(मक्का में उतरी-आयतें 111)
परिचय
उतरने का समय और कारण
इस सूरा के विषय से स्पष्ट होता है कि यह भी मक्का निवास के अन्तिम समय में उतरी होगी, जबकि क़ुरैश के लोग इस समस्या पर विचार कर रहे थे कि नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर दें या देश निकाला दे दें या क़ैद कर दें। उस समय मक्का के कुछ विधर्मियों ने (शायद यहूदियों के संकेत पर) नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए आपसे प्रश्न किया कि बनी-इसराईल के मिस्र जाने का क्या कारण हुआ? अल्लाह ने केवल यही नहीं किया कि तुरन्त उसी समय यूसुफ़ (अलैहि०) का यह पूरा क़िस्सा आपकी ज़ुबान पर जारी कर दिया, बल्कि यह भी किया कि इस क़िस्से को क़ुरैश के उस व्यवहार पर चस्पाँ भी कर दिया जो वे यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों की तरह प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ कर रहे थे।
उतरने के उद्देश्य
इस तरह यह क़िस्सा दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए उतारा गया था-
एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने का प्रमाण और वह भी विरोधियों का अपना मुँह माँगा प्रमाण जुटाया जाए।
दूसरे यह कि कुरैश के सरदारों को यह बताया जाए कि आज तुम अपने भाई के साथ वही कुछ कर रहे हो जो यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने उनके साथ किया था, मगर जिस तरह वे अल्लाह की इच्छा से लड़ने में सफल न हुए और अन्तत: उसी भाई के क़दमों में आ रहे जिसको उन्होंने कभी बड़ी निर्दयता के साथ कुएंँ में फेंका था, उसी तरह तुम्हारी कोशिशें भी अल्लाह की तदबीरों के मुकाबले में सफल न हो सकेंगी और एक दिन तुम्हें भी अपने इसी भाई से दया एवं कृपा की भीख मांँगनी पड़ेगी जिसे आज तुम मिटा देने पर तुले हुए हो।
सच तो यह है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के क़िस्से को मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरैश के मामले पर चस्पाँ करके क़ुरआन मजीद ने मानो एक खुली भविष्यवाणी कर दी थी जिसे आगे दस साल की घटनाओं ने एक-एक करके सही सिद्ध करके दिखा दिया।
वार्ताएँ एवं समस्याएँ
ये दो पहलू तो इस सूरा में उद्देश्य की हैसियत रखते हैं। इनके अतिरिक्त क़ुरआन मजीद इस पूरे किस्से में यह बात भी स्पष्ट करके दिखाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०), हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दावत भी वही थी जो आज मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं।
फिर वह एक ओर हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के चरित्र और दूसरी ओर यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों, व्यापारियों के काफ़िले, मिस्र के शासक, उसकी बीवी, मिस्र की बेगमों और मिस्र के अधिकारियों के चरित्र एक दूसरे के मुक़ाबले में रख देता है [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह की बन्दगी और आख़िरत के हिसाब के विश्वास से [पैदा होनेवाले चरित्र कैसे होते हैंऔर दुनियापरस्ती और ईश्वर और परलोक के प्रति बेपरवाही के साँचों में ढलकर तैयार [होनेवाले चरित्रों का क्या हाल हुआ करता है ?] फिर इस क़िस्से से क़ुरआने-हकीम एक और गहरी सच्चाई भी इंसान के मन में बिठाता है, और वह यह है कि अल्लाह जिसे उठाना चाहता है, सारी दुनिया मिलकर भी उसे नहीं गिरा सकती, बल्कि दुनिया जिस उपाय को उसके गिराने का बड़ा कारगर और निश्चित उपाय समझकर अपनाती है, अल्लाह उसी उपाय में से उसके उठने की शक्लें निकाल देता है।
ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ
इस क़िस्से को समझने के लिए आवश्यक है कि संक्षेप में उसके बारे में कुछ ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारियाँ भी पाठकों के सामने रहें।
बाइबल के वर्णन के अनुसार हज़रत याकूब (अलैहि०) के बारह बेटे चार पत्नियों से थे। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके छोटे भाई बिन-यमीन एक पत्नी से और शेष दस दूसरी पलियों से । फ़िलस्तीन में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का निवास स्थान हिबरून की घाटी में था। इसके अलावा उनकी कुछ ज़मीन सेकिम (वर्तमान नाबुलुस) में भी थी। बाइबल के विद्वानों की खोज अगर सही मान ली जाए तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैदाइश 1906 ई०पू० के लगभग ज़माने में हुई। सपना देखने और फिर कुएँ में फेंके जाने [की घटना उनकी सत्तरह वर्ष की उम्र में घटी]। जिस कुएँ में वे फेंके गए वह बाइबल और तलमूद की रिवायतों के अनुसार सेकिम के उत्तर में दूतन (वर्तमान दुसान) के क़रीब स्थित था और जिस क़ाफ़िले ने उन्हें कुएँ से निकाला वह जलआद (पूर्वी जार्डन) से आ रहा था और मिस्र की ओर जा रहा था। -मिस्र पर उस समय पन्द्रहवें वंश का शासन था जो मिस्री इतिहास में चरवाहे बादशाहों (Hyksos Kings) के नाम से याद किया जाता है। ये लोग अरबी नस्ल के थे और फ़िलस्तीन और शाम (Syria) से मिस्र (Egypt) जाकर दो हज़ार वर्ष ई०पू० के लगभग ज़माने में मिस्री राज्य पर क़ाबिज़ हो गए थे। यही कारण हुआ कि इनके शासन में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और फिर बनी-इसराईल वहाँ हाथों-हाथ लिए गए, क्योंकि वे उन विदेशी शासकों के वंश के थे। पन्द्रहवीं सदी ई०पू० के अन्त तक ये लोग मिस्र पर आधिक्य जमाए रहे और उनके ज़माने में देश की सम्पूर्ण सत्ता व्यावहारिक रूप में बनी-इसराईल के हाथ में रही। उसी दौर की ओर सूरा-5 (माइदा) आयत 20 में इशारा किया गया है कि “जब उसने तुममें नबी पैदा किए और तुम्हें शासक बनाया।” इसके बाद हिक्सूस सत्ता का तख़्ता उलटकर एक अति क्रूर क़िब्ती नस्ल का परिवार सत्ता में आ गया और उसने बनी-इसराईल पर उन अत्याचारों का सिलसिला शुरू किया जिनका उल्लेख हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से में हुआ है। इन चरवाहे बादशाहों ने मिस्री देवताओं को स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि क़ुरआन मजीद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के समकालीन बादशाह को फ़िरऔन' के नाम से याद नहीं करता, क्योंकि फ़िरऔन मिस्र का धार्मिक पारिभाषिक शब्द था, और ये लोग मिस्री धर्म के माननेवाले न थे।-
हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) 30 साल की उम्र में देश के शासक हुए और 90 साल तक बिना किसी को साझी बनाए पूरे मिस्र पर शासन करते रहे। अपने शासन के नवें या दसवें साल उन्होंने हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने पूरे परिवार के साथ फ़िलस्तीन से मिस्र बुला लिया और उस क्षेत्र में आबाद किया जो दिमयात और क़ाहिरा के बीच स्थित है। बाइबल में इस क्षेत्र का नाम जुशन या गोशन बताया गया है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के समय तक ये लोग उसी क्षेत्र में आबाद रहे। बाइबल का बयान है कि हज़रत यूसुफ (अलैहि०) का देहावसान एक सौ दस साल की उम्र में हुआ और देहावसान के समय बनी-इसराईल को वसीयत की कि जब तुम इस देश से निकलो तो मेरी हड्डियाँ अपने साथ लेकर जाना।
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