Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ النَّازِعَاتِ

79. अन-नाज़िआत

(मक्का में उतरी, आयतें 46)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'वन-नाज़िआत' (अर्थात् क़सम है उन फ़रिश्तों की जो डूबकर खींचते हैं) से उद्धृत है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि यह सूरा-78 अन-नबा के बाद उतरी है। इसका विषय भी यही बता रहा है कि यह आरम्भिक काल की उतरी हुई सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसका विषय क़ियामत और मौत के बाद की जिंदगी की पुष्टि है और साथ-साथ इस बात की चेतावनी भी कि अल्लाह के रसूल को झुठलाने का अंजाम क्या होता है। वार्ता के आरम्भ ही में मौत के समय जान निकालनेवाले और अल्लाह के आदेश का बिना कुछ देर किए पालन करनेवाले और अल्लाह के आदेशों के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि का प्रबन्ध करनेवाले फ़रिश्तों की क़सम खाकर विश्वास दिलाया गया है कि क़ियामत ज़रूर आएगी और मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी ज़रूर पेश आकर रहेगी, क्योंकि जिन फ़रिश्तों के हाथों आज जान निकाली जाती है, उन्हीं के हाथों दोबारा जान डाली भी जा सकती है और जो फ़रिश्ते आज अल्लाह के आदेश का पालन बिना कुछ देर किए करते और सृष्टि का प्रबन्ध करते हैं, वही फ़रिश्ते कल उसी अल्लाह के आदेश से सृष्टि की यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न भी कर सकते हैं और एक दूसरी व्यवस्था क़ायम भी कर सकते हैं। इसके बाद लोगों को बताया गया है कि यह काम जिसे तुम बिलकुल असम्भव समझते हो, अल्लाह के लिए सिरे से कोई कठिन काम ही नहीं है जिसके लिए किसी बड़ी तैयारी की ज़रूरत हो, बस एक झटका दुनिया की इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देगा और एक दूसरा झटका इसके लिए बिलकुल काफ़ी होगा कि दूसरी दुनिया में यकायक तुम अपने आपको जिंदा मौजूद पाओ।

फिर हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन का क़िस्सा संक्षेप में बयान करके लोगों को सचेत किया गया है कि रसूल को झुठलाने और चालबाज़ियों से उसे हराने की कोशिश का क्या अंजाम फ़िरऔन देख चुका है। उससे शिक्षा प्राप्त करके इस नीति को न छोड़ोगे तो वही अंजाम तुम्हें भी देखना पड़ेगा। इसके बाद आयत 27 से 33 तक आख़िरत और मरने के बाद की ज़िन्दगी के प्रमाणों का उल्लेख किया गया है। आयत 34-41 में यह बताया गया है कि जब आख़िरत होगी तो इंसान के सार्वकालिक और शाश्वत भविष्य का निर्णय इस आधार पर होगा कि किसने दुनिया में बन्दगी की सीमा से आगे बढ़कर अपने रब से बग़ावत की और दुनिया के लाभों और आस्वादनों को मक़सद बना लिया और किसने अपने रब के सामने खड़े होने का भय रखा और कौन मन की अवैध कामनाओं को पूरा करने से बचकर रहा। आख़िर में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि वह क़ियामत आएगी कब? उत्तर में कहा गया है कि उसके समय का ज्ञान अल्लाह के सिवा किसी को नहीं है। रसूल का काम सिर्फ़ सचेत कर देना है कि वह समय आएगा ज़रूर। अब जिसका जी चाहे उसके आने का भय रखकर अपना रवैया ठीक कर ले और जिसका जी चाहे निडर होकर बे-नकेल ऊँट की तरह चलता रहे। जब वह समय आ जाएगा तो वही लोग जो इस दुनिया की ज़िन्दगी पर मर-मिटते थे और इसी को सब कुछ समझते थे, यह महसूस करेंगे कि दुनिया में वे सिर्फ़ घड़ी भर ठहरे थे। उस समय उन्हें मालूम होगा कि इस कुछ दिनों की जिंदगी के लिए उन्होंने किस तरह सदा के लिए अपना भविष्य ख़राब कर लिया।

---------------------

سُورَةُ النَّازِعَاتِ
79. अन-नाज़िआत
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
وَٱلنَّٰزِعَٰتِ غَرۡقٗا
(1) क़सम है उन (फ़रिश्तों) की जो डूबकर खींचते हैं,
وَٱلنَّٰشِطَٰتِ نَشۡطٗا ۝ 1
(2) और धीरे से निकाल ले जाते हैं,
وَٱلسَّٰبِحَٰتِ سَبۡحٗا ۝ 2
(3) और (उन फ़रिश्तों की जो ब्रह्माण्ड में) तेज़ी से तैरते फिरते हैं,
فَٱلسَّٰبِقَٰتِ سَبۡقٗا ۝ 3
(4) फिर (आदेशानुपालन में) अग्रसरता दिखाते हैं,
فَٱلۡمُدَبِّرَٰتِ أَمۡرٗا ۝ 4
(5) फिर (अल्लाह के आदेशानुसार) मामलों का प्रबन्ध चलाते हैं।1
1. बाद का विषय इस बात का प्रमाण जुटाता है कि यह क़सम इस बात पर खाई गई है कि क़ियामत ज़रूर आएगो और तमाम मरे हुए इंसान ज़रूर नए सिरे से जिंदा करके उठाए जाएँगे। 'डूबकर खींचनेवालों और धीरे से निकाल ले जानेवालों' से तात्पर्य वे फ़रिश्ते हैं जो मौत के समय इंसान की जान को उसके शरीर की गहराइयों तक उतरकर और उसकी रग-रग से खींचकर निकालते हैं। 'तेज़ी से तैरते फिरनेवालों' से मुराद वे फ़रिश्ते हैं जो अल्लाह के आदेशों को पूरा करने में इस तरह तेज़ी से गतिशील रहते हैं जैसे कि ब्रह्माण्ड में तैर रहे हों। अग्रसरता दिखाने से मुराद यह है कि अल्लाह के आदेश का इशारा पाते ही उनमें से हर एक उसे पूरा करने के लिए दौड़ पड़ता है। मामलों की व्यवस्था चलानेवालों' से मुराद भी फ़रिश्ते हैं। दूसरे शब्दों में, ये सृष्टि-साम्राज्य के वे कार्यकर्ता हैं जिनके हाथों दुनिया का सारा प्रबन्ध अल्लाह के आदेश के अनुसार चल रहा है। अब यह सवाल पैदा होता है कि क़ियामत के आने और मरने के बाद को जिंदगी पर इन फ़रिश्तों की क़सम किस कारण खाई गई है, जब कि ये स्वयं भी उसी तरह आँखों से ओझल हैं जिस तरह वह चीज़ आँखों से ओझल है जिसके होने पर उनको गवाह के रूप में और प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। हमारे नज़दीक उसका कारण यह है कि अरब के लोग फ़रिश्तों की हस्ती के इंकारी न थे। वे स्वयं इस बात को मानते थे कि मौत के समय इंसान की जान फ़रिश्ते ही निकालते हैं। उनकी यह धारणा भी थी कि फ़रिश्तों की गतिविधि अत्यंत तेज़ है। वे भी मानते थे कि ये फ़रिश्ते अल्लाह के आदेश के अधीन हैं और सृष्टि का प्रबन्ध अल्लाह ही के आदेश से चलाते हैं, स्वतन्त्र और अपनी मर्जी के मालिक नहीं हैं। अज्ञानता के कारण वे उनको अल्लाह की बेटियाँ ज़रूर कहते थे और उनको उपास्य भी बनाए हुए थे, लेकिन उनकी यह धारणा नहीं थी कि मूल अधिकार उन्हीं के हाथों में हैं, इसलिए यहाँ क़ियामत के आने और मरने के बाद की जिंदगी पर उनके उपर्युक्त गुणों से प्रमाण इस आधार पर लाया गया है कि जिस अल्लाह के आदेश से फ़रिश्ते ही तुम्हारी जान निकालते हैं उसी के आदेश से, जब भी उसका आदेश हो, इस सृष्टि को वे अस्त-व्यस्त भी कर सकते हैं और एक दूसरी दुनिया बना भी सकते हैं। (वैसे इसका सही ज्ञान तो अल्लाह ही को है।)
يَوۡمَ تَرۡجُفُ ٱلرَّاجِفَةُ ۝ 5
(6) जिस दिन हिला मारेगा भूकम्प का झटका,
تَتۡبَعُهَا ٱلرَّادِفَةُ ۝ 6
(7) और उसके पीछे एक और झटका पड़ेगा,2
2. पहले झटके से मुराद वह झटका है जो ज़मीन और उसकी हर चीज़ को नष्ट कर देगा और दूसरे झटके से मुराद वह झटका है जिसके बाद तमाम मुर्दे जिंदा होकर ज़मीन से निकल आएँगे। [(देखिए सूरा-39 अज़-जुमर, आयत 68)]
قُلُوبٞ يَوۡمَئِذٖ وَاجِفَةٌ ۝ 7
(8) कुछ दिल होंगे जो उस दिन डर से काँप रहे होंगे,3
3. 'कुछ दिल' के शब्द इसलिए प्रयुक्त किए गए हैं कि क़ुरआन मजीद के अनुसार सिर्फ विधर्मियों, कुकर्मियों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) ही पर क़ियामत के दिन भय छाया होगा। सदाचारी ईमानवाले उस भय से बचे होंगे। [(देखिए: सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 103)]
أَبۡصَٰرُهَا خَٰشِعَةٞ ۝ 8
(9) निगाहें उनकी सहमी हुई होंगी।
يَقُولُونَ أَءِنَّا لَمَرۡدُودُونَ فِي ٱلۡحَافِرَةِ ۝ 9
(10) ये लोग कहते हैं, "क्या वास्तव में हम पलटाकर फिर वापस लाए जाएँगे?
أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا نَّخِرَةٗ ۝ 10
(11) क्या जब हम खोखली सड़ी-गली हड्डियाँ बन चुके होंगे?"
قَالُواْ تِلۡكَ إِذٗا كَرَّةٌ خَاسِرَةٞ ۝ 11
(12) कहने लगे, “यह वापसी तो फिर बड़े घाटे की होगी।"4
4. अर्थात् जब उनको उत्तर दिया गया कि हाँ, ऐसा ही होगा, तो वे मज़ाक़ के रूप में आपस में एक-दूसरे से कहने लगे कि यारो, अगर सच में हमें पलटकर दोबारा जिंदगी की हालत में वापस आना पड़ा तब तो हम मारे गए, इसके बाद तो फिर हमारी ख़ैर नहीं है।
فَإِنَّمَا هِيَ زَجۡرَةٞ وَٰحِدَةٞ ۝ 12
(13) हालाँकि यह बस इतना काम है कि एक ज़ोर की डाँट पड़ेगी
فَإِذَا هُم بِٱلسَّاهِرَةِ ۝ 13
(14) और अचानक ये खुले मैदान में मौजूद होंगे।5
5. अर्थात् ये लोग इसे एक असम्भव कार्य समझकर उसकी हँसी उड़ा रहे हैं, हालाँकि अल्लाह के लिए यह कोई कठिन काम नहीं है। इसके लिए सिर्फ एक डाँट या झिड़की काफ़ी है, जिसके साथ ही तुम्हारी मिट्टी या राख, चाहे कहीं पड़ी हो, हर ओर से सिमटकर एक जगह जमा हो जाएगी और तुम यकायक अपने आपको ज़मीन की पीठ पर जिंदा मौजूद पाओगे।
هَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ مُوسَىٰٓ ۝ 14
(15) क्या6 तुम्हें मूसा के क़िस्से की ख़बर पहुँची है?
6. चूँकि मक्का के इस्लाम विरोधियों का क़ियामत और आख़िरत को न मानना और उसका मज़ाक़ उड़ाना वास्तव में किसी दर्शन का खंडन करना नहीं था, बल्कि अल्लाह के रसूल को झुठलाना था, इसलिए आख़िरत के आने की और अधिक दलीलें देने से पहले उनको हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन का किस्सा सुनाया जा रहा है ताकि वे सचेत हो जाएँ कि रसूल से टकराने और रसूल को भेजनेवाले ख़ुदा के मुक़ाबले में सर उठाने का अंजाम क्या होता है।
إِذۡ نَادَىٰهُ رَبُّهُۥ بِٱلۡوَادِ ٱلۡمُقَدَّسِ طُوًى ۝ 15
(16) जब उसके रब ने उसे तुवा की पवित्र घाटी7 में पुकारा था
7. 'तुवा की पवित्र घाटी' का अर्थ सामान्य रूप से टीकाकारों ने यह बयान किया है कि 'वह पवित्र घाटी जिसका नाम तुवा था, लेकिन इसके अलावा इसके दो अर्थ और भी बयान किए गए हैं। एक यह कि वह घाटी जिसे दो बार पवित्रता प्रदान की गई' क्योंकि एक बार उसे उस वक़्त पवित्रता प्रदान की गई जब पहली बार अल्लाह ने वहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को सम्बोधित किया और दूसरी बार उसे पवित्रता का सौभाग्य उस समय प्रदान किया गया जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मिस्र से बनी इसराईल को निकालकर इस घाटी में लाए। दूसरे यह कि रात के समय पवित्र घाटी में पुकारा' अरबी मुहावरा है। 'जा-अ बअ्-द तुवा' अर्थात फ़्ला आदमी मेरे पास रात का कुछ हिस्सा बीतने के बाद आया।
ٱذۡهَبۡ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 16
(17) कि "फ़िरऔन के पास जा, वह सरकश (उइंड) हो गया है
فَقُلۡ هَل لَّكَ إِلَىٰٓ أَن تَزَكَّىٰ ۝ 17
(18) और उससे कह कि क्या तू इसके लिए तैयार है कि पवित्रता अपनाए
وَأَهۡدِيَكَ إِلَىٰ رَبِّكَ فَتَخۡشَىٰ ۝ 18
(19) और मैं तेरे रब की ओर तेरा मार्गदर्शन करूँ तो (उसका) डर तेरे भीतर पैदा हो?"8
8. यहाँ कुछ बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए- (1) हज़रत मूसा को पैग़म्बरी के पद पर नियुक्त करते समय जो बातें उनके और अल्लाह के बीच हुई थीं, [यहाँ मौके की दृष्टि से] उनका केवल सार बयान किया गया है। सूरा-20 ता-हा, आयत 9-483; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 10-17; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 7-12 और सूरा-28 अल-क़सस, आयत 29-35 में इनका विवरण प्रस्तुत किया गया है। (2) फ़िरऔन की जिस सरकशी का उल्लेख किया गया है, उससे मुराद बन्दगी की सीमा से आगे बढ़कर स्रष्टा और सृष्टि, दोनों के मुकाबले में सरकशी करना है। (3) हज़रत मूसा (अलैहि०) को आदेश दिया गया था कि 'तुम और हारून, दोनों भाई उससे नर्मी के साथ बात करना, शायद कि वह नसीहतें क़बूल करे और अल्लाह से डरे' (सूरा-20 ता-हा, आयत-44) । इस नर्म बात का एक नमूना तो इन आयतों में दिया गया है। दूसरे नमूने सूरा-20 ता-हा, आयत 49-52; सूरा-26 अश-शुअरा आयत 23-28 और सूरा-28 अल-क़सस, आयत 37 में दिए गए हैं। ये क़ुरआन की उन आयतों में से हैं जिनमें अल्लाह ने धर्म-प्रचार के लिए समझ-बूझ की शिक्षा दी है। (4) हज़रत मूसा (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजे जाने का पहला मकसद फ़िरऔन और उसकी क़ौम को सीधा रास्ता दिखाना था और दूसरा मकसद यह था कि अगर वह सीधा रास्ता क़बूल न करे तो बनी इसराईल को (जो वास्तव में एक मुसलमान क़ौम थे) उसकी ग़ुलामी से छुड़ाकर मिस्र से निकाल लाएँ। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 74) (5) यहाँ पवित्रता अपनाने का अर्थ अकीदे और चरित्र और कर्म की पवित्रता अपनाना या दूसरे शब्दों में इस्लाम क़बूल कर लेना है। (6) यह कहना कि 'मैं तेरे रब की ओर तेरा मार्गदर्शन करूँ तो (उसका) डर तेरे दिल में पैदा हो, इसका अर्थ यह है कि जब तू अपने रब को पहचान लेगा और तुझे मालूम हो जाएगा कि तू उसका बन्दा है, स्वतंत्र व्यक्ति नहीं है, तो अवश्य ही तेरे मन में उसका भय पैदा होगा, और अल्लाह का डर ही वह चीज़ है जिसपर दुनिया में आदमी का सही रवैया निर्भर करता है।
فَأَرَىٰهُ ٱلۡأٓيَةَ ٱلۡكُبۡرَىٰ ۝ 19
(20) फिर मूसा ने (फ़िरऔन के पास जाकर) उसको बड़ी निशानी9 दिखाई,
9. बड़ी निशानी से मुराद असा (लाठी) का अज़दहा (अजगर) बन जाना है, जिसका उल्लेख कुरआन मजीद में बहुत सी जगहों पर हुआ है। यह इस बात की खुली निशानी थी कि सारे जगत् का स्वामी अल्लाह ही है जिसकी ओर से हज़रत मूसा (अलैहि०) भेजे गए हैं।
فَكَذَّبَ وَعَصَىٰ ۝ 20
(21) मगर उसने झुठला दिया और न माना,
ثُمَّ أَدۡبَرَ يَسۡعَىٰ ۝ 21
(22) फिर चालबाज़ियाँ करने के लिए पलटा10
10. इसका विस्तृत विवरण दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में यह बताया गया है कि उसने पूरे मिस्र से माहिर जादूगरों को बुलवाया और एक जनसभा में उनसे लाठियों और रस्सियों के अज़दहे' बनवाकर दिखाए, ताकि लोगों को विश्वास हो जाए कि मूसा (अलैहि०) कोई नबी नहीं, बल्कि एक जादूगर हैं और लाठी का अज़दहा बनाने का जो करिश्मा उन्होंने दिखाया है वह दूसरे जादूगर भी दिखा सकते हैं। लेकिन उसकी यह चाल उलटी पड़ी और जादूगरों ने हार मानकर ख़ुद मान लिया कि मूसा (अलैहि०) ने जो कुछ दिखाया है, वह जादू नहीं, बल्कि मोजज़ा है।
فَحَشَرَ فَنَادَىٰ ۝ 22
(23, 24) और लोगों को जमा करके उसने पुकारकर कहा, "मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूँ।''11
11. फ़िरऔन का यह दावा कई जगहों पर कुरआन मजीद में बयान किया गया है। (देखिए सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 29; सूरा-28 अल-क़सस, आयत-38) इस दावे से फ़िरऔन का यह अभिप्राय न था और न ही हो सकता था कि वही सृष्टि का रचयिता है । यह अभिप्राय भी न था कि वह अल्लाह की हस्ती का इंकारी और स्वयं रब्बुल आलमीन होने का दावेदार था। यह अभिप्राय भी न था कि वह सिर्फ़ अपने आप को धार्मिक अर्थों में लोगों का आराध्य करार देता था। कुरआन मजीद ही में इस बात की गवाही मौजूद है कि जहाँ तक धर्म का ताल्लुक है, वह खुद दूसरे उपास्यों की पूजा करता था। (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 127) और कुरआन में फ़िरऔन का यह कथन भी नक़ल किया गया है कि अगर मूसा अल्लाह का भेजा हुआ होता तो क्यों न उसपर सोने के कंगन उतारे गए ? या उसके साथ फ़रिश्ते उसकी अरदली में क्यों न आए ? (सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़, आयत 53) अतएव वास्तव में वह धार्मिक अर्थ में नहीं, बल्कि राजनीतिक अर्थ में अपने आपको 'इलाह' (उपास्य) और 'महान प्रभु' कहता था, अर्थात् उसका अभिप्राय यह था कि सम्प्रभुत्व का हक़दार मैं ही हूँ, मेरे सिवा किसी को मेरे राज्य में आदेश चलाने का अधिकार नहीं है और मुझसे ऊँची कोई शक्ति नहीं है, जिसका फ़रमान यहाँ जारी हो सकता हो। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 85; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 21; सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 24-26; सूरा-28 अल-कसस, टिप्पणी 52-53; सूरा-43 अज़-जुखरुफ़, टिप्पणी 49)
فَقَالَ أَنَا۠ رَبُّكُمُ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 23
0
فَأَخَذَهُ ٱللَّهُ نَكَالَ ٱلۡأٓخِرَةِ وَٱلۡأُولَىٰٓ ۝ 24
(25) आखिरकार अल्लाह ने उसे आख़िरत और दुनिया के अज़ाब में पकड़ लिया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّمَن يَخۡشَىٰٓ ۝ 25
(26) वास्तव में इसमें बड़ी शिक्षा है हर उस व्यक्ति के लिए जो डरे।12
12. अर्थात् अल्लाह के रसूल को झुठलाने के उस अंजाम से डरे जो फ़िरऔन देख चुका है।
ءَأَنتُمۡ أَشَدُّ خَلۡقًا أَمِ ٱلسَّمَآءُۚ بَنَىٰهَا ۝ 26
(27) क्या13 तुम लोगों को पैदा करना अधिक कठिन काम है या आसमान को?14 अल्लाह ने उसको बनाया,
13. अब इस बात के प्रमाण दिए जा रहे हैं कि क़ियामत और मौत के बाद की ज़िदगी का होना संभव है और बुद्धि की भी मांग है।
14. पैदा करने से मुराद इंसानों का दोबारा पैदा करना है और आसमान से मुराद वह पूरा ऊपरी जगत् है जिसमें अनगिनत सितारे और ग्रह (सय्यारे), अपार सौरमंडल और असंख्य आकाश-गंगाएँ पाई जाती हैं। अभिप्राय यह है कि तुम जो मौत के बाद दोबारा जिंदा किए जाने को कोई बड़ा ही कठिन कार्य समझते हो, कभी इस बात पर भी विचार करते हो कि इस महान सृष्टि का बनाना अधिक कठिन कार्य है या तुम्हें एक बार पैदा कर चुकने के बाद दोबारा इसी रूप में पैदा कर देना? जिस अल्लाह के लिए वह कोई कठिन काम न था, उसके लिए आख़िर यह क्यों इतना कठिन काम है कि वह इसपर समर्थ न हो सके? मरने के बाद की जिंदगी पर यही प्रमाण कुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर दिया गया है।
رَفَعَ سَمۡكَهَا فَسَوَّىٰهَا ۝ 27
(28) उसकी छत खूब ऊँची उठाई, फिर उसका सन्तुलन स्थापित किया
وَأَغۡطَشَ لَيۡلَهَا وَأَخۡرَجَ ضُحَىٰهَا ۝ 28
(29) और उसकी रात ढाँकी और उसका दिन निकाला।15
15. रात और दिन को आसमान से संबद्ध किया गया है क्योंकि आसमान का सूरज डूबने से ही रात आती है और उसी के उगने से दिन निकलता है।
وَٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ دَحَىٰهَآ ۝ 29
(30) इसके बाद ज़मीन को उसने बिछाया,16
16. 'इसके बाद ज़मीन को बिछाने' का अर्थ यह नहीं है कि आसमान को पैदा करने के बाद अल्लाह ने ज़मीन पैदा की, बल्कि यह एक विशेष वर्णनशैली है। इससे मुराद दो बातों के बीच घटनात्मक क्रम को बताना नहीं होता कि पहले यह बात हुई और इसके बाद दूसरी बात, बल्कि अभिप्राय एक बात के बाद दूसरी बात की ओर ध्यान आकृष्ट कराना होता है, यद्यपि दोनों एक साथ पाई जाती हों। इस वार्ताशैली के अनेक उदाहरण स्वयं क़ुरआन में मौजूद हैं। जैसे सूरा-68 अल-क़लम, आयत 13 में फ़रमाया- 'अत्याचारी है और इन सब दोषों के साथ अधम है।' इसका यह अर्थ नहीं है कि पहले वह अत्याचारी बना और उसके बाद अधम हुआ। बल्कि अर्थ यह है कि वह आदमी अत्याचारी है और उसपर और अधिक यह कि अधम भी है। इस जगह से यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि क़ुरआन में कहीं ज़मीन की पैदाइश का उल्लेख पहले किया गया है और आसमानों की पैदाइश का उल्लेख बाद में, जैसे सूरा-2 बक़रा, आयत 29 में है, और किसी जगह आसमान की पैदाइश का उल्लेख पहले और ज़मीन की पैदाइश होने का उल्लेख बाद में किया गया है, जैसे इन आयतों में हम देख रहे हैं। यह वास्तव में कोई विरोधाभास नहीं हैं। इन जगहों में से किसी जगह भी वार्ता का अभिप्राय यह बताना नहीं है कि किसे पहले बनाया गया और किसे बाद में, बल्कि जहाँ परिस्थितियाँ यह चाहती हैं कि अल्लाह की क़ुदरत के कमालात को नुमाया किया जाए, वहाँ आसमानों का उल्लेख पहले किया गया है और ज़मीन का बाद में, और जहाँ वार्ता-क्रम इस बात का तक़ाज़ा करता है कि लोगों को उन नेमतों का एहसास दिलाया जाए जो उन्हें ज़मीन पर मिल रही हैं, वहाँ आसमान से पहले ज़मीन का उल्लेख किया गया है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा, टिप्पणी 13-14)
أَخۡرَجَ مِنۡهَا مَآءَهَا وَمَرۡعَىٰهَا ۝ 30
(31) उसके अन्दर से उसका पानी और चारा निकाला17
17. चारे से तात्पर्य इस जगह सिर्फ जानवरों का चारा नहीं है, बल्कि वे तमाम पेड़-पौधे हैं जो इंसान और जानवर दोनों के खाने के काम आते हैं।
وَٱلۡجِبَالَ أَرۡسَىٰهَا ۝ 31
(32) और पहाड़ उसमें गाड़ दिए,
مَتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِأَنۡعَٰمِكُمۡ ۝ 32
(33) जिंदगी की सामग्री के रूप में तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के लिए।18
18. इन आयतों में क़ियामत और मरने के बाद की जिंदगी के लिए दो हैसियतों से प्रमाण पेश किया गया है। एक यह कि उस अल्लाह के सामर्थ्य से इनका बरपा करना हरगिज़ परे नहीं है जिसने यह विस्तृत एवं विशाल सृष्टि इस अद्भुत सन्तुलन के साथ और यह ज़मीन इन सामग्रियों के साथ बनाई है। दूसरे यह कि अल्लाह की महान तत्त्वदर्शिता की जो निशानियाँ इस सृष्टि और इस ज़मीन में साफ़-साफ़ नज़र आ रही हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि यहाँ कोई काम निरुद्देश्य नहीं हो रहा है। [और यह वस्तुस्थिति इस बात का खुला प्रमाण है कि आखिरत का होना तत्त्वदर्शिता का खुला तकाज़ा है। जो आदमी इन सारी चीज़ों को देखने के बाद भी यह कहता है कि आखिरत नहीं होगी वह मानो यह कहता है कि यहाँ और सब कुछ तो तत्त्वदर्शिता और पूर्ण सोद्देश्य हो रहा है, मगर ज़मीन पर इंसान को चेतना और अधिकारवाला बनाकर पैदा करना निरुद्देश्य और तत्वदर्शिताहीन है।
فَإِذَا جَآءَتِ ٱلطَّآمَّةُ ٱلۡكُبۡرَىٰ ۝ 33
(34) फिर जब वह बड़ा कोलाहल मचेगा,19
19. इससे मुराद है क़ियामत और इसके लिए मूल में 'अत-ताम्मतुल कुबरा' के शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। 'ताम्मा खुद में किसी ऐसी बड़ी आपदा को कहते हैं जो सबपर छा जाए। इसके बाद इसके लिए कुबरा' का शब्द भी प्रयुक्त किया गया है जिससे अपने आप ही यह स्पष्ट होता है कि इसकी तीव्रता की कल्पना के लिए केवल शब्द ताम्मा काफ़ी नहीं है।
يَوۡمَ يَتَذَكَّرُ ٱلۡإِنسَٰنُ مَا سَعَىٰ ۝ 34
(35) जिस दिन इंसान अपना सब किया-धरा याद करेगा20,
20. अर्थात् जब इंसान देख लेगा कि वही हिसाब-किताब का दिन आ गया है जिसकी उसे दुनिया में सूचना दी जा रही थी, तो इससे पहले कि उसका कर्म-पत्र उसके हाथ में दिया जाए, उसे एक-एक करके अपनी वे सब हरकतें याद आने लगेंगी जो वह दुनिया में करके आया है।
وَبُرِّزَتِ ٱلۡجَحِيمُ لِمَن يَرَىٰ ۝ 35
(36) और हर देखनेवाले के सामने दोज़ख़ खोलकर रख दी जाएगी,
فَأَمَّا مَن طَغَىٰ ۝ 36
(37) तो जिसने सरकशी की थी
وَءَاثَرَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 37
(38) और दुनिया की जिंदगी को प्राथमिकता दी थी,
فَإِنَّ ٱلۡجَحِيمَ هِيَ ٱلۡمَأۡوَىٰ ۝ 38
(39) दोज़ख़ ही उसका ठिकाना होगी।
وَأَمَّا مَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ وَنَهَى ٱلنَّفۡسَ عَنِ ٱلۡهَوَىٰ ۝ 39
(40) और जिसने अपने रब के सामने खड़े होने का भय रखा था और मन को बुरी खाहिशों से बाज़ रखा था,
فَإِنَّ ٱلۡجَنَّةَ هِيَ ٱلۡمَأۡوَىٰ ۝ 40
(41) जन्नत उसका ठिकाना होगी।21
21. यहाँ कुछ थोड़े-से शब्दों में यह बता दिया गया है कि आखिरत में अस्ल फैसला किस चीज़ पर होना है। दुनिया में जिंदगी का एक रवैया यह है कि आदमी बन्दगी की सीमा से आगे बढ़कर अपने अल्लाह के मुक़ाबले में उदंडता दिखाए। दूसरा रवैया यह है कि यहाँ जिंदगी बसर करते हुए आदमी इस बात को सामने रखे कि अन्तत: एक दिन उसे अपने रब के सामने खड़ा होना है, और मन की बुरी ख़ाहिशों को पूरा करने से इसलिए रुका रहे कि अगर यहाँ उसने अपने मन का कहा मानकर कोई अवैध लाभ कमा लिया या कोई अनुचित स्वाद प्राप्त कर लिया तो अपने रब को क्या जवाब देगा। आख़िरत में फ़ैसला इसी बात पर होना है कि इंसान ने इन दोनों में कौन-सा रवैया दुनिया में अपनाया। पहला रवैया अपनाया हो तो उसका स्थाई ठिकाना दोज़ख़ है और दूसरा रवैया अपनाया हो तो उसका स्थाई निवास स्थल जन्नत है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلسَّاعَةِ أَيَّانَ مُرۡسَىٰهَا ۝ 41
(42) ये लोग तुमसे पूछते हैं कि "आख़िर वह घड़ी कब आकर ठहरेगी?"22
22. मक्का के विधर्मी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह प्रश्न बार-बार करते थे, और इससे अभिप्रेत क़ियामत के आने का समय और उसकी तिथि मालूम करना नहीं होता था, बल्कि मज़ाक उड़ाना होता था। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-67 अल-मुल्क, टिप्पणी 35)
فِيمَ أَنتَ مِن ذِكۡرَىٰهَآ ۝ 42
(43) तुम्हारा क्या काम कि उसका समय बताओ।
إِلَىٰ رَبِّكَ مُنتَهَىٰهَآ ۝ 43
(44) उसका ज्ञान तो अल्लाह पर समाप्त है।
إِنَّمَآ أَنتَ مُنذِرُ مَن يَخۡشَىٰهَا ۝ 44
(45) तुम सिर्फ़ सचेत करनेवाले हो हर उस आदमी को जो उसका डर रखे।23
23. इसकी व्याख्या भी हम टीका सूरा-67 अल-मुल्क, टिप्पणी 36 में कर चुके हैं। रहा यह कथन कि तुम हर उस आदमी को सचेत कर देनेवाले हो जो उसका भय करे, तो इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे सचेत करने का लाभ उसी को पहुँचेगा जो उस दिन के आने का भय रखे।
كَأَنَّهُمۡ يَوۡمَ يَرَوۡنَهَا لَمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا عَشِيَّةً أَوۡ ضُحَىٰهَا ۝ 45
(46) जिस दिन ये लोग उसे देख लेंगे तो इन्हें यूँ महसूस होगा कि (दुनिया में या मौत की हालत में) ये बस एक दिन के पिछले पहर या अगले पहर तक ठहरे हैं।24
24. यह विषय इससे पहले कई जगह क़ुरआन मजीद में बयान हुआ है और हम इसकी व्याख्या कर चुके हैं। देखिए टीका सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 53; सूरा-17 बनी-इसराईल, टिप्पणी 56; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 80; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 101; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 81-82; सूरा-36 या सीन, टिप्पणी 48