14. इबराहीम
(मक्का में उतरी-आयतें 52)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम इसकी आयत 35 के वाक्य “याद करो वह समय जब इबराहीम ने दुआ की थी कि पालनहार ! इस नगर (मक्का) को शांति का नगर बना” से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह नहीं है कि इस सूरा में हज़रत इबराहीम की आत्मकथा बयान हुई है, बल्कि यह भी अधिकतर सूरतों के नामों की तरह प्रतीक के रूप में है, अर्थात् वह सूरा जिसमें इबराहीम (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है।
उतरने का समय
सामान्य वर्णनशैली मक्का के अन्तिम काल की सूरतों की-सी है। सूरा-13 (रअ़द) से क़रीब ज़माने ही की उतरी सूरा मालूम होती है। मुख्य रूप से आयत 13 के शब्द 'व क़ालल्लज़ी-न क-फ़-रू लिरुसुलिहिम ल-नुख़रिजन्नकुम मिन अरज़िना अव ल-त-ऊदुन-न फ़ी मिल्लतिना अर्थात् "इंकार करनेवालों ने अपने रसूलों से कहा कि या तो तुम्हें हमारी मिल्लत (पंथ) में वापस आना होगा वरना हम तुम्हें अपने देश से निकाल देंगे” का स्पष्ट संकेत इस ओर है कि उस समय मक्का में मुसलमानों पर अत्याचार अपनी चरम सीमा को पहुँच चुका था और मक्कावाले पिछली काफ़िर क़ौमों की तरह अपने यहाँ के ईमानवालों को शहर से निकाल देने पर तुल गए थे। इसी आधार पर उन्हें वह धमकी सुनाई गई जो उन्हीं के जैसे रवैये पर चलनेवाली पिछली क़ौमों को दी गई थी कि “हम ज़ालिमों को हलाक करके रहेंगे” और ईमानवालों को वही तसल्ली दी गई जो उनके अगलों को दी जाती रही है कि “हम इन ज़ालिमों को समाप्त करने के बाद तुम ही को इस भू-भाग पर आबाद करेंगे।"
इसी तरह अन्तिम आयतों के तेवर भी यही बताते हैं कि यह सूरा मक्का के अन्तिम युग से संबंध रखती है।
केन्द्रीय विषय और उद्देश्य
जो लोग नबी (सल्ल०) की रिसालत (रसूल होने) को मानने से इंकार कर रहे थे और आप (सल्ल०) के सन्देश को विफल करने के लिए हर प्रकार की बुरी से बुरी चालें चल रहे थे, उन्हें समझाया-बुझाया गया और चेतावनी दी गई, लेकिन समझाने-बुझाने की अपेक्षा इस सूरा में चेतावनी, निन्दा और डाँट-फटकार का अंदाज़ ज़्यादा तेज़ है। इसका कारण यह है कि समझाने-बुझाने का हक़ इससे पहले की सूरतों में अच्छी तरह अदा किया जा चुका था और इसके बाद भी क़ुरैश के कुफ़्फ़ार (अवज्ञाकारियों) की हठधर्मी, शत्रुता, विरोध, दुष्टता और अत्याचार दिन-पर-दिन अधिक ही होता चला जा रहा था।
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الٓرۚ كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ لِتُخۡرِجَ ٱلنَّاسَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ
(1) अलिफ़-लाम-रा। (ऐ मुहम्मद!) यह एक किताब है जिसको हमने तुम्हारी तरफ़ नाज़िल किया है ताकि तुम लोगों को तारीकियों से निकालकर रौशनी में लाओ, उनके रब की तौफ़ीक़ से, उस ख़ुदा के रास्ते पर जो ज़बरदस्त और अपनी ज़ात में आप महमूद1 है
1. हमीद का लफ़्ज़ अगरचे महमूद ही का हममानी है, मगर दोनों लफ़्ज़ों में एक लतीफ़ फ़र्क़ है। महमूद किसी शख़्स को उसी वक़्त कहेंगे जब कि उसकी तारीफ़ की गई हो या की जाती हो। मगर हमीद आप-से-आप हम्द का मुस्तहिक़ है, ख़ाह कोई उसकी हम्द करे या न करे।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا بِلِسَانِ قَوۡمِهِۦ لِيُبَيِّنَ لَهُمۡۖ فَيُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ 3
(4) हमने अपना पैग़ाम देने के लिए जब कभी कोई रसूल भेजा है, उसने अपनी क़ौम ही की ज़बान में पैग़ाम दिया है ताकि वह उन्हें अच्छी तरह, खोलकर बात समझाए। फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है हिदायत बख़्शता है, वह बालादस्त और हकीम है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ أَنۡ أَخۡرِجۡ قَوۡمَكَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ وَذَكِّرۡهُم بِأَيَّىٰمِ ٱللَّهِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ 4
(5) हम इससे पहले मूसा को भी अपनी निशानियों के साथ भेज चुके हैं। उसे भी हमने हुक्म दिया था कि अपनी क़ौम को तारीकियों से निकालकर रोशनी में ला और उन्हें तारीख़े-इलाही2 के सबक़ आमोज़ वाक़िआत सुनाकर नसीहत कर। इन वाक़िआत में बड़ी निशानियाँ हैं हर उस शख़्स के लिए जो सब्र और शुक्र करनेवाला हो।3
2. 'अय्याम' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में इस्तिलाहन यादगार तारीख़ी वाक़िआत के लिए बोला जाता है। 'अय्यामुल्लाह’ से मुराद तारीख़े-इनसानी के वे अहम अबवाब है जिनमें अल्लाह तआला ने गुज़िश्ता ज़माने की क़ौमों और बड़ी-बड़ी शख़्सियतों को उनके आमाल के लिहाज़ से जज़ा या सज़ा दी है।
3. यानी ये निशानियाँ तो अपनी जगह मौजूद हैं मगर इनसे फ़ायदा उठाना सिर्फ़ उन्हीं लोगों का काम है जो अल्लाह की आज़माइशों से सब्र और पामर्दी के साथ गुज़रनेवाले, और अल्लाह की नेमतों को ठीक-ठीक महसूस करके उनका सही शुक्रिया अदा करनेवाले हों।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ أَنجَىٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ وَيُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ 5
(6) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, “अल्लाह के उस एहसान को याद रखो जो उसने तुमपर किया है। उसने तुमको फिरऔनवालों से छुड़ाया जो तुमको सख़्त तकलीफ़ें देते थे, तुम्हारे लड़कों को क़त्ल कर डालते थे और तुम्हारी लड़कियों को ज़िन्दा बचा रखते थे, इसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।
أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَبَؤُاْ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا ٱللَّهُۚ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَرَدُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فِيٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَقَالُوٓاْ إِنَّا كَفَرۡنَا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ وَإِنَّا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَنَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ 9
(9) क्या तुम्हें4 उन क़ौमों के हालात नहीं पहुँचे जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं? क़ौमे-नूह, आद, समूद और उनके बाद आनेवाली बहुत-सी क़ौमें जिनका शुमार अल्लाह ही को मालूम है? उनके रसूल जब उनके पास साफ़-साफ़ बातें और खुली-खुली निशानियाँ लिए हुए आए तो उन्होंने अपने मुँह में हाथ5 दबा लिए और कहा कि “जिस पैग़ाम के साथ तुम भेजे गए हो हम उसको नहीं मानते और जिस चीज़ की तुम हमें दावत देते हो उसकी तरफ़ से हम सख़्त ख़लजान-आमेज़ शक में पड़े हए हैं।
4. हज़रत मूसा (अलैहि०) की तक़रीर ऊपर ख़त्म हो गई। अब बराहे-रास्ता कुफ़्फ़ारे-मक्का से ख़िताब शुरू होता है।
5. यह ऐसा ही अन्दाज़े-बयान है जैसे हम उर्दू में कहते हैं कानों पर हाथ रखे, य दाँतों में उँगली दबाई।
۞قَالَتۡ رُسُلُهُمۡ أَفِي ٱللَّهِ شَكّٞ فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَدۡعُوكُمۡ لِيَغۡفِرَ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُؤَخِّرَكُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ قَالُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا تُرِيدُونَ أَن تَصُدُّونَا عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتُونَا بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ 10
(10) उनके रसूलों ने कहा, “क्या ख़ुदा के बारे में शक है जो आसमानों और ज़मीन का ख़ालिक़ है? वह तुम्हें बुला रहा है ताकि तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करे और तुमको एक मुद्दते-मुक़र्ररा तक मुहलत दे।” उन्होंने जवाब दिया, “तुम कुछ नहीं हो, मगर वैसे ही इनसान जैसे हम हैं। तुम हमें उन हस्तियों की बन्दगी से रोकना चाहते हो जिनकी बन्दगी बाप-दादा से होती चली आ रही है। अच्छा तो लाओ कोई सरीह सनद।”
قَالَتۡ لَهُمۡ رُسُلُهُمۡ إِن نَّحۡنُ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَمُنُّ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَمَا كَانَ لَنَآ أَن نَّأۡتِيَكُم بِسُلۡطَٰنٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ 11
(11)उनके रसूलों ने उनसे कहा, “वाक़ई हम कुछ नहीं हैं। मगर तुम ही जैसे इनसान। लेकिन अल्लाह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है नवाज़ता है, और यह हमारे इख़्तियार में नहीं है कि तुम्हें कोई सनद ला दें। सनद तो अल्लाह ही के इज़्न से आ सकती है और अल्लाह ही पर अहले-ईमान को भरोसा करना चाहिए।
وَلَنُسۡكِنَنَّكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَافَ مَقَامِي وَخَافَ وَعِيدِ 14
(14) और इनके बाद तुम्हें ज़मीन में आबाद करेंगे। यह इनाम है उसका जो मेरे हुज़ूर जवाबदेही का ख़ौफ़ रखता हो और मेरी वईद से डरता हो।”
6. इसका यह मतलब नहीं है कि अम्बिया (अलैहि०) मंसबे-नुबूवत पर सरफ़राज़ होने से पहले अपनी गुमराह क़ौमों की मिल्लत में शामिल हुआ करते थे, बल्कि इसके मानी ये हैं कि नुबूवत से पहले चूँकि वे एक तरह की ख़ामोश ज़िन्दगी बसर करते थे, किसी दीन की तबलीग़ और किसी राइजुल-वक़्त दीन की तरदीद नहीं करते थे, इसलिए उनकी क़ौम यह समझती थी कि वे हमारी ही मिल्लत में हैं, नुबूवत का काम शुरू कर देने के बाद उनपर यह इलज़ाम लगाया जाता था कि वे मिल्लते-आबाई से निकल गए हैं। हालाँकि वे नुबूवत से पहले भी कभी मुशरिकीन की मिल्लत में शामिल न हुए थे कि उससे ख़ुरूज का इलज़ाम उनपर लग सकता।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجَ بِهِۦ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ رِزۡقٗا لَّكُمۡۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡفُلۡكَ لِتَجۡرِيَ فِي ٱلۡبَحۡرِ بِأَمۡرِهِۦۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡأَنۡهَٰرَ 15
(32) अल्लाह वही तो है जिसने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया और आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके ज़रिए से तुम्हारी रिज़्क़रसानी के लिए तरह-तरह के फल पैदा किए। जिसने कश्ती को तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र किया कि समुंदर में उसके हुक्म से चले और दरियाओं को तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र किया।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ دَآئِبَيۡنِۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ 16
(33) जिसने सूरज और चाँद को तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र किया कि लगातार चले जा रहे हैं और रात और दिन को तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र किया,8
8. ‘तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र किया' को आमतौर पर लोग ग़लती से ‘तुम्हारे ताबे कर दिया’ के मानी में ले लेते हैं, और फिर इस मज़मून की आयात से अजीब-अजीब मानी पैदा करने लगते हैं। हत्ता कि बाज़ लोग तो यहाँ तक समझ बैठे कि इन आयात की मदद से तसख़ीरे- समावात व अर्ज़ इनसान का मुन्तहा-ए-मक़सूद है। हालाँकि इनसान के लिए इन चीज़ों को मुसख़्ख़र करने का मतलब इसके सिवा कुछ नहीं कि अल्लाह तआला ने इनको ऐसे क़वानीन का पाबन्द बना रखा है जिनकी बदौलत ये इनसान के लिए नाफ़े हो गई हैं।
وَءَاتَىٰكُم مِّن كُلِّ مَا سَأَلۡتُمُوهُۚ وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَظَلُومٞ كَفَّارٞ 17
(34) जिसने वह सब कुछ तुम्हें दिया जो तुमने माँगा।9 अगर तुम अल्लाह की नेमतों का शुमार करना चाहो तो नहीं कर सकते। हकीक़त यह है कि इनसान बड़ा ही बेइनसाफ़ और नाशुक्रा है।
9. यानी तुम्हारी फ़ितरत की हर माँग पूरी की, तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए जो कुछ मतलूब था मुहैया किया, तुम्हारे बक़ा और इर्तिका के लिए जिन-जिन वसाइल की ज़रूरत थी सब फ़राहम कर दिए।
يَوۡمَ تُبَدَّلُ ٱلۡأَرۡضُ غَيۡرَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱلسَّمَٰوَٰتُۖ وَبَرَزُواْ لِلَّهِ ٱلۡوَٰحِدِ ٱلۡقَهَّارِ 18
(48) डराओ इन्हें उस दिन से जब कि ज़मीन और आसमान बदलकर कुछ-से-कुछ कर दिए जाएँगे11और सब-के-सब अल्लाह वाहिदे-क़ह्हार के सामने बेनक़ाब हाज़िर हो जाएँगे।
11. इस आयत से और क़ुरआन के दूसरे इशारात से मालूम होता है कि क़ियामत में ज़मीन और आसमान बिलकुल नीस्त व नाबूद नहीं हो जाएँगे, बल्कि सिर्फ़ मौजूदा निज़ामे-तबीई को दरहम-बरहम कर डाला जाएगा, इसके बाद नफ़ख़े-सूरे-अव्वल और नफ़ख़े-सूरे-आख़िर के दरमियान एक ख़ास मुद्दत में, जिसे अल्लाह तआला ही जानता है, ज़मीन और आसमानों की मौजूदा हैयत बदल दी जाएगी और एक दूसरा निज़ाम दूसरे क़वानीने-फ़ितरत के साथ बना दिया जाएगा। वही आलमे-आख़िरत होगा। फिर नफ़ख़े-सूरे-आख़िर के साथ ही वे तमाम इनसान जो तख़लीक़े-आदम से लेकर क़ियामत तक पैदा हुए थे, अज़-सरे-नौ ज़िन्दा किए जाएँगे और अल्लाह तआला के हुज़ूर पेश होंगे। इसी का नाम क़ुरआन की ज़बान में हश्र है जिसके लुग़वी मानी समेटने और इकट्ठा करने के हैं।
رَّبَّنَآ إِنِّيٓ أَسۡكَنتُ مِن ذُرِّيَّتِي بِوَادٍ غَيۡرِ ذِي زَرۡعٍ عِندَ بَيۡتِكَ ٱلۡمُحَرَّمِ رَبَّنَا لِيُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱجۡعَلۡ أَفۡـِٔدَةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ تَهۡوِيٓ إِلَيۡهِمۡ وَٱرۡزُقۡهُم مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡكُرُونَ 23
(37) परवरदिगार! मैंने एक बेआब व गयाह वादी में अपनी औलाद के एक हिस्से को तेरे मोहतरम घर के पास ला बसाया है। परवरदिगार! यह मैंने इसलिए किया है कि ये लोग यहाँ नमाज़ क़ायम करें, लिहाज़ा तू लोगों के दिलों को इनका मुश्ताक़ बना और इन्हें खाने को फल दे, शायद कि ये शुक्रगुज़ार बनें।
رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لِي وَلِوَٰلِدَيَّ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ يَوۡمَ يَقُومُ ٱلۡحِسَابُ 29
(41) परवरदिगार! मुझे और मेरे वालिदैन10 को और सब ईमान लानेवालों को उस दिन माफ़ कर दीजियो जबकि हिसाब क़ायम होगा।”
10. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने इस दुआ-ए-मग़फ़िरत में अपने बाप को उस वादे की बिना पर शरीक कर लिया था जो उन्होंने वतन से निकलते वक़्त किया था ‘स-अस्तग़फ़िरु-ल-क रब्बी' (क़ुरआन सूरा-19 मरयम, आयत-47 ), मगर बाद में जब उन्हें एहसास हुआ कि वह तो अल्लाह का दुश्मन था तो उन्होंने उससे साफ़ तबर्री फ़रमा दी। (क़ुरआन सूरा-9 मरयम, आयत-114)
وَأَنذِرِ ٱلنَّاسَ يَوۡمَ يَأۡتِيهِمُ ٱلۡعَذَابُ فَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رَبَّنَآ أَخِّرۡنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ نُّجِبۡ دَعۡوَتَكَ وَنَتَّبِعِ ٱلرُّسُلَۗ أَوَلَمۡ تَكُونُوٓاْ أَقۡسَمۡتُم مِّن قَبۡلُ مَا لَكُم مِّن زَوَالٖ 32
(44) (ऐ नबी!) उस दिन से तुम इन्हें डरा दो जबकि अज़ाब इन्हें आ लेगा। उस वक़्त ये ज़ालिम कहेंगे कि “ऐ हमारे रब हमें थोड़ी-सी मुहलत और दे दे, हम तेरी दावत को लब्बैक कहेंगे। और रसूलों की पैरवी करेंगे।” (मगर इन्हें साफ़ जवाब दिया जाएगा कि) “क्या तुम वही लोग नहीं हो जो इससे पहले क़समें खा-खाकर कहते थे कि हमपर तो कभी ज़वाल आना ही नहीं है?
وَبَرَزُواْ لِلَّهِ جَمِيعٗا فَقَالَ ٱلضُّعَفَٰٓؤُاْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُنَّا لَكُمۡ تَبَعٗا فَهَلۡ أَنتُم مُّغۡنُونَ عَنَّا مِنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ قَالُواْ لَوۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ لَهَدَيۡنَٰكُمۡۖ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَجَزِعۡنَآ أَمۡ صَبَرۡنَا مَا لَنَا مِن مَّحِيصٖ 41
(21) और ये लोग जब इकट्ठे अल्लाह के सामने बेनक़ाब होंगे तो उस वक़्त उनमें से जो दुनिया में कमज़ोर थे वे उन लोगों से जो बड़े बने हुए थे, कहेंगे, “दुनिया में हम तुम्हारे ताबे थे, अब क्या तुम अल्लाह के अज़ाब से हमको बचाने के लिए भी कुछ कर सकते हो?” वे जवाब देंगे, “अगर अल्लाह हमें नजात की कोई राह दिखाई होती तो हम ज़रूर तुम्हें दिखा देते। अब तो यकसाँ है ख़ाह हम जज़ा-फ़ज़ा करें या सब्र, बहरहाल हमारे बचने की कोई सूरत नहीं।”
وَقَالَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَمَّا قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ إِنَّ ٱللَّهَ وَعَدَكُمۡ وَعۡدَ ٱلۡحَقِّ وَوَعَدتُّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُكُمۡۖ وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيۡكُم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّآ أَن دَعَوۡتُكُمۡ فَٱسۡتَجَبۡتُمۡ لِيۖ فَلَا تَلُومُونِي وَلُومُوٓاْ أَنفُسَكُمۖ مَّآ أَنَا۠ بِمُصۡرِخِكُمۡ وَمَآ أَنتُم بِمُصۡرِخِيَّ إِنِّي كَفَرۡتُ بِمَآ أَشۡرَكۡتُمُونِ مِن قَبۡلُۗ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 42
(22) और जब फ़ैसला चुका दिया जाएगा तो शैतान कहेगा, “हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ने जो वादे तुमसे किए थे वे सब सच्चे थे और मैंने जितने वादे किए उनमें से कोई भी पूरा न किया। मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं, मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि अपने रास्ते की तरफ़ तुमको दावत दी और तमने मेरी दावत पर लब्बैक कहा। अब मुझे मलामत न करो, अपने-आप ही को मलामत करो। यहाँ न मैं तुम्हारी फ़रियाद-रसी कर सकता हूँ और न तुम मेरी। इससे पहले जो तुमने मुझे ख़ुदाई में शरीक बना रखा था,7 मैं उससे बरीउज़-ज़िम्मा हूँ, ऐसे ज़ालिमों के लिए तो दर्दनाक सज़ा यक़ीनी है।”
7. ज़ाहिर बात है कि शैतान को एतिक़ादी हैसियत से तो कोई भी न ख़ुदाई में शरीक ठहराता है और न उसकी परस्तिश करता है। सब उसपर लानत ही भेजते हैं। अलबत्ता उसकी इताअत और ग़ुलामी और उसके तरीक़े की अंधी या जान-बूझकर पैरवी ज़रूर की जा रही है और इसी को यहाँ शिर्क के लफ़्ज़ से ताबीर किया गया है।