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۞وَتَرَى ٱلشَّمۡسَ إِذَا طَلَعَت تَّزَٰوَرُ عَن كَهۡفِهِمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَإِذَا غَرَبَت تَّقۡرِضُهُمۡ ذَاتَ ٱلشِّمَالِ وَهُمۡ فِي فَجۡوَةٖ مِّنۡهُۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِۗ مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ وَلِيّٗا مُّرۡشِدٗا

  1. अल-कह्फ़

(मक्‍का में उतरी-आयतें 110)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम इसकी नवीं आयत 'अम हसिब-त अन-न असहाब-कह्फ़' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें कह्फ़ का शब्द आया है।

उतरने का समय

यहाँ से उन सूरतों का आरंभ होता है जो मक्की जीवन के तीसरे काल में उतरी हैं। यह काल लगभग 5 नबवी के आरंभ से शुरू होकर क़रीब-क़रीब 10 नबवी तक चलता है। इस युग में क़ुरैश ने नबी (सल्ल०) और आपकी 'तहरीक' (आन्दोलन) और जमाअत को दबाने के लिए उपहास, हँसी, आपत्तियों, आरोप, धमकी, लालच और विरोधीृ-दुष्प्रचार से आगे बढ़कर अन्याय-अत्याचार, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार पूरी कठोरता के साथ प्रयोग में लाए गए।

सूरा कह्फ़ के विषय पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह तीसरे काल के आरंभ में उतरी होगी, जबकि अन्याय एवं अत्याचार और अवरोध ने तेज़ी तो अपना ली थी, मगर अभी हबशा की हिजरत नहीं हुई थी। उस समय जो मुसलमान सताए जा रहे थे उनको कह्फ़वालों का क़िस्सा सुनाया गया, ताकि उनमें साहस पैदा हो और उन्हें मालूम हो कि ईमानवाले अपना ईमान बचाने के लिए इससे पहले क्या कुछ कर चुके है।

विषय और वार्ताएँ

यह सूरा मक्का के मुशरिकों के तीन प्रश्नों के उत्तर में उतरी है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए अहले-किताब के मश्‍वरे से आपके सामने पेश किए थे-1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवाले) कौन थे? 2. ख़िज़्र के क़िस्से की वास्तविकता क्या है ? और 3 ज़ुल-क़रनैन का क्या क़िस्सा है ? ये तीनों क़िस्से यहूदियों और ईसाइयों के इतिहास से सम्बन्धित थे। हिजाज़ में इनकी कोई चर्चा न थी, मगर अल्लाह ने सिर्फ़ यही नहीं कि अपने नबी की ज़बान से इनके प्रश्नों का पूरा उत्तर दिया, बल्कि उनके अपने पूछे हुए तीनों क़िस्सों को पूरी तरह से उस परिस्थिति पर घटित करके दिखा दिया जो उस समय मक्का में कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम के बीच पायी जा रही थी।

  1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवालों) के बारे में बताया कि वे उसी तौहीद(एकेश्वरवाद) को अपनाए हुए थे, जिसकी दावत यह क़ुरआन पेश कर रहा है और उनका हाल मक्का के मुट्ठी भर पीड़ित मुसलमानों के हाल से और उनकी क़ौम का रवैया कुरैश के विधर्मियों के रवैये से कुछ अलग न था। फिर इसी क़िस्से से ईमानवालों को यह शिक्षा दी गई कि अगर विधर्मियों का ग़लबा (प्रभुत्त्व) बहुत ज़्यादा हो और एक ईमानवाले व्यक्ति को ज़ालिम समाज में साँस लेने तक की मोहलत न दी जा रही हो, तब भी उसको असत्य के आगे सिर न झुकाना चाहिए |चाहे इसके लिए उसे घर-बार, बाल-बच्चे सब कुछ छोड़ देना पड़े।
  2. कह्फ़वालों के किस्से से रास्ता निकालकर उस अन्याय एवं अत्याचार पर और अनादर एवं अपमानजनक व्यवहार पर वार्ता शुरू कर दी गई जो मक्का के सरदार मुसलमानों के साथ कर रहे थे। इस सिलसिले में एक ओर नबी (सल्ल०) को आदेश दिया गया कि न इन अत्याचारियों से कोई समझौता करो और न अपने निर्धन साथियों के मुक़ाबले में इन बड़े-बड़े लोगों को कोई महत्त्व दो। दूसरी ओर उन सरदारों को उपदेश दिया गया कि अपने कुछ दिनों की ज़िन्दगी के ऐश पर न फूलो, बल्कि उन भलाइयों की तलब करनेवाले बनो जो सदा-सर्वदा रहनेवाली और स्थायी हैं।
  3. इसी के वर्णन-क्रम में ख़िज़्र और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा कुछ इस ढंग से सुनाया गया है कि उसमें विधर्मियों के सवालों का जवाब भी था और ईमानवालों के लिए तसल्ली का सामान भी। इस क़िस्से में वास्तव में जो शिक्षा दी गई है, वह यह है कि अल्लाह की मशीयत (ईश्वरेच्छा) का कारख़ाना जिन मस्लहतों (निहितार्थों) पर चल रहा है, वे चूँकि तुम्हारी नज़र से छिपी हुई हैं, इसलिए तुम बात-बात पर हैरान होते हो कि यह क्यों हुआ? यह क्या हो गया? हालाँकि अगर परदा उठा दिया जाए तो तुम्हें स्वयं मालूम हो जाए कि यहाँ जो कुछ हो रहा है, ठीक हो रहा है।
  4. इसके बाद ज़ुल-क़रनैन का क़िस्सा बयान होता है और इसमें पूछनेवालों को यह शिक्षा दी जाती है कि तुम तो इतनी मामूली-मामूली-सी सरदारियों पर फूल रहे हो, हालाँकि ज़ुल-क़रनैन इतना बड़ा शासक और ऐसा पराक्रमी विजेता और इतने श्रेष्ठ और प्रचार साधनों का स्वामी होकर भी अपनी वास्तविकता को न भूला था और अपने पैदा करनेवाले के आगे हमेशा सिर झुकाए रखता था।

अन्त में फिर उन्हीं बातों को दोहरा दिया गया है जो आरंभ में आई हैं, अर्थात् यह कि तौहीद और आख़िरत पूर्णत: सत्य हैं और तुम्हारी अपनी भलाई इसी में है कि इन्हें मानो ।

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۞وَتَرَى ٱلشَّمۡسَ إِذَا طَلَعَت تَّزَٰوَرُ عَن كَهۡفِهِمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَإِذَا غَرَبَت تَّقۡرِضُهُمۡ ذَاتَ ٱلشِّمَالِ وَهُمۡ فِي فَجۡوَةٖ مِّنۡهُۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِۗ مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ وَلِيّٗا مُّرۡشِدٗا ۝ 1
(17) तुम उन्हें ग़ार में देखते3 तो तुम्हें यूँ नज़र आता कि सूरज जब निकलता तो उनके ग़ार को छोड़कर दाईं जानिब चढ़ जाता है और जब ग़ुरूब होता है। तो उनसे बचकर बाईं जानिब उतर जाता है और वे हैं कि ग़ार के अन्दर एक वसीअ जगह में पड़े हैं। यह अल्लाह की निशानियों में से एक है, जिसको अल्लाह हिदायत दे वही हिदायत पानेवाला है और जिसे अल्लाह भटका दे उसके लिए तुम कोई वली-ए-मुरशिद नहीं पा सकते।
3. बीच में यह ज़िक्र छोड़ दिया गया कि इस क़रारदादे-बाहमी के मुताबिक़ ये लोग शहर से निकलकर पहाड़ों के दरमियान एक ग़ार में जा छिपे ताकि संगसार होने या इर्तिदाद पर मजबूर किए जाने से बच जाएँ।
وَتَحۡسَبُهُمۡ أَيۡقَاظٗا وَهُمۡ رُقُودٞۚ وَنُقَلِّبُهُمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَذَاتَ ٱلشِّمَالِۖ وَكَلۡبُهُم بَٰسِطٞ ذِرَاعَيۡهِ بِٱلۡوَصِيدِۚ لَوِ ٱطَّلَعۡتَ عَلَيۡهِمۡ لَوَلَّيۡتَ مِنۡهُمۡ فِرَارٗا وَلَمُلِئۡتَ مِنۡهُمۡ رُعۡبٗا ۝ 2
(18) तुम उन्हें देखकर यह समझते कि वे जाग रहे हैं, हालाँकि वे सो रहे थे। हम उन्हें दाएँ-बाएँ करवट दिलवाते रहते थे और उनका कुत्ता ग़ार के दहाने पर हाथ फैलाए बैठा था। अगर तुम कहीं झाँककर उन्हें देखते तो उलटे पाँव भाग खड़े होते और उनके नज़ारे से दहशत बैठ जाती।
وَكَذَٰلِكَ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِيَتَسَآءَلُواْ بَيۡنَهُمۡۚ قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ كَمۡ لَبِثۡتُمۡۖ قَالُواْ لَبِثۡنَا يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۚ قَالُواْ رَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثۡتُمۡ فَٱبۡعَثُوٓاْ أَحَدَكُم بِوَرِقِكُمۡ هَٰذِهِۦٓ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ فَلۡيَنظُرۡ أَيُّهَآ أَزۡكَىٰ طَعَامٗا فَلۡيَأۡتِكُم بِرِزۡقٖ مِّنۡهُ وَلۡيَتَلَطَّفۡ وَلَا يُشۡعِرَنَّ بِكُمۡ أَحَدًا ۝ 3
(19) और इसी अजीब करिश्मे से हमने उन्हें उठा बिठाया ताकि ज़रा आपस में पूछ-गछ करें। उनमें से एक ने पूछा, “कहो, कितनी देर इस हाल में रहे?” दूसरों ने कहा, “शायद दिन-भर या उससे कुछ कम रहे होंगे।” फिर वे बोले, “अल्लाह ही बेहतर जानता है कि हमारा कितना वक़्त इस हालत में गुज़रा। चलो, अब अपने में से किसी को चाँदी का यह सिक्का देकर शहर भेजें और वह देखे कि सबसे अच्छा खाना कहाँ मिलता है। वहाँ से वह कुछ खाने के लिए लाए। और चाहिए कि ज़रा होशियारी से काम करे, ऐसा न हो कि वह किसी को हमारे यहाँ होने से ख़बरदार कर बैठे।
4. यानी जैसे अजीब तरीक़े से वे सुलाए गए थे और दुनिया को उनके हाल से बेख़बर रखा गया था, वैसा ही अजीब करिश्मा-ए-क़ुदरत उनका एक तवील मुद्दत के बाद जागना भी था।
سُورَةُ الكَهۡفِ
18. अल-कह्फ़
إِنَّهُمۡ إِن يَظۡهَرُواْ عَلَيۡكُمۡ يَرۡجُمُوكُمۡ أَوۡ يُعِيدُوكُمۡ فِي مِلَّتِهِمۡ وَلَن تُفۡلِحُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا ۝ 4
(20) अगर कहीं उन लोगों का हाथ हमपर पड़ गया तो बस संगसार ही कर डालेंगे, या फिर ज़बरदस्ती हमें अपनी मिल्लत में वापस ले जाएँगे, और ऐसा हुआ तो हम कभी फ़लाह न पा सकेंगे।”
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَىٰ عَبۡدِهِ ٱلۡكِتَٰبَ وَلَمۡ يَجۡعَل لَّهُۥ عِوَجَاۜ
(1) तारीफ़ अल्लाह के लिए है जिसने अपने बन्दे पर यह किताब नाज़िल की और उसमें कोई टेढ़ न रखी।
وَكَذَٰلِكَ أَعۡثَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ لِيَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ لَا رَيۡبَ فِيهَآ إِذۡ يَتَنَٰزَعُونَ بَيۡنَهُمۡ أَمۡرَهُمۡۖ فَقَالُواْ ٱبۡنُواْ عَلَيۡهِم بُنۡيَٰنٗاۖ رَّبُّهُمۡ أَعۡلَمُ بِهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ غَلَبُواْ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِمۡ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيۡهِم مَّسۡجِدٗا ۝ 5
(21) — इस तरह हमने अहले-शहर को उनके हाल पर मुत्तला किया5 ताकि लोग जान लें कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि क़ियामत की घड़ी बेशक आकर रहेगी। (मगर ज़रा ख़याल करो कि जब सोचने की अस्ल बात यह थी) उस वक़्त वे आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि इन (असहाबे-कह्फ़) के साथ क्या किया जाए। कुछ लोगों ने कहा, “इनपर एक दीवार चुन दो, इनका रब ही इनके मामले को बेहतर जानता है।”6 मगर जो लोग उनके मामलात पर ग़ालिब थे उन्होंने कहा, “हम तो इनपर एक इबादतगाह बनाएँगे।”7
5. यानी जब वह शख़्स खाना ख़रीदने के लिए शहर गया तो दुनिया बदल चुकी थी। बुतपरस्त रूम को ईसाई हुए एक मुद्दत गुज़र चुकी थी। ज़बान, तहज़ीब, तमद्दुन, लिबास, हर चीज़ में नुमायाँ फ़र्क़ आ गया था। दो सौ बरस पहले का यह आदमी अपनी सज-धज, लिबास, ज़बान हर चीज़ के एतिबार से फ़ौरन एक तमाशा बन गया। और जब उसने पुराने ज़माने का सिक्का खाना ख़रीदने के लिए पेश किया तो दुकानदार की आँखें फटी-की-फटी रह गईं। तहक़ीक़ की गई तो मालूम हुआ कि यह शख़्स तो उन पैरवाने-मसीह में से है जो दो सौ बरस पहले अपना ईमान बचाने के लिए भाग निकले थे। यह ख़बर आनन-फ़ानन शहर की ईसाई आबादी में फैल गई और हुक्काम के साथ लोगों का एक हुजूम ग़ार पर पहुँच गया। अब जो असहाबे-कह्फ़ ख़बरदार हुए कि वे दो सौ बरस बाद सोकर उठे हैं तो वे अपने ईसाई भाइयों को सलाम करके लेट गए और उनकी रूह परवाज़ कर गई।
6. अन्दाज़े-कलाम से ज़ाहिर होता है कि ये सालेहीने-नसारा का क़ौल था। उनकी राय यह थी कि असहाब-कह्फ़ जिस तरह ग़ार में लेटे हुए हैं उसी तरह उन्हें लेटा रहने दो और ग़ार के दहाने को तेग़ा लगा दो, उनका रब ही बेहतर जानता है कि ये कौन लोग हैं, यह किस मर्तबे के इनसान हैं और किस जज़ा के मुस्तहिक़ हैं।
7. इस वजह से हुआ है कि उस वक़्त ईसाई अवाम के अन्दर भी मुशरिकाना ख़यालात फैल चुके थे। पुराने बुतों की जगह ये नए माबूद उन्हें पूजने के लिए मिल गए।
قَيِّمٗا لِّيُنذِرَ بَأۡسٗا شَدِيدٗا مِّن لَّدُنۡهُ وَيُبَشِّرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ أَجۡرًا حَسَنٗا ۝ 6
(2) ठीक-ठीक सीधी बात कहनेवाली किताब, ताकि वह लोगों को ख़ुदा के सख़्त अज़ाब से ख़बरदार कर दे, और ईमान लाकर नेक अमल करनेवालों को ख़ुशख़बरी दे दे कि उनके लिए अच्छा अज्र है
سَيَقُولُونَ ثَلَٰثَةٞ رَّابِعُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ وَيَقُولُونَ خَمۡسَةٞ سَادِسُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ رَجۡمَۢا بِٱلۡغَيۡبِۖ وَيَقُولُونَ سَبۡعَةٞ وَثَامِنُهُمۡ كَلۡبُهُمۡۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ بِعِدَّتِهِم مَّا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا قَلِيلٞۗ فَلَا تُمَارِ فِيهِمۡ إِلَّا مِرَآءٗ ظَٰهِرٗا وَلَا تَسۡتَفۡتِ فِيهِم مِّنۡهُمۡ أَحَدٗا ۝ 7
(22) कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे और चौथा उनका कुत्ता था। और कुछ दूसरे कह देंगे कि पाँच थे और छटा उनका कुत्ता था। ये सब बेतुकी हाँकते हैं। कुछ और लोग कहते हैं कि सात थे और आठवाँ उनका कुत्ता था।8 कहो, “मेरा रब ही बेहतर जानता है कि वे कितने थे। कम ही लोग उनकी सही तादाद जानते हैं।” पस सरसरी बात से बढ़कर उनकी तादाद के मामले में लोगों से बहस न करो, और न उनके मुताल्लिक़ किसी से कुछ पूछो।9
8. इससे मालूम होता है कि इस वाक़िए के पौने तीन सौ साल बाद नुज़ूले-क़ुरआन के ज़माने में उसकी तफ़सीलात के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ अफ़साने ईसाइयों में फैले हुए थे और उमूमन मुस्तनद मालूमात लोगों के पास मौजूद न थीं। ताहम चूँकि तीसरे क़ौल की तरदीद अल्लाह तआला ने नहीं फ़रमाई है इसलिए यह गुमान किया जा सकता है कि सही तादाद सात ही थी।
9. मतलब यह है कि अस्ल चीज़ उनकी तादाद नहीं, बल्कि अस्ल चीज़ वे सबक़ हैं जो इस क़िस्से से मिलते हैं।
مَّٰكِثِينَ فِيهِ أَبَدٗا ۝ 8
(3) जिसमें वे हमेशा रहेंगे,
وَيُنذِرَ ٱلَّذِينَ قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗا ۝ 9
(4) और उन लोगों को डरा दे जो कहते हैं कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है।
مَّا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٖ وَلَا لِأٓبَآئِهِمۡۚ كَبُرَتۡ كَلِمَةٗ تَخۡرُجُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡۚ إِن يَقُولُونَ إِلَّا كَذِبٗا ۝ 10
(5) इस बात का न उन्हें कोई इल्म है और न उनके बाप-दादा को था। बड़ी बात है जो उनके मुँह से निकलती है, वे मह्ज़ झूठ बकते हैं।
وَلَا تَقُولَنَّ لِشَاْيۡءٍ إِنِّي فَاعِلٞ ذَٰلِكَ غَدًا ۝ 11
(23) — और देखो10, किसी चीज़ के बारे कभी यह न कहा करो कि मैं कल यह काम कर दूँगा।
10. यह एक जुमला-ए-मोतरिज़ा है जो पिछली आयत के मज़मून की मुनासबत से सिलसिला-ए-कलाम के बीच में इरशाद फ़रमाया गया है। पिछली आयत में हिदायत की गई थी कि असहाबे-कह्फ़ की तादाद का सही इल्म अल्लाह को है और उसकी तहक़ीक़ करना एक ग़ैर-ज़रूरी काम है। इस सिलसिले में आगे की बात इरशाद फ़रमाने से पहले जुमला-ए-मोतरिज़ा के तौर पर एक और हिदायत भी नबी (सल्ल०) और अहले-ईमान को दी गई और वह यह कि तुम कभी दावे से यह न कह देना कि मैं कल फ़ुलाँ काम कर दूँगा। तुमको क्या ख़बर कि तुम वह काम कर सकोगे या नहीं!
فَلَعَلَّكَ بَٰخِعٞ نَّفۡسَكَ عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِمۡ إِن لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَسَفًا ۝ 12
(6) अच्छा, तो (ऐ नबी!) शायद तुम इनके पीछे ग़म के मारे अपनी जान खो देनेवाले हो अगर ये इस तालीम पर ईमान न लाए!
إِنَّا جَعَلۡنَا مَا عَلَى ٱلۡأَرۡضِ زِينَةٗ لَّهَا لِنَبۡلُوَهُمۡ أَيُّهُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗا ۝ 13
(7) वाक़िआ यह है कि ये जो कुछ सरो-सामान भी ज़मीन पर है इसको हमने ज़मीन की ज़ीनत बनाया है। ताकि इन लोगों को आज़माएँ इनमें कौन बेहतर अमल करनेवाला है।
إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ إِذَا نَسِيتَ وَقُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَهۡدِيَنِ رَبِّي لِأَقۡرَبَ مِنۡ هَٰذَا رَشَدٗا ۝ 14
(24) (तुम कुछ नहीं कर सकते) इल्ला यह कि अल्लाह चाहे। अगर भूले से ऐसी बात ज़बान से निकल जाए तो फौरन अपने रब को याद करो और कहो, “उम्मीद है कि मेरा रब इस मामले में रुश्द से क़रीबतर बात की तरफ़ मेरी रहनुमाई फ़रमा देगा।”
وَإِنَّا لَجَٰعِلُونَ مَا عَلَيۡهَا صَعِيدٗا جُرُزًا ۝ 15
(8) आख़िरकार इस सबको हम एक चटियल मैदान बना देनेवाले हैं।
وَلَبِثُواْ فِي كَهۡفِهِمۡ ثَلَٰثَ مِاْئَةٖ سِنِينَ وَٱزۡدَادُواْ تِسۡعٗا ۝ 16
(25) — और वे अपने ग़ार में तीन सौ साल रहे, और (कुछ लोग मुद्दत के शुमार में) 9 साल और बढ़ गए हैं।
أَمۡ حَسِبۡتَ أَنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡكَهۡفِ وَٱلرَّقِيمِ كَانُواْ مِنۡ ءَايَٰتِنَا عَجَبًا ۝ 17
(9) क्या तुम समझते हो कि ग़ार और कतबेवाले1 हमारी कोई बड़ी अजीब निशानियों में से थे?
1. यानी वे नौजवान जो अपना ईमान बचाने के लिए ग़ार में पनाहगुज़ीं हुए थे और जिनके ग़ार पर बाद में यादगारी कतबा लगाया गया था।
قُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثُواْۖ لَهُۥ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَبۡصِرۡ بِهِۦ وَأَسۡمِعۡۚ مَا لَهُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا يُشۡرِكُ فِي حُكۡمِهِۦٓ أَحَدٗا ۝ 18
(26) तुम कहो, “अल्लाह उनके क़ियाम की मुद्दत ज़्यादा जानता है,11 “आसमानों और ज़मीन के सब पोशीदा अहवाल उसी को मालूम हैं, क्या ख़ूब है वह देखनेवाला और सुननेवाला!” (ज़मीन व आसमान की मख़लूक़ात का) कोई ख़बरगीर उसके सिवा नहीं, और वह अपनी हुकूमत में किसी को शरीक नहीं करता।
11. यानी असहाबे-कह्फ़ की तादाद की तरह उनकी मुद्दते-क़ियाम के बारे में भी लोगों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है मगर तुम्हें उसकी खोज में पड़ने की ज़रूरत नहीं। अल्लाह तआला ही बेहतर जानता है कि वे कितनी मुद्दत इस हाल में रहे।
إِذۡ أَوَى ٱلۡفِتۡيَةُ إِلَى ٱلۡكَهۡفِ فَقَالُواْ رَبَّنَآ ءَاتِنَا مِن لَّدُنكَ رَحۡمَةٗ وَهَيِّئۡ لَنَا مِنۡ أَمۡرِنَا رَشَدٗا ۝ 19
(10) जब वे चंद नौजवान ग़ार में पनाहगुज़ीं हुए और उन्होंने कहा कि “ऐ परवरदिगार! हमको अपनी रहमते-ख़ास से नवाज़ और हमारा मामला दुरुस्त कर दे”,
وَٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن كِتَابِ رَبِّكَۖ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَن تَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدٗا ۝ 20
(27) (ऐ नबी!) तुम्हारे रब की किताब में से जो कुछ तुमपर वह्य किया गया है उसे (जूँ-का-तूँ) सुना दो, कोई उसके फ़रमूदात को बदल देने का मजाज़ नहीं है, (और अगर तुम किसी की ख़ातिर इसमें रद्दो-बदल करोगे तो) उससे वचकर भागने के लिए कोई जाए-पनाह न पाओगे।
فَضَرَبۡنَا عَلَىٰٓ ءَاذَانِهِمۡ فِي ٱلۡكَهۡفِ سِنِينَ عَدَدٗا ۝ 21
(11) तो हमने उन्हें उसी ग़ार में थपककर सालहा-साल के लिए गहरी नींद सुला दिया,
وَٱصۡبِرۡ نَفۡسَكَ مَعَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ وَلَا تَعۡدُ عَيۡنَاكَ عَنۡهُمۡ تُرِيدُ زِينَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَا تُطِعۡ مَنۡ أَغۡفَلۡنَا قَلۡبَهُۥ عَن ذِكۡرِنَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ وَكَانَ أَمۡرُهُۥ فُرُطٗا ۝ 22
(28) और अपने दिल को उन लोगों की मईयत पर मुत्मइन करो जो अपने रब की रिज़ा के तलबगार बनकर सुबह व शाम उसे पुकारते हैं, और उनसे हरगिज़ निगाह न फेरो। क्या तुम दुनिया की ज़ीनत पसन्द करते हो? किसी ऐसे शख़्स की इताअत न करो,12 जिसके दिल को हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया है और जिसने अपनी ख़ाहिशे-नफ़्स की पैरवी इख़्तियार कर ली है और जिसका तरीक़े-कार इफ़रात व तफ़रीत पर मबनी है।
12. यानी उसकी बात न मानो, उसके आगे न झुको, उसका मंशा पूरा न करो और उसके कहे पर न चलो। यहाँ 'इताअत' का लफ़्ज़ अपने वसीअ मफ़हूम में इस्तेमाल हुआ है।
ثُمَّ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِنَعۡلَمَ أَيُّ ٱلۡحِزۡبَيۡنِ أَحۡصَىٰ لِمَا لَبِثُوٓاْ أَمَدٗا ۝ 23
(12) फिर हमने उन्हें उठाया ताकि देखें उनके दो गरोहों में से कौन अपनी मुद्दते-क़ियाम का ठीक शुमार करता है।
نَّحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ نَبَأَهُم بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّهُمۡ فِتۡيَةٌ ءَامَنُواْ بِرَبِّهِمۡ وَزِدۡنَٰهُمۡ هُدٗى ۝ 24
(13) हम उनका अस्ल क़िस्सा तुम्हें सुनाते हैं। वे चंद नौजवान थे जो अपने रब पर ईमान ले आए थे और हमने उनको हिदायत में तरक़्क़ी बख़्शी थी।2
2. रिवायात से मालूम होता है कि ये नौजवान इबतिदाई दौर के पैरवाने-मसीह (अलैहि०) में से थे। और रूमी सल्तनत की रिआया थे जो उस वक़्त मुशरिक थी और अहले-तौहीद की सख़्त दुश्मन हो रही थी।
وَقُلِ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَن شَآءَ فَلۡيُؤۡمِن وَمَن شَآءَ فَلۡيَكۡفُرۡۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ نَارًا أَحَاطَ بِهِمۡ سُرَادِقُهَاۚ وَإِن يَسۡتَغِيثُواْ يُغَاثُواْ بِمَآءٖ كَٱلۡمُهۡلِ يَشۡوِي ٱلۡوُجُوهَۚ بِئۡسَ ٱلشَّرَابُ وَسَآءَتۡ مُرۡتَفَقًا ۝ 25
(29) साफ़ कह दो कि यह हक़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से, अब जिसका जी चाहे मान ले और जिसका जी चाहे इनकार कर दे। हमने (इनकार करनेवाले) ज़ालिमों के लिए एक आग तैयार कर रखी है। जिसकी लपटें उन्हें घेरे में ले चुकी हैं। वहाँ अगर वे पानी माँगेंगे तो ऐसे पानी से उनकी तवाज़ो की जाएगी जो तेल की तलछट जैसा होगा और उनका मुँह भून डालेगा, बदतरीन पीने की चीज़ और बहुत बुरी आरामगाह!
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ إِنَّا لَا نُضِيعُ أَجۡرَ مَنۡ أَحۡسَنَ عَمَلًا ۝ 26
(30) रहे वे लोग जो मान लें और नेक अमल करें, तो यक़ीनन हम नेकूकार लोगों का अज्र ज़ाया नहीं किया करते।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَيَلۡبَسُونَ ثِيَابًا خُضۡرٗا مِّن سُندُسٖ وَإِسۡتَبۡرَقٖ مُّتَّكِـِٔينَ فِيهَا عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِۚ نِعۡمَ ٱلثَّوَابُ وَحَسُنَتۡ مُرۡتَفَقٗا ۝ 27
उनके लिए सदाबहार जन्नतें हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, वहाँ वे सोने के कंगनों से आरास्ता किए जाएँगे,13 बारीक रेशम और अतलस व दीबा के सब्ज़ कपड़े पहनेंगे, और ऊँची मसनदों पर तकिए लगाकर बैठेंगे। बेहतरीन अज्र और आला दरजे की जाए-क़ियाम!
13. क़दीम ज़माने में बादशाह सोने के कगन पहनते थे। अहले-जन्नत के लिबास में इस चीज़ का ज़िक्र करने से मक़सूद यह बताना है कि वहाँ उनको शाहाना लिबास पहनाए जाएँगे। एक काफ़िर व फ़ासिक़ बादशाह वहाँ ज़लील व ख़ार होगा और एक मोमिन व सॉलेह मज़दूर वहाँ बादशाहों की-सी शान व शौकत से रहेगा।
۞وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلٗا رَّجُلَيۡنِ جَعَلۡنَا لِأَحَدِهِمَا جَنَّتَيۡنِ مِنۡ أَعۡنَٰبٖ وَحَفَفۡنَٰهُمَا بِنَخۡلٖ وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُمَا زَرۡعٗا ۝ 28
(32) (ऐ नबी!) इनके सामने एक मिसाल पेश करो। दो शख़्स थे उनमें से एक को हमने अंगूर के दो बाग़ दिए और उनके गिर्द खजूर के दरख़्तों की बाढ़ लगाई और उनके दरमियान काश्त की ज़मीन रखी।
وَرَبَطۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ إِذۡ قَامُواْ فَقَالُواْ رَبُّنَا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَن نَّدۡعُوَاْ مِن دُونِهِۦٓ إِلَٰهٗاۖ لَّقَدۡ قُلۡنَآ إِذٗا شَطَطًا ۝ 29
(14) हमने उनके दिल उस वक़्त मज़बूत कर दिए जब वे उठे और उन्होंने यह एलान कर दिया कि “हमारा रब तो बस वही है जो आसमानों और ज़मीन का रब है हम उसे छोड़कर किसी दूसरे को माबूद न पुकारेंगे। अगर हम ऐसा करें तो बिलकुल बेजा बात करेंगे।”
كِلۡتَا ٱلۡجَنَّتَيۡنِ ءَاتَتۡ أُكُلَهَا وَلَمۡ تَظۡلِم مِّنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ وَفَجَّرۡنَا خِلَٰلَهُمَا نَهَرٗا ۝ 30
(33) दोनों बाग़ ख़ूब फले-फूले और बारआवर होने में उन्होंने ज़रा-सी कसर भी न छोड़ी। उन बाग़ों के अन्दर हमने एक नहर जारी कर दी
وَكَانَ لَهُۥ ثَمَرٞ فَقَالَ لِصَٰحِبِهِۦ وَهُوَ يُحَاوِرُهُۥٓ أَنَا۠ أَكۡثَرُ مِنكَ مَالٗا وَأَعَزُّ نَفَرٗا ۝ 31
(34) और उसे ख़ूब नफ़ा हासिल हुआ। यह कुछ पाकर एक दिन वह अपने हमसाए से बात करते हुए बोला, “मैं तुझसे ज़्यादा मालदार हूँ और तुझसे ज़्यादा ताक़तवर नफ़री रखता हूँ।”
هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمُنَا ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ لَّوۡلَا يَأۡتُونَ عَلَيۡهِم بِسُلۡطَٰنِۭ بَيِّنٖۖ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا ۝ 32
(15) (फिर उन्होंने आपस में एक-दूसरे से कहा) “यह हमारी क़ौम तो रब्बे-कायनात को छोड़कर दूसरे ख़ुदा बना बैठी है। ये लोग उनके माबूद होने पर कोई वाज़ेह दलील क्यों नहीं लाते? आख़िर उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम और कौन हो सकता है जो अल्लाह पर झूठ बाँधे?
وَدَخَلَ جَنَّتَهُۥ وَهُوَ ظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ قَالَ مَآ أَظُنُّ أَن تَبِيدَ هَٰذِهِۦٓ أَبَدٗا ۝ 33
(35) फिर वह अपनी जन्नत में दाख़िल हुआ और अपने नफ़्स के हक़ में ज़ालिम बनकर कहने लगा, “मैं नहीं समझता कि यह दौलत कभी फ़ना हो जाएगी,
وَإِذِ ٱعۡتَزَلۡتُمُوهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ إِلَّا ٱللَّهَ فَأۡوُۥٓاْ إِلَى ٱلۡكَهۡفِ يَنشُرۡ لَكُمۡ رَبُّكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَيُهَيِّئۡ لَكُم مِّنۡ أَمۡرِكُم مِّرۡفَقٗا ۝ 34
(16) अब जबकि तुम उनसे और उनके माबूदाने-ग़ैरुल्लाह से बेताल्लुक़ हो चुके हो तो चलो अब फ़ुलाँ ग़ार में चलकर पनाह लो। तुम्हारा रब तुमपर अपनी रहमत का दामन वसीअ करेगा और तुम्हारे काम के लिए सरो-सामान मुहैया कर देगा।”
وَمَآ أَظُنُّ ٱلسَّاعَةَ قَآئِمَةٗ وَلَئِن رُّدِدتُّ إِلَىٰ رَبِّي لَأَجِدَنَّ خَيۡرٗا مِّنۡهَا مُنقَلَبٗا ۝ 35
(36) और मुझे तवक़्क़ो नहीं कि क़ियामत की घड़ी कभी आएगी। ताहम अगर कभी मुझे अपने रब के हुज़ूर पलटाया भी गया तो ज़रूर इससे भी ज़्यादा शानदार जगह पाऊँगा।”
قَالَ لَهُۥ صَاحِبُهُۥ وَهُوَ يُحَاوِرُهُۥٓ أَكَفَرۡتَ بِٱلَّذِي خَلَقَكَ مِن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ سَوَّىٰكَ رَجُلٗا ۝ 36
(37) उसके हमसाए ने गुफ़्तगू करते उससे कहा, “क्या तू कुफ़्र करता है उस ज़ात से जिसने तुझे मिट्टी से और फिर नुत्फ़े से पैदा किया और तुझे एक पूरा आदमी बनाकर खड़ा किया?
وَرَءَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ٱلنَّارَ فَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مُّوَاقِعُوهَا وَلَمۡ يَجِدُواْ عَنۡهَا مَصۡرِفٗا ۝ 37
(53) सारे मुजरिम उस रोज़ आग देखेंगे और समझ लेंगे कि अब उन्हें इसमें गिरना है और वे उससे बचने के लिए कोई जाए-पनाह न पाएँगे।
لَّٰكِنَّا۠ هُوَ ٱللَّهُ رَبِّي وَلَآ أُشۡرِكُ بِرَبِّيٓ أَحَدٗا ۝ 38
(38) रहा मैं, तो मेरा रब तो वही अल्लाह है और मैं उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لِلنَّاسِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَكۡثَرَ شَيۡءٖ جَدَلٗا ۝ 39
(54) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया मगर इनसान बड़ा ही झगड़ालू वाक़े हुआ है।
وَلَوۡلَآ إِذۡ دَخَلۡتَ جَنَّتَكَ قُلۡتَ مَا شَآءَ ٱللَّهُ لَا قُوَّةَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ إِن تَرَنِ أَنَا۠ أَقَلَّ مِنكَ مَالٗا وَوَلَدٗا ۝ 40
(39) और जब तू अपनी जन्नत में दाख़िल हो रहा था तो उस वक़्त तेरी ज़बान से यह क्यों न निकला कि माशा अल्लाह, ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाह?14 अगर तू मुझे माल और औलाद में अपने से कमतर पा रहा है
14. यानी “जो कुछ अल्लाह चाहे वही होगा। मेरा और किसी का कुछ ज़ोर नहीं है। हमारा अगर कुछ बस चल सकता है तो अल्लाह ही की तौफ़ीक़ और ताईद से चल सकता है।”
وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤۡمِنُوٓاْ إِذۡ جَآءَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّهُمۡ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ قُبُلٗا ۝ 41
(55) उनके सामने जब हिदायत आई तो उसे मानने और अपने रब के हुज़ूर माफ़ी चाहने से आख़िर उनको किस चीज़ ने रोक दिया? इसके सिवा और कुछ नहीं कि वे मुन्तज़िर हैं कि उनके साथ भी वही कुछ हो जो पिछली क़ौमों के साथ हो चुका है, या यह कि वे अज़ाब को सामने आते देख लें!
فَعَسَىٰ رَبِّيٓ أَن يُؤۡتِيَنِ خَيۡرٗا مِّن جَنَّتِكَ وَيُرۡسِلَ عَلَيۡهَا حُسۡبَانٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَتُصۡبِحَ صَعِيدٗا زَلَقًا ۝ 42
(40) तो बईद नहीं कि मेरा रब मुझे तेरी जन्नत से बेहतर अता फ़रमा दे और तेरी जन्नत पर आसमान से कोई आफ़त भेज दे जिससे वह साफ़ मैदान बनकर रह जाए,
وَمَا نُرۡسِلُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَۚ وَيُجَٰدِلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ لِيُدۡحِضُواْ بِهِ ٱلۡحَقَّۖ وَٱتَّخَذُوٓاْ ءَايَٰتِي وَمَآ أُنذِرُواْ هُزُوٗا ۝ 43
(56) रसूलों को हम इस काम के सिवा और किसी ग़रज़ के लिए नहीं भेजते कि वे बशारत और तंबीह की ख़िदमत अंजाम दे दें। मगर काफ़िरों का ये हाल है कि वे बातिल के हथियार लेकर हक़ को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं और उन्होंने मेरी आयात को और उन तंबीहात को, जो उन्हें की गईं मज़ाक़ बना लिया है।
أَوۡ يُصۡبِحَ مَآؤُهَا غَوۡرٗا فَلَن تَسۡتَطِيعَ لَهُۥ طَلَبٗا ۝ 44
(41) या उसका पानी ज़मीन में उतर जाए और फिर तू उसे किसी तरह न निकाल सके।”
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ فَأَعۡرَضَ عَنۡهَا وَنَسِيَ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُۚ إِنَّا جَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۖ وَإِن تَدۡعُهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ فَلَن يَهۡتَدُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا ۝ 45
(57) और उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम और कौन है जिस उसके रब की आयात सुनाकर नसीहत की जाए और वह उनसे मुँह फेरे और उस बुरे अंजाम को भूल जाए जिसका सरो-सामान उसने अपने लिए ख़ुद अपने हाथों किया है? (जिन लोगों ने यह रविश इख़्तियार की है) उनके दिलों पर हमने ग़िलाफ़ चढ़ा दिए हैं जो उन्हें क़ुरआन की बात नहीं समझने देते और उनके कानों में हमने गिरानी पैदा कर दी है। तुम उन्हें हिदायत की तरफ़ कितना ही बुलाओ, वे इस हालत में कभी हिदायत न पाएँगे।
وَأُحِيطَ بِثَمَرِهِۦ فَأَصۡبَحَ يُقَلِّبُ كَفَّيۡهِ عَلَىٰ مَآ أَنفَقَ فِيهَا وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا وَيَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي لَمۡ أُشۡرِكۡ بِرَبِّيٓ أَحَدٗا ۝ 46
(42) आख़िरकार हुआ यह कि उसका सारा समरा मारा गया और वह अपने अंगूरों के बाग़ को टट्टियों पर उलटा पड़ा देखकर अपनी लगाई हुई लागत पर हाथ मलता रह गया और कहने लगा कि “काश, मैंने अपने रब के साथ किसी को शरीक न ठहराया होता!”
وَرَبُّكَ ٱلۡغَفُورُ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۖ لَوۡ يُؤَاخِذُهُم بِمَا كَسَبُواْ لَعَجَّلَ لَهُمُ ٱلۡعَذَابَۚ بَل لَّهُم مَّوۡعِدٞ لَّن يَجِدُواْ مِن دُونِهِۦ مَوۡئِلٗا ۝ 47
(58) तेरा रब बड़ा दरगुज़र करनेवाला और रहीम है। वह इनके करतूतों पर इन्हें पकड़ना चाहता तो जल्दी ही अज़ाब भेज देता। मगर इनके लिए वादे का एक वक़्त मुक़र्रर है और इससे बचकर भाग निकलने की ये कोई राह न पाएँगे।
وَلَمۡ تَكُن لَّهُۥ فِئَةٞ يَنصُرُونَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَمَا كَانَ مُنتَصِرًا ۝ 48
(43) — न हुआ अल्लाह को छोड़कर उसके पास कोई जत्था कि उसकी मदद करता, और न कर सका वह आप ही उस आफ़त का मुक़ाबला।
وَتِلۡكَ ٱلۡقُرَىٰٓ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَعَلۡنَا لِمَهۡلِكِهِم مَّوۡعِدٗا ۝ 49
(59) ये अज़ाब-रसीदा बस्तियाँ तुम्हारे सामने मौजूद हैं। इन्होंने जब ज़ुल्म किया तो हमने इन्हें हलाक कर दिया, और इनमें से हर एक की हलाकत के लिए हमने वक़्त मुक़र्रर कर रखा था।
هُنَالِكَ ٱلۡوَلَٰيَةُ لِلَّهِ ٱلۡحَقِّۚ هُوَ خَيۡرٞ ثَوَابٗا وَخَيۡرٌ عُقۡبٗا ۝ 50
(44) — उस वक़्त मालूम हुआ कि कारसाज़ी का इख़्तियार ख़ुदा-ए-बरहक़ ही के लिए है, इनाम वही बेहतर है जो वह बख़्शे और अंजाम वही बख़ैर है जो वह दिखाए।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِفَتَىٰهُ لَآ أَبۡرَحُ حَتَّىٰٓ أَبۡلُغَ مَجۡمَعَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ أَوۡ أَمۡضِيَ حُقُبٗا ۝ 51
(60) (ज़रा इनको वह क़िस्सा सुनाओ जो मूसा को पेश आया था) मूसा ने अपने ख़ादिम से कहा था कि “मैं अपना सफ़र ख़त्म न करूँगा जब तक कि दोनों दरियाओं के संगम पर न पहुँच जाऊँ, वरना मैं एक ज़माना-ए-दराज़ तक चलता ही रहूँगा।”17
17. किसी मुस्तनद ज़रिए से यह मालूम नहीं हो सका है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह सफ़र किस ज़माने में पेश आया था और वे दो दरिया कौन-से थे जिनके संगम पर यह वाक़िआ पेश आया। लेकिन क़िस्से पर ग़ौर करने से ऐसा महसूस होता है कि यह हज़रत मूसा (अलैहि०) के ज़माना-ए-क़ियामे-मिस्र का वाक़िआ है जबकि फ़िरऔन से उनकी कशमकश चल रही थी और दो दरियाओं से मुराद नीले-अज़रक़ और नीले-अबयज़ हैं जिनके संगम पर मौजूदा शहर ख़ुरतूम आबाद है। इस क़ियास की वुजूह पर तफ़सीली बहस हमने तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द सोम, तफ़सीर सूरा कह्फ़ में की है।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَآءٍ أَنزَلۡنَٰهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَٱخۡتَلَطَ بِهِۦ نَبَاتُ ٱلۡأَرۡضِ فَأَصۡبَحَ هَشِيمٗا تَذۡرُوهُ ٱلرِّيَٰحُۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ مُّقۡتَدِرًا ۝ 52
(45) (ऐ नबी!) इन्हें हयाते-दुनिया की हक़ीक़त इस मिसाल से समझाओ कि आज हमने आसमान से पानी बरसा दिया तो ज़मीन की पौद ख़ूब घनी हो गई, और कल वही नबातात भुस बनकर रह गई जिसे हवाएँ उड़ाए लिए फिरती हैं। अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
فَلَمَّا بَلَغَا مَجۡمَعَ بَيۡنِهِمَا نَسِيَا حُوتَهُمَا فَٱتَّخَذَ سَبِيلَهُۥ فِي ٱلۡبَحۡرِ سَرَبٗا ۝ 53
(61) पस जब वे उनके संगम पर पहुँचे तो अपनी मछली से ग़ाफ़िल हो गए और वह निकलकर इस तरह दरिया में चली गई जैसे कि कोई सुरंग लगी हो।
فَلَمَّا جَاوَزَا قَالَ لِفَتَىٰهُ ءَاتِنَا غَدَآءَنَا لَقَدۡ لَقِينَا مِن سَفَرِنَا هَٰذَا نَصَبٗا ۝ 54
(62) आगे जाकर मूसा ने अपने ख़ादिम से कहा, “लाओ हमारा नाश्ता, आज के सफ़र में तो हम बुरी तरह थक गए है।”
ٱلۡمَالُ وَٱلۡبَنُونَ زِينَةُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱلۡبَٰقِيَٰتُ ٱلصَّٰلِحَٰتُ خَيۡرٌ عِندَ رَبِّكَ ثَوَابٗا وَخَيۡرٌ أَمَلٗا ۝ 55
(46) यह माल और यह औलाद मह्ज़ दुनयवी ज़िन्दगी की एक हंगामी आराइश है। अस्ल में तो बाक़ी रह जानेवाली नेकियाँ ही तेरे रब के नज़दीक नतीजे के लिहाज़ से बेहतर हैं और उन्हीं से अच्छी उम्मीदें वाबस्ता की जा सकती हैं।
قَالَ أَرَءَيۡتَ إِذۡ أَوَيۡنَآ إِلَى ٱلصَّخۡرَةِ فَإِنِّي نَسِيتُ ٱلۡحُوتَ وَمَآ أَنسَىٰنِيهُ إِلَّا ٱلشَّيۡطَٰنُ أَنۡ أَذۡكُرَهُۥۚ وَٱتَّخَذَ سَبِيلَهُۥ فِي ٱلۡبَحۡرِ عَجَبٗا ۝ 56
(63) ख़ादिम ने कहा, “आपने देखा, यह क्या हुआ! जब हम उस चट्टान के पास ठहरे हुए थे उस वक़्त मुझे मछली का ख़याल न रहा और शैतान ने मुझको ऐसा ग़ाफ़िल कर दिया कि मैं उसका ज़िक्र (आपसे करना) भूल गया। मछली तो अजीब तरीक़े से निकलकर दरिया में चली गई।”
وَيَوۡمَ نُسَيِّرُ ٱلۡجِبَالَ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ بَارِزَةٗ وَحَشَرۡنَٰهُمۡ فَلَمۡ نُغَادِرۡ مِنۡهُمۡ أَحَدٗا ۝ 57
(47) फ़िक्र उस दिन की होनी चाहिए जबकि हम पहाड़ों को चलाएँगे, और तुम ज़मीन को बिलकुल बरहना पाओगे, और हम तमाम इनसानों को इस तरह घेरकर जमा करेंगे कि (अगों-पिछलों में से) एक भी न छूटेगा,
قَالَ ذَٰلِكَ مَا كُنَّا نَبۡغِۚ فَٱرۡتَدَّا عَلَىٰٓ ءَاثَارِهِمَا قَصَصٗا ۝ 58
(64) मूसा ने कहा, “इसी की तो हमें तलाश थी।”18 चुनाँचे वे दोनों अपने नक़्शे-क़दम पर फिर वापस हुए
18. यानी मंज़िले-मक़सूद का यही निशान तो हमको बताया गया था।
وَعُرِضُواْ عَلَىٰ رَبِّكَ صَفّٗا لَّقَدۡ جِئۡتُمُونَا كَمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةِۭۚ بَلۡ زَعَمۡتُمۡ أَلَّن نَّجۡعَلَ لَكُم مَّوۡعِدٗا ۝ 59
(48) और सब-के-सब तुम्हारे रब के हुज़ूर सफ़-दर-सफ़ पेश किए जाएँगे। — लो देख लो, आ गए न तुम हमारे पास उसी तरह जैसा हमने तुमको पहली बार पैदा किया था। तुमने तो यह समझा था कि हमने तुम्हारे लिए कोई वादे का वक़्त मुक़र्रर ही नहीं किया है।
فَوَجَدَا عَبۡدٗا مِّنۡ عِبَادِنَآ ءَاتَيۡنَٰهُ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَعَلَّمۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّا عِلۡمٗا ۝ 60
(65) और वहाँ उन्होंने हमारे बन्दों में से एक बन्दे को पाया जिसे हमने अपनी रहमत से नवाज़ा था और अपनी तरफ़ से एक ख़ास इल्म अता किया था।19
19. 19. इस बन्दे का नाम तमाम मोतबर अहादीस में ख़ज़िर बताया गया है।
وَوُضِعَ ٱلۡكِتَٰبُ فَتَرَى ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا فِيهِ وَيَقُولُونَ يَٰوَيۡلَتَنَا مَالِ هَٰذَا ٱلۡكِتَٰبِ لَا يُغَادِرُ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةً إِلَّآ أَحۡصَىٰهَاۚ وَوَجَدُواْ مَا عَمِلُواْ حَاضِرٗاۗ وَلَا يَظۡلِمُ رَبُّكَ أَحَدٗا ۝ 61
(49) — और नामा-ए-आमाल सामने रख दिया जाएगा। उस वक़्त तुम देखोगे कि मुजरिम लोग अपनी किताबे-ज़िन्दगी के इनदिराजात से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे कि “हाय हमारी कमबख़्ती! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी हरकत ऐसी नहीं रही जो इसमें दर्ज न हो गई हो।” जो-जो कुछ उन्होंने किया था वह सब अपने सामने हाज़िर पाएँगे और तेरा रब किसी पर ज़रा ज़ुल्म न करेगा।
قَالَ لَهُۥ مُوسَىٰ هَلۡ أَتَّبِعُكَ عَلَىٰٓ أَن تُعَلِّمَنِ مِمَّا عُلِّمۡتَ رُشۡدٗا ۝ 62
(66) मूसा ने उससे कहा, “क्या मैं आपके साथ रह सकता हूँ ताकि आप मुझे भी उस दानिश की तालीम दें जो आपको सिखाई गई है?”
قَالَ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 63
(67) उसने जवाब दिया, “आप मेरे साथ सब्र नहीं कर सकते,
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ كَانَ مِنَ ٱلۡجِنِّ فَفَسَقَ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِۦٓۗ أَفَتَتَّخِذُونَهُۥ وَذُرِّيَّتَهُۥٓ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِي وَهُمۡ لَكُمۡ عَدُوُّۢۚ بِئۡسَ لِلظَّٰلِمِينَ بَدَلٗا ۝ 64
(50) याद करो, जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो तो उन्होंने सजदा किया मगर इबलीस ने न किया। वह जिन्नों में से था इसलिए अपने रब के हुक्म की इताअत से निकल गया।15 अब क्या तुम मुझे छोड़कर उसको और उसकी ज़ुर्रियत को अपना सरपरस्त बनाते हो हालाँकि वे तुम्हारे दुश्मन हैं? बड़ा ही बुरा बदल है जिसे ज़ालिम लोग इख़्तियार कर रहे हैं।
15. यानी इबलीस फ़रिश्तों में से न था, बल्कि जिन्नों में से था, इसी लिए इताअत से बाहर हो जाना उसके लिए मुमकिन हुआ। फ़रिश्तों में से होता तो नाफ़रमानी कर ही न सकता। बख़िलाफ़ इसके जिन्न इनसानों की तरह एक ज़ी-इख़्तियार मख़लूक़ है जिसे पैदाइशी फ़रमाँबरदार नहीं बनाया गया है, बल्कि कुफ़्र व ईमान और इताअत व मासियत दोनों की क़ुदरत बख़्शी गई है।
وَكَيۡفَ تَصۡبِرُ عَلَىٰ مَا لَمۡ تُحِطۡ بِهِۦ خُبۡرٗا ۝ 65
(68) और जिस चीज़ की आपको ख़बर न हो आख़िर आप उसपर सब्र कर भी कैसे सकते हैं!”
۞مَّآ أَشۡهَدتُّهُمۡ خَلۡقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَا خَلۡقَ أَنفُسِهِمۡ وَمَا كُنتُ مُتَّخِذَ ٱلۡمُضِلِّينَ عَضُدٗا ۝ 66
(51) मैंने आसमान व ज़मीन पैदा करते वक़्त उनको नहीं बुलाया था और न ख़ुद उनकी अपनी तखलीक़ में उन्हें शरीक किया था। मेरा यह काम नहीं है कि गुमराह करनेवालों को अपना मददगार बनाया करूँ।16
16. मतलब यह है कि ये शयातीन आख़िर तुम्हारी इताअत व बन्दगी के मुस्तहिक़ कैसे बन गए, बन्दगी का मुस्तहिक़ तो सिर्फ़ ख़ालिक़ ही हो सकता है। और इन शयातीन का हाल यह है कि आसमान व ज़मीन की तख़लीक़ में शरीक होना तो दरकिनार ये तो ख़ुद मख़लूक़ हैं।
قَالَ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ صَابِرٗا وَلَآ أَعۡصِي لَكَ أَمۡرٗا ۝ 67
(69) मूसा ने कहा, “इन-शाअल्लाह, आप मुझे साबिर पाएँगे और मैं किसी मामले में आपकी नाफ़रमानी न करूँगा।”
قَالَ أَلَمۡ أَقُلۡ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 68
(72) उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था कि तुम मेरे साथ सब्र नहीं कर सकते?”
وَيَوۡمَ يَقُولُ نَادُواْ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُمۡ فَدَعَوۡهُمۡ فَلَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُمۡ وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُم مَّوۡبِقٗا ۝ 69
(52) फिर क्या करेंगे ये लोग उस रोज़ जबकि उनका रब उनसे कहेगा कि पुकारो अब उन हस्तियों को जिन्हें तुम मेरा शरीक समझ बैठे थे। ये उनको पुकारेंगे मगर वे इनकी मदद को न आएँगे और हम इनके दरमियान एक ही हलाकत का गढ़ा मुश्तरक कर देंगे।
قَالَ فَإِنِ ٱتَّبَعۡتَنِي فَلَا تَسۡـَٔلۡنِي عَن شَيۡءٍ حَتَّىٰٓ أُحۡدِثَ لَكَ مِنۡهُ ذِكۡرٗا ۝ 70
(70) उसने कहा, “अच्छा, अगर आप मेरे साथ चलते हैं तो मुझसे कोई बात न पूछें जब तक कि मैं ख़ुद उसका आपसे ज़िक्र न करूँ।”
قَالَ لَا تُؤَاخِذۡنِي بِمَا نَسِيتُ وَلَا تُرۡهِقۡنِي مِنۡ أَمۡرِي عُسۡرٗا ۝ 71
(73) मूसा ने कहा “भूल-चूक पर मुझे न पकड़िए। मेरे मामले में आप ज़रा सख़्ती से काम न लें।”
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَا رَكِبَا فِي ٱلسَّفِينَةِ خَرَقَهَاۖ قَالَ أَخَرَقۡتَهَا لِتُغۡرِقَ أَهۡلَهَا لَقَدۡ جِئۡتَ شَيۡـًٔا إِمۡرٗا ۝ 72
(71) अब वे दोनों रवाना हुए, यहाँ तक कि वे एक कश्ती में सवार हो गए तो उस शख़्स ने कश्ती में शिगाफ़ डाल दिया। मूसा ने कहा, “आपने इसमें शिगाफ़ डाल दिया ताकि सब कश्तीवालों को डुबो दें? यह तो आपने एक सख़्त हरकत कर डाली!”
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَا لَقِيَا غُلَٰمٗا فَقَتَلَهُۥ قَالَ أَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا زَكِيَّةَۢ بِغَيۡرِ نَفۡسٖ لَّقَدۡ جِئۡتَ شَيۡـٔٗا نُّكۡرٗا ۝ 73
(74) फिर वे दोनों चले, यहाँ तक कि उनको एक लड़का मिला और उस शख़्स ने उसे क़त्ल कर दिया। मूसा ने कहा, “आपने एक बेगुनाह की जान ले ली हालाँकि उसने किसी का ख़ून न किया था? यह काम तो आपने बहुत ही बुरा किया!”
۞قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكَ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 74
(75) उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था कि तुम मेरे साथ सब्र नहीं कर सकते?”
قَالَ إِن سَأَلۡتُكَ عَن شَيۡءِۭ بَعۡدَهَا فَلَا تُصَٰحِبۡنِيۖ قَدۡ بَلَغۡتَ مِن لَّدُنِّي عُذۡرٗا ۝ 75
(76) मूसा ने कहा, “इसके बाद अगर मैं आपसे कुछ पूछूँ तो आप मुझे साथ न रखें। लीजिए, अब तो मेरी तरफ़ से आपको उज़्र मिल गया।
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَطۡلِعَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَطۡلُعُ عَلَىٰ قَوۡمٖ لَّمۡ نَجۡعَل لَّهُم مِّن دُونِهَا سِتۡرٗا ۝ 76
(90) यहाँ तक कि तुलूए-आफ़ताब की हद तक जा पहुँचा।23 वहाँ उसने देखा कि सूरज एक ऐसी क़ौम पर तुलूअ हो रहा है जिसके लिए धूप से बचने का कोई सामान हमने नहीं किया है।
23. यानी मशरिक़ की इन्तिहाई सरहद तक।
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَآ أَتَيَآ أَهۡلَ قَرۡيَةٍ ٱسۡتَطۡعَمَآ أَهۡلَهَا فَأَبَوۡاْ أَن يُضَيِّفُوهُمَا فَوَجَدَا فِيهَا جِدَارٗا يُرِيدُ أَن يَنقَضَّ فَأَقَامَهُۥۖ قَالَ لَوۡ شِئۡتَ لَتَّخَذۡتَ عَلَيۡهِ أَجۡرٗا ۝ 77
(77) फिर वे आगे चले यहाँ तक कि एक बस्ती में पहुँचे और वहाँ के लोगों से खाना माँगा, मगर उन्होंने उन दोनों की ज़ियाफ़त से इनकार कर दिया। वहाँ उन्होंने एक दीवार देखी जो गिरा चाहती थी। उस शख़्स ने उस दीवार को फिर क़ायम कर दिया। मूसा ने कहा, “अगर आप चाहते तो इस काम की उजरत ले सकते थे।”
كَذَٰلِكَۖ وَقَدۡ أَحَطۡنَا بِمَا لَدَيۡهِ خُبۡرٗا ۝ 78
(91) यह हाल था उनका, और ज़ुल-क़रनैन के पास जो कुछ था उसे हम जानते थे।
قَالَ هَٰذَا فِرَاقُ بَيۡنِي وَبَيۡنِكَۚ سَأُنَبِّئُكَ بِتَأۡوِيلِ مَا لَمۡ تَسۡتَطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرًا ۝ 79
(78) उसने कहा, “बस मेरा-तुम्हारा साथ ख़त्म हुआ। अब मैं तुम्हें उन बातों की हक़ीक़त बताता हूँ जिनपर तुम सब्र न कर सके।
ثُمَّ أَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 80
(92) फिर उसने (एक और मुहिम का) सामान किया
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ بَيۡنَ ٱلسَّدَّيۡنِ وَجَدَ مِن دُونِهِمَا قَوۡمٗا لَّا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ قَوۡلٗا ۝ 81
(93) यहाँ तक कि जब दो पहाड़ों के दरमियान पहुँचा तो उसे उनके पास एक क़ौम मिली जो मुशकिल ही से कोई बात समझती थी।
أَمَّا ٱلسَّفِينَةُ فَكَانَتۡ لِمَسَٰكِينَ يَعۡمَلُونَ فِي ٱلۡبَحۡرِ فَأَرَدتُّ أَنۡ أَعِيبَهَا وَكَانَ وَرَآءَهُم مَّلِكٞ يَأۡخُذُ كُلَّ سَفِينَةٍ غَصۡبٗا ۝ 82
(79) उस कश्ती का मामला यह है कि वह चंद ग़रीब आदमियों की थी जो दरिया में मेहनत-मज़दूरी करते थे, मैंने चाहा कि उसे ऐबदार कर दूँ, क्योंकि आगे ऐसे बादशाह का इलाक़ा था जो हर कश्ती को ज़बरदस्ती छीन लेता था।
قَالُواْ يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِنَّ يَأۡجُوجَ وَمَأۡجُوجَ مُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَهَلۡ نَجۡعَلُ لَكَ خَرۡجًا عَلَىٰٓ أَن تَجۡعَلَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَهُمۡ سَدّٗا ۝ 83
(94) उन लोगों ने कहा, “ऐ ज़ुल-क़रनैन! याजूज और माजूज24 इस सरज़मीन में फ़साद फैलाते हैं, तो क्या हम तुझे कोई टैक्स इस काम के लिए दें कि तू हमारे और उनके दरमियान एक बन्द तामीर कर दे?”
24. ‘याजूज और माजूज' से मुराद, एशिया के शुमाल मशरिक़ी इलाक़े की वे क़ौमें हैं जो क़दीम ज़माने से मुतमद्दिन ममालिक पर ग़ारत-गराना हमले करती रही हैं और जिनके सैलाब वक़्तन-फ़-वक़्तन उठकर एशिया और यूरोप, दोनों तरफ़ रुख़ करते रहे हैं। हज़किएल के सहीफ़े (बाब-38, 39) में उनका इलाक़ा रूस और तोबल (मौजूदा तोबाल्स्क) और मेसिक (मौजूदा मास्को) बताया गया है। इसराईली मुअर्रिख़ यूसिफ़ोस उनसे मुराद सीथियन क़ौम लेता है जिसका इलाक़ा बहरे-असवद के शुमाल और मशरिक़ में वाक़े था। जीरोम के बयान के मुताबिक़ माजूज काकेशिया के शुमाल में बहरे-ख़ज़र के क़रीब आबाद थे।
وَأَمَّا ٱلۡغُلَٰمُ فَكَانَ أَبَوَاهُ مُؤۡمِنَيۡنِ فَخَشِينَآ أَن يُرۡهِقَهُمَا طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗا ۝ 84
(80) रहा वह लड़का तो उसके वालिदैन मोमिन थे, हमें अंदेशा हुआ कि यह लड़का अपनी सरकशी और कुफ़्र से उनको तंग करेगा।
قَالَ مَا مَكَّنِّي فِيهِ رَبِّي خَيۡرٞ فَأَعِينُونِي بِقُوَّةٍ أَجۡعَلۡ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُمۡ رَدۡمًا ۝ 85
(95) उसने कहा, “जो कुछ मेरे रब ने मुझे दे रखा है वह बहुत है। तुम बस मेहनत से मेरी मदद करो, मैं तुम्हारे और उनके दरमियान बन्द बनाए देता हूँ।
فَأَرَدۡنَآ أَن يُبۡدِلَهُمَا رَبُّهُمَا خَيۡرٗا مِّنۡهُ زَكَوٰةٗ وَأَقۡرَبَ رُحۡمٗا ۝ 86
(81) इसलिए हमने चाहा कि उनका रब इसके बदले उनको ऐसी औलाद दे जो अख़लाक़ में भी इससे बेहतर हो और जिससे सिला-रहमी भी ज़्यादा मुतवक़्क़े हो।
ءَاتُونِي زُبَرَ ٱلۡحَدِيدِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا سَاوَىٰ بَيۡنَ ٱلصَّدَفَيۡنِ قَالَ ٱنفُخُواْۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَعَلَهُۥ نَارٗا قَالَ ءَاتُونِيٓ أُفۡرِغۡ عَلَيۡهِ قِطۡرٗا ۝ 87
(96) मुझे लोहे की चादरें ला दो।” आख़िर जब दोनों पहाड़ों के दरमियानी ख़ला को उसने पाट दिया तो लोगों से कहा कि अब आग दहकाओ। हत्ता कि जब (यह आहनी दीवार) बिलकुल आग की तरह सुर्ख़ कर दी तो उसने कहा, लाओ, अब मैं इसपर पिघला हुआ ताँबा उँडेलूँगा।”
وَأَمَّا ٱلۡجِدَارُ فَكَانَ لِغُلَٰمَيۡنِ يَتِيمَيۡنِ فِي ٱلۡمَدِينَةِ وَكَانَ تَحۡتَهُۥ كَنزٞ لَّهُمَا وَكَانَ أَبُوهُمَا صَٰلِحٗا فَأَرَادَ رَبُّكَ أَن يَبۡلُغَآ أَشُدَّهُمَا وَيَسۡتَخۡرِجَا كَنزَهُمَا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ وَمَا فَعَلۡتُهُۥ عَنۡ أَمۡرِيۚ ذَٰلِكَ تَأۡوِيلُ مَا لَمۡ تَسۡطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرٗا ۝ 88
(82) और इस दीवार का मामला यह है कि यह दो यतीम लड़कों की है जो इस शहर में रहते हैं। इस दीवार के नीचे इन बच्चों के लिए एक ख़ज़ाना मदफ़ून है, और इनका बाप एक नेक आदमी था इसलिए तुम्हारे रब ने चाहा कि ये दोनों बच्चे बालिग़ हों और अपना ख़ज़ाना निकाल लें। यह तुम्हारे रब की रहमत की बिना पर किया गया है, मैंने कुछ अपने इख़्तियार से नहीं कर दिया है। यह है हक़ीक़त उन बातों की जिनपर तुम सब्र न कर सके।”20
20. इस क़िस्से में यह बात तो वाज़ेह है कि हज़रत ख़ज़िर ने जो तीन काम किए थे वे अल्लाह ही के हुक्म से थे, मगर यह बात भी वाज़ेह है कि इनमें पहले दो काम ऐसे थे जिनकी इजाज़त अल्लाह की भेजी हुई किसी शरीअत में किसी इनसान को कभी नहीं दी गई। हत्ता कि इलहाम की बिना पर भी कोई इनसान इसका मजाज़ नहीं है कि किसी की ममलूका कश्ती को इस बिना पर ख़राब कर दे कि आगे जाकर कोई ग़ासिब उसे छीन लेगा और किसी लड़के को इसलिए क़त्ल कर दे कि बड़ा होकर वह सरकश या काफ़िर होनेवाला है। इसलिए यह मानने के सिवा चारा नहीं है कि हज़रत ख़ज़िर ने यह काम अहकाम- शरीअत की बिना पर नहीं, बल्कि अहकामे-मशीयत की बिना पर किए थे और ऐसे अहकाम के लिए अल्लाह तआला इनसानों के सिवा एक दूसरी क़िस्म की मख़लूक़ से काम लेता है। क़िस्से की नौइयत ही से यह ज़ाहिर है कि अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को अपने उस बन्दे के पास इसलिए भेजा था कि परदा उठाकर वह एक नज़र उन्हें यह दिखाए कि इस कारख़ाना-ए-मशीयत में किन मस्लहतों के मुताबिक़ काम होता है जिन्हें समझना इनसानों के बस में नहीं है। सिर्फ़ इस बिना पर कि अल्लाह तआला ने हज़रत ख़ज़िर के लिए 'बन्दे' का लफ़्ज़ इस्तेमाल फ़रमाया है उनको इनसान क़रार देने के लिए काफ़ी नहीं है। सूरा-21 अम्बिया, आयत-26, और सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-19, और मुताद्दिद दूसरे मक़ामात पर फ़रिश्तों के लिए भी यह लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَن ذِي ٱلۡقَرۡنَيۡنِۖ قُلۡ سَأَتۡلُواْ عَلَيۡكُم مِّنۡهُ ذِكۡرًا ۝ 89
(83) और (ऐ नबी!) ये लोग तुमसे ज़ुल-क़रनैन के बारे में पूछते हैं। इनसे “मैं उसका कुछ हाल तुमको सुनाता हूँ।”
إِنَّا مَكَّنَّا لَهُۥ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَءَاتَيۡنَٰهُ مِن كُلِّ شَيۡءٖ سَبَبٗا ۝ 90
(84) हमने उसको ज़मीन में इक़तिदार अता कर रखा था और उसे हर क़िस्म के असबाब व वसाइल बख़्शे थे।
فَأَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 91
(85) उसने (पहले मग़रिब की तरफ़ एक मुहिम का) सरो-सामान किया।
فَمَا ٱسۡطَٰعُوٓاْ أَن يَظۡهَرُوهُ وَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ لَهُۥ نَقۡبٗا ۝ 92
(97) (यह बन्द ऐसा था कि) वे लोग (याजूज-माजूज) इसपर चढ़कर भी न आ सकते थे और इसमें नक़ब लगाना उनके लिए और भी मुशकिल था।
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَغۡرِبَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَغۡرُبُ فِي عَيۡنٍ حَمِئَةٖ وَوَجَدَ عِندَهَا قَوۡمٗاۖ قُلۡنَا يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِمَّآ أَن تُعَذِّبَ وَإِمَّآ أَن تَتَّخِذَ فِيهِمۡ حُسۡنٗا ۝ 93
(86) हत्ता कि जब वह ग़ुरूबे-आफ़ताब की हद तक पहुँच गया21 तो उसने सूरज को एक काले पानी में डूबते देखा22 और वहाँ उसे एक क़ौम मिली। हमने कहा, “ऐ ज़ुल-क़रनैन! तुझे यह मक़दिरत भी हासिल है कि उनको तकलीफ़ पहुँचाए और यह भी कि उनके साथ नेक रवैया इख़्तियार करे।”
21. यानी मग़रिब की इन्तिहाई सरहद तक।
22. यानी वहाँ ग़ुरूबे-आफ़ताब के वक़्त ऐसा महसूस होता था कि सूरज समुन्दर के सियाही माइल गदले पानी में डूब रहा है।
قَالَ هَٰذَا رَحۡمَةٞ مِّن رَّبِّيۖ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ رَبِّي جَعَلَهُۥ دَكَّآءَۖ وَكَانَ وَعۡدُ رَبِّي حَقّٗا ۝ 94
(98) ज़ुल-क़रनैन ने कहा, “यह मेरे रब की रहमत है। मगर जब मेरे रब के वादे का वक़्त आएगा तो वह इसको पैवन्दे-ख़ाक कर देगा, और मेरे रब का वादा बरहक़ है।”
قَالَ أَمَّا مَن ظَلَمَ فَسَوۡفَ نُعَذِّبُهُۥ ثُمَّ يُرَدُّ إِلَىٰ رَبِّهِۦ فَيُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا نُّكۡرٗا ۝ 95
(87) उसने कहा, “जो उनमें से ज़ुल्म करेगा हम उसको सज़ा देंगे, फिर वह अपने रब की तरफ़ पलटाया जाएगा और वह उसे और ज़्यादा सख़्त अज़ाब देगा।
۞وَتَرَكۡنَا بَعۡضَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ يَمُوجُ فِي بَعۡضٖۖ وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَجَمَعۡنَٰهُمۡ جَمۡعٗا ۝ 96
(99) और उस रोज़ हम लोगों को छोड़ देंगे कि (समुन्दर की मौजों की तरह) एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हों और सूर फूँका जाएगा और हम सब इनसानों को एक साथ जमा करेंगे।
25. मुराद है क़ियामत का दिन। ज़ुल-क़रनैन ने जो इशारा क़ियामत के वादा-ए-बरहक़ की तरफ़ किया था उसकी मुनासबत से ये आयात उसके क़ौल पर इज़ाफ़ा करते हुए इरशाद फ़रमाई गई हैं।
وَأَمَّا مَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُۥ جَزَآءً ٱلۡحُسۡنَىٰۖ وَسَنَقُولُ لَهُۥ مِنۡ أَمۡرِنَا يُسۡرٗا ۝ 97
(88) और जो उनमें से ईमान लाएगा, और नेक अमल करेगा, उसके लिए अच्छी जज़ा है और हम उसको नर्म अहकाम देंगे।”
وَعَرَضۡنَا جَهَنَّمَ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡكَٰفِرِينَ عَرۡضًا ۝ 98
(100) और वह दिन होगा जब हम जहन्नम को काफ़िरों के सामने लाएँगे,
ثُمَّ أَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 99
(89) फिर उसने (एक दूसरी मुहिम की) तैयारी की
ٱلَّذِينَ كَانَتۡ أَعۡيُنُهُمۡ فِي غِطَآءٍ عَن ذِكۡرِي وَكَانُواْ لَا يَسۡتَطِيعُونَ سَمۡعًا ۝ 100
(101) उन काफ़िरों के सामने जो मेरी नसीहत की तरफ़ से अंधे बने हुए थे और कुछ सुनने के लिए तैयार ही न थे।
أَفَحَسِبَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَن يَتَّخِذُواْ عِبَادِي مِن دُونِيٓ أَوۡلِيَآءَۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا جَهَنَّمَ لِلۡكَٰفِرِينَ نُزُلٗا ۝ 101
(102) तो क्या ये लोग, जिन्होंने कुफ़्र इख़्तियार किया है, यह ख़याल रखते हैं कि मुझे छोड़कर मेरे बन्दों को अपना कारसाज़ बना लें? हमने ऐसे काफ़िरों की ज़ियाफ़त के लिए जहन्नम तैयार कर रखी है।
قُلۡ هَلۡ نُنَبِّئُكُم بِٱلۡأَخۡسَرِينَ أَعۡمَٰلًا ۝ 102
(103) (ऐ नबी!) इनसे कहो, क्या हम तुम्हें बताएँ कि अपने आमाल में सबसे ज़्यादा नाकाम व नामुराद लोग कौन हैं?
ٱلَّذِينَ ضَلَّ سَعۡيُهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ يَحۡسَبُونَ أَنَّهُمۡ يُحۡسِنُونَ صُنۡعًا ۝ 103
(104) — वे कि दुनिया की ज़िन्दगी में जिनकी सारी सई व जुह्द राहे-रास्त से भटकी रही और वे समझते रहे कि वे सब कुछ ठीक कर रहे हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ وَلِقَآئِهِۦ فَحَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَلَا نُقِيمُ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَزۡنٗا ۝ 104
(105) ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब की आयात को मानने से इनकार किया और उसके हुज़ूर पेशी का यक़ीन न किया। इसलिए उनके सारे आमाल ज़ाया हो गए, क़ियामत के रोज़ हम उन्हें कोई वज़्‌न न देंगे।
ذَٰلِكَ جَزَآؤُهُمۡ جَهَنَّمُ بِمَا كَفَرُواْ وَٱتَّخَذُوٓاْ ءَايَٰتِي وَرُسُلِي هُزُوًا ۝ 105
(106) उनकी जज़ा जहन्नम है उस कुफ़्र के बदले जो उन्होंने किया और उस मज़ाक़ की पादाश में जो वे मेरी आयात और मेरे रसूलों के साथ करते रहे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ كَانَتۡ لَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلۡفِرۡدَوۡسِ نُزُلًا ۝ 106
(107) अलबत्ता वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए, उनकी मेज़बानी के लिए फ़िरदौस के बाग़ होंगे
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يَبۡغُونَ عَنۡهَا حِوَلٗا ۝ 107
(108) जिनमें वे हमेशा रहेंगे और कभी उस जगह से निकलकर कहीं जाने को उनका जी न चाहेगा।
قُل لَّوۡ كَانَ ٱلۡبَحۡرُ مِدَادٗا لِّكَلِمَٰتِ رَبِّي لَنَفِدَ ٱلۡبَحۡرُ قَبۡلَ أَن تَنفَدَ كَلِمَٰتُ رَبِّي وَلَوۡ جِئۡنَا بِمِثۡلِهِۦ مَدَدٗا ۝ 108
(109) (ऐ नबी!) कहो कि अगर समुन्दर मेरे रब की बातें लिखने के लिए रोशनाई बन जाए तो वह ख़त्म हो जाए मगर मेरे रब की बातें ख़त्म न हों, बल्कि अगर इतनी ही रोशनाई हम और ले आएँ तो वह भी किफ़ायत न करे।26
26. अल्लाह तआला की ‘बातों' से मुराद उसके काम और कमालात और अजाइबाते-क़ुदरत व हिकमत हैं।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَمَن كَانَ يَرۡجُواْ لِقَآءَ رَبِّهِۦ فَلۡيَعۡمَلۡ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَلَا يُشۡرِكۡ بِعِبَادَةِ رَبِّهِۦٓ أَحَدَۢا ۝ 109
(110) ऐ नबी!) कहो कि मैं तो एक इनसान हूँ तुम ही जैसा, मेरी तरफ़ वह्य की जाती है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है, पस जो कोई अपने रब की मुलाक़ात का उम्मीदवार उसे चाहिए कि नेक अमल करे और बन्दगी में अपने रब के साथ किसी और को शरीक न करे।