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سُورَةُ العَلَقِ

अल-अलक़

(मक्का में उतरी, आयतें 19)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के शब्द 'अलक़' (ख़ून का लोथड़ा) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा के दो भाग हैं : पहला भाग शुरू से लेकर पाँचवीं आयत के वाक्य 'जिसे वह न जानता था' पर समाप्त होता है। और दूसरा भाग आयत-6 से शुरू होकर सूरा के अन्त तक चलता है। पहले भाग के बारे में मुस्लिम समुदाय के ज़्यादातर आलिम इस बात से सहमत हैं कि यह सबसे पहली वह्य है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर उतरी। दूसरा भाग बाद में उस समय अवतरित हुआ जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हरम (काबा की मसजिद) में नमाज़ पढ़नी शुरू की और अबू-जहल ने आपको धमकियाँ देकर उससे रोकने की कोशिश की।

वह्य का आरंभ

हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य का आरंभ सच्चे (और कुछ रिवायतों में है अच्छे) सपनों के रूप में हुआ। आप जो सपना देखते, वह ऐसा होता कि जैसे आप दिन की रौशनी में देख रहे हैं। फिर आप एकान्त प्रिय हो गए और कई-कई दिन-रात हिरा की गुफा में रहकर इबादत (आराधना) करने लगे। हज़रत आइशा (रजि०) ने 'तहन्नुस' का शब्द प्रयोग किया है जिसकी व्याख्या इमाम ज़ोहरी ने तअब्बुद (इबादत करना) से की है। यह किसी तरह की इबादत थी जो आप करते थे, क्योंकि उस समय तक अल्लाह की ओर से आपको इबादत का तरीक़ा नहीं बताया गया था। एक दिन जबकि आप (सल्ल०) हिरा की गुफा में थे, यकायक आपपर वह्य उतरी और फ़रिश्ते ने आकर आपसे कहा, "पढ़ो।" इसके बाद हज़रत आइशा (रज़ि०) स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का कथन नक़्ल करती हैं, “मैंने कहा, मैं तो पढ़ा हुआ नहीं हूँ।” इसपर फ़रिश्ते ने मुझे पकड़कर भींचा, यहाँ तक कि मेरी सहन-शक्ति जवाब देने लगी, फिर उसने मुझे छोड़ दिया। [ऐसा तीन बार हुआ।] तीसरी बार जब फ़रिश्ते ने मुझे छोड़ा तो कहा, 'इक़रा बिस्मि रब्बिकल-लज़ी ख़-ल-क़' (पढ़ो अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया।) यहाँ तक कि 'मालम यालम' (जिसे वह न जानता था) तक पहुँच गया।" हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि इसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) काँपते-लरज़ते हुए वहाँ से पलटे और हज़रत ख़दीजा के पास पहुँचकर कहा, "मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।" चुनाँचे आपको ओढ़ा दिया गया। जब आपपर से भय की दशा समाप्त हुई तो आपने फ़रमाया, “ऐ ख़दीजा! यह मुझे क्या हो गया है ?" फिर सारा क़िस्सा आपने उनको सुनाया और कहा, “मुझे अपनी जान का डर है।" उन्होंने कहा, "हरगिज़ नहीं, आप ख़ुश हो जाइए, अल्लाह की क़सम, आपको अल्लाह कभी रुसवा न करेगा। आप रिश्तेदारों से अच्छा व्यवहार करते हैं, सच बोलते हैं, (एक रिवायत में इतना और है कि अमानते अदा करते हैं), बे-सहारा लोगों का बोझ उठाते हैं, ग़रीब लोगों के काम कर देते हैं, आथित्य सत्कार करते हैं और भले कामों में मदद करते हैं।" फिर वे नबी (सल्ल०) को साथ लेकर वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास गईं जो उनके चचेरे भाई थे। अज्ञान-काल में ईसाई हो गए थे, अरबी और इबरानी में इंजील लिखते थे, बहुत बूढ़े और अंधे हो गए थे। हज़रत ख़दीजा ने उनसे कहा, "भाईजान! ज़रा अपने भतीजे का क़िस्सा सुनिए।" वरक़ा ने नबी (सल्ल०) से कहा, "भतीजे! तुमको क्या नज़र आया?" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जो कुछ देखा था, वह बयान किया। वरक़ा ने कहा, "यह वही नामूस (वह्य लानेवाला फ़रिश्ता) है जो अल्लाह ने मूसा के पास भेजा था। काश, मैं आपकी नुबूवत के समय में ताक़तवर जवान होता! काश मैं उस समय जिंदा रहूँ जब आपकी क़ौम आपको निकालेगी!" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे?" वरक़ा ने कहा, "हाँ, कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई आदमी वह चीज़ लेकर आया हो जो आप लाए हैं और उससे दुश्मनी न की गई हो। अगर मैंने आपका समय पाया तो मैं आपकी भरपूर मदद करूँगा।" मगर ज़्यादा समय न बीता था कि वरक़ा का देहान्त हो गया।

यह क़िस्सा स्वतः अपने मुँह से बोल रहा है कि फ़रिश्ते के आने से एक क्षण पहले तक भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मन में यह बात न थी कि आप नबी बनाए जानेवाले हैं। इस चीज़ की तलब रखना या इसकी आशा करना तो दूर की बात, आपकी कल्पना में भी यह बात न थी कि ऐसा कोई मामला आपके साथ होगा। वह्य का उतरना और फ़रिश्ते का इस तरह सामने आना आपके लिए अचानक एक घटना थी, जिसका पहला प्रभाव आपपर वही हुआ जो एक बेख़बर व्यक्ति पर इतनी बड़ी एक घटना के घटित होने से स्वाभाविक रूप से हो सकता है। यही कारण है कि जब आप इस्लाम की दावत लेकर उठे तो मक्का के लोगों ने आपपर हर तरह की आपत्ति की, मगर उनमें कोई यह कहनेवाला न था कि हमें तो पहले ही यह ख़तरा था कि आप कोई दावा करनेवाले हैं, क्योंकि आप एक समय से नबी बनने की तैयारियाँ कर रहे थे।

इस क़िस्से से एक बात यह भी मालूम होती है कि नुबूवत से पहले आपकी ज़िन्दगी कितनी पवित्र थी और आपका चरित्र कितना श्रेष्ठ था। हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने अपने लम्बे दाम्पत्य जीवन में आपको इतना उत्तम श्रेणी का व्यक्ति पाया था कि जब नबी (सल्ल.) ने उनको हिरा की गुफा में पेश आनेवाली घटना सुनाई तो बे-झिझक उन्होंने मान लिया कि वास्तव में अल्लाह का फ़रिश्ता ही आपके पास वह्य लेकर आया था। इसी तरह वरक़ा-बिन-नौफ़ल ने भी जब यह घटना सुनी तो इसे कोई वस्वसा नहीं समझा, बल्कि सुनते ही कह दिया कि यह वही नामूस (फ़रिश्ता) है जो मूसा (अलैहि०) के पास आया था। इसका मतलब यह है कि उनके नज़दीक भी आप इतने उच्च श्रेणी के व्यक्ति थे कि आपका नुबूवत-पद पर आसीन होना कोई आश्चर्य की बात न थी।

दूसरे भाग के उतरने की वजह

इस सूरा का दूसरा भाग उस समय उतरा जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हरम (काबा) में इस्लामी तरीक़े पर नमाज़ पढ़नी शुरू की और अबू-जहल ने आपको डरा-धमकाकर इससे रोकना चाहा। चुनाँचे इस सिलसिले में कई हदीसें हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत की गई हैं जिनमें अबू-जहल की इन अशिष्टताओं का उल्लेख किया गया है। हज़रत अबू-हुरैरा (रजि०) का बयान है कि अबू-जहल ने क़ुरैश के लोगों से पूछा, "क्या मुहम्मद तुम्हारे सामने धरती पर अपना मुँह टिकाते हैं?" लोगों ने कहा, "हाँ!" उसने कहा, "लात और उज्जा की क़सम! अगर मैंने उनको इस तरह नमाज़ पढ़ते हुए देख लिया तो उनकी गरदन पर पाँव रख दूँगा और उनका मुँह ज़मीन से रगड़ दूँगा।" फिर ऐसा हुआ कि नबी (सल्ल०) को नमाज़ पढ़ते हुए देखकर वह आगे बढ़ा कि आपकी गरदन पर पाँव रखे, मगर यकायक लोगों ने देखा कि वह पीछे हट रहा है और अपना मुँह किसी चीज़ से बचाने की कोशिश कर रहा है। उससे पूछा गया, "यह तुझे क्या हो गया?" उसने कहा, "मेरे और उनके बीच आग की एक खाई और एक भयानक चीज़ थी और कुछ पंख थे।" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर वह मेरे करीब आता तो फ़रिश्ते उसके चीथड़े उड़ा देते।" (अहमद, मुस्लिम, नसाई)

इब्ने-अब्बास (रजि०) की एक और रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मक़ामे-इबराहीम (हरम में एक ख़ास जगह) पर नमाज़ पढ़ रहे थे। अबू-जहल उधर से गुज़रा तो उसने कहा, "ऐ मुहम्मद! क्या मैंने तुमको इससे मना नहीं किया था?" और उसने आप (सल्ल०) को धमकियाँ देनी शुरू की। जवाब में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसको सख्ती के साथ झिड़क दिया। इसपर उसने कहा, "ऐ मुहम्मद! तुम किस बल पर मुझे डराते हो? अल्लाह की कसम! इस घाटी में मेरे समर्थक सबसे अधिक हैं।" (अहमद, तिर्मिज़ी, नसाई)

इन्हीं घटनाओं पर इस सूरा का वह भाग उतरा जो "कल्ला इन्नल इनसा-न ल-यतग़ा" (हरगिज़ नहीं, इनसान सरकशी से काम लेता है) से आरंभ होता है। स्वाभाविक रूप से इस भाग को क़ुरआन में इसी जगह रखा जाना चाहिए था, जहाँ कि इस सूरा में रखा गया है, क्योंकि पहली वह्य उतरने के बाद इस्लाम का सबसे पहला प्रदर्शन नबी (सल्ल०) ने नमाज़ ही से आरंभ किया था, और कुफ़्फ़ार (विधर्मियों) से आपके टकराव का आरंभ भी इसी घटना से हुआ था।

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سُورَةُ العَلَقِ
96. अल-अलक़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱقۡرَأۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلَّذِي خَلَقَ
(1) पढ़ो1 (ऐ नबी!) अपने रब के नाम के साथ2 जिसने पैदा किया3,
1. जैसा कि हमने परिचय में उल्लेख किया है, फ़रिश्ते ने जब नबी (सल्ल0) से कहा कि पढ़ो तो नबी (सल्ल०) ने उत्तर दिया, "मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।" इससे मालूम होता है कि फ़रिश्ते ने वस्य के ये शब्द लिखित रूप में आपके सामने पेश किए थे और उन्हें पढ़ने के लिए कहा था, क्योंकि अगर फ़रिश्ते की बात का अर्थ यह होता कि जिस तरह मैं बोलता जाऊँ, आप उसी तरह पढ़ते जाएँ, तो नबी (सल्ल०) को यह कहने की आवश्यकता न होती कि मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।
2. अर्थात् अपने रब का नाम लेकर पढ़ो या दूसरे शब्दों में बिस्मिल्लाह कहो और पढ़ो। इससे यह बात भी मालूम हुई कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) इस वक्ष्य के आने से पहले ही से अल्लाह तआला ही को अपना रब जानते और मानते थे। इसी लिए यह कहने की कोई जरूरत सामने नहीं आई कि आपका रब कौन है, बल्कि यह कहा गया कि अपने रब का नाम लेकर पढ़ो।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِنۡ عَلَقٍ ۝ 1
(2) जमे हुए ख़ून के एक लोथड़े से इंसान की रचना की।4
4. सृष्टि की सामान्य रचना का उल्लेख करने के बाद मुख्य रूप से इंसान का उल्लेख किया कि अल्लाह ने किस तुच्छ दशा से उसके जन्म का आरंभ करके उसे पूरा इंसान बनाया। 'अ-लक' बहुवचन है 'अ-ल-का' का जिसका अर्थ है 'जमा हुआ खून'। यह वह आरंभिक दशा है जो गर्भ ठहर जाने के बाद पहले कुछ दिनों में प्रकट होती है, फिर वह मांस का रूप धारण करती है और इसके बाद एक क्रम के साथ उसमें मानवीय रूप बनने का क्रम शुरू होता है। (विवरण के लिए देखिए टीका सूरा-22 अल-हज्ज, आयत-5 एवं टिप्पड़ी 5-7)
ٱقۡرَأۡ وَرَبُّكَ ٱلۡأَكۡرَمُ ۝ 2
(3) पढ़ो, और तुम्हारा रब बड़ा उदार है,
ٱلَّذِي عَلَّمَ بِٱلۡقَلَمِ ۝ 3
(4) जिसने क़लम के ज़रीए से ज्ञान सिखाया,5
5. अर्थात् उसकी अत्यन्त कृपा है कि इस सबसे तुच्छ दशा से आरंभ करके उसने इंसान को ज्ञानवान बनाया जो रचनाओं का सर्वोत्तम गुण है और केवल ज्ञानवान ही नहीं बनाया, बल्कि उसको क़लम के प्रयोग से लिखने की कला सिखाई जो बड़े स्तर पर ज्ञान के प्रचार, प्रगति और पीढ़ी दर पीढ़ी उसके जीवन और उसकी सुरक्षा का साधन बना। अगर वह इलहामी तौर पर इंसान को क़लम और लिखने की कला का यह ज्ञान न देता तो इंसान की ज्ञानात्मक योग्यता ठिठुरकर रह जाती और विकसित होने, फैलने और एक नस्ल के ज्ञान को दूसरी नस्ल तक पहुँचने और आगे और अधिक विकसित होते रहने का अवसर ही न मिलता।
عَلَّمَ ٱلۡإِنسَٰنَ مَا لَمۡ يَعۡلَمۡ ۝ 4
(5) इंसान को वह ज्ञान दिया जिसे वह न जानता था।6
6. अर्थात् इंसान वास्तव में बिल्कुल ज्ञान-रहित था। उसे जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त हुआ, अल्लाह के देने से प्राप्त हुआ। यही बात है जो [क़ुरआन की मशहूर आयतों] आयतुल कुर्सी में भी फ़रमाई गई है। जिन-जिन चीज़ों को भी इंसान अपनी इल्मी खोज समझता है, वास्तव में वे पहले उसके ज्ञान में न थीं। अल्लाह ही ने जब चाहा, उनका ज्ञान उसे दिया, बिना इसके कि इंसान यह महसूस करता है कि यह ज्ञान अल्लाह उसे दे रहा है। यहाँ तक वे आयतें हैं जो सबसे पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर उतरीं। यह पहला अनुभव इतना कठोर था कि नबी (सल्ल०) इससे अधिक का बोझ उठान सकते थे। इसलिए इस समय केवल यह बता देना काफ़ी समझा गया कि वह रब जिसको आप पहले से जानते और मानते हैं, आपसे सीधे-सीधे सम्बोधन कर रहा है, उसकी ओर से आप पर वह्य का सिलसिला आरंभ हो गया है और आपको उसने अपना नबी बना लिया है। इसके एक समय बाद सूरा अल-मुद्दस्सिर की आरंभिक आयतें उतरौं, जिनमें आपको बताया गया कि नुबूवत-पद पर आसीन होने बाद अब आपको काम क्या करना है। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-74 अल-मुद्दस्सिर, परिचय।)
كَلَّآ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَيَطۡغَىٰٓ ۝ 5
(6) कदापि नहीं,7 इंसान उदंडता करता है
7. अर्थात् ऐसा कदापि न होना चाहिए कि जिस कृपाशील अल्लाह ने इंसान पर इतनी बड़ी कृपा की है उसके मुक़ाबले में वह अज्ञानता बरतकर वह रवैया अपनाए जो आगे बयान हो रहा है।
أَن رَّءَاهُ ٱسۡتَغۡنَىٰٓ ۝ 6
(7) इस आधार पर कि वह अपने आपको बेनियाज़ देखता है,8
8. अर्थात् यह देखकर कि माल-दौलत, शान-शौकत और जो कुछ भी दुनिया में वह चाहता था वह उसे प्राप्त हो गया है, कृतज्ञ होने के बजाय वह उदंडता पर उतर आता है।
إِنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ ٱلرُّجۡعَىٰٓ ۝ 7
(8) (हालाँकि) पलटना निश्चित रूप से तेरे रब ही की ओर है।9
9. अर्थात् चाहे कुछ भी उसने दुनिया में प्राप्त कर लिया हो जिसके बल पर वह गुस्ताखी और सरकशी दिखा रहा है, अन्ततः उसे जाना तो तेरे रब ही के पास है, फिर उसे मालूम हो जाएगा कि [गुस्ताख़ी और सरकशी के] इस रवैये का अंजाम क्या होता है।
أَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي يَنۡهَىٰ ۝ 8
(9-10) तुमने देखा उस आदमी को जो एक बन्दे को रोकता है, जबकि वह नमाज़ पढ़ता हो?10
10. बन्दे से तात्पर्य स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं। इस तरीके से नबी (सल्ल०) का उल्लेख क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर किया गया है। जैसे, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-1; सूरा-18 अल-कहफ़, आयत-1; सूरा-72 अल-जिन्न, आयत-19। इससे मालूम होता है कि यह विशेष प्रकार की शैली है जिससे अल्लाह अपनी किताब में अपने रसूल मुहम्मद (सल्ल०) का उल्लेख फ़रमाता है। इसके अलावा इससे यह भी मालूम होता है कि अल्लाह ने नुबूवत के पद पर आसीन करने के बाद रसूल (सल्ल०) को नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा सिखा दिया था। उस तरीके का उल्लेख कुरआन मजीद में कहीं नहीं है कि ऐ नबी ! तुम इस तरह नमाज़ पढ़ा करो। इसलिए यह इस बात का एक और प्रमाण है कि अल्लाह के रसूल पर सिर्फ़ वही वह्य नहीं उतरी थी जो कुरआन में अंकित है, बल्कि इसके अलावा भी वह्य के ज़रिये से आपको ऐसी बातों की शिक्षा दी जाती थी जो कुरआन में अंकित नहीं हैं।
عَبۡدًا إِذَا صَلَّىٰٓ ۝ 9
0
أَرَءَيۡتَ إِن كَانَ عَلَى ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 10
(11) तुम्हारा क्या विचार है अगर (वह बन्दा) सीधे रास्ते पर हो
أَوۡ أَمَرَ بِٱلتَّقۡوَىٰٓ ۝ 11
(12) या परहेज़गारी का अनुदेश देता हो?
أَرَءَيۡتَ إِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰٓ ۝ 12
(13) तुम्हारा क्या विचार है अगर (यह रोकनेवाला आदमी सत्य को) झुठलाता और मुँह मोड़ता हो?
أَلَمۡ يَعۡلَم بِأَنَّ ٱللَّهَ يَرَىٰ ۝ 13
(14) क्या वह नहीं जानता कि अल्लाह देख रहा है?11
11. प्रत्यक्ष में ऐसा मालूम होता है कि यहाँ हर न्याय-प्रिय व्यक्ति को सम्बोधित किया जा रहा है। उससे पूछा जा रहा है कि तुमने देखी उस आदमी की हरकत जो अल्लाह की इबादत करने से एक बन्दे को रोकता है ? तुम्हारा क्या विचार है अगर वह बन्दा सीधे रास्ते पर हो, या लोगों को अल्लाह से डरने और बुरे कामों से रोकने की कोशिश करता हो? और यह मना करनेवाला सत्य को झुठलाता और उससे मुँह मोड़ता हो तो उसकी यह हरकत कैसी है ? क्या यह आदमी यह रवैया अपना सकता था। अगर इसे यह मालूम होता कि अल्लाह तआला उस बन्दे को भी देख रहा है जो नेकी का काम करता है और इसको भी देख रहा है जो सत्य को झुठलाने उससे मुंह मोड़ने में लगा हुआ है ? अत्याचारी के अत्याचार और उत्पीड़ित की पीड़ा को अल्लाह का देखना स्वयं इस बात को अनिवार्य कर देता है कि वह अत्याचारी को सज़ा देगा और उत्पीड़ित की फ़रियाद सुनेगा।
كَلَّا لَئِن لَّمۡ يَنتَهِ لَنَسۡفَعَۢا بِٱلنَّاصِيَةِ ۝ 14
(15) कदापि नहीं,12 अगर वह बाज़ न आया तो हम उसकी पेशानी के बाल पकड़कर उसे खींचेंगे,
12. अर्थात् यह आदमी जो धमकी देता है कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) नमाज़ पढ़ेंगे तो वह उनको गरदन पाँवों से दवा देगा। यह कदापि ऐसा न कर सकेगा।
نَاصِيَةٖ كَٰذِبَةٍ خَاطِئَةٖ ۝ 15
(16) उस पेशानी को जो झूठी और अत्यन्त दोषी है,13
13. पेशानी (माथा) से मुराद यहाँ पेशानीवाला व्यक्ति है।
فَلۡيَدۡعُ نَادِيَهُۥ ۝ 16
(17) वह बुला ले अपने समर्थकों की टोली को, 14
14. जैसा कि हमने परिचय में बयान किया है, अबू जहल की धमकी देने पर जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसको झिड़क दिया था तो उसने कहा था, "ऐ मुहम्मद ! तुम किस बल पर मुझे डराते हो, खुदा की क़सम । इस घाटी में मेरे समर्थक सबसे ज्यादा हैं।" इसपर फ़रमाया जा रहा है कि यह बुला ले अपने समर्थकों को।
سَنَدۡعُ ٱلزَّبَانِيَةَ ۝ 17
(18) हम भी अज़ाब के फ़रिश्तों को बुला लेंगे।15
15. मूल अरबी में 'ज़बानिया' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो क़तादा की व्याख्या के अनुसार अरब काव्य में पुलिस के लिए बोला जाता है और ज़-बन का शाब्दिक अर्थ धक्का देने के हैं। बादशाहों के यहाँ 'चोबदार' भी इसी उद्देश्य के लिए होते थे कि जिसपर बादशाह नाराज़ हो उसे वे धक्के देकर निकाल दें। अतएव अल्लाह के कहने का अर्थ यह है कि ये अपने समर्थकों को बुला लें, हम अपनी पुलिस अर्थात् अज़ाब के फ़रिश्तों को बुला लेंगे कि वे इसकी और इसके समर्थकों की ख़बर लें।
كَلَّا لَا تُطِعۡهُ وَٱسۡجُدۡۤ وَٱقۡتَرِب۩ ۝ 18
(19) कदापि नहीं, उसकी बात न मानो और सज्दा करो और (अपने रब का) सामीप्य प्राप्त करो।16
16. सज्दा करने से तात्पर्य नमाज़ है। यानी ऐ नबी तुम बेख़ौफ़ होकर उसी तरह नमाज़ पढ़ते रहो जिस तरह पढ़ते रहे हो और उसके ज़रिये से अपने रब का सामीप्य प्राप्त करो।