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سُورَةُ الإِنسَانِ

76. अद-दह्‍र

(मक्का में उतरी, आयतें 31)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम 'अद-दह्‍र' (काल) भी है और 'अल-इंसान' (इंसान) भी। दोनों नाम पहली ही आयत के शब्दों 'हल अता अलल-इंसानि' और 'हीनुम-मिनद्दहरि' से उदधृत हैं।

उतरने का समय

अधिकतर टीकाकार इसे मक्की बताते हैं। लेकिन कुछ दूसरे टीकाकारों ने पूरी सूरा को मदनी कहा है और कुछ लोगों का कथन यह है कि यह सूरा है तो मक्की, किन्तु आयतें 8-10 मदीने में उतरी हैं। जहाँ तक इस सूरा की विषय-वस्तुओं और वर्णन-शैली का संबंध है, वह मदनी सूरतों की विषय-वस्तुओं और वर्णन-शैली से बहुत भिन्न है, बल्कि इसपर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह न सिर्फ़ मक्की है, बल्कि मक्का मुअज़्ज़मा के भी उस ज़माने में उतरी है जो सूरा-74 मुद्दस्सिर की आरंभिक सात आयतों के बाद शुरू हुआ था।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय इंसान को दुनिया में उसकी वास्तविक हैसियत से अवगत कराना है और यह बताना है कि अगर वह अपनी इस हैसियत को ठीक-ठीक समझकर शुक्र (कृतज्ञता) की नीति अपनाए तो उसका अंजाम क्या होगा और कुफ़्र (इंकार) की राह पर चले तो किस अंजाम से वह दोचार होगा। इसमें सबसे पहले इंसान को याद दिलाया गया है कि एक समय ऐसा था जब वह कुछ न था, फिर एक मिश्रित वीर्य से उसका तुच्छ-सा प्रारम्भ किया गया जो आगे चलकर इस धरती पर 'सर्वश्रेष्ठ प्राणी' बना। इसके बाद इंसान को सावधान किया गया है कि हम [तुझे] दुनिया में रखकर तेरी परीक्षा लेना चाहते हैं, इसलिए दूसरी मख़लूक (सृष्ट-जीवों) के विपरीत तुझे समझ-बूझ रखनेवाला बनाया गया और तेरे सामने शुक्र और कुफ़्र के दोनों रास्ते खोलकर रख दिए गए। ताकि यहाँ काम करने का जो समय तुझे दिया गया है उसमें तू दिखा दे कि इस परीक्षा से तू शुक्रगुज़ार बन्दा बनकर निकला है या नाशुक्रा बन्दा बनकर। फिर सिर्फ़ एक आयत में दो-टूक तरीक़े से बता दिया गया है कि जो लोग इस परीक्षा से नाशुक्रे (काफ़िर) बनकर निकलेंगे उन्हें आख़िरत में क्या अंजाम देखना होगा। इसके बाद आयत 5 से 22 तक लगातार उन इनामों का विवरण दिया गया है जिन्हें वे लोग अपने रब के यहाँ पाएँगे जिन्होंने यहाँ बन्दगी का हक़ अदा किया है। इन आयतों में सिर्फ़ उनके उत्तम प्रतिदानों को बताना ही काफ़ी नहीं समझा गया है, बल्कि संक्षेप में यह भी बताया गया है कि उनके वे क्या कर्म हैं जिनके कारण वे इस प्रतिदान के अधिकारी होंगे। इसके बाद आयत 23 से सूरा के अन्त तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं। एक यह कि वास्तव में यह हम ही हैं जो इस क़ुरआन को थोड़ा-थोड़ा करके तुमपर उतार रहे हैं और इसका उद्देश्य नबी (सल्ल०) को नहीं, बल्कि काफ़िरों (इनकारियों) को सावधान करना है कि यह क़ुरआन मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुद अपने दिल से नहीं गढ़ रहे हैं, बल्कि इसके उतारनेवाले 'हम हैं' और हमारी तत्त्वदर्शिता ही इसका तक़ाज़ा करती है कि इसे एक साथ नहीं, बल्कि थोड़ा-थोड़ा करके उतारें।

दूसरी बात यह है कि सब्र के साथ अपना सन्देश पहुँचाने का दायित्व पूरा करते चले जाओ और कभी उन दुष्कर्मी और सत्य के इंकारी लोगों में से किसी के दबाव में न आओ। तीसरी बात यह कि रात-दिन अल्लाह को याद करो, नमाज़ पढ़ो और रातें अल्लाह की इबादत में गुज़ारो। क्योंकि यही वह चीज़ है जिससे कुफ़्र (अधर्म) के अतिक्रमण के मुक़ाबले में अल्लाह की ओर बुलानेवालों को स्थिरता प्राप्त होती है। फिर एक वाक्य में इस्लाम-विरोधियों की ग़लत नीति का मूल कारण बयान किया गया है कि वे आख़िरत को भूलकर दुनिया पर मोहित हो गए हैं और दूसरे वाक्य में उनको सचेत किया गया है कि तुम ख़ुद नहीं बन गए हो, हमने तुम्हें बनाया है और यह बात हर समय हमारे सामर्थ्य में है कि जो कुछ हम तुम्हारे साथ करना चाहें, कर सकते हैं । अन्त में वार्ता इसपर समाप्त की गई है कि यह एक उपदेश की बात है, अब जिसका जी चाहे इसे ग्रहण करके अपने रब का रास्ता अपना ले। मगर दुनिया में इंसान की चाहत पूरी नहीं हो सकती जब तक अल्लाह न चाहे और अल्लाह की चाहत अंधा-धुंध नहीं है। वह जो कुछ भी चाहता है, अपने ज्ञान और अपनी तत्त्वदर्शिता के आधार पर चाहता है। इस ज्ञान और तत्त्वदर्शिता के आधार पर जिसे वह अपनी दयालुता का हक़दार समझता है उसे अपनी दयालुता में दाख़िल कर लेता है और जिसे वह ज़ालिम पाता है उसके लिए दर्दनाक अज़ाब की व्यवस्था उसने कर रखी है।

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سُورَةُ الإِنسَانِ
76. अद-दहर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
هَلۡ أَتَىٰ عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ حِينٞ مِّنَ ٱلدَّهۡرِ لَمۡ يَكُن شَيۡـٔٗا مَّذۡكُورًا
(1) क्या इंसान पर अनन्त काल का एक समय ऐसा भी बीता है जब वह कोई उल्लेखनीय चीज़ न था।1
1. पहला मूल अरबी वाक्य है 'हल अता अलल इंसानि'। अक्सर टीकाकारों और अनुवादकों ने यहाँ 'हल' (क्या) को 'क़द' (निश्चित रूप से) के अर्थ में लिया है। और वे इसका अर्थ यह लेते हैं कि बेशक या निस्सन्देह इंसान पर ऐसा समय आया है। लेकिन वास्तविकता यह है कि शब्द 'हल' अरबी भाषा में 'क्या' के अर्थ में ही इस्तेमाल होता है। और इससे अभिप्राय हर हाल में प्रश्न ही नहीं होता, बल्कि विभिन्न अवसरों पर यह बज़ाहिर प्रश्न सूचक शब्द विभिन्न अर्थों में बोला जाता है। [चुनाँचे यहाँ भी] इससे अभिप्राय प्रश्न नहीं है, बल्कि इंसान से बात का इकरार कराना है कि हाँ, इसपर ऐसा एक समय बीत चुका है और साथ ही उसे यह सोचने पर मजबूर करना है कि जिस ख़ुदा ने उसके जन्म का आरंभ ऐसी हीन दशा से करके उसे पूरा इंसान बना खड़ा किया, वह आख़िर उसे दोबारा पैदा करने से क्यों असमर्थ होगा? दूसरा वाक्य है 'हीनुम मिनद-दहिर'। दह्र से मुराद वह अनन्त काल है जिसका न आरंभ इंसान को मालूम है, न अन्त और अरबी शब्द 'तुच्छ से मुराद वह ख़ास समय है जो इस अनन्त काल के भीतर कभी पेश आया हो। वार्ता का उद्देश्य यह है कि इस अनन्त काल के भीतर एक लम्बी अवधि तो ऐसी गुज़री है जब सिरे से मानव-जाति ही मौजूद न थी। फिर उसमें एक समय ऐसा आया जब इंसान नाम की एक जाति की शुरुआत की गई और इसी काल के भीतर हर व्यक्ति पर एक ऐसा समय आया है जब उसे अनस्तित्व से अस्तित्व में लाने का आरंभ किया गया। तीसरा वाक्य है 'लम यकुन शैअम-मजकूरा', (अर्थात् उस समय वह कोई उल्लेखनीय चीज़ न था) गर्भ ठहरने के वक्त वह एक ऐसा मात्राहीन कण (अणु जैसा) होता है कि बहुत सशक्त सूक्ष्मदर्शी यंत्र (ख़ुर्दबीन) ही से नज़र आ सकता है और उसे देखकर भी ऊपरी नज़र में कोई यह नहीं कह सकता कि यह कोई इंसान बन रहा है।
إِنَّا خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٍ أَمۡشَاجٖ نَّبۡتَلِيهِ فَجَعَلۡنَٰهُ سَمِيعَۢا بَصِيرًا ۝ 1
(2) हमने इंसान को एक मिश्रित वीर्य से पैदा किया2 ताकि उसकी परीक्षा लें3, और इस उद्देश्य के लिए हमने उसे सुनने और देखनेवाला बनाया।4
2. 'एक मिश्रित वीर्य' से मुराद है [मर्द और औरत दोनों के वीर्यों का मिश्रण] ।
3. यह है दुनिया में इंसान की, और इंसान के लिए दुनिया की वास्तविक स्थिति । वह पेड़ों और जानवरों की तरह नहीं है कि उसके जन्म का उद्देश्य यहीं पूरा हो जाए। साथ ही यह दुनिया उसके लिए न अज़ाब का घर है जैसा कि संन्यासी लोग समझते हैं, न बदले का घर है जैसा कि आवागमन के माननेवाले समझते हैं, न चरागाह और मन बहलाने की जगह है जैसा कि भौतिकवादी समझते हैं और न युद्ध-भूमि है जैसा कि डार्विन और मार्क्स के अनुयायी समझते हैं, बल्कि वास्तव में यह उसके लिए एक परीक्षा-स्थल है, जहाँ उसे उसके पैदा करनेवाले ने यह देखने के लिए पैदा किया है कि वह जिंदगी का कौन-सा रवैया अपनाता है-भलाई और आज्ञापालन का या बुराई और अवज्ञा का। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-11 हूद, टिप्पणी 8; सूरा-67 मुल्क, टिप्पणी 8)
إِنَّا هَدَيۡنَٰهُ ٱلسَّبِيلَ إِمَّا شَاكِرٗا وَإِمَّا كَفُورًا ۝ 2
(3) हमने उसे रास्ता दिखा दिया, चाहे शुक्र करनेवाला बने या कुफ़्र (इंकार) करनेवाला।5
5. अर्थात् कुफ़्र और शिर्क का अधिकार उसे देते हुए यह बता दिया कि शुक्र का रास्ता कौन-सा है और कुफ़्र का रास्ता कौन-सा, ताकि उसके बाद जो रास्ता भी वह अपनाए उसका जिम्मेदार वह स्वयं हो। यही विषय [सूरा-90 अल-बलद, आयत 10 और सूरा-91 अश-शम्स, आयत 7-8 में भी] बयान किया गया है। [इन आयतों के साथ ही कुरआन मजीद के दूसरे] बयानों को निगाह में [रखकर देखा जाए तो मालूम हो जाता है कि इस आयत में 'रास्ता दिखाने' से मुराद मार्गदर्शन की कोई एक ही शक्ल नहीं है, बल्कि बहुत सी शक्लें हैं। उदाहरण के रूप में- (1) हर इंसान को ज्ञान व बुद्धि की क्षमताएँ देने के साथ एक नैतिक चेतना भी दी गई है जिसके कारण वह स्वाभाविक रूप से भलाई और बुराई में अन्तर करता है। (2) हर इंसान के भीतर अल्लाह ने अन्तरात्मा (ज़मीर) नाम की एक चीज़ रख दी है जो उसे हर उस अवसर पर टोकती है जब वह कोई बुराई करनेवाला हो या कर रहा हो या कर चुका हो। (देखिए सूरा-75 क़ियामह आयत 15) (3) इंसान के अपने वुजूद में और उसके आस-पास धरती से लेकर आसमान तक सारे जगत् में हर ओर ऐसी अनगिनत निशानियाँ फैली हुई हैं जो [ख़ुदा के वुजूद पर, उसके एक होने पर तथा] क़ियामत और आख़िरत पर खुला प्रमाण प्रस्तुत कर रही हैं। (4) [दुनिया में] अनगिनत घटनाएँ ऐसे घटती हैं और घटती रही हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि एक सर्वोच्च सत्ता उसपर और सारे जगत् पर शासन कर रही है। इसी तरह इंसान के अपने स्वभाव में भी उस सर्वोच्च शासन के वुजूद की गवाही मौजूद है। (5) इंसान की बुद्धि और उसकी प्रकृति निश्चित रूप से हुक्म लगाती है कि अपराध की सज़ा और बेहतरीन सेवाओं का बदला मिलना ज़रूरी है। अब अगर यह सर्वमान्य है कि इस दुनिया में अनगिनत अपराध ऐसे हैं जिनकी पूरी सज़ा तो दूर की बात, सिरे से कोई सज़ा ही नहीं दी जा सकती और अनगिनत सेवाएँ भी ऐसी हैं जिनका पूरा बदला तो क्या, कोई बदला भी सेवा करनेवाले को नहीं मिल सकता, तो [एक बदले का दिन अर्थात् आख़िरत का मानना बिल्कुल ज़रूरी हो जाता है।] (6) मार्गदर्शन के इन तमाम साधनों की सहायता के लिए अल्लाह ने इंसान के खुले और स्पष्ट मार्गदर्शन के लिए दुनिया में नबी भेजे और किताबें उतारीं, जिनमें साफ़-साफ़ बता दिया गया कि शुक्र की राह कौन-सी है और कुफ्र की राह कौन-सी, और इन दोनों राहों पर चलने के नतीजे क्या हैं।
إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ سَلَٰسِلَاْ وَأَغۡلَٰلٗا وَسَعِيرًا ۝ 3
(4) इंकार करनेवालों के लिए हमने ज़ंजीरें और तौक़ और भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है।
إِنَّ ٱلۡأَبۡرَارَ يَشۡرَبُونَ مِن كَأۡسٖ كَانَ مِزَاجُهَا كَافُورًا ۝ 4
(5) नेक लोग 6 (जन्नत में) पेय के ऐसे जाम पिएँगे जिनमें काफ़ूर के पानी का मिश्रण होगा।
6. मूल अरबी में शब्द 'अबरार' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब के आज्ञापालन का हक अदा किया हो, उसकी डाली हुई ज़िम्मेदारियां पूरी की हों और उसके मना किए हुए कामों से बचे हों।
عَيۡنٗا يَشۡرَبُ بِهَا عِبَادُ ٱللَّهِ يُفَجِّرُونَهَا تَفۡجِيرٗا ۝ 5
(6) यह एक बहता चश्मा (स्रोत) होगा7 जिसके पानी के साथ अल्लाह के बन्दे8 पेय पिएँगे और जहाँ चाहेंगे आसानी से उसकी शाखाएँ निकाल लेंगे।9
7. अर्थात वह काफ़ूर मिला हुआ पानी न होगा, बल्कि ऐसा प्राकृतिक चश्मा (स्रोत) होगा जिसके पानी की सफ़ाई और ठंडक और खुश्बू काफूर से मिलती-जुलती होगी।
8. 'अल्लाह के बन्दे' या 'रहमान के बन्दे' जैसे शब्द यद्यपि शाब्दिक दृष्टि से तमाम इंसानों के लिए इस्तेमाल हो सकते हैं, क्योंकि सभी अल्लाह के बन्दे हैं, लेकिन कुरआन में जहाँ भी ये शब्द आए हैं उनसे नेक बन्दे ही मुराद हैं। मानो बुरे लोग, जिन्होंने अपने आपको बन्दगी से बाहर कर रखा हो, इस योग्य नहीं हैं कि उनको अल्लाह अपने शुभ नाम से जोड़ते हुए 'अल्लाह के बन्दे' या 'रहमान के बन्दे' के प्रतिष्ठित नाम से याद करे।
يُوفُونَ بِٱلنَّذۡرِ وَيَخَافُونَ يَوۡمٗا كَانَ شَرُّهُۥ مُسۡتَطِيرٗا ۝ 6
(7) ये वे लोग होंगे जो (दुनिया में) नज़्र पूरी करते हैं10 और उस दिन से डरते हैं जिसकी आफ़त हर ओर फैली हुई होगी।
10. नज़्र पूरी करने का एक मतलब यह है कि जो कुछ आदमी पर अनिवार्य किया गया हो उसे वह पूरा करे। दूसरा अर्थ यह है कि जो कुछ आदमी ने खुद अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया हो उसे वह पूरा करे। तीसरा अर्थ यह है कि जो कुछ आदमी पर अनिवार्य हो, चाहे उसपर अनिवार्य किया गया हो या उसने अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया हो, उसे वह पूरा करे। इन तीनों अर्थों में से अधिक परिचित दूसरा अर्थ है और आम तौर पर शब्द 'नज' से वही मुराद लिया जाता है। बहरहाल यहाँ उन लोगों की प्रशंसा या तो इस पहलू से की गई है कि वे अल्लाह की डाली हुई ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हैं, या इस पहलू से की गई है कि वे ऐसे नेक लोग हैं कि जो खैर और भलाई के काम अल्लाह ने उनपर अनिवार्य नहीं किए हैं, उनको भी पूरा करने का जब वे अल्लाह से अहद कर लेते हैं, तो उसे पूरा करते हैं, कहाँ यह कि उन अनिवार्य बातों को अदा करने में किसी प्रकार की कोताही करें जो अल्लाह ने उनपर आइद की हैं। [(और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 310)]
وَيُطۡعِمُونَ ٱلطَّعَامَ عَلَىٰ حُبِّهِۦ مِسۡكِينٗا وَيَتِيمٗا وَأَسِيرًا ۝ 7
(8) और अल्लाह की मुहब्‍बत11 में मिस्कीन (मुहताज) और यतीम और कैदी12 को खाना खिलाते हैं13।
11. मूल अरबी शब्द हैं 'अला हुब्बिही'। अधिकतर टीकाकारों ने 'हुब्बिही' के 'ही' (सर्वनाम) से मुराद खाना (भोजन) बताया है, और वे इसका अर्थ यह बयान करते हैं कि वे खाने के पसंदीदा और दिलपसन्द होने और स्वयं उनके ज़रूरतमंद होने के बावजूद दूसरों को खिला देते हैं। [कुछ लोगों के नज़दीक इसका मतलब यह है कि अल्लाह की मुहब्बत में वे यह काम करते हैं। हमारे नज़दीक बाद का वाक्य 'हम तुम्हें सिर्फ़ अल्लाह के लिए खिला रहे हैं ' इस अर्थ की पुष्टि करता है।
12. पुराने समय में चलन यह था कि कैदियों को हथकड़ी और बेड़ियाँ लगाकर रोज़ाना बाहर निकाला जाता था और वे सड़कों पर या मुहल्लों में भीख माँगकर पेट भरते थे। बाद में इस्लामी राज्य ने इस तरीक़े को बन्द किया। (किताबुल-ख़िराज, इमाम अबू यूसुफ, पृ० 150, एडीशन 1382 हि०) इस आयत में क़ैदी से मुराद हर वह आदमी है जो कैद में हो। ऐसे आदमी को खाना खिलाना एक बड़ी नेकी का काम है।
إِنَّمَا نُطۡعِمُكُمۡ لِوَجۡهِ ٱللَّهِ لَا نُرِيدُ مِنكُمۡ جَزَآءٗ وَلَا شُكُورًا ۝ 8
(9) (और उनसे कहते हैं कि) "हम तुम्हें सिर्फ़ अल्लाह के लिए खिला रहे हैं, हम तुमसे न कोई बदला चाहते हैं, न शुक्रिया।14
14. यह बात ज़बान से भी कही जा सकती है और दिल से भी, लेकिन ज़बान से कहने का उल्लेख यहाँ इस लिए किया गया है कि जिसकी सहायता की जाए, उसको यह सन्तोष दिलाया जाए कि हम उससे किसी प्रकार का शुक्रिया या बदला नहीं चाहते, ताकि वह बेफ़िक्र होकर खाए।
إِنَّا نَخَافُ مِن رَّبِّنَا يَوۡمًا عَبُوسٗا قَمۡطَرِيرٗا ۝ 9
(10) हमें तो अपने रब से उस दिन के अज़ाब का डर लगा हुआ है जो सख़्त मुसीबत का अत्यन्त लम्बा दिन होगा।"
فَوَقَىٰهُمُ ٱللَّهُ شَرَّ ذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمِ وَلَقَّىٰهُمۡ نَضۡرَةٗ وَسُرُورٗا ۝ 10
(11) अत: अल्लाह उन्हें उस दिन की बुराई से बचा लेगा और उन्हें ताज़गी और आनन्द प्रदान करेगा।15
15. अर्थात् चेहरों की ताज़गी और दिल का आनन्द । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-21 अंबिया, आयत 103; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 89)
وَجَزَىٰهُم بِمَا صَبَرُواْ جَنَّةٗ وَحَرِيرٗا ۝ 11
(12) और उनके सब्र के बदले में16 उन्हें जन्नत और रेशमी वस्त्र प्रदान करेगा।
16. यहाँ 'सब्र' बड़े व्यापक अर्थ में इस्तेमाल हुआ है, बल्कि वास्तव में सदाचारी ईमानवालों के पूरे सांसारिक जीवन ही को 'सब' का जीवन कहा गया है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 60; सूरा-3 आले-इमरान, टिप्पणी 13, 107, 131; सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 23; सूरा-8 अल-अनफ़ाल, टिप्पणी 37, 40; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 9; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 11; सूरा-13 अर-रअद, टिप्पणी 39; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 98; सूरा-19 मरयम, टिप्पणी 40; सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, टिप्पणी 94; सूरा-28 अल क़सस, टिप्पणी 75, 100; सूरा-29 अल-अन्कबूत, टिप्पणी 97; सूरा-31 लुक़मान, टिप्पणी 29, 56; सूरा-32 अस-सजदा, टिप्पणी 37; सूरा-33 अल-अहज़ाब, टिप्पणी 58; सूरा-39 अज़-जुमर, टिप्पणी 32; सूरा 41 हा-मीम अस-सजदा, टिप्पणी 38; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 53)
مُّتَّكِـِٔينَ فِيهَا عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِۖ لَا يَرَوۡنَ فِيهَا شَمۡسٗا وَلَا زَمۡهَرِيرٗا ۝ 12
(13) वहाँ वे ऊँची मसनदों पर तकिए लगाए बैठे होंगे, न उन्हें धूप की गर्मी सताएगी, न जाड़े की ठंड।
وَدَانِيَةً عَلَيۡهِمۡ ظِلَٰلُهَا وَذُلِّلَتۡ قُطُوفُهَا تَذۡلِيلٗا ۝ 13
(14) जन्नत की छाँव उनपर झुकी हुई छाया कर रही होगी और उसके फल हर समय उनके बस में होंगे (कि जिस तरह चाहें उन्हें तोड़ लें)।
وَيُطَافُ عَلَيۡهِم بِـَٔانِيَةٖ مِّن فِضَّةٖ وَأَكۡوَابٖ كَانَتۡ قَوَارِيرَا۠ ۝ 14
(15) उनके आगे चाँदी के बरतन17 और शीशे के प्याले गर्दिश कराए जा रहे होंगे, शीशे भी वे जो चाँदी की किस्म के होंगे18,
17. सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़ आयत 71 में कहा गया है कि उनके आगे सोने के बरतन गर्दिश कराए (घुमाए) जा रहे होंगे। इससे मालूम हुआ कि कभी वहाँ सोने के बरतन इस्तेमाल होंगे और कभी चाँदी के।
18. अर्थात् वह होगी तो चाँदी मगर शीशे की तरह पारदर्शी होगी। चाँदी की यह क़िस्म इस दुनिया में नहीं पाई जाती। यह सिर्फ जन्नत की विशेषता होगी कि वहाँ शीशे जैसी पारदर्शी चाँदी के बरतन जन्नतवालों के दस्तरखान पर पेश किए जाएंगे।
قَوَارِيرَاْ مِن فِضَّةٖ قَدَّرُوهَا تَقۡدِيرٗا ۝ 15
(16) और उनको (जन्नत के प्रबन्धकों ने) ठीक अन्दाज़े के मुताबिक़ भरा19 होगा।
19. अर्थात् हर आदमी के लिए उसकी इच्छा के ठीक अन्दाज़े के मुताबिक़ साग़र (जाम) भर-भरकर दिए जाएँगे, न वे उसकी इच्छा से कम होंगे, न ज्यादा। दूसरे शब्दों में जन्नतियों के सेवक इतने समझदार और तमीज़दार होंगे कि वे जिसकी सेवा में पेय का जाम पेश करेंगे, उसके बारे में उनको पूरा अन्दाज़ा होगा कि वह कितनी पेय पीना चाहता है। (जन्नत के पेय की विशेषताओं के बारे में देखिए सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 45-47, टिप्पणी 24-27; सूरा-47 मुहम्मद, आयत 15, टिप्पणी 22; सूरा-52 अत-तूर, आयत 23, टिप्पणी 18; सूरा-56 अल-वाक़िया, आयत 19, टिप्पणी 10)
وَيُسۡقَوۡنَ فِيهَا كَأۡسٗا كَانَ مِزَاجُهَا زَنجَبِيلًا ۝ 16
(17) उनको वहाँ ऐसे पेय के जाम पिलाए जाएँगे जिसमें सोंठ का मिश्रण होगा,
عَيۡنٗا فِيهَا تُسَمَّىٰ سَلۡسَبِيلٗا ۝ 17
(18) यह जन्नत का एक चश्मा होगा जिसे सलसबील कहा जाता है।20
20. अरब के लोग चूँकि शराब के साथ सोंठ मिले हुए पानी के मिश्रण को पसन्द करते थे इसलिए फ़रमाया गया कि वहाँ उनको वह पेय पिलाया जाएगा जिसमें सोंठ का मिश्रण होगा, लेकिन इस मिश्रण की स्थिति यह न होगी कि इसके अन्दर सोंठ मिलाकर पानी डाला जाएगा, बल्कि यह एक प्राकृतिक चश्मा होगा जिसमें सोंठ की ख़ुश्बू तो होगी मगर उसकी कडुवाहट न होगी, इसलिए उसका नाम सलसबील होगा। सलसबील से मुराद ऐसा पानी है जो मीठा, हल्का और मज़ेदार होने की वजह से हलक़ से आसानी से गुजर जाए। अधिकांश टीकाकारों का विचार यह है कि यहाँ सलसबील का शब्द उस चश्मे के लिए गुणवाचक शब्द के रूप में इस्तेमाल हुआ है न कि व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में।
۞وَيَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ إِذَا رَأَيۡتَهُمۡ حَسِبۡتَهُمۡ لُؤۡلُؤٗا مَّنثُورٗا ۝ 18
(19) उनकी सेवा के लिए ऐसे लड़के दौड़ते फिर रहे होंगे जो सदैव लड़के ही रहेंगे। तुम उन्हें देखो तो समझो कि मोती हैं जो बिखेर दिए गए हैं।21
21. व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात, टिप्पणी 26; सूरा-52 अत-तूर, टिप्पणी 19; सूरा-56 अल-वाक़िआ, टिप्पणी 9
وَإِذَا رَأَيۡتَ ثَمَّ رَأَيۡتَ نَعِيمٗا وَمُلۡكٗا كَبِيرًا ۝ 19
(20) वहाँ जिधर भी तुम निगाह डालोगे नेमतें ही नेमतें और एक बड़े राज्य की सामग्री तुम्हें नज़र आएगी।22
22. अर्थात् दुनिया में चाहे कोई व्यक्ति असहाय दरिद्र ही क्यों न रहा हो, जब वह अपने भले कामों के कारण जन्नत में जाएगा तो वहाँ इस शान से रहेगा कि मानो वह एक विशाल साम्राज्य का स्वामी है।
عَٰلِيَهُمۡ ثِيَابُ سُندُسٍ خُضۡرٞ وَإِسۡتَبۡرَقٞۖ وَحُلُّوٓاْ أَسَاوِرَ مِن فِضَّةٖ وَسَقَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ شَرَابٗا طَهُورًا ۝ 20
(21) उनके ऊपर बारीक रेशम के हरे लिबास और अतलस व दीबा के कपड़े होंगे23, उनको चाँदी के कंगन पहनाए जाएँगे24, और उनका रब उनको अत्यन्त पाकीज़ा पेय पिलाएगा।25
23. यही विषय सूरा-18 कहफ़, आयत 31 में गुज़र चुका है कि "वे (अर्थात् जन्नती) बारीक रेशम और अतलस व दीबा के हरे कपड़े पहनेंगे, ऊँची मस्नदों पर तकिए लगाकर बैठेंगे", इस कारण से उन टीकाकारों की राय सही नहीं मालूम होती जिन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि इससे मुराद वे कपड़े हैं जो उनकी मसनदों या मसहरियों के ऊपर लटके हुए होंगे या यह उन लड़कों का पहनावा होगा जो उनकी सेवा में दौड़े फिर रहे होंगे।
24. सूरा-18 कहफ़, आयत 31 में फ़रमाया गया है, "वे वहाँ सोने के कंगनों से सुसज्जित किए जाएंगे।" यही विषय सूरा-22 अल-हज्ज, आयत 23 और सूरा-35 फ़ातिर, आयत 33 में भी आया है। इन सब आयतों को मिलाकर देखा जाए तो तीन शक्लें संभव लगती हैं- एक यह कि कभी वे चाहेंगे तो सोने के कंगन पहनेंगे और कभी चाहेंगे तो चाँदी के कंगन पहन लेंगे। दोनों चीजें उनकी इच्छा के अनुसार मौजूद होंगी। दूसरी यह कि सोने और चाँदी के कंगन वे एक साथ पहनेंगे, क्योंकि दोनों को मिला देने से सुन्दरता दो गुना हो जाती है। तीसरी यह कि जिसका जी चाहेगा सोने के कंगन पहनेगा और जो चाहेगा चाँदी के कंगन इस्तेमाल करेगा। रहा यह प्रश्न कि ज़ेवर तो औरतें पहनती हैं, मर्दो को ज़ेवर पहनाने का क्या मौक़ा है? इसका उत्तर यह है कि पुराने समय में बादशाहों और रईसों का तरीका यह था कि वे हाथों और गले और सिर के ताजों में तरह-तरह के जेवरात इस्तेमाल करते थे, बल्कि हमारे समय में ब्रिटिश हिन्दुस्तान के राजाओं और नवाबों तक में यह चलन रहा है। सूरा-43 जुख़रुफ़ में बयान हुआ है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) जब अपने सादा वस्त्र में बस एक लाठी लिए हुए फ़िरऔन के दरबार में पहुँचे और उससे कहा कि मैं सारे जहानों के रब अल्लाह का भेजा हुआ पैग़म्बर हूँ तो उसने अपने दरबारियों से कहा कि यह अच्छा दूत है जो इस हालत में मेरे सामने आया है अर्थात् "अगर यह ज़मीन व आसमान के बादशाह की ओर से भेजा गया होता तो क्यों न इसपर सोने के कंगन उतारे गए या फ़रिश्तों की कोई फ़ौज ही इसकी अरदली में आती।" (आयत 53)
إِنَّ هَٰذَا كَانَ لَكُمۡ جَزَآءٗ وَكَانَ سَعۡيُكُم مَّشۡكُورًا ۝ 21
(22) यह है तुम्हारा बदला और तुम्हारी कारगुज़ारी क़द्र के क़ाबिल ठहरी है।26
26. मूल अरबी शब्द हैं 'का-न सयुकुम मशकूरा' यानी 'तुम्हारी कोशिश मशकूर हुई'। कोशिश से मुराद जिंदगी का वह पूरा कारनामा है जो बन्दे ने दुनिया में अंजाम दिया और उसके 'मशकूर' होने का मतलब यह है कि अल्लाह के यहाँ वह क़द्र के क़ाबिल क़रार पाई। शुक्रिया जब बन्दे की ओर से ख़ुदा के लिए हो तो इससे मुराद उसकी नेमतों पर एहसानमंदी होती है और जब ख़ुदा की ओर से बंदे के लिए हो तो इसका मतलब यह होता है कि अल्लाह ने उसकी ख़िदमात की क़द्र फ़रमाई।
إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ تَنزِيلٗا ۝ 22
(23) ऐ नबी! हमने ही तुमपर यह कुरआन थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है।27
27. यहाँ सम्बोधन देखने में नबी (सल्ल०) से है, लेकिन वास्तव में जवाब इंकार करनेवालों की एक आपत्ति का दिया जा रहा है। वे कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) यह कुरआन खुद सोच-सोचकर बना रहे हैं, वरना अल्लाह की ओर से कोई फ़रमान आता तो इकट्ठा एक ही बार आ जाता। क़ुरआन मजीद में कुछ स्थानों पर उनकी इस आपत्ति का उल्लेख करके इसका उत्तर दिया गया है, (उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 102, 104, 105, 106; सूरा-17 बनी-इसराईल, टिप्पणी 119) और यहाँ उसका उल्लेख किए बिना अल्लाह ने पूरे जोर के साथ फ़रमाया है कि इसके उतारनेवाले हम हैं अर्थात् मुहम्मद (सल्ल०) इसके रचियता नहीं हैं और हम ही इसको क्रमश: उतार रहे हैं अर्थात् यह हमारी तत्त्वदर्शिता का तकाज़ा है कि अपना सन्देश एक ही समय में एक किताब के रूप में न उतारे दें, बल्कि इसे थोड़ा-थोड़ा करके भेजें।
فَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ وَلَا تُطِعۡ مِنۡهُمۡ ءَاثِمًا أَوۡ كَفُورٗا ۝ 23
(24) इसलिए तुम अपने रब के आदेश पर सब करो28 और इनमें से किसी दुराचारी और सत्य के इंकारी की बात न मानो।29
28. अर्थात् तुम्हारे रब ने जिस महान कार्य पर तुम्हें लगाया है उसकी सख़्तियों और कठिनाइयों पर सब्र करो जो कुछ भी तुमपर गुज़र जाए, उसे साहस के साथ सहन करते चले जाओ और जमे हुए क़दम लड़खड़ाने न दो।
29. अर्थात् उनमें से किसी से दबकर सत्य-धर्म के प्रचार से बाज़ न आ जाओ और किसी दुराचारी के लिए दीन की नैतिक शिक्षाओं में या किसी सत्य के इंकारी के लिए दीन के अक़ीदों में कण भर भी घट-बढ़ करने के लिए तैयार न हो। जो कुछ हराम और अवैध है उसे खुल्लम-खुल्ला हराम व अवैध कहो, चाहे कोई दुराचारी कितना ही ज़ोर लगाए कि तुम उसकी निन्दा में थोड़ी-सी नर्मी ही बरत लो और जो अकीदे असत्य हैं उन्हें खुल्लम-खुल्ला असत्य और जो सत्य हैं उन्हें एलानिया सत्य कहो, चाहे सत्य के इंकारी तुम्हारा मुँह बन्द करने या इस मामले में कुछ नर्मी अपनाने के लिए तुमपर कितना ही दबाव डालें।
وَٱذۡكُرِ ٱسۡمَ رَبِّكَ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلٗا ۝ 24
(25) अपने रब का नाम सुबह व शाम याद करो,
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَٱسۡجُدۡ لَهُۥ وَسَبِّحۡهُ لَيۡلٗا طَوِيلًا ۝ 25
(26) रात को भी उसके सामने सजदा करते रहो और रात के लम्बे वक़्तों में उसकी तस्वीह (महिमागान) करते रहो।30
30. क़ुरआन का नियम है कि जहाँ भी सत्य के इंकारियों के मुक़ाबले में सब और जमाव की नसीहत की गई है वहाँ उसके तुरन्त बाद अल्लाह के जिक्र और नमाज़ का आदेश दिया गया है, जिससे अपने आप यह बात स्पष्ट होती है कि सत्य-धर्म की राह में सत्य के शत्रुओं की रुकावटों का मुक़ाबला करने के लिए जिस शक्ति की ज़रूरत है वह इसी चीज़ से प्राप्त होती है। सुबह व शाम अल्लाह का ज़िक्र करने से मुराद हमेशा अल्लाह को याद करना भी हो सकता है, मगर जब अल्लाह की याद का आदेश समय के निर्धारण के साथ दिया जाए तो फिर इससे मुराद नमाज़ होती है। इस आयत में सबसे पहले फ़रमाया, "अपने रब का नाम याद करो सुबह व शाम" अरबी शब्द 'बुकरा' सुबह को कहते हैं, और 'असील' सूरज ढलने से लेकर डूबने तक के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें जुह्र व अस्त्र के समय आ जाते हैं। फिर फ़रमाया, "रात को भी उसके सामने सजदा करते रहो।" रात का समय सूर्यास्त के बाद शुरू हो जाता है। इसलिए रात को सजदा करने के आदेश में मग़रिब और इशा दोनों समयों की नमाजें शामिल हो जाती हैं। इसके बाद यह इर्शाद कि रात के लम्बे समयों में उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो, तहज्जुद की नमाज़ की तरफ़ साफ़ इशारा करता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 92-97; सूरा-73 अल-मुजम्मिल, टिप्पणी 2) इससे यह भी मालूम हुआ कि नमाज़ के यही वक्त शुरू से इस्लाम में थे, अलबत्ता वक़्त और रक्अतों के तय होने के साथ पाँच वक़्तों की नमाज़ के फ़र्ज़ होने का आदेश मेराज़ के मौके पर दिया गया।
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ يُحِبُّونَ ٱلۡعَاجِلَةَ وَيَذَرُونَ وَرَآءَهُمۡ يَوۡمٗا ثَقِيلٗا ۝ 26
(27) ये लोग तो जल्दी हासिल होनेवाली चीज़ (दुनिया) से मुहब्बत रखते हैं और आगे जो भारी दिन आनेवाला है, उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं।31
31. अर्थात् क़ुरैश के ये इस्लाम-विरोधी जिस वजह से नैतिकता और अक़ीदों की गुमराहियों पर हठ कर रहे हैं और जिस आधार पर आपके सत्य-आहवान के लिए इनके कान बहरे हो गए हैं, वे वास्तव में इनकी दुनियापरस्ती और आख़िरत से बेफ़िक्री और बेनियाज़ी है। इसलिए एक सच्चे ख़ुदापरस्त इंसान का रास्ता इनके रास्ते से इतना अलग है कि दोनों के बीच किसी समझौते का सिरे से कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
نَّحۡنُ خَلَقۡنَٰهُمۡ وَشَدَدۡنَآ أَسۡرَهُمۡۖ وَإِذَا شِئۡنَا بَدَّلۡنَآ أَمۡثَٰلَهُمۡ تَبۡدِيلًا ۝ 27
(28) हमने ही इनको पैदा किया है और इनके जोड़ बन्द मज़बूत किए हैं, और हम जब चाहें इनके रूपों को बदलकर रख दें।32
32. मूल शब्द हैं 'इज़ा शिअना बद-दलना अम्सालहुम तब्दीला'। इस वाक्य के कई अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि हम जब चाहें इन्हें नष्ट करके इन्हीं की जाति के दूसरे लोग इनकी जगह ला सकते हैं जो अपने चरित्र में इनसे अलग हों। दूसरा यह कि जब हम चाहें इनकी शक्लें बदल सकते हैं, अर्थात् जिस तरह हम किसी को स्वस्थ और परिपूर्ण अंगोवाला बना सकते हैं, उसी तरह हम इसकी भी सामर्थ्य रखते हैं कि किसी को अपंग कर दें, किसी को लकवा मार जाए और कोई किसी बीमारी या दुर्घटना का शिकार होकर अपाहिज हो जाए। तीसरा यह कि हम जब चाहें मौत के बाद इनको दोबारा किसी और रूप में पैदा कर सकते हैं।
إِنَّ هَٰذِهِۦ تَذۡكِرَةٞۖ فَمَن شَآءَ ٱتَّخَذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلٗا ۝ 28
(29) यह एक नसीहत है, अब जिसका जी चाहे अपने रब की ओर जाने का रास्ता अपना ले।
وَمَا تَشَآءُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 29
(30) और तुम्हारे चाहने से कुछ नहीं होता जब तक अल्लाह न चाहे33। निश्चय ही अल्लाह बड़ा ज्ञानवान और तत्त्वदर्शी है।
33. व्याख्या के लिए, देखिए सूरा-74 अल-मुदस्सिर, टिप्पणी 41
يُدۡخِلُ مَن يَشَآءُ فِي رَحۡمَتِهِۦۚ وَٱلظَّٰلِمِينَ أَعَدَّ لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمَۢا ۝ 30
(31) अपनी दयालुता में जिसको चाहता है दाख़िल करता है, और जालिमों के लिए उसने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।34
34. इसकी व्याख्या हम इसी सूरा के परिचय में कर चुके हैं।