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سُورَةُ الرَّعۡدِ

13. अर-रअद

(मक्का में उतरी- आयतें 43)

परिचय

नाम

आयत 13 के वाक्‍य ‘व युसब्बि‍हुर-रअ-दु बिहम्दिही वल-मलाइकतु मिन ख़ीफ़तिही’ के शब्‍द 'अर-रअ़द' (बादल की गरज) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है। इस नाम का यह अर्थ नहीं है कि इस सूरा में बादल की गरज के बारे में बात की गई है, बल्कि यह केवल प्रतीक के रूप में स्पष्ट करता है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अर-अद' आया है या जिसमें ‘रअद’ का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

आयत 27 से 31 और आयत 38 से 43 तक के विषय गवाही देते हैं कि यह उसी समय की है जिसमें सूरा 10 यूनुस, सूरा-11 हूद और सूरा 7 आराफ़ उतरी हैं, अर्थात मक्का में निवास का अन्तिम युग। वर्णन शैली से स्पष्ट हो रहा है कि नबी (सल्ल०) को इस्लाम का सन्देश पहुँचाते हुए एक लंबी अवधि बीत चुकी है, विरोधी आपको परेशान करने और आपके मिशन को असफल बनाने के लिए तरह-तरह की चाले चलते रहे हैं, ईमानवाले बार-बार कामनाएँ कर रहे हैं कि काश, कोई मोजिज़ा (चमत्कार) दिखाकर ही इन लोगों को सीधे रास्ते पर लाया जाए, और अल्लाह मुसलमानों को समझा रहा है कि ईमान की राह दिखाने का यह तरीक़ा हमारे यहाँ प्रचलित नहीं है और अगर सत्य के विरोधियों की रस्सी लंबी की जा रही है तो यह ऐसी बात नहीं है जिससे तुम घबरा उठो। फिर आयत 31 से यह भी मालूम होता है कि बार-बार विरोधियों की हठधर्मी का ऐसा प्रदर्शन हो चुका है जिसके बाद यह कहना बिल्कुल उचित लगता है कि अगर क़ब्रों से मुर्दे भी उठकर आ जाएँ तो ये लोग न मानेंगे, बल्कि इस घटना की भी कोई न कोई व्याख्या कर डालेंगे। इन सब बातों से यही गुमान होता है कि यह सूरा मक्का के अन्तिम युग में उतरी होगी।

केन्द्रीय विषय

सूरा का उद्देश्य पहली ही आयत में प्रस्तुत कर दिया गया है, अर्थात् यह कि जो कुछ मुहम्मद (सल्ल०) प्रस्तुत कर रहे हैं, वही सत्य है, मगर यह लोगों की ग़लती है कि वे इसे नहीं मानते। सारा भाषण इसी केन्द्रीय विषय के चारों ओर घूमता है। इस सिलसिले में बार-बार अलग-अलग तरीक़ों से तौहीद, आख़िरत और रिसालत का सत्य होना सिद्ध किया गया है। उनपर ईमान लाने के नैतिक एवं आध्यात्मिक लाभ समझाए गए हैं, उनको न मानने की हानियाँ बताई गई हैं और यह मन में बिठाने की कोशिश की गई है कि कुफ़्र पूर्ण रूप से मूर्खता और अज्ञानता है। फिर चूँकि इस सारे वर्णन का उद्देश्य केवल दिमाग़ों को सन्तुष्ट करना ही नहीं है, दिलों को ईमान की ओर खींचना भी है, इसलिए निरे तार्किक प्रमाणों से काम नहीं लिया गया है, बल्कि एक-एक प्रमाण और एक-एक गवाही को प्रस्तुत करने के बाद ठहरकर तरह-तरह से डराया, धमकाया, सत्य की ओर उकसाया और प्यार से समझाया गया है, ताकि नासमझ लोग अपनी गुमराही भरी हठधर्मी से बाज़ आ जाएँ।

व्याख्यान के बीच में जगह-जगह विरोधियों की आपत्तियों का उल्लेख किए बिना इनके उत्तर दिए गए हैं और उन सन्देहों को दूर किया गया है जो मुहम्मद (सल्ल०) के सन्देश के बारे में लोगों के दिलों में पाए जाते थे, या विरोधियों की ओर से डाले जाते थे। इसके साथ ईमानवालों को भी, जो कई वर्षों के लम्बे और कठिन संघर्ष के कारण थके जा रहे थे और बेचैनी के साथ परोक्ष सहायता के इन्तिज़ार में थे, तसल्ली दी गई है।

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سُورَةُ الرَّعۡدِ
13. सूरा अर-रअद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِۗ وَٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ ٱلۡحَقُّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ
(1) अलिफ़-लाम-मीम-रॉ। ये किताबे-इलाही की आयात हैं, और जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर नाज़िल किया गया है वह ऐन हक़ है, मगर (तुम्हारी क़ौम के) अकसर लोग मान नहीं रहे हैं।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي رَفَعَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ بِغَيۡرِ عَمَدٖ تَرَوۡنَهَاۖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِي لِأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَ يُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُم بِلِقَآءِ رَبِّكُمۡ تُوقِنُونَ ۝ 1
(2) वह अल्लाह ही है जिसने आसमानों को ऐसे सहारों के बग़ैर क़ायम किया जो तुमको नज़र आते हों1, फिर वह अपने तख़्ते-सल्तनत पर जलवाफ़रमा हुआ, और उसने आफ़ताब व माहताब को एक क़ानून का पाबन्द बनाया। इस सारे निज़ाम की हर चीज़ एक वक़्ते-मुक़र्रर तक के लिए चल रही है और अल्लाह ही इस सारे काम की तदबीर फ़रमा रहा है। वह निशानियाँ खोल-खोलकर बयान करता है2 शायद कि तुम अपने रब की मुलाक़ात का यक़ीन करो।
1. बअलफ़ाजे-दीगर आसमानों को ग़ैर-महसूस और ग़ैर-मरई सहारों पर क़ायम किया। बज़ाहिर कोई चीज़ फ़िज़ा-ए-बसीत में ऐसी नहीं है जो इन बेहद व हिसाब अजरामे-फ़लकी (Heavenly Bodies) को थामे हुए हो। मगर एक ग़ैर-महसूस ताक़त है जो हर एक को उसके मक़ाम व मदार पर रोके हुए है और इन अज़ीमुश्शान अजसाम को ज़मीन पर या एक-दूसरे पर गिरने नहीं देती।
2. यानी इस अम्र की निशानियाँ कि रसले-ख़ुदा (सल्ल०) जिन हक़ीक़तों की ख़बर दें रहे हैं वे फ़िल-वाक़े सच्ची हक़ीक़तें हैं। कायनात में हर तरफ़ उनपर गवाही देनेवाले आसार मौजूद हैं। अगर लोग आँखें खोलकर देखें तो उन्हें नज़र आ जाए कि क़ुरआन में जिन-जिन बातों पर ईमान लाने की दावत दी गई है, ज़मीन व आसमान में फैले हुए बेशुमार निशानात उनकी तसदीक़ कर रहे हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي مَدَّ ٱلۡأَرۡضَ وَجَعَلَ فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۡهَٰرٗاۖ وَمِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ جَعَلَ فِيهَا زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِۖ يُغۡشِي ٱلَّيۡلَ ٱلنَّهَارَۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 2
(3) और वही है जिसने यह ज़मीन फैला रखी है, इसमें पहाड़ों के ख़ूट गाड़ रखे हैं और दरिया बहा दिए हैं। उसी ने हर तरह के फलों के जोड़े पैदा किए हैं और वही दिन पर रात तारी करता है। इन सारी चीज़ों में बड़ी निशानियाँ हैं। उन लोगों के लिए जो ग़ौर व फ़िक्र से काम लेते हैं।
وَفِي ٱلۡأَرۡضِ قِطَعٞ مُّتَجَٰوِرَٰتٞ وَجَنَّٰتٞ مِّنۡ أَعۡنَٰبٖ وَزَرۡعٞ وَنَخِيلٞ صِنۡوَانٞ وَغَيۡرُ صِنۡوَانٖ يُسۡقَىٰ بِمَآءٖ وَٰحِدٖ وَنُفَضِّلُ بَعۡضَهَا عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلۡأُكُلِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 3
(4) और देखो, ज़मीन में अलग-अलग ख़ित्ते पाए जाते हैं जो एक-दूसरे से मुत्तसिल वाक़े हैं। अंगूर के बाग़ हैं, खेतियाँ हैं, खजूर के दरख़्त हैं जिनमें से कुछ इकहरे हैं कुछ दोहरे। सबको एक ही पानी सैराब करता है, मगर मज़े में हम किसी को बेहतर बना देते हैं और किसी को कमतर। इन सब चीज़ों में बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
۞وَإِن تَعۡجَبۡ فَعَجَبٞ قَوۡلُهُمۡ أَءِذَا كُنَّا تُرَٰبًا أَءِنَّا لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدٍۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡأَغۡلَٰلُ فِيٓ أَعۡنَاقِهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 4
(5) अब अगर तुम्हें ताज्जुब करना है तो ताज्जुब के क़ाबिल लोगों का यह क़ौल है कि “जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?” ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब से कुफ़्र किया है।3 ये वे लोग हैं जिनकी गर्दनों में तौक़ पड़े हुए हैं।4 ये जहन्नमी हैं और जहन्नम में हमेशा रहेंगे।
3. यानी इनका आख़िरत से इनकार दरअस्ल ख़ुदा से और उसकी क़ुदरत और हिकमत से इनकार है। ये सिर्फ़ इतना ही नहीं कहते कि हमारा मिट्टी में मिल जाने के बाद दोबारा पैदा होना ग़ैर-मुमकिन है, बल्कि उनके इसी क़ौल में यह ख़याल भी पोशीदा है कि मआज़ल्लाह वह ख़ुदा आजिज़ व दरमाँदह और नादान व बेख़िरद है जिसने इनको पैदा किया है।
4. गर्दन में तौक़ पड़ा होना क़ैदी होने की अलामत है। इन लोगों की गर्दनों में तौक़ पड़े होने का मतलब यह है कि ये लोग अपनी जहालत के, अपनी ख़ाहिशाते-नफ़्स के और अपने आबा व अज्दाद की अन्धी तक़लीद के असीर बने हुए हैं। ये आज़ादाना ग़ौर व फ़िक्र नहीं कर सकते। इन्हें इनके तास्सुबात ने ऐसा जकड़ रखा है कि ये आख़िरत को नहीं मान सकते अगरचे उसका मानना सरासर माक़ूल है, और इनकारे-आख़िरत पर जमे हुए हैं अगरचे वह सरासर नामाक़ूल है।
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلسَّيِّئَةِ قَبۡلَ ٱلۡحَسَنَةِ وَقَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِمُ ٱلۡمَثُلَٰتُۗ وَإِنَّ رَبَّكَ لَذُو مَغۡفِرَةٖ لِّلنَّاسِ عَلَىٰ ظُلۡمِهِمۡۖ وَإِنَّ رَبَّكَ لَشَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 5
(6) ये लोग भलाई से पहले बुराई के लिए जल्दी मचा रहे हैं,5 हलाँकि इनसे पहले (जो लोग इस रविश पर चले हैं उनपर ख़ुदा के अज़ाब की) इबरतनाक मिसालें गुज़र चुकी हैं। हक़ीक़त यह है कि तेरा रब लोगों की ज़्यादतियों के बावजूद उनके साथ चश्मपोशी से काम लेता है, और यह भी हक़ीक़त है कि तेरा रब सख़्त सज़ा देनेवाला है।
5. यानी अज़ाब का मुतालबा कर रहे हैं।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦٓۗ إِنَّمَآ أَنتَ مُنذِرٞۖ وَلِكُلِّ قَوۡمٍ هَادٍ ۝ 6
(7) ये लोग जिन्होंने तुम्हारी बात मानने से इनकार कर दिया है, कहते हैं कि “इस शख़्स पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतरी?” — तुम तो मह्ज़ ख़बरदार कर देनेवाले हो, और हर क़ौम के लिए एक रहनुमा है।
ٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تَحۡمِلُ كُلُّ أُنثَىٰ وَمَا تَغِيضُ ٱلۡأَرۡحَامُ وَمَا تَزۡدَادُۚ وَكُلُّ شَيۡءٍ عِندَهُۥ بِمِقۡدَارٍ ۝ 7
(8) अल्लाह एक-एक हामिला के पेट से वाक़िफ़ है, जो कुछ उसमें बनता है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उसमें कमी या बेशी होती है उससे भी वह बाख़बर रहता है। हर चीज़ के लिए उसके यहाँ एक मिक़दार मुक़र्रर है।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡكَبِيرُ ٱلۡمُتَعَالِ ۝ 8
(9) वह पोशीदा और ज़ाहिर हर चीज़ का आलिम है। वह बुज़ुर्ग है और हर हाल में बालातर रहनेवाला है।
سَوَآءٞ مِّنكُم مَّنۡ أَسَرَّ ٱلۡقَوۡلَ وَمَن جَهَرَ بِهِۦ وَمَنۡ هُوَ مُسۡتَخۡفِۭ بِٱلَّيۡلِ وَسَارِبُۢ بِٱلنَّهَارِ ۝ 9
(10) तुममें से कोई शख़्स ख़ाह ज़ोर से बात करे या आहिस्ता, और कोई रात की तारीकी में छिपा हुआ हो या दिन की रौशनी में चल रहा हो, उसके लिए सब यकसाँ हैं।
لَهُۥ مُعَقِّبَٰتٞ مِّنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦ يَحۡفَظُونَهُۥ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُغَيِّرُ مَا بِقَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡۗ وَإِذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِقَوۡمٖ سُوٓءٗا فَلَا مَرَدَّ لَهُۥۚ وَمَا لَهُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَالٍ ۝ 10
(11) हर शख़्स के आगे और पीछे उसके मुक़र्रर किए हुए निगराँ लगे हुए हैं जो अल्लाह के हुक्म से उसकी देखभाल कर रहे हैं। हक़ीकत यह है कि अल्लाह किसी क़ौम के हाल को नहीं बदलता जब तक कि वह ख़ुद अपने औसाफ़ को नहीं बदल देती। और जब अल्लाह किसी क़ौम की शामत लाने का फ़ैसला कर ले तो फिर वह किसी के टाले नहीं टल सकती, न अल्लाह के मुक़ाबले में ऐसी क़ौम का कोई हामी व मददगार हो सकता है।
هُوَ ٱلَّذِي يُرِيكُمُ ٱلۡبَرۡقَ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَيُنشِئُ ٱلسَّحَابَ ٱلثِّقَالَ ۝ 11
(12) वही है जो तुम्हारे सामने बिजलियाँ चमकाता है जिन्हें देखकर तुम्हें अंदेशे भी लाहिक़ होते हैं और उम्मीदें भी बंधती हैं। वही है जो पानी से लदे हुए बादल उठाता है।
وَيُسَبِّحُ ٱلرَّعۡدُ بِحَمۡدِهِۦ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ مِنۡ خِيفَتِهِۦ وَيُرۡسِلُ ٱلصَّوَٰعِقَ فَيُصِيبُ بِهَا مَن يَشَآءُ وَهُمۡ يُجَٰدِلُونَ فِي ٱللَّهِ وَهُوَ شَدِيدُ ٱلۡمِحَالِ ۝ 12
(13) बादलों की गरज उसकी हम्द के साथ उसको पाकी बयान करती है6 वह और फ़रिश्ते उसकी हैबत से लरज़ते उसकी तसबीह करते हैं। वह कड़कती हुई बिजलियों को भेजता है और (बसा-औकात) उन्हें जिसपर चाहता है ऐन उस हालत में गिरा देता है जब कि लोग अल्लाह के बारे में झगड़ रहे होते हैं। फ़िल-वाक़े उसकी चाल बड़ी ज़बरदस्त है।
6. यानी बादलों की गरज यह ज़ाहिर करती है कि जिस ख़ुदा ने ये हवाएँ चलाईं, ये भापें उठाईं, ये क़सीफ़ बादल जमा किए, इस बिजली को बारिश का ज़रिआ बनाया और इस तरह ज़मीन की मख़लूक़ात के लिए पानी की बहम रसानी का इन्तिज़ाम किया, वह अपनी हिकमत और क़ुदरत में कामिल है, अपनी सिफ़ात में बऐब है और अपनी ख़ुदाई में लाशरीक है। जानवरों की तरह सुननेवाले तो इन बादलों में सिर्फ़ गरज की आवाज ही सुनते हैं, मगर जो होश के कान रखते हैं वे बादलों की ज़बान से तौहीद का एलान सुनते हैं।
لَهُۥ دَعۡوَةُ ٱلۡحَقِّۚ وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَسۡتَجِيبُونَ لَهُم بِشَيۡءٍ إِلَّا كَبَٰسِطِ كَفَّيۡهِ إِلَى ٱلۡمَآءِ لِيَبۡلُغَ فَاهُ وَمَا هُوَ بِبَٰلِغِهِۦۚ وَمَا دُعَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ ۝ 13
(14) उसी को पुकारना बरहक़ है।7 रहीं वे दूसरी हस्तियाँ जिन्हें उसको छोड़कर ये लोग पुकारते हैं, वे उनकी दुआओं का कोई जवाब नहीं दे सकतीं। उन्हें पुकारना तो ऐसा है जैसे कोई शख़्स पानी की तरफ़ हाथ फैलाकर उससे दरख़ास्त करे कि तू मेरे मुँह तक पहुँच जा, हालाँकि पानी उस तक पहुँचनेवाला नहीं। बस इसी तरह काफ़िरों की दुआएँ भी कुछ नहीं हैं। मगर एक तीरे-बेहदफ!
7. पुकारने से मुराद अपनी हाजतों में मदद के लिए पुकारना है। मतलब यह है कि हाजत-रवाई व मुशकिल-कुशाई के सारे इख़्तियारात उसी के हाथ में हैं। इसलिए सिर्फ़ उसी से दुआ माँगना बरहक़ है।
وَلِلَّهِۤ يَسۡجُدُۤ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ طَوۡعٗا وَكَرۡهٗا وَظِلَٰلُهُم بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ۩ ۝ 14
(15) वह तो अल्लाह ही है जिसको ज़मीन व आसमान की हर चीज़ तौअन व करहन सजदा कर रही है8 और सब चीज़ों के साए भी सुबह व शाम उसके आगे झुकते हैं।9
8. सजदे से मुराद इताअत में झुकना, हुक्म बजा लाना और सरे-तसलीम ख़म करना है।
9. सायों के सजदा करने से मुराद यह है कि अशया के सायों का सुबह व शाम मग़रिब और मशरिक़ की तरफ़ गिरना इस बात की अलामत है कि ये सब चीज़ें किसी के अम्र की मुतीअ और किसी के क़ानून से मुसख़्ख़र हैं।
قُلۡ مَن رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ قُلِ ٱللَّهُۚ قُلۡ أَفَٱتَّخَذۡتُم مِّن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ لَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ نَفۡعٗا وَلَا ضَرّٗاۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُ أَمۡ هَلۡ تَسۡتَوِي ٱلظُّلُمَٰتُ وَٱلنُّورُۗ أَمۡ جَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ خَلَقُواْ كَخَلۡقِهِۦ فَتَشَٰبَهَ ٱلۡخَلۡقُ عَلَيۡهِمۡۚ قُلِ ٱللَّهُ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُوَ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّٰرُ ۝ 15
(16) इनसे पूछो, “आसमान व ज़मीन का रब कौन है?” कहो, अल्लाह। फिर उनसे कहो कि जब हक़ीक़त यह है तो क्या तुमने उसे छोड़कर ऐसे माबूदों को अपना कारसाज़ ठहरा लिया जो ख़ुद अपने लिए भी किसी नफ़े व नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखते? कहो, “क्या अंधा और आँखोंवाला बराबर हुआ करता है? क्या रौशनी और तारीकियाँ यकसाँ होती हैं? और अगर ऐसा नहीं तो क्या इनके ठहराए हुए शरीकों ने भी अल्लाह की तरह कुछ पैदा किया है कि उसकी वजह से उनपर तख़लीक़ का मामला मुश्तबह हो गया?”— कहो, हर चीज़ का ख़ालिक़ सिर्फ़ अल्लाह है और वह यकता है, सबपर ग़ालिब!”
أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَسَالَتۡ أَوۡدِيَةُۢ بِقَدَرِهَا فَٱحۡتَمَلَ ٱلسَّيۡلُ زَبَدٗا رَّابِيٗاۖ وَمِمَّا يُوقِدُونَ عَلَيۡهِ فِي ٱلنَّارِ ٱبۡتِغَآءَ حِلۡيَةٍ أَوۡ مَتَٰعٖ زَبَدٞ مِّثۡلُهُۥۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡحَقَّ وَٱلۡبَٰطِلَۚ فَأَمَّا ٱلزَّبَدُ فَيَذۡهَبُ جُفَآءٗۖ وَأَمَّا مَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ فَيَمۡكُثُ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَالَ ۝ 16
(17) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और हर नदी-नाला अपने ज़र्फ़ के मुताबिक़ उसे लेकर चल निकला। फिर जब सैलाब उठा तो सतह पर झाग भी आ गए। और ऐसे ही झाग उन धातों पर भी उठते हैं जिन्हें ज़ेवर और बरतन वग़ैरा बनाने के लिए लोग पिघलाया करते हैं। इसी मिसाल से अल्लाह हक़ और बातिल के मामले को वाज़ेह करता है। जो झाग है वह उड़ जाया करता है और जो चीज़ इनसानों के लिए नाफ़े है वह ज़मीन में ठहर जाती है। इस तरह अल्लाह मिसालों से अपनी बात समझाता है।
لِلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِرَبِّهِمُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُۥ لَوۡ أَنَّ لَهُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لَٱفۡتَدَوۡاْ بِهِۦٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ سُوٓءُ ٱلۡحِسَابِ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 17
(18) जिन लोगों ने अपने रब की दावत क़ुबूल कर ली उनके लिए भलाई है, और जिन्होंने उसे क़ुबूल न किया वे अगर ज़मीन की सारी दौलत के भी मालिक हों और उतनी ही और फ़राहम कर लें तो वे ख़ुदा की पकड़ से बचने के लिए उस सबको फ़िदये में दे डालने पर तैयार हो जाएँगे। ये वे लोग है जिनसे बुरी तरह हिसाब लिया जाएगा और उनका ठिकाना जहन्नम है, बहुत ही बुरा ठिकाना।
۞أَفَمَن يَعۡلَمُ أَنَّمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ ٱلۡحَقُّ كَمَنۡ هُوَ أَعۡمَىٰٓۚ إِنَّمَا يَتَذَكَّرُ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 18
(19) भला यह किस तरह मुमकिन है कि वह शख़्स जो तुम्हारे रब की इस किताब को जो उसने तुमपर नाज़िल की है हक़ जानता है और वह शख़्स जो इस हक़ीक़त की तरफ़ से अंधा है, दोनों यकसाँ हो जाएँ? नसीहत दानिशमन्द लोग ही क़ुबूल किया करते हैं।
ٱلَّذِينَ يُوفُونَ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ وَلَا يَنقُضُونَ ٱلۡمِيثَٰقَ ۝ 19
(20) और उनका तर्ज़े-अमल यह होता है कि अल्लाह के साथ अपने अह्द को पूरा करते हैं, उसे मज़बूत बाँधने के बाद तोड़ नहीं डालते।
وَٱلَّذِينَ يَصِلُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيَخۡشَوۡنَ رَبَّهُمۡ وَيَخَافُونَ سُوٓءَ ٱلۡحِسَابِ ۝ 20
(21) उनकी रविश यह होती है कि अल्लाह ने जिन-जिन रवाबित को बरक़रार रखने का हुक्म दिया उन्हें बरक़रार रखते हैं, अपने रब से डरते हैं और इस बात का ख़ौफ़ रखते हैं कि कहीं उनसे बुरी तरह हिसाब न लिया जाए।
وَٱلَّذِينَ صَبَرُواْ ٱبۡتِغَآءَ وَجۡهِ رَبِّهِمۡ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ وَيَدۡرَءُونَ بِٱلۡحَسَنَةِ ٱلسَّيِّئَةَ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عُقۡبَى ٱلدَّارِ ۝ 21
(22) उनका हाल यह होता है कि अपने रब की रिज़ा के लिए सब्र से काम लेते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, हमारे दिए हुए रिज़्क़ में से अलानिया और पोशीदा ख़र्च करते हैं, और बुराई को भलाई से दफ़ा करते हैं। आख़िरत का घर उन्हीं लोगों के लिए है।
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا وَمَن صَلَحَ مِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَأَزۡوَٰجِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَدۡخُلُونَ عَلَيۡهِم مِّن كُلِّ بَابٖ ۝ 22
(23) यानी ऐसे बाग़ जो उनकी अबदी क़ियामगाह होंगे। वे ख़ुद भी उनमें दाख़िल होंगे और उनके आबा व अज्दाद और उनकी बीवियों और उनकी औलाद में से जो सॉलेह हैं वे भी उनके साथ वहाँ जाएँगे। मलाइका हर तरफ़ से उनके इसतिक़बाल के लिए आएँगे और उनसे कहेंगे,
سَلَٰمٌ عَلَيۡكُم بِمَا صَبَرۡتُمۡۚ فَنِعۡمَ عُقۡبَى ٱلدَّارِ ۝ 23
(24) “तुमपर सलामती है, तुमने दुनिया में जिस तरह सब्र से काम लिया उसकी बदौलत आज तुम इसके मुस्तहिक़ हुए हो।” — पस क्या ही ख़ूब है यह आख़िरत का घर!
وَٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱللَّعۡنَةُ وَلَهُمۡ سُوٓءُ ٱلدَّارِ ۝ 24
(25) रहे वे लोग जो अल्लाह के अह्द को मज़बूत बाँध लेने के बाद तोड़ डालते हैं, जो उन राब्तों को काटते हैं जिन्हें अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है और जो ज़मीन में फ़साद फैलाते हैं, वे लानत के मुस्तहिक़ हैं और उनके लिए आख़िरत में बहुत बुरा ठिकाना है।
ٱللَّهُ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ وَفَرِحُواْ بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا مَتَٰعٞ ۝ 25
(26) अल्लाह जिसको चाहता है रिज़्क़ की फ़राख़ी बख़्शता है और जिसे चाहता है नपा-तुला रिज़्क़ देता है। ये लोग दुनयवी ज़िन्दगी में मग्न हैं, हालाँकि दुनिया की ज़िन्दगी आख़िरत के मुक़ाबले में एक मताए-क़लील के सिवा कुछ भी नहीं।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِيٓ إِلَيۡهِ مَنۡ أَنَابَ ۝ 26
(27) ये लोग जिन्होंने (रिसालते-मुहम्मदी को मानने से) इनकार कर दिया है, कहते हैं, “इस शख़्स पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतरी” कहो, अल्लाह जिसे चाहता है गुमराह कर देता है और वह अपनी तरफ़ आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी तरफ़ रुजूअ करे।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَتَطۡمَئِنُّ قُلُوبُهُم بِذِكۡرِ ٱللَّهِۗ أَلَا بِذِكۡرِ ٱللَّهِ تَطۡمَئِنُّ ٱلۡقُلُوبُ ۝ 27
(28) ऐसे ही लोग हैं वे जिन्होंने (उस नबी की दावत को) मान लिया है और उनके दिलों को अल्लाह की याद से इत्मीनान नसीब होता है। ख़बरदार रहो! अल्लाह की याद ही वह चीज़ है जिससे दिलों को इत्मीनान नसीब हुआ करता है।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ طُوبَىٰ لَهُمۡ وَحُسۡنُ مَـَٔابٖ ۝ 28
(29) फिर जिन लोगों ने दावते-हक़ को माना और नेक अमल किए वे ख़ुशनसीब है और उनके लिए अच्छा अंजाम है।
كَذَٰلِكَ أَرۡسَلۡنَٰكَ فِيٓ أُمَّةٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهَآ أُمَمٞ لِّتَتۡلُوَاْ عَلَيۡهِمُ ٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ وَهُمۡ يَكۡفُرُونَ بِٱلرَّحۡمَٰنِۚ قُلۡ هُوَ رَبِّي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ مَتَابِ ۝ 29
(30) (ऐ नबी!) इसी शान से हमने तुमको रसूल बनाकर भेजा है10 एक ऐसी क़ौम में जिससे पहले बहुत-सी क़ौमें गुज़र चुकी हैं, ताकि तुम इन लोगों को वह पैग़ाम सुनाओ जो हमने तुमपर नाज़िल किया है इस हाल में कि ये अपने निहायत मेहरबान ख़ुदा के काफ़िर बने हुए हैं। इनसे कहो कि वही मेरा रब है, उसके सिवा कोई माबूद नहीं है, उसी पर मैंने भरोसा किया और वही मेरा मलजा व मावा है।
10. यानी किसी ऐसी निशानी के बग़ैर जिसका ये लोग मुतालबा करते हैं।
وَلَوۡ أَنَّ قُرۡءَانٗا سُيِّرَتۡ بِهِ ٱلۡجِبَالُ أَوۡ قُطِّعَتۡ بِهِ ٱلۡأَرۡضُ أَوۡ كُلِّمَ بِهِ ٱلۡمَوۡتَىٰۗ بَل لِّلَّهِ ٱلۡأَمۡرُ جَمِيعًاۗ أَفَلَمۡ يَاْيۡـَٔسِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ لَهَدَى ٱلنَّاسَ جَمِيعٗاۗ وَلَا يَزَالُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ تُصِيبُهُم بِمَا صَنَعُواْ قَارِعَةٌ أَوۡ تَحُلُّ قَرِيبٗا مِّن دَارِهِمۡ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ وَعۡدُ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 30
(31) और क्या हो जाता अगर कोई ऐसा क़ुरआन उतार दिया जाता जिसके ज़ोर से पहाड़ चलने लगते, या ज़मीन शक़ हो जाती या मुरदे क़ब्रों से निकलकर बोलने लगते? (इस तरह की निशानियाँ दिखा देना कुछ मुशकिल नहीं है) बल्कि सारा इख़्तियार ही अल्लाह के हाथ में है।11 फिर क्या अहले-ईमान (अभी तक कुफ़्फ़ार की तलब के जवाब में किसी निशानी के ज़ुहूर की आस लगाए बैठे हैं और वे यह जानकर) मायूस नहीं हो गए कि अगर अल्लाह चाहता तो सारे इनसानों को हिदायत दे देता?12 जिन लोगों ने ख़ुदा के साथ कुफ़्र का रवैया इख़्तियार कर रखा है उनपर उनके करतूतों की वजह से कोई-न-कोई आफ़त आती ही रहती है, या उनके घर के क़रीब कहीं नाज़िल होती है। यह सिलसिला चलता रहेगा यहाँ तक कि अल्लाह का वादा आन पूरा हो। यक़ीनन अल्लाह अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करता।
11. यानी निशानियों के न दिखाने की अस्ल वजह यह नहीं है कि अल्लाह तआला उनके दिखाने पर क़ादिर नहीं है, बल्कि अस्ल वजह यह है कि इन तरीक़ों से काम लेना अल्लाह की मस्लहत के ख़िलाफ़ है। इसलिए कि अस्ल मक़सूद तो हिदायत है न कि एक नबी की नुबूवत को मनवा लेना, और हिदायत इसके बग़ैर मुमकिन नहीं कि लोगों की फ़िक्र व बसीरत की इसलाह हो।
12. यानी अगर समझ-बूझ के बग़ैर मह्ज़ एक ग़ैर-शुऊरी ईमान मतलूब होता तो उसके लिए निशानियाँ दिखाने के तकल्लुफ़ की क्या हाजत थी। यह काम तो इस तरह भी हो सकता था कि अल्लाह सारे इनसानों को मोमिन ही पैदा कर देता।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَأَمۡلَيۡتُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ ثُمَّ أَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ عِقَابِ ۝ 31
(32) तुमसे पहले भी बहुत-से रसूलों का मज़ाक़ उड़ाया जा चुका है, मगर मैंने हमेशा मुनकिरीन को ढील दी और आख़िरकार उनको पकड़ लिया, फिर देख लो कि मेरी सज़ा कैसी सख़्त थी।
أَفَمَنۡ هُوَ قَآئِمٌ عَلَىٰ كُلِّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡۗ وَجَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ قُلۡ سَمُّوهُمۡۚ أَمۡ تُنَبِّـُٔونَهُۥ بِمَا لَا يَعۡلَمُ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَم بِظَٰهِرٖ مِّنَ ٱلۡقَوۡلِۗ بَلۡ زُيِّنَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ مَكۡرُهُمۡ وَصُدُّواْ عَنِ ٱلسَّبِيلِۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٖ ۝ 32
(33) फिर क्या वह जो एक-एक मुतनफ़्फ़िस की कमाई पर नज़र रखता है (उसके मुक़ाबले में ये जसारतें की जा रही हैं कि) लोगों ने उसके कुछ शरीक ठहरा रखे हैं? (ऐ नबी!) इनसे कहो (अगर वाक़ई वे ख़ुदा के अपने बनाए हुए शरीक हैं तो) ज़रा उनके नाम लो कि वे कौन है? — क्या तुम अल्लाह को एक नई बात की ख़बर दे रहे हो जिसे वह अपनी ज़मीन में नहीं जानता या तुम लोग बस यूँ ही जो मुँह में आता है कह डालते हो? हक़ीक़त यह है कि जिन लोगों ने दावते-हक़ को मानने से इनकार किया है उनके लिए उनकी मक्कारियाँ13 ख़ुशनुमा बना दी गई हैं और वे राहे-रास्त से रोक दिए गए हैं, फिर जिसको अल्लाह गुमराही में फेंक दे उसे कोई राह दिखानेवाला नहीं है।
13. इस शिर्क को मक्कारी कहने की वजह यह है कि दरअस्ल जिन सितारों और सय्यारों या फ़रिश्तों या अरवाह या बुजुर्ग इनसानों को ख़ुदाई सिफ़ात और इख़्तियारात का हामिल क़रार दिया गया है, और जिनको ख़ुदा के मख़सूस हुक़ूक़ में शरीक बना लिया गया है, उनमें से किसी ने भी न इन सिफ़ात व इख़्तियारात का दावा किया, न उन हुक़ूक़ का मुतालबा किया, और न लोगों को यह तालीम दी की कि तुम हमारे आगे परस्तिश के मरासिम अदा को हम तुम्हारे काम बनाया करेंगे। यह तो चालाक इनसानों का काम है कि उन्होंने अवाम पर अपनी ख़ुदाई का सिक्का जमाने के लिए और उनकी कमाइयों में हिस्सा बटाने के लिए कुछ बनावटी ख़ुदा तसनीफ़ किए, लोगों को उनका मोअतक़िद बनाया और अपने-आपको किसी-न-किसी तौर पर उनका नुमाइन्दा ठहराकर अपना उल्लू सीधा करना शुरू कर दिया।
لَّهُمۡ عَذَابٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَشَقُّۖ وَمَا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن وَاقٖ ۝ 33
(34) ऐसे लोगों के लिए दुनिया की ज़िन्दगी ही में अज़ाब है, और आख़िरत का उससे भी ज़्यादा सख़्त है। कोई ऐसा नहीं जो उन्हें ख़ुदा से बचानेवाला हो।
۞مَّثَلُ ٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ أُكُلُهَا دَآئِمٞ وَظِلُّهَاۚ تِلۡكَ عُقۡبَى ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْۚ وَّعُقۡبَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ٱلنَّارُ ۝ 34
(35) ख़ुदा-तरस इनसानों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है उसकी शान यह है कि उसके नीचे नहरें बह रही हैं, उसके फल दाइमी हैं। उसका साया लाज़वाल। यह अंजाम है मुत्तक़ी लोगों का। और मुनकिरीने-हक़ का अंजाम यह है कि उनके लिए दोज़ख़ की आग है।
وَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَفۡرَحُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَۖ وَمِنَ ٱلۡأَحۡزَابِ مَن يُنكِرُ بَعۡضَهُۥۚ قُلۡ إِنَّمَآ أُمِرۡتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱللَّهَ وَلَآ أُشۡرِكَ بِهِۦٓۚ إِلَيۡهِ أَدۡعُواْ وَإِلَيۡهِ مَـَٔابِ ۝ 35
(36) (ऐ नबी!) जिन लोगों को हमने पहले किताब दी थी वे इस किताब से, जो हमने तुमपर नाज़िल की है, ख़ुश हैं और मुख़्तलिफ़ गरोहों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसकी बाज़ बातों को नहीं मानते। तुम साफ़ कह दो कि “मुझे तो सिर्फ़ अल्लाह की बन्दगी का हुक्म दिया गया है और इससे मना किया गया है कि किसी को उसके साथ शरीक ठहराऊँ, लिहाज़ा मैं उसी की तरफ़ दावत देता हूँ और उसी की तरफ़ मेरा रुजूअ है।”
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ حُكۡمًا عَرَبِيّٗاۚ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم بَعۡدَ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا وَاقٖ ۝ 36
(37) इसी हिदायत के साथ हमने यह फ़रमाने-अरबी तुमपर नाज़िल किया है। अब अगर तुमने इस इल्म के बावजूद जो तुम्हारे पास आ चुका है, लोगों की ख़ाहिशात की पैरवी की तो अल्लाह के मुक़ाबले में न कोई तुम्हारा हामी व मददगार है और न कोई उसकी पकड़ से तुमको बचा सकता है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلٗا مِّن قَبۡلِكَ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَذُرِّيَّةٗۚ وَمَا كَانَ لِرَسُولٍ أَن يَأۡتِيَ بِـَٔايَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ لِكُلِّ أَجَلٖ كِتَابٞ ۝ 37
(38) तुमसे पहले भी हम बहुत-से रसूल भेज चुके हैं और उनको हमने बीवी-बच्चोंवाला ही बनाया था।14 और किसी रसूल की भी यह ताक़त न थी कि अल्लाह के इज़्न के बग़ैर कोई निशानी ख़ुद ला दिखाता। हर दौर के लिए एक किताब है।
14. यह एक एतिराज़ का जवाब है जो नबी (सल्ल०) पर किया जाता था। वे कहते थे कि यह अच्छा नबी है जो बीवी और बच्चे रखता है। भला पैग़म्बरों को भी ख़ाहिशाते-नफ़सानी से कोई ताल्लुक़ हो सकता है। हलाँकि क़ुरैश के लोग ख़ुद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) व इसमाईल (अलैहि०) की औलाद होने पर फ़ख़्र करते थे।
يَمۡحُواْ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُ وَيُثۡبِتُۖ وَعِندَهُۥٓ أُمُّ ٱلۡكِتَٰبِ ۝ 38
(39) अल्लाह जो कुछ चाहता है मिटा देता है और जिस चीज़ को चाहता है क़ायम रखता है, 'उम्मुल किताब' उसी के पास है।15
15. 'उम्मुल-किताब' के मानी हैं 'अस्ल किताब' यानी वह मंबा व सरचश्मा जिससे तमाम कुतुबे-आसमानी निकली हैं।
وَإِن مَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُ وَعَلَيۡنَا ٱلۡحِسَابُ ۝ 39
(40) और (ऐ नबी!) जिस बुरे अंजाम की धमकी हम इन लोगों को दे रहे हैं, उसका कोई हिस्सा ख़ाह हम तुम्हारे जीते-जी दिखा दें या उसके ज़ुहूर में आने से पहले हम तुम्हें उठा लें, बहरहाल तुम्हारा काम सिर्फ़ पैगाम पहुँचा देना है और हिसाब लेना हमारा काम है।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَاۚ وَٱللَّهُ يَحۡكُمُ لَا مُعَقِّبَ لِحُكۡمِهِۦۚ وَهُوَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 40
(41) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि हम इस सरज़मीन पर चले आ रहे है और इसका दायरा हर तरफ़ से तंग करते चले आते हैं?16 अल्लाह हुकूमत कर रहा है, कोई उसके फ़ैसलों पर नज़रे-सानी करनेवाला नहीं है, और उसे हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
16. यानी क्या तुम्हारे मुख़ालिफ़ीन को नज़र नहीं आ रहा है कि इस्लाम का असर सरज़मीने-अरब के गोशे-गोशे में फैलता जा रहा है और चारों तरफ़ से इन लोगों पर हलक़ा तंग होता चला जाता है? यह उनकी शामत के आसार नहीं हैं तो क्या है? अल्लाह तआला का यह फ़रमाना कि “हम इस सरज़मीन पर चले आ रहे हैं” एक निहायत लतीफ़ अंदाज़े-बयान है। चूँकि दावते-हक़ अल्लाह की तरफ़ से होती है और अल्लाह उसके पेश करनेवालों के साथ होता है, इसलिए किसी सरज़मीन में उस दावत के फैलने को अल्लाह तआला यूँ ताबीर फ़रमाता है कि हम ख़ुद इस सरज़मीन में बढ़े-चले आ रहे हैं।
وَقَدۡ مَكَرَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَلِلَّهِ ٱلۡمَكۡرُ جَمِيعٗاۖ يَعۡلَمُ مَا تَكۡسِبُ كُلُّ نَفۡسٖۗ وَسَيَعۡلَمُ ٱلۡكُفَّٰرُ لِمَنۡ عُقۡبَى ٱلدَّارِ ۝ 41
(42) इनसे पहले जो लोग हो गुज़रे हैं वे भी बड़ी-बड़ी चालें चल चुके हैं, मगर अस्ल फ़ैसलाकुन चाल तो पूरी-की-पूरी अल्लाह ही के हाथ में है। वह जानता है कि कौन क्या कुछ कमाई कर रहा है, और अन-क़रीब ये मुनकिरीने-हक़ देख लेगें कि अंजाम किसका बख़ैर होता है।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَسۡتَ مُرۡسَلٗاۚ قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡ وَمَنۡ عِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلۡكِتَٰبِ ۝ 42
(43) ये मुनकिरीन कहते हैं कि तुम ख़ुदा के भेजे हुए नहीं हो। कहो, “मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह की गवाही काफ़ी है, और फिर उस शख़्स की गवाही जो किताबे-आसमानी का इल्म रखता है।”