- हूद
(मक्का में उतरी-आयतें 123)
परिचय
नाम
आयत 50 में पैग़म्बर हज़रत हूद का उल्लेख हुआ है; उसी को लक्षण के तौर पर इस सूरा का नाम दे दिया है।
उतरने का समय
इस सूरा के विषय पर विचार करने से ऐसा लगता है कि यह उसी काल में उतरी होगी जिसमें सूरा यूनुस उतरी थी। असंभव नहीं कि यह उसके साथ ही आगे-पीछे उतरी हो, क्योंकि भाषण का विषय वही है, मगर डरावे और चेतावनी की शैली उससे अधिक तीव्र है। हदीस में आता है कि हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया, “मैं देखता हूँ कि आप बूढ़े होते जा रहे हैं। इसकी क्या वजह है?" उत्तर में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुझको हूद और उस जैसी विषयवाली सूरतों ने बूढ़ा कर दिया है।” इससे अन्दाज़ा होता है कि नबी (सल्ल०) के लिए वह समय कैसा कठोर होगा, जबकि एक ओर क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन अपने तमाम हथियारों से सत्य की उस दावत को कुचल देने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी ओर अल्लाह की ओर से ये बार-बार चेतावनियाँ आ रही थीं। इन परिस्थितियों में आपको हर समय यह आशंका घुलाए देती होगी कि कहीं अल्लाह की दी हुई मोहलत समाप्त न हो जाए और वह अन्तिम घड़ी न आ जाए, जबकि अल्लाह किसी क़ौम को अज़ाब में पकड़ लेने का निर्णय कर देता है। वास्तविकता तो यह है कि इस सूरा को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे एक बाढ़ का बाँध टूटने को है और उस भुलावे में पड़ी हुई आबादी को, जो इस बाढ़ की शिकार होनेवाली है, अन्तिम चेतावनी दी जा रही है।
विषय और वार्ताएँ
भाषण का विषय, जैसा कि अभी वर्णित किया जा चुका था, वही है जो सूरा यूनुस का था, अर्थात् दावत (इस्लाम की ओर आमंत्रण), समझाना-बुझाना और चेतावनी । लेकिन अन्तर यह है कि सूरा यूनुस के मुक़ाबले में यहाँ दावत संक्षेप में है। समझाने-बुझाने में तर्कों का ज़ोर कम है और उपदेश अधिक है और चेतावनी सविस्तार और ज़ोरदार है।
दावत यह है कि पैग़म्बर की बात मानो, शिर्क को छोड़ दो, सबकी बन्दगी छोड़कर अल्लाह के बन्दे बनो और अपनी दुनिया की ज़िन्दगी की सारी व्यवस्था आख़िरत की जवाबदेही के एहसास पर स्थापित करो।
समझाना यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी के प्रत्यक्ष पहलू पर भरोसा करके जिन क़ौमों ने अल्लाह के रसूलों की दावत को ठुकराया है, वे इससे पहले बहुत बुरा अंजाम देख चुकी हैं। अब क्या ज़रूरी है कि तुम भी उसी राह पर चलो, जिसे इतिहास के लगातार अनुभव निश्चित रूप से विनाश का रास्ता सिद्ध कर चुके हैं।
चेतावनी यह है कि अज़ाब के आने में जो देर हो रही है, यह वास्तव में एक मोहलत है जो अल्लाह अपनी कृपा से तुम्हें दे रहा है। इस मोहलत के अन्दर अगर तुम न संभले तो वह अज़ाब आएगा जो किसी के टाले न टल सकेगा और ईमानवालों की मुट्ठी-भर जमाअत को छोड़कर तुम्हारी सारी क़ौम का नामो-निशान मिटा देगा।
इस विषय को स्पष्ट करने के लिए सीधे सम्बोधन की अपेक्षा नूह की क़ौम, आद, समूद, लूत की क़ौम, मयदन के लोग और फ़िरऔन की क़ौम के क़िस्सों से अधिक काम लिया गया है। इन क़िस्सों में मुख्य रूप से जो बात स्पष्ट की गई है, वह यह है कि अल्लाह जब फ़ैसला चुकाने पर आता है, तो फिर बिलकुल बे-लाग तरीक़े से निर्णय करता है। इसमें किसी के साथ तनिक भर भी रिआयत नहीं होती। उस समय यह नहीं देखा जाता कि कौन किसका बेटा और किसका रिश्तेदार है। अल्लाह की दयालुता सिर्फ़ उसके हिस्से में आती है जो सीधे रास्ते पर आ गया हो, वरना अल्लाह के प्रकोप से न किसी पैग़म्बर का बेटा बचता है और न किसी पैग़म्बर की बीवी। यही नहीं, बल्कि जब ईमान और कुफ़्र (अधर्म) का दो टूक फ़ैसला हो रहा हो तो दीन का स्वभाव यह चाहता है कि स्वयं मोमिन भी बाप और बेटे और पति और पत्नी के रिश्तों को भूल जाए और अल्लाह के न्याय की तलवार की तरह बिलकुल बे-लाग होकर सत्य के एक रिश्ते के सिवा हर दूसरे रिश्ते को काट फेंके। ऐसे अवसर पर ख़ून और वंश की रिश्तेदारियों का थोड़ा-सा भी ध्यान कर जाना इस्लाम की आत्मा के विपरीत है। यही वह शिक्षा थी जिसका पूरा-पूरा प्रदर्शन तीन-चार साल बाद मक्का के मुहाजिर मुसलमानों ने बद्र की लड़ाई में करके दिखाया।
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وَأَنِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُمَتِّعۡكُم مَّتَٰعًا حَسَنًا إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى وَيُؤۡتِ كُلَّ ذِي فَضۡلٖ فَضۡلَهُۥۖ وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ كَبِيرٍ 2
(3) और यह कि तुम अपने रब से माफ़ी चाहो और उसकी तरफ़ पलट आओ तो वह एक मुद्दते-ख़ास तक तुमको अच्छा सामाने-ज़िन्दगी देगा,2 और हर साहिबे-फ़ज़्ल को उसका फ़ज़्ल अता करेगा।3 लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो मैं तुम्हारे हक़ में एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब से डरता हूँ।
2. यानी दुनिया में तुम्हारे ठहरने के लिए जो वक़्त मुकर्रर है उस वक़्त तक वह तुमको बुरी तरह नहीं, बल्कि अच्छी तरह रखेगा। उसकी नेमतें तुमपर बरसेंगी। उसकी बरकतों से सरफ़राज़ होगे, ख़ुशहाल व फ़ारिग़ुल-बाल रहोगे। ज़िन्दगी में अम्न और चैन नसीब होगा। ज़िल्लत व ख़ारी के साथ नहीं, बल्कि इज़्ज़त व शरफ़ के साथ जिओगे।
13. यानी जो शख़्स अख़लाक़ और आमाल में जितना भी आगे बढ़ेगा अल्लाह उसको उतना ही बड़ा दरजा अता करेगा, जो शख़्स भी अपनी सीरत व किरदार से अपने-आपको जिस फ़ज़ीलत का मुस्तहिक़ साबित कर देगा वह फ़ज़ीलत उसको ज़रूर दी जाएगी।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ وَكَانَ عَرۡشُهُۥ عَلَى ٱلۡمَآءِ لِيَبۡلُوَكُمۡ أَيُّكُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗاۗ وَلَئِن قُلۡتَ إِنَّكُم مَّبۡعُوثُونَ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡمَوۡتِ لَيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ 4
(7) और वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छह दिनों में पैदा किया जबकि इससे पहले उसका अर्श पानी पर था5 ताकि आज़माकर देखे कि तुममें कौन बेहतर अमल करनेवाला है।6 अब अगर (ऐ नबी!) तुम कहते हो कि लोगो! मरने के बाद तुम दोबारा उठाए जाओगे, तो मुनकिरीन फ़ौरन बोल उठते हैं कि यह तो सरीह जादूगरी है।7
5. हम नहीं कह सकते कि इस पानी से मुराद क्या है। यही पानी जिसे हम इस नाम से जानते हैं? या यह लफ़्ज़ मह्ज़ इस्तिआरे के तौर पर माद्दे की उस माए-हालत के लिए इस्तेमाल किया गया है जो मौजूदा सूरत में ढाले जाने से पहले थी? अर्श पर होने का मफ़हूम भी मुतय्यन करना मुशकिल है। मुमकिन है कि इसका मफ़हूम यह हो कि उस वक़्त ख़ुदा की सल्तनत पानी पर थी।
6. यानी तख़लीक़ का मक़सद यह था कि दुनिया में इनसान को पैदा करके उसकी आज़माइश की जाए।
7. यानी मरने के बाद लोगों का दोबारा ज़िन्दा होना तो मुमकिन नहीं है, मगर हमारी अक़्लों पर जादू किया जा रहा है कि हम यह अनहोनी बात मान लें।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُعۡرَضُونَ عَلَىٰ رَبِّهِمۡ وَيَقُولُ ٱلۡأَشۡهَٰدُ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ أَلَا لَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ 13
(18) और उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ गढ़े?10 ऐसे लोग अपने रब के हुज़ूर पेश होंगे और गवाह शहादत देंगे कि ये हैं वे लोग जिन्होंने अपने रब पर झूठ गढ़ा था। सुनो! ख़ुदा की लानत है ज़ालिमों पर11
10. यानी यह कहे कि अल्लाह के साथ ख़ुदाई और इसतिहक़ाक़े-बन्दगी में दूसरे भी शरीक हैं। या यह कहे कि ख़ुदा को अपने बन्दों की हिदायत व ज़लालत से कोई दिलचस्पी नहीं है और उसने कोई किताब और कोई नबी हमारी हिदायत के लिए नहीं भेजा है, बल्कि हमें आज़ाद छोड़ दिया है कि जो ढंग चाहें अपनी ज़िन्दगी के लिए इख़्तियार कर लें। या यह कहे कि ख़ुदा ने हमें यूँ ही खेल के तौर पर पैदा किया और यूँ ही हमको ख़त्म कर देगा, कोई जवाबदेही हमें उसके सामने नहीं करनी है और कोई जज़ा व सज़ा नहीं होनी है।
11. अन्दाज़े-बयान से ज़ाहिर है कि यह बात आख़िरत में उनकी पेशी के मौक़े पर कही जाएगी।
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ وَيَتۡلُوهُ شَاهِدٞ مِّنۡهُ وَمِن قَبۡلِهِۦ كِتَٰبُ مُوسَىٰٓ إِمَامٗا وَرَحۡمَةًۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ مِنَ ٱلۡأَحۡزَابِ فَٱلنَّارُ مَوۡعِدُهُۥۚ فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُۚ إِنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ 20
(17) फिर भला वह शख़्स जो अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ शहादत रखता था,8 इसके बाद एक गवाह भी परवरदिगार की तरफ़ से (उस शहादत की ताईद में) आ गया,9 और पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत के तौर पर आई हुई भी मौजूद थी (क्या वह भी दुनिया-परस्तों की तरह इससे इनकार कर सकता है?) ऐसे लोग तो इसपर ईमान ही लाएँगे। और इनसानी गरोहों में में जो कोई इसका इनकार करे तो उसके लिए जिस जगह का वादा है, वह दोज़ख़ है। पस (ऐ पैग़म्बर!) तुम इस चीज़ की तरफ़ से किसी शक में न पड़ना, यह हक़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से मगर अकसर लोग नहीं मानते।
8. यानी जिसको ख़ुद अपने वुजूद में और ज़मीन व आसमान की साख़्त में और कायनात के नज़्म व नस्क़ में इस अम्र की खुली शहादत मिल रही थी कि इस दुनिया का ख़ालिक़, मालिक, परवरदिगार और हाकिम व फ़रमाँरवा सिर्फ़ अल्लाह है, और फिर उन्हीं शहादतों को देखकर जिसका दिल यह गवाही भी पहले ही से दे रहा था कि इस जिन्दगी के बाद कोई और ज़िन्दगी ज़रूर होनी चाहिए जिसमें इनसान अपने ख़ुदा को अपने आमाल का हिसाब दे और अपने किए की जज़ा व सज़ा पाए।
9. यानी क़ुरआन, जिसने आकर इस फ़ितरी व अक़्ली शहादत की ताईद की और उसे बताया कि फ़िल-वाक़े हक़ीक़त वही है जिसका निशान आफ़ाक़ व अनफ़ुस के आसार में तूने पाया है।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ قُلۡنَا ٱحۡمِلۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ وَمَنۡ ءَامَنَۚ وَمَآ ءَامَنَ مَعَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٞ 38
(40) यहाँ तक कि जब हमारा हुक्म आ गया और वह तन्नूर उबल पड़ा14 तो हमने कहा, “हर क़िस्म के जानवरों का एक-एक जोड़ा कश्ती में रख लो, अपने घरवालों को भी — सिवाय उन अशख़ास के जिनकी निशानदेही पहले की जा चुकी है।15 — उसमें सवार करा दो और उन लोगों को भी बिठा लो जो ईमान लाए हैं।” और थोड़े ही लोग थे जो नूह के साथ ईमान लाए थे।
14. इसके मुताल्लिक़ मुफ़स्सिरीन के अक़वाल मुख़्तलिफ़ हैं। मगर हमारे नज़दीक सही वही है जो क़ुरआन के सरीह अलफ़ाज़ से समझ में आता है कि तूफ़ान की इबतिदा एक ख़ास तन्नूर से हुई जिसके नीचे से पानी का चश्मा फूट पड़ा, फिर एक तरफ़ आसमान से मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और दूसरी तरफ़ जगह-जगह से चश्मे फूटने लगे।
15. यानी तुम्हारे घर के जिन अफ़राद के मुताल्लिक़ पहले बताया जा चुका है कि वे काफ़िर हैं और अल्लाह तआला की रहमत के मुस्तहिक़ नहीं हैं उन्हें कश्ती में न बिठाओ।
قَالَ يَٰنُوحُ إِنَّهُۥ لَيۡسَ مِنۡ أَهۡلِكَۖ إِنَّهُۥ عَمَلٌ غَيۡرُ صَٰلِحٖۖ فَلَا تَسۡـَٔلۡنِ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۖ إِنِّيٓ أَعِظُكَ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ 44
(46) जवाब में इरशाद हुआ, “ऐ नूह! वह तेरे घरवालों में से नहीं है, वह तो एक बिगड़ा हुआ काम है,17 लिहाज़ा तू उस बात की मुझसे दरख़ास्त न कर जिसकी हक़ीक़त तू नहीं जानता, मैं तुझे नसीहत करता हूँ कि अपने आपको जाहिलों की तरह न बना ले।”
17. यह ऐसा ही है जैसे एक शख़्स के जिस्म का कोई उज़्व सड़ गया हो और डॉक्टर ने उसको काट फेंकने का फ़ैसला किया हो। अब वह मरीज़ डॉक्टर से कहता है कि यह तो मेरे जिस्म का एक हिस्सा है, इसे क्यों काटते हो? और डॉक्टर उसके जवाब में कहता है कि यह तुम्हारे जिस्म का हिस्सा नहीं रहा है क्योंकि यह सड़ चुका है। पस एक सॉलेह बाप से उसके नालायक़ बेटे के बारे में यह कहना कि यह बिगड़ा हुआ काम है, इसका मतलब यह है कि तुमने इसे परवरिश करने में जो मेहनत की वह ज़ाया हो गई और यह काम बिगड़ गया।
۞وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ هُوَ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱسۡتَعۡمَرَكُمۡ فِيهَا فَٱسۡتَغۡفِرُوهُ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي قَرِيبٞ مُّجِيبٞ 55
(61) और समूद की तरफ़ हमने उनके भाई सॉलेह को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। वही है जिसने तुमको ज़मीन से पैदा किया है और यहाँ तुमको बसाया है। लिहाज़ा तुम उससे माफ़ी चाहो और उसकी तरफ़ पलट आओ, यक़ीनन मेरा रब क़रीब है और वह दुआओं का जवाब देनेवाला है।”21
21. इस मुख़्तसर से फ़िकरे में हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने शिर्क के सारे कारोबार की जड़ काट दी है। मुशरिकीन समझते हैं और होशियार लोगों ने उनको ऐसा समझाने की कोशिश भी की है कि ख़ुदावन्दे-आलम का आस्ताना-ए-क़ुद्स आम इनसानों की दस्तरस से बहुत ही दूर है। उसके दरबार तक भला आम आदमी की पहुँच कैसे हो सकती है! वहाँ तक दुआओं का पहुँचना और फिर उनका जवाब मिलना तो किसी तरह मुमकिन ही नहीं हो सकता जब तक कि पाक रूहों का वसीला न ढूँढ़ा जाए और उन मज़हबी मनसबदारों की ख़िदमात न हासिल की जाएँ जो ऊपर तक नज़्रें, नियाज़ें और अर्ज़ियाँ पहुँचाने के ढब जानते हैं। यही वह ग़लतफ़हमी है जिसने बन्दे और ख़ुदा के दरमियान बहुत-से छोटे-बड़े माबूदों और सिफ़ारिशियों का एक जम्मे-ग़फ़ीर खड़ा कर दिया। हज़रत सॉलेह (अलैहि०) जाहिलियत के इस पूरे तिलिस्म को सिर्फ़ दो लफ़्ज़ों से तोड़ फेंकते हैं। एक यह कि अल्लाह क़रीब है। दूसरे यह कि वह दुआओं का जवाब देनेवाला है। यानी तुम्हारा यह ख़याल भी ग़लत है कि वह तुमसे दूर है और यह भी ग़लत है कि तुम बराहे-रास्त उसको पुकारकर अपनी दुआओं का जवाब हासिल नहीं कर सकते। तुममें से एक-एक शख़्स अपने पास ही उसको पा सकता है, उससे सरगोशी कर सकता है, अपनी अर्ज़ियाँ बराहे-रास्त उसके हुज़ूर पेश कर सकता है। और फिर वह बराहे-रास्त अपने हर बन्दे की दुआओं का जवाब भी ख़ुद देता है। पस जब सुल्ताने-कायनात का दरबारे-आम हर वक़्त हर शख़्स के लिए खुला है और हर शख़्स के क़रीब ही मौजूद है तो यह तुम किस हिमाक़त में पड़े हो कि उसके लिए वास्ते और वसीले और सिफ़ारिशी ढूँढ़ते फिरते हो?
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَرَزَقَنِي مِنۡهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أُخَالِفَكُمۡ إِلَىٰ مَآ أَنۡهَىٰكُمۡ عَنۡهُۚ إِنۡ أُرِيدُ إِلَّا ٱلۡإِصۡلَٰحَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُۚ وَمَا تَوۡفِيقِيٓ إِلَّا بِٱللَّهِۚ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ 75
(88) शुऐब ने कहा, “भाइयो! तुम ख़ुद ही सोचो कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक खुली शहादत पर था और फिर उसने मुझे अपने हाँ से अच्छा रिज़्क़ भी अता किया29 (तो उसके बाद मैं तुम्हारी गुमराहियों और हराम-ख़ोरियों में तुम्हारा शरीके-हाल कैसे हो सकता हूँ?) और मैं हरगिज़ यह नहीं चाहता कि जिन बातों से मैं तुमको रोकता उनका ख़ुद इरतिकाब करूँ। मैं तो इसलाह करना चाहता हूँ जहाँ तक भी मेरा बस चले। और यह जो कुछ में करना चाहता हूँ उसका सारा इनहिसार अल्लाह की तौफ़ीक़ पर है, उसी पर मैंने भरोसा किया और हर मामले में उसी की तरफ़ मैं रुजूअ करता हूँ।
29. यानी अगर मेरे रब ने मुझे हक़-शनास बसीरत भी दी हो और रिज़्क़े-हलाल भी अता किया हो तो मेरे लिए यह किस तरह जाइज़ हो सकता है कि जब ख़ुदा ने मुझपर यह फ़ज़्ल किया है तो मैं तुम्हारी गुमराहियों और हरामख़ोरियों को हक़ और हलाल कहकर उसकी नाशुक्री करूँ।
وَجَآءَهُۥ قَوۡمُهُۥ يُهۡرَعُونَ إِلَيۡهِ وَمِن قَبۡلُ كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِي هُنَّ أَطۡهَرُ لَكُمۡۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ فِي ضَيۡفِيٓۖ أَلَيۡسَ مِنكُمۡ رَجُلٞ رَّشِيدٞ 76
(78) (इन मेहमानों का आना था कि) उसकी क़ौम के लोग बेइख़्तियार उसके घर की तरफ़ दौड़ पड़े। पहले से वे ऐसी ही बदकारियों के ख़ूगर थे। लूत ने उनसे कहा, “भाइयो! ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं, ये तुम्हारे लिए पाकीज़ातर हैं।27 कुछ ख़ुदा का ख़ौफ़ करो और मेरे मेहमानों के मामले में मुझे ज़लील न करो। क्या तुममें कोई भला आदमी नहीं?”
27. इसका मतलब यह नहीं है कि हज़रत लूत (अलैहि०) ने उनके सामने अपनी बेटियों को ज़िना के लिए पेश किया था। ‘ये तुम्हारे लिए पाकीज़ातर हैं' का फ़िक़रा ऐसा ग़लत मफ़हूम लेने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। हज़रत लूत (अलैहि०) का मंशा साफ़ तौर पर यह था कि अपनी शहवते-नफ़्स को उस फ़ितरी और जाइज़ तरीक़े से पूरा करो जो अल्लाह ने मुक़र्रर किया है और इसके लिए औरतों की कमी नहीं है।
وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ ٱلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِۚ إِنَّ ٱلۡحَسَنَٰتِ يُذۡهِبۡنَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ ذَٰلِكَ ذِكۡرَىٰ لِلذَّٰكِرِينَ 108
(114) और देखो, नमाज़ क़ायम करो दिन के दोनों सिरों पर और कुछ रात गुज़रने पर।31 दर-हक़ीक़त नेकियाँ बुराइयों को दूर कर देती हैं, यह एक याददिहानी है उन लोगों के लिए जो ख़ुदा को याद रखनेवाले हैं।
31. दिन के सिरों से मुराद सुब्ह और मग़रिब है और कुछ रात गुज़रने पर से मुराद इशा का वक़्त है (नमाज़ के औक़ात की तफ़सील के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत -78; सूरा-20 ताहा, आयत-130 और सूरा-30 रूम, आयात—17-18)।