(मदीना में उतरी – आयतें 75)
परिचय
उतरने का समय
यह सूरा 02 हि० में बद्र की लड़ाई के बाद उतरी है और इसमें इस्लाम और कुफ़्र की इस पहली लड़ाई की सविस्तार समीक्षा की गई है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
इससे पहले कि इस सूरा की समीक्षा की जाए, बद्र की लड़ाई और उससे संबंधित परिस्थतियों पर एक ऐतिहासिक दृष्टि डाल लेनी चाहिए।
नबी (सल्ल०) का सन्देश [मक्का-काल के अंत तक] इस हैसियत से अपनी दृढ़ता और स्थायित्व सिद्ध कर चुका था कि एक ओर इसके पीछे एक श्रेष्ठ आचरणवाला,विशाल हृदय और विवेकशील ध्वजावाहक मौजूद था जिसकी कार्य-विधि से यह तथ्य पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था कि वह इस सन्देश को अति सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए अटल इरादा रखता है, दूसरी ओर इस सन्देश में स्वयं इतना आकर्षण था कि वह हर एक के मन۔मस्तिष्क में अपना स्थान बनाता चला जा रहा था, लेकिन उस समय तक कुछ पहलुओं से इस सन्देश के प्रचार में बहुत कुछ कमी पाई जाती थी-
एक यह कि यह बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुई थी कि उसे ऐसे अनुपालकों की एक बड़ी संख्या मिल गई है जो उसके लिए अपनी हर चीज़ कुर्बान कर देने के लिए और दुनिया भर से लड़ जाने के लिए, यहाँ तक कि अपनी प्रियतम नातेदारियों को भी काट फेंकने के लिए तैयार है। दूसरे यह कि इस सन्देश की आवाज़ यद्यपि समूचे देश में फैल गई थी, लेकिन इसके प्रभाव बिखरे हुए थे, इसे वह सामूहिक शक्ति न प्राप्त हो सकी थी जो पुरानी अज्ञानी-व्यवस्था से निर्णायक मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी थी। तीसरे यह कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह सन्देश क़दम जमाकर अपने पक्ष को सुदृढ़ बना सकता और फिर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता। चौथे यह कि उस समय तक इस सन्देश को व्यावहारिक जीवन के मामलों को अपने हाथ में लेकर चलाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए उन नैतिक सिद्धान्तों का प्रदर्शन नहीं हो सका था जिनपर यह सन्देश जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और चलाना चाहता था।
बाद की घटनाओं ने उन अवसरों को जन्म दिया जिनसे ये चारों कमियाँ पूरी हो गईं।
मक्का-काल के अन्तिम तीन-चार वर्षों से यसरिब (मदीना) में इस्लाम के सूर्य की किरणें बराबर पहुँच रही थीं और वहाँ के लोग कई कारणों से अरब के दूसरे क़बीलों की अपेक्षा अधिक आसानी के साथ उस रौशनी को स्वीकार करते जा रहे थे। अन्तत: पैग़म्बरी के बारहवें वर्ष में हज के मौक़े पर 75 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल नबी (सल्ल०) से रात के अंधेरे में मिला और उसने न केवल यह कि इस्लाम स्वीकार किया, बल्कि आपको और आपके अनुपालकों को अपने नगर में जगह देने पर तत्परता दिखाई। उद्देश्य यह था कि अरब के विभिन्न क़बीलों और भागों में जो मुसलमान बिखरे हुए हैं, वे यसरिब में जमा होकर और यसरिब के मुसलमानों के साथ मिलकर एक सुसंगठित समाज बना लें। इस तरह यसरिब ने वास्तव में अपने आपको 'इस्लाम का शहर' (मदीनतुल इस्लाम) की हैसियत से प्रस्तुत किया और नबी (सल्ल०) ने उसे स्वीकार करके अरब में पहला दारुल इस्लाम (इस्लाम का घर) बना लिया।
इस प्रस्ताव का अर्थ जो भी था, इससे मदीनावासी अनभिज्ञ न थे। इसका खुला अर्थ यह था एक छोटा-सा क़स्बा अपने आपको समूचे देश की तलवारों और आर्थिक व सांस्कृतिक बहिष्कार के मुक़ाबले में प्रस्तुत कर रहा था। दूसरी ओर मक्कावासियों के लिए यह मामला जो अर्थ रखता था, वह भी किसी से छिपा हुआ न था। वास्तव में इस तरह मुहम्मद (सल्ल०) के नेतृत्व में इस्लाम के माननेवाले और उसपर चलनेवाले एक सुसंगठित जत्थे के रूप में एकत्र हुए जा रहे थे। यह पुरानी व्यवस्था के लिए मौत का सन्देश था। साथ ही मदीना जैसे स्थान पर मुसलमानों की इस शक्ति के एकत्र होने से कुरैश को और अधिक ख़तरा यह था कि यमन से सीरिया की ओर जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के तट के किनारे-किनारे जाता था, जिसके सुरक्षित रहने पर क़ुरैश और दूसरे बड़े-बड़े मुशरिक (बहुदेववादी) क़बीलों का आर्थिक जीवन आश्रित था, वह मुसलमानों के निशाने पर आ रहा था और उस समय (जो परिस्थतियाँ थी, उन्हें देखते हुए) मुसलमानों के लिए वास्तव में इसके सिवा कोई रास्ता भी न था कि उस व्यापारिक राजमार्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत करें। चुनांँचे नबी (सल्ल०) ने [मदीना पहुँचने के बाद जल्द ही इस समस्या पर ध्यान दिया और इस सिलसिले में दो महत्त्वपूर्ण उपाय किए : एक यह कि मदीना और लाल सागर के तट के बीच उस राजमार्ग से मिले हुए जो क़बीले आबाद थे उनसे वार्ताएँ आरंभ कर दीं, ताकि वे मैत्रीपूर्ण एकता या कम से कम निरपेक्षता के समझौते कर लें। चुनांँचे इसमें आपको पूरी सफलता मिली। दूसरा उपाय आपने यह किया कि कुरैश के क़ाफ़िलों को धमकी देने के लिए उस राजमार्ग पर लगातार छोटे-छोटे दस्ते भेजने शुरू किए और कुछ दस्तों के साथ आप स्वयं भी तशरीफ़ ले गए। [उधर से मक्कावासी भी मदीना की ओर लूट-पाट करनेवाले दस्ते भेजते रहे ।] परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि शाबान सन् 02 हि० (फ़रवरी या मार्च सन् 623 ई०) में क़ुरैश का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से मक्का वापस आते हुए उस क्षेत्र में पहुँचा जो मदीना के निशाने पर था। चूँकि माल ज़्यादा था, रक्षक कम थे और ख़तरा बड़ा था कि कहीं मुसलमानों का कोई शक्तिशाली दस्ता उसपर छापा न मार दे, इसलिए क़ाफिले के सरदार अबू-सुफियान ने उस ख़तरेवाले क्षेत्र में पहुँचते ही एक व्यक्ति को मदद लाने के लिए मक्का की ओर दौड़ा दिया। उस व्यक्ति की सूचना पर सारे मक्का में खलबली मच गई। क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार लड़ाई के लिए तैयार हो गए। लगभग एक हज़ार योद्धा, जिनमें से छ: सौ कवचधारी थे और सौ घुड़सवार भी, बड़ी धूमधाम से लड़ने के लिए चले। उनके सामने सिर्फ़ यही काम न था कि अपने क़ाफ़िले को बचा लाएँ, बल्कि वे इस इरादे से निकले थे कि उस आए दिन के ख़तरे को सदा के लिए समाप्त कर दें। अब नबी (सल्ल०) ने, जो परिस्थितियों की सदैव ख़बर रखते थे, महसूस किया कि निर्णय का समय आ पहुँचा है। [चुनांँचे भीतर और बाहर की अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद आपने निर्णायक क़दम उठाने का इरादा कर लिया, यह] इरादा करके आपने अंसार और मुहाजिरीन को जमा किया और उनके सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट शब्दों में रख दी कि एक ओर उत्तर में व्यावसायिक क़ाफ़िला है और दूसरी ओर दक्षिण से कुरैश की सेना चली आ रही है। अल्लाह का वादा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किसके मुक़ाबले पर चलना चाहते हो? उत्तर में एक बड़े गिरोह की ओर से यह इच्छा व्यक्त की गई कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए। लेकिन नबी (सल्ल०) के सामने कुछ और था। इसलिए आपने अपना प्रश्न दोहराया। इसपर मुहाजिरों में से मिक़दाद बिन अम्र (रज़ि०) ने [और उनके बाद, नबी (सल्ल०) की ओर से प्रश्न के फिर दोहराए जाने पर, अंसार में से हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) ने उत्साहवर्द्धक भाषण दिए, जिनमें उन्होंने कहा कि] ऐ अल्लाह के रसूल ! जिधर आपका रब आपको हुक्म दे रहा है उसी ओर चलिए, हम आपके साथ हैं। इन भाषणों के बाद निर्णय हो गया कि क़ाफ़िले के बजाय क़ुरैश की सेना के मुक़ाबले पर चलना चाहिए। लेकिन यह निर्णय कोई सामान्य निर्णय न था। जो लोग इस थोड़े समय में लड़ाई के लिए उठे थे उनकी संख्या तीन सौ से कुछ अधिक थी। युद्ध-सामग्री भी अपर्याप्त थी, इसलिए अधिकतर लोग दिलों में सहम रहे थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि जानते-बूझते मौत के मुँह में जा रहे हैं। अवसरवादी (मुनाफ़िक़) इस मुहिम को दीवानापन कह रहे थे। परन्तु नबी (सल्ल०) और सच्चे मुसलमान यह समझ चुके थे कि यह समय जान की बाज़ी लगाने ही का है। इसलिए अल्लाह के भरोसे पर वे निकल खड़े हुए और उन्होंने सीधे दक्षिण-पश्चिम का रास्ता लिया जिधर से क़ुरैश की सेना आ रही थी, हालाँकि अगर आरंभ में क़ाफ़िले को लूटना अभीष्ट होता तो उत्तर-पश्चिम का रास्ता पकड़ा जाता।
17 रमज़ान को बद्र नामक स्थान पर दोनों पक्षों का मुक़ाबला हुआ जिसमें मुसलमानों की ईमानी निष्ठा अल्लाह की ओर से 'सहायता' रूपी पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गई और क़ुरैश अपने पूरे शक्ति-गर्व के बावजूद उन निहत्थे फ़िदाइयों के हाथों पराजित हुए। इस निर्णायक विजय के बाद एक पश्चिमी शोधकर्ता के अनुसार “बद्र के पहले इस्लाम मात्र एक धर्म और राज्य था, मगर बद्र के बाद वह राष्ट्र-धर्म बल्कि स्वयं राष्ट्र बन गया।"
वार्ताएँ
यह है वह महान् युद्ध जिसपर क़ुरआन की इस सूरा में समीक्षा की गई है, मगर इस समीक्षा की शैली उन तमाम समीक्षाओं से भिन्न है जो दुनियादार बादशाह अपनी सेना की विजय के बाद किया करते हैं।
इसमें सबसे पहले उन त्रुटियों को चिह्नित किया गया है जो नैतिक दृष्टि से अभी मुसलमानों में बाक़ी थीं, ताकि भविष्य में उन्हें सुधारने का बराबर यत्न करते रहें।
फिर उन्हें बताया गया है कि इस विजय में ईश-समर्थन एवं सहायता का कितना बड़ा भाग था, ताकि वे अपनी वीरता एवं साहस पर न फूलें, बल्कि अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन की शिक्षा ग्रहण करें।
फिर उस नैतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है जिसके लिए मुसलमानों को सत्य-असत्य का यह संघर्ष करना है और उन नैतिक गुणों को स्पष्ट किया गया है जिनसे इस संघर्ष में उन्हें सफलता मिल सकती है।
फिर मुशरिकों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) और यहूदियों और उन लोगों को जो लड़ाई में कैद होकर आए थे, अति शिक्षाप्रद शैली में सम्बोधित किया गया है।
फिर उन मालों के बारे में, जो लड़ाई में हाथ आए थे, मुसलमानों को निर्देश दिए गए हैं।
फिर युद्ध और संधि के क़ानून के बारे में वे नैतिक आदेश दिए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण इस चरण में इस्लाम के आह्वान के प्रवेश कर जाने के बाद ज़रूरी था।
फिर इस्लामी राज्य के संवैधानिक नियमों की कुछ धाराएँ वर्णित की गई हैं जिनसे दारुल इस्लाम के मुसलमान निवासियों की क़ानूनी हैसियत उन मुसलमानों से अलग कर दी गई है जो दारुल इस्लाम की सीमाओं से बाहर रहते हों।
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