78. अन-नबा
(मक्का में उतरी, आयतें 40)
परिचय
नाम
दूसरी आयत के वाक्यांश 'अनिन-न-ब-इल अज़ीम' के शब्द 'अन-नबा' (ख़बर) को इसका नाम क़रार दिया गया है, और यह सिर्फ़ नाम ही नहीं है, बल्कि इस सूरा के विषयों का शीर्षक भी है, क्योंकि 'नबा' से मुराद क़ियामत और आख़िरत (परलोक) की ख़बर है और इस सूरा में सारी वार्ता इसी पर की गई है।
उतरने का समय
सूरा-75 (क़ियामह) से सूरा-79 (नाज़िआत) तक सबका विषय एक-दूसरे से मिलता-जुलता है और यह सब मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल में उतरी मालूम होती हैं।
विषय और वार्ता
इसका विषय क़ियामत और आख़िरत की पुष्टि और उसको मानने या न मानने के नतीजों से लोगों को सचेत करना है। मक्का मुअज़्ज़मा में जब पहले-पहल अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस्लाम के प्रचार का आरम्भ किया तो इसकी बुनियाद तीन चीजें थीं : [तौहीद (एकेश्वरवाद), हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी और आख़िरत- इन तीनों चीज़ों में से पहली दो चीजें भी] हालाँकि मक्कावालों को अत्यंत अप्रिय [और अस्वीकार्य थीं, लेकिन फिर भी स्पष्ट कारणों से ये उन] के लिए उतनी ज़्यादा उलझन का कारण न थीं, जितनी तीसरी बात थी। उसको जब उनके सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे ज़्यादा उसी की हँसी उड़ाई, मगर इस्लाम की राह पर उनको लाने के लिए यह निश्चित रूप से ज़रूरी था कि आख़िरत का अक़ीदा उनके मन में उतारा जाए, क्योंकि इस अक़ीदे को माने बिना यह सम्भव ही न था कि सत्य और असत्य के मामले में उनकी सोच गम्भीर हो सकती। यही कारण है कि मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की सूरतों में अधिकतर ज़ोर आख़िरत के अक़ीदे को दिलों में बिठाने पर दिया गया है। इस काल की सूरतों में आख़िरत के विषय को बार-बार दोहराए जाने का कारण अच्छी तरह समझ लेने के बाद अब इस सूरा की वार्ताओं पर एक दृष्टि डाल लीजिए।
इसमें सबसे पहले उन चर्चाओं और कानाफूसियों की ओर इशारा किया गया है जो क़ियामत की ख़बर सुनकर मक्का की हर गली, बाज़ार और मक्कावालों की हर सभा में हो रही थीं। इसके बाद इंकार करनेवालों से पूछा गया है कि क्या तुम्हें [ज़मीन से लेकर आसमान तक का प्रकृति का कारख़ाना और उसके अन्दर पाई जानेवाली हिक्मतें (तत्वदर्शिताएँ) और उद्देश्य नज़र नहीं आते? इसकी ये सारी चीज़ें क्या तुम्हें यही बता रही हैं कि जिस सामर्थ्यवान ने इनको पैदा किया है, उसकी सामर्थ्य क़ियामत लाने और आख़िरत बरपा करने में विवश है? और इस पूरे कारख़ाने में जो श्रेष्ठ दर्जे की दत्वदर्शिता और बुद्धिमत्ता स्पष्ट रूप से कार्यरत है, क्या उसे देखते हुए तुम्हारी समझ में यह आता है कि इस कारख़ाने का एक-एक अंश और एक-एक काम तो उद्देश्यपूर्ण है, मगर ख़ुद पूरा कारख़ाना निरुद्देश्य है? आख़िर इससे ज़्यादा बेकार और व्यर्थ बात क्या हो सकती है कि इस कारख़ाने में इंसान को फ़ोरमैन (Foreman) के पद पर बिठाकर उसे यहाँ बड़े व्यापक अधिकार तो दे दिए जाएँ, मगर जब वह अपना काम पूरा करके यहाँ से विदा हो तो उसे यों ही छोड़ दिया जाए- न काम बनाने पर पेंशन और इनाम, न बिगाड़ने पर पूछ-गच्छ और सज़ा? ये तर्क देने के बाद पूरे ज़ोर के साथ कहा गया है कि फ़ैसले का दिन निश्चित रूप से अपने निश्चित समय पर आकर रहेगा। तुम्हारा इंकार इस घटना को पेश आने से नहीं रोक सकता। इसके बाद आयत 21 से 30 तक बताया गया है कि जो लोग हिसाब-किताब की उम्मीद नहीं रखते और जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, उनकी एक-एक करतूत गिन-गिनकर हमारे यहाँ लिखी है और उनकी ख़बर लेने के लिए जहन्नम घात लगाए हुए तैयार है। फिर आयत 31 से 36 तक उन लोगों का बेहतरीन बदला बमान हुआ है, जिन्होंने अपने आपको ज़िम्मेदार और उत्तरदायी समझकर दुनिया में अपनी आख़िरत ठीक करने की पहले ही चिंता कर ली है। अन्त में अल्लाह की अदालत का चित्र खींचा गया है कि वहाँ किसी के अड़कर बैठ जाने और अपने लोगों को बख़्शवाकर छोड़ने का क्या सवाल, वहाँ तो कोई बिना इजाज़त ज़बान तक न खोल सकेगा, और इजाज़त भी इस शर्त के साथ मिलेगी कि जिसके पक्ष में सिफ़ारिश की इजाज़त हो, सिर्फ़ उसी के लिए सिफ़ारिश करे और सिफ़ारिश में कोई अनुचित बात न कहे। साथ ही सिफ़ारिश की इजाज़त सिर्फ़ उन लोगों के पक्ष में दी जाएगी जो दुनिया में हक़ के कलिमे के समर्थक रहे हैं और सिर्फ़ गुनाहगार हैं । अल्लाह के बाग़ी और सत्य के इंकारी किसी सिफ़ारिश के अधिकारी न होंगे। फिर वार्ता को इस चेतावनी पर समाप्त किया गया है कि जिस दिन के आने की ख़बर दी जा रही है, उसका आना सत्य है, उसे दूर न समझो, वह क़रीब ही आ लगा है। [जो आज उसके इंकार पर तुला बैठा है कल] वह पछता-पछताकर कहेगा कि काश! मैं दुनिया में पैदा ही न होता। उस वक्त उसका यह एहसास उसी दुनिया के बारे में होगा जिस पर वह आज आसक्त हो रहा है।
-----------------
ٱلَّذِي هُمۡ فِيهِ مُخۡتَلِفُونَ 2
(3) जिसके बारे में ये तरह-तरह की बातें करने में लगे हुए हैं?1
1. बड़ी ख़बर से मुराद क़ियामत और आख़िरत की ख़बर है जिसको मक्कावाले आँखें फाड़-फाड़कर सुनते थे, फिर हर मजलिस में उसपर तरह-तरह की कानाफूसियाँ होती थीं। पूछ-गच्छ से मुराद यही कानाफूसियाँ हैं। मूल अरबी में 'हुम फ़ीहि मुख़्तलिफून' प्रयुक्त हुआ है जिसका एक अर्थ तो यह है कि "वे इसके बारे में तरह-तरह की कानाफूसियाँ कर रहे हैं।" दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि दुनिया के अंजाम के बारे में ये लोग ख़ुद भी कोई एक सर्वसम्मत अक़ीदा नहीं रखते, बल्कि "उनके बीच उसके बारे में अलग-अलग विचार पाए जाते हैं।" उनमें से कोई ईसाइयों के विचारों से प्रभावित था और मौत के बाद की जिंदगी को मानता था, मगर यह समझता था कि वह दूसरी जिंदगी जिस्मानी नहीं, बल्कि रूहानी होगी। कोई पूर्णत: आख़िरत का इनकारी नहीं था, मगर उसे सन्देह था कि वह हो सकती है या नहीं। और कोई बिलकुल साफ़-साफ़ कहता था कि "जो कुछ भी है, बस यही हमारी दुनिया की जिंदगी है और हम हरगिज़ मरने के बाद दोबारा न उठाए जाएँगे" (सूरा-6 अल-अनआम, आयत 29 ) । फिर कुछ लोग उनमें से नास्तिक थे और कहते थे कि "जिंदगी बस यही हमारी दुनिया की जिंदगी है, यही हम मरते और जीते हैं और काल-चक्र के सिवा कोई चीज़ नहीं जो हमें नष्ट करती हो" (सूरा-45. अल-जासिया, आयत 24)। और कुछ दूसरे लोग नास्तिक तो न थे, मगर दूसरी जिंदगी को असम्भव ठहराते थे। उनका कहना था, "कौन इन हड्डियों को जिंदा करेगा, जबकि ये सड़-गल चुकी हों?" (सूरा-36 या-सीन, आयत 78) । ये उनकी अलग-अलग बातें खुद ही इस बात का सुबूत थीं कि उनके पास इस मसले में कोई ज्ञान नहीं था, बल्कि वे केवल अटकल और गुमान के तीर-तुक्के चला रहे थे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए: टीका सूरा-51 अज़-ज़ारियात, टिप्पणी 61)
ثُمَّ كَلَّا سَيَعۡلَمُونَ 4
(5) हाँ, हरगिज़ नहीं, बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।3
3. अर्थात् वह समय दूर नहीं है जब इन्हें पता चल जाएगा कि रसूल (सल्ल०) ने जो ख़बर उनको दी थी वही सही थी और अटकल और गुमान से जो बातें ये बना रहे थे, उनकी कोई हक़ीक़त न थी।
أَلَمۡ نَجۡعَلِ ٱلۡأَرۡضَ مِهَٰدٗا 5
(6) क्या यह सत्य नहीं है कि हमने ज़मीन को फ़र्श (बिछौना) बनाया4
4. ज़मीन को इंसान के लिए फ़र्श अर्थात् एक शान्तिपूर्ण निवास-स्थल बनाने में सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता की जो आश्चर्यजनक बातें काम कर रही हैं उन [ की व्याख्या के लिए] देखिए टीका सूरा-27 अन नम्ल, टिप्पणी 73-74-81; सूरा-36 या-सोन, टिप्पणी 29; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 90-91; सूरा-43 अज़-जुख़रुफ, टिप्पणी 7; सूरा-45 अल-जासिया, टिप्पणी 7; सूरा-50 क़ाफ, टिप्पणी 18
وَٱلۡجِبَالَ أَوۡتَادٗا 6
(7) और पहाड़ों को मेखों (खूटों) की तरह गाड़ दिया5,
6. इंसान को मर्दो और औरतों के जोड़ों के रूप में पैदा करना अपने अन्दर जो बड़ी हिक्मतें रखता है, उनके विवरण के लिए देखिए टीका सूरा-25 अल-फुरकान, टिप्पणी 69; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 28-30; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 31; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 77; सूरा-43 अज़-जुखरुफ, टिप्पणी 12; सूरा-75 अल-क़ियामा, टिप्पणी 25
وَخَلَقۡنَٰكُمۡ أَزۡوَٰجٗا 7
(8) और तुम्हें (मर्दो और औरतों के) जोड़ों के रूप में पैदा किया6,
6. इंसान को मर्दो और औरतों के जोड़ों के रूप में पैदा करना अपने अन्दर जो बड़ी हिक्मतें रखता है, उनके विवरण के लिए देखिए टीका सूरा-25 अल-फुरकान, टिप्पणी 69; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 28-30; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 31; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 77; सूरा-43 अज़-जुखरुफ, टिप्पणी 12; सूरा-75 अल-क़ियामा, टिप्पणी 25
وَجَعَلۡنَا نَوۡمَكُمۡ سُبَاتٗا 8
(9) और तुम्हारी नींद को सुकून का साधन बनाया7,
7. इंसान को दुनिया में काम करने योग्य बनाने के लिए अल्लाह ने जिस हिक्मत के साथ उसकी फ़ितरत (प्रकृति) में नींद की एक ऐसी ज़रूरत रख दी है जो हर कुछ घंटों की मेहनत के बाद उसे कुछ घंटे सोने पर विवश कर देती है। इसकी व्याख्या हम सूरा-30, अर-रूम, टिप्पणी 33 में कर चुके हैं।
وَجَعَلۡنَا ٱلنَّهَارَ مَعَاشٗا 10
(11) और दिन को रोज़ी कमाने (जीविका) का समय बनाया8,
8. अर्थात् रात को इस उद्देश्य के लिए अंधेरी बना दिया कि उसमें तुम रौशनी से बचे रहकर अधिक आसानी के साथ नींद का सुकून प्राप्त कर सको, और दिन को इस उद्देश्य से रौशन बनाया कि उसमें तुम अधिक आसानी के साथ अपनी रोज़ी के लिए काम कर सको। यह प्रबन्ध स्वयं इस बात की गवाही दे रहा है कि यह किसी हिक्मतवाले (तत्त्वदर्शी) की हिक्मत के बिना नहीं हुआ है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए : टीका सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 65; सूरा-36 या सीन, टिप्पणी 32; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 85; सूरा-43 अज़-जुखरुफ़, टिप्पणी 4)
وَبَنَيۡنَا فَوۡقَكُمۡ سَبۡعٗا شِدَادٗا 11
(12) और तुम्हारे ऊपर सात मज़बूत आसमान क़ायम किए9,
9. मज़बूत का शब्द इस अर्थ में इस्तेमाल किया गया है कि उनकी सीमाएँ इतनी मजबूत हैं कि उनमें तनिक भी परिवर्तन नहीं होता और इन सीमाओं को पार करके ऊपर की दुनिया के अनगिनत सितारों और ग्रहों में से कोई न एक दूसरे से टकराता है, न तुम्हारी ज़मीन पर आ गिरता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-2 अल बक़रा, टिप्पणी 34; सूरा-13 अर-रअद, टिप्पणी 2; सूरा-15 अल-हिज्र, टिप्पणी 8,12; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 15; सूरा-31 लुकमान, टिप्पणी 13; सूरा-36 या सीन, टिप्पणी 37; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, टिप्पणी 5-6; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 90; सूरा-50 क़ाफ़, टिप्पणी 7-8)
وَجَعَلۡنَا سِرَاجٗا وَهَّاجٗا 12
(13) और एक बहुत ही रौशन और गर्म चिराग़ पैदा किया10,
10. तात्पर्य है सूरज । मूल अरबी में शब्द 'वहहाज' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ बहुत ज़्यादा गर्म के भी है और बहुत ज़्यादा रौशन के भी। इसलिए अनुवाद में हमने दोनों अर्थ दे दिए हैं। इस संक्षिप्त वाक्य में अल्लाह की सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता के जिस विशाल चिह्न की ओर संकेत किया गया है, उसका व्यास धरती के व्यास से 109 गुना और उसका घनत्व धरती के घनत्व से तीन लाख, तैंतीस हज़ार गुना ज़्यादा बड़ा है। इसका तापमान एक करोड़, चालीस लाख डिग्री सेंटीग्रेड ("C) है। यह अल्लाह ही की हिक्मत है कि उसने धरती को उससे ठीक ऐसी दूरी पर रखा है कि न उसके बहुत क़रीब होने की वजह से यह बहुत ज़्यादा गर्म है और न बहुत दूर होने की वजह से बहुत ज़्यादा ठंडी। इसी कारण यहाँ इंसान, पशु और वनस्पति की जिंदगी सम्भव हुई है। उसी से शक्ति के अपार भण्डार निकलकर धरती पर पहुंच रहे हैं जो हमारे लिए जीवन का साधन बने हुए हैं।
لِّنُخۡرِجَ بِهِۦ حَبّٗا وَنَبَاتٗا 14
(15-16) ताकि उसके जरीए से अन्न, सब्जी और घने बाग़ उगाएँ?11
11. धरती पर बारिश के प्रबन्ध और वनस्पतियों के उगने-बढ़ने और फलदार बनने में अल्लाह के सामर्थ्य और हिक्मत की जो-जो आश्चर्यजनक बातें काम कर रही हैं, उनपर विस्तार के साथ निम्न जगहों पर रौशनी डाली गई है, टीका सूरा-16, अन नल, टिप्पणी 53अ; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 17; सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 5; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 35; सूरा-35 अल-फ़ातिर, टिप्पणी 19; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 29; सूरा-40 मोमिन, टिप्पणी 20; सूरा-43 जुख़रुफ़, टिप्पणी 10-11; सूरा-56 अल-वाक़िआ, टिप्पणी 28-30। इन आयतों में निरंतर बहुत-से चिह्न और गवाहियाँ प्रस्तुत करके क़ियामत और आख़िरत के इनकारियों को यह बताया गया है कि अगर तुम आँखें खोलकर इन सारी चीज़ों को देखो तो तुम्हें दो बातें इनमें स्पष्ट दिखाई देंगी, एक यह कि यह सब कुछ एक ज़बरदस्त कुदरत के बिना न अस्तित्व में आ सकता है, न ही इतने नियमित रूप से जारी रह सकता है। दूसरे यह कि इनमें से हर चीज़ के अन्दर एक महान हिक्मत काम कर रही है और कोई काम भी बेमक़सद नहीं हो रहा है। अब यह बात केवल एक मूर्ख ही कह सकता है कि जो शक्ति इन सारी चीज़ों को अस्तित्त्व में लाने पर समर्थ है, वह उन्हें फ़ना कर देने और दोबारा किसी और शक्ल में पैदा कर देने पर समर्थ नहीं है। और यह बात भी केवल एक बुद्धिहीन ही कह सकता है कि जिस हिक्मतवाले (तत्त्वदर्शी) ने इस सृष्टि में कोई काम भी बेमक़सद नहीं किया है उसने अपनी दुनिया में इंसान को समझ-बूझ, भलाई-बुराई का अन्तर, आज्ञापालन और अवज्ञा की स्वतंत्रता और अपनी पैदा की हुई अनगिनत चीज़ों पर उपयोग के अधिकार बिना किसी उद्देश्य के हो दे डाले हैं। इंसान उसकी दी हुई इन चीजों को अच्छी तरह इस्तेमाल करे या बुरी तरह, दोनों स्थितियों में इसका कोई परिणाम नहीं निकलता। मरने के बाद की जिंदगी और क़ियामत और आख़िरत के यही प्रमाण हैं जो जगह-जगह क़ुरआन मजीद में बयान किए गए हैं। उदाहरण के रूप में देखें टीका सूरा-13 अर रअद, टिप्पणी 7; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 9; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 6; सूरा-34 सबा, टिप्पणी 10, 12; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, टिप्पणी 8-9 ।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِ فَتَأۡتُونَ أَفۡوَاجٗا 17
(18) जिस दिन सूर (नरसिंघा) में फूंक मार दी जाएगी, तुम समूह के समूह निकल आओगे12।
12. इससे मुराद सूर (नरसिंघा) का वह आखिरी बार फूंका जाना है जिसकी आवाज़ बुलंद होते ही तमाम मरे हुए इंसान यकायक जी उठेंगे और तुमसे मुराद सिर्फ वही लोग नहीं हैं जो उस समय सामने थे, बल्कि वे तमाम इंसान हैं जो शुरू दिन से क़ियामत तक पैदा हुए हों। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 57; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 1; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 46-47; सूरा-39 अज़-जुमर, टिप्पणी 79)
وَسُيِّرَتِ ٱلۡجِبَالُ فَكَانَتۡ سَرَابًا 19
(20) और पहाड़ चलाए जाएँगे, यहाँ तक कि वे सराब (मरीचिका) हो जाएंगे।13
13. यहाँ यह बात सामने रहनी चाहिए कि यहाँ भी क़ुरआन की दूसरी बहुत-सी जगहों की तरह क़ियामत के विभिन्न चरणों का उल्लेख एक साथ किया गया है। पहली आयत में उस स्थिति का उल्लेख है जो सूर के आख़िरी बार फूंके जाने के समय सामने आएगी और बाद की दो आयतों में वह स्थिति बयान की गई है जो सूर के दूसरी बार फूंके जाने पर सामने आएगी। इसकी व्याख्या हम टीका सूरा-69 अल-हाक्का, टिप्पणी 10 में कर चुके हैं। आसमान खोल दिया जाएगा' से मुराद यह है कि ऊपरी जगत् में कोई बन्धन और रुकावट बाक़ी न रहेगी और हर ओर से हर आसमानी आफ़त इस तरह टूटी पड़ रही होगी कि मालूम होगा मानो उसके आने के लिए सारे दरवाजे खुले हैं और उसको रोकने के लिए कोई दरवाज़ा भी बन्द नहीं रहा है। पहाड़ों के चलने और 'सराब' (मरीचिका) बनकर रह जाने का अर्थ यह है कि देखते-देखते पहाड़ अपनी जगह से उखड़कर उड़ेंगे और फिर रेज़ा-रेज़ा होकर इस तरह फैल जाएँगे कि जहाँ पहले कभी पहाड़ थे, वहाँ रेत के फैले मैदानों के सिवा और कुछ न होगा [और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता-हा की] आयतें 105-107 टिप्पणी 83 सहित)।
إِنَّ جَهَنَّمَ كَانَتۡ مِرۡصَادٗا 20
(21) वास्तव में जहन्नम एक घात है14,
14. घात उस जगह को कहते हैं जो शिकार को फाँसने के लिए बनाई जाती है ताकि वह बे-ख़बरी की हालत में आए और अचानक उसमें फँस जाए । जहन्नम के लिए यह शब्द इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि अल्लाह के बागी उससे निडर होकर दुनिया में यह समझते हुए उछल-कूद करते फिर रहे हैं कि ख़ुदा का जगत् उनके लिए एक खुली आमाजगाह (स्पर्धा-स्थल) है और यहाँ किसी पकड़ का ख़तरा नहीं है, लेकिन जहन्नम उनके लिए एक ऐसी छिपी हुई घात है जिसमें वे सहसा फँसेंगे और बस फँसकर ही रह जाएँगे।
إِلَّا حَمِيمٗا وَغَسَّاقٗا 24
(25) कुछ मिलेगा तो बस गर्म पानी और घावों का धोवन16,
16. मूल अरबी में शब्द 'ग़स्साक़' प्रयुक्त हुआ है जो पीप, लहू, कचलहू और आँखों और खालों से बहनेवाले उन तमाम द्रव्यों के लिए बोला जाता है जो कठोर यातनाओं के कारण बह निकलते हों। इसके अलावा यह शब्द ऐसी चीज़ के लिए भी बोला जाता है जिसमें सख़्त बदबू और दुर्गन्ध हो।
وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ كِتَٰبٗا 28
(29) और हाल यह था कि हमने हर चीज़ गिन-गिनकर लिख रखी थी।18
18. अर्थात् उनकी बातों, उनके कामों, उनकी हरकतों, यहाँ तक कि उनकी नीयतों, विचारों और उद्देश्यों तक का पूर्ण रिकार्ड हम तैयार करते जा रहे थे जिससे कोई चीज़ छूटी हुई न थी।
إِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ مَفَازًا 30
(31) निश्चय ही डर रखनेवालों19 के लिए सफलता की एक जगह है,
19. यहाँ 'डर रखनेवालों' के शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त किए गए हैं जो किसी हिसाब की आशा न रखते थे और जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया था, इसलिए निश्चित रूप से इन शब्दों से मुराद वे लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की आयतों को माना और दुनिया में यह समझते हुए जिंदगी गुज़ारी कि उन्हें अपने कामों का हिसाब देना है।
وَكَوَاعِبَ أَتۡرَابٗا 32
(33) और नवयौवना हमउम्र लड़कियाँ20,
20. इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि वे आपस में हमउम्र होंगी और यह भी कि वे उन लोगों की हमउम्र होंगी जिनकी उन्हें पत्नी बनाया जाएगा। सूरा-38 सॉद, आयत 52 और सूरा-56 अल-वाकिआ, आयत 37 में भी यह विषय आ चुका है।
لَّا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا كِذَّٰبٗا 34
(35) वहाँ कोई बेहूदा और झूठी बात वे न सुनेंगे।21
21. क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर इस बात को जन्नत की बड़ी नेमतों में गिना गया है कि आदमी के कान वहाँ बेहूदा, झूठी और गन्दी बातें सुनने से बचे रहेंगे (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-19 मरयम, टिप्पणी 38; सूरा-56 अल-वाक़िआ, टिप्पणी 13-14)
جَزَآءٗ مِّن رَّبِّكَ عَطَآءً حِسَابٗا 35
(36) बदला और काफ़ी इनाम22 तुम्हारे रब की ओर से, उस बड़े ही मेहरबान ख़ुदा की ओर से
22. 'बदला' के बाद काफ़ी इनाम' देने का उल्लेख यह अर्थ रखता है कि उनको सिर्फ वही बदला नहीं दिया जाएगा जिसके वे अपने नेक कामों के आधार पर हक़दार होंगे, बल्कि इसपर और अधिक इनाम और काफ़ी इनाम भी उन्हें दिया जाएगा। इसके विपरीत जहन्नमवालों के बारे में केवल इतना फ़रमाया गया है कि उन्हें उनकी करतूतों का भरपूर बदला दे दिया जाएगा, अर्थात् न उनके अपराधों से कम सज़ा दी जाएगी, न उससे अधिक। यह बात कुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर खोलकर बयान की गई है। जैसे सूरा-10 यूनुस, आयतें 26-27; सूरा-27 अन-नम्ल, आयतें 89-90; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 84; सूरा-34 सवा आयतें 33-383; सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 40
رَّبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا ٱلرَّحۡمَٰنِۖ لَا يَمۡلِكُونَ مِنۡهُ خِطَابٗا 36
(37) जो ज़मीन और आसमानों का और उनके बीच की हर चीज़ का मालिक है, जिसके सामने किसी को बोलने की हिम्मत और ताक़त नहीं।23
23. अर्थात् हश्र के मैदान में अल्लाह के दरबार के रौब का यह हाल होगा कि ज़मीनवाले हों या आसमानवाले, किसी की भी यह मजाल न होगी कि ख़ुद से अल्लाह के सामने ज़बान खोल सके या अदालत के काम में दख़ल दे सके।
يَوۡمَ يَقُومُ ٱلرُّوحُ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ صَفّٗاۖ لَّا يَتَكَلَّمُونَ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَقَالَ صَوَابٗا 37
(38) जिस दिन रूह24 और फ़रिश्ते सफ़ बाँधे (पंक्तिबद्ध) खड़े होंगे, कोई न बोलेगा, सिवाय उसके जिसे दयावान इजाज़त दे और जो ठीक बात कहे।25
24. इससे मुराद जिबील (अलैहि०) हैं, और उनका जो उच्च स्थान अल्लाह के यहाँ है उसकी वजह से फ़रिश्तों से अलग उनका उल्लेख किया गया है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-70 अल-मआरिज, टिप्पणी 3)
25. बोलने से मुराद शफ़ाअत' (सिफारिश) है, और फ़रमाया गया है कि वह सिर्फ दो शर्तों के साथ सम्भव होगी। एक शर्त यह कि जिस आदमी को जिस गुनाहगार के हक़ में सिफ़ारिश की इजाज़त अल्लाह की ओर से मिलेगी, सिर्फ वही आदमी उसके हक़ में सिफ़ारिश कर सकेगा। दूसरी शर्त यह कि सिफ़ारिश करनेवाला उचित और ठीक बात कहे, अनुचित ढंग की सिफ़ारिश न करे और जिसके मामले में वह सिफ़ारिश कर रहा हो, वह दुनिया में कम से कम सत्य धर्म का क़ायल रहा हो, अर्थात् सिर्फ़ गुनाहगार हो, इंकारी न हो। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 281; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 5; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 106; सूरा-19 मरयम, टिप्पणी 52; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 85-86; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 27; सूरा-34 सबा, टिप्पणी 40-41; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 32; सूरा-43 अज़-जुख़रुफ, टिप्पणी 68; सूरा-53 अन-नज्म, टिप्पणी 21; सूरा-74 अल-मुद्दस्सिर, टिप्पणी 36)
إِنَّآ أَنذَرۡنَٰكُمۡ عَذَابٗا قَرِيبٗا يَوۡمَ يَنظُرُ ٱلۡمَرۡءُ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُ وَيَقُولُ ٱلۡكَافِرُ يَٰلَيۡتَنِي كُنتُ تُرَٰبَۢا 39
(40) हमने तुम लोगों को उस अज़ाब से डरा दिया है जो क़रीब आ लगा है26, जिस दिन आदमी वह सब कुछ देख लेगा जो उसके हाथों ने आगे भेजा है, और इंकार करनेवाला पुकार उठेगा कि काश मैं मिट्टी होता।27
26. बजाहिर तो एक व्यक्ति यह सोच सकता है कि जिन लोगों को सम्बोधित करके यह बात कही गई थी उनको मरे हुए अब 1400 साल (से अधिक) बीत चुके हैं और अब भी यह नहीं कहा जा सकता कि क़ियामत आगे कितने सौ या कितने हज़ार या कितने लाख वर्ष बाद आएगी। फिर यह बात किस अर्थ में कही गई है कि जिस अज़ाब से डराया गया है, वह क़रीब आ लगा है? इसका उत्तर यह है कि इंसान को वक़्त का एहसास सिर्फ़ उसी वक़्त तक रहता है जब तक वह इस दुनिया में स्थान एवं समय की सीमाओं के भीतर शारीरिक रूप से जिंदगी गुज़ार रहा है। मरने के बाद जब केवल रूह (आत्मा) बाक़ी रह जाएगी, वक़्त का एहसास और चेतना वाक़ी न रहेगी, और क़ियामत के दिन जब इंसान दोबारा जिंदा होकर उठेगा उस समय उसे यूँ महसूस होगा कि अभी सोते-सोते उसे किसी ने जगा दिया है। उसको यह एहसास बिलकुल नहीं होगा कि वह हज़ारों साल के बाद दोबारा जिंदा हुआ है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-16 अन-नल, टिप्पणी 26; सूरा-17 बनी-इसराईल, टिप्पणी 56; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 80; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 48)
27. अर्थात् दुनिया में पैदा हो न होता या मरकर मिट्टी में मिल जाता और दोबारा जिंदा होकर उठने की नौबत न आती।