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سُورَةُ هُودٍ

  1. हूद

(मक्‍का में उतरी-आयतें 123)

परिचय

नाम

आयत 50 में पैग़म्बर हज़रत हूद का उल्लेख हुआ है; उसी को लक्षण के तौर पर इस सूरा का नाम दे दिया है।

उतरने का समय

इस सूरा के विषय पर विचार करने से ऐसा लगता है कि यह उसी काल में उतरी होगी जिसमें सूरा यूनुस उतरी थी। असंभव नहीं कि यह उसके साथ ही आगे-पीछे उतरी हो, क्योंकि भाषण का विषय वही है, मगर डरावे और चेतावनी की शैली उससे अधिक तीव्र है। हदीस में आता है कि हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया, “मैं देखता हूँ कि आप बूढ़े होते जा रहे हैं। इसकी क्या वजह है?" उत्तर में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुझको हूद और उस जैसी विषयवाली सूरतों ने बूढ़ा कर दिया है।” इससे अन्दाज़ा होता है कि नबी (सल्ल०) के लिए वह समय कैसा कठोर होगा, जबकि एक ओर क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन अपने तमाम हथियारों से सत्य की उस दावत को कुचल देने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी ओर अल्लाह की ओर से ये बार-बार चेतावनियाँ आ रही थीं। इन परिस्थितियों में आपको हर समय यह आशंका घुलाए देती होगी कि कहीं अल्लाह की दी हुई मोहलत समाप्त न हो जाए और वह अन्तिम घड़ी न आ जाए, जबकि अल्लाह किसी क़ौम को अज़ाब में पकड़ लेने का निर्णय कर देता है। वास्तविकता तो यह है कि इस सूरा को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे एक बाढ़ का बाँध टूटने को है और उस भुलावे में पड़ी हुई आबादी को, जो इस बाढ़ की शिकार होनेवाली है, अन्तिम चेतावनी दी जा रही है।

विषय और वार्ताएँ

भाषण का विषय, जैसा कि अभी वर्णित किया जा चुका था, वही है जो सूरा यूनुस का था, अर्थात् दावत (इस्लाम की ओर आमंत्रण), समझाना-बुझाना और चेतावनी । लेकिन अन्तर यह है कि सूरा यूनुस के मुक़ाबले में यहाँ दावत संक्षेप में है। समझाने-बुझाने में तर्कों का ज़ोर कम है और उपदेश अधिक है और चेतावनी सविस्तार और ज़ोरदार है।

दावत यह है कि पैग़म्बर की बात मानो, शिर्क को छोड़ दो, सबकी बन्दगी छोड़कर अल्लाह के बन्दे बनो और अपनी दुनिया की ज़िन्दगी की सारी व्यवस्था आख़िरत की जवाबदेही के एहसास पर स्थापित करो।

समझाना यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी के प्रत्यक्ष पहलू पर भरोसा करके जिन क़ौमों ने अल्लाह के रसूलों की दावत को ठुकराया है, वे इससे पहले बहुत बुरा अंजाम देख चुकी हैं। अब क्या ज़रूरी है कि तुम भी उसी राह पर चलो, जिसे इतिहास के लगातार अनुभव निश्चित रूप से विनाश का रास्ता सिद्ध कर चुके हैं।

चेतावनी यह है कि अज़ाब के आने में जो देर हो रही है, यह वास्तव में एक मोहलत है जो अल्लाह अपनी कृपा से तुम्हें दे रहा है। इस मोहलत के अन्दर अगर तुम न संभले तो वह अज़ाब आएगा जो किसी के टाले न टल सकेगा और ईमानवालों की मुट्ठी-भर जमाअत को छोड़कर तुम्हारी सारी क़ौम का नामो-निशान मिटा देगा।

इस विषय को स्पष्ट करने के लिए सीधे सम्बोधन की अपेक्षा नूह की क़ौम, आद, समूद, लूत की क़ौम, मयदन के लोग और फ़िरऔन की क़ौम के क़िस्सों से अधिक काम लिया गया है। इन क़िस्सों में मुख्य रूप से जो बात स्पष्ट की गई है, वह यह है कि अल्लाह जब फ़ैसला चुकाने पर आता है, तो फिर बिलकुल बे-लाग तरीक़े से निर्णय करता है। इसमें किसी के साथ तनिक भर भी रिआयत नहीं होती। उस समय यह नहीं देखा जाता कि कौन किसका बेटा और किसका रिश्तेदार है। अल्लाह की दयालुता सिर्फ़ उसके हिस्से में आती है जो सीधे रास्ते पर आ गया हो, वरना अल्लाह के प्रकोप से न किसी पैग़म्बर का बेटा बचता है और न किसी पैग़म्बर की बीवी। यही नहीं, बल्कि जब ईमान और कुफ़्र (अधर्म) का दो टूक फ़ैसला हो रहा हो तो दीन का स्वभाव यह चाहता है कि स्वयं मोमिन भी बाप और बेटे और पति और पत्नी के रिश्तों को भूल जाए और अल्लाह के न्याय की तलवार की तरह बिलकुल बे-लाग होकर सत्य के एक रिश्ते के सिवा हर दूसरे रिश्ते को काट फेंके। ऐसे अवसर पर ख़ून और वंश की रिश्तेदारियों का थोड़ा-सा भी ध्यान कर जाना इस्लाम की आत्मा के विपरीत है। यही वह शिक्षा थी जिसका पूरा-पूरा प्रदर्शन तीन-चार साल बाद मक्का के मुहाजिर मुसलमानों ने बद्र की लड़ाई में करके दिखाया।

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سُورَةُ هُودٍ
11. सूरा हूद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓرۚ كِتَٰبٌ أُحۡكِمَتۡ ءَايَٰتُهُۥ ثُمَّ فُصِّلَتۡ مِن لَّدُنۡ حَكِيمٍ خَبِيرٍ
(1) अलिफ़-लाम-रा। फ़रमान1 है, जिसकी आयात पुख़्ता और मुफ़स्सल इरशाद हुई हैं, एक दाना और बाख़बर हस्ती की तरफ़ से
1. 'किताब' का तर्जमा यहाँ अंदाज़े-बयान की मुनासबत से 'फ़रमान' किया गया है। अरबी ज़बान में यह लफ़्ज़ किताब और नविश्ते ही के मानी में नहीं आता, बल्कि हुक्म और फ़रमाने-शाही के मानी में भी आता है और ख़ुद क़ुरआन में मुतअद्दिद मवाक़े पर यह लफ़्ज़ इसी मानी में मुसतामल हुआ है।
أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۚ إِنَّنِي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ وَبَشِيرٞ ۝ 1
(2) कि तुम न बन्दगी करो मगर सिर्फ़ अल्लाह की। मैं उसकी तरफ़ से तुमको ख़बरदार करनेवाला भी हूँ और बशारत देनेवाला भी।
وَأَنِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُمَتِّعۡكُم مَّتَٰعًا حَسَنًا إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى وَيُؤۡتِ كُلَّ ذِي فَضۡلٖ فَضۡلَهُۥۖ وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ كَبِيرٍ ۝ 2
(3) और यह कि तुम अपने रब से माफ़ी चाहो और उसकी तरफ़ पलट आओ तो वह एक मुद्दते-ख़ास तक तुमको अच्छा सामाने-ज़िन्दगी देगा,2 और हर साहिबे-फ़ज़्ल को उसका फ़ज़्ल अता करेगा।3 लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो मैं तुम्हारे हक़ में एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब से डरता हूँ।
2. यानी दुनिया में तुम्हारे ठहरने के लिए जो वक़्त मुकर्रर है उस वक़्त तक वह तुमको बुरी तरह नहीं, बल्कि अच्छी तरह रखेगा। उसकी नेमतें तुमपर बरसेंगी। उसकी बरकतों से सरफ़राज़ होगे, ख़ुशहाल व फ़ारिग़ुल-बाल रहोगे। ज़िन्दगी में अम्न और चैन नसीब होगा। ज़िल्लत व ख़ारी के साथ नहीं, बल्कि इज़्ज़त व शरफ़ के साथ जिओगे।
13. यानी जो शख़्स अख़लाक़ और आमाल में जितना भी आगे बढ़ेगा अल्लाह उसको उतना ही बड़ा दरजा अता करेगा, जो शख़्स भी अपनी सीरत व किरदार से अपने-आपको जिस फ़ज़ीलत का मुस्तहिक़ साबित कर देगा वह फ़ज़ीलत उसको ज़रूर दी जाएगी।
إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 3
(4) तुम सबको अल्लाह की तरफ़ पलटना है और वह सब कुछ कर सकता है।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ وَكَانَ عَرۡشُهُۥ عَلَى ٱلۡمَآءِ لِيَبۡلُوَكُمۡ أَيُّكُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗاۗ وَلَئِن قُلۡتَ إِنَّكُم مَّبۡعُوثُونَ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡمَوۡتِ لَيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 4
(7) और वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छह दिनों में पैदा किया जबकि इससे पहले उसका अर्श पानी पर था5 ताकि आज़माकर देखे कि तुममें कौन बेहतर अमल करनेवाला है।6 अब अगर (ऐ नबी!) तुम कहते हो कि लोगो! मरने के बाद तुम दोबारा उठाए जाओगे, तो मुनकिरीन फ़ौरन बोल उठते हैं कि यह तो सरीह जादूगरी है।7
5. हम नहीं कह सकते कि इस पानी से मुराद क्या है। यही पानी जिसे हम इस नाम से जानते हैं? या यह लफ़्ज़ मह्ज़ इस्तिआरे के तौर पर माद्दे की उस माए-हालत के लिए इस्तेमाल किया गया है जो मौजूदा सूरत में ढाले जाने से पहले थी? अर्श पर होने का मफ़हूम भी मुतय्यन करना मुशकिल है। मुमकिन है कि इसका मफ़हूम यह हो कि उस वक़्त ख़ुदा की सल्तनत पानी पर थी।
6. यानी तख़लीक़ का मक़सद यह था कि दुनिया में इनसान को पैदा करके उसकी आज़माइश की जाए।
7. यानी मरने के बाद लोगों का दोबारा ज़िन्दा होना तो मुमकिन नहीं है, मगर हमारी अक़्लों पर जादू किया जा रहा है कि हम यह अनहोनी बात मान लें।
أَلَآ إِنَّهُمۡ يَثۡنُونَ صُدُورَهُمۡ لِيَسۡتَخۡفُواْ مِنۡهُۚ أَلَا حِينَ يَسۡتَغۡشُونَ ثِيَابَهُمۡ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 5
(5) देखो ये लोग अपने सीनों को मोड़ते हैं ताकि उससे छिप जाएँ।4 ख़बरदार, जब ये कपड़ों से अपने-आपको ढाँकते हैं, अल्लाह उनके छिपे को भी जानता है और खुले को भी, वह तो उन भेदों से भी वाक़िफ़ है जो सीनों में है।
4. कुफ़्फ़ारे-मक्का का हाल यह था कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) को देखकर आप (सल्ल०) की तरफ़ से अपना रुख़ मोड़ लेते थे ताकि उनसे आप (सल्ल०) का आमना-सामनान हो जाए।
وَلَئِنۡ أَخَّرۡنَا عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابَ إِلَىٰٓ أُمَّةٖ مَّعۡدُودَةٖ لَّيَقُولُنَّ مَا يَحۡبِسُهُۥٓۗ أَلَا يَوۡمَ يَأۡتِيهِمۡ لَيۡسَ مَصۡرُوفًا عَنۡهُمۡ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 6
(8) और अगर हम एक ख़ास मुद्दत तक उनकी सज़ा को टालते हैं तो वे कहने लगते हैं कि आख़िर किस चीज़ ने उसे रोक रखा है? सुनो! जिस रोज़ उस सज़ा का वक़्त आ गया तो वह किसी के फेरे न फिर सकेगा और वही चीज़ उनको आ घेरेगी जिसका वे मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।
۞وَمَا مِن دَآبَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِ رِزۡقُهَا وَيَعۡلَمُ مُسۡتَقَرَّهَا وَمُسۡتَوۡدَعَهَاۚ كُلّٞ فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 7
(6) ज़मीन में चलनेवाला कोई जानदार ऐसा नहीं है जिसका रिज़्क़ अल्लाह के ज़िम्मे न हो और जिसके मुताल्लिक़ वह जानता हो कि कहाँ वह रहता है, और कहाँ वह सौंपा जाता है, सब कुछ एक साफ़ दफ़्तर में दर्ज है।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ ثُمَّ نَزَعۡنَٰهَا مِنۡهُ إِنَّهُۥ لَيَـُٔوسٞ كَفُورٞ ۝ 8
(9) अगर कभी हम इनसान को अपनी रहमत से नवाज़ने के बाद फिर उससे महरूम कर देते हैं तो वह मायूस होता है और नाशुक्री करने लगता है।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَٰهُ نَعۡمَآءَ بَعۡدَ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُ لَيَقُولَنَّ ذَهَبَ ٱلسَّيِّـَٔاتُ عَنِّيٓۚ إِنَّهُۥ لَفَرِحٞ فَخُورٌ ۝ 9
(10) और अगर उस मुसीबत के बाद जो उसपर आई थी हम उसे नेमत का मज़ा चखाते है तो कहता है मेरे तो सारे दलद्दर पार हो गए, फिर वह फूला नहीं समाता और अकड़ने लगता है।
إِلَّا ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 10
(11) इस ऐब से पाक अगर कोई हैं तो बस वे लोग जो सब्र करनेवाले और नेकूकार हैं और वही हैं जिनके लिए दरगुज़र भी है और बड़ा अज्र भी।
فَلَعَلَّكَ تَارِكُۢ بَعۡضَ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ وَضَآئِقُۢ بِهِۦ صَدۡرُكَ أَن يَقُولُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ كَنزٌ أَوۡ جَآءَ مَعَهُۥ مَلَكٌۚ إِنَّمَآ أَنتَ نَذِيرٞۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٌ ۝ 11
(12) तो (ऐ पैग़म्बर!) कहीं ऐसा न हो कि तुम उन चीज़ों में किसी चीज़ को (बयान करने से) छोड़ दो जो तुम्हारी तरफ़ वह्य की जा रही हैं और इस बात पर दिल तंग हो कि वे कहेंगे, “इस शख़्स पर कोई ख़ज़ाना क्यों न उतारा गया?” या यह कि “इसके साथ कोई फ़रिश्ता क्यों न आया?” तुम तो मह्ज़ ख़बरदार करनेवाले हो, आगे हर चीज़ का हवालेदार अल्लाह है।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِعَشۡرِ سُوَرٖ مِّثۡلِهِۦ مُفۡتَرَيَٰتٖ وَٱدۡعُواْ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 12
(13) क्या ये कहते हैं कि “पैग़म्बर ने यह किताब ख़ुद गढ़ ली है?” कहो, “अच्छा यह बात है तो इस जैसी गढ़ी हुई दस सूरतें तुम बना लाओ और अल्लाह के सिवा और जो-जो (तुम्हारे माबूद) हैं उनको मदद के लिए बुला सकते हो तो बुला लो अगर तुम (उन्हें माबूद समझने में) सच्चे हो।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُعۡرَضُونَ عَلَىٰ رَبِّهِمۡ وَيَقُولُ ٱلۡأَشۡهَٰدُ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ أَلَا لَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 13
(18) और उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ गढ़े?10 ऐसे लोग अपने रब के हुज़ूर पेश होंगे और गवाह शहादत देंगे कि ये हैं वे लोग जिन्होंने अपने रब पर झूठ गढ़ा था। सुनो! ख़ुदा की लानत है ज़ालिमों पर11
10. यानी यह कहे कि अल्लाह के साथ ख़ुदाई और इसतिहक़ाक़े-बन्दगी में दूसरे भी शरीक हैं। या यह कहे कि ख़ुदा को अपने बन्दों की हिदायत व ज़लालत से कोई दिलचस्पी नहीं है और उसने कोई किताब और कोई नबी हमारी हिदायत के लिए नहीं भेजा है, बल्कि हमें आज़ाद छोड़ दिया है कि जो ढंग चाहें अपनी ज़िन्दगी के लिए इख़्तियार कर लें। या यह कहे कि ख़ुदा ने हमें यूँ ही खेल के तौर पर पैदा किया और यूँ ही हमको ख़त्म कर देगा, कोई जवाबदेही हमें उसके सामने नहीं करनी है और कोई जज़ा व सज़ा नहीं होनी है।
11. अन्दाज़े-बयान से ज़ाहिर है कि यह बात आख़िरत में उनकी पेशी के मौक़े पर कही जाएगी।
فَإِلَّمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَكُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أُنزِلَ بِعِلۡمِ ٱللَّهِ وَأَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 14
(14) अब अगर वे (तुम्हारे माबूद) तुम्हारी मदद को नहीं पहुँचते तो जान लो कि यह अल्लाह के इल्म से नाज़िल हई है और यह कि अल्लाह के सिवा कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं है। फिर क्या तुम (इस अम्रे-हक़ के आगे) सरे-तसलीम ख़म करते हो?”
ٱلَّذِينَ يَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 15
(19) — उन ज़ालिमों पर जो ख़ुदा के रास्ते से लोगों को रोकते हैं, उसके रास्ते को टेढ़ा करना चाहते हैं, और आख़िरत का इनकार करते हैं।
مَن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا نُوَفِّ إِلَيۡهِمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ فِيهَا وَهُمۡ فِيهَا لَا يُبۡخَسُونَ ۝ 16
(15) जो लोग बस इस दुनिया की ज़िन्दगी और इसकी ख़ुशनुमाइयों के तालिब होते हैं उनकी कारगुज़ारी का सारा फल हम यहीं उनको दे देते हैं और उसमें से उनके साथ कोई कमी नहीं की जाती।।
أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يَكُونُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كَانَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِنۡ أَوۡلِيَآءَۘ يُضَٰعَفُ لَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ مَا كَانُواْ يَسۡتَطِيعُونَ ٱلسَّمۡعَ وَمَا كَانُواْ يُبۡصِرُونَ ۝ 17
(20) — वे ज़मीन में अल्लाह को बेबस करनेवाले न थे और न अल्लाह के मुक़ाबले में कोई उनका हामी था। उन्हें अब दोहरा अज़ाब दिया जाएगा। न किसी की सुन ही सकते थे और न ख़ुद ही उन्हें कुछ सूझता था।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَيۡسَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا ٱلنَّارُۖ وَحَبِطَ مَا صَنَعُواْ فِيهَا وَبَٰطِلٞ مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 18
(16) मगर आख़िरत में ऐसे लोगों के लिए आग के सिवा कुछ नहीं है। (वहाँ मालूम हो जाएगा कि) जो कुछ उन्होंने दुनिया में बनाया वह सब मलिया-मेट हो गया और अब उनका सारा किया-धरा मह्ज़ बातिल है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 19
(21) ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने-आपको ख़ुद घाटे में डाला और वे सब कुछ इनसे खोया गया जो इन्होंने गढ़ रखा था।
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ وَيَتۡلُوهُ شَاهِدٞ مِّنۡهُ وَمِن قَبۡلِهِۦ كِتَٰبُ مُوسَىٰٓ إِمَامٗا وَرَحۡمَةًۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ مِنَ ٱلۡأَحۡزَابِ فَٱلنَّارُ مَوۡعِدُهُۥۚ فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُۚ إِنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 20
(17) फिर भला वह शख़्स जो अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ शहादत रखता था,8 इसके बाद एक गवाह भी परवरदिगार की तरफ़ से (उस शहादत की ताईद में) आ गया,9 और पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत के तौर पर आई हुई भी मौजूद थी (क्या वह भी दुनिया-परस्तों की तरह इससे इनकार कर सकता है?) ऐसे लोग तो इसपर ईमान ही लाएँगे। और इनसानी गरोहों में में जो कोई इसका इनकार करे तो उसके लिए जिस जगह का वादा है, वह दोज़ख़ है। पस (ऐ पैग़म्बर!) तुम इस चीज़ की तरफ़ से किसी शक में न पड़ना, यह हक़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से मगर अकसर लोग नहीं मानते।
8. यानी जिसको ख़ुद अपने वुजूद में और ज़मीन व आसमान की साख़्त में और कायनात के नज़्म व नस्क़ में इस अम्र की खुली शहादत मिल रही थी कि इस दुनिया का ख़ालिक़, मालिक, परवरदिगार और हाकिम व फ़रमाँरवा सिर्फ़ अल्लाह है, और फिर उन्हीं शहादतों को देखकर जिसका दिल यह गवाही भी पहले ही से दे रहा था कि इस जिन्दगी के बाद कोई और ज़िन्दगी ज़रूर होनी चाहिए जिसमें इनसान अपने ख़ुदा को अपने आमाल का हिसाब दे और अपने किए की जज़ा व सज़ा पाए।
9. यानी क़ुरआन, जिसने आकर इस फ़ितरी व अक़्ली शहादत की ताईद की और उसे बताया कि फ़िल-वाक़े हक़ीक़त वही है जिसका निशान आफ़ाक़ व अनफ़ुस के आसार में तूने पाया है।
لَا جَرَمَ أَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡأَخۡسَرُونَ ۝ 21
(22) नागुज़ीर है कि वही आख़िरत सबसे बढ़कर घाटे में रहें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَأَخۡبَتُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 22
(23) रहे वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए और अपने रब ही के होकर रहे, तो यक़ीनन वे जन्नती लोग हैं और जन्नत में वे हमेशा रहेंगे।
۞مَثَلُ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ كَٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡأَصَمِّ وَٱلۡبَصِيرِ وَٱلسَّمِيعِۚ هَلۡ يَسۡتَوِيَانِ مَثَلًاۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 23
(24) इन दोनों फ़रीक़ों की मिसाल ऐसी है जैसे एक आदमी तो हो अंधा और बहरा और दूसरा हो देखने और सुननेवाला, क्या ये दोनों यकसाँ हो सकते हैं? क्या तुम (इस मिसाल से) कोई सबक़ नहीं लेते?
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦٓ إِنِّي لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 24
(25) और (ऐसे ही हालात थे) जब हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा था। (उसने कहा), “मैं तुम लोगों को साफ़-साफ़ ख़बरदार करता हूँ
وَلَا يَنفَعُكُمۡ نُصۡحِيٓ إِنۡ أَرَدتُّ أَنۡ أَنصَحَ لَكُمۡ إِن كَانَ ٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يُغۡوِيَكُمۡۚ هُوَ رَبُّكُمۡ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 25
(34) अब अगर मैं तुम्हारी कुछ ख़ैरख़ाही करना भी चाहूँ तो मेरी ख़ैरख़ाही तुम्हें कोई फ़ायदा नहीं दे सकती जब कि अल्लाह ही ने तुम्हें भटका देने का इरादा कर लिया हो,12 वही तुम्हारा रब है और उसी की तरफ़ तुम्हें पलटना है।”
12. यानी अगर अल्लाह ने तुम्हारी हठधर्मी, शरपसन्दी और ख़ैर से बे-रग़बती देखकर यह फ़ैसला कर लिया है कि तुम्हें रास्त-रवी की तौफ़ीक़ न दे और जिन राहों में ख़ुद भटकना चाहते हो उन्हीं में तुमको भटका दे तो अब तुम्हारी भलाई के लिए मेरी कोई कोशिश कारगर नहीं हो सकती।
أَن لَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ أَلِيمٖ ۝ 26
(26) कि अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो, नहीं तो मुझे आशंका है कि तुमपर एक दिन दर्दनाक अज़ाब आएगा।”
فَقَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ مَا نَرَىٰكَ إِلَّا بَشَرٗا مِّثۡلَنَا وَمَا نَرَىٰكَ ٱتَّبَعَكَ إِلَّا ٱلَّذِينَ هُمۡ أَرَاذِلُنَا بَادِيَ ٱلرَّأۡيِ وَمَا نَرَىٰ لَكُمۡ عَلَيۡنَا مِن فَضۡلِۭ بَلۡ نَظُنُّكُمۡ كَٰذِبِينَ ۝ 27
(27) जवाब में उसकी क़ौम के सरदार, जिन्होंने उसकी बात मानने से इनकार किया था, बोले, “हमारी नज़र में तो तुम इसके सिवा कुछ नहीं हो कि बस एक इनसान हो हम जैसे। और हम देख रहे हैं कि हमारी क़ौम में से बस उन लोगों ने, जो हमारे यहाँ अराज़िल थे, बे सोचे-समझे तुम्हारी पैरवी इख़्तियार कर ली है। और हम कोई चीज़ भी ऐसी नहीं पाते जिसमें तुम लोग हमसे कुछ बढ़े हुए हो, बल्कि हम तो तुम्हें झूठा समझते हैं।”
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَعَلَيَّ إِجۡرَامِي وَأَنَا۠ بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُجۡرِمُونَ ۝ 28
(35) (ऐ नबी!) क्या ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने ये सब कुछ ख़ुद गढ़ लिया है? इनसे कहो, “अगर मैंने यह ख़ुद गढ़ा है तो मुझपर अपने जुर्म की ज़िम्मेदारी है, और जो जुर्म तुम कर रहे हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।”
وَأُوحِيَ إِلَىٰ نُوحٍ أَنَّهُۥ لَن يُؤۡمِنَ مِن قَوۡمِكَ إِلَّا مَن قَدۡ ءَامَنَ فَلَا تَبۡتَئِسۡ بِمَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 29
(36) नूह पर वह्य की गई कि तुम्हारी क़ौम में से जो लोग ईमान ला चुके, बस वे ला चुके, अब कोई माननेवाला नहीं है। उनके करतूतों पर ग़म खाना छोड़ दो
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَءَاتَىٰنِي رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِهِۦ فَعُمِّيَتۡ عَلَيۡكُمۡ أَنُلۡزِمُكُمُوهَا وَأَنتُمۡ لَهَا كَٰرِهُونَ ۝ 30
(28) उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! ज़रा सोचो तो सही कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक खुली शहादत पर क़ायम था और फिर उसने मुझको अपनी ख़ास रहमत से भी नवाज़ दिया। मगर वह तुमको नज़र न आई तो आख़िर हमारे पास क्या ज़रिआ है कि तुम मानना न चाहो और हम ज़बरदस्ती उसको तुम्हारे सिर चपेक दें?
وَٱصۡنَعِ ٱلۡفُلۡكَ بِأَعۡيُنِنَا وَوَحۡيِنَا وَلَا تُخَٰطِبۡنِي فِي ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِنَّهُم مُّغۡرَقُونَ ۝ 31
(37) और हमारी निगरानी में हमारी वह्य के मुताबिक़ एक कश्ती बनानी शुरू कर दो। और देखो जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है उनके हक़ में मुझसे कोई सिफ़ारिश न करना, ये सारे-के-सारे अब डूबनेवाले हैं।
وَيَٰقَوۡمِ لَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مَالًاۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۚ وَمَآ أَنَا۠ بِطَارِدِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْۚ إِنَّهُم مُّلَٰقُواْ رَبِّهِمۡ وَلَٰكِنِّيٓ أَرَىٰكُمۡ قَوۡمٗا تَجۡهَلُونَ ۝ 32
(29) और ऐ बिरादराने-क़ौम! मैं इस काम पर तुमसे कोई माल नहीं माँगता, मेरा अज्र तो अल्लाह के ज़िम्मे है। और मैं उन लोगों को धक्के देने से भी रहा जिन्होंने मेरी बात मानी है, वे आप ही अपने रब के हुज़ूर जानेवाले हैं। मगर मैं देखता हूँ कि तुम लोग जहालत बरत रहे हो।
وَيَصۡنَعُ ٱلۡفُلۡكَ وَكُلَّمَا مَرَّ عَلَيۡهِ مَلَأٞ مِّن قَوۡمِهِۦ سَخِرُواْ مِنۡهُۚ قَالَ إِن تَسۡخَرُواْ مِنَّا فَإِنَّا نَسۡخَرُ مِنكُمۡ كَمَا تَسۡخَرُونَ ۝ 33
(38) नूह कश्ती बना रहा था और उसकी क़ौम के सरदारों में से जो कोई उसके पास से गुज़रता था वह उसका मज़ाक़ उड़ाता था। उसने कहा, “अगर तुम हमपर हँसते हो तो हम भी तुमपर हँस रहे हैं,
وَيَٰقَوۡمِ مَن يَنصُرُنِي مِنَ ٱللَّهِ إِن طَرَدتُّهُمۡۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 34
(30) और ऐ क़ौम! अगर मैं इन लोगों को धुतकार दूँ तो ख़ुदा की पकड़ से कौन मुझे बचाने आएगा? तुम लोगों की समझ में क्या इतनी बात भी नहीं आती?
فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَيَحِلُّ عَلَيۡهِ عَذَابٞ مُّقِيمٌ ۝ 35
(39) अन-क़रीब तुम्हें ख़ुद मालूम हो जाएगा कि किसपर वह अज़ाब आता है जो उसे रुसवा कर देगा और किसपर वह बला टूट पड़ती है जो टाले न टलेगी।”13
13. यह एक अजीब मामला है जिसपर ग़ौर करने से मालूम होता है कि इनसान दुनिया के ज़ाहिर से किस क़दर धोखा खाता है। जब नूह (अलैहि०) दरिया से बहुत दूर ख़ुश्की पर अपना जहाज़ बना रहे होंगे तो फ़िल-वाक़े लोगों को यह एक निहायत मज़हकाख़ेज़ फ़ेल महसूस होता होगा और वे हँस-हँसकर कहते होंगे कि बड़े मियाँ की दीवानगी आख़िर यहाँ तक पहुँची कि अब आप ख़ुश्की में जहाज़ चलाएँगे। उस वक़्त किसी के ख़ाब व ख़याल में भी यह बात न आ सकती होगी कि चंद रोज़ बाद वाक़ई यहाँ जहाज़ चलेगा। लेकिन जो शख़्स हक़ीक़त का इल्म रखता था और जिसे मालूम था कि कल यहाँ जहाज़ की क्या ज़रूरत पेश आनेवाली है उसे उन लोगों की जहालत व बेख़बरी पर और फिर उनके अमक़ाना इत्मीनान पर उलटी हँसी आती होगी और वह कहता होगा कि किस क़दर नादान है ये लोग कि शामत इनके सिर पर तुली खड़ी है, मैं इन्हें ख़रबदारकर चुका हूँ कि वह बस आया चाहती है और इनकी आँखों के सामने इससे बचने की तैयारी भी कर रहा हूँ, मगर ये मुत्मइन बैठे हैं और उलटा मुझे दीवाना समझ रहे हैं।
وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ إِنِّي مَلَكٞ وَلَآ أَقُولُ لِلَّذِينَ تَزۡدَرِيٓ أَعۡيُنُكُمۡ لَن يُؤۡتِيَهُمُ ٱللَّهُ خَيۡرًاۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا فِيٓ أَنفُسِهِمۡ إِنِّيٓ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 36
(31) और मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, न यह कहता हूँ कि मैं ग़ैब का इल्म रखता हूँ, न यह मेरा दावा है कि मैं फ़रिश्ता हूँ। और यह भी मैं नहीं कह सकता कि जिन लोगों को तुम्हारी आँखें हिक़ारत से देखती हैं उन्हें अल्लाह ने कोई भलाई नहीं दी। उनके नफ़्स का हाल अल्लाह ही बेहतर जानता है। अगर मैं ऐसा कहूँ तो ज़ालिम हूँगा।”
قَالُواْ يَٰنُوحُ قَدۡ جَٰدَلۡتَنَا فَأَكۡثَرۡتَ جِدَٰلَنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 37
(32) आख़िरकार उन लोगों ने कहा “ऐ नूह! तुमने हमसे झगड़ा किया और बहुत कर लिया। अब तो बस वह अज़ाब ले आओ जिसकी तुम हमें धमकी देते हो अगर सच्चे हो।”
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ قُلۡنَا ٱحۡمِلۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ وَمَنۡ ءَامَنَۚ وَمَآ ءَامَنَ مَعَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٞ ۝ 38
(40) यहाँ तक कि जब हमारा हुक्म आ गया और वह तन्नूर उबल पड़ा14 तो हमने कहा, “हर क़िस्म के जानवरों का एक-एक जोड़ा कश्ती में रख लो, अपने घरवालों को भी — सिवाय उन अशख़ास के जिनकी निशानदेही पहले की जा चुकी है।15 — उसमें सवार करा दो और उन लोगों को भी बिठा लो जो ईमान लाए हैं।” और थोड़े ही लोग थे जो नूह के साथ ईमान लाए थे।
14. इसके मुताल्लिक़ मुफ़स्सिरीन के अक़वाल मुख़्तलिफ़ हैं। मगर हमारे नज़दीक सही वही है जो क़ुरआन के सरीह अलफ़ाज़ से समझ में आता है कि तूफ़ान की इबतिदा एक ख़ास तन्नूर से हुई जिसके नीचे से पानी का चश्मा फूट पड़ा, फिर एक तरफ़ आसमान से मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और दूसरी तरफ़ जगह-जगह से चश्मे फूटने लगे।
15. यानी तुम्हारे घर के जिन अफ़राद के मुताल्लिक़ पहले बताया जा चुका है कि वे काफ़िर हैं और अल्लाह तआला की रहमत के मुस्तहिक़ नहीं हैं उन्हें कश्ती में न बिठाओ।
قَالَ إِنَّمَا يَأۡتِيكُم بِهِ ٱللَّهُ إِن شَآءَ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 39
(33) नूह ने जवाब दिया, “वह तो अल्लाह ही लाएगा अगर चाहेगा, और तुम इतना बलबूता नहीं रखते कि उसे रोक दो।
۞وَقَالَ ٱرۡكَبُواْ فِيهَا بِسۡمِ ٱللَّهِ مَجۡرٜىٰهَا وَمُرۡسَىٰهَآۚ إِنَّ رَبِّي لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 40
(41) नूह ने कहा, “सवार हो जाओ इसमें, अल्लाह ही के नाम से है इसका चलना भी और इसका ठहरना भी, मेरा रब बड़ा ग़फ़ूर व रहीम है।”
وَهِيَ تَجۡرِي بِهِمۡ فِي مَوۡجٖ كَٱلۡجِبَالِ وَنَادَىٰ نُوحٌ ٱبۡنَهُۥ وَكَانَ فِي مَعۡزِلٖ يَٰبُنَيَّ ٱرۡكَب مَّعَنَا وَلَا تَكُن مَّعَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 41
(42) कश्ती इन लोगों को लिए चली जा रही थी और एक-एक मौज पहाड़ की तरह उठ रही थी। नूह का बेटा दूर फ़ासले पर था। नूह ने पुकारकर कहा, बेटा! हमारे साथ सवार हो जा, काफ़िरों के साथ न रह।”
قَالَ سَـَٔاوِيٓ إِلَىٰ جَبَلٖ يَعۡصِمُنِي مِنَ ٱلۡمَآءِۚ قَالَ لَا عَاصِمَ ٱلۡيَوۡمَ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِ إِلَّا مَن رَّحِمَۚ وَحَالَ بَيۡنَهُمَا ٱلۡمَوۡجُ فَكَانَ مِنَ ٱلۡمُغۡرَقِينَ ۝ 42
(43) उसने पलटकर जवाब दिया, “मैं अभी एक पहाड़ पर चढ़ा जाता हूँ जो मुझे पानी से बचा लेगा।” नूह ने कहा, “आज कोई चीज़ अल्लाह के हुक्म से बचानेवाली नहीं है सिवाय इसके कि अल्लाह ही किसी पर रहम फ़रमाए।” इतने में एक मौज दोनों के दरमियान हायल हो गई और वह भी डूबनेवालों में शामिल हो गया।
وَقِيلَ يَٰٓأَرۡضُ ٱبۡلَعِي مَآءَكِ وَيَٰسَمَآءُ أَقۡلِعِي وَغِيضَ ٱلۡمَآءُ وَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ وَٱسۡتَوَتۡ عَلَى ٱلۡجُودِيِّۖ وَقِيلَ بُعۡدٗا لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 43
(44) हुक्म हुआ, “ऐ ज़मीन! अपना सारा पानी निगल जा और ऐ आसमान! रुक जा।” चुनाँचे पानी ज़मीन में बैठ गया, फ़ैसला चुका दिया गया, कश्ती जूदी16 पर टिक गई, और कह दिया गया कि दूर हुई ज़ालिमों की क़ौम!
16. जूदी पहाड़ कुर्दिस्तान इलाक़े में जज़ीरा-ए-इब्ने-उमर के शिमाल-मशरिक़ी जानिब वाक़े है और आज भी जूदी के नाम ही से मशहूर है।
قَالَ يَٰنُوحُ إِنَّهُۥ لَيۡسَ مِنۡ أَهۡلِكَۖ إِنَّهُۥ عَمَلٌ غَيۡرُ صَٰلِحٖۖ فَلَا تَسۡـَٔلۡنِ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۖ إِنِّيٓ أَعِظُكَ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 44
(46) जवाब में इरशाद हुआ, “ऐ नूह! वह तेरे घरवालों में से नहीं है, वह तो एक बिगड़ा हुआ काम है,17 लिहाज़ा तू उस बात की मुझसे दरख़ास्त न कर जिसकी हक़ीक़त तू नहीं जानता, मैं तुझे नसीहत करता हूँ कि अपने आपको जाहिलों की तरह न बना ले।”
17. यह ऐसा ही है जैसे एक शख़्स के जिस्म का कोई उज़्व सड़ गया हो और डॉक्टर ने उसको काट फेंकने का फ़ैसला किया हो। अब वह मरीज़ डॉक्टर से कहता है कि यह तो मेरे जिस्म का एक हिस्सा है, इसे क्यों काटते हो? और डॉक्टर उसके जवाब में कहता है कि यह तुम्हारे जिस्म का हिस्सा नहीं रहा है क्योंकि यह सड़ चुका है। पस एक सॉलेह बाप से उसके नालायक़ बेटे के बारे में यह कहना कि यह बिगड़ा हुआ काम है, इसका मतलब यह है कि तुमने इसे परवरिश करने में जो मेहनत की वह ज़ाया हो गई और यह काम बिगड़ गया।
وَنَادَىٰ نُوحٞ رَّبَّهُۥ فَقَالَ رَبِّ إِنَّ ٱبۡنِي مِنۡ أَهۡلِي وَإِنَّ وَعۡدَكَ ٱلۡحَقُّ وَأَنتَ أَحۡكَمُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 45
(45) नूह ने अपने रब को पुकारा। कहा, “ऐ रब! मेरा बेटा मेरे घरवालों में से है और तेरा वादा सच्चा है और तू सब हाकिमों से बड़ा और बेहतर हाकिम है।”
قَالَ رَبِّ إِنِّيٓ أَعُوذُ بِكَ أَنۡ أَسۡـَٔلَكَ مَا لَيۡسَ لِي بِهِۦ عِلۡمٞۖ وَإِلَّا تَغۡفِرۡ لِي وَتَرۡحَمۡنِيٓ أَكُن مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 46
(47) नूह ने फ़ौरन अर्ज़ किया, “ऐ मेरे रब! मैं तेरी पनाह माँगता हूँ इससे कि वह चीज़ तुझसे माँगूँ जिसका मुझे इल्म नहीं।18 अगर तूने मुझे माफ़ न किया और रह्म न फ़रमाया तो मैं बरबाद हो जाऊँगा।”
18. यानी ऐसी दरख़ास्त करूँ जिसके सही होने का मुझे इल्म नहीं है।
قِيلَ يَٰنُوحُ ٱهۡبِطۡ بِسَلَٰمٖ مِّنَّا وَبَرَكَٰتٍ عَلَيۡكَ وَعَلَىٰٓ أُمَمٖ مِّمَّن مَّعَكَۚ وَأُمَمٞ سَنُمَتِّعُهُمۡ ثُمَّ يَمَسُّهُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 47
(48) हुक्म हुआ, “ऐ नूह! उतर जा, हमारी तरफ़ से सलामती और बरकतें हैं। तुझपर और उन गरोहों पर जो तेरे साथ हैं, और कुछ गरोह ऐसे भी हैं जिनको हम कुछ मुद्दत सामाने-ज़िन्दगी बख़्शेंगे, फिर उन्हें हमारी तरफ़ से दर्दनाक अज़ाब पहुँचेगा।”
تِلۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهَآ إِلَيۡكَۖ مَا كُنتَ تَعۡلَمُهَآ أَنتَ وَلَا قَوۡمُكَ مِن قَبۡلِ هَٰذَاۖ فَٱصۡبِرۡۖ إِنَّ ٱلۡعَٰقِبَةَ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 48
(49) ऐ नबी! ये ग़ैब की ख़बरें हैं जो हम तुम्हारी तरफ़ वह्य कर रहे हैं। इससे पहले न तुम उनको जानते थे और न तुम्हारी क़ौम। पस सब्र करो, अंजामे-कार मुत्तक़ियों ही के हक़ में है।19
19. यानी जिस तरह नूह (अलैहि०) और उनके साथियों ही का आख़िरकार बोलबाला हुआ, उसी तरह तुम्हारा और तुम्हारे साथियों का भी होगा। लिहाज़ा इस वक़्त जो मसाइब और शदाइद तुमपर गुज़र रहे हैं उनसे बददिल न हो, बल्कि हिम्मत और सब्र के साथ अपना काम किए चले जाओ।
وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۖ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُفۡتَرُونَ ۝ 49
(50) और आद की तरफ़ हमने उनके भाई हूद को भेजा। उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! अल्लाह की बन्दगी करो, तुम्हारा कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं है। तुमने मह्ज़ झूठ गढ़ रखे हैं।
يَٰقَوۡمِ لَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًاۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱلَّذِي فَطَرَنِيٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 50
(51) ऐ बिरादराने-क़ौम! इस काम पर मैं तुमसे कोई अज्र नहीं चाहता, मेरा अज्र तो उसके ज़िम्मे है जिसने मुझे पैदा किया है, क्या तुम अक़्ल से ज़रा काम नहीं लेते?
وَيَٰقَوۡمِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُرۡسِلِ ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡكُم مِّدۡرَارٗا وَيَزِدۡكُمۡ قُوَّةً إِلَىٰ قُوَّتِكُمۡ وَلَا تَتَوَلَّوۡاْ مُجۡرِمِينَ ۝ 51
(52) और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अपने रब से माफ़ी चाहो, फिर उसकी तरफ़ पलटो, वह तुमपर आसमान के दहाने खोल देगा और तुम्हारी मौजूदा क़ुव्वत पर मज़ीद कुव्वत का इज़ाफ़ा करेगा। मुजरिम बनकर (बन्दगी से) मुँह न फेरो।”
قَالُواْ يَٰهُودُ مَا جِئۡتَنَا بِبَيِّنَةٖ وَمَا نَحۡنُ بِتَارِكِيٓ ءَالِهَتِنَا عَن قَوۡلِكَ وَمَا نَحۡنُ لَكَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 52
(53) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ हूद! तू हमारे पास कोई सरीह शहादत लेकर नहीं आया है और तेरे कहने से हम अपने माबूदों को नहीं छोड़ सकते, और तुझपर हम ईमान लानेवाले नहीं हैं।
إِن نَّقُولُ إِلَّا ٱعۡتَرَىٰكَ بَعۡضُ ءَالِهَتِنَا بِسُوٓءٖۗ قَالَ إِنِّيٓ أُشۡهِدُ ٱللَّهَ وَٱشۡهَدُوٓاْ أَنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 53
(54) हम तो यह समझते हैं कि तेरे ऊपर हमारे माबूदों में से किसी की मार पड़ गई है।”20 हूद ने कहा, “मैं अल्लाह की शहादत पेश करता हूँ। और तुम गवाह रहो कि यह जो अल्लाह के सिवा दूसरों को तुमने ख़ुदाई में शरीक ठहरा रखा है इससे मैं बेज़ार हूँ।
20. यानी तूने किसी देवी या देवता या किसी हज़रत के आस्ताने पर कुछ गुस्ताख़ी की होगी, उसका ख़मियाज़ा है जो तू भुगत रहा है कि बहकी-बहकी बातें करने लगा है और वही बस्तियाँ जिनमें कल तू इज़्ज़त के साथ रहता था, आज वहाँ गालियों और पत्थरों से तेरी तवाज़ो हो रही है।
مِن دُونِهِۦۖ فَكِيدُونِي جَمِيعٗا ثُمَّ لَا تُنظِرُونِ ۝ 54
(55) तुम सब-के-सब मिलकर मेरे ख़िलाफ़ अपनी करनी में कसर न उठा रखो और मुझे ज़रा मुहलत न दो,
۞وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ هُوَ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱسۡتَعۡمَرَكُمۡ فِيهَا فَٱسۡتَغۡفِرُوهُ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي قَرِيبٞ مُّجِيبٞ ۝ 55
(61) और समूद की तरफ़ हमने उनके भाई सॉलेह को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। वही है जिसने तुमको ज़मीन से पैदा किया है और यहाँ तुमको बसाया है। लिहाज़ा तुम उससे माफ़ी चाहो और उसकी तरफ़ पलट आओ, यक़ीनन मेरा रब क़रीब है और वह दुआओं का जवाब देनेवाला है।”21
21. इस मुख़्तसर से फ़िकरे में हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने शिर्क के सारे कारोबार की जड़ काट दी है। मुशरिकीन समझते हैं और होशियार लोगों ने उनको ऐसा समझाने की कोशिश भी की है कि ख़ुदावन्दे-आलम का आस्ताना-ए-क़ुद्स आम इनसानों की दस्तरस से बहुत ही दूर है। उसके दरबार तक भला आम आदमी की पहुँच कैसे हो सकती है! वहाँ तक दुआओं का पहुँचना और फिर उनका जवाब मिलना तो किसी तरह मुमकिन ही नहीं हो सकता जब तक कि पाक रूहों का वसीला न ढूँढ़ा जाए और उन मज़हबी मनसबदारों की ख़िदमात न हासिल की जाएँ जो ऊपर तक नज़्रें, नियाज़ें और अर्ज़ियाँ पहुँचाने के ढब जानते हैं। यही वह ग़लतफ़हमी है जिसने बन्दे और ख़ुदा के दरमियान बहुत-से छोटे-बड़े माबूदों और सिफ़ारिशियों का एक जम्मे-ग़फ़ीर खड़ा कर दिया। हज़रत सॉलेह (अलैहि०) जाहिलियत के इस पूरे तिलिस्म को सिर्फ़ दो लफ़्ज़ों से तोड़ फेंकते हैं। एक यह कि अल्लाह क़रीब है। दूसरे यह कि वह दुआओं का जवाब देनेवाला है। यानी तुम्हारा यह ख़याल भी ग़लत है कि वह तुमसे दूर है और यह भी ग़लत है कि तुम बराहे-रास्त उसको पुकारकर अपनी दुआओं का जवाब हासिल नहीं कर सकते। तुममें से एक-एक शख़्स अपने पास ही उसको पा सकता है, उससे सरगोशी कर सकता है, अपनी अर्ज़ियाँ बराहे-रास्त उसके हुज़ूर पेश कर सकता है। और फिर वह बराहे-रास्त अपने हर बन्दे की दुआओं का जवाब भी ख़ुद देता है। पस जब सुल्ताने-कायनात का दरबारे-आम हर वक़्त हर शख़्स के लिए खुला है और हर शख़्स के क़रीब ही मौजूद है तो यह तुम किस हिमाक़त में पड़े हो कि उसके लिए वास्ते और वसीले और सिफ़ारिशी ढूँढ़ते फिरते हो?
قَالُواْ يَٰصَٰلِحُ قَدۡ كُنتَ فِينَا مَرۡجُوّٗا قَبۡلَ هَٰذَآۖ أَتَنۡهَىٰنَآ أَن نَّعۡبُدَ مَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا وَإِنَّنَا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ ۝ 56
(62) उन्होंने कहा, “ऐ सॉलेह! इससे पहले तू हमारे दरमियान ऐसा शख़्स था जिससे बड़ी तवक़्क़ुआत वाबस्ता थीं। क्या तू हमे उन माबूदों की परस्तिश से रोकना चाहता है जिनकी परस्तिश हमारे बाप-दादा करते थे? तू जिस तरीक़े की तरफ़ हमें बुला रहा है उसके बारे में हमको सख़्त शुबह है जिसने हमें ख़लजान में डाल रखा है।”
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَءَاتَىٰنِي مِنۡهُ رَحۡمَةٗ فَمَن يَنصُرُنِي مِنَ ٱللَّهِ إِنۡ عَصَيۡتُهُۥۖ فَمَا تَزِيدُونَنِي غَيۡرَ تَخۡسِيرٖ ۝ 57
(63) सॉलेह ने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! तुमने कुछ इस बात पर भी ग़ौर किया कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ शहादत रखता था, और फिर उसने अपनी रहमत से भी मुझको नवाज़ दिया तो इसके बाद अल्लाह की पकड़ से मुझे कौन बचाएगा, अगर मैं उसकी नाफ़रमानी करूँ? तुम मेरे किस काम आ सकते हो सिवाय इसके कि मुझे और ज़्यादा ख़सारे में डाल दो।
إِنِّي تَوَكَّلۡتُ عَلَى ٱللَّهِ رَبِّي وَرَبِّكُمۚ مَّا مِن دَآبَّةٍ إِلَّا هُوَ ءَاخِذُۢ بِنَاصِيَتِهَآۚ إِنَّ رَبِّي عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 58
(56) मेरा भरोसा अल्लाह पर है जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। कोई जानदार ऐसा नहीं जिसकी चोटी उसके हाथ में न हो। बेशक मेरा रब सीधी राह पर है।
وَيَٰقَوۡمِ هَٰذِهِۦ نَاقَةُ ٱللَّهِ لَكُمۡ ءَايَةٗۖ فَذَرُوهَا تَأۡكُلۡ فِيٓ أَرۡضِ ٱللَّهِۖ وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابٞ قَرِيبٞ ۝ 59
(64) और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! देखो यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी है। इसे ख़ुदा की ज़मीन में चरने के लिए आज़ाद छोड़ दो। इससे ज़रा तार्रुज़ न करना वरना कुछ ज़्यादा देर न गुज़रेगी कि तुमपर ख़ुदा का अज़ाब आ जाएगा।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُم مَّآ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦٓ إِلَيۡكُمۡۚ وَيَسۡتَخۡلِفُ رَبِّي قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ وَلَا تَضُرُّونَهُۥ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ رَبِّي عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَفِيظٞ ۝ 60
(57) अगर तुम मुँह फेरते हो तो फेर लो। जो पैग़ाम देकर मैं तुम्हारे पास भेजा गया था वह मैं तुमको पहुँचा चुका हूँ। अब मेरा रब तुम्हारी जगह दूसरी क़ौम को उठाएगा और तुम उसका कुछ न बिगाड़ सकोगे। यक़ीनन मेरा रब हर चीज़ पर निगराँ है।”
قَالُوٓاْ أَتَعۡجَبِينَ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِۖ رَحۡمَتُ ٱللَّهِ وَبَرَكَٰتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِۚ إِنَّهُۥ حَمِيدٞ مَّجِيدٞ ۝ 61
(73) फ़रिश्तों ने कहा, “अल्लाह के हुक्म पर ताज्जुब करती हो? इबराहीम के घरवालो! तुम लोगों पर तो अल्लाह की रहमत और उसकी बरकतें हैं, और यक़ीनन अल्लाह निहायत क़ाबिले- तारीफ़ और बड़ी शानवाला है।”
فَعَقَرُوهَا فَقَالَ تَمَتَّعُواْ فِي دَارِكُمۡ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٖۖ ذَٰلِكَ وَعۡدٌ غَيۡرُ مَكۡذُوبٖ ۝ 62
(65) मगर उन्होंने ऊँटनी को मार डाला। इसपर सॉलेह ने उनको ख़बरदार कर दिया कि “बस अब तीन दिन अपने घरों में और रह-बसलो। यह ऐसी मीआद है जो झूठी न साबित होगी।”
وَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا هُودٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَنَجَّيۡنَٰهُم مِّنۡ عَذَابٍ غَلِيظٖ ۝ 63
(58) फिर जब हमारा हुक्म आ गया तो हमने अपनी रहमत से हूद को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए थे नजात दे दी और एक सख़्त अज़ाब से उन्हें बचा लिया।
فَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا صَٰلِحٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَمِنۡ خِزۡيِ يَوۡمِئِذٍۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡعَزِيزُ ۝ 64
(66) आख़िरकार जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ गया तो हमने अपनी रहमत से सॉलेह को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए थे बचा लिया और उस दिन की रुसवाई से उनको महफ़ूज़ रखा। बेशक तेरा रब ही दरअस्ल ताक़तवर और बालादस्त है।
فَلَمَّا ذَهَبَ عَنۡ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلرَّوۡعُ وَجَآءَتۡهُ ٱلۡبُشۡرَىٰ يُجَٰدِلُنَا فِي قَوۡمِ لُوطٍ ۝ 65
(74) फिर जब इबराहीम की घबराहट दूर हो गई और (औलाद की बशारत से) उसका दिल ख़ुश हो गया तो उसने क़ौमे-लूत के मामले में हमसे झगड़ा किया।25
25. 'झगड़े' का लफ़्ज़ इस मौक़े पर उस इन्तिहाई मुहब्बत और नाज़ के ताल्लुक़ को ज़ाहिर करता है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने ख़ुदा के साथ रखते थे। इस लफ़्ज़ से यह तस्वीर आँखों के सामने फिर जाती है कि बन्दे और ख़ुदा के दरमियान बड़ी देर तक रद्दो- कद जारी रहती है। बन्दा इसरार कर रहा है कि किसी तरह क़ौमे-लूत पर से अज़ाब टाल दिया जाए। ख़ुदा जवाब में कह रहा है कि यह क़ौम अब ख़ैर से बिलकुल ख़ाली हो चुकी है। और इसके जराइम इस हद से गुज़र चुके हैं कि इसके साथ कोई रिआयत की जा सके। मगर बन्दा है कि फिर यही कहे जाता है कि “परवरदिगार! अगर कुछ थोड़ी-सी भलाई भी उसमें बाक़ी हो तो उसे और ज़रा मुहलत दे दे शायद कि वह भलाई फल ले आए।”
وَتِلۡكَ عَادٞۖ جَحَدُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ وَعَصَوۡاْ رُسُلَهُۥ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَمۡرَ كُلِّ جَبَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 66
(59) ये हैं आद, अपने रब की आयात से इन्होंने इनकार किया, उसके रसूलों की बात न मानी, और हर जब्बार दुश्मने-हक़ की पैरवी करते रहे।
وَأَخَذَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلصَّيۡحَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دِيَٰرِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 67
(67) रहे वे लोग जिन्होंने ज़ुल्म किया था तो एक सख़्त धमाके ने उनको धर लिया और वे अपनी बस्तियों में इस तरह बेहिस व हरकत पड़े-के-पड़े रह गए
وَأُتۡبِعُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا لَعۡنَةٗ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ عَادٗا كَفَرُواْ رَبَّهُمۡۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّعَادٖ قَوۡمِ هُودٖ ۝ 68
(60) आख़िरकार इस दुनिया में भी उनपर फिटकार पड़ी और क़ियामत के रोज़ भी। सुनो! आद ने अपने रब से कुफ़्र किया। सुनो! दूर फेंक दिए गए आद, हूद की क़ौम के लोग।
إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَحَلِيمٌ أَوَّٰهٞ مُّنِيبٞ ۝ 69
(75) हक़ीक़त में इबराहीम बड़ा हलीम और नर्म दिल आदमी था और हर हाल में हमारी तरफ़ रुजूअ करता था।
كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَآۗ أَلَآ إِنَّ ثَمُودَاْ كَفَرُواْ رَبَّهُمۡۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّثَمُودَ ۝ 70
(68) कि गोया वे वहाँ कभी बसे ही न थे। सुनो! समूद ने अपने रब से कुफ़्र किया। सुनो! दूर फेंक दिए गए समूद!
يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَآۖ إِنَّهُۥ قَدۡ جَآءَ أَمۡرُ رَبِّكَۖ وَإِنَّهُمۡ ءَاتِيهِمۡ عَذَابٌ غَيۡرُ مَرۡدُودٖ ۝ 71
(76) (आख़िरकार हमारे फ़रिश्तों ने उससे कहा) “ऐ इबराहीम! इससे बाज़ आ जाओ, तुम्हारे रब का हुक्म हो चुका है और अब उन लोगों पर वह अज़ाब आकर रहेगा जो किसी के फेरे नहीं फिर सकता।”
وَلَقَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُنَآ إِبۡرَٰهِيمَ بِٱلۡبُشۡرَىٰ قَالُواْ سَلَٰمٗاۖ قَالَ سَلَٰمٞۖ فَمَا لَبِثَ أَن جَآءَ بِعِجۡلٍ حَنِيذٖ ۝ 72
(69) और देखो! इबराहीम के पास हमारे फ़रिश्ते ख़ुशख़बरी लिए हुए पहुँचे। कहा तुमपर सलाम हो। इबराहीम ने जवाब दिया, “तुमपर भी सलाम हो।” कर कुछ देर न गुज़री कि इबराहीम एक भुना हुआ बछड़ा (उनकी ज़ियाफ़त हमने के लिए) ले आया।22
22. इससे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के यहाँ इनसानी सूरत में पहुँचे थे और इबतिदाअन उन्होंने अपना तआरुफ़ नहीं कराया था, इसलिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने ख़याल किया कि ये कोई अजनबी मेहमान हैं और उनके आते ही फ़ौरन उनकी ज़ियाफ़त का इन्तिज़ाम फ़रमाया।
وَلَمَّا جَآءَتۡ رُسُلُنَا لُوطٗا سِيٓءَ بِهِمۡ وَضَاقَ بِهِمۡ ذَرۡعٗا وَقَالَ هَٰذَا يَوۡمٌ عَصِيبٞ ۝ 73
(77) और जब हमारे फ़रिश्ते लूत के पास पहुँचे तो उनकी आमद से वह बहुत घबराया और दिल तंग हुआ और कहने लगा कि आज बड़ी मुसीबत का दिन है।26
26. ये फ़रिश्ते ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में हज़रत लूत (अलैहि०) के यहाँ पहुँचे थे और वे इस बात से बेख़बर थे कि ये फ़रिश्ते हैं। यही सबब था कि इन मेहमानों की आमद से आपको सख़्त परेशानी व दिलतंगी लाहिक़ हुई। अपनी क़ौम को जानते थे कि वह कैसी बदकिरदार और कितनी बेहया हो चुकी है।
فَلَمَّا رَءَآ أَيۡدِيَهُمۡ لَا تَصِلُ إِلَيۡهِ نَكِرَهُمۡ وَأَوۡجَسَ مِنۡهُمۡ خِيفَةٗۚ قَالُواْ لَا تَخَفۡ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمِ لُوطٖ ۝ 74
(70) मगर जब देखा कि उनके हाथ खाने पर नहीं बढ़ते23 तो वह उनसे मुश्तबह हो गया और दिल में उनसे ख़ौफ़ महसूस करने लग। उन्होंने कहा, “डरो नहीं, हम तो लूत की क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं।”
23. इससे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को मालूम हुआ कि ये फ़रिश्ते हैं।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَرَزَقَنِي مِنۡهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أُخَالِفَكُمۡ إِلَىٰ مَآ أَنۡهَىٰكُمۡ عَنۡهُۚ إِنۡ أُرِيدُ إِلَّا ٱلۡإِصۡلَٰحَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُۚ وَمَا تَوۡفِيقِيٓ إِلَّا بِٱللَّهِۚ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ ۝ 75
(88) शुऐब ने कहा, “भाइयो! तुम ख़ुद ही सोचो कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक खुली शहादत पर था और फिर उसने मुझे अपने हाँ से अच्छा रिज़्क़ भी अता किया29 (तो उसके बाद मैं तुम्हारी गुमराहियों और हराम-ख़ोरियों में तुम्हारा शरीके-हाल कैसे हो सकता हूँ?) और मैं हरगिज़ यह नहीं चाहता कि जिन बातों से मैं तुमको रोकता उनका ख़ुद इरतिकाब करूँ। मैं तो इसलाह करना चाहता हूँ जहाँ तक भी मेरा बस चले। और यह जो कुछ में करना चाहता हूँ उसका सारा इनहिसार अल्लाह की तौफ़ीक़ पर है, उसी पर मैंने भरोसा किया और हर मामले में उसी की तरफ़ मैं रुजूअ करता हूँ।
29. यानी अगर मेरे रब ने मुझे हक़-शनास बसीरत भी दी हो और रिज़्क़े-हलाल भी अता किया हो तो मेरे लिए यह किस तरह जाइज़ हो सकता है कि जब ख़ुदा ने मुझपर यह फ़ज़्ल किया है तो मैं तुम्हारी गुमराहियों और हरामख़ोरियों को हक़ और हलाल कहकर उसकी नाशुक्री करूँ।
وَجَآءَهُۥ قَوۡمُهُۥ يُهۡرَعُونَ إِلَيۡهِ وَمِن قَبۡلُ كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِي هُنَّ أَطۡهَرُ لَكُمۡۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ فِي ضَيۡفِيٓۖ أَلَيۡسَ مِنكُمۡ رَجُلٞ رَّشِيدٞ ۝ 76
(78) (इन मेहमानों का आना था कि) उसकी क़ौम के लोग बेइख़्तियार उसके घर की तरफ़ दौड़ पड़े। पहले से वे ऐसी ही बदकारियों के ख़ूगर थे। लूत ने उनसे कहा, “भाइयो! ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं, ये तुम्हारे लिए पाकीज़ातर हैं।27 कुछ ख़ुदा का ख़ौफ़ करो और मेरे मेहमानों के मामले में मुझे ज़लील न करो। क्या तुममें कोई भला आदमी नहीं?”
27. इसका मतलब यह नहीं है कि हज़रत लूत (अलैहि०) ने उनके सामने अपनी बेटियों को ज़िना के लिए पेश किया था। ‘ये तुम्हारे लिए पाकीज़ातर हैं' का फ़िक़रा ऐसा ग़लत मफ़हूम लेने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। हज़रत लूत (अलैहि०) का मंशा साफ़ तौर पर यह था कि अपनी शहवते-नफ़्स को उस फ़ितरी और जाइज़ तरीक़े से पूरा करो जो अल्लाह ने मुक़र्रर किया है और इसके लिए औरतों की कमी नहीं है।
وَٱمۡرَأَتُهُۥ قَآئِمَةٞ فَضَحِكَتۡ فَبَشَّرۡنَٰهَا بِإِسۡحَٰقَ وَمِن وَرَآءِ إِسۡحَٰقَ يَعۡقُوبَ ۝ 77
(71) इबराहीम की बीवी भी खड़ी हुई थी, वह यह सुनकर हँस दी। फिर हमनें उसको इसहाक़ की और इसहाक़ के बाद याक़ूब की ख़ुशख़बरी दी।
وَيَٰقَوۡمِ لَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شِقَاقِيٓ أَن يُصِيبَكُم مِّثۡلُ مَآ أَصَابَ قَوۡمَ نُوحٍ أَوۡ قَوۡمَ هُودٍ أَوۡ قَوۡمَ صَٰلِحٖۚ وَمَا قَوۡمُ لُوطٖ مِّنكُم بِبَعِيدٖ ۝ 78
(89) और ऐ बिरादराने-क़ौम! मेरे ख़िलाफ़ तुम्हारी हठधर्मी कहीं यह नौबत न पहुँचा दे कि आख़िरकार तुमपर भी वही अज़ाब आकर रहे जो नूह या हूद या सॉलेह की क़ौम पर आया था। और लूत की क़ौम तो तुमसे कुछ ज़्यादा दूर भी नहीं है।
قَالُواْ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا لَنَا فِي بَنَاتِكَ مِنۡ حَقّٖ وَإِنَّكَ لَتَعۡلَمُ مَا نُرِيدُ ۝ 79
(79) उन्होंने जवाब दिया, “तुझे तो मालूम ही है कि तेरी बेटियों में हमारा कोई हिस्सा नहीं है। और तू यह भी जानता है कि हम चाहते क्या हैं।”
قَالَتۡ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ ءَأَلِدُ وَأَنَا۠ عَجُوزٞ وَهَٰذَا بَعۡلِي شَيۡخًاۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٌ عَجِيبٞ ۝ 80
(72) वह बोली, “हाय मेरी कमबख़्ती!24 क्या अब मेरे यहाँ औलाद होगी जबकि में बुढ़िया फूँस हो गई और मेरे मियाँ भी बूढ़े हो चुके? यह तो बड़ी अजीब बात है।”
24. इसका मतलब यह नहीं है कि हज़रत सारा फ़िल-वाक़े इसपर ख़ुश होने के बजाय उलटी उसको कमबख़्ती समझती थीं, बल्कि दरअस्ल ये उस क़िस्म के अलफ़ाज़ में से हैं जो औरतें बिल-उमूम ताज्जुब के मवाक़े पर बोला करती हैं।
وَٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي رَحِيمٞ وَدُودٞ ۝ 81
(90) देखो! अपने रब से माफ़ी माँगो और उसकी तरफ़ पलट आओ, दबेशक मेरा रब रहीम है और अपनी मख़लूक़ से मुहब्बत रखता है।”
قَالَ لَوۡ أَنَّ لِي بِكُمۡ قُوَّةً أَوۡ ءَاوِيٓ إِلَىٰ رُكۡنٖ شَدِيدٖ ۝ 82
(80) लूत ने कहा, “काश! मेरे पास इतनी ताक़त होती कि तुम्हें सीधा कर देता, या कोई मज़बूत सहारा ही होता कि उसकी पनाह लेता।”
قَالُواْ يَٰشُعَيۡبُ مَا نَفۡقَهُ كَثِيرٗا مِّمَّا تَقُولُ وَإِنَّا لَنَرَىٰكَ فِينَا ضَعِيفٗاۖ وَلَوۡلَا رَهۡطُكَ لَرَجَمۡنَٰكَۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡنَا بِعَزِيزٖ ۝ 83
(91) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ शुऐब! तेरी बहुत-सी बातें तो हमारी समझ ही में नहीं आतीं, और हम देखते हैं कि तू हमारे दरमियान एक बेज़ोर आदमी है, तेरी बिरादरी न होती तो हम कभी का तुझे संगसार कर चुके होते, तेरा बल-बूता तो इतना नहीं है कि हमपर भारी हो।”
قَالُواْ يَٰلُوطُ إِنَّا رُسُلُ رَبِّكَ لَن يَصِلُوٓاْ إِلَيۡكَۖ فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٌ إِلَّا ٱمۡرَأَتَكَۖ إِنَّهُۥ مُصِيبُهَا مَآ أَصَابَهُمۡۚ إِنَّ مَوۡعِدَهُمُ ٱلصُّبۡحُۚ أَلَيۡسَ ٱلصُّبۡحُ بِقَرِيبٖ ۝ 84
(81) तब फ़रिश्तों ने उससे कहा कि ऐ लूत! हम तेरे रब के भेजे हुए फ़रिश्ते हैं, ये लोग तेरा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। बस तू कुछ रात रहे अपने अहलो-अयाल को लेकर निकल जा। और देखो तुममें से कोई शख़्स पीछे पलटकर न देखे। मगर तेरी बीवी (साथ नहीं जाएगी) क्योंकि उसपर भी वही कुछ गुज़रनेवाला है जो इन लोगों पर गुज़रना है। उनकी तबाही के लिए सुब्ह का वक़्त मुक़र्रर है — सुब्ह होते अब देर ही कितनी है!”
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَهۡطِيٓ أَعَزُّ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱللَّهِ وَٱتَّخَذۡتُمُوهُ وَرَآءَكُمۡ ظِهۡرِيًّاۖ إِنَّ رَبِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 85
(92) शुऐब ने कहा, “भाइयो! क्या मेरी बिरादरी तुमपर अल्लाह से ज़्यादा भारी है कि तुमने (बिरादरी का तो ख़ौफ़ किया और) अल्लाह को बिलकुल पसे-पुश्त डाल दिया? जान रखो कि जो कुछ तुम कर रहे हो वह अल्लाह की गिरिफ़्त से बाहर नहीं है।
فَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا جَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهَا حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٖ مَّنضُودٖ ۝ 86
(82) फिर जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ पहुँचा तो हमने उस बस्ती को तलपट कर दिया और उसपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर ताबड़-तोड़ बरसाए
وَيَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَٰمِلٞۖ سَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَمَنۡ هُوَ كَٰذِبٞۖ وَٱرۡتَقِبُوٓاْ إِنِّي مَعَكُمۡ رَقِيبٞ ۝ 87
(93) ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम अपने तरीक़े पर काम किए जाओ और मैं अपने तरीक़े पर करता रहूँगा, जल्दी ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि किस पर ज़िल्लत का अज़ाब आता है और कौन झूठा है। तुम भी इन्तिज़ार करो और मैं भी तुम्हारे साथ चश्मे-बराह हूँ।”
خَٰلِدِينَ فِيهَا مَا دَامَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ إِلَّا مَا شَآءَ رَبُّكَۚ إِنَّ رَبَّكَ فَعَّالٞ لِّمَا يُرِيدُ ۝ 88
(107) और इसी हालत में वे हमेशा रहेंगे जब तक कि ज़मीन व आसमान क़ायम है,30 इल्ला यह कि तेरा रब कुछ और चाहे। बेशक तेरा रब पूरा इख़्तियार रखता है कि जो चाहे करे।
30. मुहावरे के तौर पर ये अलफ़ाज़ हमेशगी के मानी में इस्तेमाल होते हैं।
وَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا شُعَيۡبٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَأَخَذَتِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلصَّيۡحَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دِيَٰرِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 89
(94) आख़िरकार जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ गया तो हमने अपनी रहमत से शुऐब और उसके साथी मोमिनों को बचा लिया और जिन लोगों ने ज़ुल्म किया था उनको एक सख़्त धमाके ने ऐसा पकड़ा कि वे अपनी बस्तियों में बेहिस व हरकत पड़े-के-पड़े रह गए
۞وَأَمَّا ٱلَّذِينَ سُعِدُواْ فَفِي ٱلۡجَنَّةِ خَٰلِدِينَ فِيهَا مَا دَامَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ إِلَّا مَا شَآءَ رَبُّكَۖ عَطَآءً غَيۡرَ مَجۡذُوذٖ ۝ 90
रहे वे लोग जो नेकबख़्त निकलेंगे, तो वे जन्नत में जाएँगे और वहाँ हमेशा रहेंगे जब तक ज़मीन और आसमान क़ायम हैं, इल्ला यह कि तेरा रब कुछ और चाहे। ऐसी बख़शिश उनको मिलेगी जिसका सिलसिला कभी मुन्‌क़तअ न होगा।
مُّسَوَّمَةً عِندَ رَبِّكَۖ وَمَا هِيَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ بِبَعِيدٖ ۝ 91
(83) जिनमें से हर पत्थर तेरे रब के हाँ निशानज़दा था।28 और ज़ालिमों से यह सज़ा कुछ दूर नहीं है।
23. यानी हर-हर पत्थर ख़ुदा की तरफ़ से नामज़द किया हुआ था कि उसे तबाहकारी का क्या काम करना है और किस पत्थर को किस मुजरिम पर पड़ना है।
كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَآۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّمَدۡيَنَ كَمَا بَعِدَتۡ ثَمُودُ ۝ 92
(95) गोया वे कभी वहाँ रहे-बसे ही न थे। सुनो! मदयनवाले भी दूर फेंक दिए गए जिस तरह समूद फेंके गए थे।
فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّمَّا يَعۡبُدُ هَٰٓؤُلَآءِۚ مَا يَعۡبُدُونَ إِلَّا كَمَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُهُم مِّن قَبۡلُۚ وَإِنَّا لَمُوَفُّوهُمۡ نَصِيبَهُمۡ غَيۡرَ مَنقُوصٖ ۝ 93
(109) पस (ऐ नबी!) तू उन माबूदों की तरफ़ से किसी शक में न रह जिनकी ये लोग इबादत कर रहे हैं। ये तो (बस लकीर के फ़क़ीर बने हुए) उसी तरह पूजा-पाठ किए जा रहे हैं जिस तरह पहले इनके बाप-दादा करते थे, और हम इनका हिस्सा इन्हें भरपूर देंगे बग़ैर इसके कि इसमें कुछ काट-कसर हो।
۞وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ وَلَا تَنقُصُواْ ٱلۡمِكۡيَالَ وَٱلۡمِيزَانَۖ إِنِّيٓ أَرَىٰكُم بِخَيۡرٖ وَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ مُّحِيطٖ ۝ 94
(84) और मदयनवालों की तरफ़ हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। और नाप-तौल में कमी न किया करो। आज मैं तुमको अच्छे हाल में देख रहा हूँ, मगर मुझे डर है कि कल तुमपर ऐसा दिन आएगा जिसका अज़ाब सबको घेर लेगा।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 95
(96) और मूसा को हमने अपनी निशानियों और खुली सनदे-मामूरियत के साथ
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَٱخۡتُلِفَ فِيهِۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 96
(110) हम इससे पहले मूसा को भी किताब दे चुके हैं और उसके बारे में भी इख़्तिलाफ़ किया गया था (जिस तरह आज इस किताब के बारे में किया जा रहा है जो तुम्हें दी गई है)। अगर तेरे रब की तरफ़ से एक बात पहले ही तय न कर दी गई होती तो उन इख़्तिलाफ़ करनेवालों के दरमियान कभी का फ़ैसला चुका दिया गया होता। यह वाक़िआ है कि ये लोग उसकी तरफ़ से शक और ख़लजान में पड़े हुए हैं।
وَيَٰقَوۡمِ أَوۡفُواْ ٱلۡمِكۡيَالَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 97
(85) और ऐ बिरादराने-क़ौम! ठीक-ठीक इनसाफ़ के साथ पूरा नापो और तौलो और लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दिया करो और ज़मीन में फ़साद न फैलाते फिरो।
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَٱتَّبَعُوٓاْ أَمۡرَ فِرۡعَوۡنَۖ وَمَآ أَمۡرُ فِرۡعَوۡنَ بِرَشِيدٖ ۝ 98
(97) फ़िरऔन और उसके आयाने-सल्तनत की तरफ़ भेजा, मगर उन्होंने फ़िरऔन के हुक्म की पैरवी की, हालाँकि फ़िरऔन का हुक्म रास्ती पर न था।
بَقِيَّتُ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ ۝ 99
(86) अल्लाह की दी हुई बचत तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम मोमिन हो। और बहरहाल मैं तुम्हारे ऊपर कोई निगराने-कार नहीं हूँ।”
يَقۡدُمُ قَوۡمَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَأَوۡرَدَهُمُ ٱلنَّارَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡوِرۡدُ ٱلۡمَوۡرُودُ ۝ 100
(98) क़ियामत के रोज़ वह अपनी क़ौम के आगे-आगे होगा और अपनी पेशवाई में उन्हें दोज़ख़ की तरफ़ ले जाएगा। कैसी बदतर जाए-वुरूद है यह जिसपर कोई पहुँचे!
قَالُواْ يَٰشُعَيۡبُ أَصَلَوٰتُكَ تَأۡمُرُكَ أَن نَّتۡرُكَ مَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَآ أَوۡ أَن نَّفۡعَلَ فِيٓ أَمۡوَٰلِنَا مَا نَشَٰٓؤُاْۖ إِنَّكَ لَأَنتَ ٱلۡحَلِيمُ ٱلرَّشِيدُ ۝ 101
(87) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ शुऐब! क्या तेरी नमाज़ तुझे यह सिखाती है कि हम उन सारे माबूदों को छोड़ दें जिनकी परस्तिश हमारे बाप-दादा करते थे? या यह कि हमको अपने माल में अपने मंशा के मुताबिक़ तसर्रुफ़ करने का इख़्तियार न हो? बस तू ही तो एक आली ज़र्फ़ और रास्त-बाज़ आदमी रह गया है!”
وَإِنَّ كُلّٗا لَّمَّا لَيُوَفِّيَنَّهُمۡ رَبُّكَ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ إِنَّهُۥ بِمَا يَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 102
(111) और यह भी वाक़िआ है कि तेरा रब उन्हें उनके आमाल का पूरा-पूरा बदला देकर रहेगा, यक़ीनन वह उनकी सब हरकतों से बाख़बर है।
وَأُتۡبِعُواْ فِي هَٰذِهِۦ لَعۡنَةٗ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ بِئۡسَ ٱلرِّفۡدُ ٱلۡمَرۡفُودُ ۝ 103
(99) और उन लोगों पर दुनिया में भी लानत पड़ी और क़ियामत के रोज़ भी पड़ेगी। कैसा बुरा सिला है यह जो किसी को मिले!
فَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَ وَمَن تَابَ مَعَكَ وَلَا تَطۡغَوۡاْۚ إِنَّهُۥ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 104
(112) पस (ऐ नबी!) तुम और तुम्हारे वे साथी जो (कुफ़्र व बग़ावत से ईमान व इताअत की तरफ़) पलट आए हैं, ठीक-ठीक राहे-रास्त पर साबित क़दम रहो जैसा कि तुम्हें हुक्म दिया गया है। और बन्दगी की हद से तजावुज़ न करो जो कुछ तुम कर रहे हो उसपर तुम्हारा रब निगाह रखता है।
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡقُرَىٰ نَقُصُّهُۥ عَلَيۡكَۖ مِنۡهَا قَآئِمٞ وَحَصِيدٞ ۝ 105
(100) ये चंद बस्तियों की सर-गुज़श्त है जो हम तुम्हें सुना रहे हैं। इनमें से बाज़ अब भी खड़ी हैं और बाज़ की फ़सल कट चुकी है।
وَلَا تَرۡكَنُوٓاْ إِلَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ فَتَمَسَّكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِنۡ أَوۡلِيَآءَ ثُمَّ لَا تُنصَرُونَ ۝ 106
(113) इन ज़ालिमों की तरफ़ ज़रा न झुकना वरना जहन्नम की लपेट में आ जाओगे और तुम्हें कोई ऐसा वली व सरपरस्त न मिलेगा जो ख़ुदा से तुम्हें बचा सके, और कहीं से तुमको मदद न पहुँचेगी।
وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡۖ فَمَآ أَغۡنَتۡ عَنۡهُمۡ ءَالِهَتُهُمُ ٱلَّتِي يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖ لَّمَّا جَآءَ أَمۡرُ رَبِّكَۖ وَمَا زَادُوهُمۡ غَيۡرَ تَتۡبِيبٖ ۝ 107
(101) हमने उनपर ज़ुल्म नहीं किया, उन्होंने आप ही अपने ऊपर सितम ढाया और जब अल्लाह का हुक्म आ गया तो उनके वे माबूद जिन्हें वे अल्लाह को छोड़कर पुकारा करते थे उनके कुछ काम न आ सके और उन्होंने हलाकत व बरबादी के सिवा उन्हें कुछ फ़ायदा न दिया।
وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ ٱلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِۚ إِنَّ ٱلۡحَسَنَٰتِ يُذۡهِبۡنَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ ذَٰلِكَ ذِكۡرَىٰ لِلذَّٰكِرِينَ ۝ 108
(114) और देखो, नमाज़ क़ायम करो दिन के दोनों सिरों पर और कुछ रात गुज़रने पर।31 दर-हक़ीक़त नेकियाँ बुराइयों को दूर कर देती हैं, यह एक याददिहानी है उन लोगों के लिए जो ख़ुदा को याद रखनेवाले हैं।
31. दिन के सिरों से मुराद सुब्ह और मग़रिब है और कुछ रात गुज़रने पर से मुराद इशा का वक़्त है (नमाज़ के औक़ात की तफ़सील के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत -78; सूरा-20 ताहा, आयत-130 और सूरा-30 रूम, आयात—17-18)।
وَكَذَٰلِكَ أَخۡذُ رَبِّكَ إِذَآ أَخَذَ ٱلۡقُرَىٰ وَهِيَ ظَٰلِمَةٌۚ إِنَّ أَخۡذَهُۥٓ أَلِيمٞ شَدِيدٌ ۝ 109
(102) और तेरा रब जब किसी ज़ालिम बस्ती को पकड़ता है तो फिर उसकी पकड़ ऐसी ही हुआ करती है, फ़िल-वाक़े उसकी पकड़ बड़ी सख़्त और दर्दनाक होती है।
وَٱصۡبِرۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 110
(115) और सब्र कर, अल्लाह नेकी करनेवालों का अज्र कभी ज़ाया नहीं करता।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّمَنۡ خَافَ عَذَابَ ٱلۡأٓخِرَةِۚ ذَٰلِكَ يَوۡمٞ مَّجۡمُوعٞ لَّهُ ٱلنَّاسُ وَذَٰلِكَ يَوۡمٞ مَّشۡهُودٞ ۝ 111
(103) हक़ीक़त यह है कि इसमें एक निशानी है हर उस शख़्स के लिए जो अज़ाबे-आख़िरत का ख़ौफ़ करे। वह एक दिन होगा जिसमें सब लोग जमा होंगे और फिर जो कुछ भी उस रोज़ होगा सबकी आँखों के सामने होगा।
فَلَوۡلَا كَانَ مِنَ ٱلۡقُرُونِ مِن قَبۡلِكُمۡ أُوْلُواْ بَقِيَّةٖ يَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡفَسَادِ فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّنۡ أَنجَيۡنَا مِنۡهُمۡۗ وَٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَآ أُتۡرِفُواْ فِيهِ وَكَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 112
(116) फिर क्यों न उन क़ौमों में जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं ऐसे अहले-ख़ैर मौजूद रहे जो लोगों को ज़मीन में फ़साद बरपा करने से रोकते? ऐसे लोग निकले भी तो बहुत कम, जिनको हमने उन क़ौमों में से बचा लिया, वरना ज़ालिम लोग तो उन्हीं मज़ों के पीछे पड़े रहे जिनके सामान उन्हें फ़रावानी के साथ दिए गए थे और वे मुजरिम बनकर रहे।
وَمَا نُؤَخِّرُهُۥٓ إِلَّا لِأَجَلٖ مَّعۡدُودٖ ۝ 113
(104) हम उसके लाने में कुछ बहुत ज़्यादा ताख़ीर नहीं कर रहे हैं, बस एक गिनी-चुनी मुद्दत उसके लिए मुकर्रर है।
يَوۡمَ يَأۡتِ لَا تَكَلَّمُ نَفۡسٌ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ فَمِنۡهُمۡ شَقِيّٞ وَسَعِيدٞ ۝ 114
(105) जब वह आएगा तो किसी को बात करने की मजाल न होगी, इल्ला यह कि ख़ुदा की इजाज़त से कुछ अर्ज़ करे। फिर कुछ लोग उस रोज़ बदबख़्त होंगे और कुछ नेकबख़्त।
وَمَا كَانَ رَبُّكَ لِيُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ بِظُلۡمٖ وَأَهۡلُهَا مُصۡلِحُونَ ۝ 115
(117) तेरा रब ऐसा नहीं है कि बस्तियों को नाहक़ तबाह कर दे हालाँकि उनके बाशिन्दे इसलाह करनेवाले हों।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ شَقُواْ فَفِي ٱلنَّارِ لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَشَهِيقٌ ۝ 116
(106) जो बदबख़्त होंगे वे दोज़ख़ में जाएँगे (जहाँ गर्मी और प्यास की शिद्दत से) वे हाँफेंगे और फुँकारे मारेंगे
وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ لَجَعَلَ ٱلنَّاسَ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗۖ وَلَا يَزَالُونَ مُخۡتَلِفِينَ ۝ 117
(118) बेशक तेरा रब अगर चाहता तो तमाम इनसानों को एक गरोह बना सकता था, मगर अब तो वे मुख़्तलिफ़ तरीक़ों ही पर चलते रहेंगे
إِلَّا مَن رَّحِمَ رَبُّكَۚ وَلِذَٰلِكَ خَلَقَهُمۡۗ وَتَمَّتۡ كَلِمَةُ رَبِّكَ لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ ٱلۡجِنَّةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 118
(119) और बे-राह-रवियों से सिर्फ़ वे लोग बचेंगे जिनपर तेरे रब की रहमत है। इसी (आज़ादी-ए-इन्तिख़ाब व इख़्तियार और इमतिहान) के लिए तो उसने उन्हें पैदा किया था। और तेरे रब की वह बात पूरी हो गई जो उसने कही थी कि मैं जहन्नम को जिन्नों और इनसानों सबसे भर दूँगा।
وَكُلّٗا نَّقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلرُّسُلِ مَا نُثَبِّتُ بِهِۦ فُؤَادَكَۚ وَجَآءَكَ فِي هَٰذِهِ ٱلۡحَقُّ وَمَوۡعِظَةٞ وَذِكۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 119
(120) और (ऐ नबी!) ये पैग़म्बरों के क़िस्से जो हम तुम्हें सुनाते हैं, ये वे चीज़ें हैं जिनके ज़रिए से हम तुम्हारे दिल को मज़बूत करते हैं। इनके अन्दर तुमको हक़ीक़त का इल्म मिला और ईमान लानेवालों को नसीहत और बेदारी नसीब हुई।
وَقُل لِّلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنَّا عَٰمِلُونَ ۝ 120
(121) रहे वे लोग जो ईमान नहीं लाते, तो उनसे कह दो कि तुम अपने तरीक़े पर काम करते रहो और हम अपने तरीक़े पर किए जाते हैं,
وَٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ ۝ 121
(122) अंजामे-कार का तुम भी इन्तिज़ार करो और हम भी मुन्तज़िर हैं।
وَلِلَّهِ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ يُرۡجَعُ ٱلۡأَمۡرُ كُلُّهُۥ فَٱعۡبُدۡهُ وَتَوَكَّلۡ عَلَيۡهِۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 122
(123) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ छिपा हुआ है सब अल्लाह के क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में है और सारा मामला उसी की तरफ़ रूजूअ किया जाता है। पस (ऐ नबी!) तू उसकी बन्दगी कर और उसी पर भरोसा रख, जो कुछ तुम लोग कर रहे हो तेरा रब उससे बेख़बर नहीं है।