- अन-नहल
(मक्का में उतरी-आयतें 128)
परिचय
नाम
आयत 68 के वाक्य ‘व औहा रब्बु-क इलन्नह्ल' से लिया गया है। नह्ल शब्द का अर्थ है- मधुमक्खी । यह भी केवल संकेत है, न कि वार्ता के विषय का शीर्षक ।
उतरने का समय
बहुत-सी अदरूनी गवाहियों से इसके उतरने के समय पर रौशनी पड़ती है। जैसे आयत 41 के वाक्य 'वल्लज़ी-न हाजरू फ़िल्लाहि मिम-बादि मा ज़ुलिमू’ (जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए) से स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय हब्शा की हिजरत हो चुकी थी। आयत 106 'मन क-फ़-र बिल्लाहि मिम-बादि ईमानिही' (जो आदमी ईमान लाने के बाद इनकार करे) से मालूम होता है कि उस समय अन्याय उग्र रूप धारण किए हुए था और यह प्रश्न पैदा हो गया था कि अगर कोई व्यक्ति असह्य पीड़ा से विवश होकर कुफ़्र (अधर्म) के शब्द कह बैठे तो उसका क्या हुक्म है।
आयत 112-114 का स्पष्ट संकेत इस ओर है कि मक्का में जो ज़बरदस्त सूखा पड़ गया था, वह इस सूरा के उतरते समय समाप्त हो चुका था। -इस सूरा में एक आयत 115 ऐसी है जिसका हवाला सूरा-6 अनआम की आयत 119 में दिया गया है और दूसरी आयत (118) ऐसी है जिसमें सूरा अनआम की आयत 146 का हवाला दिया गया है। यह इस बात की दलील है कि इन दोनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब है।
इन गवाहियों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय भी मक्का का अन्तिम काल ही है।
शीर्षक और केन्द्रीय विषय
शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन, तौहीद (एकेश्वरवाद) का प्रमाण, पैग़म्बर की दावत को न मानने के बुरे नतीजों पर चेतावनी और समझाना-बुझाना और सत्य के विरोध और उसके लिए रुकावटें खड़ी करने पर डाँट-फटकार।
वार्ताएँ
सूरा का आरंभ बिना किसी भूमिका के एकाएक एक चेतावनी भरे वाक्य से होता है। मक्का के कुफ़्फ़ार (अधर्मी) बार-बार कहते थे कि 'जब हम तुम्हें झुठला चुके है और खुल्लम-खुल्ला तुम्हारा विरोध कर रहे है तो आख़िर वह अल्लाह का अज़ाब आ क्यों नहीं जाता जिसकी तुम हमें धमकियाँ देते हो।' इसपर कहा गया कि मूर्खो! अल्लाह का अज़ाब तो तुम्हारे सिर पर तुला खड़ा है। अब इसके टूट पड़ने के लिए जल्दी न मचाओ, बल्कि जो तनिक भर मोहलत बाक़ी है उससे लाभ उठाकर बात समझने की कोशिश करो। इसके बाद तुरन्त ही समझाने-बुझाने के लिए व्याख्यान आरंभ हो जाता है और निम्नलिखित विषय बार-बार एक के बाद एक सामने आने शुरू होते हैं।
- दिल लगती दलीलों और सृष्टि और निज की निशानियों की खुली-खुली गवाहियों से समझाया जाता है कि शिर्क असत्य है और तौहीद ही सत्य है
- इंकारियों की आपत्ति, सन्देह, दुराग्रह और हीले-बहानों का एक-एक करके उत्तर दिया जाता है।
- असत्य पर आग्रह और सत्य के मुक़ाबले में घमंड व्यक्त करने के बुरे नतीजों से डराया जाता है।
- उन नैतिक और व्यावहारिक परिवर्तनों को संक्षेप में, मगर मन में बैठ जानेवाली शैली में, बयान किया जाता है जो मुहम्मद (सल्ल०) का लाया हुआ दीन मानव-जीवन में लाना चाहता है।
- नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की ढाढ़स बँधाई जाती है और साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि कुफ़्फ़ार की रुकावटों और अत्याचारों के मुक़ाबले में उनका रवैया क्या होना चाहिए।
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أَتَىٰٓ أَمۡرُ ٱللَّهِ فَلَا تَسۡتَعۡجِلُوهُۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ
(1) आ गया अल्लाह का फ़ैसला,1 अब इसके लिए जल्दी न मचाओ। पाक है वह और बाला व बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।
1. यानी उसके ज़ुहूर और निफ़ाज़ का वक़्त क़रीब आ लगा है। ग़ालिबन उस फ़ैसले से मुराद नबी (सल्ल०) की मक्का से हिजरत है जिसका हुक्म थोड़ी मुद्दत बाद ही दे दिया गया। क़ुरआन के मुताले से मालूम होता है कि नबी जिन लोगों के दरमियान मबऊस होता है वे जब इनकार की आख़िरी हद पर पहुँच जाते हैं तो नबी को हिजरत का हुक्म दे दिया जाता है और यही हुक्म उनकी क़िस्मत का फ़ैसला कर देता है। इसके बाद या तो उनपर तबाहकुन अज़ाब आ जाता है, या फिर नबी और उसके मुत्तबेईन के हाथों उनकी जड़ काटकर रख दी जाती है।
يُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ بِٱلرُّوحِ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ أَنۡ أَنذِرُوٓاْ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱتَّقُونِ 1
(2) वह इस रूह2 को अपने जिस बन्दे पर चाहता है अपने हुक्म से मलाइका ज़रिए नाज़िल फ़रमा देता है (इस हिदायत के साथ कि लोगों को) “आगाह कर दो, मेरे सिवा कोई तुम्हारा माबूद नहीं है, लिहाज़ा तुम मुझी से डरो।”
2. रूह से मुराद है रूहे-नुबूवत और वह्य जिससे भरकर नबी काम और कलाम करता है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ 3
(4) उसने इनसान को एक ज़रा-सी बूँद से पैदा किया और देखते-देख सरीहन वह एक झगड़ालू हस्ती बन गया।3
3. इसके दो मानी हो सकते हैं और ग़ालिबन दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि अल्लाह ने नुत्फ़े की हक़ीर-सी बूँद से वह इनसान पैदा किया जो बहस व इस्तिदलाल के क़ाबलियत रखता है और अपने मुद्दआ के लिए हुज्जतें पेश कर सकता है। दूसरे यह कि जिस इनसान को ख़ुदा ने नुत्फ़े जैसी हक़ीर चीज़ से पैदा किया है, उसकी ख़ुदी का तुग़यान तो देखो कि वह ख़ुद ख़ुदा ही के मुक़ाबले में झगड़ने पर उतर आया है।
وَٱلۡخَيۡلَ وَٱلۡبِغَالَ وَٱلۡحَمِيرَ لِتَرۡكَبُوهَا وَزِينَةٗۚ وَيَخۡلُقُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ 7
(8) उसने घोड़े और ख़च्चर और गधे पैदा किए ताकि तुम उनपर सवार हो और वे तुम्हारी ज़िन्दगी की रौनक़ बनें। वह और बहुत-सी चीज़ें (तुम्हारे फ़ायदे के लिए) पैदा करता है जिनका तुम्हें इल्म तक नहीं है।4
4. यानी बकसरत ऐसी चीज़ है जो इनसान की भलाई के लिए काम कर रही है और इनसान को ख़बर तक नहीं है कि कहाँ-कहाँ कितने ख़ुद्दाम उसकी ख़िदमत में लगे हुए हैं और क्या ख़िदमत अंजाम दे रहे हैं।
أَمۡوَٰتٌ غَيۡرُ أَحۡيَآءٖۖ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ 12
(21) मुर्दा हैं, न कि ज़िन्दा। और उनको कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब (दोबारा ज़िन्दा करके) उठाया जाएगा।6
6. ये अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ ख़ास तौर पर जिन बनावटी माबूदों की तरदीद की जा रही है वे वफ़ात-याफ़्ता इनसान हैं, क्योंकि फ़रिश्ते तो ज़िन्दा हैं मुर्दा नहीं हैं और लकड़ी-पत्थर की मूर्तियों के मामले में दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
وَهُوَ ٱلَّذِي سَخَّرَ ٱلۡبَحۡرَ لِتَأۡكُلُواْ مِنۡهُ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُواْ مِنۡهُ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ مَوَاخِرَ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 17
(14) वही है जिसने तुम्हारे लिए समुन्दर को मुसख़्ख़र कर रखा है ताकि तुम उससे तर व ताज़ा गोश्त लेकर खाओ और उससे ज़ीनत की वे चीज़ें निकालो जिन्हें तुम पहना करते हो। तुम देखते हो कि कश्ती समुन्दर का सीना चीरती हुई चलती है। ये सब कुछ इसलिए है कि तुम अपने रब का फ़ज़्ल तलाश करो5 और उसके शुक्रगुज़ार बनो।
5. यानी हलाल तरीक़ों से अपना रिज़क़ हासिल करने की कोशिश करो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُم مَّاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡ قَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ 19
(24) और जब कोई उनसे पूछता है कि तुम्हारे रब ने यह क्या चीज़ नाज़िल की है7, तो कहते हैं, “अजी वे तो अगले वक़्तों की फ़रसूदा कहानियाँ हैं।”
7. अरब में जब नबी (सल्ल०) का चर्चा होने लगा तो बाहर के लोग मक्कावालों से आप (सल्ल०) के और क़ुरआन के बारे में सवाल करते थे।
ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُخۡزِيهِمۡ وَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تُشَٰٓقُّونَ فِيهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ إِنَّ ٱلۡخِزۡيَ ٱلۡيَوۡمَ وَٱلسُّوٓءَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ 25
(27) फिर क़ियामत के रोज़ अल्लाह उन्हें ज़लील व ख़ार करेगा। और उनसे कहेगा, “बताओ अब कहाँ है मेरे वे शरीक जिनके लिए तुम (अहले-हक़ से) झगड़े किया करते थे? — जिन लोगों को दुनिया में इल्म हासिल था वे कहेंगे, “आज रुसवाई और बदबख़्ती है काफ़िरों के लिए।”
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡۖ فَأَلۡقَوُاْ ٱلسَّلَمَ مَا كُنَّا نَعۡمَلُ مِن سُوٓءِۭۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ 27
(28)— हाँ, उन्हीं काफ़िरों के लिए जो अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करते हुए जब मलाइका के हाथों गिरफ़्तार होते हैं तो (सरकशी छोड़कर) फ़ौरन डगें डाल देते हैं और कहते हैं, “हम तो कोई क़ुसूर नहीं कर रहे थे।” मलाइका जवाब देते हैं, “कर कैसे नहीं रहे थे! अल्लाह तुम्हारे करतूतों से ख़ूब वाक़िफ़ है।
وَلَقَدۡ بَعَثۡنَا فِي كُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱجۡتَنِبُواْ ٱلطَّٰغُوتَۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ هَدَى ٱللَّهُ وَمِنۡهُم مَّنۡ حَقَّتۡ عَلَيۡهِ ٱلضَّلَٰلَةُۚ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ 28
(36) हमने हर उम्मत में एक रसूल भेज दिया, और उसका ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत की बन्दगी से बचो।” इसके बाद उनमें से किसी को अल्लाह ने हिदायत बख़्शी और किसी पर ज़लालत मुसल्लत हो गई। फिर ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है।
۞وَقِيلَ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ مَاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡۚ قَالُواْ خَيۡرٗاۗ لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۚ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞۚ وَلَنِعۡمَ دَارُ ٱلۡمُتَّقِينَ 32
(30) दूसरी तरफ़ जब ख़ुदा-तरस लोगों से पूछा जाता है कि यह क्या चीज़ है जो तुम्हारे रब की तरफ़ से नाज़िल हुई है, तो वे जवाब देते हैं कि “बेहतरीन चीज़ उतरी है।” इस तरह के नेकूकार लोगों के लिए इस दुनिया में भी भलाई है और आख़िरत का घर तो ज़रूर ही उनके हक़ में बेहतर है। बड़ा अच्छा घर है मुत्तक़ियों का,
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ لَهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَۚ كَذَٰلِكَ يَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلۡمُتَّقِينَ 34
(31) दायमी क़ियाम की जन्नतें, जिनमें वे दाख़िल होंगे, नीचे नहरें बह रही होंगी, और सब कुछ वहाँ ऐन उनकी ख़ाहिश के मुताबिक़ होगा! यह जज़ा देता है अल्लाह मुत्तक़ियों को।
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْ لَنُبَوِّئَنَّهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ 37
(41) जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह की ख़ातिर हिजरत कर गए हैं उनको हम दुनिया ही में अच्छा ठिकाना देंगे और आख़िरत का अज्र तो बहुत बडा है।8 काश, जान लें
8. यह इशारा है उन मुहाजिरीन की तरफ़ जो कुफ़्फ़ार के नाक़ाबिले-बरदाश्त मज़ालिम से तंग आकर हबश की तरफ़ हिजरत कर गए थे।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ أَمۡرُ رَبِّكَۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ 38
(33) (ऐ नबी!) अब जो ये लोग इन्तिज़ार कर रहे हैं तो इसके सिवा अब और क्या बाक़ी रह गया है कि मलाइका ही आ पहुँचें, या तेरे रब का फ़ैसला सादिर हो जाए? इसी तरह की ढिठाई इनसे पहले बहुत-से लोग कर चुके हैं। फिर जो कुछ उनके साथ हुआ वह उनपर अल्लाह का ज़ुल्म न था, बल्कि उनका अपना ज़ुल्म था जो उन्होंने ख़ुद अपने ऊपर किया।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ 43
(43) (ऐ नबी!) हमने तुमसे पहले भी जब कभी रसूल भेजे हैं आदमी ही भेजे है जिनकी तरफ़ हम अपने पैग़ामात वह्य किया करते थे, अहले-ज़िक्र से पूछलो9 अगर तुम लोग ख़ुद नहीं जानते।
9. यानी उन लोगों से पूछो जो आसमानी किताबों का इल्म रखते हैं कि अम्बिया कुछ इनसान ही होते थे या कुछ और।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا عَبَدۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖ نَّحۡنُ وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ فَهَلۡ عَلَى ٱلرُّسُلِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ 44
(35) ये मुशरिकीन कहते हैं, “अगर अल्लाह चाहता तो न हम और न हमारे बाप-दादा उसके सिवा किसी और की इबादत करते और न उसके हुक्म के बग़ैर किसी चीज़ को हराम ठहराते।” ऐसे ही बहाने इनसे पहले के लोग बनाते रहे हैं। तो क्या रसूलों पर साफ़-साफ़ बात पहुँचा देने के सिवा और भी कोई ज़िम्मेदारी है?
بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِۗ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّكۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ 46
(44) पिछले रसूलों को भी हमने रौशन निशानियाँ और किताबें देकर भेजा था, और अब यह ज़िक्र तुमपर नाज़िल किया है ताकि तुम लोगों के सामने उस तालीम की तशरीह व तौज़ीह करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है,10 और ताकि लोग (ख़ुद भी) ग़ौर व फ़िक्र करें।
10. यानी रसूलुल्लाह (सल्ल०) पर किताब इसलिए नाज़िल की गई थी कि आप अपने क़ौल और अमल से उसकी तालीमात और उसके अहकाम की तशरीह व तौज़ीह करते रहें। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात साबित होती है कि हुज़ूर (सल्ल०) की सुन्नत क़ुरआन की मुस्तनद सरकारी तशरीह है।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ ٱلۡبَنَٰتِ سُبۡحَٰنَهُۥ وَلَهُم مَّا يَشۡتَهُونَ 49
(57) ये ख़ुदा के लिए बेटियाँ तजवीज़ करते हैं।14 सुब्हान-अल्लाह! और इनके लिए वह जो ये ख़ुद चाहें?15
14. मुशरिकीने-अरब के माबूदों में देवता कम थे, देवियाँ ज़्यादा थीं और उन देवियों के मुताल्लिक़ उनका अक़ीदा यह था कि ये ख़ुदा की बेटियाँ हैं। इसी तरह फ़रिश्तों को भी वे ख़ुदा की बेटियाँ क़रार देते थे।
15. यानी बेटे।
وَأَوۡحَىٰ رَبُّكَ إِلَى ٱلنَّحۡلِ أَنِ ٱتَّخِذِي مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا وَمِنَ ٱلشَّجَرِ وَمِمَّا يَعۡرِشُونَ 53
(68) और देखो, तुम्हारे रब ने शहद की मक्खी पर यह बात वह्य कर दी19 कि पहाड़ों में, और दरख़्तों में, और टट्टियों पर चढ़ाई हुई बेलों में, अपने छत्ते बना,
19. वह्य के लुग़वी मानी हैं ख़ुफ़िया और लतीफ़ इशारे के, जिसे इशारा करनेवाले और इशारा पानेवाले के सिवा और कोई महसूस न कर सके। इसी मुनासबत से यह लफ़्ज़ इलक़ा (दिल में बात डाल देने) और इलहाम (मख़फ़ी तालीम व तलक़ीन) के मानी में इस्तेमाल होता है।
يَتَوَٰرَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ مِن سُوٓءِ مَا بُشِّرَ بِهِۦٓۚ أَيُمۡسِكُهُۥ عَلَىٰ هُونٍ أَمۡ يَدُسُّهُۥ فِي ٱلتُّرَابِۗ أَلَا سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ 54
(59) लोगों से छिपता फिरता है कि इस बुरी ख़बर के बाद क्या किसी को मुँह दिखाए। सोचता है कि ज़िल्लत के साथ बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दबा दे? — देखो कैसे बुरे हुक्म हैं जो ये ख़ुदा के बारे में लगाते हैं!16
16. यानी अपने लिए जिस बेटी को ये लोग इस क़दर नंग व आर समझते हैं, उसी को ख़ुदा के लिए बिला ताम्मुल तजवीज़ कर देते हैं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ يَتَفَيَّؤُاْ ظِلَٰلُهُۥ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَٱلشَّمَآئِلِ سُجَّدٗا لِّلَّهِ وَهُمۡ دَٰخِرُونَ 55
(48) और क्या ये लोग अल्लाह की पैदा की हुई किसी चीज़ को भी नहीं देखते कि उसका साया किस तरह अल्लाह के हुज़ूर सजदा करते हुए दाएँ और बाएँ गिरता है?11 सब-के-सब इस तरह इज़हारे-इज्ज़ कर रहे हैं।
11. यानी तमाम जिस्मानी अशया के साए इस बात की अलामत हैं कि पहाड़ हो या दरख़्त, जानवर हों या इनसान, सब-के-सब एक हमागीर क़ानून की गिरिफ़्त में जकड़े हुए हैं, सबकी पेशानी पर बन्दगी का दाग़ लगा हुआ है, उलूहियत में किसी का कोई अदना हिस्सा भी नहीं है। साया पड़ना एक चीज़ के माद्दी होने की खुली अलामत है और माद्दी होना बन्दा और मख़लूक़ होने का खुला सुबूत।
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ ثُمَّ يَتَوَفَّىٰكُمۡۚ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡ لَا يَعۡلَمَ بَعۡدَ عِلۡمٖ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٞ قَدِيرٞ 60
(70) और देखो, अल्लाह ने तुमको पैदा किया, फिर वह तुमको मौत देता है, और तुममें से कोई बदतरीन उम्र को पहुँचा दिया जाता है ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने। हक़ यह है कि अल्लाह ही इल्म में भी कामिल है और क़ुदरत में भी।
۞وَقَالَ ٱللَّهُ لَا تَتَّخِذُوٓاْ إِلَٰهَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِۖ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ 63
(51) अल्लाह का फ़रमान है कि “दो ख़ुदा न बना लो,12 ख़ुदा तो बस एक ही है, लिहाज़ा तुम मुझी से डरो।”
12. दो ख़ुदाओं की नफ़ी में दो से ज़्यादा ख़ुदाओं की नफ़ी आप-से-आप शामिल है।
وَٱللَّهُ فَضَّلَ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلرِّزۡقِۚ فَمَا ٱلَّذِينَ فُضِّلُواْ بِرَآدِّي رِزۡقِهِمۡ عَلَىٰ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَهُمۡ فِيهِ سَوَآءٌۚ أَفَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ 64
(71) और देखो, अल्लाह ने तुममें से बाज़ को बाज़ पर रिज़्क़ में फ़ज़ीलत अता की है। फिर जिन लोगों को यह फ़ज़ीलत दी गई है वे ऐसे नहीं हैं कि अपना रिज़्क़ अपने ग़ुलामों की तरफ़ फेर दिया करते हों ताकि दोनों इस रिज़्क़ में बराबर के हिस्सेदार बन जाएँ। तो क्या अल्लाह ही का एहसान मानने से इन लोगों को इनकार है?20
20. ज़माना-ए-हाल में कुछ लोगों ने इस आयत से यह मतलब निकाल लिया है कि जिन लोगों को अल्लाह ने रिज़्क़ में फ़ज़ीलत अता की हो उन्हें अपना रिज़्क़ अपने नौकरों और ग़ुलामों की तरफ़ ज़रूर लौटा देना चाहिए, अगर न लौटाएँगे तो अल्लाह तआला की नेमत के मुनकिर क़रार पाएँगे। हालाँकि ऊपर से तमाम तक़रीर शिर्क के इबताल और तौहीद के इसबात में होती चली आ रही है और आगे भी मुसलसल यही मज़मून चल रहा है, सियाक़ व सबाक़ को निगाह में रखकर देखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यहाँ इस्तिदलाल यह किया गया है कि तुम ख़ुद अपने माल में अपने ग़ुलामों और नौकरों को जब बराबर का दरजा नहीं देते तो आख़िर किस तरह यह बात सही समझते हो कि जो एहसानात अल्लाह ने तुमपर किए हैं उनके शुक्रिए में अल्लाह के साथ उसके बेइख़्तियार ग़ुलामों को भी शरीक कर लो और अपनी जगह यह समझ बैठो कि इख़्तियारात और हुक़ूक़ में अल्लाह के ये ग़ुलाम भी उसके साथ बराबर के हिस्सेदार हैं।
وَلَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلدِّينُ وَاصِبًاۚ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَتَّقُونَ 65
(52) उसी का है वह सब कुछ जो आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, और ख़ालिसन उसी का दीन (सारी कायनात में) चल रहा है।13 फिर क्या अल्लाह को छोड़कर तुम किसी और से तक़वा करोगे?
13. दूसरे अलफ़ाज़ में उसी की इताअत पर इस पूरे कारखाना-ए-हस्ती का निज़ाम क़ायम है।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُم بَنِينَ وَحَفَدَةٗ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَتِ ٱللَّهِ هُمۡ يَكۡفُرُونَ 67
(72) और वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए तुम्हारी हम-जिंस बीवियाँ बनाईं और उसी ने इन बीवियों से तुम्हें बेटे-पोते अता किए और अच्छी-अच्छी चीज़ें तुम्हें खाने को दीं। फिर क्या ये लोग (ये सब कुछ देखते और जानते हुए भी) बातिल को मानते हैं21 और अल्लाह के एहसान का इनकार करते हैं?
21. यानी ये बेबुनियाद और बेहक़ीक़त अक़ीदा रखते हैं कि उनकी क़िस्मतें बनाना और बिगाड़ना, उनकी मुरादें बर लाना और दुआएँ सुनना, उन्हें औलाद देना, उनको रोज़गार दिलवाना, उनके मुक़द्दमे जितवाना और उन्हें बीमारियों से बचाना कुछ देवियों और देवताओं और जिन्नों और अगले-पिछले बुज़ुर्गों के इख़्तियार में है।
وَٱللَّهُ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ 69
(65) (तुम हर बरसात में देखते हो कि) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और यकायक मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन में उसकी बदौलत जान डाल दी।17 यक़ीनन उसमें एक निशानी है सुननेवालों के लिए।
17. यानी यह मंज़र हर साल तुम्हारी आँखों के सामने गुज़रता है कि ज़मीन बिलकुल चटियल मैदान पड़ी हुई है, ज़िन्दगी के कोई आसार मौजूद नहीं, न घास-फूस है, न बेल-बूटे, न फूल-पत्ती और न किसी क़िस्म के हशरातुल-अर्ज़। इतने में बारिश का मौसम आ गया और एक-दो छींटे पड़ते ही इसी ज़मीन से ज़िन्दगी के चश्मे उबलने शुरू हो गए। ज़मीन की तहों में दबी हुई बेशुमार जड़ें यकायक जी उठीं और हर एक के अन्दर से वही नबातात फिर बरामद हो गई जो पिछली बरसात में पैदा होने के बाद मर चुकी थी। बेशुमार हशरातुल-अर्ज़ जिनका नाम व निशान तक गर्मी के ज़माने में बाक़ी न रहा था, यकायक फिर उसी शान से नमूदार हो गए जैसे पिछली बरसात में देखे गए थे। ये सब कुछ अपनी ज़िन्दगी में बार-बार तुम देखते रहते हो, और फिर भी तुम्हें नबी की ज़बान से यह सुनकर हैरत होती है कि अल्लाह तआला इनसनों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा करेगा।
فَلَا تَضۡرِبُواْ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡثَالَۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ 72
(74) पस अल्लाह के लिए मिसालें न घडो,22 अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
22. यानी अल्लाह को दुनियवी बादशाहों और राजों और महाराजों पर क़ियास न करो कि जिस तरह कोई उनके मुसाहिबों और मुक़र्रबे-बारगाह मुलाज़िमों के तवस्सुत के बग़ैर अपनी अर्ज़ व मारूज़ नहीं पहुँचा सकता उसी तरह अल्लाह के मुताल्लिक़ भी तुम यह गुमान करने लगो कि वह अपने क़स्रे-शाही में मलाइका और औलिया और दूसरे मुक़र्रबीन के दरमियान घिरा बैठा है और किसी का कोई काम इन वास्तों के बग़ैर उसके यहाँ से नहीं बन सकता।
وَمِن ثَمَرَٰتِ ٱلنَّخِيلِ وَٱلۡأَعۡنَٰبِ تَتَّخِذُونَ مِنۡهُ سَكَرٗا وَرِزۡقًا حَسَنًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 74
(67) (इसी तरह) खजूर के दरख़्तों और अंगूर की बेलों से भी हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं जिसे तुम नशाआवर भी बना लेते हो और पाक रिज़्क भी।18 यक़ीनन इसमें एक निशानी है अक़्ल से काम लेनेवालों के लिए। ।
18. इसमें एक ज़िमनी इशारा शराब की हुरमत की तरफ़ भी है कि वह पाक रिज़्क़ नहीं है।
۞ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلًا عَبۡدٗا مَّمۡلُوكٗا لَّا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَمَن رَّزَقۡنَٰهُ مِنَّا رِزۡقًا حَسَنٗا فَهُوَ يُنفِقُ مِنۡهُ سِرّٗا وَجَهۡرًاۖ هَلۡ يَسۡتَوُۥنَۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ 75
(75) अल्लाह एक मिसाल देता है। एक तो है ग़ुलाम, जो दूसरे का ममलूक है और ख़ुद कोई इख़्तियार नहीं रखता। दूसरा शख़्स ऐसा है जिसे हमने अपनी तरफ़ से अच्छा रिज़्क़ अता किया है और वह उसमें से खुले और छिपे व ख़र्च करता है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर हैं? अलहम्दुलिल्लाह,23 मगर अकसर लोग (इस सीधी बात को) नहीं जानते।
23. चूँकि इस सवाल के जवाब में मुशरिकीन यह नहीं कह सके कि दोनों बराबर हैं, इसलिए फ़रमाया अलहम्दुलिल्लाह, इतनी बात तो तुम्हारी समझ में आई!
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۢ بُيُوتِكُمۡ سَكَنٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّن جُلُودِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ بُيُوتٗا تَسۡتَخِفُّونَهَا يَوۡمَ ظَعۡنِكُمۡ وَيَوۡمَ إِقَامَتِكُمۡ وَمِنۡ أَصۡوَافِهَا وَأَوۡبَارِهَا وَأَشۡعَارِهَآ أَثَٰثٗا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ 76
(80) अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारे घरों को जाए-सुकून बनाया। उसने जानवरों की खालों से तुम्हारे लिए ऐसे मकान पैदा किए जिन्हें तुम सफ़र और क़ियाम दोनों हालतों में हलका पाते हो।24 उसने जानवरों के सूफ़ और ऊन और बालों से तुम्हारे लिए पहनने और बरतने की बहुत-सी चीज़ें पैदा कर दीं जो ज़िन्दगी की मुद्दते-मुक़र्ररा तक तुम्हारे काम आती हैं।
24. यानी चमड़े के ख़ेमे जिनका रिवाज अरब में बहुत है।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلَيۡنِ أَحَدُهُمَآ أَبۡكَمُ لَا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُوَ كَلٌّ عَلَىٰ مَوۡلَىٰهُ أَيۡنَمَا يُوَجِّههُّ لَا يَأۡتِ بِخَيۡرٍ هَلۡ يَسۡتَوِي هُوَ وَمَن يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَهُوَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ 77
(76) अल्लाह एक और मिसाल देता है। दो आदमी हैं। एक गूँगा-बहरा है, कोई काम नहीं कर सकता, अपने आक़ा पर बोझ बना हुआ है, जिधर भी वह उसे भेजे कोई भला काम उससे बन न आए। दूसरा शख़्स ऐसा है कि इनसाफ़ का हुक्म देता है और ख़ुद राहे-रास्त पर क़ायम है। बताओ क्या ये दोनों यकसाँ हैं?
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّمَّا خَلَقَ ظِلَٰلٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡجِبَالِ أَكۡنَٰنٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ سَرَٰبِيلَ تَقِيكُمُ ٱلۡحَرَّ وَسَرَٰبِيلَ تَقِيكُم بَأۡسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡلِمُونَ 78
(81) उसने अपनी पैदा हुई बहुत-सी चीज़ों से तुम्हारे लिए साए का इन्तिज़ाम किया, पहाड़ों में तुम्हारे लिए पनाहगाहें बनाईं, और तुम्हें ऐसी पोशाकें बख़्शीं जो तुम्हें गर्मी से बचाती हैं और कुछ दूसरी पोशाकें जो आपस की जंग में तुम्हारी हिफ़ाज़त करती हैं। इस तरह वह तुमपर अपनी नेमतों की तकमील करता है शायद कि तुम फ़रमाँबरदार बनो।
وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ فَتَزِلَّ قَدَمُۢ بَعۡدَ ثُبُوتِهَا وَتَذُوقُواْ ٱلسُّوٓءَ بِمَا صَدَدتُّمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَكُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ 82
(94) (और ऐ मुसलमानो!) तुम अपनी क़समों को आपस में एक-दूसरे को धोखा देने का ज़रिआ न बना लेना, कहीं ऐसा न हो कि कोई क़दम जमने के बाद उखड़ जाए और तुम इस जुर्म की पादाश में कि तुमने लोगों को अल्लाह की राह से रोका, बुरा नतीजा देखो और सज़ा भुगतो।27
27. यानी ऐसा न हो कि कोई शख़्स इस्लाम की सदाक़त का क़ायल हो जाने के बाद मह्ज़ तुम्हारी बदअख़लाक़ी देखकर इस दीन से बरगश्ता हो जाए और इस वजह से वह अहले-ईमान के गरोह में शामिल होने से रुक जाए कि इस गरोह के जिन लोगों से उसको साबिक़ा पेश आया हो उनको अख़लाक़ और मामलात में उसने कुफ़्फ़ार से कुछ भी मुख़्तलिफ़ न पाया हो।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا ثُمَّ لَا يُؤۡذَنُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ 83
(84) (इन्हें कुछ होश भी है कि उस रोज़ क्या बनेगी) जबकि हम हर उम्मत में से एक गवाह खड़ा करेंगे, फिर काफ़िरों को न हुज्जतें पेश करने का मौक़ा दिया जाएगा।25 न उनसे तौबा-इस्तिग़फ़ार ही का मुतालबा किया जाएगा।
25. यह मतलब नहीं है कि उन्हें सफ़ाई पेश करने की इजाज़त न दी जाएगी। बल्कि मतलब यह है कि उनके जराइम ऐसी सरीह नाक़ाबिले-इनकार और नाक़ाबिले-तावील शहादतों से साबित कर दिए जाएँगे कि उनके लिए सफ़ाई पेश करने की कोई गुंजाइश न रहेगी।
وَٱللَّهُ أَخۡرَجَكُم مِّنۢ بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 88
(78) अल्लाह ने तुमको तुम्हारी माओं के पेटों से निकाला इस हालत में कि तुम कुछ न जानते थे, उसने तुम्हें कान दिए, आँखें दीं और सोचनेवाले दिल दिए, इसलिए कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ شُرَكَآءَهُمۡ قَالُواْ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ شُرَكَآؤُنَا ٱلَّذِينَ كُنَّا نَدۡعُواْ مِن دُونِكَۖ فَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلَ إِنَّكُمۡ لَكَٰذِبُونَ 89
(86) और जब वे लोग जिन्होंने दुनिया में शिर्क किया था अपने ठहराए हुए शरीकों को देखेंगे तो कहेंगे, “ऐ परवरदिगार! यही हैं हमारे वे शरीक जिन्हें हम तुझे छोड़कर पुकारा करते थे।” इसपर उनके वे माबूद उन्हें साफ़ जवाब देंगे कि “तुम झूठे हो”26
26. यानी हमने कभी तुमसे यह नहीं कहा था कि तुम ख़ुदा को छोड़कर हमें पुकार करो, न हम तुम्हारी इस हरकत पर राज़ी थे, बल्कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमें पुकार रहे हो।
فَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ 92
(98) फिर जब तुम क़ुरआन पढ़ने लगो तो शैताने-रजीम से ख़ुदा की पनाह माँग लिया करो।28
28. इसका मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि ज़बान से 'अऊज़ु बिल्लाहि मिनश-शैतानिर-रजीम' कहा जाए, बल्कि इसके साथ फ़िल-वाक़े दिली जज़्बे के साथ अल्लाह से यह दुआ भी करनी चाहिए कि क़ुरआन पढ़ते वक़्त वह शैतान गुमराहकुन वसवसों से उसको महफ़ूज़ रखे क्योंकि जिसने यहाँ से हिदायत न पाई वह फिर कहीं हिदायत न पा सकेगा, और जो इस किताब से गुमराही अख़ज़ कर बैठा उसे फिर दुनिया की कोई चीज़ गुमराहियों के चक्कर से न निकाल सकेगी।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ فِي كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدًا عَلَيۡهِم مِّنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَجِئۡنَا بِكَ شَهِيدًا عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ تِبۡيَٰنٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ 95
(89) (ऐ नबी! इन्हें उस दिन से ख़बरदार कर दो) जबकि हम हर उम्मत में ख़ुद उसी के अन्दर से एक गवाह उठा खड़ा करेंगे जो उसके मुक़ाबले में शहादत देगा, और इन लोगों के मुक़ाबले में शहादत देने के लिए हम तुम्हें लाएँगे। और (यह उसी शहादत की तैयारी है कि) हमने यह किताब तुमपर नाज़िल कर दी है जो हर चीज़ की साफ़-साफ़ वज़ाहत करनेवाली है और हिदायत व रहमत और बशारत है उन लोगों के लिए जिन्होंने सरे-तस्लीम ख़म कर दिया है।
قُلۡ نَزَّلَهُۥ رُوحُ ٱلۡقُدُسِ مِن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّ لِيُثَبِّتَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ 102
(102) उनसे कहो कि उसे तो रूहुल-क़ुदुस ठीक-ठीक ने मेरे रब की तरफ़ से बतदरीज नाज़िल किया है29 ताकि ईमानलानेवालों के ईमान को पुख़्ता करे और फ़रमाँबरदारों को ज़िन्दगी के मामलात में सीधी राह बताए और उन्हें फ़लाह व सआदत की ख़ुशख़बरी दे।
29. 'रूहुल-क़ुदुस' का लफ़्ज़ी तर्जमा है 'पाक रूह' या 'पाकीज़गी की रूह', और इस्तिलाहन यह लक़ब हज़रत जिबरील (अलैहि०) को दिया गया है। यहाँ वह्य लानेवाले फ़रिश्ते का नाम लेने के बजाय उसका लक़ब इस्तेमाल करने से मक़सूद सामिईन को इस हक़ीक़त पर मुतनब्बेह करना है कि इस कलाम को एक ऐसी रूह लेकर आ रही है जो बशरी कमज़ोरियों और नक़ायस से पाक है और बिलकुल अमानतदारी के साथ अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाती है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّتِي نَقَضَتۡ غَزۡلَهَا مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٍ أَنكَٰثٗا تَتَّخِذُونَ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ أَن تَكُونَ أُمَّةٌ هِيَ أَرۡبَىٰ مِنۡ أُمَّةٍۚ إِنَّمَا يَبۡلُوكُمُ ٱللَّهُ بِهِۦۚ وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ 103
(92) तुम्हारी हालत उस औरत की-सी न हो जाए जिसने आप ही मेहनत से सूत काता और फिर आप ही उसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तुम अपनी क़समों को आपस के मामलात में मक्र व फ़रेब का हथियार बनाते हो ताकि एक क़ौम दूसरी क़ौम से बढ़कर फ़ायदे हासिल करे। हालाँकि अल्लाह इस अह्द व पैमान के ज़रिए से तुमको आज़माइश में डालता है, और ज़रूर वह क़ियामत के रोज़ तुम्हारे तमाम इख़्तिलाफ़ात की हक़ीक़त तुमपर खोल देगा।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ هَاجَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا فُتِنُواْ ثُمَّ جَٰهَدُواْ وَصَبَرُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ 105
(110) बख़िलाफ़ इसके जिन लोगों का हाल यह है कि जब (ईमान लाने की वजह से) वे सताए गए तो उन्होंने घर-बार छोड़ दिए, हिजरत की, राहे-ख़ुदा में सख़्तियाँ झेलीं और सब्र से काम लिया, उनके लिए यक़ीनन तेरा रब ग़फ़ूर व रहीम है।
وَلَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡهُمۡ فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ 111
(113) उनके पास उनकी अपनी क़ौम में से एक रसूल आया। मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। आख़िरकार अज़ाब ने उनको आ लिया जबकि वे ज़ालिम हो चुके थे।33
33. हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का क़ौल है कि यहाँ ख़ुद मक्का को नाम लिए बग़ैर मिसाल के तौर पर पेश किया गया है। इस तफ़सीर की रू से ख़ौफ़ और भूख की जिस मुसीबत के छा जाने का यहाँ ज़िक्र किया गया है उससे मुराद वह क़हत है जो नबी (सल्ल०) की बिअसत के बाद एक मुद्दत तक अहले-मक्का पर मुसल्लत रहा।
إِنَّمَا يَفۡتَرِي ٱلۡكَذِبَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ 112
(105) (झूठी बातें नबी नहीं गढ़ता, बल्कि) झूठ वे लोग गढ़ रहे हैं जो अल्लाह की आयात को नहीं मानते,30 वही हक़ीक़त में झूठे हैं।
30. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “झूठ तो वे लोग गढ़ा करते हैं जो अल्लाह की आयात पर ईमान नहीं लाते।”
مَن كَفَرَ بِٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِهِۦٓ إِلَّا مَنۡ أُكۡرِهَ وَقَلۡبُهُۥ مُطۡمَئِنُّۢ بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَٰكِن مَّن شَرَحَ بِٱلۡكُفۡرِ صَدۡرٗا فَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ 115
(106) जो शख़्स ईमान लाने के बाद कुफ़्र करे (वह अगर) मजबूर किया या हो और दिल उसका ईमान पर मुत्मइन हो (तब तो ख़ैर) मगर जिसने दिल की रज़ामन्दी से कुफ़्र को क़ुबूल कर लिया उसपर अल्लाह का ग़ज़ब है और ऐसे सब लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।31
31. यह आयत उन मुसलमानों के बारे में है जिनपर उस वक़्त सख़्त मज़ालिम तोड़े जा रहे थे और नाक़ाबिले-बरदाश्त अज़ीयतें दे-देकर कुफ़्र पर मजबूर किया जा रहा था। उनको बताया गया है कि अगर तुम किसी वक़्त ज़ुल्म से मजबूर होकर मह्ज़ जान बचाने के लिए कलिमा-ए-कुफ़्र ज़बान से अदा कर दो, और दिल तुम्हारा अक़ीदा-ए-कुफ़्र से महफ़ूज़ हो तो माफ़ कर दिया जाएगा। लेकिन अगर दिल से तुमने कुफ़्र क़ुबूल कर लिया तो दुनिया में चाहे जान बचा लो, ख़ुदा के अज़ाब से न बच सकोगे।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 117
(115) अल्लाह ने जो कुछ तुमपर हराम किया है वह है मुर्दार और ख़ून और सूअर का गोश्त और वह जानवर जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। अलबत्ता भूख से और बेक़रार होकर अगर कोई इन चीज़ों को खा ले, बग़ैर इसके कि वह क़ानूने-इलाही की ख़िलाफ़वर्ज़ी का ख़ाहिशमन्द हो या हद्दे-ज़रूरत से तजावुज़ का मुर्तकिब हो, तो यक़ीनन अल्लाह माफ़ करने और रहम फ़रमानेवाला है।
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 121
(117) दुनिया का ऐश चंद रोज़ा है। आख़िरकार उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
34. यह आयत साफ़ तसरीह करती है कि ख़ुदा के सिवा तहलील व तहरीम का हक़ किसी को भी नहीं। दूसरा जो शख़्स भी जाइज़ और नाजाइज़ का फ़ैसला करने की जुरअत करेगा वह अपनी हद से तजावुज़ करेगा। इल्ला यह कि वह क़ानूने-इलाही को सनद मानकर उसके फ़रामीन से इस्तिम्बात करते हुए यह कहे कि फ़ुलाँ चीज़ या फ़ुलाँ फ़ेल जाइज़ है और फ़ुलाँ नाजाइज़। ख़ुदमुख़्ताराना तहलील व तहरीम को अल्लाह पर झूठ और इफ़तिरा इसलिए फ़रमाया गया कि जो शख़्स इस तरह के अहकाम लगाता है उसका ये फ़ेल दो हाल से ख़ाली नहीं हो सकता। या वह इस बात का दावा करता है कि जिसे वह किताबे-इलाही की सनद से बेनियाज़ होकर जाइज़ या नाजाइज़ कह रहा है उसे ख़ुदा ने जाइज़ या नाजाइज़ ठहराया है, या उसका दावा यह है कि अल्लाह ने तहलील व तहरीम के इख़्तियारात से दस्तबरदार होकर इनसान को ख़ुद अपनी मर्ज़ी का क़ानून बना लेने के लिए आज़ाद छोड़ दिया है। उनमें से जो दावा भी वह करे वह लामुहाला झूठ और अल्लाह पर इफ़तिरा है।