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سُورَةُ الحِجۡرِ

  1. अल-हिज्र

(मक्का में उतरी-आयतें 99)

परिचय

नाम

आयत नम्बर 80 में हिज्र शब्द आया है, उसी को इस सूरा का नाम दे दिया गया है।

उतरने का समय

विषय और वर्णन-शैली से साफ़ पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय सूरा-14 (इबराहीम) के समय से मिला हुआ है। इसकी पृष्ठभूमि में दो चीज़े बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) को सन्देश पहुँचाते हुए एक समय बीत चुका है और सम्बोधित क़ौम को निरन्तर हठधर्मी, उपहास, अवरोध और अत्याचार अपनी सीमा पार कर चुका है, जिसके बाद अब समझाने-बुझाने का अवसर कम और चेतावनी और धमकी का अवसर अधिक है। दूसरे यह कि अपनी क़ौम के इंकार, हठधर्मी और अवरोध के पहाड़ तोड़ते-तोड़ते नबी (सल्ल०) थके जा रहे हैं और दिल टूटने की दशा बार-बार आप पर छा रही है, जिसे देखकर अल्लाह आपको तसल्ली दे रहा है और आपकी हिम्मत बंधा रहा है।

वार्ताएँ और केन्द्रीय विषय

यही दो विषय इस सूरा में वर्णित हुए हैं। एक यह कि चेतावनी उन लोगों को दी गई जो नबी (सल्ल०) की दावत का इंकार कर रहे थे और आपका उपहास करते और आपके काम में तरह-तरह की रुकावटें पैदा करते थे और दूसरा यह कि नबी (सल्ल०) को तसल्ली और प्रोत्साहन दिया गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यह सूरा समझाने और उपदेश देने से ख़ाली है। क़ुरआन में कहीं भी अल्लाह ने केवल चेतावनी या मात्र डॉट-फटकार से काम नहीं लिया है, कड़ी से कड़ी धमकियों और निन्दाओं के बीच भी वह समझाने-बुझाने और उपदेश देने में कमी नहीं करता। अत: इस सूरा में भी एक ओर तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाणों की ओर संक्षिप्त संकेत किए गए हैं और दूसरी ओर आदम और इबलोस का क़िस्सा सुनाकर नसीहत की गई है ।

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سُورَةُ الحِجۡرِ
15. सूरा अल-हिज्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ وَقُرۡءَانٖ مُّبِينٖ
(1) अलिफ़-लाम-रॉ। ये आयात हैं किताबे-इलाही और क़ुरआने-मुबीन की।1
1. क़ुरआन के लिए 'मुबीन' का लफ़्ज़ सिफ़त के तौर पर इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब ये है कि ये आयात उस क़ुरआन की हैं जो अपना मुद्दआ साफ़-साफ़ ज़ाहिर करता है।
رُّبَمَا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ كَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 1
(2) बईद नहीं कि एक वक़्त वह आ जाए जब वही लोग जिन्होंने आज (दावते-इस्लाम को क़ुबूल करने से) इनकार कर दिया है, पछता-पछताकर कहेंगे कि काश हमने सरे-तसलीम ख़म कर दिया होता।
ذَرۡهُمۡ يَأۡكُلُواْ وَيَتَمَتَّعُواْ وَيُلۡهِهِمُ ٱلۡأَمَلُۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 2
(3) छोड़ो इन्हें। खाएँ पिएँ, मज़े करें, और भुलावे में डाले रखे इनको झूठी उम्मीद। अन-क़रीब इन्हें मालूम हो जाएगा।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا وَلَهَا كِتَابٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 3
(4) हमने इससे पहले जिस बस्ती को भी हलाक किया है उसके लिए एक ख़ास मुहलते-अमल लिखी जा चुकी थी।
مَّا تَسۡبِقُ مِنۡ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ ۝ 4
(5) कोई क़ौम न अपने वक़्ते-मुकर्रर से पहले हलाक हो सकती है, न उसके बाद छूट सकती है।
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِي نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلذِّكۡرُ إِنَّكَ لَمَجۡنُونٞ ۝ 5
(6) ये लोग कहते हैं, “ऐ वह शख़्स, जिसपर यह ज़िक्र2 नाज़िल हुआ है!3 तू यक़ीनन दीवाना है।
2. 'ज़िक्र' का लफ़्ज़ क़ुरआन में इस्तिलाहन कलामे-इलाही के लिए इस्तेमाल हुआ है जो सरासर नसीहत बन के आता है। पहले जितनी किताबें अम्बिया पर नाज़िल हुई थीं वे सब भी ‘ज़िक्र' थीं और यह क़ुरआन भी ‘ज़िक्र' है। ज़िक्र के अस्ल मानी हैं 'याद दिलाना', 'होशियार करना' और 'नसीहत करना’।
3. यह फ़िक़रा वे लोग तंज़ के तौर पर कहते थे। उनको तो यह तसलीम ही नहीं था कि यह ज़िक्र नबी (सल्ल०) पर नाज़िल हुआ है, न उसे तसलीम कर लेने के बाद वे आप (सल्ल०) को दीवाना कह सकते थे। दरअस्ल उनके कहने का मतलब यह था कि “ऐ वह शख़्स, जिसका दावा यह है कि मुझपर ज़िक्र नाज़िल हुआ है।”
لَّوۡمَا تَأۡتِينَا بِٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 6
(7) अगर तू सच्चा है तो हमारे सामने फ़रिश्तों को ले क्यों नहीं आता?”
مَا نُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَمَا كَانُوٓاْ إِذٗا مُّنظَرِينَ ۝ 7
(8) — हम फ़रिश्तों को यूँ ही नहीं उतार दिया करते। वे जब उतरते हैं तो हक़ के साथ उतरते हैं, और फिर लोगों को मुहलत नहीं दी जाती।4
4. यानी फ़रिश्ते मह्ज़ तमाशा दिखाने के लिए नहीं उतारे जाते कि जब किसी क़ौम ने कहा कि बुलाओ फ़रिश्तों को और वे फ़ौरन आ हाज़िर हों। फ़रिश्तों को भेजने का वक़्त तो वह आख़िरी वक़्त होता है जब किसी क़ौम का फ़ैसला चुका देने का इरादा कर लिया जाता है। ‘हक़ के साथ उतरते हैं' का मतलब हक़ लेकर उतरना है, यानी वह अल्लाह का बरहक़ फ़ैसला लेकर आते हैं और उसे नाफ़िज़ करके छोड़ते हैं।
إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا ٱلذِّكۡرَ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 8
(9) रहा ये ज़िक्र तो इसको हमने नाज़िल किया है और हम ख़ुद इसके निगहबान हैं।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي شِيَعِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 9
(10) (ऐ नबी!) हम तुमसे पहले बहुत-सी गुज़री हुई क़ौमों में रसूल भेज चुके है।
وَلَقَدۡ جَعَلۡنَا فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَزَيَّنَّٰهَا لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 10
(16) यह हमारी कारफ़रमाई है कि आसमान में हमने बहुत-से मज़बूत क़िले6 बनाए,
6. अस्ल में लफ़्ज़ 'बुरूज' इस्तेमाल हुआ है। बुरुज अरबी ज़बान में क़िले, क़स्र और मुस्तहकम इमारत को कहते हैं। बाद के मज़मून पर ग़ौर करने से ख़याल होता है कि शायद इससे मुराद आलमे-बाला के वे ख़ित्ते हैं जिनमें से हर ख़ित्ते को निहायत मुस्तहकम सरहदों ने दूसरे ख़ित्ते से अलग कर रखा है। इस मफ़हूम के लिहाज़ से हम बुरूज को महफ़ूज़ ख़ित्तों के मानी में लेना ज़्यादा सही समझते हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 11
(11) कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनके पास कोई रसूल आया हो और उन्होंने उसका मज़ाक़ न उड़ाया हो।
كَذَٰلِكَ نَسۡلُكُهُۥ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 12
(12) मुजरिमीन के दिलों में तो हम इस ज़िक्र को इसी तरह (सलाख के मानिन्द) गुज़ारते हैं।5
5. अस्ल में लफ़्ज़ ‘नस्लुकुहू' इस्तेमाल हुआ है। ‘स-ल-क' के मानी अरबी ज़बान में किसी चीज़ को दूसरी चीज़ में चलाने, गुज़ारने और पिरोने के हैं, जैसे तागे को सूई के नाके में गुज़ारना। पस आयत का मतलब यह है कि अहले-ईमान के अन्दर तो यह ज़िक्र क़ल्ब की ठंडक और रूह की ग़िज़ा बनकर उतरता है, मगर मुजरिमों के दिलों में यह शिताबा बनकर लगता है और उनके अन्दर उसे सुनकर ऐसी आग भड़क उठती है गोया कि एक गर्म सलाख़ थी जो सीने के पार हो गई।
وَحَفِظۡنَٰهَا مِن كُلِّ شَيۡطَٰنٖ رَّجِيمٍ ۝ 13
(17) उनको देखनेवालों के लिए (सितारों से) आरास्ता किया, और हर शैताने-मरदूद से उनको महफ़ूज़ कर दिया।
إِلَّا مَنِ ٱسۡتَرَقَ ٱلسَّمۡعَ فَأَتۡبَعَهُۥ شِهَابٞ مُّبِينٞ ۝ 14
कोई शैतान उनमें राह नहीं पा सकता, इल्ला यह कि कुछ सुन-गुन ले ले।7 और जब वह सुन-गुन लेने की कोशिश करता है तो एक शोला-ए-रौशन उनका पीछा करता है।8
7. यानी वे शयातीन जो अपने औलिया को ग़ैब की ख़बरें लाकर देने की कोशिश करते हैं उनके पास हक़ीक़त में ग़ैबदानी के ज़राए बिलकुल नहीं हैं। कायनात उनके लिए खुली नहीं पड़ी है कि जहाँ चाहें जाएँ और अल्लाह के असरार मालूम कर लें। वे सुन-गुन लेने की कोशिश ज़रूर करते हैं, लेकिन फ़िल-वाक़े उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता।
8. 'शिहाबे-मुबीन' के लुग़वी मानी 'शोला-ए-रौशन' के हैं। दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में इसके लिए 'शिहाबे-साक़िब' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, यानी 'तारीकी को छेदनेवाला शोला'। इससे मुराद ज़रूरी नहीं कि वह टूटनेवाला तारा ही हो जिसे हमारी ज़बान में इस्तिलाहन 'शिहाबे-साक़िब' कहा जाता है। मुमकिन है कि ये और किसी क़िस्म की शुआएँ हों, मसलन कायनाती शुआएँ या उनसे भी ज़्यादा शदीद कोई और क़िस्म जो अभी हमारे इल्म में न आई हो। ताहम यह भी मुमकिन है कि यही शिहाबे-साक़िब मुराद हों जिन्हें कभी-कभी हमारी आँखें ज़मीन की तरफ़ गिरते हुए देखती हैं और यही आलमे-बाला की तरफ़ शयातीन की परवाज़ में माने होते हों।
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَقَدۡ خَلَتۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 15
(13) वे इसपर ईमान नहीं लाया करते। क़दीम ज़माने से इस क़िमाश के लोगों का यही तरीक़ा चला आ रहा है।
وَلَوۡ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَظَلُّواْ فِيهِ يَعۡرُجُونَ ۝ 16
(14) अगर हम उनपर आसमान का कोई दरवाज़ा खोल देते और वे दिन-दहाड़े उसमें चढ़ने भी लगते
وَٱلۡأَرۡضَ مَدَدۡنَٰهَا وَأَلۡقَيۡنَا فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡزُونٖ ۝ 17
(19) हमने ज़मीन को फैलाया, उसमें पहाड़ जमाए, उसमें हर नौअ की नबातात ठीक-ठीक नपी-तुली मिक़दार के साथ उगाई,
لَقَالُوٓاْ إِنَّمَا سُكِّرَتۡ أَبۡصَٰرُنَا بَلۡ نَحۡنُ قَوۡمٞ مَّسۡحُورُونَ ۝ 18
(15) तब भी वे यही कहते कि हमारी आँखों को धोखा हो रहा है, बल्कि हमपर जादू कर दिया गया है।
وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَ وَمَن لَّسۡتُمۡ لَهُۥ بِرَٰزِقِينَ ۝ 19
(20) और उसमें मईशत के असबाब फ़राहम किए, तुम्हारे लिए भी और उन बहुत-सी मख़लूक़ात के लिए भी जिनके राज़िक़ तुम नहीं हो।
وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا عِندَنَا خَزَآئِنُهُۥ وَمَا نُنَزِّلُهُۥٓ إِلَّا بِقَدَرٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 20
(21) कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसके ख़ज़ाने हमारे पास न हों, और जिस चीज़ को भी हम नाज़िल करते हैं एक मुक़र्रर मिक़दार में नाज़िल करते हैं।
وَأَرۡسَلۡنَا ٱلرِّيَٰحَ لَوَٰقِحَ فَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَسۡقَيۡنَٰكُمُوهُ وَمَآ أَنتُمۡ لَهُۥ بِخَٰزِنِينَ ۝ 21
(22) बारआवर हवाओं को हम ही भेजते हैं, फिर आसमान से पानी बरसाते हैं, और उस पानी से तुम्हें सैराब करते हैं। इस दौलत के ख़ज़ानेदार तुम नहीं हो।
وَإِنَّا لَنَحۡنُ نُحۡيِۦ وَنُمِيتُ وَنَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثُونَ ۝ 22
(23) ज़िन्दगी और मौत हम देते हैं, और हम ही सबके वारिस होनेवाले हैं।9
9. यानी तुम्हारे बाद हम ही बाक़ी रहनेवाले हैं। तुम्हें जो कुछ भी मिला हुआ है मह्ज़ आरज़ी इस्तेमाल के लिए मिला हुआ है। आख़िरकार हमारी दी हुई हर चीज़ को यूँ ही छोड़कर तुम ख़ाली हाथ रुख़सत हो जाओगे और ये सब चीज़ें जूँ की तूँ हमारे ख़ज़ाने में रह जाएँगी।
إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡوَقۡتِ ٱلۡمَعۡلُومِ ۝ 23
(38) उस दिन तक जिसका वक़्त हमें मालूम है।”
وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَقۡدِمِينَ مِنكُمۡ وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَـٔۡخِرِينَ ۝ 24
(24) पहले जो लोग तुममें से हो गुज़रे हैं उनको भी हमने देख रखा है, और बाद के आनेवाले भी हमारी निगाह में हैं।
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأُزَيِّنَنَّ لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَأُغۡوِيَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 25
(39) वह बोला, “मेरे रब! जैसा तूने मुझे बहकाया उसी तरह अब मैं ज़मीन में उनके लिए दिलफ़रेबियाँ पैदा करके उन सबको बहका दूँगा,
وَإِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَحۡشُرُهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 26
(25) यक़ीनन तुम्हारा रब उन सबको इकट्ठा करेगा, वह हकीम भी है और अलीम भी।
إِلَّا عِبَادَكَ مِنۡهُمُ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 27
(40) सिवाय तेरे उन बन्दों के जिन्हें तूने उनमें से ख़ालिस कर लिया हो।”
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 28
(26) हमने इनसान को सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से बनाया।10
10. यहाँ क़ुरआन इस अम्र की साफ़ तसरीह करता है कि इनसान हैवानी मनाज़िल से तरक़्क़ी करता हुआ बशरियत के हुदूद में नहीं आया है, जैसा कि नए दौर के डारविनियत से मुतास्सिर मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि उसकी तख़लीक़ की इबतिदा बराहे-रास्त अरज़ी माद्दों से हुई है जिनकी कैफ़ियत को अल्लाह तआला ने “सलसालिम मिन ह-म-इम मसनून” के अलफ़ाज़ में बयान फ़रमाया है। ये अलफाज़ साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि ख़मीर उठी हुई मिट्टी का एक पुतला बनाया गया था जो बनने के बाद ख़ुश्क हुआ फिर उसके अन्दर रूह फूँकी गई।
قَالَ هَٰذَا صِرَٰطٌ عَلَيَّ مُسۡتَقِيمٌ ۝ 29
(41) फ़रमाया, “यह रास्ता है जो सीधा मुझ तक पहुँचता है।12
12. 'हाज़ा सिरातुन अलै-य मुस्तक़ीम' के दो मानी हो सकते हैं। एक मानी वे हैं जो हमने तर्जमे में बयान किए हैं और दूसरे मानी ये हैं कि यह बात दुरुस्त है मैं भी इसका पाबन्द रहूँगा।
وَٱلۡجَآنَّ خَلَقۡنَٰهُ مِن قَبۡلُ مِن نَّارِ ٱلسَّمُومِ ۝ 30
(27) और उससे पहले जिन्नों को हम आग की लपट से पैदा कर चुके थे।11
11. 'समूम' गर्म हवा को कहते हैं, और नार को समूम की तरफ़ निस्बत देने की सूरत में उसके मानी आग के बजाय तेज़ हरारत के हो जाते हैं। इससे उन मक़ामात की तशरीह हो जाती है जहाँ क़ुरआन मजीद में यह फ़रमाया गया है कि जिन्न आग से पैदा किए गए हैं।
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٌ إِلَّا مَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 31
(42) बेशक जो मेरे हक़ीक़ी बन्दे हैं उनपर तेरा बस न चलेगा। तेरा बस तो सिर्फ़ उन बहके हुए लोगों ही पर चलेगा जो तेरी पैरवी करें,13
13. इस फ़िक़रे का दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि मेरे बन्दों (यानी आम इनसानों) पर तुझे कोई इक़तिदार हासिल न होगा कि तू उन्हें ज़बरदस्ती नाफ़रमान बना दें, अलबत्ता जो ख़ुद ही बहके हुए हों और आप ही तेरी पैरवी करना चाहे उन्हें तेरी राह पर जाने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उन्हें हम ज़बरदस्ती उससे बाज़ रखने की कोशिश न करेंगे।
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي خَٰلِقُۢ بَشَرٗا مِّن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 32
(28) फिर याद करो उस मौक़े को जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि “मैं सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से एक बशर पैदा कर रहा हूँ।
وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوۡعِدُهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 33
(43) और उन सबके लिए जहन्नम की वईद है।”
فَإِذَا سَوَّيۡتُهُۥ وَنَفَخۡتُ فِيهِ مِن رُّوحِي فَقَعُواْ لَهُۥ سَٰجِدِينَ ۝ 34
(29) जब मैं उसे पूरा बना चुकूँ और उसमें अपनी रूह से कुछ फूँक दूँ तो तुम सब उसके आगे सजदे में गिर जाना।”
لَهَا سَبۡعَةُ أَبۡوَٰبٖ لِّكُلِّ بَابٖ مِّنۡهُمۡ جُزۡءٞ مَّقۡسُومٌ ۝ 35
(44) यह जहन्नम (जिसकी वईद पैरवाने-इबलीस के लिए की गई है) इसके सात दरवाज़े हैं, हर दरवाज़े के लिए उनमें से एक हिस्सा मख़सूस कर दिया गया है।14
14. जहन्नम के ये दरवाज़े ग़ालिबन उन गुमराहियों और मआसियतों के लिहाज़ से होंगे जिनपर चलकर आदमी अपने लिए दोज़ख़ की राह खोलता है। मसलन कोई दहरियत के रास्ते से दोज़ख़ की तरफ़ जाता है, कोई शिर्क के रास्ते से, कोई निफ़ाक़ के रास्ते से, कोई नफ़्सपरस्ती और फ़िस्क़ व फ़ुजूर के रास्ते से, कोई ज़ुल्म व सितम और ख़ल्क़आज़ारी के रास्ते से, कोई तबलीग़े-ज़लालत और इक़ामते-कुफ़्र के रास्ते से और कोई इशाअते-फ़ुहशा व मुनकर के रास्ते से। जिस शख़्स का जो वस्फ ज़्यादा नुमायाँ होगा उसी के लिहाज़ से जहन्नम की तरफ़ जाने के लिए उसका रास्ता मुतअय्यन होगा।
فَسَجَدَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ كُلُّهُمۡ أَجۡمَعُونَ ۝ 36
(30) चुनाँचे तमाम फ़रिश्तों ने सजदा किया,
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 37
(45) बख़िलाफ़ इसके मुत्तक़ी लोग बाग़ों और चश्मों में होंगे
إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰٓ أَن يَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 38
(31) सिवाय इबलीस के कि उसने सजदा करनेवालों का साथ देने से इनकार कर दिया।
ٱدۡخُلُوهَا بِسَلَٰمٍ ءَامِنِينَ ۝ 39
(46) और उनसे कहा जाएगा कि दाख़िल हो जाओ उनमें सलामती के साथ बेख़ौफ़ व ख़तर।
قَالَ يَٰٓإِبۡلِيسُ مَا لَكَ أَلَّا تَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 40
(32) रब ने पूछा, “ऐ इबलीस! तुझे क्या हुआ कि तूने सजदा करनेवालों का साथ न दिया?”
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلٍّ إِخۡوَٰنًا عَلَىٰ سُرُرٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 41
(47) उसके दिलों में जो थोड़ी बहुत खोट-कपट होगी उसे हम निकाल देंगे, वे आपस में भाई-भाई बनकर आमने-सामने तख़्तों पर बैठेंगे।
قَالَ لَمۡ أَكُن لِّأَسۡجُدَ لِبَشَرٍ خَلَقۡتَهُۥ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 42
(33) उसने कहा, “मेरा यह काम नहीं है कि मैं उस बशर को सजदा करूँ जिसे तूने सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से पैदा किया है।”
قَالَ فَٱخۡرُجۡ مِنۡهَا فَإِنَّكَ رَجِيمٞ ۝ 43
(34) रब ने फ़रमाया, “अच्छा तो निकल जा यहाँ से क्योंकि तू मरदूद है,
لَا يَمَسُّهُمۡ فِيهَا نَصَبٞ وَمَا هُم مِّنۡهَا بِمُخۡرَجِينَ ۝ 44
(48) उन्हें न वहाँ किसी मशक़्क़त से पाला पड़ेगा और न वे वहाँ से निकाले जाएँगे।
وَإِنَّ عَلَيۡكَ ٱللَّعۡنَةَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 45
(35) और अब रोज़े-जज़ा तक तुझपर लानत है।”
۞نَبِّئۡ عِبَادِيٓ أَنِّيٓ أَنَا ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 46
(49) (ऐ नबी!) मेरे बन्दों को ख़बर दे दो कि मैं बहुत दरगुज़र करनेवाला और रहीम हूँ।
قَالَ رَبِّ فَأَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 47
(36) उसने अर्ज़ किया, “मेरे रब! यह बात है तो फिर मुझे उस रोज़ तक के लिए मुहलत दे जबकि सब इनसान दोबारा उठाए जाएँगे।”
وَأَنَّ عَذَابِي هُوَ ٱلۡعَذَابُ ٱلۡأَلِيمُ ۝ 48
(50) मगर इसके साथ मेरा अज़ाब भी निहायत दर्दनाक अज़ाब है।
قَالَ فَإِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 49
(37) फ़रमाया, “अच्छा, तुझे मुहलत है
وَنَبِّئۡهُمۡ عَن ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 50
(51) और इन्हें ज़रा इबराहीम के मेहमानों का क़िस्सा सुनाओ।
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗا قَالَ إِنَّا مِنكُمۡ وَجِلُونَ ۝ 51
(52) जब वे आए उसके हाँ और कहा, “सलाम हो तुमपर!” तो उसने कहा, “हमें तुमसे डर लगता है।”
قَالُواْ لَا تَوۡجَلۡ إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 52
(53) उन्होंने जवाब दिया, “डरो नहीं, हम तुम्हें एक बड़े सियाने लड़के की बशारत देते हैं।”15
15. यानी हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की बशारत, जैसा कि सूरा-11, हूद में बसराहत बयान हुआ है।
قَالَ أَبَشَّرۡتُمُونِي عَلَىٰٓ أَن مَّسَّنِيَ ٱلۡكِبَرُ فَبِمَ تُبَشِّرُونَ ۝ 53
(54) इबराहीम ने कहा, “क्या तुम इस बुढ़ापे में मझे औलाद की बशारत देते हो? ज़रा सोचो तो सही कि यह कैसी बशारत तुम मुझे दे रहे हो!”
قَالُواْ بَشَّرۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡقَٰنِطِينَ ۝ 54
(55) उन्होंने जवाब दिया, “हम तुम्हें बरहक़ बशारत दे रहे हैं, तुम मायूस न हो।”
قَالَ وَمَن يَقۡنَطُ مِن رَّحۡمَةِ رَبِّهِۦٓ إِلَّا ٱلضَّآلُّونَ ۝ 55
(56) इबराहीम ने कहा, “अपने रब की रहमत से मायूस तो गुमराह लोग ही हुआ करते हैं।”
قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 56
(57) फिर इबराहीम ने पूछा, “फ़िरिस्तादगाने-इलाही! वह मुहिम क्या है जिसपर आप हज़रात तशरीफ़ लाए। हैं?”
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ نَنۡهَكَ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 57
(70) वे बोले, “क्या हम बारहा तुम्हें मना नहीं कर चुके हैं कि दुनिया भर के ठेकेदार न बनो?”
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 58
(58) वे बोले, “हम एक मुजरिम क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं।
قَالَ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِيٓ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 59
(71) लूत ने (आजिज़ होकर) कहा, “अगर तुम्हें कुछ करना ही है तो ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं!”16
16. तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-11 हूद, हवाशी 26-27।
إِلَّآ ءَالَ لُوطٍ إِنَّا لَمُنَجُّوهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 60
(59) सिर्फ़ लूत के घरवाले मुस्तसना हैं, उन सबको हम बचा लेंगे,
لَعَمۡرُكَ إِنَّهُمۡ لَفِي سَكۡرَتِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 61
(72) तेरी जान की क़सम! (ऐ नबी!) उस वक़्त उनपर एक नशा-सा चढ़ा हुआ था जिसमें वे आपे से बाहर हुए जाते थे।
إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ قَدَّرۡنَآ إِنَّهَا لَمِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 62
(60) सिवाय उसकी बीवी के जिसके लिए (अल्लाह फ़रमाता है कि) हमने मुक़द्दर कर दिया है कि वह पीछे रह जानेवालों में शामिल रहेगी।”
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُشۡرِقِينَ ۝ 63
(73) आख़िरकार पौ फटते ही उनको एक ज़बरदस्त धमाके ने आ लिया
فَلَمَّا جَآءَ ءَالَ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 64
(61) फिर जब ये फ़िरिस्तादे लूत के यहाँ पहुँचे
فَجَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٍ ۝ 65
(74) और हमने उस बस्ती को तलपट करके रख दिया और उनपर पकी हुई मिट्टी के पत्थरों की बारिश बरसा दी।
قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 66
(62) तो उसने कहा, “आप लोग अजनबी मालूम होते हैं।”
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡمُتَوَسِّمِينَ ۝ 67
(75) इस वाक़िए में बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो साहिबे-फ़िरासत हैं।
وَإِنَّهَا لَبِسَبِيلٖ مُّقِيمٍ ۝ 68
(76) और वह इलाक़ा (जहाँ यह वाक़िआ पेश आया था) गुज़रगाहे-आम पर वाक़े है,17
17. यानी हिजाज़ से शाम (सीरिया) और इराक़ से मिस्र जाते हुए वह तबाहशुदा इलाक़ा रास्ते में पड़ता है और उमूमन क़ाफ़िलों के लोग तबाही के उन आसार को देखते हैं जो उस पूरे इलाक़े में आज तक नुमायाँ हैं।
قَالُواْ بَلۡ جِئۡنَٰكَ بِمَا كَانُواْ فِيهِ يَمۡتَرُونَ ۝ 69
(63) उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि हम वही चीज़ लेकर आए हैं जिसके आने में ये लोग शक कर रहे थे।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 70
(77) इसमें सामाने-इबरत है उन लोगों के लिए जो साहिबे-ईमान हैं।
وَأَتَيۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 71
(64) हम तुमसे सच कहते हैं कि हम हक़ के साथ तुम्हारे पास आए हैं।
وَإِن كَانَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَيۡكَةِ لَظَٰلِمِينَ ۝ 72
(78) और ऐकावाले ज़ालिम थे,18
18. यानी हज़रत शुऐब (अलैहि०) की क़ौम के लोग। ऐका तबूक का क़दीम नाम था।
فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَٱتَّبِعۡ أَدۡبَٰرَهُمۡ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٞ وَٱمۡضُواْ حَيۡثُ تُؤۡمَرُونَ ۝ 73
(65) लिहाज़ा अब तुम कुछ रात रहे अपने घरवालों को लेकर निकल जाओ और ख़ुद उनके पीछ-पीछे चलो। तुम में से कोई पलटकर न देखे।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ وَإِنَّهُمَا لَبِإِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 74
(79) तो देख लो कि हमने भी उनसे इन्तिक़ाम लिया और इन दोनों क़ौमों के उजड़े हुए इलाक़े खुले रास्ते पर वाक़े हैं।19
19. मदयन और असहाबुल-ऐका का इलाक़ा भी हिजाज़ से फ़िलस्तीन व शाम जाते हुए रास्ते में पड़ता है।
وَقَضَيۡنَآ إِلَيۡهِ ذَٰلِكَ ٱلۡأَمۡرَ أَنَّ دَابِرَ هَٰٓؤُلَآءِ مَقۡطُوعٞ مُّصۡبِحِينَ ۝ 75
(66) बस सीधे चले जाओ जिधर जाने का तुम्हे हुक्म दिया जा रहा है।” और उसे हमने अपना यह फ़ैसला पहुँचा दिया कि सुबह होते-होते उन लोगों की जड़ काट दी जाएगी।
وَلَقَدۡ كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡحِجۡرِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 76
(80) हिज्र के लोग भी रसूलों की तकज़ीब कर चुके हैं।
وَجَآءَ أَهۡلُ ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 77
(67) इतने में शहर के लोग ख़ुशी के मारे बेताब होकर लूत के घर चढ़ आए।
وَءَاتَيۡنَٰهُمۡ ءَايَٰتِنَا فَكَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 78
(81) हमने अपनी आयात उनके पास भेजीं, अपनी निशानियाँ उनको दिखाईं, मगर वे सबको नज़रअंदाज़ ही करते रहे।
قَالَ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ ضَيۡفِي فَلَا تَفۡضَحُونِ ۝ 79
(68) लूत ने कहा, “भाइयो! ये मेरे मेहमान हैं, मेरी फ़ज़ीहत न करो,
وَكَانُواْ يَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتًا ءَامِنِينَ ۝ 80
(82) वे पहाड़ तराश-तराशकर मकान बनाते थे और अपनी जगह बिलकुल बेख़ौफ़ और मुत्मइन थे।
وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ ۝ 81
(69) अल्लाह से डरो, मुझे रुसवा न करो।”
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُصۡبِحِينَ ۝ 82
(83) आख़िरकार एक ज़बरदस्त धमाके ने उनको सुबह होते आ लिया
فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 83
(84) और उनकी कमाई उनके कुछ काम न आई।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلسَّاعَةَ لَأٓتِيَةٞۖ فَٱصۡفَحِ ٱلصَّفۡحَ ٱلۡجَمِيلَ ۝ 84
(85) हमने ज़मीन और आसमानों को और उनकी सब मौजूदात को हक़ के सिवा किसी और बुनियाद पर ख़ल्क़ नहीं किया, और फ़ैसले की घड़ी यक़ीनन आनेवाली है, पस (ऐ नबी!) तुम (इन लोगों की बेहूदगियों पर) शरीफ़ाना दरगुज़र से काम लो।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 85
(86) यक़ीनन तुम्हारा रब सबका ख़ालिक़ है और सब कुछ जानता है।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ سَبۡعٗا مِّنَ ٱلۡمَثَانِي وَٱلۡقُرۡءَانَ ٱلۡعَظِيمَ ۝ 86
(87) हमने तुमको सात ऐसी आयात दे रखी हैं जो बार-बार दोहराई जाने के लायक़ हैं,20 और तुम्हें क़ुरआने-अज़ीम अता किया है।
20. यानी सूरा-फ़ातिहा की आयात। सलफ़ की अकसरियत इसपर मुत्तफ़िक़ है, बल्कि इमाम बुख़ारी ने दो ‘मरफ़ूअ' रिवायतें भी इस अम्र के सुबूत में पेश की हैं कि ख़ुद नबी (सल्ल०) ने ‘सबअम मिनल मसानी' से मुराद सूरा-1 फ़ातिहा बताई है।
لَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 87
(88) तुम उस मताए-दुनिया की तरफ़ आँख उठाकर न देखो जो हमने उनमें से मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लोगों को दे रखी है, और न इनके हाल पर अपना दिल कुढ़ाओ। इन्हें छोड़कर ईमान लानेवालों की तरफ़ झुको
وَقُلۡ إِنِّيٓ أَنَا ٱلنَّذِيرُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 88
(89) और (न माननेवालों से) कह दो कि “मैं तो साफ़-साफ़ तंबीह करनेवाला हूँ।”
كَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَى ٱلۡمُقۡتَسِمِينَ ۝ 89
(90) यह उसी तरह की तंबीह है जैसी हमने उन तफ़रिक़ा-परदाज़ों की तरफ़ भेजी थी
ٱلَّذِينَ جَعَلُواْ ٱلۡقُرۡءَانَ عِضِينَ ۝ 90
(91) जिन्होंने अपने क़ुरआन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है।21
21. यानी उस किताब को जो क़ुरआन की तरह उन्हें दी गई थी टुकड़े-टुकड़े कर डाला, उसके किसी हिस्से की पैरवी की और किसी हिस्से को पसे-पुश्त डाल दिया।
فَوَرَبِّكَ لَنَسۡـَٔلَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 91
(92) तो क़सम है तेरे रब की! हम ज़रूर इन सबसे पूछेंगे
عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 92
(93) कि तुम क्या करते रहे हो।
فَٱصۡدَعۡ بِمَا تُؤۡمَرُ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 93
(94) पस (ऐ नबी!) जिस चीज़ का तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है उसे हाँके-पुकारे कह दो और शिर्क करनेवालों की ज़रा परवाह न करो।
إِنَّا كَفَيۡنَٰكَ ٱلۡمُسۡتَهۡزِءِينَ ۝ 94
(95) तुम्हारी तरफ़ से हम इन मज़ाक़ उड़ानेवालों की ख़बर लेने के लिए काफ़ी हैं
ٱلَّذِينَ يَجۡعَلُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 95
(96) जो अल्लाह के साथ किसी और को भी ख़ुदा क़रार देते हैं। अन-क़रीब इन्हें मालूम हो जाएगा।
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّكَ يَضِيقُ صَدۡرُكَ بِمَا يَقُولُونَ ۝ 96
(97) हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग तुमपर बनाते हैं उनसे तुम्हारे दिल को सख़्त कोफ़्त होती है।
فَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ وَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 97
(98) (इसका इलाज यह है कि) अपने रब की हम्द के साथ उसकी तसबीह करो, उसकी जनाब में सजदा बजा लाओ,
وَٱعۡبُدۡ رَبَّكَ حَتَّىٰ يَأۡتِيَكَ ٱلۡيَقِينُ ۝ 98
(99) और उस आख़िरी घड़ी तक अपने रब की बन्दगी करते रहो जिसका आना यक़ीनी है।