93. अज़-ज़ुहा
(मक्का में उतरी, आयतें 11)
परिचय
नाम
पहले ही शब्द 'वज़-ज़ुहा' (क़सम है रौशन दिन की) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।
उतरने का समय
इसका विषय स्पष्ट रूप से बता रहा है कि यह मक्का के बिल्कुल आरम्भिक काल में उतरी है। हदीस के वर्णनों से भी मालूम होता है कि कुछ मुद्दत तक वह्य (प्रकाशना) उतरने का सिलसिला बन्द रहा था, जिससे नबी (सल्ल०) बड़े परेशान हो गए थे और बार-बार आपको यह आशंका हो रही थी कि कहीं मुझसे कोई ऐसी ग़लती तो नहीं हो गई जिसके कारण मेरा रब मुझसे रूठ गया हो और उसने मुझे छोड़ दिया हो। इसपर आपको विश्वास दिलाया गया कि वह्य के उतरने का सिलसिला किसी रोष के कारण नहीं रोका गया था, बल्कि इसमें वही नीति काम कर रही थी जो रौशन दिन के बाद रात का सुकून छा जाने में काम कर रही होती है, अर्थात् वह्य की तेज़ रौशनी अगर आपपर बराबर पड़ती रहती तो आपके स्नायु उसे सह न पाते। इसलिए बीच में अंतराल दिया गया, ताकि आपको शान्ति मिल जाए। यह स्थिति नबी (सल्ल०) पर नुबूवत के आरम्भिक काल में पैदा होती थी, जबकि अभी आपको वह्य के उतरने की तीव्रता सहने की आदत नहीं पड़ी थी। इस कारण बीच-बीच में अंतराल की ज़रूरत पड़ती थी। बाद में जब नबी (सल्ल०) के अन्दर इस बोझ को सहने की शक्ति पैदा हो गई तो लम्बे अंतराल देने की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही।
विषय और वार्ता
इसका विषय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तसल्ली देना है और उद्देश्य उस परेशानी को दूर करना है जो वह्य उतरने का सिलसिला रुक जाने से आपको हो रही थी। सबसे पहले रौशन दिन और रात के सुकून की क़सम खाकर आपको इत्मीनान दिलाया गया है कि आपके रब ने आपको हरगिज़ नहीं छोड़ा है और न वह आपसे रुष्ट हुआ है। इसके बाद आपको शुभ-सूचना दी गई है कि इस्लामी दावत के शुरू के समय में जिन भारी कठिनाइयों से आपको वास्ता पड़ रहा है, यह थोड़े दिनों की बात है। आपके लिए हर बाद का दौर पहले दौर से बेहतर होता चला जाएगा और कुछ अधिक देर न गुज़रेगी कि अल्लाह आप पर कृपाओं एवं इनामों की ऐसी वर्षा करेगा जिससे आप प्रसन्न हो जाएँगे। यह क़ुरआन की उन खुली भविष्यवाणियों में से एक है जो बाद में अक्षरशः पूरी हुईं। इसके बाद अल्लाह ने अपने प्यारे दोस्त मुहम्मद (सल्ल०) से कहा है कि तुम्हें यह परेशानी कैसे होने लगी कि हमने तुम्हें छोड़ दिया है और हम तुमसे रुष्ट हो गए हैं। हम तो तुम्हारे जन्म के दिन से बराबर तुमपर कृपा करते चले आ रहे हैं। तुम अनाथ पैदा हुए थे, हमने तुम्हारे पालन-पोषण और निगरानी का उत्तम प्रबन्ध कर दिया। तुम रास्ता नहीं जानते थे, हमने तुम्हें रास्ता बताया। तुम धनहीन थे, हमने तुम्हें धनवान बनाया। ये सारी बातें स्पष्ट रूप से कह रही हैं कि तुम आरम्भ ही से हमारे चहेते हो और हमारी कृपा एवं दया स्थायी रूप से तुम्हारे साथ है। अन्त में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को बताया है कि जो उपकार हमने तुमपर किए हैं उनके उत्तर में अल्लाह के बन्दों के साथ तुम्हारा क्या व्यवहार होना चाहिए और हमारी नेमतों के प्रति आभार तुम्हें किस तरह व्यक्त करना चाहिए।
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وَٱلَّيۡلِ إِذَا سَجَىٰ 1
(2) और रात की, जबकि वह सुकून के साथ छा जाए,2
2. वास्तव में रात के लिए शब्द 'सजा' प्रयुक्त हुआ है जिसमें केवल अँधेरा छा जाने ही का नहीं, बल्कि खामोशी और शान्ति छा जाने का अर्थ भी सम्मिलित है। रात की इस विशेषता का उस विषय से गहरा सम्बन्ध है जो आगे बयान हो रहा है।
مَا وَدَّعَكَ رَبُّكَ وَمَا قَلَىٰ 2
(3) (ऐ नबी!) तुम्हारे रब ने तुमको कदापि नहीं छोड़ा और न वह नाराज़ हुआ3।
3. हदीसों के उल्लेखों से मालूम होता है कि कुछ समय तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य का उत्तरना बन्द रहा था। अलग-अलग रिवायतों में यह अवधि अलग-अलग बयान की गई है। इब्ने-जुरैज ने 12 दिन, कलबी ने 15 दिन, इब्ने-अब्बास (रजि०) ने 25 दिन, सुद्दी और मुकातिल ने 40 दिन इसकी अवधि बयान की है। बहरहाल यह अवधि इतनी लम्बी थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) भी इसपर बहुत दुखी हो गए थे और विरोधी भी आपको ताने देने लगे थे कि मुहम्मद (सल्ल०) को उनके रब ने छोड़ दिया है (हदीस : इब्ने-जरीर, तबरानी)। इस स्थिति में नबी (सल्ल०) के फ़ितरी रंज और दुख का हाल भी कई रिवायतों में बयान हुआ है। इन दिनों बार-बार आपको यह सन्देह होता था कि कहीं मुझसे कोई ऐसी ग़लती तो नहीं हो गई है कि मेरा रब मुझसे नाराज़ हो गया हो और उसने मुझे सत्य व असत्य की लड़ाई में अकेला छोड़ दिया हो। इस स्थिति में यह सूरा नबी (सल्ल०) को तसल्ली देने के लिए उतरी। इसमें दिन की रौशनी और रात के सुकून की कसम खाकर नबी (सल्ल०) से फ़रमाया गया है कि जिस तरह दिन का रौशन होना और रात का अँधेरा और सुकून लिए हुए छा जाना कुछ कारण से नहीं होता कि अल्लाह दिन के समय लोगों से प्रसन्न और रात के समय उनसे नाराज हो जाता है, बल्कि ये दोनों हालतें एक बड़ी हिक्मत और नीति के तहत तारी होती हैं। उसी तरह तुमपर कभी वाय भेजना और कभी उसको रोक लेना भी हिक्मत और मस्लहत के आधार पर है न कि अल्लाह की प्रसन्नता और नाराजी के आधार पर] । इसके अलावा दूसरा ताल्लुक इस विषय से इस कसम का यह है कि जिस तरह दिन की रौशनी अगर बराबर आदमी पर फैली रहे तो वह उसे थका दे, इसलिए एक विशेष वक़्त तक दिन को रौशन रहने के बाद रात का आना ज़रूरी है, ताकि उसमें इंसान को सुकून मिले। इसी तरह वह्य की रौशनी अगर तुमपर बराबर पड़ती रहे तो तुम्हारी इद्रियाँ उसको सहन न कर सकेंगी, इसलिए कभी-कभी वह्य न उतरने का समय भी अल्लाह ने युक्ति के आधार पर रखा है ताकि वह्य के उतरने से जो बोझ तुमपर पड़ता है उसका प्रभाव समाप्त हो जाए और तुम्हें सुकून मिल जाए, मानो वह्य के सूरज का निकलना रौशन दिन जैसा है और वह्य के न उतरने का समय रात के सुकून जैसा।
وَلَلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لَّكَ مِنَ ٱلۡأُولَىٰ 3
(4) और निश्चय ही तुम्हारे लिए बाद का दौर पहले दौर से बेहतर है।4
4. यह शुभ-सूचना अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को ऐसी स्थिति में दी थी जबकि प्रत्यक्ष में सफलता के आसार दूर-दूर कहीं नज़र न आते थे। उस समय अल्लाह ने अपने नबी से फ़रमाया कि आरम्भिक काल की कठिनाइयों से आप तनिक परेशान न हों, हर बाद का समय पहले समय से आपके लिए उत्तम सिद्ध होगा। आपकी शक्ति, आपका आदर आपकी शानो-शौकत और आपका मान-सम्मान बराबर बढ़ता चला जाएगा और आपका प्रभाव फैलता चला जाएगा। फिर यह वादा केवल दुनिया तक ही सीमित नहीं है, इसमें यह वादा भी सम्मिलित है कि आख़िरत में जो पद आपको मिलेगा, वह उस पद से भी कहीं बढ़ा हुआ होगा जो दुनिया में आपको प्राप्त होगा।
وَلَسَوۡفَ يُعۡطِيكَ رَبُّكَ فَتَرۡضَىٰٓ 4
(5) और बहुत जल्द तुम्हारा रब तुमको इतना देगा कि तुम प्रसन्न हो जाओगे।5
5. अर्थात् यद्यपि देने में तो कुछ देर लगेगी लेकिन वह समय दूर नहीं है जब तुमपर तुम्हारे रब की देन और बख़्शिश की वह वर्षा होगी कि तुम प्रसन्न हो जाओगे। यह वादा नबी (सल्ल०) के जीवन ही में इस तरह पूरा हुआ कि सारा अरब देश आपके अधीन हो गया और 'ला इला-ह इल्लल्लाह' के बोल से गूँज उठा। लोगों के सिर्फ़ सर ही आज्ञापालन में नहीं झुक गए, बल्कि उनके दिल भी वशीभूत हो गए और अक़ीदे, चरित्र और व्यवहार में एक महान क्रान्ति पैदा हो गई। पूरे मानव-इतिहास में इसकी मिसाल नहीं मिलती कि अज्ञानता में डूबी हुई एक क़ौम सिर्फ 23 साल के अन्दर इतनी बदल गई हो। इसके बाद नबी (सल्ल०) का चलाया हुआ आन्दोलन इस शक्ति के साथ उठा कि एशिया, अफ्रीक़ा और यूरोप के एक बड़े भाग पर वह छा गया और दुनिया के कोने-कोने में उसके प्रभाव फैल गए। यह कुछ तो अल्लाह ने अपने रसूल को दुनिया में दिया, और आख़िरत में जो कुछ देगा उसकी महानता के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 112)
أَلَمۡ يَجِدۡكَ يَتِيمٗا فَـَٔاوَىٰ 5
(6) क्या उसने तुमको अनाथ नहीं पाया और फिर ठिकाना दिया?6
6. अर्थात् तुम्हें छोड़ देने और तुमसे नाराज़ हो जाने का क्या प्रश्न, हम तो उस समय से तुमपर दयावान हैं जब तुम अनाथ पैदा हुए थे। [तुम्हारी माँ ही ने नहीं, बल्कि उनके बाद तुम्हारे दादा ने और फिर तुम्हारे चचा ने भी तुम्हें जिस प्रेम और स्नेह के साथ पाला] कोई बाप भी उससे अधिक नहीं कर सकता।
وَوَجَدَكَ ضَآلّٗا فَهَدَىٰ 6
(7) और तुम्हें रास्ते से अपरिचित पाया और फिर राह दिखाई7।
7. मूल अरबी में 'जाल्लन' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो जलालत' से है। अरबी भाषा में यह शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। इसका एक अर्थ पथभ्रष्टता है, दूसरा यह है कि कोई आदमी रास्ता न जानता हो और एक जगह हैरान खड़ा हो कि अलग-अलग जो रास्ते सामने हैं उनमें से किधर जाऊँ। एक और अर्थ 'खोया हुआ है। उस पेड़ को भी अरबी में जाल्लः' कहते हैं जो वीराने में अकेला खड़ा हो। नष्ट होने के लिए भी जलाल शब्द बोला जाता है। उदाहरण के रूप में कोई चीज़ प्रतिकूल और अप्रिय स्थिति में नष्ट हो रही हो। ग़फ़लत के लिए भी जलाल' का शब्द प्रयुक्त होता है। इन अलग-अलग अर्थों में से पहला अर्थ यहाँ लागू नहीं होता, क्योंकि बचपन से लेकर नबी होने तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की जो दशा इतिहास में मौजूद है उनमें कहीं भी इस बात का संकेत नहीं मिलता कि आप कभी शिर्क, बुतपरस्ती, नास्तिकता आदि के शिकार हुए हों, या अज्ञानता के जो काम, रस्में और तौर-तरीके आपकी क़ौम में पाए जाते थे उनमें से आप किसी के शिकार पाए गए हों। इसलिए अनिवार्य रूप से 'व व ज-द-क' जाल्लन का यह अर्थ तो नहीं हो सकता कि अल्लाह ने आपको अक़ीदे या व्यवहार की दृष्टि से बे-राह पाया था, अलबत्ता शेष अर्थ किसी न किसी रूप में लागू हो सकते हैं, बल्कि हो सकता है कि एक-एक दृष्टि से सभी मुराद हों। नुबूवत से पहले नबी (सल्ल०) अल्लाह की हस्ती और उसके एक होने के क़ायल तो अवश्य थे और आपकी जिंदगी गुनाहों से पाक और चरित्र के ज़ेवर से सुसज्जित भी थी, लेकिन आपको सत्य-धर्म और उसके आदेशों का ज्ञान न था, जैसा कि क़ुरआन में फ़रमाया गया है, "तुम न जानते थे कि किताब क्या होती है और न ईमान की तुम्हें कोई खबर थी" (सूरा-42 अश-शूरा, आयत 52)। यह अर्थ भी इस आयत का हो सकता है कि नबी (सल्ल.) एक अज्ञानी समाज में गुम होकर रह गए थे और एक हादी और मार्गदर्शक होने के रूप में आपका व्यक्तित्त्व नुबूवत से पहले उभर नहीं रहा था। यह अर्थ भी हो सकता है कि अज्ञानता के वीराने में आप एक अकेले पेड़ के रूप में खड़े थे जिसमें फल लाने और एक पूरा बाग़ का बाग़ पैदा कर देने की क्षमता थी, मगर नुबूवत से पहले यह क्षमता काम नहीं आ रही थी। यह तात्पर्य भी हो सकता है कि अल्लाह ने जो आपको असामान्य शक्तियाँ दे रखी थीं, वह अज्ञानता के प्रतिकूल वातावरण में नष्ट हो रही थीं। जलाल' को ग़फ़लत के अर्थ में भी लिया जा सकता है, अर्थात् नुबूवत से पहले आप उन तथ्यों और विद्याओं से अनभिज्ञ थे जिससे नुबूवत के बाद अल्लाह ने आपको अवगत किया। यह बात स्वयं कुरआन में भी एक जगह कही गई है, "और यद्यपि तुम इससे पहले इन बातों से ग़ाफ़िल थे।" (सूरा-12 यूसुफ, आयत 3)
وَوَجَدَكَ عَآئِلٗا فَأَغۡنَىٰ 7
(8) और तुम्हें धनहीन पाया और फिर धनवान बना दिया।8
8. नबी (सल्ल०) के लिए आपके वालिद ने मीरास में केवल एक ऊँटनी और एक लौंडी छोड़ी थी। इस तरह आपकी जिंदगी का आरम्भ ग़रीबी की दशा में हुआ था। फिर एक समय आया कि क़ुरैश की सबसे अधिक मालदार औरत हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने पहले कारोबार में आपको अपने साथ शरीक किया। इसके बाद उन्होंने आप (सल्ल०) से निकाह कर लिया और उनके तमाम व्यावसायिक कार्यों को आप (सल्ल०) ने संभाल लिया। इस तरह न केवल यह कि मालदार हो गए, बल्कि आपका मालदार होना इस प्रकार का न था कि सिर्फ बीवी के माल पर आप निर्भर हों, उनके कारोबार के बढ़ाने में आपकी अपनी मेहनत और योग्यता का बड़ा हिस्सा था।
فَأَمَّا ٱلۡيَتِيمَ فَلَا تَقۡهَرۡ 8
(9) इसलिए यतीम पर सख़्ती न करो9,
9. अर्थात् तुम चूँकि स्वयं यतीम रह चुके हो और अल्लाह ने तुमपर यह कृपा की कि यतीमी की हालत में सर्वोत्तम ढंग से तुम्हारी मदद की, इसलिए उसके प्रति आभार प्रदर्शन यह है कि तुम्हारे हाथ से कभी किसी यतीम पर जुल्म और ज्यादती न होने पाए।
وَأَمَّا ٱلسَّآئِلَ فَلَا تَنۡهَرۡ 9
(10) और मांगनेवालों को न झिड़को10,
10. इसके दो अर्थ हैं। अगर मांगनेवाले' को 'मदद माँगनेवाले' ज़रूरतमंद के अर्थ में लिया जाए तो इसका अर्थ यह है कि उसकी सहायता कर सकते हो तो कर दो, न कर सकते हो तो नर्मी के साथ मना कर दो, मगर बहरहाल उसे झिड़को नहीं। इस अर्थ की दृष्टि से यह मार्गदर्शन अल्लाह के इस उपकार के उत्तर में है कि "तुम धनहीन थे, फिर उसने तुम्हें धनवान कर दिया।" और अगर 'साइल' को पूछनेवाले अर्थात् दीन का कोई मसला या आदेश मालूम करनेवाले के अर्थ में लिया जाए तो इसका अर्थ यह है कि ऐसा व्यक्ति, चाहे कैसा ही अनपढ़ और उजड्ड हो और प्रत्यक्ष में चाहे कितने ही अभद्र ढंग से प्रश्न करे या अपने मन की उलझन पेश करे, बहरहाल सप्रेम उसे जवाब दो और ज्ञान का अहं रखनेवाले चिड़चिड़े स्वभाववाले लोगों की तरह उसे झिड़ककर दूर न भगा दो। इस अर्थ की दृष्टि से यह कथन अल्लाह के इस उपकार के जवाब में है कि "तुम रास्ता नहीं जानते थे, फिर उसने तुम्हें रास्ता दिखाया।" हज़रत अबू दर्दा, हसन बसरी, सुफ़ियान सौरी और कुछ दूसरे बुजुर्गों ने इस दूसरे अर्थ को प्रमुखता दी है, क्योंकि वार्ता-क्रम की दृष्टि से यह कथन "और उसने तुम्हें राह से अपरिचित पाया तो उसने रास्ता दिखाया" के उत्तर में आता है।
وَأَمَّا بِنِعۡمَةِ رَبِّكَ فَحَدِّثۡ 10
(11) और अपने रब की नेमत का प्रदर्शन करो।11
11. 'नेमत' का शब्द आम है जिससे तात्पर्य वे नेमतें भी हैं जो इस सूरा के उतरने के समय तक अल्लाह ने अपने पाक रसूल को अता फ़रमाई थीं और वे नेमतें भी जो बाद में उसने अपने उन वादों के अनुसार आपको दी जो इस सूरा में उसने किए थे और जिनको उसने अति उत्तम ढंग से पूरा किया। फिर आदेश यह है कि ऐ नबी! हर नेमत जो अल्लाह ने तुमको दी है उसकी चर्चा करो और उसका प्रदर्शन करो। अब यह बात स्पष्ट है कि नेमतों की चर्चा करने और प्रदर्शन करने के अलग-अलग रूप हो सकते हैं और हर नेमत अपने रूप-रंग की दृष्टि से प्रदर्शन का एक विशेष रूप चाहती है। कुल मिलाकर तमाम नेमतों के प्रदर्शन का रूप यह है कि जबान से अल्लाह का शुक्र अदा किया जाए और इस बात को माना जाए कि जो नेमतें भी मुझे प्राप्त हैं, ये सब अल्लाह की कृपा और उपकार हैं, वरना कोई चीज़ भी मेरे किसी निजी गुण का परिणाम नहीं है। नुबूवत की नेमत के प्रदर्शन का यह तरीका भी हो सकता है कि प्रचार व प्रसार का हक़ अदा किया जाए। क़ुरआन की नेमत का प्रदर्शन करने की शक्ल यह है कि लोगों में अधिक से अधिक इसे फैलाया जाए और इसकी शिक्षाओं को लोगों के मन में बिठाया जाए। सन्मार्ग की नेमत इस तरह प्रदर्शित हो सकती है कि अल्लाह के भटके हुए बंदों को सीधा रास्ता बताया जाए और इस काम की सारी कड़वाहटों और परेशानियों को धैर्य के साथ सहन किया जाए। यतीमी में सहारा देने का जो उपकार अल्लाह ने किया है, उसका तकाजा यही है कि यतीमों के साथ वैसे ही उपकार व सुलूक किए जाएँ। धनहीन से धनवान बनाने का जो उपकार अल्लाह ने किया, वह भी इसी रूप में प्रदर्शित हो सकता है कि अल्लाह के मुहताज बन्दों को मदद की जाए। तात्पर्य यह एक व्यापक आदेश था जो अल्लाह ने अपने इनाम और उपकार बयान करने के बाद इस छोटे-से वाक्य में अपने प्यारे रसूल (सल्ल०) को दी।