97. अल-क़द्र
(मक्का में उतरी, आयतें 5)
परिचय
नाम
पहली ही आयत के शब्द 'अल-क़द्र' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।
उतरने का समय
इसके मक्की और मदनी होने में मतभेद है, लेकिन सूरा के विषय पर विचार करने से भी यही महसूस होता है कि इसको मक्की होना चाहिए।
विषय और वार्ता
इसका विषय लोगों को क़ुरआन के मूल्य और महत्त्व से परिचित कराना है। क़ुरआन मजीद की सूरतों के क्रम में इसे सूरा-96 अलक़ के बाद रखने से स्वयं यह स्पष्ट होता है कि जिस पाक किताब के उतरने का आरंभ सूरा अलक़ की शुरू की पाँच आयतों में हुआ था, उसी के बारे में इस सूरा में लोगों को बताया गया है कि वह किस भाग्य निर्मात्री रात में उतरी है, कैसा मूल्यवान-ग्रन्थ है और इसका उतरना क्या अर्थ रखता है। सबसे पहले इसमें अल्लाह ने कहा है कि हमने इसे उतारा है। अर्थात् यह मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी रचना नहीं है, बल्कि इसके उतारनेवाले हम हैं। इसके बाद कहा कि इसका उतरना हमारी ओर से शबे-क़द्र (क़द्र की रात) में हुआ है। क़द्र की रात के दो अर्थ हैं और दोनों ही यहाँ अभिप्रेत हैं। एक यह कि यह वह रात है जिसमें भाग्यों के फ़ैसले कर दिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में इस किताब का उतरना केवल एक किताब का उतरना नहीं है, बल्कि यह वह काम है जो न सिर्फ़ क़ुरैश, न सिर्फ़ अरब, बल्कि दुनिया का भाग्य बदलकर रख देगा। यही बात सूरा-44 अद-दुःखान में भी कही गई है । ( देखिए सूरा-44 दुखान का परिचय और टिप्पणी-3)। दूसरा अर्थ यह है कि यह बड़ी गरिमामय और महानता एवं महत्ता रखनेवाली रात है। और आगे उसकी व्याख्या यह की गई है कि यह हज़ार महीनों से अधिक उत्तम है। इससे मक्का के कुफ़्फ़ार (इंकारियों) को मानो चेतावनी दी गई है कि तुम अपनी नासमझी से इस किताब को अपने लिए एक मुसीबत समझ रहे हो, हालाँकि जिस रात को इसके उतरने का फैसला किया गया वह इतनी भलाइयों और बरकतोंवाली रात थी कि कभी मानव-इतिहास के हज़ार महीनों में भी इंसान की भलाई के लिए वह काम नहीं हुआ था जो इस रात में कर दिया गया। यह बात भी सूरा-44 अद-दुख़ान, आयत-3 में एक दूसरे ढंग से बयान की गई है। अन्त में बताया गया है कि इस रात को फ़रिश्ते और जिब्रील अपने रब की इजाज़त से हर आदेश लेकर उतरते हैं, (जिसे सूरा-44 अद-दुख़ान आयत-4 में तत्त्वदर्शितापूर्ण आदेश कहा गया है) और वह शाम से सुबह तक सरासर सलामती की रात होती है, अर्थात् उसमें किसी बुराई का दख़ल नहीं होता क्योंकि अल्लाह के तमाम फैसले अन्ततः भलाई के लिए होते हैं, यहाँ तक कि अगर किसी क़ौम को तबाह करने का फैसला भी होता है तो वह भी भलाई के लिए होता है, न कि बुराई के लिए।
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بِّسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ_x000D_
إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ فِي لَيۡلَةِ ٱلۡقَدۡرِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
(1) हमने इस (क़ुरआन) को शबे-क़द्र (क़द्र की रात) में उतारा है।1
1. यहाँ कहा गया है कि हमने कुरआन को शबे-क़द्र ('क़द्र' की रात) में उतारा है और सूरा-2 अल-बक़रा (आयत 185) में कहा गया है, "रमज़ान वह महीना है जिसमें कुरआन उतारा गया।" इससे मालूम हुआ कि वह रात जिसमें पहली बार अल्लाह का फ़रिश्ता हिरा की गुफा में नबी (सल्ल०) के पास वह्य लेकर आया था, वह रमज़ान महीने की एक रात थी। इस रात को यहाँ क़द्र की रात' कहा गया है और सूरा-44 अद-दुख़ान (आयत 3) में इसी को मुबारक (बरकतवाली) रात फ़रमाया गया है-"हमने इसे एक बरकतवाली रात में उतारा है।" इस रात में कुरआन उतारने के दो अर्थ हो सकते हैं : एक यह कि इस रात पूरा कुरआन वह्य लानेवाले फ़रिश्तों के हवाले कर दिया गया और फिर परिस्थितियों और दशाओं के अनुसार समय-समय पर 23 साल के दौरान जिबरील (अलैहि०) अल्लाह के आदेश से उसकी आयतें और सूरतें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर उतारते रहे। दूसरा अर्थ यह है कि क़ुरआन के उतरने का आरंभ इस रात से हुआ। बहरहाल दोनों स्थितियों में बात एक ही रहती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर क़ुरआन उतरने का सिलसिला इसी रात को शुरू हुआ और यही रात थी जिसमें सूरा-96 अल-अलक को आरंभिक पाँच आयतें उतारी गई। अब रहा यह सवाल कि यह कौन-सी रात थी, तो इसमें इतना मतभेद हुआ है कि करीब-करीब 40 अलग-अलग कथन इसके बारे में मिलते हैं। लेकिन [विश्वसनीय हदीसों के आधार पर] उम्मत के उलमा की बहुत बड़ी संख्या यह राय रखती है कि रमज़ान को अन्तिम दस तारीखों में से कोई एक विषम रात कद्र की रात' है और इनमें भी अधिकतर लोगों को राय यह है कि वह सत्ताईसवीं रात है। शायद कोई रात अल्लाह और उसके रसूल की ओर से इसलिए नहीं तय की गई कि शवे कद्र की महानता से लाभ उठाने के शौक में लोग अधिक से अधिक रातें इबादत में गुज़ारें और किसी एक रात पर बस न करें। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि जिस वक्त मक्का में रात होती है, उस वक़्त दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से में दिन होता है इसलिए उन इलाकों के लोग तो कभी 'शवे-क़द्र' को पा ही नहीं सकते। इसका उत्तर यह है कि अरबी भाषा में अधिकतर रात का शब्द रात और दिन के योग के लिए बोला जाता है। इसलिए रमज़ान की इन तारीखों में से जो तारीख़ भी दुनिया के किसी हिस्से में हो, उसके दिन से पहलेवाली रात वहाँ के लिए शबे-क़द्र हो सकती है।
لَيۡلَةُ ٱلۡقَدۡرِ خَيۡرٞ مِّنۡ أَلۡفِ شَهۡرٖ 2
(3) शबे-क़द्र महीनों से अधिक बेहतर है,2
2. टीकाकारों ने सामान्यतः इसका अर्थ यह दिया है कि इस रात के अच्छे कर्म हज़ार महीनों के अच्छे कर्मों से श्रेष्ठ हैं जिनमें क़द्र की रात' न गिनी जाए। इसमें सन्देह नहीं कि यह बात अपनी जगह सही है और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस रात के कर्मों की बड़ी महत्ता बयान की है, लेकिन आयत के शब्द ये नहीं हैं कि "क़द्र की रात में अमल करना हज़ार महीनों में अमल करने से बेहतर है" बल्कि फ़रमाया यह गया है कि "कद्र की रात हज़ार महीनों से बेहतर है" और हज़ार महीनों से तात्पर्य भी गिने हुए 83 साल चार महीने नहीं हैं, बल्कि अरबों का तरीक़ा था कि बहुत बड़ी संख्या का आभास कराने के लिए वे हज़ार का शब्द बोलते थे। इसलिए आयत का अर्थ यह है कि इस एक रात में खैर और भलाई का इतना बड़ा काम हुआ है कि कभी मानव-इतिहास के किसी लम्बे समय में भी ऐसा काम न हुआ था।
تَنَزَّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَٱلرُّوحُ فِيهَا بِإِذۡنِ رَبِّهِم مِّن كُلِّ أَمۡرٖ 3
(4) फ़रिश्ते और रूह3 उसमें अपने रब की इजाज़त से हर आदेश लेकर उतरते हैं।4
3. रूह से तात्पर्य जिबरील (अलैहि०) हैं जिनकी बुज़ुर्गी और श्रेष्ठता के आधार पर उनका उल्लेख फ़रिश्तों से अलग किया गया है।
4. अर्थात् वे अपने आप नहीं आते, बल्कि अपने रब के आदेश से आते हैं, और हर आदेश से तात्पर्य वही है जिसे सूरा-44 अद-दुखान, आयत-5 में अमरे-हकीम (तत्त्वदर्शितापूर्ण काम) कहा गया है।