19. मरयम
(मक्का में उतरी-आयतें 98)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम आयत “वज़कुर फ़िल किताबि मर-य-म" से लिया गया है।
उतरने का समय
इस सूरा के उतरने का समय हबशा की हिजरत से पहले का है। विश्वसनीय रिवायतों से मालूम होता है कि मुसलमान मुहाजिर जब नज्जाशी के दरबार में बुलाए गए थे, उस समय हजरत जाफ़र (रज़ि०) ने यही सूरा भरे दरबार में तिलावत की (पढ़ी) थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
यह सूरा उस युग में उतरी थी जब क़ुरैश के सरदार मज़ाक उड़ाने, उपहास करने, लोभ देने, डराने और झूठे आरोपों का प्रचार करके इस्लामी आन्दोलन को दबाने में विफल होकर ज़ुल्मो-सितम, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार इस्तेमाल करने लगे थे। हर क़बीले के लोगों ने अपने-अपने क़बीले के नव-मुस्लिमों को तंग किया और तरह-तरह से सताकर उन्हें इस्लाम छोड़ने पर मजबूर करने की कोशिश की। इस सिलसिले में मुख्य रूप से ग़रीब लोग और वे गुलाम और दास जो क़ुरैशवालों के अधीन बनकर रहते थे, बुरी तरह पीसे गए। ये परिस्थितियाँ जब असहनीय हो गईं तो रजब, 45 आमुल-फ़ील (सन् 05 नब्वी) में नबी (सल्ल०) की अनुमति के साथ अधिकतर मुसलमान मक्का से हबशा हिजरत कर गए। पहले ग्यारह मर्दो और चार औरतों ने हबशा की राह ली। क़ुरैश के लोगों ने समुद्र-तट तक उनका पीछा किया, मगर सौभाग्य से शुऐबा के बन्दरगाह पर उनको ठीक समय पर हबशा के लिए नाव मिल गई और वे गिरफ़्तार होने से बच गए। फिर कुछ महीने के अन्दर कुछ लोगों ने हिजरत की, यहाँ तक कि 53 मर्द, 11 औरतें और 7 ग़ैर-क़ुरैशी मुसलमान हबशा में जमा हो गए और मक्का में नबी (सल्ल०) के साथ सिर्फ़ 40 आदमी रह गए थे।
इस हिजरत से मक्का के घर-घर में कोहराम मच गया, क्योंकि क़ुरैश के छोटे और बड़े परिवारों में से कोई ऐसा न था जिसके युवक इन मुहाजिरों में शामिल न हों। इसी लिए कोई घर न था जो इस घटना से प्रभावित न हुआ हो। कुछ लोग इसकी वजह से इस्लाम विरोध में पहले से अधिक कठोर हो गए और कुछ के दिलों पर इसका प्रभाव ऐसा हुआ कि अन्त में वे मुसलमान होकर रहे । चुनांँचे हज़रत उमर (रज़ि०) के इस्लाम-विरोध पर पहली चोट इसी घटना से लगी थी।
इस हिजरत के बाद क़ुरैश के सरदार सिर जोड़कर बैठे और उन्होंने तय किया कि अब्दुल्लाह-बिन-अबी-रबीआ (अबू जह्ल के माँ जाए भाई) और अम्र-बिन-आस को बहुत-से बहुमूल्य उपहार के साथ हबशा भेजा जाए और ये लोग किसी न किसी तरह नज्जाशी को इस बात पर तैयार करें कि वह मुहाजिरों को मक्का वापस भेज दे। चुनांँचे क़ुरैश के ये दोनों राजनयिक (दूत) मुसलमानों का पीछा करते हुए हबशा पहुँचे। पहले उन्होंने नज्जाशी के दरबारियों में ख़ूब उपहार बाँटकर [सबको अपने मिशन के समर्थन पर] राज़ी कर लिया, फिर नज्जाशी से मिले और उसको मूल्यवान भेंट देने के बाद उन मुहाजिरों की वापसी का निवेदन किया, जिसका उसके दरबारियों ने भरपूर समर्थन किया । मगर नज्जाशी ने बिगड़कर कहा कि “इस तरह तो मैं उन्हें हवाले नहीं करूँगा। जिन लोगों ने दूसरे देश को छोड़कर मेरे देश पर विश्वास किया और यहाँ शरण लेने के लिए आए, उनसे मैं विश्वासघात नहीं कर सकता। पहले मैं उन्हें बुलाकर जाँच करूँगा कि ये लोग उनके बारे में जो कुछ कहते हैं, उसकी वास्तविकता क्या है।” चुनांँचे नज्जाशी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथियों को अपने दरबार में बुला भेजा। नज्जाशी का सन्देश पाकर सब मुहाजिर जमा हुए और उन्होंने आपसी मश्वरे से एक साथ होकर फ़ैसला किया कि नबी (सल्ल०) ने हमें जो शिक्षा दी है, हम तो वही बिना कुछ घटाए-बढ़ाए सामने रख देंगे, भले ही नज्जाशी हमें रखे या निकाल दे। वे दरबार में पहुँचे तो नज्जाशी के सवाल करने पर हज़रत जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने तत्काल एक भाषण देते हुए अरब की अज्ञानता के हालात, मुहम्मद (सल्ल०) का नबी बनाए जाने, इस्लाम की शिक्षाओं और मुसलमानों पर क़ुरैश के अत्याचारों को खोल-खोलकर बयान किया। नज्जाशी ने यह भाषण सुनकर कहा कि तनिक मुझे वह कलाम (वाणी) सुनाओ जो तुम कहते हो कि अल्लाह की ओर से तुम्हारे नबी पर उतरा है। हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने जवाब में सूरा मरयम का वह आरंभिक भाग सुनाया जो हज़रत यह्या और हज़रत ईसा (अलैहि०) से संबंधित है। नज्जाशी उसको सुनता रहा और रोता रहा, यहाँ तक कि उसकी दाढ़ी भीग गई। जब हज़रत जाफ़र (रजि०) ने तिलवात ख़त्म की तो उसने कहा, “निश्चय ही यह कलाम और जो कुछ ईसा लाए थे, दोनों एक ही स्रोत से निकले हैं। अल्लाह की क़सम! मैं तुम्हें उन लोगों के हवाले नहीं करूँगा"।
दूसरे दिन अम्र-बिन-आस ने नजाशी से कहा कि "तनिक इन लोगों को बुलाकर यह तो पूछिए कि मरयम के बेटे ईसा के बारे में उनका अक़ीदा (विश्वास) क्या है? ये लोग उनके बारे में एक बड़ी [भयानक] बात कहते हैं ।” नज्जाशी ने फिर मुहाजिरों को बुला भेजा और जब अम्र-बिन-आस द्वारा किया गया प्रश्न उनके सामने दोहराया तो जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने उठकर बे-झिझक कहा कि “वे अल्लाह के बन्दे और उसके रसूल हैं और उसकी ओर से एक रूह और एक कलिमा हैं जिसे अल्लाह ने कुँवारी मरयम पर डाला।" नज्जाशी ने सुनकर एक तिनका धरती से उठाया और कहा, “अल्लाह की क़सम ! जो कुछ तुमने कहा ईसा उससे इस तिनके के बराबर भी ज़्यादा नहीं थे।" इसके बाद नज्जाशी ने क़ुरैश के भेजे हुए तमाम उपहार यह कहकर वापस कर दिए कि मैं घूस नहीं लेता और मुहाजिरों से कहा तुम बिल्कुल निश्चिन्त होकर रहो।
विषय और वार्ताएँ
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर जब हम इस सूरा को देखते हैं तो उसमें पहली बात उभरकर हमारे सामने यह आती है कि यद्यपि मुसलमान एक उत्पीड़ित शरणार्थी गिरोह के रूप में अपना वतन छोड़कर दूसरे देश में जा रहे थे, मगर इस दशा में भी अल्लाह ने उनको दीन के मामले में तनिक भर भी लचक दिखाने की शिक्षा न दी, बल्कि चलते वक़्त राह में काम आनेवाले सामान के रूप में यह सूरा उनके साथ की ताकि ईसाइयों के देश में ईसा (अलैहि०) की बिल्कुल सही हैसियत प्रस्तुत करें और उनका अल्लाह का बेटा होने से साफ़ साफ़ इंकार कर दें।
आयत 1 से लेकर 40 तक हज़रत यहया और ईसा का क़िस्सा सुनाने के बाद फिर इससे आगे की आयतों में समय के हालात को देखते हुए हज़रत इबाहीम (अलैहि०) का किस्सा सुनाया गया है, क्योंकि ऐसे ही हालात में वे भी अपने बाप और परिवार और देशवालों के अत्याचारों से तंग आकर वतन से निकल खड़े हुए थे। इससे एक ओर मक्का के विधर्मियों को यह शिक्षा दी गई है कि आज हिजरत करनेवाले मुसलमान इबाहीम (अलैहि०) की पोजीशन में हैं और तुम लोग उन ज़ालिमों की स्थिति में हो जिन्होंने उनको घर से निकाला था। दूसरी ओर मुहाजिरों को यह शुभ-सूचना दी गई है कि जिस तरह इब्राहीम (अलैहि०) वतन से निकलकर नष्ट न हुए, बल्कि और अधिक उच्च पद पर आसीन हो गए, ऐसा ही भला अंजाम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।
इसके बाद नबियों का उल्लेख किया गया है, जिसमें यह बताना अभिप्रेत है कि तमाम नबी वही दीन लेकर आए थे जो मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं। मगर नबियों के गुज़र जाने के बाद उनकी उम्मतें बिगड़ती रही है और आज अलग-अलग उम्मतों (समुदायो) में जो गुमराहियाँ पाई जा रही हैं, ये उसी बिगाड़ का फल हैं।
आयत 67 से अन्त तक मक्का के इस्लाम-शत्रुओं की पथभ्रष्टता की कड़ी आलोचना की गई है और कलाम (वाणी) समाप्त करते हुए ईमानवालों को शुभ-सूचना सुनाई गई है कि सत्य के शत्रुओं की सारी कोशिशों के बावजूद अन्तत: तुम लोकप्रिय बनकर रहोगे।
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