का विषय आप ही स्पष्ट कर देता है कि वह बात क़ियामत और आख़िरत के जीवन के बारे में थी जिसका मक्कावाले इंकार कर रहे थे।
وَلَآ أُقۡسِمُ بِٱلنَّفۡسِ ٱللَّوَّامَةِ ۝ 1
(2) और नहीं, मैं क़सम खाता हूँ मलामत करनेवाली आत्मा (नफ़्स) की।2
2. क़ुरआन मजीद [ने इस आत्मा (नफ़्स) को 'लव्वामा' (मलामत करनेवाली) कहा है] जो ग़लत काम करने या ग़लत सोचने या बुरी नीयत रखने पर लज्जित होता है और इंसान को इसपर मलामत करता है। इसी को हम आजकल की भाषा में अन्तरात्मा' (ज़मीर) कहते हैं। इस जगह पर अल्लाह ने क़ियामत के दिन और निन्दा करनेवाले मन की क़सम जिस बात पर खाई है [उसकी निशानदेही बाद के वाक्य से होती है, और वह यह कि] अल्लाह इंसान को मरने के बाद दोबारा अवश्य पैदा करेगा। अब यह प्रश्न पैदा होता है कि इस बात पर इन दो चीज़ों की क़सम किस अनुकूलता से खाई गई है? जहाँ तक क़ियामत के दिन का ताल्लुक़ है, उसकी क़सम खाने का कारण यह है कि उसका आना निश्चित है। पूरी जगत्-व्यवस्था इस बात पर गवाही दे रही है कि यह व्यवस्था न हमेशा से है, न हमेशा रहेगी। इसका स्वरूप ख़ुद ही बता रहा है कि यह न हमेशा से थी और न हमेशा बाक़ी रह सकती है। इस बिना पर अल्लाह ने क़ियामत के घटित होने पर ख़ुद क़ियामत ही की क़सम खाई है। लेकिन क़ियामत के दिन की क़सम केवल इस बात का प्रमाण है कि एक दिन जगत् की यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। रहा [आख़िरत और इनाम व सज़ा का प्रमाण] तो उसके लिए दूसरी क़सम मलामत करनेवाली आत्मा (नफ़्स) की खाई गई है। कोई इंसान दुनिया में ऐसा मौजूद नहीं है जो अपने अन्दर अन्तरात्मा (ज़मीर) नाम की एक चीज़ न रखता हो। इस अन्तरात्मा में अनिवार्य रूप से भलाई और बुराई की एक चेतना पाई जाती है। [यह तकाज़ा करती है कि भलाई का भला और बुराई का बुरा बदला ज़रूर मिलना चाहिए।] अब अगर इंसान के वुजूद में इस तरह के एक मलामत करनेवाली अन्तरात्मा की मौजूदगी एक झुठलाई न जानेवाली सच्चाई है तो फिर इस सच्चाई को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि यही मलामत करनेवाली अन्तरात्मा मरने के बाद की ज़िंदगी की एक ऐसी गवाही है जो ख़ुद इंसान की फ़ितरत (Nature) में मौजूद है, क्योंकि फ़ितरत (प्रकृति) का यह तक़ाज़ा कि अपने जिन अच्छे और बुरे कर्मों का इंसान ज़िम्मेदार है, उनका इनाम या सज़ा उनको ज़रूर मिलनी चाहिए, मौत के बाद की जिंदगी के सिवा किसी दूसरे रूप में पूरा नहीं हो सकता। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 30)
أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَلَّن نَّجۡمَعَ عِظَامَهُۥ ۝ 2
(3) क्या इंसान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को जमा न कर सकेंगे?3
3. ऊपर के दो प्रमाण, जो क़सम के रूप में बयान किए गए हैं, केवल दो बातें सिद्ध करते हैं- एक यह कि दुनिया का अन्त (अर्थात् क़ियामत का पहला मरहला) एक निश्चित बात है। दूसरी यह कि [बुद्धि और नैतिकता की दृष्टि से] मौत के बाद दूसरी जिंदगी ज़रूरी है। अब यह तीसरा प्रमाण यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया है कि मरने के बाद जिंदगी संभव है। मक्का के लोग बार-बार यह कहते थे कि जिनकी हड्डियाँ तक सड़-गलकर न जाने धरती में कहाँ-कहाँ बिखर जाएँगी, [कैसे हो सकता है कि उन्हें दोबारा जिंदा कर दिया जाएगा? इसके उत्तर में फ़रमाया गया है कि "क्या इंसान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को कभी जमा न कर सकेंगे?" अर्थात् क्या तुम वास्तव में यह समझ रहे हो कि सृष्टि का पैदा करनेवाला, जिसे तुम स्वयं भी पैदा करनेवाला मानते हो, यह काम करने में असमर्थ है ? यह ऐसा प्रश्न था जिसके उत्तर में कोई आदमी, जो ख़ुदा को सृष्टि का पैदा करनेवाला मानता हो, न उस समय यह कह सकता था और न आज यह कह सकता है कि ख़ुदा भी यह काम करना चाहे तो नहीं कर सकता।
بَلَىٰ قَٰدِرِينَ عَلَىٰٓ أَن نُّسَوِّيَ بَنَانَهُۥ ۝ 3
(4) क्यों नहीं? हम तो उसकी उंगलियों की पोर-पोर तक ठीक बना देने की सामर्थ्य रखते हैं।4
4. अर्थात् बड़ी-बड़ी हड्डियों को जमा करके तुम्हारा ढांचा फिर से खड़ा कर देना तो दूर की बात, हम तो इस बात की भी सामर्थ्य रखते हैं कि तुम्हारी उंगलियों की पोरों तक को फिर वैसा ही बना दें जैसी वे पहले थीं।
بَلۡ يُرِيدُ ٱلۡإِنسَٰنُ لِيَفۡجُرَ أَمَامَهُۥ ۝ 4
(5) मगर इंसान चाहता है कि आगे भी बुरे कर्म करता रहे।5
5. अर्थात् इन लोगों को जो चीज़ आखिरत के इंकार पर आमादा करती है, वह कोई ऐसी बौद्धिक और ज्ञानपरक प्रमाण नहीं है जिसके कारण आदमी कह सकता हो कि यह क़ियामत हरगिज़ घटित न होगी या इसका घटित होना असंभव है, बल्कि उनके इस इंकार का मूल कारण यह है कि आखिरत को मानने से अनिवार्य रूप से उनपर कुछ नैतिक पाबन्दियाँ आ जाती हैं और उन्हें ये पाबन्दियाँ नागवार हैं। वे चाहते हैं कि जिस तरह वे अब तक ज़मीन में बे-नथे बैल की तरह फिरते रहे हैं, उसी तरह आइन्दा भी फिरते रहें।
يَسۡـَٔلُ أَيَّانَ يَوۡمُ ٱلۡقِيَٰمَةِ ۝ 5
(6) पूछता है, “आख़िर कब आना है वह क़ियामत का दिन?"6
6. यह प्रश्न मालूम करने के लिए नहीं, बल्कि इंकार और मज़ाक़ के तौर पर था।
فَإِذَا بَرِقَ ٱلۡبَصَرُ ۝ 6
(7) फिर जब दीदे पथरा जाएँगे7
7. मूल अरबी में 'बरिक़ल ब-सर' के शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका शाब्दिक अर्थ है 'बिजली की चमक से आँखों का चुंधिया जाना', लेकिन अरबी मुहावरे में ये शब्द इसी अर्थ के लिए खास नहीं हैं, बल्कि भय, आश्चर्य या किसी अचानक दुर्घटना से दोचार हो जाने की स्थिति में अगर आदमी भौंचक्का रह जाए और उसकी निगाह उस कष्टदायक दृश्य की ओर जमकर रह जाए जो उसको दिखाई पड़ रहा हो तो उसके लिए भी ये शब्द बोले जाते हैं। इसी विषय को कुरआन मजीद में एक दूसरी जगह यूँ बयान किया गया है, "अल्लाह तो उन्हें टाल रहा है उस दिन के लिए जब आँखें फटी की फटी रह जाएँगी।" (सूरा-14 इबराहीम, आयत 42)
وَخَسَفَ ٱلۡقَمَرُ ۝ 7
(8) और चाँद बे-नूर (प्रकाशहीन) हो जाएगा।
وَجُمِعَ ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ ۝ 8
(9) और चाँद-सूरज मिलाकर एक कर दिए जाएँगे8,
8. यह क़ियामत के पहले चरण में जगत्-व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने की स्थिति का एक संक्षिप्त वर्णन है। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि सिर्फ चाँद ही की रौशनी समाप्त न होगी जो सूरज से ली हुई है, बल्कि स्वयं सूरज भी अंधकारमय हो जाएगा, और बे-नूर (प्रकाशहीन) हो जाने में दोनों एक समान हो जाएँगे। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि ज़मीन यकायक उलटी चल पड़ेगी और उस दिन चाँद और सूरज दोनों एक ही समय में पश्चिम से उदय होंगे। और एक तीसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि चाँद सहसा धरती की पकड़ से छूटकर निकल जाएगा और सूरज में जा पड़ेगा। सम्भव है कि इसका कोई और मतलब भी हो जिसको आज हम नहीं समझ सकते।
يَقُولُ ٱلۡإِنسَٰنُ يَوۡمَئِذٍ أَيۡنَ ٱلۡمَفَرُّ ۝ 9
(10) उस समय यही इंसान कहेगा, "कहाँ भागकर जाऊँ?"
كَلَّا لَا وَزَرَ ۝ 10
(11) कदापि नहीं, वहाँ पनाह लेने की कोई जगह न होगी,
إِلَىٰ رَبِّكَ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡمُسۡتَقَرُّ ۝ 11
(12) उस दिन तेरे रब ही के सामने जाकर ठहरना होगा।
يُنَبَّؤُاْ ٱلۡإِنسَٰنُ يَوۡمَئِذِۭ بِمَا قَدَّمَ وَأَخَّرَ ۝ 12
(13) उस दिन इंसान को उसका सब अगला-पिछला किया-कराया बता दिया जाएगा9।
9. मूल अरबी शब्द हैं 'बिमा क़द-द-म व अख-खर'। एक अर्थ इनका यह है कि आदमी को उस दिन यह सा भी बता दिया जाएगा कि क्या भलाई या बुराई कमाकर उसने अपनी आख़िरत के लिए आगे भेजी थी और यह हिसाव भी उसके सामने रख दिया जाएगा कि अपने अच्छे या बुरे कर्मों के क्या प्रभाव वह अपने पीछे दुनिया में छोड़ आया था। दूसरा अर्थ यह है कि उसे वह सब कुछ बता दिया जाएगा जो उसे करना चाहिए था, मगर उसने नहीं किया और जो कुछ न करना चाहिए था, मगर उसने कर डाला। तीसरा अर्थ यह है कि जो भलाई या बुराई उसने की वह भी उसे बता दी जाएगी और जिस भलाई या बुराई के करने से वह बचा रहा उससे भी उसे सूचित कर दिया जाएगा।
بَلِ ٱلۡإِنسَٰنُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ بَصِيرَةٞ ۝ 13
(14) बल्कि इंसान स्वयं ही अपने आपको ख़ूब जानता है,
وَلَوۡ أَلۡقَىٰ مَعَاذِيرَهُۥ ۝ 14
(15) चाहे वह कितने ही बहाने पेश करे10
10. अर्थात् आदमी का कर्मपत्र उसके सामने रखने का उद्देश्य वास्तव में यह नहीं होगा कि अपराधी को उसका अपराध बताया जाए, बल्कि ऐसा करना तो इसलिए ज़रूरी होगा कि न्याय के तक़ाज़े अदालत में अपराध का प्रमाण दिए बिना पूरे नहीं होते, वरना हर इंसान खूब जानता है कि वह ख़ुद क्या है। अपने आपको जानने के लिए वह इसका मुहताज नहीं होता कि कोई दूसरा उसे बताए कि वह क्या है, इसलिए आख़िरत की अदालत में पेश होते समय सत्य का हर इंकारी, हर कपटाचारी, हर अवज्ञाकारी व दुराचारी और अपराधी खुद जानता होगा कि वह क्या करके आया है और किस हैसियत में आज अपने प्रभु के सामने खड़ा है।
لَا تُحَرِّكۡ بِهِۦ لِسَانَكَ لِتَعۡجَلَ بِهِۦٓ ۝ 15
(16) ऐ नबी!11 इस वह्य (प्रकाशना) को जल्दी-जल्दी याद करने के लिए अपनी ज़बान को हरकत न दो,
11. यहाँ से लेकर "फिर इसका अर्थ समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है" तक का पूरा वाक्य एक संविष्ट वाक्य है जो वार्ता क्रम को बीच में तोड़कर नबी (सल्ल०) को सम्बोधित करके कहा गया है, जैसा कि हम सूरा के परिचय में बयान कर आए हैं। नुबूवत के आरंभिक काल में, जबकि नबी (सल्ल०) को वह्य ग्रहण की आदत और अभ्यास पूरी तरह नहीं हुआ था, आप (सल्ल०) पर जब वह्य उतरती थी तो आप (सल्ल०) को यह आशंका होने लगती थी कि जिबरील (अलैहि०) जो ईश-वाणी आप (सल्ल०) को सुना रहे हैं, वह आप (सल्ल०) को ठीक ठीक याद रह सकेगा या नहीं, इसलिए आप (सल्ल०) वह्य सुनने के साथ-साथ उसे याद करने की कोशिश करने लगते थे। ऐसी ही स्थिति उस समय पैदा हुई जब हज़रत जिबरील (अलैहि०) सूरा-75 क़ियामह की ये आयतें आप (सल्ल०) को सुना रहे थे। चुनाँचे वार्ता-क्रम तोड़कर आप (सल्ल०) को आदेश दिया गया कि आप वह्य के शब्दों को याद करने की कोशिश न करें, बल्कि ध्यान से सुनते रहें और सन्तुष्ट रहें कि इसे याद करा देना और बाद में ठीक-ठीक आप (सल्ल०) से पढ़वा देना हमारे ज़िम्मे है। यह आदेश देने के बाद फिर असल वार्ता क्रम "हरगिज़ नहीं, वास्तविक बात यह है" से शुरू हो जाता है।
إِنَّ عَلَيۡنَا جَمۡعَهُۥ وَقُرۡءَانَهُۥ ۝ 16
(17) इसको याद करा देना और पढ़वा देना हमारे ज़िम्मे है,
فَإِذَا قَرَأۡنَٰهُ فَٱتَّبِعۡ قُرۡءَانَهُۥ ۝ 17
(18) इसलिए जब हम इसे पढ़ रहे हों12 उस समय तुम इसके पठन को ध्यान से सुनते रहो,
12. यद्यपि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को जिबरील (अलैहि०) क़ुरआन पढ़कर सुनाते थे, लेकिन चूंकि वे अपनी ओर से नहीं, बल्कि अल्लाह की ओर से पढ़ते थे, इसलिए अल्लाह ने फ़रमाया कि “जब हम इसे पढ़ रहे हों।"
ثُمَّ إِنَّ عَلَيۡنَا بَيَانَهُۥ ۝ 18
(19) फिर इसका अर्थ समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है13
13. इससे गुमान होता है, और कुछ बड़े टीकाकारों ने भी इस गुमान को प्रकट किया है, कि शायद आरंभिक काल में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) वह्य के उतरने के दौरान ही में क़ुरआन की किसी आयत या किसी शब्द या किसी आदेश का अर्थ भी जिवरील (अलैहि०) से मालूम कर लेते थे, इसलिए [ऊपर के आदेशों और इत्मीनान दिलाने के] साथ-साथ यह वादा भी किया गया कि अल्लाह के हर आदेश और हर कथन का आशय और उद्देश्य भी पूरी तरह आप को समझा दिया जाएगा। यह एक बड़ी महत्त्वपूर्ण आयत है जिससे कुछ सैद्धान्तिक बातें सिद्ध होती हैं- एक यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर केवल वही वस्य नहीं उतरी थी जो क़ुरआन में अंकित है, बल्कि इसके अलावा भी वत्य के जरीए से आप (सल्ल०) को ऐसा ज्ञान दिया जाता था जो क़ुरआन में अंकित नहीं है। इसलिए कि क़ुरआन के अर्थों की व्याख्या जो अल्लाह की ओर से की जाती थी वह बहरहाल कुरआनी शब्दों के अलावा थी। दूसरी यह कि क़ुरआन के आशय और उद्देश्य की यह व्याख्या जो अल्लाह की ओर से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को बताई गई थी, आख़िर इसी लिए तो बताई गई थी कि आप (सल्ल०) अपनी कथनी और करनी से उसके अनुसार लोगों को क़ुरआन समझाएँ और उसके आदेशों का पालन करना सिखाएँ। इसलिए सिर्फ़ एक मूर्ख आदमी ही यह कह सकता है कि व्याख्या सम्बन्धी ज्ञान सिरे से कोई संवैधानिक हैसियत न रखता था। तीसरी यह कि क़ुरआन में अधिकतर बातें ऐसी हैं जिन्हें एक अरबी भाषी व्यक्ति केवल क़ुरआन के शब्दों को पढ़कर यह नहीं जान सकता कि उनका वास्तविक उद्देश्य क्या है और उनमें जो आदेश दिया गया है उसपर कैसे अमल किया जाए। मिसाल के तौर पर शब्द 'सलात' ही को ले लीजिए। केवल अरबी शब्दकोष की सहायता से कोई अरबी भाषी यह निश्चित नहीं कर सकता कि [सलात किसी विशेष कार्य का नाम] है और किस तरह अदा किया जाना चाहिए। [स्पष्ट बात है कि अगर इस बारे में ख़ुद अल्लाह ही की ओर से स्पष्ट रूप से न बताया गया होता तो क्या दुनिया में दो मुसलमान भी ऐसे हो सकते थे जो सलात के आदेश का पालन करने के किसी एक रूप पर सहमत हो जाते। [अब अगर आज डेढ़ हज़ार वर्ष से मुसलमान नस्ल-दर-नस्ल एक ही तरह से नमाज़ पढ़ते चले आ रहे हैं तो इसकी वजह [इसके सिवा और क्या हो सकती है कि अल्लाह ने रसूल (सल्ल०) पर केवल क़ुरआन के शब्द ही नहीं वह्य फ़रमाए थे, बल्कि उन शब्दों का मतलब भी आप (सल्ल०) को पूरी तरह समझा दिया था, और इसी मतलब की शिक्षा आप (सल्ल०) उन सब लोगों को देते चले गए जिन्होंने क़ुरआन को अल्लाह की किताब और आप (सल्ल०) को अल्लाह का रसूल मान लिया। चौथी यह कि क़ुरआन के शब्दों की जो व्याख्या अल्लाह ने अपने रसूल को बताई और रसूल (सल्ल०) ने अपनी कथनी और करनी से उसकी जो शिक्षा उम्मत को दी उसको जानने का साधन हमारे पास हदीस व सुन्नत के सिवा और कोई नहीं है, इसलिए ज्ञान के इस साधन को स्वीकार करने से जो व्यक्ति इंकार करता है वह मानो यह कहता है कि अल्लाह ने 'सुम-म इन-न अलैना बयानह' (इसका अर्थ समझा देना भी हमारे ज़िम्मे है) फ़रमा कर क़ुरआन का अर्थ अपने रसूल को समझा देने की जो ज़िम्मेदारी ली थी उसे पूरा करने में (अल्लाह की पनाह) वह नाकाम हो गया। क्योंकि यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ रसूल को निजी हैसियत से अर्थ समझाने के लिए नहीं ली गई थी, बल्कि इस उद्देश्य के लिए ली गई थी कि रसूल (सल्ल०) के ज़रीए से मुस्लिम समुदाय को अल्लाह की किताब का मतलब समझाया जाए और हदीस व सुन्नत के क़ानून-स्रोत होने का इंकार करते ही आप से आप यह अनिवार्य हो जाता है कि अल्लाह तआला इस ज़िम्मेदारी को पूरा न कर सका है।
كَلَّا بَلۡ تُحِبُّونَ ٱلۡعَاجِلَةَ ۝ 19
(20) कदापि नहीं14, असल बात यह है कि तुम लोग जल्दी मिलनेवाली चीज़ (अर्थात् दुनिया) से मुहब्बत रखते हो
14. यहाँ से वार्ता-क्रम फिर उसी विषय से जुड़ जाता है जो बीच के संविष्ट वाक्य से पहले चला आ रहा था। 'हरगिज़ नहीं' का मतलब यह है कि तुम्हारे आख़िरत के इंकार की असल वजह यह नहीं है कि तुम सृष्टि के पैदा करनेवाले को क़ियामत घटित करने और मौत के बाद दोबारा जिंदा कर देने से लाचार समझते हो, बल्कि असल वजह यह है।
وَتَذَرُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 20
(21) और आख़िरत को छोड़ देते हो।15
15. आख़िरत के इंकार का एक कारण आयत 5 में बयान किया गया था। अब दूसरा कारण यह बयान किया जा रहा है कि आख़िरत के इंकारी चूँकि तंग-नज़र और संकीर्ण-दृष्टि हैं इसलिए उनकी निगाह में पूरा महत्त्व उन्हीं परिणामों का है जो इसी दुनिया में प्रकट होते हैं और उन परिणामों को वे कोई महत्त्व नहीं देते जो आख़िरत में प्रकट होनेवाले हैं। सोचने के इस तरीके के कारण उनका फ़ैसला बहरहाल यही होता है कि आख़िरत को नहीं मानना है, चाहे भीतर से उनकी अन्तरात्मा कुछ और ही क्यों न कह रही हो।
وُجُوهٞ يَوۡمَئِذٖ نَّاضِرَةٌ ۝ 21
(22) उस दिन कुछ चेहरे तरोताज़ा (खिले हुए) होंगे16,
16. अर्थात् खुशी से दमक रहे होंगे, क्योंकि जिस आख़िरत पर वे ईमान लाए थे वह ठीक उनके विश्वास के अनुसार सामने मौजूद होगी और उन्हें यह सन्तोष प्राप्त हो जाएगा कि उन्होंने अपनी जीवन नीति के बारे में बिल्कुल सही फैसला किया था, अब वह समय आ गया है कि जब वे उसका बेहतरीन अंजाम देखेंगे।
إِلَىٰ رَبِّهَا نَاظِرَةٞ ۝ 22
(23) अपने रब की ओर देख रहे होंगे17।
17. टीकाकारों में से कुछ ने इसे लाक्षणिक अर्थ में लिया है। वे कहते हैं कि किसी की ओर देखने के शब्द मुहावरे के तौर पर उससे आशाएँ जोड़ने, उसके फ़ैसले का इन्तिज़ार करने, उसकी कृपा का उम्मीदवार होने के अर्थ में बोले जाते हैं, लेकिन अधिकांश हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से इसकी जो व्याख्या उद्धृत है, वह यह है कि आख़िरत में अल्लाह के प्रतिष्ठित बन्दों को अपने रब का दीदार (दर्शन) नसीब होगा। बुख़ारी की रिवायत है कि "तुम अपने रब को स्पष्टतः (एलानिया) देखोगे।" मुस्लिम और तिर्मिज़ी में हज़रत सुहैब (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "जब जन्नती लोग जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे तो अल्लाह उनसे पूछेगा कि क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कुछ और दूं? वे कहेंगे कि क्या आपने हमारे चेहरे रौशन नहीं कर दिए ? क्या आपने हमें जन्नत में दाख़िल नहीं कर दिया और जहन्नम से बचा नहीं लिया? इस पर अल्लाह परदा हटा देगा और उन लोगों को जो कुछ इनाम मिले थे, उनमें से कोई इनाम भी उन्हें इससे अधिक प्रिय न होगा कि वे अपने रब के दीदार का सौभाग्य प्राप्त करें।" और यही वह अधिक इनाम है जिसके बारे में कुरआन में कहा गया है कि "जिन लोगों ने अच्छा कर्म किया उनके लिए अच्छा बदला है और उसपर और भी" (सूरा-10 यूनुस, आयत 26)। बुखारी और मुस्लिम में हज़रत अबू सईद खुदरी और हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) से रिवायत है कि लोगों ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या हम क्रियामत के दिन अपने रब को देखेंगे?" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि क्या तुम्हें सूरज और चाँद को देखने में कोई कठिनाई होती है, जबकि बीच में बादल भी न हो। लोगों ने अर्ज़ किया, नहीं। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "इसी तरह तुम अपने रब को देखोगे।" इसी रिवायत से मिलती-जुलती एक और रिवायत बुख़ारी व मुस्लिम में हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह से रिवायत की गई है। मुस्नद अहमद, तिर्मिज़ी, दारे-कुनी, इब्ने-जरीर, इब्नुल-मुंज़िर, तबरानी, बैहक़ी, इब्ने-अबी शैबा और कुछ दूसरे हदीस के आलिमों ने थोड़े शाब्दिक मतभेद के साथ हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि०) की रिवायत बयान की है, जिसका विषय यह है कि जन्नतियों में कम से कम दर्जे का जो आदमी होगा वह अपने राज्य के फैलाव दो हज़ार साल की दूरी तक देखेगा और इनमें सबसे अधिक महानता रखनेवाले लोग हर दिन दो बार अपने रब को देखेंगे। फिर नबी (सल्ल०) ने यही आयत पढ़ी कि "उस दिन कुछ चेहरे खिले हुए होंगे, अपने रब की ओर देख रहे होंगे।" इब्ने-माजा में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह की रिवायत है कि अल्लाह उनकी ओर देखेगा और वे अल्लाह की ओर देखेंगे। फिर जब तक अल्लाह उनसे परदा न फ़रमा लेगा, उस वक़्त तक वे जन्नत की किसी नेमत की ओर तवज्जोह न करेंगे और उसी की ओर देखते रहेंगे। ये और दूसरी बहुत-सी रिवायतें हैं जिनके आधार पर अहले-सुन्नत' लगभग मतैक्य होकर इस आयत का यही अर्थ लेते हैं कि आख़िरत में जन्नतवाले अल्लाह के दीदार का सौभाग्य प्राप्त करेंगे, और उसकी पुष्टि कुरआन मजीद की इस आयत से भी होती है कि "कदापि नहीं, वे (अर्थात् दुराचारी) उस दिन अपने रब के दीदार से महरूम होंगे" (सूरा-83 अल-मुतफिफफ़ीन, आयत 15)। इससे अपने आप यह परिणाम निकलता है कि यह महरूमी दुराचारियों के लिए होगी न कि सदाचारियों के लिए। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि आख़िर इंसान ख़ुदा को देख कैसे सकता है ? देखने के लिए तो अनिवार्य है कि कोई चीज़ किसी विशेष दिशा, स्थान, रूप और रंग में सामने मौजूद हो, रौशनी की किरणें उससे प्रस्फुटित होकर इंसान की आँख पर पड़ें और आँख से दिमाग के चक्षु-केन्द्र तक उसका चित्र बिम्बित हो। क्या अल्लाह रब्बुल-आलमीन की ज़ात के बारे में इस तरह देखने के क़ाबिल होने के बारे में सोचा भी जा सकता है कि इंसान उसको देख सके? लेकिन यह सवाल वास्तव में एक बड़े भ्रम पर आधारित है। इसमें दो चीज़ों के बीच अन्तर नहीं किया गया है। एक चीज़ है देखने की वास्तविकता और दूसरी चीज़ है देखने का कार्य होने का वह विशेष रूप जिससे हम इस दुनिया में परिचित हैं। देखने की वास्तविकता यह है कि देखनेवाले में देखने का गुण मौजूद हो, वह नेत्रहीन न हो और देखी जानेवाली चीज़ उसपर प्रकट हो, उससे छिपी न हो, लेकिन दुनिया में हमको जिस चीज़ का अनुभव और निरीक्षण होता है वह सिर्फ़ देखने का वह विशेष रूप है जिससे कोई इंसान या पशु व्यावहारिक रूप से किसी चीज़ को देखा करता है, और उसके लिए अनिवार्य रूप से यह ज़रूरी है कि देखनेवाले के शरीर में आँख नामक एक अंग मौजूद हो, उस अंग में देखने की क्षमता पाई जाती हो, उसके सामने एक ऐसी सीमित साकार रंगदार चीज़ ज़ाहिर हो जिससे रौशनी की किरणें प्रस्फुटित होकर आँख पर पड़ें और आँख में उसका रूप समा सके। अब अगर कोई आदमी यह समझता है कि देखने की वास्तविकता का व्यावहारिक प्रकटीकरण केवल उसी विशेष रूप में हो सकता है जिससे हम इस दुनिया में परिचित हैं, तो यह ख़ुद उसके अपने दिमाग की तंगी है, वरना वास्तव में ख़ुदा की ख़ुदाई में देखने की ऐसी अनगिनत शक्लें संभव हैं जिन्हें हम सोच भी नहीं सकते। इस मामले में जो आदमी उलझता है वह स्वयं बताए की उसका ख़ुदा दृष्टिवाला है या दृष्टिहीन? अगर वह दृष्टिवाला है और अपनी सारी सृष्टि और उसकी एक-एक चीज़ को देख रहा है, तो क्या वह इसी तरह आँख नामक एक अंग से देख रहा है जिससे दुनिया में मनुष्य और पशु देख रहे हैं? और इससे देखने का काम उसी तरीके से हो रहा है जिस तरह हमसे होता है ? स्पष्ट है कि इसका उत्तर नहीं में है और जब उसका उत्तर नहीं में है तो आख़िर किसी बुद्धि और विवेकवाले इंसान को यह समझने में क्यों कठिनाई होती है। आख़िरत में जन्नतवालों को अल्लाह का दीदार उस विशेष रूप में नहीं होगा जिसमें इंसान दुनिया में किसी चीज़ को देखता है, बल्कि वहाँ देखने की वास्तविकता कुछ और होगी जिसे हम यहाँ यथार्थ रूप में समझ नहीं सकते? तथा तथ्य यह है कि आख़िरत के मामलों को ठीक-ठीक समझ लेना हमारे लिए उससे अधिक कठिन है जितना एक-दो साल के बच्चे के लिए यह समझना कठिन है कि दाम्पत्य जीवन क्या होता है, हालाँकि जवान होकर उसे स्वयं उससे सामना करना होता है।
وَوُجُوهٞ يَوۡمَئِذِۭ بَاسِرَةٞ ۝ 23
(24) और कुछ चेहरे उदास होंगे
تَظُنُّ أَن يُفۡعَلَ بِهَا فَاقِرَةٞ ۝ 24
(25) और समझ रहे होंगे कि उनके साथ कमर तोड़ बर्ताव होनेवाला है।
كَلَّآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلتَّرَاقِيَ ۝ 25
(26) कदापि नहीं18, जब जान हलक (कंठ) तक पहुँच जाएगी,
18. इस 'हरगिज़ नहीं' का ताल्लुक़ उसी वार्ता-क्रम से है जो ऊपर से चला आ रहा है अर्थात् तुम्हारा यह विचार ग़लत है कि तुम्हें मरकर ख़त्म हो जाना है और अपने रब के सामने वापस जाना नहीं है।
وَقِيلَ مَنۡۜ رَاقٖ ۝ 26
(27) और कहा जाएगा कि है कोई झाड़-फूंक करनेवाला19,
19. मूल अरबी में शब्द 'राक़' प्रयुक्त हुआ है जो ‘रुकि-य' से भी बना हुआ हो सकता है जिसका अर्थ तावीज़, गंडे और झाड़-फूंक के हैं और 'रकी' से भी जिसके अर्थ चढ़ने के हैं। अगर पहले अर्थ लिए जाएँ तो मतलब यह होगा कि आख़िर वक़्त में जब रोगी की देखभाल करनेवाले हर दवा-दारू से निराश हो जाएँगे तो कहेंगे कि अरे, किसी झाड़-फूंक करनेवाले ही को तलाश करो जो इसकी जान बचा ले। और अगर दूसरा अर्थ लिया जाए तो मतलब यह होगा कि उस समय फ़रिश्ते कहेंगे कि इस आत्मा को किसे लेकर जाना है? अज़ाब के फ़रिश्तों को या रहमत के फ़रिश्तों को? नेक इंसान होगा तो रहमत के फ़रिश्ते उसे ले जाएँगे और बुरा इंसान होगा तो अज़ाब के फ़रिश्ते उसे गिरफ्तार करके ले जाएँगे।
وَظَنَّ أَنَّهُ ٱلۡفِرَاقُ ۝ 27
(28) और आदमी समझ लेगा कि यह दुनिया से जुदाई का समय है,
وَٱلۡتَفَّتِ ٱلسَّاقُ بِٱلسَّاقِ ۝ 28
(29) और पिंडली से पिंडली जुड़ जाएगी,20
20. टीकाकारों में से कुछ ने शब्द साक़ (पिंडली) को आम शाब्दिक-अर्थ में लिया है और उसके अनुसार मुराद यह है कि मरने के वक़्त जब टाँगें सूखकर एक-दूसरे से जुड़ जाएँगी और कुछ ने अरबी मुहावरे के अनुसार इसे तेज़ी, सख़्ती और मुसीबत के अर्थ में लिया है अर्थात् उस समय दो मुसीबतें एक साथ जमा हो जाएँगी। एक दुनिया और उसकी हर चीज़ से जुदा हो जाने की मुसीबत और दूसरी आख़िरत में एक अपराधी की हैसियत से गिरफ्तार होकर जाने की मुसीबत, जिससे सत्य का हर इंकारी और मुनाफ़िक़ और हर दुराचारी को सामना होगा।
إِلَىٰ رَبِّكَ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡمَسَاقُ ۝ 29
(30) वह दिन होगा तेरे रब की ओर रवाना होने का।
فَلَا صَدَّقَ وَلَا صَلَّىٰ ۝ 30
(31) मगर उसने न सच माना और न नमाज़ पढ़ी,
وَلَٰكِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 31
(32) बल्कि झुठलाया और पलट गया,
ثُمَّ ذَهَبَ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ يَتَمَطَّىٰٓ ۝ 32
(33) फिर अकड़ता हुआ अपने घरवालों की ओर चल दिया।21
21. अर्थ यह है कि जो आदमी आख़िरत को मानने को तैयार न था उसने वह सब कुछ सुना जो ऊपर की आयतों में बयान किया गया है, मगर फिर भी वह अपने इंकार ही पर अड़ा रहा और ये आयतें सुनने के बाद अकड़ता हुआ अपने घर की ओर चल दिया। मुजाहिद, क़तादा और इब्ने-जैद कहते हैं कि यह आदमी अबू-जहल था। इस आयत के ये शब्द कि "उसने न सच माना और न नमाज़ पढ़ी" ख़ास तौर से ध्यान देने योग्य है। इनसे साफ़ मालूम होता है कि अल्लाह और उसके रसूल और उसकी किताब की सत्यता मानने का पहला और अनिवार्य तक़ाज़ा यह है कि आदमी नमाज़ पढ़े।
أَوۡلَىٰ لَكَ فَأَوۡلَىٰ ۝ 33
(34) यह नीति तेरे ही लिए उचित है और तुझी को शोभा देती है।22
22. टीकाकारों ने औला ल-क' के कई अर्थ बताए हैं। अफ़सोस तुझपर, विनाश है तेरे लिए, ख़राबी या तबाही या कमबख़्ती है तेरे लिए। लेकिन हमारे नज़दीक सन्दर्भ को देखते हुए इसका सबसे उचित अर्थ वह है जो हाफ़िज़ इन्ने-कसीर ने अपनी टीका में बयान किया है कि "जब तू अपने पैदा करनेवाले का इंकार करने का दुस्साहस कर चुका है तो फिर तुझ जैसे आदमी को यही चाल शोभा देती है जो तू चल रहा है।"
ثُمَّ أَوۡلَىٰ لَكَ فَأَوۡلَىٰٓ ۝ 34
(35) हाँ, यह नीति तेरे ही लिए उचित है और तुझी को शोभा देती है।
أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَن يُتۡرَكَ سُدًى ۝ 35
(36) क्या23 इंसान ने यह समझ रखा है कि वह यूँ ही आज़ाद छोड़ दिया जाएगा?24
23. अब वार्ता को समाप्त करते हुए उसी विषय को दोहराया जा रहा है जिससे वार्ता का आरंभ किया गया था, अर्थात् मौत के बाद जिंदगी अनिवार्य भी है और संभव भी।
24. मूल में शब्द 'सुदा' प्रयुक्त हुआ है। अरबी भाषा में 'इबिलुन-सुदा' उस ऊँट के लिए बोलते हैं जो यूँ ही छूटा फिर रहा हो, जिधर चाहे चरता फिरे, कोई उसकी निगरानी करनेवाला न हो। इसी अर्थ में हम बे-नकेल का ऊँट बोलते हैं, अत: आयत का अर्थ यह है कि क्या इंसान ने अपने आपको 'बे-नकेल काऊंट' समझ रखा है कि उसके पैदा करनेवाले ने उसे ज़मीन में अनुत्तरदायी बनाकर छोड़ दिया हो? कोई दायित्व उसपर न आता हो ? और कोई समय ऐसा आनेवाला न हो जब उससे उसके कार्मों की पूछ-गछ की जाए? यही बात [सूरा-23 मोमिनून, आयत 115 में भी] बयान की गई है।
أَلَمۡ يَكُ نُطۡفَةٗ مِّن مَّنِيّٖ يُمۡنَىٰ ۝ 36
(37) क्या वह एक तुच्छ पानी का वीर्य न था जो (माँ के गर्भाशय में) टपकाया जाता है?
ثُمَّ كَانَ عَلَقَةٗ فَخَلَقَ فَسَوَّىٰ ۝ 37
(38) फिर वह एक लोथड़ा बना, फिर अल्लाह ने उसका शरीर बनाया और उसके अंग ठीक किए,
فَجَعَلَ مِنۡهُ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰٓ ۝ 38
(39) फिर उससे मर्द और औरत की दो क़िस्में बनाईं।
أَلَيۡسَ ذَٰلِكَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يُحۡـِۧيَ ٱلۡمَوۡتَىٰ ۝ 39
(40) क्या उसे इसकी सामर्थ्य प्राप्त नहीं है कि मरनेवालों को फिर से जिंदा कर दे?25
25. यह मरने के बाद की जिंदगी की संभावना का प्रमाण है। जहाँ तक उन लोगों का ताल्लुक़ है जो यह मानते हैं कि आरंभिक वीर्य से पैदाइश की शुरुआत करके पूरा इंसान बना देने तक का सारा काम अल्लाह ही की सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता का चमत्कार है, उनके लिए तो वास्तव में इस प्रमाण का कोई उत्तर है ही नहीं, क्योंकि वे चाहे कितनी ही ढिढाई बरतें, उनकी बुद्धि यह मानने से इंकार नहीं कर सकती कि जो ख़ुदा इस तरह इंसान को दुनिया में पैदा करता है वह दोबारा भी उसी इंसान को वुजूद में ले आने की सामर्थ्य रखता है। रहे वे लोग जो इस खुले तत्त्वदर्शितापूर्ण काम को केवल संयोगों का नतीजा करार देते हैं, आख़िर उनके नज़दीक इस बात का क्या सबब है कि आदिकाल से आज तक दुनिया के हर हिस्से और हर क़ौम में किस तरह एक ही प्रकार के पैदा करनेवाले कार्य के नतीजे में लड़कों और लड़कियों का जन्म निरन्तर उस अनुपात से होता चला जा रहा है कि कहीं किसी काल में भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी इंसानी आबादी में सिर्फ़ लड़के या सिर्फ़ लड़कियाँ ही पैदा होती चली जाएँ और आगे उसकी नस्ल चलने की कोई संभावना बाकी न रहे ? क्या यह भी संयोग ही से हुआ चला जा रहा है ? (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 27-30; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 77)