Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

يَكَادُ ٱلۡبَرۡقُ يَخۡطَفُ أَبۡصَٰرَهُمۡۖ كُلَّمَآ أَضَآءَ لَهُم مَّشَوۡاْ فِيهِ وَإِذَآ أَظۡلَمَ عَلَيۡهِمۡ قَامُواْۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَذَهَبَ بِسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ

2.सूरा अल-बक़रा

(मदीना में उतरी, आयतें 286)

परिचय

नाम और नाम रखने का कारण

इस सूरा का नाम बक़रा इसलिए है कि इसमें एक जगह ‘बक़रा’ का उल्लेख हुआ है। अरबी भाषा में ‘बक़रा’ का अर्थ होता है - गाय । क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने व्यापक विषयों का उल्लेख हुआ है कि उनके लिए विषयानुसार व्यापक शीर्षक नहीं दिए जा सकते। इसलिए नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के मार्गदर्शन से क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के लिए विषयानुसार शीर्षक देने के बजाए नाम निश्चित किए हैं, जो केवल पहचान का काम देते हैं। इस सूरा को ‘बक़रा’ कहने का अर्थ यह नहीं है कि इसमें गाय की समस्या पर वार्ता की गई है, बल्कि इसका अर्थ केवल यह है कि 'वह सूरा जिसमें गाय का उल्लेख हुआ है’।

उतरने का समय

इस सूरा का अधिकतर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदीना वाली ज़िदंगी के बिल्कुल आरम्भ में उतरा है और बहुत कम हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और विषय की अनुकूलता की दृष्टि से इसमें शामिल कर दिया गया।

उतरने का कारण

इस सूरा को समझने के लिए पहले इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए-

1. हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, संबोधन अधिकतर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिए इस्लाम की आवाज़ एक नई और अनजानी आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता यहूदियों से पड़ा। ये यहूदी लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वह्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों को मानते थे और सैद्धांतिक रूप में उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था, जिसकी शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों से होनेवाले निरंतर पतन ने उनको असल धर्म (मूसा-धर्म) से बहुत दूर हटा दिया था। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे, तो अल्लाह ने आपको निर्देश दिया कि उनको असल धर्म की ओर बुलाएँ । अत: इस सूरा बक़रा की आरंभिक 141 आयतें इसी आह्वान पर आधारित हैं।

2. मदीना पहुँचकर इस्लामी आह्वान एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था। मक्का में तो मामला केवल धर्म की बुनियादी बातों के प्रचार और धर्म अपनानेवालों के नैतिक प्रशिक्षण तक सीमित था, लेकिन जब हिजरत के बाद मदीने में एक छोटे-से इस्लामी स्टेट की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, क़ानून और राजनीति के बारे में भी मूल निर्देश देने शुरू किए और यह बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर यह नई जीवन-व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? यह सूरा आयत 142 से लेकर अंत तक इन्हीं निर्देशों पर आधारित है।

3. हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की ओर स्वयं उन्हीं के घर में (अर्थात् मक्का में) बुलाया जाता रहा और विभिन्न क़बीलों में से जो लोग इस्लाम ग्रहण करते थे, वे अपनी-अपनी जगह रहकर ही धर्म का प्रचार करते और जवाब में अत्याचारों और मुसीबतों को झेलते रहते थे, किन्तु हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटा-सा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो स्थिति यह हो गई कि एक ओर एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी ओर तमाम अरब उसकी जड़ें काट देने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी-भर लोगों के गिरोह की सफलता का ही नहीं, बल्कि उसका अस्तित्व और स्थायित्व इस बात पर निर्भर था कि एक तो वह पूरे उत्साह के साथ अपने दृष्टिकोण का प्रचार करके अधिक-से-अधिक लोगों को अपने विचारों का माननेवाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वह विरोधियों का असत्य पर होना इस तरह प्रमाणित और पूरी तरह स्पष्ट कर दे कि किसी भी सोचने-समझनेवाले व्यक्ति को उसमें संदेह न रहे। तीसरे यह कि जिन ख़तरों में वे चारों ओर से घिर गए थे, उनमें वे हताश न हो, बल्कि पूरे धैर्य और जमाव के साथ उन परिस्थितियों का मुक़ाबला करें। चौथे यह कि वे पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबन्द अवरोध का सशस्त्र मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो जाएँ, जो उनके आह्वान को विफल बनाने के लिए किसी ताक़त की ओर से किया जाए। पाँचवें, उनमें इतना साहस पैदा किया जाए कि अगर अरब के लोग इस नई व्यवस्था को, जो इस्लाम स्थापित करना चाहता है, समझाने-बुझाने से न अपनाएँ, तो उन्हें अज्ञान की दूषित जीवन-व्यवस्था को शक्ति से मिटा देने में भी संकोच न हो। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में आरंभिक निर्देश दिए हैं।

4. इस्लामी आह्वान के इस चरण में एक नया गिरोह भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का गिरोह था। यद्यपि निफ़ाक़ (कपटाचार) के आरंभिक लक्षण मक्का के आखिरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, लेकिन वहाँ केवल इस प्रकार के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पाए जाते थे, जो इस्लाम के हक़ (सत्य) होने को तो मानते थे और ईमान का इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिए [किसी प्रकार की कु़रबानी देने के लिए] तैयार न थे। मदीना पहुँचकर इस प्रकार के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और प्रकार के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी गिरोह में पाए जाने लगे [इसलिए उनके बारे में भी निर्देशों का आना ज़रूरी हुआ]।

सूरा बक़रा के उतरने के समय इन विभिन्न प्रकार के मुनाफ़िक़ों के प्रादुर्भाव का केवल आरंभ था, इसलिए अल्लाह ने उनकी ओर केवल संक्षिप्त संकेत किए हैं। बाद में जितनी-जितनी उनकी विशेषताएँ और हरकतें सामने आती गईं, उतने ही विस्तार के साथ बाद की सूरतों में हर प्रकार के मुनाफ़िकों के बारे में उनकी श्रेणियों के अनुसार अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।

 

---------------------

يَكَادُ ٱلۡبَرۡقُ يَخۡطَفُ أَبۡصَٰرَهُمۡۖ كُلَّمَآ أَضَآءَ لَهُم مَّشَوۡاْ فِيهِ وَإِذَآ أَظۡلَمَ عَلَيۡهِمۡ قَامُواْۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَذَهَبَ بِسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 1
(20) चमक से इनकी हालत ये हो रही कि गोया अनक़रीब बिजली इनकी बसारत उचक ले जाएगी। जब ज़रा-सी रौशनी इनकी महसूस होती है, तो उसमें कुछ दूर चल लेते हैं और जब इनपर अंधेरा छा जाता है तो खड़े हो जाते हैं।7 —अल्लाह चाहता तो इनकी समाअत और बसारत बिलकुल सल्ब कर लेता, यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।
7. पहली मिसाल उन मुनाफ़िक़ीन की थी जो दिल में क़तई मुनकिर थे और किसी ग़रज़ व मस्लहत से मुसलमान बन गए थे। और यह दूसरी मिसाल उनकी है जो शक, तज़बज़ुब और ज़ोफ़े-ईमान में मुब्तला थे, कुछ हक़ के क़ायल भी थे, मगर ऐसी हक़परस्ती के कायल न थे कि उसकी ख़ातिर तकलीफ़ों और मुसीबतों को भी बरदाश्त कर जाएँ।
الٓمٓ
(1) अलिफ़ लाम० मीम०1
1. ये हुरूफ़े-मुक़त्तआत क़ुरआन मजीद की बाज़ सूरतों के आगाज़ में पाए जाते हैं। मुफ़स्सिरीन ने इनके मुख़्तलिफ़ मानी बयान किए हैं, मगर इनके किसी मानी पर इत्तिफ़ाक़ नहीं है। और इनके मानी का जानना इसलिए ग़ैर-ज़रूरी है कि अगर इन्हें आदमी न जाने तो क़ुरआन से हिदायत हासिल करने में कोई कसर नहीं रह जाती।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ لَكُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ فَسَوَّىٰهُنَّ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖۚ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 2
(29) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन कि सारी चीज़ें पैदा कीं, फिर ऊपर कि तरफ़ तवज्जुह फ़रमाई और सात आसमान15 उसतुवार किए। और वह हर चीज़ का इल्म रखनेवाला है।
15. सात आसमानों की हक़ीक़त क्या है, इसका तअय्युन मुशकिल है। इनसान हर ज़माने में आसमान या ब-अलफ़ाजे-दीगर आलमे-बाला के मुताल्लिक़ अपने मुशाहदात या क़ियासात के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात क़ायम करता रहा है, जो बराबर बदलते रहे हैं। बस मुज्मलन इतना समझ लेना चाहिए कि या तो इससे मुराद यह है कि ज़मीन से मा-वरा जिस क़द्र कायनात है, उसे अल्लाह ने सात मुहकम तबक़ों में तक़सीम कर रखा है, या यह कि ज़मीन इस कायनात के जिस हिस्से में वाक़े है, वह सात तबक़ों पर मुश्तमिल है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 3
(21) लोगो! बंदगी इख़्तियार करो अपने रब की जो तुम्हारा और तुम से पहले जो लोग हो गुज़रे हैं उन सबका ख़ालिक़ है, तुम्हारे बचने की तवक़्क़ो8 इसी सूरत से हो सकती है।
8. यानी दुनिया में ग़लतबीनी और ग़लतकारी से और आख़िरत में खुदा के अज़ाब बचने की तवक़्क़ो।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ فِرَٰشٗا وَٱلسَّمَآءَ بِنَآءٗ وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجَ بِهِۦ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ رِزۡقٗا لَّكُمۡۖ فَلَا تَجۡعَلُواْ لِلَّهِ أَندَادٗا وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 4
(22) वही है तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन का फ़र्श बिछाया, आसमान की छत बनाई, ऊपर से पानी बरसाया और उसके ज़रिये से हर तरह की पैदावार निकालकर तुम्हारे लिए रिज़्क़ बहम पहुँचाया। पस जब तुम ये जानते हो तो दूसरों को अल्लाह का मद्दे-मुक़ाबिल न ठहराओ।9
9. दूसरों को अल्लाह का मद्दे-मुक़ाबिल ठहराने से मुराद यह है कि बन्दगी व इबादत की मुख़्तलिफ़ अक़साम में से किसी क़िस्म का रवैया ख़ुदा के सिवा दूसरों के साथ बरता जाए।
ذَٰلِكَ ٱلۡكِتَٰبُ لَا رَيۡبَۛ فِيهِۛ هُدٗى لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 5
(2) यह अल्लाह कि किताब है इसमेंं कोई शक नहीं। हिदायत है उन पहरेज़गार लोगों के लिए
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي جَاعِلٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ خَلِيفَةٗۖ قَالُوٓاْ أَتَجۡعَلُ فِيهَا مَن يُفۡسِدُ فِيهَا وَيَسۡفِكُ ٱلدِّمَآءَ وَنَحۡنُ نُسَبِّحُ بِحَمۡدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَۖ قَالَ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 6
(30) फिर ज़रा उस वक़्त का तसव्वुर करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा था कि “मैं ज़मीन में एक ख़लीफ़ा16 बनानेवाला हूँ”। उन्होंने अर्ज़ किया ,“क्या आप ज़मीन में किसी ऐसे को मुक़र्रर करनेवाले हैं जो उसके इन्तिज़ाम को बिगाड़ देगा और खूँरेज़ियाँ करेगा? आपकी हम्द व सना के साथ तसबीह और आपकी तसबीह तो हम कर ही रहे हैं”। फ़रमाया,“जो मैं जनता हूँ जो कुछ तुम नहीं जानते”।
16. ख़लीफ़ा : वह जो किसी की मिल्क में उसके अता करदा इख़्तियारात उसके नायब की हैसियत से इस्तेमाल करे।
ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡغَيۡبِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 7
(3) जो ग़ैब2 पर ईमान लाते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं,3 जो रिज़्क़ हमने उनको दिया है, उसमें से ख़र्च करते हैं,
2. 'ग़ैब' से मुराद वे हक़ीक़तें हैं जो इनसान के हवास से पोशीदा हैं और कभी बराहे-रास्त आम इनसानों के तजरिबे व मुशाहदे में नहीं आतीं। मसलन-ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात, मलाइका, वह्य, जन्नत, दोज़ख़ वग़ैरा।
3. 'इक़ामते-सलात' के मानी सिर्फ़ यही नहीं हैं कि आदमी पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करे, बल्कि इसका मतलब यह है कि इज्तिमाई तौर पर नमाज़ का निज़ाम बाक़ायदा क़ायम किया जाए। अगर किसी बस्ती में एक-एक शख़्स इनफ़िरादी तौर पर नमाज़ का पाबन्द हो, लेकिन जमाअत के साथ इस फ़र्ज़ के अदा करने का नज़्म न हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ नमाज़ क़ायम की जा रही है।
وَإِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّمَّا نَزَّلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا فَأۡتُواْ بِسُورَةٖ مِّن مِّثۡلِهِۦ وَٱدۡعُواْ شُهَدَآءَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 8
(23) और अगर तुम्हें इस अम्र में शक है कि ये किताब जो हमने अपने बंदे पर उतारी है, ये हमारी है या नहीं, तो इसके मानिंद एक ही सूरा लाओ, अपने सारे हम-नवाओं को बुला लो, एक अल्लाह को छोड़कर कर बाक़ी जिसकी मदद चाहो ले लो, अगर तुम सच्चे हो तो ये काम करके दिखाओ।
وَعَلَّمَ ءَادَمَ ٱلۡأَسۡمَآءَ كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَهُمۡ عَلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ فَقَالَ أَنۢبِـُٔونِي بِأَسۡمَآءِ هَٰٓؤُلَآءِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 9
(31) इसके बाद अल्लाह ने आदम को सारी चीज़ों के नाम सिखाए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और फ़रमाया, अगर तुम्हारा ख़याल सही है (कि किसी ख़लीफ़ा के तक़रुर्र से इन्तिज़ाम बिगड़ जाएगा) तो ज़रा इन चीज़ों के नाम बताओ”।
وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ وَبِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ ۝ 10
(4) जो किताब तुम पर नाज़िल की गई है (यानी क़ुरआन) और जो किताबें तुम से पहले नाज़िल की गयी थीं उन सब पर ईमान लाते हैं, और आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं।
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ لَا عِلۡمَ لَنَآ إِلَّا مَا عَلَّمۡتَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 11
(32) उन्होंने अर्ज़ किया, “नक़्स से पाक तो आप ही कि ज़ात है, हम तो बस उतना ही इल्म रखते हैं, जितना आपने हमको दिया है। हक़ीक़त में सब कुछ जानने और समझनेवाला आपके सिवा कोई नही”।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَىٰ هُدٗى مِّن رَّبِّهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 12
(5) ऐसे लोग अपने रब की तरफ़ से राहे रास्त पर हैं और वही फ़लाह पानेवाले हैं।
قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ أَنۢبِئۡهُم بِأَسۡمَآئِهِمۡۖ فَلَمَّآ أَنۢبَأَهُم بِأَسۡمَآئِهِمۡ قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ غَيۡبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَأَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا كُنتُمۡ تَكۡتُمُونَ ۝ 13
(33) फिर अल्लाह ने आदम से कहा,“तुम इन्हें इन चीज़ों के नाम बताओ”। जब उसने उन सब चीज़ों के नाम बता दिये तो अल्लाह ने फ़रमाया, मैंने तुमसे कहा न था कि मैं ज़मीनों और आसमान की सारी हक़ीक़तें जनता हूँ जो तुमसे मख़फ़ी हैं, जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो वो भी मुझे मालूम है और जो कुछ छिपाते हो उसे भी मैं जनता हूँ”।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 14
(6) जिन लोगों ने (इनबातों को तस्लीम करने से) इंकार कर दिया, उनके लिए यकसाँ हैं, ख़ाह तुम उन्हें ख़बरदार करो या न करो, बहरहाल वे माननेवाले नहीं हैं।
فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ وَلَن تَفۡعَلُواْ فَٱتَّقُواْ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي وَقُودُهَا ٱلنَّاسُ وَٱلۡحِجَارَةُۖ أُعِدَّتۡ لِلۡكَٰفِرِينَ ۝ 15
(24) लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, और यक़ीनन कभी नहीं कर सकते, तो डरो उस आग से जिसका ईंधन बनेगे इंसान और पत्थर,10 जो मुहैया के गई है मुनकिरीने-हक़ के लिए।
10. यानी वहाँ सिर्फ़ तुम ही दोज़ख़ का ईंधन न बनोगे, बल्कि तुम्हारे वे बुत भी वहाँ तुम्हारे साथ ही मौजूद होंगे जिन्हें तुमने अपना माबूदो-मसजूद बना रखा है।
وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ كُلَّمَا رُزِقُواْ مِنۡهَا مِن ثَمَرَةٖ رِّزۡقٗا قَالُواْ هَٰذَا ٱلَّذِي رُزِقۡنَا مِن قَبۡلُۖ وَأُتُواْ بِهِۦ مُتَشَٰبِهٗاۖ وَلَهُمۡ فِيهَآ أَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞۖ وَهُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 16
(25) और (ऐ पैग़म्बर!) जो लोग इस किताब पर ईमान ले आए और (इसके मुताबिक़) अपने आमाल दुरुस्त कर लें, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो कि उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती होती होंगी। उन बाग़ों की सूरत दुनिया के फलों से मिलते जुलते होंगे। जब कोई फल उन्हें खाने को दिया जाएगा तो वे कहेंगे कि ऐसे फल हमको दुनिया में दिये जाते थे। उनके लिए वहाँ पाकीज़ा बीवियाँ होंगी, और वे वहाँ हमेशा रहेंगे।
۞إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَسۡتَحۡيِۦٓ أَن يَضۡرِبَ مَثَلٗا مَّا بَعُوضَةٗ فَمَا فَوۡقَهَاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَيَقُولُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۘ يُضِلُّ بِهِۦ كَثِيرٗا وَيَهۡدِي بِهِۦ كَثِيرٗاۚ وَمَا يُضِلُّ بِهِۦٓ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 17
(26) हाँ, अल्लाह इससे हरगिज़ नहीं शरमाता कि मछर या इससे भी हक़ीरतर किसी चीज़ की तमसीलें दे11। जो लोग हक़ बात को क़ुबूल करनेवाले हैं, वे इन ही तमसीलों को देखकर जान लेते हैं कि ये हक़ है जो उनके रब कि तरफ़ से आया है, और जो मामनेवाले नहीं हैं, वे इन्हें सुनकर कहने लगते हैं कि ऐसी तमसीलों से अल्लाह को क्या सरोकार? इस तरह अल्लाह एक ही बात से बहुतों को गुमराही में मुब्तला कर देता है और बहुतों को राहे-रास्त दिखा देता है। और इससे वो गुमराही में उन्हीं को मुब्तला करता है जो फ़ासिक़ हैं,12
11. यहाँ एक एतिराज़ का ज़िक्र किए बग़ैर उसका जवाब दिया गया है। क़ुरआन में मुतअद्दिद मक़ामात पर तौजीहे-मुद्दआ के लिए मकड़ी, मक्खी, मच्छर वग़ैरा की जो तमसीलें दी गई हैं, उनपर मुख़ालिफ़ीन को एतिराज़ था कि यह कैसा कलामे-इलाही है जिसमें ऐसी हक़ीर चीज़ों की तमसीलें दी गई हैं।
12. फ़ासिक के मानी है नाफ़रमान, इताअत की हद से निकल जानेवाला।
ٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 18
(27) अल्लाह के अहद को मजबूत बाँध लेने के बाद तोड़ देते हैं,13 अल्लाह ने जिसे तोड़ने का हुकम दिया है उसे काटते हैं14 और ज़मीन में फ़साद बरपा करते हैं। हक़ीक़त में यही लोग नुक़सान उठाने वाले हैं।
13. बादशाह अपने मुलाज़िमों और रिआया के नाम जो फ़रमान या हिदायात जारी करता है, उनको अरबी ज़बान में अहद से ताबीर किया जाता है। अल्लाह के अहद से मुराद उसका वह मुस्तक़िल फ़रमान है जिसकी रू से तमाम नौए-इनसानी सिर्फ़ उसी की बन्दगी, इताअत और परस्तिश करने पर मामूर है। "मज़बूत बाँध लेने के बाद" से इशारा इस तरफ़ है कि आदम की तख़लीक़ के वक़्त तमाम नौए-इनसानी से इस फ़रमान की पाबन्दी का इक़रार ले लिया गया था जैसा कि सूरा 7 आराफ़, आयत 172 में बयान हुआ है।
14. यानी जिन रवाबित के क़ियाम और इस्तेहकाम पर इनसान की इज्तिमाई व इनफ़िरादी फ़लाह का इनहिसार है, और जिन्हें दुरुस्त रखने का अल्लाह ने हुक्म दिया है, उनपर ये लोग तेशा चलाते हैं।
كَيۡفَ تَكۡفُرُونَ بِٱللَّهِ وَكُنتُمۡ أَمۡوَٰتٗا فَأَحۡيَٰكُمۡۖ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 19
(28) तुम अल्लाह के साथ कुफ़्र का रवैया कैसे इख़्तियार करते हो, हालाँकि तुम बेजान थे, उसने तुमको ज़िंदगी अता की, फिर वही तुम्हारी जान सल्ब करेगा, फिर वही तुम्हें दोबारा ज़िंदगी आता करेगा, फिर उसी कि तरफ़ तुम्हें पलटकर जाना है।
۞أَتَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبِرِّ وَتَنسَوۡنَ أَنفُسَكُمۡ وَأَنتُمۡ تَتۡلُونَ ٱلۡكِتَٰبَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 20
(44) तुम दूसरों को तो नेकी का रास्ता इख़्तियार करने के लिए कहते हो, मगर अपने आप को भूल जाते हो? हालाँकि तुम किताब कि तिलावत करते हो। क्या तुम अक़्ल से बिलकुल ही काम नहीं लेते?
وَٱسۡتَعِينُواْ بِٱلصَّبۡرِ وَٱلصَّلَوٰةِۚ وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلَّا عَلَى ٱلۡخَٰشِعِينَ ۝ 21
(45) सब्र और नमाज़ से मदद लो, बेशक़ नमाज़ एक सख़्त मुशकिल काम है मगर उन फ़रमाँबरदार बंदों के लिए मुशकिल नहीं
ٱلَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَٰقُواْ رَبِّهِمۡ وَأَنَّهُمۡ إِلَيۡهِ رَٰجِعُونَ ۝ 22
(46) जो समझते हैं आख़िरकार उन्हें अपने रब से मिलना और उसी की तरफ़ पलट कर जाना है।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَنِّي فَضَّلۡتُكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 23
(47) ऐ बनी-इसराईल! याद करो मेरी उस नेमत को, जिससे मैंने तुम्हें नवाज़ा था और इस बात को कि दुनिया की सारी क़ौमों पर फ़ज़ीलत आता की थी।19
19. इसका यह मतलब नहीं है कि हमेशा के लिए तुम्हें तमाम दुनिया की क़ौमों से अफ़ज़ल क़रार दिया था, बल्कि मतलब यह है कि एक वक़्त था जब दुनिया की क़ौमों में तुम ही वह एक क़ौम थे जिसके पास अल्लाह का दिया हुआ इल्मे-हक़ था और जिसे अक़्वामे-आलम का इमामो-रहनुमा बना दिया गया था, ताकि वह बन्दगी-ए-रब के रास्ते पर सब क़ौमों को बुलाए और चलाए।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا لَّا تَجۡزِي نَفۡسٌ عَن نَّفۡسٖ شَيۡـٔٗا وَلَا يُقۡبَلُ مِنۡهَا شَفَٰعَةٞ وَلَا يُؤۡخَذُ مِنۡهَا عَدۡلٞ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 24
(48) और डरो उस दिन से जब कोई किसी के ज़रा काम न आयेगा, न किसी की तरफ़ से सिफ़ारिश क़ुबूल होगी, न किसी को फ़िदया लेकर छोड़ा जाएगा और न मुजरिमों को कहीं से मदद मिल सकेगी।
وَإِذۡ نَجَّيۡنَٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 25
(49) याद करो वह वक़्त, जब हमने तुमको फ़िरऔनियों20 की ग़ुलामी से नजात बख़्शी— उन्होंने जब तुम्हें सख़्त अज़ाब में मुब्तला कर रखा था, तुम्हारे लड़कों को ज़बह करते थे और तुम्हारी लड़कियों को ज़िंदा रहने देते थे और इस हालत में तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।
20. 'आले-फ़िरऔन' का तर्जमा हमने इस लफ़्ज़ से किया है। इसमेंं ख़ानदाने-फ़राइना और मिस्र का हुक्मराँ तबक़ा दोनों शामिल हैं।
وَإِذۡ فَرَقۡنَا بِكُمُ ٱلۡبَحۡرَ فَأَنجَيۡنَٰكُمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 26
(50) याद करो वह वक़्त, जब हमने समुंदर फाड़कर तुम्हारे लिए रास्ता बनाया, फ़िर उसमे तुम्हें बख़ैरियत गुज़रवा दिया, फ़िर वहीं तुम्हारी आखों के सामने फ़िरऔनियों को ग़रक़ाब किया।
وَإِذۡ وَٰعَدۡنَا مُوسَىٰٓ أَرۡبَعِينَ لَيۡلَةٗ ثُمَّ ٱتَّخَذۡتُمُ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَنتُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 27
(51) याद करो जब हमने मूसा को चालीस शबाना रोज़ की क़रारदाद पर बुलाया,21 तो उसके पीछे तुम बछड़े को अपना माबूद बना बैठे। उस वक़्त तुमने बड़ी ज़्यादती की थी,
21. यानी मिस्र से नजात पाने के बाद जब बनी-इसराईल जज़ीरा नुमा-ए-सीना में पहुँच गए तो हज़रत मूसा (अलै०) को अल्लाह तआला ने चालीस शब व रोज़ के लिए कोहे-तूर पर तलब फ़रमाया ताकि वहाँ इस क़ौम के लिए, जो अब आज़ाद हो चुकी थी, क़वानीने-शरीअत और अमली ज़िन्दगी की हिदायात अता की जाएँ।
ثُمَّ عَفَوۡنَا عَنكُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 28
(52) मगर इसपर भी हमने तुम्हें माफ़ कर दिया था कि शायद अब तुम शुक्रगुज़ार बनो।
وَإِذۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡفُرۡقَانَ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 29
(53) याद करो कि (ठीक उस वक़्त जब तुम यह ज़ुल्म कर रहे थे) हमने मूसा को किताब और फ़ुरक़ान22 अता की ताकि तुम उसके ज़रिये सीधा रास्ता पा सको।
22. फ़ुरक़ान से मुराद है वह चीज़ जिसके ज़रिए से हक़ और बातिल का फ़र्क़ नुमायाँ हो यानी दीन का वह इल्म और फ़हम जिससे आदमी हक़ और बातिल की तमीज़ करता है।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰ وَٱسۡتَكۡبَرَ وَكَانَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 30
(34) फिर जब हमने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के आगे झुक जाओ, तो सब झुक गए, मगर इबलीस ने इनकार किया। वो अपनी बड़ाई कि घमंड में पड़ गया और नाफ़रमानों में शामिल हो गया।
وَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ ٱسۡكُنۡ أَنتَ وَزَوۡجُكَ ٱلۡجَنَّةَ وَكُلَا مِنۡهَا رَغَدًا حَيۡثُ شِئۡتُمَا وَلَا تَقۡرَبَا هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 31
(35) फिर हमने आदम से कहा “तुम और तुम्हारी बीवी, दोनों जन्नत में रहो और यहाँ ब-फ़राग़त जो चाहो खाओ, मगर इस दरख़्त का रुख़ न करना, वरना ज़ालिमों में शुमार होगे”।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِنَّكُمۡ ظَلَمۡتُمۡ أَنفُسَكُم بِٱتِّخَاذِكُمُ ٱلۡعِجۡلَ فَتُوبُوٓاْ إِلَىٰ بَارِئِكُمۡ فَٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ عِندَ بَارِئِكُمۡ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 32
(54) याद करो जब मूसा (यह नेमत लिए हुए पलटा, तो उस) ने अपनी क़ौम से कहा “लोगो! तुमने बछड़े को माबूद बनाकर अपने ऊपर सख़्त ज़ुल्म किया है, लिहाज़ा तुम लोग अपने ख़ालिक़ के हुज़ूर तौबा करो और अपनी जानों को हलाक करो23, इसी में तुम्हारे ख़ालिक़ के नज़दीक तुम्हारी बेहतरी है”। उस वक़्त तुम्हारे ख़ालिक़ ने तुम्हारी तौबा क़ुबूल कर ली कि वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
23. यानी अपने उन आदमियों को क़त्ल करो जिन्होंने गौसाले (बछड़े) को माबूद बनाया और उसकी परस्तिश की।
فَأَزَلَّهُمَا ٱلشَّيۡطَٰنُ عَنۡهَا فَأَخۡرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِۖ وَقُلۡنَا ٱهۡبِطُواْ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ وَلَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُسۡتَقَرّٞ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 33
(36) आख़िरकार शैतान ने उन दोनों को उस दरख़्त की तरग़ीब देकर हमारे हुक्म की पैरवी से हटा दिया और उन्हें उस हालात से निकलवाकर छोड़ा जिसमें वे थे। हमने हुक्म दिया कि “अब तुम यहाँ से उतर जाओ, और तुम एक दूसरे के दुश्मन हो और तुम्हें एक ख़ास वक़्त तक ज़मीन में ठहरना और वहीं गुज़र-बसर करना है”।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نُّؤۡمِنَ لَكَ حَتَّىٰ نَرَى ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡكُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 34
(55) याद करो जब तुमने मूसा से कहा था कि तुम्हारे कहने का हरगिज़ यक़ीन न करेंगे, जब तक कि अपनी आखों से खुले तौर पर (अल्लाह को तुमसे बातें करते) न देख लें। उस वक़्त तुम्हारे देखते-देखते एक ज़बरदस्त कड़ाके ने तुमको आ लिया।
فَتَلَقَّىٰٓ ءَادَمُ مِن رَّبِّهِۦ كَلِمَٰتٖ فَتَابَ عَلَيۡهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 35
(37) उस वक़्त आदम ने अपने रब से चंद कलिमात सीखकर तौबा की, जिसको उसके रब ने क़ुबूल कर लिया, क्योंकि बड़ा माफ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
ثُمَّ بَعَثۡنَٰكُم مِّنۢ بَعۡدِ مَوۡتِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 36
(56) तुम बेजान होकर गिर चुके थे, मगर फिर हमने तुमको जिला उठाया, शायद कि इस एहसान के बाद तुम शुक्रगुज़ार बन जाओ।
قُلۡنَا ٱهۡبِطُواْ مِنۡهَا جَمِيعٗاۖ فَإِمَّا يَأۡتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدٗى فَمَن تَبِعَ هُدَايَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 37
(38) हमने कहा कि “तुम सब यहाँ से उतर जाओ। फिर जो मेरी तरफ़ से कोई हिदायत तुम्हारे पास पहुँचे, तो जो लोग मेरे हिदायत की पैरवी करेंगे उनके लिए किसी डर और ख़ौफ़ का मौक़ा न होगा,
وَظَلَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡغَمَامَ وَأَنزَلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰۖ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡۚ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 38
(57) हमने तुमपर अब्र का साया किया, ‘मन्न व सलवा’ कि ग़िजा तुम्हारे लिए फ़राहम की और तुमसे कहा जो पाक चीज़ें हमने तुम्हें बख़्शी हैं, उन्हें खाओ, (मगर तुम्हारे असलाफ़ ने जो कुछ किया) वह हमपर उनका ज़ुल्म न था, बल्कि उन्होंने आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म किया।
وَإِذۡ قُلۡنَا ٱدۡخُلُواْ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةَ فَكُلُواْ مِنۡهَا حَيۡثُ شِئۡتُمۡ رَغَدٗا وَٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا وَقُولُواْ حِطَّةٞ نَّغۡفِرۡ لَكُمۡ خَطَٰيَٰكُمۡۚ وَسَنَزِيدُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 39
(58) फिर याद करो जब हमने कहा था कि “यह बस्ती (जो तुम्हारे सामने है) इसमें दाख़िल हो जाओ, इसकी पैदावार जिस तरह चाहो मज़े से खाओ, मगर बस्ती के दरवाज़े में सजदारेज़ होते हुए दाख़िल होना और कहते जाना, ‘हितत्तुन, हितत्तुन’24, हम तुम्हारी ख़ताओं से दरगुज़र करेंगे और नेकेकारों को मज़ीद फ़ज़्लो-करम से नवाज़ेंगे”।
24. 'हित्ततुन' के दो मतलब हो सकते हैं— एक यह कि ख़ुदा से अपनी ख़ताओं की माफ़ी माँगते हुए जाना, दूसरे यह कि लूटमार और क़त्ले-आम के बजाय बस्ती के बाशिन्दों में दरगुज़र और आम माफ़ी का एलान करते जाना।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 40
(39) और जो उसे क़ुबूल करने से इनकार करेंगे और हमारी आयात को झुठलाएँगे, वे आग में जानेवाले हैं, और जहाँ वो हमेशा रहेंगे।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَوۡفُواْ بِعَهۡدِيٓ أُوفِ بِعَهۡدِكُمۡ وَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ ۝ 41
(40) ऐ बनी-इसराईल!17, जरा ख़याल करो मेरी उस नेमत का जो मैंने तुमको आता की थी। मेरे साथ तुम्हारा जो अहद था उसे तुम पूरा करो तो मेरा जो अहद तुम्हारे साथ था उसे मैं पूरा करूँ, और मुझ ही से तुम डरो।
17. मदीना तय्यिबा और उसके क़रीब के इलाक़े में चूँकि यहूदियों की बड़ी तादाद आबाद थी इसलिए यहाँ से आगे कई रुकूओं तक उनको मुख़ातब करके तबलीग़ की गई है।
وَءَامِنُواْ بِمَآ أَنزَلۡتُ مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَكُمۡ وَلَا تَكُونُوٓاْ أَوَّلَ كَافِرِۭ بِهِۦۖ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗا وَإِيَّٰيَ فَٱتَّقُونِ ۝ 42
(41) और मैंने जो किताब भेजी है उस पर ईमान लाओ। यह उस किताब कि ताईद में है जो तुम्हारे पास पहले से मौजूद थी, लिहाज़ा सबसे पहले तुम ही उनके मुनकिर न बन जाओ। थोड़ी क़ीमत पर मेरी आयात को न बेच डालो18 और मेरे ग़ज़ब से बचो।
18. थोड़ी क़ीमत से मुराद वे दुनियवी फ़ायदे हैं जिनकी ख़ातिर ये लोग अल्लाह के अहकाम और उसकी हिदायात को रद्द कर रहे थे। हक़-फ़रोशी के मुआवज़े में ख़ाह इनसान दुनिया-भर की दौलत ले ले, बहरहाल वह थोड़ी क़ीमत ही है, क्योंकि हक़ यक़ीनन उससे गिराँ-तर चीज़ है।
فَبَدَّلَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ قَوۡلًا غَيۡرَ ٱلَّذِي قِيلَ لَهُمۡ فَأَنزَلۡنَا عَلَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 43
(59) मगर जो बात उनसे कही गयी थी, ज़ालिमों ने उसे बदलकर कुछ और कर दिया। आख़िरकार हमने ज़ुल्म करनेवालों पर आसमान से अज़ाब नाज़िल किया। यह सज़ा थी उन नाफ़रमानियों की जो वे कर रहे थे।
وَلَا تَلۡبِسُواْ ٱلۡحَقَّ بِٱلۡبَٰطِلِ وَتَكۡتُمُواْ ٱلۡحَقَّ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 44
(42) बातिल का रंग चढ़ाकर हक़ का मुश्तबह न बनाओ और न जानते बूझते हक़ को छिपाने की कोशिश करो।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱرۡكَعُواْ مَعَ ٱلرَّٰكِعِينَ ۝ 45
(43) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और जो लोग मेरे आगे झुक रहे हैं उनके साथ तुम भी झुक जाओ।
۞وَإِذِ ٱسۡتَسۡقَىٰ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ فَقُلۡنَا ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡحَجَرَۖ فَٱنفَجَرَتۡ مِنۡهُ ٱثۡنَتَا عَشۡرَةَ عَيۡنٗاۖ قَدۡ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٖ مَّشۡرَبَهُمۡۖ كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ مِن رِّزۡقِ ٱللَّهِ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 46
(60) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिए पानी कि दुआ कि तो हमने कहा कि फ़ुलाँ चट्टान पर अपना असा मारो। चुनाँचे उससे बारह चश्मे फूट निकले और हर क़बीले ने जान लिया कि कौन-कौन सी जगह उसके पानी लेने की है25। (उस वक़्त ये हिदायत कर दी गयी थी कि) अल्लाह का दिया हुआ रिज़्क़ खाओ और ज़मीन में फ़साद न फैलाते फिरो।
25. बनी-इसराईल के क़बीले 12 थे। ख़ुदा ने हर एक क़बीले के लिए अलग चश्मा निकाल दिया ताकि उनके दरमियान पानी पर झगड़ा न हो।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نَّصۡبِرَ عَلَىٰ طَعَامٖ وَٰحِدٖ فَٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُخۡرِجۡ لَنَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ مِنۢ بَقۡلِهَا وَقِثَّآئِهَا وَفُومِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَاۖ قَالَ أَتَسۡتَبۡدِلُونَ ٱلَّذِي هُوَ أَدۡنَىٰ بِٱلَّذِي هُوَ خَيۡرٌۚ ٱهۡبِطُواْ مِصۡرٗا فَإِنَّ لَكُم مَّا سَأَلۡتُمۡۗ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ وَٱلۡمَسۡكَنَةُ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 47
(61) याद करो जब तुमने कहा था, “ऐ मूसा! हम एक ही तरह के खाने पर सब्र नहीं कर सकते। अपने रब से दुआ करो कि हमरे लिए ज़मीन की पैदावार, साग तरकारी गेहूँ, लहसुन, प्याज़, दाल वग़ैरा पैदा करे”। तो मूसा ने कहा, “क्या एक बेहतरीन चीज़ के बजाए तुम एक अदना दर्जे की चीज़ लेना चाहते हो? अच्छा, किसी शहरी आबादी में जा रहो। जो तुम माँगते हो, वहाँ मिल जाएगा”। आख़िरकार नौबत यहाँ तक पहुँची थी कि ज़िल्लत व ख़ारी और पस्ती व बदहाली उनपर मुसल्लत हो गई और वे अल्लाह के ग़ज़ब में घिर गए। नतीजा ये हुआ कि वे अल्लाह की आयात से कुफ़्र करने लगे और पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल करने लगे। यह नतीजा था उनकी नफ़रमानियों का और इस बात का वे हुदूदे-शरअ से निकल-निकल जाते थे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 48
(62) यक़ीन जानो कि नबी-ए-अरबी को माननेवाले हों या यहूदी, ईसाई हों या साबी, जो भी अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा, उसका अज्र उसके रब के पास है और उसके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं26 है।
26. सिलसिला-ए-इबारत को पेशेनज़र रखने से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद वाज़ेह हो जाती है कि यहाँ ईमान और आमाले-सालिहा की तफ़सीलात बयान करना मक़सूद नहीं है कि किन-किन बातों को आदमी माने और क्या-क्या आमाल करे तो ख़ुदा के यहाँ अज्र का मुस्तहिक़ होगा। यहाँ तो यहूदियों के इस ज़ोमे-बातिल की तरदीद मक़सूद है कि वे सिर्फ़ यहूदी गरोह को नजात का इजारादार समझते थे और इस ख़याले-ख़ाम में मुब्तला थे कि जो उनके गरोह से ताल्लुक़ रखता है, वह ख़ाह आमाल व अक़ाइद के लिहाज़ से कैसा ही हो, बहरहाल नजात उसके लिए मुक़द्दर है, और बाक़ी तमाम इनसान जो उनके गरोह से बाहर हैं वे सिर्फ़ जहन्नम का ईंधन बनने के लिए पैदा हुए हैं। इस ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह के यहाँ अस्ल चीज़ तुम्हारी ये गरोहबन्दियाँ नहीं हैं, बल्कि वहाँ जो कुछ एतिबार है, वह ईमान और अमले-सॉलेह का है, जो इनसान भी यह चीज़ लेकर हाज़िर होगा वह अपने रब से अपना अज्र पाएगा। ख़ुदा के यहाँ फैसला आदमी की सिफ़ात पर होगा न कि तुम्हारी मरदुम शुमारी के रजिस्टरों पर।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ وَرَفَعۡنَا فَوۡقَكُمُ ٱلطُّورَ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱذۡكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 49
(63) याद करो वह वक़्त जब हमने तूर को तूमपर उठाकर तुमसे पुख़्ता अहद लिया था और कहा था कि “जो किताब हम तुम्हें दे रहें है उसे मज़बूती के साथ थामना और जो अहकाम और हिदायात इसमें दर्ज़ हैं उन्हें याद रखना। इसी ज़रिये से तवक़्क़ो की जा सकती है कि तुम तक़वा कि रविश पर चल सकोगे”।
ثُمَّ تَوَلَّيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۖ فَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَكُنتُم مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 50
(64) मगर इसके बाद तुम अपने अहद से फिर गए। इसपर भी अल्लाह के फ़ज़्ल और उसकी रहमत ने साथ न छोड़ा, वरना तुम कभी के तबाह हो चुके होते।
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلَّذِينَ ٱعۡتَدَوۡاْ مِنكُمۡ فِي ٱلسَّبۡتِ فَقُلۡنَا لَهُمۡ كُونُواْ قِرَدَةً خَٰسِـِٔينَ ۝ 51
(65) फिर तुम्हें अपनी क़ौम के उन लोगों का क़िस्सा मालूम ही है जिन्होंने ‘सब्त’27 का क़ानून तोड़ा था। हमने उन्हें कह दिया कि बंदर बन जाओ और इस हाल में रहो कि हर तरफ़ से तुमपर फटकार और धुत्कार पड़े।
27. सब्त, यानी हफ़्ते का दिन। बनी-इसराईल के लिए यह क़ानून मुक़र्रर किया गया था कि वे हफ़्ते को आराम और इबादत के लिए मख़सूस रखें। उस रोज़ किसी क़िस्म का दुनियवी काम, यहाँ तक कि खाना पकाने का काम भी न ख़ुद करें, न अपने ख़ादिमों से लें।
فَجَعَلۡنَٰهَا نَكَٰلٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهَا وَمَا خَلۡفَهَا وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 52
(66) इस तरह उनके अंजाम को उस ज़माने के लोगों और बाद की आनेवाली नस्लों के लिए इबरत और डरनेवालों के लिए नसीहत बनाकर छोड़ा।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَ إِنَّ ٱلۡبَقَرَ تَشَٰبَهَ عَلَيۡنَا وَإِنَّآ إِن شَآءَ ٱللَّهُ لَمُهۡتَدُونَ ۝ 53
(70) फिर बोले, “अपने रब से साफ़-साफ़ पूछकर बताओ कि कैसी गाय मतलूब है, हमे इसके तअय्युन में इश्तिबाह हो गया है। अल्लाह ने चाहा तो हम उसका पता पा लेंगे”।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦٓ إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تَذۡبَحُواْ بَقَرَةٗۖ قَالُوٓاْ أَتَتَّخِذُنَا هُزُوٗاۖ قَالَ أَعُوذُ بِٱللَّهِ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 54
(67) फिर वह वाक़िआ याद करो, जब मूसा ने अपनी क़ौम कहा कि “अल्लाह तुम्हें गाय ज़बह करने हुक़्म देता है” कहने लगे,“क्या तुम हमसे मज़ाक़ करते हो?” मूसा ने कहा,“मैं ख़ुदा की पनाह माँगता हूँ कि जाहिलों की-सी-बातें करूँ”।
قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا ذَلُولٞ تُثِيرُ ٱلۡأَرۡضَ وَلَا تَسۡقِي ٱلۡحَرۡثَ مُسَلَّمَةٞ لَّا شِيَةَ فِيهَاۚ قَالُواْ ٱلۡـَٰٔنَ جِئۡتَ بِٱلۡحَقِّۚ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 55
(71) मूसा ने जवाब दिया, “अल्लाह कहता है वह ऐसी गाय है जिससे ख़िदमत नहीं ली जाती, न ज़मीन जोतती है न पानी खींचती है, सही-सालिम और बेदाग़ है।” इसपर वे पुकार उठे कि “हाँ, अब तुमने ठीक पता बतया है।” फिर उन्होंने उसे ज़बह किया, वरना वे ऐसा कहते मालूम न होते थे।28
28. चूँकि बनी-इसराईल को अहले-मिस्र और अपनी हमसाया क़ौमों से गाय की अज़मत व तक़दीस और गावपरस्ती के मरज़ की छूत लग गई थी और इसी बिना पर उन्होंने मिस्र से निकलते ही बछड़े को माबूद बना लिया था, इसलिए उनको हुक्म दिया गया कि गाय ज़ब्ह करें। उन्होंने टालने की कोशिश की और तफ़सीलात पूछने लगे। मगर जितनी-जितनी तफ़सीलात वे पूछते गए उतने ही घिरते चले गए यहाँ तक कि आख़िरकार उसी ख़ास क़िस्म की सुनहरी गाय पर, जिसे उस ज़माने में परस्तिश के लिए मुख़्तस (ख़ास) किया जाता था, गोया उंगली रखकर बता दिया गया कि इसे ज़ब्ह करो।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَۚ قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا فَارِضٞ وَلَا بِكۡرٌ عَوَانُۢ بَيۡنَ ذَٰلِكَۖ فَٱفۡعَلُواْ مَا تُؤۡمَرُونَ ۝ 56
(68) बोले, “अच्छा, अपने रब से दरख़ास्त करो कि वह इस गाय की कुछ तफ़सील बताए। मूसा ने कहा, “अल्लाह का इरशाद है कि वह ऐसी गाय होनी चाहिए जो न बूढ़ी हो न बछिया, बल्कि औसत उम्र की हो। लिहाज़ा जो हुक्म दिया जाता है उसकी तामील करो”।
وَإِذۡ قَتَلۡتُمۡ نَفۡسٗا فَٱدَّٰرَٰٔتُمۡ فِيهَاۖ وَٱللَّهُ مُخۡرِجٞ مَّا كُنتُمۡ تَكۡتُمُونَ ۝ 57
(72) और तुम्हें याद है वो वाक़िआ जब तूने एक शख़्स की जान ली थी, फिर उसके बारे में झगड़ने और एक दूसरे का क़त्ल करने का इल्ज़ाम थोपने लगे थे और अल्लाह ने फ़ैसला कर लिया था कि जो कुछ छिपाते हो, उसे खोलकर रख देगा।
فَقُلۡنَا ٱضۡرِبُوهُ بِبَعۡضِهَاۚ كَذَٰلِكَ يُحۡيِ ٱللَّهُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 58
(73) उस वक़्त हमने हुक्म दिया कि मक़तूल कि लाश को उसके एक हिस्से से ज़रब लगाओ। देखो, इस तरह अल्लाह मुर्दे को ज़िंदगी बख़्शता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है ताकि तुम समझो
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا لَوۡنُهَاۚ قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ صَفۡرَآءُ فَاقِعٞ لَّوۡنُهَا تَسُرُّ ٱلنَّٰظِرِينَ ۝ 59
(69) फिर कहने लगे, “अपने रब से ये और पूछ दो कि उसका रंग कैसा है?” मूसा ने कहा, “वह फ़रमाता है कि ज़र्द रंग की गाय होनी चाहिए, जिसका रंग ऐसा शोख़ हो कि देखनेवालों का जी ख़ुश हो जाए”।
ثُمَّ قَسَتۡ قُلُوبُكُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ فَهِيَ كَٱلۡحِجَارَةِ أَوۡ أَشَدُّ قَسۡوَةٗۚ وَإِنَّ مِنَ ٱلۡحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنۡهُ ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ وَإِنَّ مِنۡهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخۡرُجُ مِنۡهُ ٱلۡمَآءُۚ وَإِنَّ مِنۡهَا لَمَا يَهۡبِطُ مِنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 60
(74) — मगर ऐसी निशानियाँ देखने के बाद भी आख़िरकार तुम्हारे दिल सख़्त हो गए, पत्थरों की तरह सख़्त हो गए, बल्कि सख़्ती में तो उनसे भी कुछ बढ़े हुए, क्योंकि पत्थरों में से तो कोई ऐसा भी होता है जिसमें से चश्मे फूट बहते हैं, कोई फटता है और उसमें से पानी निकाल आता है, और कोई ख़ुदा के ख़ौफ़ से लरज़कर गिर पड़ता है। अल्लाह तुम्हारे करतूतों से बेख़बर नहीं है।
۞أَفَتَطۡمَعُونَ أَن يُؤۡمِنُواْ لَكُمۡ وَقَدۡ كَانَ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَسۡمَعُونَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُۥ مِنۢ بَعۡدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 61
(75) (ऐ मुसलमानो!) अब क्या इन लोगों से ये तवक़्क़ो रखते हो कि ये तुम्हारी दावत पर ईमान ले आएँगे?29 हलाँकि इनमें से एक गरोह का शेवा ये रहा कि अल्लाह का कलाम सुना और फिर खूब समझ-बूझकर दानिस्ता उसमें तहरीफ़ की।
29. यह ख़िताब मदीना के उन नव-मुस्लिमों से है जो क़रीब के ज़माने ही में नबी-ए-अरबी (सल्ल०) पर ईमान लाए थे। इन लोगों के कान में पहले से नुबूवत, किताब, मलाइका, आख़िरत, शरीअत वग़ैरा की जो बातें पड़ी हुई थीं, वे सब उन्होंने अपने हमसाया यहूदियों ही से सुनी थीं। इस बिना पर अब वे मुतवक़्क़िअ थे कि जो लोग पहले ही से अंबिया और कुतुबे-आसमानी के पैरौ हैं और जिनकी दी हुई ख़बरों की बदौलत ही हमको नेमते-ईमान मुयस्सर हुई है, वे ज़रूर हमारा साथ देंगे, बल्कि इस राह में पेश-पेश होंगे।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ لَا تَعۡبُدُونَ إِلَّا ٱللَّهَ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَانٗا وَذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَقُولُواْ لِلنَّاسِ حُسۡنٗا وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ ثُمَّ تَوَلَّيۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنكُمۡ وَأَنتُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 62
(83) याद करो इसराईल कि औलाद से हमने पुख़्ता अहद लिया था कि अल्लाह कि सिवा किसी की इबादत न करना, माँ-बाप-के साथ, रिश्तेदारों के साथ, यतीमों और मिस्कीनों के साथ नेक सुलूक करना, लोगों से भली बात कहना, नमाज़ क़ायम करना और ज़कात देना मगर थोड़े आदमियों के के सिवा तुम इस अहद से फिर गए और अब तक फिरे हुए हो।
وَإِذَا لَقُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَا بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ قَالُوٓاْ أَتُحَدِّثُونَهُم بِمَا فَتَحَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ لِيُحَآجُّوكُم بِهِۦ عِندَ رَبِّكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 63
(76) ये (मुहम्मदुर-रसुल्लुलाह पर) ईमान लानेवालों से मिलते हैं तो कहते हैं हम उन्हें मानते हैं, और जब आपस में एक दूसरे से तख़लिए की बातचीत होती है तो कहते हैं कि बेवक़ूफ़ हो गए हो? उन लोगों को वे बातें बताते हो जो अल्लाह ने तुमपर खोली हैं ताकि तुम्हारे रब के पास तुम्हारे मुक़ाबले में हुज्जत पेश करें।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ لَا تَسۡفِكُونَ دِمَآءَكُمۡ وَلَا تُخۡرِجُونَ أَنفُسَكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ ثُمَّ أَقۡرَرۡتُمۡ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ ۝ 64
(84) फिर ज़रा याद करो, हमने तुमसे मज़बूत अहद लिया था कि आपस में एक दूसरे का ख़ून न बहाना और न एक दूसरे को घर से बेघर करना। तुमने इसका इक़रार किया था, तुम ख़ुद इस पर गवाह हो।
أَوَلَا يَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 65
(77) ― और क्या ये जानते नहीं है कि जो कुछ ये छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं, अल्लाह को सब बातों की ख़बर है?
سُورَةُ البَقَرَةِ
2. सूरा अल-बक़रा
وَمِنۡهُمۡ أُمِّيُّونَ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّآ أَمَانِيَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَظُنُّونَ ۝ 66
(78) — इनमें एक दूसरा गरोह उम्मियों का है, जो किताब का इल्म रखते नहीं बस अपनी बेबुनियाद और आरज़ुओं को लिए बैठे हैं और महज़ गुमान और वहम पर चले जा रहे हैं।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ثُمَّ أَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تَقۡتُلُونَ أَنفُسَكُمۡ وَتُخۡرِجُونَ فَرِيقٗا مِّنكُم مِّن دِيَٰرِهِمۡ تَظَٰهَرُونَ عَلَيۡهِم بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَإِن يَأۡتُوكُمۡ أُسَٰرَىٰ تُفَٰدُوهُمۡ وَهُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيۡكُمۡ إِخۡرَاجُهُمۡۚ أَفَتُؤۡمِنُونَ بِبَعۡضِ ٱلۡكِتَٰبِ وَتَكۡفُرُونَ بِبَعۡضٖۚ فَمَا جَزَآءُ مَن يَفۡعَلُ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ إِلَّا خِزۡيٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُرَدُّونَ إِلَىٰٓ أَشَدِّ ٱلۡعَذَابِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 67
(85) मगर आज वही तुम हो कि अपने भाई बंदों को क़त्ल करते हो, अपने बिरादरी के कुछ लोगों को बेख़ानमाँ कर देते हो, ज़ुल्म व ज़्यादती के साथ उनके ख़िलाफ़ जत्थेबंदियाँ करते हो और जब वे लड़ाई में पकड़े हुए तुम्हारे पास आते हैं, तो उनकी रिहाई के लिए फ़िदये का लेन-देन करते हो, जबकि उन्हें उनके घरों से निकालना ही सिरे से तुमपर हराम था। तो क्या तुम किताब के एक हिस्से पर ईमान लाते हो, और दूसरे हिस्से से कुफ़्र करते हो? फिर तुममें से जो लोग ऐसा करें, उनकी सज़ा इसके सिवा क्या है कि दुनिया की ज़िन्दगी में ज़लीलो-ख़्वार होकर रहें और आख़िरत में शदीद तरीन अज़ाब की तरफ़ फेर दिये जाएँ? अल्लाह उन हरकात से बेख़बर नहीं है जो तुम कर रहे हो।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا بِٱلۡأٓخِرَةِۖ فَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 68
(86) – ये वे लोग हैं जिन्होंने आख़िरत बेचकर दुनिया की ज़िन्दगी ख़रीद ली है, लिहाज़ा इनकी सज़ा में न कोई तख़्फ़ीफ़ होगी और न इन्हें कोई मदद पहुँच सकेगी।
فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ يَكۡتُبُونَ ٱلۡكِتَٰبَ بِأَيۡدِيهِمۡ ثُمَّ يَقُولُونَ هَٰذَا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ لِيَشۡتَرُواْ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلٗاۖ فَوَيۡلٞ لَّهُم مِّمَّا كَتَبَتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَوَيۡلٞ لَّهُم مِّمَّا يَكۡسِبُونَ ۝ 69
(79) पस हलाकत और तबाही है उन लोगों के लिए जो अपने हाथों से शरअ का नविश्ता लिखते हैं, फिर लोगों से कहते हैं कि अल्लाह के पास से आया हुआ है ताकि उसके मुआवज़े में थोड़ा सा फ़ायदा हासिल कर लें। उनके हाथों का लिखा भी उनके लिए तबाही का समान है। और उनकी ये कमाई उनके लिए मोजिबे-हलाकत।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَقَفَّيۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ بِٱلرُّسُلِۖ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ أَفَكُلَّمَا جَآءَكُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُكُمُ ٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡ فَفَرِيقٗا كَذَّبۡتُمۡ وَفَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ ۝ 70
(87) हमने मूसा को किताब दी, इसके बाद पै-दर-पै रसूल भेज़े, आख़िरकार ईसा इब्ने-मरयम को रौशन निशानियाँ देकर भेजा और रूहे-पाक30 से उसकी मदद की। फिर यह तुम्हारा क्या ढंग है कि जब भी कोई रसूल तुम्हारी ख़ाहिशाते-नफ़्स के ख़िलाफ़ कोई चीज़ तुम्हारे पास लेकर आया, तो तुमने उसके मुक़ाबले में सरकशी ही की, किसी को झुठलाया और किसी को क़त्ल कर डाला!
30. 'रूहे-पाक' से मुराद इल्मे-वह्य भी है और जिबरील भी, जो वह्य का इल्म लाते थे और ख़ुद हज़रत मसीह (अलैहि०) की अपनी पाकीज़ा रूह भी है, जिनको अल्लाह ने क़ुदसी सिफ़ात बनाया था।
وَقَالُواْ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَل لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَقَلِيلٗا مَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 71
(88) — वे कहते हैं, हमारे दिल महफ़ूज़ हैं। नहीं, असल बात यह है कि उनके कुफ़्र कि वजह से उनपर अल्लाह कि फिटकार पड़ी है, इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ وَرَفَعۡنَا فَوۡقَكُمُ ٱلطُّورَ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱسۡمَعُواْۖ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَأُشۡرِبُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡعِجۡلَ بِكُفۡرِهِمۡۚ قُلۡ بِئۡسَمَا يَأۡمُرُكُم بِهِۦٓ إِيمَٰنُكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 72
(93) फिर ज़रा उस मीसाक़ को याद करो जो तूर को तुम्हारे ऊपर उठाकर हमने तुमसे लिया था। हमने ताक़ीद कि थी कि जो हिदायात हम दे रहे हैं, उनकी सख़्ती के साथ पाबंदी करो और कान लगाकर सुनो। तुम्हारे असलाफ़ ने कहा कि हमने सुन लिया, मगर मानेंगे नहीं। और उनकी बातिल-परस्ती का ये हाल था कि दिलों में उनके बछड़ा ही बसा हुआ था। कहो! अगर तुम मोमिन हो, तो ये अजीब ईमान है जो ऐसी बुरी हरकत का तुम्हें हुकम देता है।
وَقَالُواْ لَن تَمَسَّنَا ٱلنَّارُ إِلَّآ أَيَّامٗا مَّعۡدُودَةٗۚ قُلۡ أَتَّخَذۡتُمۡ عِندَ ٱللَّهِ عَهۡدٗا فَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ عَهۡدَهُۥٓۖ أَمۡ تَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 73
(80) वे कहते हैं कि दोज़ख़ की आग हमें हरगिज़ छूनेवाली नहीं, इल्ला यह कि चंद रोज़ की सज़ा मिल जाए तो मिल जाए। उनसे पूछो, क्या तुमने अल्लाह से कोई अहद ले लिया है जिसकी ख़िलाफ़वरज़ी वह नहीं कर सकता? या बात यह है कि तुम अल्लाह के ज़िम्मे डालकर ऐसी बातें कह देते हो जिनके मुताल्लिक़ तुमको इल्म नहीं है कि उसने उनका ज़िम्मा लिया है?
وَلَمَّا جَآءَهُمۡ كِتَٰبٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٞ لِّمَا مَعَهُمۡ وَكَانُواْ مِن قَبۡلُ يَسۡتَفۡتِحُونَ عَلَى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَمَّا جَآءَهُم مَّا عَرَفُواْ كَفَرُواْ بِهِۦۚ فَلَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 74
(89) — और जो एक किताब अल्लाह की तरफ़ से उनके पास आई है, उसके साथ उनका क्या बर्ताव है? बावजूद इसके कि वह उस किताब कि तसदीक़ करती है जो उनके पास पहले से मौजूद थी, इसके बावजूद कि उसकी आमद से पहले वे ख़ुद कुफ़्फ़ार के मुक़ाबले में फ़त्‌ह व नुसरत कि दुआएँ माँगा करते थे,31 मगर जब वह चीज़ आ गई, जिसे वे पहचान भी गए, तो उन्होंने उसे मानने से इनकार कर दिया। ख़ुदा की लानत इन मुनकिरीन पर,
31. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आमद से पहले यहूदी बेचैनी के साथ उस नबी के मुन्तज़िर थे जिसके बिअसत की पेशीनगोइयाँ उनके अम्बिया ने की थीं और दुआएँ माँगा करते थे कि जल्दी से वह आए तो कुफ़्फ़ार का ग़ल्बा मिटे और फिर हमारे उरूज का दौर शुरू हो।
بَلَىٰۚ مَن كَسَبَ سَيِّئَةٗ وَأَحَٰطَتۡ بِهِۦ خَطِيٓـَٔتُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 75
(81) आख़िर तुम्हें दोज़ख़ कि आग क्यों नहीं छुएगी? जो भी बदी कमायेगा और अपनी ख़ताकारी के चक्कर में पड़ा रहेगा, वह दोज़ख़ी है और दोज़ख़ ही में वह हमेशा रहेगा।
قُلۡ إِن كَانَتۡ لَكُمُ ٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ عِندَ ٱللَّهِ خَالِصَةٗ مِّن دُونِ ٱلنَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 76
(94) इनसे कहो कि अगर वाक़ई अल्लाह के नज़दीक आख़िरत का घर तमाम इन्सानों को छोड़कर सिर्फ़ तुम्हारे ही लिए मख़सूस है, तब तो तुम्हें चाहिए कि मौत की तमन्ना करो, अगर तुम अपने इस ख़याल में सच्चे हो।
بِئۡسَمَا ٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡ أَن يَكۡفُرُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بَغۡيًا أَن يُنَزِّلَ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ فَبَآءُو بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٖۚ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 77
(90) कैसा बुरा ज़रिआ है जिससे ये अपने नफ़्स की तसल्ली हासिल करते हैं32 कि जो हिदायत अल्लाह ने नाज़िल की है उसको क़ुबूल करने से सिर्फ़ इस ज़िद की बिना पर इनकार कर रहे हैं कि अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल (वहय व रिसालत) से अपने जिस बंदे को चाहा नवाज़ दिया।33 लिहाज़ा अब ये ग़ज़ब बाला-ए-ग़ज़ब के मुस्तहिक़ हो गए हैं और ऐसे काफ़िरों के लिए सख़्त ज़िल्लतआमेज़ सज़ा मुक़र्रर है।
32. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “कैसी बुरी चीज़ है, जिसकी ख़ातिर इन्होंने अपनी जानों को बेच डाला।” यानी अपनी फ़लाह व सआदत और अपनी नजात को क़ुरबान कर दिया।
33. ये लोग चाहते थे कि आनेवाला नबी उनकी क़ौम में पैदा हो। मगर जब वह एक दूसरी क़ौम में पैदा हुआ, जिसे वे अपने मुक़ाबले में हेच समझते थे, तो वे उसके इनकार पर आमादा हो गए। गोया उनका मतलब यह था कि अल्लाह उनसे पूछकर नबी भेजता।
وَلَن يَتَمَنَّوۡهُ أَبَدَۢا بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 78
(95) — यक़ीन जानो कि ये कभी उसकी तमन्ना न करेंगे, इसलिए कि अपने हाथों जो कुछ कमाकर इन्होंने वहाँ भेजा है, उसका इक़्तिज़ा यही है (कि ये वहाँ जाने कि तमन्ना न करें) अल्लाह इन ज़ालिमों के हाल से खूब वाक़िफ़ है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 79
(82) और जो लोग ईमान लाएँगे और नेक अमल करेंगे वही जन्नती हैं और जन्नत में हमेशा रहेंगे।
وَلَتَجِدَنَّهُمۡ أَحۡرَصَ ٱلنَّاسِ عَلَىٰ حَيَوٰةٖ وَمِنَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۚ يَوَدُّ أَحَدُهُمۡ لَوۡ يُعَمَّرُ أَلۡفَ سَنَةٖ وَمَا هُوَ بِمُزَحۡزِحِهِۦ مِنَ ٱلۡعَذَابِ أَن يُعَمَّرَۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 80
(96) तुम इन्हें जीने का सबसे बढ़कर हरीस पाओगे, हत्ता कि इस मामले में मुशरिकों से भी बढ़े हुए हैं। इनमें से एक-एक शख़्स यह चाहता है कि किसी तरह हज़ार बरस जिये, हालाँकि लंबी उम्र उसे अज़ाब से दूर तो नहीं फेंक सकती। जैसे कुछ आमाल ये कर रहे हैं, अल्लाह तो इन्हें देख ही रहा है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ ءَامِنُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ نُؤۡمِنُ بِمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَيَكۡفُرُونَ بِمَا وَرَآءَهُۥ وَهُوَ ٱلۡحَقُّ مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَهُمۡۗ قُلۡ فَلِمَ تَقۡتُلُونَ أَنۢبِيَآءَ ٱللَّهِ مِن قَبۡلُ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 81
(91) जब इनसे कहा जाता है कि जो कुछ अल्लाह ने नाज़िल किया है उसपर ईमान लाओ तो वे कहते हैं, “हम तो सिर्फ़ उस चीज़ पर ईमान लाते हैं, जो हमारे यहाँ (यानी बनी-इसराईल में) उतरी है”। इस दायरे के बाहर जो कुछ आया है, उसे मनाने से इनकार करते हैं, हालाँकि वो हक़ है उस तालीम की तसदीक़ व ताईद कर रहा है जो उनके यहाँ पहले से मौजूद थी। अच्छा, उनसे कहो, “अगर तुम इस तालीम पर ही ईमान रखनेवाले हो जो तुम्हारे यहाँ आई थी तो इससे पहले अल्लाह ने उन पैग़म्बरों को (जो ख़ुद बनी-इसराईल में पैदा हुए थे) क्यों क़त्ल करते रहे?
यानी अपनी भलाई व कल्याण और अपनी मुक्ति को भेंट चढ़ा दिया।
قُلۡ مَن كَانَ عَدُوّٗا لِّـجِبۡرِيلَ فَإِنَّهُۥ نَزَّلَهُۥ عَلَىٰ قَلۡبِكَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 82
(97) इनसे कहो जो कोई जिबरील से अदावत रखता हो,34 उसे मालूम होना चाहिए कि जिबरील ने अल्लाह ही के इज़्न से यह क़ुरआन नाज़िल किया है, जो पहले आई हुई किताबों कि ताईद व तसदीक़ करता है और ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और कामयाबी की बशारत बनकर आया है।
34. यहूदी सिर्फ़ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को और आप (सल्ल०) पर ईमान लानेवालों ही को बुरा नहीं कहते थे, बल्कि ख़ुदा के बरगुज़ीदा फ़रिश्ते जिबरील को भी गालियाँ देते थे और कहते थे कि वह हमारा दुश्मन है। वह रहमत का नहीं, अज़ाब का फ़रिश्ता है।
۞وَلَقَدۡ جَآءَكُم مُّوسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ ٱتَّخَذۡتُمُ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَنتُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 83
(92) तुम्हारे पास मूसा कैसी-कैसी रौशन निशानियों के साथ आया। फिर भी तुम ऐसे ज़ालिम थे कि उसके पीठ मोड़ते ही बछड़े को माबूद बना बैठे।
مَن كَانَ عَدُوّٗا لِّلَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَجِبۡرِيلَ وَمِيكَىٰلَ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَدُوّٞ لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 84
(98) (अगर जिबरील से इनकी अदावत का सबब यही है तो कह दो कि) जो अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील मीकाईल के दुश्मन है, अल्लाह इन काफ़िरों का दुश्मन है।
خَتَمَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَعَلَىٰ سَمۡعِهِمۡۖ وَعَلَىٰٓ أَبۡصَٰرِهِمۡ غِشَٰوَةٞۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 85
(7) और कानों पर मुहर लगा दी है4 और उनकी आँखों पर पर्दा पड़ गया है। वे सज़ा के मुस्तहिक़ हैं।
4. इसका मतलब यह नहीं है कि अल्लाह ने मुहर लगा दी थी इसलिए उन्होंने तसलीम करने से इनकार किया, बल्कि मतलब यह है कि जब उन्होंने उन बुनियादी उमूर को रद्द कर दिया जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है, और अपने लिए क़ुरआन के पेशकरदा रास्ते के ख़िलाफ़ दूसरा रास्ता पसन्द कर लिया तो अल्लाह ने उनके दिलों और कानों पर मुहर लगा दी।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ وَمَا يَكۡفُرُ بِهَآ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 86
(99) हमने तुम्हारी तरफ़ ऐसी आयात नाज़िल की हैं जो साफ़-साफ़ हक़ का इज़हार करनेवाली हैं। और उनकी पैरवी से सिर्फ़ वही लोग इनकार करते हैं जो फ़ासिक़ हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقُولُواْ رَٰعِنَا وَقُولُواْ ٱنظُرۡنَا وَٱسۡمَعُواْۗ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 87
(104) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! ‘राइना’ न कहा करो, बल्कि ‘उनज़ुरना’ कहो और तवज्जुह से बात को सुनो36, ये काफ़िर तो अज़ाबे-अलीम के मुस्तहिक़ हैं।
36. यहूदी जब आँ हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मजलिस में आते, तो अपने सलाम और कलाम में हर मुमकिन तरीक़े से अपने दिल का बुख़ार निकालने की कोशिश करते थे। जब आँ हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की गुफ़्तगू के दौरान में यहूदियों को कभी यह कहने की ज़रूरत पेश आती कि ठहरिए, ज़रा हमें यह बात समझ लेने दीजिए, तो वे 'राइना' कहते थे। इस लफ़्ज़ का ज़ाहिरी मफ़हूम तो यह था कि ज़रा हमारी रिआयत कीजिए या हमारी बात सुन लीजिए, मगर इसमें कई पहलुओं से बुरे मानी भी निकलते थे। इसलिए मुसलमानों को हुक्म दिया गया कि तुम इस लफ़्ज़ के इस्तेमाल से परहेज़ करो और इसके बजाय 'उनज़ुरना' कहा करो। यानी हमारी तरफ़ तवज्जुह फ़रमाइए या हमें ज़रा समझ लेने दीजिए।
أَوَكُلَّمَا عَٰهَدُواْ عَهۡدٗا نَّبَذَهُۥ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 88
(100) क्या हमेशा ऐसा ही नहीं होता रहा है कि जब इन्होंने कोई अहद किया तो इनमें से एक-न-एक गरोह ने ज़रूर उसे बाला-ए-ताक़ रख दिया? बल्कि उनमें से अक्सर ऐसे ही हैं जो सच्चे दिल से ईमान नहीं लाते।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَمَا هُم بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 89
(8) बाज़ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं की हम अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान लाये हैं, हालाँकि दर हक़ीक़त वो मोमिन नहीं हैं।
مَّا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ وَلَا ٱلۡمُشۡرِكِينَ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ خَيۡرٖ مِّن رَّبِّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَخۡتَصُّ بِرَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 90
(105) ये लोग जिन्होंने दावते-हक़ को क़ुबूल करने से इनकार कर दिया है, ख़ाह अहले-किताब में से हों या मुशरीक हों, हरगिज़ ये पसंद नहीं करते कि तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर कोई भलाई नाज़िल हो, मगर अल्लाह जिसको चाहता है अपनी रहमत के लिए चुन लेता है, और वह बड़ा फ़ज़्ल फ़रमानेवाला है।
يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَمَا يَخۡدَعُونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 91
(9) वे अल्लाह और ईमान लानेवालों के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं, मगर दर असल वे अपने आप को ख़ुद धोखे में डाल रहे हैं और उन्हें इसका शुऊर नहीं है।
بَدِيعُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 92
(117) वह असमानों और ज़मीन का मूजिद है, और जिस बात का वह फ़ैसला करता है, उसके लिए बस ये हुक्म देता कि “हो जा”, और वह हो जाती है।
۞مَا نَنسَخۡ مِنۡ ءَايَةٍ أَوۡ نُنسِهَا نَأۡتِ بِخَيۡرٖ مِّنۡهَآ أَوۡ مِثۡلِهَآۗ أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 93
(106) हम अपनी जिस आयात को मंसूख़ कर देते हैं या भुला देते हैं, उसकी जगह उससे बेहतर लाते हैं या कम-अज़-कम वैसी ही।37 क्या तुम जानते नहीं हो कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है?
37. यह एक ख़ास शुब्हे का जवाब है जो यहूदी मुसलमानों के दिलों में डालने की कोशिश करते थे। उनका एतिराज़ यह था कि अगर पिछली किताबें भी ख़ुदा की तरफ़ से आई थीं और यह क़ुरआन भी ख़ुदा की तरफ़ से है तो उनके बाज़ अहकाम की जगह इसमें दूसरे अहकाम क्यों दिए गए हैं?
وَلَمَّا جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٞ لِّمَا مَعَهُمۡ نَبَذَ فَرِيقٞ مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ كِتَٰبَ ٱللَّهِ وَرَآءَ ظُهُورِهِمۡ كَأَنَّهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 94
(101) और जब उनके पास अल्लाह की तरफ़ से कोई रसूल उस किताब कि ताईद व तसदीक़ करता हुआ आया जो इनके यहाँ पहले से मौजूद थी तो इन अहले-किताब में से एक गरोह ने किताबुल्लाह को इस तरह पसे-पुश्त डाला गोया कि वे कुछ जानते ही नहीं।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ لَوۡلَا يُكَلِّمُنَا ٱللَّهُ أَوۡ تَأۡتِينَآ ءَايَةٞۗ كَذَٰلِكَ قَالَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِم مِّثۡلَ قَوۡلِهِمۡۘ تَشَٰبَهَتۡ قُلُوبُهُمۡۗ قَدۡ بَيَّنَّا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 95
(118) नादान ख़ुद कहते हैं कि अल्लाह हमसे बात क्यों नहीं करता है या कोई निशानी हमारे क्यों नहीं आती? ऐसी ही बातें इनसे पहले लोग भी किया करते थे। इन सब (अगले-पिछले गुमराहों) की ज़ेहनियत एक जैसी हैं। यक़ीन करनेवालों के लिए तो हम निशानियाँ साफ़-साफ़ नुमायाँ कर चुके हैं।
فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ فَزَادَهُمُ ٱللَّهُ مَرَضٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡذِبُونَ ۝ 96
(10) उनके दिलों में एक बीमारी है जिसे अल्लाह ने और ज़्यादा बढ़ा दिया,5 जो झूठ वे बोलते हैं, उनकी पादाश में उनके लिए दर्द नाक सज़ा है।
5. बीमारी से मुराद मुनाफ़क़त की बीमारी है। और अल्लाह के इस बीमारी में इज़ाफ़ा करने का मतलब यह है कि मुनाफ़िक़ को अल्लाह फ़ौरन सज़ा नहीं दे देता, बल्कि उसे ढील देता चला जाता है और मुनाफ़िक़ और ज़्यादा मुनाफ़िक़ बनता चला जाता है।
وَٱتَّبَعُواْ مَا تَتۡلُواْ ٱلشَّيَٰطِينُ عَلَىٰ مُلۡكِ سُلَيۡمَٰنَۖ وَمَا كَفَرَ سُلَيۡمَٰنُ وَلَٰكِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ كَفَرُواْ يُعَلِّمُونَ ٱلنَّاسَ ٱلسِّحۡرَ وَمَآ أُنزِلَ عَلَى ٱلۡمَلَكَيۡنِ بِبَابِلَ هَٰرُوتَ وَمَٰرُوتَۚ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنۡ أَحَدٍ حَتَّىٰ يَقُولَآ إِنَّمَا نَحۡنُ فِتۡنَةٞ فَلَا تَكۡفُرۡۖ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنۡهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِۦ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَزَوۡجِهِۦۚ وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِۦ مِنۡ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡۚ وَلَقَدۡ عَلِمُواْ لَمَنِ ٱشۡتَرَىٰهُ مَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖۚ وَلَبِئۡسَ مَا شَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 97
(102) और लगे उन चीज़ों कि पैरवी करने जो शयातीन सुलैमान की सल्तनत का नाम लेकर पेश किया करते थे, हालाँकि सुलैमान ने कभी कुफ़्र नहीं किया, कुफ्र के मुर्तक़िब तो वे शयातीन थे जो लोगों को जादूगरी कि तालीम देते थे। वे पीछे पड़े उस चीज़ के जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत व मारूत, पर नाज़िल कि गयी थी। हालाँकि वे (फ़रिश्ते) जब भी किसी को उसकी तालीम देते थे पहले साफ़ तौर पर मुतनब्बेह कर दिया करते थे कि “देख हम महज़ एक आज़माइश हैं, तू कुफ़्र में मुब्तला न हो35”। फिर भी ये लोग उनसे ये चीज़ सीखते थे जिससे शौहर और बीवी में जुदाई दाल दें। ज़ाहिर था कि इज़्ने इलाही के बग़ैर वे इस ज़रिये से किसी को ज़रर नहीं पहुँचा सकते थे, मगर इसके बावजूद वे ऐसी चीज़ सीखते थे जो ख़ुद उनके लिए नफ़ाबख़्श नहीं, बल्कि नुक़सानदेह थी, और इन्हें ख़ूब मालूम था कि जो इस चीज़ का खरीददार बना, उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। कितनी बुरी मताअ थी जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों को बेच डाला, काश उन्हें मालूम होता!
35. इस आयत की तावील में मुख़्तलिफ़ अक़वाल हैं, मगर जो कुछ मैंने समझा है वह यह है कि जिस ज़माने में बनी-इसराईल की पूरी क़ौम बाबिल में क़ैदी और ग़ुलाम बनी हुई थी, अल्लाह तआला ने दो फरिश्तों को इंसानी शक्ल में उनकी आज़माइश के लिए भेजा होगा। जिस तरह क़ौमे-लूत के पास फ़रिश्ते ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में गए थे, उसी तरह इन इसराईलियों के पास वे पीरों और फ़क़ीरों की शक्ल में गए होंगे। वहाँ एक तरफ़ उन्होंने बाज़ारे-साहिरी में अपनी दुकान लगाई होगी और दूसरी तरफ़ वे इतमामे-हुज्जत के लिए हर एक को ख़बरदार भी कर देते होंगे कि देखो, हम तुम्हारे लिए आज़माइश की हैसियत रखते हैं, तुम अपनी आक़िबत न ख़राब करो। मगर इसक बावजूद लोग उनके पेश-करदा सिफ़ली अमलियात और नुक़ूश व तावीज़ात पर टूटे पड़ते होंगे।
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 98
(107) क्या तुम्हें ख़बर नहीं है कि ज़मीन और असमानों की फ़रमाँरवाई अल्लाह ही के लिए है और उसके सिवा कोई तुम्हारी ख़बरगीरी करने और तुम्हारी मदद करनेवाला नहीं है?
أَمۡ تُرِيدُونَ أَن تَسۡـَٔلُواْ رَسُولَكُمۡ كَمَا سُئِلَ مُوسَىٰ مِن قَبۡلُۗ وَمَن يَتَبَدَّلِ ٱلۡكُفۡرَ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 99
(108) फिर क्या तुम अपने रसूल से उस क़िस्म के सवालात और मुतालबे करना चाहते हो जैसे इससे पहले मूसा से किए जा चुके हैं?38 हालाँकि जिस शक्स ने ईमान कि रविश को कुफ़्र की रविश से बदल लिया, वह राहे-रास्त से भटक गया।
38. यहूदी मूशिगाफ़ियाँ कर-करके तरह-तरह के सवालात मुसलमानों के सामने पेश करते थे और उन्हें उकसाते थे कि अपने नबी से यह पूछो और यह पूछो और यह पूछो। इसपर अल्लाह तआला मुसलमानों को मुतनब्बेह फ़रमा रहा है कि इस मामले में यहूदियों की रविश इख़्तियार करने से बचो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ لَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ قَالُوٓاْ إِنَّمَا نَحۡنُ مُصۡلِحُونَ ۝ 100
(11) जब कभी उनसे कहा गया कि ज़मीन में फ़साद बरपा न करो, तो उन्होंने यही कहा “हम तो इस्लाह करनेवाले हैं”।
وَدَّ كَثِيرٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَوۡ يَرُدُّونَكُم مِّنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِكُمۡ كُفَّارًا حَسَدٗا مِّنۡ عِندِ أَنفُسِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَٱعۡفُواْ وَٱصۡفَحُواْ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ ٱللَّهُ بِأَمۡرِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 101
(109) अहले-किताब से में अक्सर लोग ये चाहते हैं कि किसी तरह तुम्हें ईमान से फेरकर कुफ़्र की तरफ़ पलटा ले जाएँ, अगरचे हक़ उनपर ज़ाहिर हो चुका है, मगर अपने नफ़्स के हसद की बिना पर तुम्हारे लिए इनकी यही ख़ाहिश है। इसके जवाब में तुम अफ़्व व दरगुज़र से काम लो, यहाँ तक कि अल्लाह ख़ुद ही अपना फ़ैसला नाफ़िज़ कर दे। मुतमइन रहो कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلۡمُفۡسِدُونَ وَلَٰكِن لَّا يَشۡعُرُونَ ۝ 102
(12) — ख़बरदार, हक़ीक़त में यही लोग मुफ़सिद हैं, मगर इन्हें शुऊर नहीं है।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَمَثُوبَةٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ خَيۡرٞۚ لَّوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 103
(103) अगर वे ईमान और तक़वा इख़्तियार करते तो अल्लाह के यहाँ उसका जो बदला मिलता वह उनके लिए ज़्यादा बेहतर था, काश उन्हें ख़बर होती!
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَۚ وَمَا تُقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُم مِّنۡ خَيۡرٖ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 104
(110) नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो। तुम अपनी आक़िबत के लिए जो भलाई कमाकर आगे भेजोगे, अल्लाह के यहाँ उसे मौजूद पाओगे। जो कुछ तुम करते हो, सब अल्लाह कि नज़र में है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ ءَامِنُواْ كَمَآ ءَامَنَ ٱلنَّاسُ قَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ كَمَآ ءَامَنَ ٱلسُّفَهَآءُۗ أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلسُّفَهَآءُ وَلَٰكِن لَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 105
(13) और जब उनसे कहा गया जिस तरह दूसरे लोग ईमान लाये हैं उसी तरह ईमान लाओ तो उन्होंने यही जवाब दिया कि “क्या हम बेवक़ूफ़ों कि तरह ईमान लाएँ?”—ख़बरदार, हक़ीक़त में ये ख़ुद बेवक़ूफ़ हैं मगर ये जानते नहीं हैं।
وَقَالُواْ لَن يَدۡخُلَ ٱلۡجَنَّةَ إِلَّا مَن كَانَ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰۗ تِلۡكَ أَمَانِيُّهُمۡۗ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 106
(111) उनका यह कहना है कि कोई शख़्स जन्नत में न जाएगा जब तक कि वो यहूदी न हो या (ईसाईयों के ख़याल के मुताबिक़) ईसाई न हो। ये उनकी तम्मनाएँ हैं। उनसे कहो, “अपनी दलील पेश करो, अगर तुम अपने दावे में सच्चे हो”।
وَإِذَا لَقُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ إِلَىٰ شَيَٰطِينِهِمۡ قَالُوٓاْ إِنَّا مَعَكُمۡ إِنَّمَا نَحۡنُ مُسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 107
(14) जब ये अहले-ईमान से मिलते हैं तो कहते हैं, “हम ईमान लाये हैं,” और जब अलहिदगी में अपने शैतानों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि अस्ल में तो हम तुम्हारे साथ हैं और इन लोगों से तो महज़ मज़ाक़ कर रहे हैं।
بَلَىٰۚ مَنۡ أَسۡلَمَ وَجۡهَهُۥ لِلَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ فَلَهُۥٓ أَجۡرُهُۥ عِندَ رَبِّهِۦ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 108
(112) (दरअसल न तुम्हारी कुछ ख़ूसुसियत है न किसी और की) हक़ यह है कि जो भी अपनी हस्ती को अल्लाह की इताअत में सौंप दे और अमलन नेक रविश पर चले, उसके लिए उसके रब के पास उसका अज्र है और ऐसे लोगों के लिए किसी ख़ौफ़ या रंज का कोई मौक़ा नहीं।
ٱللَّهُ يَسۡتَهۡزِئُ بِهِمۡ وَيَمُدُّهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 109
(15) — अल्लाह इनसे मज़ाक़ कर रहा है, वह इनकी रस्सी दराज़ किए जाता है, और ये सरकशी में अंधों कि तरह भटकते चले जाते हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ لَيۡسَتِ ٱلنَّصَٰرَىٰ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَقَالَتِ ٱلنَّصَٰرَىٰ لَيۡسَتِ ٱلۡيَهُودُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُمۡ يَتۡلُونَ ٱلۡكِتَٰبَۗ كَذَٰلِكَ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ مِثۡلَ قَوۡلِهِمۡۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 110
(113) यहूदी कहते हैं, “ईसाइयों के पास कुछ नहीं”। ईसाई कहते हैं, “यहूदियों के पास कुछ नहीं”— हालाँकि दोनों ही किताब पढ़ते हैं — और इसी क़िस्म के दावे उन लोगों के भी हैं जिनके पास किताब का इल्म नहीं है। ये इख़्तिलाफ़ात जिनमें ये लोग मुब्तला हैं, इनका फ़ैसला अल्लाह क़ियामत के रोज़ कर देगा।
وَمَن يَرۡغَبُ عَن مِّلَّةِ إِبۡرَٰهِـۧمَ إِلَّا مَن سَفِهَ نَفۡسَهُۥۚ وَلَقَدِ ٱصۡطَفَيۡنَٰهُ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 111
(130) अब कौन है जो इबराहीम के तरीक़े से नफ़रत करे? जिसने अपने आप को हिमाक़त और जहालत में मुब्तला कर लिया हो उसके सिवा कौन ये हरकत कर सकता है? इबराहीम तो वह शख़्स है जिसको हमने दुनिया में अपने काम के लिए चुन लिया था और आख़िरत में उसका शुमार सॉलिहीन में होगा।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلضَّلَٰلَةَ بِٱلۡهُدَىٰ فَمَا رَبِحَت تِّجَٰرَتُهُمۡ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 112
(16) ये वे लोग है जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीद ली है, मगर यह सौदा इनके लिए नफ़ाबख़्श नहीं है और ये हरगिज़ सही रास्ते पर नहीं हैं।
إِذۡ قَالَ لَهُۥ رَبُّهُۥٓ أَسۡلِمۡۖ قَالَ أَسۡلَمۡتُ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 113
(131) उसका हाल तो यह था कि जब उसके रब ने कहा, “मुस्लिम हो जा”42 तो उसने फ़ौरन कहा, “मैं मालिके-कायनात का ‘मुस्लिम’ हो गया”।
42. 'मुस्लिम' वह जो ख़ुदा के आगे सरे-इताअत ख़म कर दे, ख़ुदा ही को अपना मालिक, आक़ा, हाकिम और माबूद मान ले, जो अपने-आपको बिलकुल्लिया ख़ुदा के सिपुर्द कर दे और उस हिदायत के मुताबिक़ दुनिया में ज़िन्दगी बसर करे जो ख़ुदा की तरफ़ से आई हो। इस अक़ीदे और इस तर्ज़े-अमल का नाम 'इस्लाम' है और यही तमाम अम्बिया का दीन था जो इबतिदा-ए-आफ़रीनिश से दुनिया के मुख़्तलिफ़ मुल्कों और क़ौमों में आए।
مَثَلُهُمۡ كَمَثَلِ ٱلَّذِي ٱسۡتَوۡقَدَ نَارٗا فَلَمَّآ أَضَآءَتۡ مَا حَوۡلَهُۥ ذَهَبَ ٱللَّهُ بِنُورِهِمۡ وَتَرَكَهُمۡ فِي ظُلُمَٰتٖ لَّا يُبۡصِرُونَ ۝ 114
(17) इनकी मिसाल ऐसी है जैसे एक शख़्स ने आग रौशन की और जब उसने सारे माहौल को रौशन कर दिया तो अल्लाह ने इनका नूरे-बसारत सल्ब कर लिया और इन्हें इस हाल में छोड़ दिया कि तारीकियों में इन्हें कुछ नज़र नहीं आता।6
6. मतलब यह है कि जब एक अल्लाह के बन्दे ने रौशनी फैलाई और हक़ को बातिल से छाँटकर बिलकुल नुमायाँ कर दिया, तो जो लोग दीद-ए-बीना रखते थे उनपर तो सारी हक़ीक़तें रौशन हो गईं, मगर ये मुनाफ़िक़, जो नफ़्सपरस्ती में अंधे हो रहे थे, इनको इस रौशनी में कुछ नज़र न आया।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن مَّنَعَ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ أَن يُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ وَسَعَىٰ فِي خَرَابِهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ مَا كَانَ لَهُمۡ أَن يَدۡخُلُوهَآ إِلَّا خَآئِفِينَۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 115
(114) और उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह के मअबदों में उसके नाम की याद से रोके और उनकी वीरानी के दरपै हो? ऐसे लोग इस क़ाबिल हैं कि इन इबादतगाहों में क़दम न रखें और अगर वहाँ जाएँ भी तो डरते हुए जाएँ। उनके लिए दुनिया में तो रुसवाई है और आख़िरत में अज़ाबे-अज़ीम।
وَلِلَّهِ ٱلۡمَشۡرِقُ وَٱلۡمَغۡرِبُۚ فَأَيۡنَمَا تُوَلُّواْ فَثَمَّ وَجۡهُ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 116
(115) मशरिक़ और मग़रिब सब अल्लाह के हैं। जिस तरफ़ तुम रुख़ करोगे उसी तरफ़ अल्लाह का रुख़ है। अल्लह बड़ी वुसअतवाला और सब कुछ जाननेवाला है।
وَوَصَّىٰ بِهَآ إِبۡرَٰهِـۧمُ بَنِيهِ وَيَعۡقُوبُ يَٰبَنِيَّ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰ لَكُمُ ٱلدِّينَ فَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 117
(132) इसी तरीक़े पर चलने की हिदायत उसने अपनी औलाद को दी थी और इसी कि वसीयत याक़ूब अपनी औलाद को कर गया था। उसने कहा था कि “मेरे बच्चो! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन पसंद किया है। लिहाज़ा मरते दम तक मुस्लिम ही रहना”।
أَمۡ كُنتُمۡ شُهَدَآءَ إِذۡ حَضَرَ يَعۡقُوبَ ٱلۡمَوۡتُ إِذۡ قَالَ لِبَنِيهِ مَا تَعۡبُدُونَ مِنۢ بَعۡدِيۖ قَالُواْ نَعۡبُدُ إِلَٰهَكَ وَإِلَٰهَ ءَابَآئِكَ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗا وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 118
(133) फिर क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब याक़ूब इस दुनिया से रुख़सत हो रहा था? उसने मरते वक़्त अपने बेटों से पूछा, “बच्चो! मेरे बाद तुम किसकी बन्दगी करोगे? उन सबने जवाब दिया, “हम उसी एक ख़ुदा कि बन्दगी करेंगे, जिसे आपने और आपके बुज़ुर्गों इबराहीम, इसमाईल और इसहाक़ ने ख़ुदा माना है, और हम उसी के मुस्लिम हैं।”
صُمُّۢ بُكۡمٌ عُمۡيٞ فَهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 119
(18) ये बहरे हैं, गूंगे हैं, अन्धे हैं, ये अब न पलटेंगे।
تِلۡكَ أُمَّةٞ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 120
(134) वे कुछ लोग थे जो गुज़र गए, जो कुछ उन्होंने कमाया, वह उनके लिए है और जो कुछ तुम कमाओगे, वह तुम्हारे लिए है। तुमसे ये न पूछा जाएगा कि ये क्या करते थे?
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ بَل لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ۝ 121
(116) उनका क़ौल है कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनया है। अल्लाह पाक है इन बातों से। अस्ल हक़ीक़त यह है कि ज़मीन और असमानों कि तमाम मौजूदात उसकी मिल्क हैं, हम सब उसके मुतीए-फ़रमान हैं,
أَوۡ كَصَيِّبٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فِيهِ ظُلُمَٰتٞ وَرَعۡدٞ وَبَرۡقٞ يَجۡعَلُونَ أَصَٰبِعَهُمۡ فِيٓ ءَاذَانِهِم مِّنَ ٱلصَّوَٰعِقِ حَذَرَ ٱلۡمَوۡتِۚ وَٱللَّهُ مُحِيطُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 122
(19) या फिर इनकी मिसाल यूँ समझो कि आसमान से ज़ोर की बारिश हो रही है और उसके साथ अंधेरी घटा कड़क और चमक भी है, ये बिजली के कड़ाके सुनकर अपनी जानों के ख़ौफ़ से कानों में उँगलियाँ ठूँस लेते हैं और अल्लाह इन मुनकिरीने-हक़ को हर तरफ़ से घेरे में लिए हुए है।
وَقَالُواْ كُونُواْ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰ تَهۡتَدُواْۗ قُلۡ بَلۡ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِـۧمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 123
(135) यहूदी कहते हैं, “यहूदी हो तो राहे-रास्त पाओगे”। ईसाई कहते हैं, “ईसाई हो तो हिदायत मिलेगी”। उनसे कहो, “नहीं, बल्कि सबको छोड़कर इबराहीम का तरीक़ा। और इबराहीम मुशरिकों में से न था”।
قُولُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَمَآ أُوتِيَ ٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 124
(136) मुसलमानो! कहो कि “हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस हिदायत पर हमारी तरफ़ नाज़िल हुई है और जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और औलादे-याक़ूब की तरफ़ नाज़िल हुई थी और जो मूसा और ईसा और दूसरे तमाम पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गई थी। हम उनके दरमियान कोई तफ़रीक़ नहीं करते और हम अल्लाह के मुस्लिम हैं”।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗاۖ وَلَا تُسۡـَٔلُ عَنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 125
(119) (इससे बढ़कर निशानी क्या होगी कि) हमने तुमको इल्मे-हक़ के साथ ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला बनाकर भेज़ा।39 अब जो लोग जहन्नम से रिश्ता जोड़ चुके हैं, उनकी तरफ़ से तुम ज़िम्मेदार और जवाबदेह नहीं हो।
39. यानी दूसरी निशानियों का क्या ज़िक्र, नुमायाँतरीन निशानी तो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अपनी शख़्सियत है। आप (सल्ल०) के नुबूवत से पहले के हालात, और उस क़ौम और मुल्क के हालात जिसमें आप (सल्ल०) पैदा हुए और वे हालात जिनमें आप (सल्ल०) ने परवरिश पाई और चालीस बरस ज़िन्दगी बसर की, और फिर वह अज़ीमुश्शान कारनामा जो नबी होने के बाद आप (सल्ल०) ने अंजाम दिया, यह सब कुछ एक ऐसी रौशन निशानी है जिसके बाद किसी और निशानी की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَٰكُمۡ أُمَّةٗ وَسَطٗا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيۡكُمۡ شَهِيدٗاۗ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلۡقِبۡلَةَ ٱلَّتِي كُنتَ عَلَيۡهَآ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يَتَّبِعُ ٱلرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِۚ وَإِن كَانَتۡ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِيعَ إِيمَٰنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 126
(143) और इसी तरह तो हमने तुम मुसलमानों को एक ‘उम्मते-वसत’44 बनाया ताकि तुम दुनिया के लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।45 पहले जिस तरफ़ तुम रुख़ करते थे, उसको तो सिर्फ़ हमने यह देखने के लिए क़िबला मुक़र्रर किया था कि कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उलटा फिर जाता है। ये मामला था बड़ा सख़्त, मगर उन लोगों के लिए कुछ भी सख़्त साबित न हुआ जो अल्लाह कि हिदायत से फ़ैज़याब थे। अल्लाह तुम्हारे इस ईमान को हरगिज़ ज़ाया न करेगा, यक़ीन जानो कि वह लोगों के हक़ में शफ़ीक़ व रहीम है।
44. 'उम्मते-वसत’ से मुराद एक ऐसा आला और अशरफ़ गरोह है जो अद्ल व इनसाफ़ और तवस्सुत की रविश पर क़ायम हो, जो दुनिया की क़ौमों के दरमियान सद्र की हैसियत रखता हो, जिसका ताल्लुक़ सबके साथ यकसाँ हक़ और रास्ती का ताल्लुक़ हो और नाहक़, नारवा ताल्लुक़ किसी से न हो।
45. इससे मुराद यह है कि आख़िरत में जब पूरी नौए-इनसानी का इकट्ठा हिसाब लिया जाएगा, उस वक़्त अल्लाह के ज़िम्मेदार नुमाइन्दे की हैसियत से रसूल तुमपर गवाही देगा कि फ़िक्रे-सही और अमले-सॉलेह और निज़ामे-अद्ल की जो तालीम हमने उसे दी थी, वह उसने तुमको बे-कमो-कास्त पूरी-की-पूरी पहुँचा दी और अमलन उसके मुताबिक़ काम करके दिखा दिया। इसके बाद रसूल के क़ायम मक़ाम होने की हैसियत से तुमको आम इनसानों पर गवाह बनकर उठना होगा और यह शहादत देनी होगी कि रसूल ने जो कुछ तुम्हें पहुँचाया था, वह तुमने उन्हें पहुँचाने में, और जो कुछ रसूल ने तुम्हें अमल करके दिखाया था, वह तुमने उन्हें अमल करके दिखाने में अपनी हद तक कोई कोताही नहीं की।
فَإِنۡ ءَامَنُواْ بِمِثۡلِ مَآ ءَامَنتُم بِهِۦ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا هُمۡ فِي شِقَاقٖۖ فَسَيَكۡفِيكَهُمُ ٱللَّهُۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 127
(137) फिर वे अगर इसी तरह ईमान लाएँ, जिस तरह तुम ईमान लाये हो, तो हिदायत पर हैं, और अगर उनसे मुँह फेरें तो खुली बात है कि वे हठधर्मी में पड़ गए हैं। लिहाज़ा इत्मीनान रखो कि उनके मुक़ाबले में अल्लाह तुम्हारी हिमायत के लिए काफ़ी है। और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَلَن تَرۡضَىٰ عَنكَ ٱلۡيَهُودُ وَلَا ٱلنَّصَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَتَّبِعَ مِلَّتَهُمۡۗ قُلۡ إِنَّ هُدَى ٱللَّهِ هُوَ ٱلۡهُدَىٰۗ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم بَعۡدَ ٱلَّذِي جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 128
(120) यहूदी और ईसाई तुमसे हरगिज़ राज़ी न होंगे, जब तुम उनके तरीक़े पर न चलने लगो। साफ़ कह दो कि रास्ता बस वही है जो अल्लाह ने बताया है। वरना अगर उस इल्म के बाद जो तुम्हारे पास आ चुका है, तुमने उनकी ख़ाहिशात कि पैरवी की, तो अल्लाह की पकड़ से बचानेवाला कोई दोस्त और मददगार तुम्हारे लिए नहीं है।
صِبۡغَةَ ٱللَّهِ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ صِبۡغَةٗۖ وَنَحۡنُ لَهُۥ عَٰبِدُونَ ۝ 129
(138) कहो, “अल्लाह का रंग इख़्तियार करो। उसके रंग से अच्छा और किसका रंग होगा? और हम उसी कि बन्दगी करनेवाले लोग हैं।”
قَدۡ نَرَىٰ تَقَلُّبَ وَجۡهِكَ فِي ٱلسَّمَآءِۖ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبۡلَةٗ تَرۡضَىٰهَاۚ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 130
(144) (ऐ नबी!) यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठाना हम देख रहे हैं। लो, हम उसी क़िब्ले की तरफ़ मुँह फेर देते हैं जिसे तुम पसंद करते हो। मस्जिदे-हराम की तरफ़ रुख़ फेर दो। अब जहाँ कहीं तुम हो, उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।46 ये लोग जिन्हें किताब दी गई थी, ख़ूब जानते हैं कि (तहवीले-क़िब्ला का) यह हुक्म उनके रब ही कि तरफ़ से है और बरहक़ है, मगर इसके बावजूद ये जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह इनसे ग़ाफ़िल नहीं है।
46. यह है वह अस्ल हुक्म जो तहवीले-क़िब्ला के बारे में दिया गया था। यह हुक्म रजब या शाबान सन् 2 हिजरी में नाज़िल हुआ। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक सहाबी के यहाँ दावत पर गए हुए थे। वहाँ ज़ुह्‍र का वक़्त आ गया और आप (सल्ल०) लोगों को नमाज़ पढ़ाने खड़े हुए। दो रकअतें पढ़ा चुके थे कि तीसरी रकअत में यकायक वह्य के ज़रिए से यह आयत नाज़िल हुई और उसी वक़्त आप (सल्ल०) और आप (सल्ल०) की इक़तिदा में जमाअत के तमाम लोग बैतुल-मक़दिस से काबा के रुख़ फिर गए। उसके बाद मदीना और अतराफ़े-मदीना में इसकी आम मुनादी की गई। और यह जो फ़रमाया कि हम तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना देख रहे हैं और यह कि “हम उसी क़िब्ले की तरफ़ तुम्हें फेरे देते हैं, जिसे तुम पसन्द करते हो,” इससे साफ़ मालूम होता है कि तहवीले-क़िब्ला का हुक्म आने से पहले नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसके मुन्तज़िर थे।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَيۡكُمۡ حُجَّةٌ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِي وَلِأُتِمَّ نِعۡمَتِي عَلَيۡكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 131
(150) और जहाँ से भी तुम्हारा गुज़र हो, अपना रुख़ मस्जिदे-हराम ही की तरफ़ फेरा करो, और जहाँ भी तुम हो, उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ो ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई हुज्जत न मिले।48 हाँ, उनमें से जो ज़ालिम हैं, उनकी ज़बान किसी हाल में बंद न होगी, तो उनसे तुम न डरो, बल्कि मुझसे डरो, और49 इसलिए कि मैं तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दूँ और इस तवक़्क़ो पर कि मेरे इस हुक्म कि पैरवी से तुम उसी तरह फ़लाह का रास्ता पाओगे,
48. यानी किसी को यह कहने का मौक़ा न मिले कि ये अच्छे मोमिन हैं जो अपने ख़ुदा के सरीह हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते हैं।
49. इस फ़िक़रे का ताल्लुक़ इस इबारत से है कि “उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ो ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई हुज्जत न मिले।”
قُلۡ أَتُحَآجُّونَنَا فِي ٱللَّهِ وَهُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡ وَلَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُخۡلِصُونَ ۝ 132
(139) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “क्या तुम अल्लाह के बारे में हमसे झगड़ते हो? हालाँकि वही हमारा भी रब है और तुम्हारा रब भी। हमारे आमाल हमारे लिए हैं, तुम्हारा अमाल तुम्हारे लिए, हम अल्लाह ही के लिए अपनी बन्दगी को ख़ालिस कर चुके हैं।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَتۡلُونَهُۥ حَقَّ تِلَاوَتِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 133
(121) जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे उसे उस तरह पढ़ते हैं जैसा कि पढ़ने का हक़ है। वे इस (क़ुरआन) पर सच्चे दिल से ईमान ले आते हैं40। और जो इसके साथ कुफ़्र का रवैया इख़्तियार करें, वही अस्ल में नुक़सान उठानेवाले हैं।
40. यह अहले-किताब के सॉलेह उन्‌सुर की तरफ़ इशारा है कि ये लोग चूँकि दियानत और रास्ती के साथ ख़ुदा की उस किताब को पढ़ते हैं जो उनके पास पहले से मौजूद थी, इसलिए वे इस क़ुरआन को सुनकर या पढ़कर इसपर ईमान ले आते हैं।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَنِّي فَضَّلۡتُكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 134
(122) ऐ बनी-इसराईल! याद करो मेरी वह नेमत, जिसे मैंने तुम्हें नवाज़ा था, और ये कि मैंने तुम्हें दुनिया की तमाम क़ौमों पर फ़ज़ीलत दी थी
وَلَئِنۡ أَتَيۡتَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ بِكُلِّ ءَايَةٖ مَّا تَبِعُواْ قِبۡلَتَكَۚ وَمَآ أَنتَ بِتَابِعٖ قِبۡلَتَهُمۡۚ وَمَا بَعۡضُهُم بِتَابِعٖ قِبۡلَةَ بَعۡضٖۚ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ إِنَّكَ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 135
(145) तुम इन अहले किताब के पास ख़ाह कोई भी निशानी ले आओ, मुमकिन नहीं कि ये तुम्हारे क़िब्ले की पैरवी करने लगें, और न तुम्हारे लिए यह मुमकिन है कि तुम उनके क़िब्ले की पैरवी करो, और उनमें से कोई गरोह भी दूसरे के क़िब्ले की पैरवी के लिए तैयार नहीं है, और अगर तुमने उस इल्म के बाद, जो तुम्हारे पास आ चुका है, उनकी ख़ाहिशात कि पैरवी की तो यक़ीनन तुम्हारा शुमार ज़ालिमों में होगा।
كَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِيكُمۡ رَسُولٗا مِّنكُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِنَا وَيُزَكِّيكُمۡ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَيُعَلِّمُكُم مَّا لَمۡ تَكُونُواْ تَعۡلَمُونَ ۝ 136
(151) जिस तरह (तुम्हें इस चीज़ से फ़लाह नसीब हुई कि) हमने तुम्हारे दरमियान ख़ुद तुममें से एक रसूल भेजा, जो तुम्हें हमारी आयात सुनाता है, तुम्हारी जिंदगियों को सँवारता है, तुम्हें किताब और हिकमत कि तालीम देता है और तुम्हें वे बातें सिखाता है जो तुम नहीं जानते थे।
فَٱذۡكُرُونِيٓ أَذۡكُرۡكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لِي وَلَا تَكۡفُرُونِ ۝ 137
(152) लिहाज़ा तुम मुझे याद करो, मैं तुम्हें याद रखूँगा, और मेरा शुक्र अदा करो, कुफ़राने-नेमत न करो।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا لَّا تَجۡزِي نَفۡسٌ عَن نَّفۡسٖ شَيۡـٔٗا وَلَا يُقۡبَلُ مِنۡهَا عَدۡلٞ وَلَا تَنفَعُهَا شَفَٰعَةٞ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 138
(123) और डरो उस दिन से जब कोई किसी के ज़रा काम न आयेगा, न किसी से फ़िदया क़ुबूल किया जाएगा, और न कोई सिफ़ारिश ही आदमी को काम देगी और न मुज़रिमों को कहीं से कोई मदद पहुँच सकेगी।
أَمۡ تَقُولُونَ إِنَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطَ كَانُواْ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰۗ قُلۡ ءَأَنتُمۡ أَعۡلَمُ أَمِ ٱللَّهُۗ وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَتَمَ شَهَٰدَةً عِندَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 139
(140) या फिर तुम्हारा कहना है कि इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब, और औलादे-याक़ूब सब-के-सब यहूदी थे या नसरानी थे”। कहो, “तुम ज़्यादा जानते हो या अल्लाह? उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम कोन होगा, जिसके ज़िम्मे अल्लाह की तरफ़ से एक गवाही हो और वह उसे छिपाए? तुम्हारी हरकात से अल्लाह ग़ाफ़िल तो नहीं है।
۞وَإِذِ ٱبۡتَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ رَبُّهُۥ بِكَلِمَٰتٖ فَأَتَمَّهُنَّۖ قَالَ إِنِّي جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ إِمَامٗاۖ قَالَ وَمِن ذُرِّيَّتِيۖ قَالَ لَا يَنَالُ عَهۡدِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 140
(124) याद करो कि जब इबराहीम को उसके रब ने चंद बातों में आज़माया और वह उन सब में पूरा उतर गया तो उसने कहा, मैं तुझे सब लोगों का पेशवा बनानेवाला हूँ”। इबराहीम ने अर्ज़ किया, “और क्या मेरी औलाद से भी यही वादा है?” उसने जवाब दिया, “मेरा वादा ज़ालिमों से मुताल्लिक़ नहीं है।41
41. यानी यह वादा तुम्हारी औलाद के सिर्फ़ उस हिस्से से ताल्लुक़ रखता है जो सॉलेह हो। उनमें से जो ज़ालिम होंगे, उनके लिए यह वादा नहीं है। यहाँ ज़ालिम से मुराद सिर्फ़ इनसानों पर ही ज़ुल्म करनेवाला नहीं है, बल्कि हक और सदाक़त पर ज़ुल्म करनेवाला भी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَعِينُواْ بِٱلصَّبۡرِ وَٱلصَّلَوٰةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 141
(153) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! सब्र और नमाज़ से मदद लो। अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।
تِلۡكَ أُمَّةٞ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 142
(141) – वे कुछ लोग थे जो गुज़र चुके। उनकी कमाई उनके लिए थी और तुम्हारी कमाई तुम्हारे लिए। तुमसे उनके आमाल के मुत्ताल्लिक़ सवाल नहीं होगा”।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡرِفُونَهُۥ كَمَا يَعۡرِفُونَ أَبۡنَآءَهُمۡۖ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنۡهُمۡ لَيَكۡتُمُونَ ٱلۡحَقَّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 143
(146) जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे इस मक़ाम को (जिसे क़िब्ला बनाया गया है) ऐसा पहचानते हैं, जैसा अपनी औलाद को पहचानते हैं,47 मगर इनमें से एक गरोह जानते-बूझते हक़ को छिपा रहा है।
47. यह अरब का मुहावरा है। जिस चीज़ को आदमी यक़ीनी तौर पर जानता हो उसे यूँ कहते हैं कि वह इस चीज़ को ऐसा पहचानता है जैसा अपनी औलाद को पहचानता है। यहूदियों और ईसाइयों के उलमा हक़ीक़त में यह बात अच्छी तरह जानते थे कि काबा को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तामीर किया था और बैतुल-मक़दिस इसके 13 सौ बरस बाद हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हाथों तामीर हुआ। यह बात किसी से भी छिपी हुई न थी।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَن يُقۡتَلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَمۡوَٰتُۢۚ بَلۡ أَحۡيَآءٞ وَلَٰكِن لَّا تَشۡعُرُونَ ۝ 144
(154) और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँ उन्हें मुर्दा न कहो, ऐसे लोग तो हक़ीक़त में ज़िंदा हैं, मगर तुम्हें उनकी ज़िन्दगी का शुऊर नहीं होता।
۞سَيَقُولُ ٱلسُّفَهَآءُ مِنَ ٱلنَّاسِ مَا وَلَّىٰهُمۡ عَن قِبۡلَتِهِمُ ٱلَّتِي كَانُواْ عَلَيۡهَاۚ قُل لِّلَّهِ ٱلۡمَشۡرِقُ وَٱلۡمَغۡرِبُۚ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 145
(142) नादान लोग ज़रूर कहेंगे, “इन्हें क्या हुआ कि ये पहले जिस क़िबले कि तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उससे यकायक फिर गए”?43 (ऐ नबी!) इनसे कहो, “मशरिक़ और मग़रिब सब अल्लाह के हैं। अल्लाह जिसे चाहता है सीधी राह दिखा देता है”।
43. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हिजरत के बाद मदीना तय्यिबा में सोलह या सतरह महीने तक बैतुल-मक़दिस की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ते रहे। फिर काबा की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म आया।
وَإِذۡ جَعَلۡنَا ٱلۡبَيۡتَ مَثَابَةٗ لِّلنَّاسِ وَأَمۡنٗا وَٱتَّخِذُواْ مِن مَّقَامِ إِبۡرَٰهِـۧمَ مُصَلّٗىۖ وَعَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ أَن طَهِّرَا بَيۡتِيَ لِلطَّآئِفِينَ وَٱلۡعَٰكِفِينَ وَٱلرُّكَّعِ ٱلسُّجُودِ ۝ 146
(125) और यह कि हमने इस घर (काबा) को लोगों के लिए मरकज़ और अमन की जगह क़रार दिया था और लोगों को हुक्म देता हूँ कि इबराहीम जहाँ इबादत के लिए खड़ा होता है उस मक़ाम को मुस्तक़िल जाए-नमाज़ बना लो, और इबराहीम और इसमाईल को ताक़ीद की थी कि मेरे इस घर को तवाफ़ और एतिकाफ़ और रुकू और सजदा करनेवालों के लिए पाक रखो।
وَلَنَبۡلُوَنَّكُم بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلۡخَوۡفِ وَٱلۡجُوعِ وَنَقۡصٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَنفُسِ وَٱلثَّمَرَٰتِۗ وَبَشِّرِ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 147
(155) और हम ज़रूर तुम्हें ख़ौफ़ व ख़तर, फ़ाक़ाकशी, जान व माल के नुक़सानात और आमदनियों के घाटे में मुब्तला करके तुम्हारी आज़माइश करेंगे। इन हालत में जो लोग सब्र करें
ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 148
(147) यह क़तई एक अम्रे-हक़ है तुम्हारे रब कि तरफ़ से, लिहाज़ा इसके मुत्तालिक़ तुम हरगिज़ शक में न पड़ो।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّ ٱجۡعَلۡ هَٰذَا بَلَدًا ءَامِنٗا وَٱرۡزُقۡ أَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ مَنۡ ءَامَنَ مِنۡهُم بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ قَالَ وَمَن كَفَرَ فَأُمَتِّعُهُۥ قَلِيلٗا ثُمَّ أَضۡطَرُّهُۥٓ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلنَّارِۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 149
(126) और यह कि इबराहीम ने दुआ की, “ऐ मेरे रब! इस शहर को अमन का शहर बना दे, और इसके बाशिंदों में से जो अल्लाह और आख़िरत को मानें, उन्हें हर क़िस्म के फलों का रिज़्क़ दे”। जवाब में उसके रब ने फ़रमाया “और जो न मानेगा, दुनिया की चंद रोज़ा ज़िन्दगी का समान तो मैं उसे भी दूँगा, मगर आख़िरकार उसे अज़ाबे-जहन्नम की तरफ़ घसीटूँगा, और वह बदतरीन ठिकाना है।”
ٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَٰبَتۡهُم مُّصِيبَةٞ قَالُوٓاْ إِنَّا لِلَّهِ وَإِنَّآ إِلَيۡهِ رَٰجِعُونَ ۝ 150
(156) और जब कोई मुसीबत पड़े तो कहें “हम अल्लाह ही के हैं और अल्लाह ही कि तरफ़ पलटकर हमें जाना है,” उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो।
وَلِكُلّٖ وِجۡهَةٌ هُوَ مُوَلِّيهَاۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ أَيۡنَ مَا تَكُونُواْ يَأۡتِ بِكُمُ ٱللَّهُ جَمِيعًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 151
(148) हर एक के लिए एक रुख़ है जिसकी तरफ़ वो मुड़ता है। पस तुम भलाइयों की तरफ़ सबक़त करो। जहाँ भी तुम होगे, अल्लाह तुम्हें पा लेगा। उसकी क़ुदरत से कोई चीज़ बाहर नहीं।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ صَلَوَٰتٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَرَحۡمَةٞۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُهۡتَدُونَ ۝ 152
(157) उनपर उनके रब की तरफ़ से बड़ी इनायत होंगी, उसकी रहमत उनपर साया करेगी और ऐसे ही लोग सीधे रास्ते पर हैं।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۖ وَإِنَّهُۥ لَلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 153
(149) तुम्हारा गुज़र जिस मक़ाम से भी हो, वहीं से अपना रुख़ (नमाज़ के वक़्त) मस्जिदे हराम कि तरफ़ फेर दो, क्योंकि यह तुम्हारे रब का बिलकुल बरहक़ फ़ैसला है और अल्लाह तुम लोगों के आमाल से बेख़बर नहीं है।
۞إِنَّ ٱلصَّفَا وَٱلۡمَرۡوَةَ مِن شَعَآئِرِ ٱللَّهِۖ فَمَنۡ حَجَّ ٱلۡبَيۡتَ أَوِ ٱعۡتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَاۚ وَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَإِنَّ ٱللَّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ ۝ 154
(158) यक़ीनन सफ़ा और मरवा अल्लाह कि निशानियों में से हैं। लिहाज़ा जो शख़्स बैतुल्लाह का हज या उमरा करे,50 उसके लिए कोई गुनाह कि बात नहीं कि वह इन दोनों पहाड़ियों के दरमियान सई कर ले और जो ब-रिज़ा व रग़बत कोई भलाई का काम करेगा, अल्लाह को उसका इल्म है और वह उसकी क़द्र करनेवाला है।
50. जिल-हिज्जा की मुक़र्रर तारीख़ों में काबा की जो ज़ियारत की जाती है, उसका नाम 'हज' है और इन तारीख़ों के अलावा दूसरे किसी ज़माने में जो ज़ियारत की जाए वह 'उमरा' है।
إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱلۡفُلۡكِ ٱلَّتِي تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِمَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن مَّآءٖ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَآبَّةٖ وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَٰحِ وَٱلسَّحَابِ ٱلۡمُسَخَّرِ بَيۡنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 155
(164) (इस हक़ीक़त को पहचानने के लिए अगर कोई निशानी और अलामत दरकार है तो) जो लोग अक़्ल से काम लेते हैं उनके लिए आसमानों और ज़मीन की साख़्त में, रात और दिन के पैहम एक दूसरे के बाद आने में, उन कश्तियों में, जो इनसान के नफ़े की चीज़ें लिए हुए दरियाओं और समुद्रों में चलती-फिरती हैं, बारिश के उस पानी में जिसे अल्लाह ऊपर से बरसाता है फिर उसके ज़रिए से मुर्दा ज़मीन को ज़िन्दगी बख़्शता है और (अपने इसी इन्तिज़ाम की बदौलत) ज़मीन में हर क़िस्म की जानदार मख़लूक़ को फैलाता है, हवाओं की गर्दिश में और उन बादलों में जो आसमान और ज़मीन में दरमियान ताबे-फ़रमान बनाकर रखे गए हैं, बेशुमार निशानियाँ हैं।
وَإِذۡ يَرۡفَعُ إِبۡرَٰهِـۧمُ ٱلۡقَوَاعِدَ مِنَ ٱلۡبَيۡتِ وَإِسۡمَٰعِيلُ رَبَّنَا تَقَبَّلۡ مِنَّآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 156
(127) और याद करो, इबराहीम और इसमाईल इस घर की दीवारें उठा रहे थे तो दुआ करते जाते थे, “ऐ हमारे रब! हमसे यह ख़िदमत क़ुबूल फ़रमा ले, तु सबकी सुनने और सब कुछ जाननेवाला है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَتَّخِذُ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَندَادٗا يُحِبُّونَهُمۡ كَحُبِّ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَشَدُّ حُبّٗا لِّلَّهِۗ وَلَوۡ يَرَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِذۡ يَرَوۡنَ ٱلۡعَذَابَ أَنَّ ٱلۡقُوَّةَ لِلَّهِ جَمِيعٗا وَأَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعَذَابِ ۝ 157
(165) (मगर वहदते-ख़ुदावन्दी पर दलालत करनेवाले इन खुले-खुले आसार के होते भी) कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसका हमसर और मद्दे-मुक़ाबिल बनाते हैं और उनके ऐसे गिरवीदा हैं जैसी अल्लाह के साथ गिरवीदगी होनी चाहिए। — हालाँकि ईमान रखनेवाले लोग सबसे बढ़कर अल्लाह को महबूब रखते हैं। — काश! जो कुछ अज़ाब को सामने देखकर इन्हें सूझनेवाला है, वह आज ही इन ज़ालिमों को सूझ जाए कि सारी ताक़त और सारे इख़्तियारात अल्लाह ही के क़ब्ज़े में हैं और यह कि अल्लाह सज़ा देने में भी बहुत सख़्त है।।
رَبَّنَا وَٱجۡعَلۡنَا مُسۡلِمَيۡنِ لَكَ وَمِن ذُرِّيَّتِنَآ أُمَّةٗ مُّسۡلِمَةٗ لَّكَ وَأَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبۡ عَلَيۡنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 158
(128) ऐ रब! हम दोनों को अपना मुस्लिम (मुतीए-फ़रमान) बना, हमारी नस्ल में एक ऐसी क़ौम उठा जो तेरी मुस्लिम हो, हमें अपनी इबादत के तरीक़े बता और हमारी कोताहियों से दर गुज़र फ़रमा, तू बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡتُمُونَ مَآ أَنزَلۡنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلۡهُدَىٰ مِنۢ بَعۡدِ مَا بَيَّنَّٰهُ لِلنَّاسِ فِي ٱلۡكِتَٰبِ أُوْلَٰٓئِكَ يَلۡعَنُهُمُ ٱللَّهُ وَيَلۡعَنُهُمُ ٱللَّٰعِنُونَ ۝ 159
(159) जो लोग हमारी नाज़िल की हुई रौशन तालीमात और हिदायात को छिपाते हैं, दरआँ-हाले कि हम उन्हें सब इनसानों की रहनुमाई के लिए अपनी किताब में बयान कर चुके हैं, यक़ीन जानो कि अल्लाह भी उनपर लानत करता है और तमाम लानत करनेवाले भी उनपर लानत भेजते हैं।
إِذۡ تَبَرَّأَ ٱلَّذِينَ ٱتُّبِعُواْ مِنَ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُواْ وَرَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَ وَتَقَطَّعَتۡ بِهِمُ ٱلۡأَسۡبَابُ ۝ 160
(166) जब वह सज़ा देगा उस वक़्त कैफ़ियत यह होगी कि वही पेशवा और रहनुमा जिनकी दुनिया में पैरवी की गई थी, अपने पैरुओं से बे-ताल्लुक़ी ज़ाहिर करेंगे, मगर सज़ा पाकर रहेंगे और इनके सारे असबाब व वसाइल का सिलसिला कट जाएगा।
رَبَّنَا وَٱبۡعَثۡ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَيُزَكِّيهِمۡۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 161
(129) और ऐ रब! इन लोगों में ख़ुद इन्हीं की क़ौम से एक रसूल उठाइयो, जो तेरी आयात सुनाए, इनको किताब और हिकमत की तालीम दे और इनकी ज़िंदगियाँ सँवारे, तू बड़ा मुक़्तदिर और हकीम है”।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُواْ لَوۡ أَنَّ لَنَا كَرَّةٗ فَنَتَبَرَّأَ مِنۡهُمۡ كَمَا تَبَرَّءُواْ مِنَّاۗ كَذَٰلِكَ يُرِيهِمُ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡ حَسَرَٰتٍ عَلَيۡهِمۡۖ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنَ ٱلنَّارِ ۝ 162
(167) और वे लोग जो दुनिया में उनकी पैरवी करते थे, कहेंगे कि काश! हमको फिर एक मौक़ा दिया जाता तो जिस तरह आज ये हमसे बेज़ारी ज़ाहिर कर रहे हैं, हम इनसे बेज़ार होकर दिखा देते। यूँ अल्लाह इन लोगों के वे आमाल, जो ये दुनिया में कर रहे हैं, इनके सामने इस तरह लाएगा कि ये हसरतों और पशेमानियों के साथ हाथ मलते रहेंगे मगर आग से निकलने की कोई राह न पाएँगे।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ وَأَصۡلَحُواْ وَبَيَّنُواْ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَتُوبُ عَلَيۡهِمۡ وَأَنَا ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 163
(160) अलबत्ता जो इस रविश से बाज़ आ जाएँ और अपने तर्ज़े-अमल की इस्लाह कर लें और जो कुछ छिपाते थे, उसे बयान करने लगें, उनको मैं माफ़ कर दूँगा, और मैं बड़ा दरगुज़र करनेवाला और रहम करनेवाला हूँ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ كُلُواْ مِمَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ حَلَٰلٗا طَيِّبٗا وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٌ ۝ 164
(168) लोगो! ज़मीन में जो हलाल और पाक चीज़ें हैं उन्हें खाओ और शैतान के बताए हुए रास्तों पर न चलो। वह तुम्हारा खुला दुश्मन है,
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٌ أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةُ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 165
(161) जिन लोगों ने कुफ़्र का रवैया' इख़्तियार किया और कुफ़्र की हालत ही में जान दी, उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और तमाम इनसानों की लानत है।
51. 'कुफ़्र' का लफ़्ज़ ईमान के मुक़ाबले में बोला जाता है। ईमान के मानी हैं मानना, क़ुबूल करना, तसलीम कर लेना। इसके बरअक्स कुफ़्र के मानी हैं न मानना, रद्द कर देना, इनकार करना। क़ुरआन की रू से कुफ़्र के रवैये की मुख़्तलिफ़ सूरते हैं— एक यह कि इनसान सिरे से ख़ुदा ही को न माने, या उसके इक़तिदारे-आला को तसलीम न करे और उसको अपना और सारी कायनात का मालिक और माबूद मानने से इनकार कर दे, या उसे वाहिद मालिक और माबूद न माने। दूसरे यह कि अल्लाह को तो माने मगर उसके अहकाम और उसकी हिदायात को वाहिद मम्बए-इल्मो-क़ानून तसलीम करने से इनकार कर दे। तीसरे यह कि उसूलन इस बात को भी तस्लीम कर ले कि उसे अल्लाह ही की हिदायत पर चलना चाहिए, मगर अल्लाह अपनी हिदायात और अपने अहकाम पहुँचाने के लिए जिन पैग़म्बरों को वास्ता बनाता है, उन्हें तसलीम न करे। चौथे यह कि पैग़म्बरों के दरमियान तफ़रीक़ करे और अपनी पसन्द या अपने तास्सुबात की बिना पर उनमें से किसी को माने और किसी को न माने। पाँचवें यह कि पैग़म्बरों ने ख़ुदा की तरफ़ से अक़ाइद, अख़लाक़ और क़वानीने-हयात के मुताल्लिक़ जो तालीमात बयान की हैं उनको या उनमें से किसी चीज़ को मानने से इनकार कर दे। छठे यह कि नज़रिए के तौर पर तो इन सब चीज़ों को मान ले मगर अमलन अहकामे-इलाही की दानिस्ता नाफ़रमानी करता रहे और इस नाफ़रमानी पर इसरार करे और दुनियवी ज़िन्दगी में अपने रवैये की बिना इताअत पर न रखे, बल्कि नाफ़रमानी ही पर रखे।
إِنَّمَا يَأۡمُرُكُم بِٱلسُّوٓءِ وَٱلۡفَحۡشَآءِ وَأَن تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 166
(169) तुम्हें बदी और फ़ुहश का हुक्म देता है और यह सिखाता है कि तुम अल्लाह के नाम पर वे बातें कहो जिनके मुताल्लिक़ तुम्हें इल्म नहीं है कि (वे अल्लाह ने फ़रमाई हैं)।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلضَّلَٰلَةَ بِٱلۡهُدَىٰ وَٱلۡعَذَابَ بِٱلۡمَغۡفِرَةِۚ فَمَآ أَصۡبَرَهُمۡ عَلَى ٱلنَّارِ ۝ 167
(175) ये वे लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले ज़लालत ख़रीदी और मग़फ़िरत के बदले अज़ाब मोल ले लिया। कैसा अजीब है इनका हौसला कि जहन्नम का अज़ाब बरदाश्त करने के लिए तैयार हैं!
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّبِعُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ بَلۡ نَتَّبِعُ مَآ أَلۡفَيۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 168
(170) उनसे जब कहा जाता है कि अल्लाह ने जो अहकाम नाज़िल किए हैं, उनकी पैरवी करो तो जवाब देते हैं कि हम तो उसी तरीक़े की पैरवी करेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। अच्छा, अगर इनके बाप-दादा ने अक़्ल से कुछ भी काम न लिया हो और राहे-रास्त न पाई हो तो क्या फिर भी ये उन्हीं की पैरवी किए चले जाएँगे?
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ نَزَّلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَفِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 169
(176) यह सब कुछ इस वजह से हुआ कि अल्लाह ने तो ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ किताब नाज़िल की थी, मगर जिन लोगों ने किताब में इख़्तिलाफ़ात निकाले वे अपने झगड़ों में हक़ से बहुत दूर निकल गए।
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 170
(162) इसी लानतज़दगी की हालत में वे हमेशा रहेंगे, न उनकी सज़ा में तख़फ़ीफ़ होगी और न उन्हें फिर कोई दूसरी मुहलत दी जाएगी।
وَمَثَلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ كَمَثَلِ ٱلَّذِي يَنۡعِقُ بِمَا لَا يَسۡمَعُ إِلَّا دُعَآءٗ وَنِدَآءٗۚ صُمُّۢ بُكۡمٌ عُمۡيٞ فَهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 171
(171) ये लोग जिन्होंने ख़ुदा के बताए हुए तरीक़े पर चलने से इनकार कर दिया है, इनकी हालत बिलकुल ऐसी है जैसे चरवाहा जानवरों को पुकारता है और वे हाँक-पुकार की सदा के सिवा कुछ नहीं सुनते। ये बहरे हैं, गूँगे हैं, अँधे हैं, इसलिए कोई बात इनकी समझ में नहीं आती।
۞لَّيۡسَ ٱلۡبِرَّ أَن تُوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ قِبَلَ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلۡكِتَٰبِ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ وَءَاتَى ٱلۡمَالَ عَلَىٰ حُبِّهِۦ ذَوِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِ وَٱلسَّآئِلِينَ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَأَقَامَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَى ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُوفُونَ بِعَهۡدِهِمۡ إِذَا عَٰهَدُواْۖ وَٱلصَّٰبِرِينَ فِي ٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَحِينَ ٱلۡبَأۡسِۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُتَّقُونَ ۝ 172
(177) नेकी यह नहीं है कि तुमने अपने चेहरे मशरिक़ की तरफ़ कर लिए या मग़रिब की तरफ़, बल्कि नेकी यह है कि आदमी अल्लाह को और यौमे-आख़िर और मलाइका को और अल्लाह की नाज़िल की हुई किताब और उसके पैग़म्बरों को दिल से माने और अल्लाह की मुहब्बत में अपना दिलपसन्द माल रिश्तेदारों और यतीमों पर, मिसकीनों और मुसाफ़िरों पर, मदद के लिए हाथ फैलानेवालों पर और गुलामों की रिहाई पर ख़र्च करे, नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे। और नेक वे लोग हैं कि जब अद करें तो उसे वफ़ा करें और तंगी और मुसीबत के वक़्त में और हक़ व बातिल की जंग में सब्र करें। ये हैं रास्तबाज़ लोग और यही लोग मुत्तक़ी हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِصَاصُ فِي ٱلۡقَتۡلَىۖ ٱلۡحُرُّ بِٱلۡحُرِّ وَٱلۡعَبۡدُ بِٱلۡعَبۡدِ وَٱلۡأُنثَىٰ بِٱلۡأُنثَىٰۚ فَمَنۡ عُفِيَ لَهُۥ مِنۡ أَخِيهِ شَيۡءٞ فَٱتِّبَاعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَأَدَآءٌ إِلَيۡهِ بِإِحۡسَٰنٖۗ ذَٰلِكَ تَخۡفِيفٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَرَحۡمَةٞۗ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 173
(178) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम्हारे लिए क़त्ल के मुक़द्दमों में क़िसास का हुक्म लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने क़त्ल किया हो तो उस आज़ाद ही से बदला लिया जाए, ग़ुलाम क़ातिल हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए और औरत इस जुर्म की मुर्तकिब हो तो उस औरत ही से क़िसास लिया जाए। हाँ, अगर किसी क़ातिल के साथ उसका भाई कुछ नर्मी करने के लिए तैयार हो तो मारूफ़ तरीक़े के मुताबिक़ ख़ू-बहा का तसफ़िया होना चाहिए और क़ातिल को लाज़िम है कि रास्ती के साथ ख़ू-बहा अदा करे।53 यह तुम्हारे रब की तरफ़ से तख़फ़ीफ़ और रहमत है। इसपर भी जो ज़्यादती करे54, उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
53. इससे मालूम हुआ कि इस्लामी क़ानूने-ताज़ीरात में क़त्ल का मामला क़ाबिले-राज़ीनामा है। मक़तूल के वारिसों को यह हक़ पहुँचता है कि क़ातिल को क़िसास से माफ़ कर दें और इस सूरत में अदालत के लिए जाइज़ नहीं कि क़ातिल की जान ही लेने पर इसरार करे। अलबत्ता माफ़ी की सूरत में क़ातिल को ख़ूँ-बहा अदा करना होगा।
54. मसलन यह कि मक़तूल का वारिस ख़ूँ-बहा वुसूल कर लेने के बाद फिर इन्तिकाम लेने की कोशिश करे, या क़ातिल ख़ूँ-बहा अदा करने में टाल-मटोल करे और मक़तूल के वारिस ने जो एहसान उसके साथ किया है, उसका बदला एहसान-फ़रामोशी से दे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لِلَّهِ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 174
(172) ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो! अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह ही की बन्दगी करनेवाले हो तो जो पाक चीज़ें हमने तुम्हें बख़्शी हैं उन्हें बेतकल्लुफ़ खाओ और अल्लाह का शुक्र अदा करो।
وَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 175
(163) तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है, उस रहमान और रहीम के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ بِهِۦ لِغَيۡرِ ٱللَّهِۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 176
(173) अल्लाह की तरफ़ से अगर कोई पाबन्दी तुमपर है तो वह यह है कि मुर्दार न खाओ, ख़ून से और सूअर के गोश्त से परहेज़ करो और कोई ऐसी चीज़ न खाओ जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। हाँ, जो शख़्स मजबूरी की हालत में हो और वह इनमें से कोई चीज़ खा ले बग़ैर इसके कि वह क़ानून-शिकनी का इरादा रखता हो या ज़रूरत की हद से तजावुज़ करे तो उसपर कुछ गुनाह नहीं, अल्लाह बख़्शनेवाला और रह्म करनेवाला है।52
52. इस आयत में हराम चीज़ के इस्तेमाल करने की इजाज़त तीन शर्तों के साथ दी गई है : एक यह कि वाक़ई मजबूरी की हालत हो। मसलन भूख या प्यास से जान पर बन गई हो, या बीमारी की वजह से जान का ख़तरा हो और इस हालत में हराम चीज़ के सिवा और कोई चीज़ मुयस्सर न हो। दूसरे यह कि क़ानून को तोड़ने की ख़ाहिश दिल में मौजूद न हो। तीसरे यह कि ज़रूरत की हद से तजावुज़ न किया जाए, मसलन हराम चीज़ के चंद लुक़्मे या चंद क़तरे या चंद घूँट अगर जान बचा सकते हों तो इनसे ज़्यादा इस चीज़ का इस्तेमाल न होने पाए।
وَلَكُمۡ فِي ٱلۡقِصَاصِ حَيَوٰةٞ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 177
(179) – अक़्ल व ख़िरद रखनेवालो, तुम्हारे लिए क़िसास में ज़िन्दगी है। उम्मीद है कि तुम इस क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी से परहेज़ करोगे।
كُتِبَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ إِن تَرَكَ خَيۡرًا ٱلۡوَصِيَّةُ لِلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَ بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 178
(180) तुमपर फ़र्ज़ किया गया है कि जब तुममें से किसी की मौत का वक़्त आए और वह अपने पीछे माल छोड़ रहा हो तो वालिदैन और रिश्तेदारों के लिए मारूफ़ तरीक़े से वसीयत करे।55" यह हक़ है मुत्तक़ी लोगों पर।
55. यह हुक्म उस ज़माने में दिया गया था, जब कि विरासत की तक़सीम के लिए अभी कोई क़ानून मुक़र्रर नहीं हुआ था। उस वक़्त हर शख़्स पर लाज़िम किया गया कि वह अपने वारिसों के हिस्से बज़रिए वसीयत मुक़र्रर कर जाए ताकि उसके मरने के बाद न तो ख़ानदान में झगड़े हों और न किसी हक़दार की हक़-तलफ़ी होने पाए। बाद में जब तक़सीमे-विरासत के लिए अल्लाह तआला ने ख़ुद ज़ाब्ता बना दिया (जो आगे सूरा-4, निसा में आनेवाला है) तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह क़ायदा मुक़र्रर फ़रमा दिया कि वारिसों के जो हिस्से अल्लाह तआला ने मुक़र्रर कर दिए हैं उनमें वसीयत की कमी-बेशी नहीं की जा सकती। और ग़ैर-वारिस के हक़ में कुल जायदाद के एक तिहाई से ज़्यादा की वसीयत न करनी चाहिए। और मुस्लिम व काफ़िर एक-दूसरे के वारिस नहीं हो सकते।
أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۚ وَعَلَى ٱلَّذِينَ يُطِيقُونَهُۥ فِدۡيَةٞ طَعَامُ مِسۡكِينٖۖ فَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥۚ وَأَن تَصُومُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 179
(184) चंद मुक़र्रर दिनों के रोज़े हैं। अगर तुममें से कोई बीमार हो या सफ़र पर हो तो दूसरे दिनों में इतनी ही तादाद पूरी कर ले। और जो लोग रोज़ा रखने की क़ुदरत रखते हों (फिर न रखें) तो वे फ़िदया दें। एक रोज़े का फ़िद्या एक मिसकीन को खाना खिलाना है, और जो अपनी ख़ुशी से कुछ ज़्यादा भलाई करे तो यह उसी के लिए बेहतर है। लेकिन अगर तुम समझो तो तुम्हारे हक़ में अच्छा यही है कि रोज़ा रखो।56
56. इस्लाम के अकसर अहकाम की तरह रोज़े की फ़र्ज़ियत भी बतदरीज आइद की गई है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इबतिदा में मुसलमानों को सिर्फ़ हर महीने तीन दिन के रोज़े रखने की हिदायत फ़रमाई थी, मगर ये रोज़े फ़र्ज़ न थे। फिर सन् 2 हिजरी में रमज़ान के रोज़ों का यह हुक्म क़ुरआन में नाज़िल हुआ, मगर इसमें इतनी रिआयत रखी गई कि जो लोग रोज़े को बरदाश्त करने की ताक़त रखते हों और फिर भी रोज़ा न रखें, वे हर रोज़े के बदले एक मिसकीन को खाना खिला दिया करें। बाद में दूसरा हुक्म नाज़िल हुआ जो आगे आ रहा है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡتُمُونَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَشۡتَرُونَ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ مَا يَأۡكُلُونَ فِي بُطُونِهِمۡ إِلَّا ٱلنَّارَ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 180
(174) हक़ यह है कि जो लोग उन अहकाम को छिपाते हैं जो अल्लाह ने अपनी किताब में नाज़िल किए हैं और थोड़े-से दुनियवी फ़ायदों पर उन्हें भेंट चढ़ाते हैं, वे दरअस्ल अपने पेट आग से भर रहे हैं। क़ियामत के रोज़ अल्लाह हरग़िज़ उनसे बात न करेगा, न उन्हें पाकीज़ा ठहराएगा, और उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
فَمَنۢ بَدَّلَهُۥ بَعۡدَ مَا سَمِعَهُۥ فَإِنَّمَآ إِثۡمُهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ يُبَدِّلُونَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 181
(181) फिर जिन्होंने वसीयत सुनी और बाद में उसे बदल डाला तो इसका गुनाह उन बदलनेवालों पर होगा। अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
شَهۡرُ رَمَضَانَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ فِيهِ ٱلۡقُرۡءَانُ هُدٗى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَٰتٖ مِّنَ ٱلۡهُدَىٰ وَٱلۡفُرۡقَانِۚ فَمَن شَهِدَ مِنكُمُ ٱلشَّهۡرَ فَلۡيَصُمۡهُۖ وَمَن كَانَ مَرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۗ يُرِيدُ ٱللَّهُ بِكُمُ ٱلۡيُسۡرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ ٱلۡعُسۡرَ وَلِتُكۡمِلُواْ ٱلۡعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 182
(185) रमज़ान वह महीना है जिसमें क़ुरआन नाज़िल किया गया जो इनसानों के लिए सरासर हिदायत है और ऐसी वाज़ेह तालीमात पर मुश्तमिल है जो राहे-रास्त दिखानेवाली और हक़ व बातिल का फ़र्क खोलकर रख देनेवाली हैं। लिहाज़ा अब से जो शख़्स इस महीने को पाए, उसको लाज़िम है कि इस पूरे महीने के रोज़े रखे। और जो कोई मरीज़ हो या सफ़र पर हो तो वह दूसरे दिनों में रोज़ों की तादाद पूरी करे। अल्लाह तुम्हारे साथ नर्मी करना चाहता है, सख़्ती करना नहीं चाहता। इसलिए यह तरीक़ा तुम्हें बताया जा रहा है ताकि तुम रोज़ों की तादाद पूरी कर सको और जिस हिदायत से अल्लाह ने तुम्हें सरफ़राज़ किया है, उसपर अल्लाह की क़िबरियाई का इज़हार व एतिराफ़ करो और शुक्रगुज़ार बनो।
فَمَنۡ خَافَ مِن مُّوصٖ جَنَفًا أَوۡ إِثۡمٗا فَأَصۡلَحَ بَيۡنَهُمۡ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 183
(182) जिसको यह अंदेशा हो कि वसीयत करनेवाले ने नादानिस्ता या क़सदन हक़-तलफ़ी की है, और फिर मामले से ताल्लुक़ रखनेवालों के दरमियान वह इस्लाह करे तो उसपर कुछ गुनाह नहीं है, अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
وَإِذَا سَأَلَكَ عِبَادِي عَنِّي فَإِنِّي قَرِيبٌۖ أُجِيبُ دَعۡوَةَ ٱلدَّاعِ إِذَا دَعَانِۖ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لِي وَلۡيُؤۡمِنُواْ بِي لَعَلَّهُمۡ يَرۡشُدُونَ ۝ 184
(186) और! ऐ नबी! मेरे बन्दे अगर तुमसे मेरे मुताल्लिक़ पूछें तो उन्हें बता दो कि मैं उनसे क़रीब ही हूँ। पुकारनेवाला जब मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार सुनता और जवाब देता हूँ। लिहाज़ा उन्हें चाहिए कि मेरी दावत पर लब्बैक कहें और मुझपर ईमान लाएँ। (यह बात तुम उन्हें सुना दो) शायद कि वे राहे-रास्त पा लें।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 185
(183) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुमपर रोज़े फ़र्ज़ कर दिए गए, तुमसे पहले अम्बिया के पैरुओं पर फ़र्ज़ किए गए थे। इससे तवक़्क़ो है कि तुममें तक़वा की सिफ़त पैदा होगी।
أُحِلَّ لَكُمۡ لَيۡلَةَ ٱلصِّيَامِ ٱلرَّفَثُ إِلَىٰ نِسَآئِكُمۡۚ هُنَّ لِبَاسٞ لَّكُمۡ وَأَنتُمۡ لِبَاسٞ لَّهُنَّۗ عَلِمَ ٱللَّهُ أَنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَخۡتَانُونَ أَنفُسَكُمۡ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡ وَعَفَا عَنكُمۡۖ فَٱلۡـَٰٔنَ بَٰشِرُوهُنَّ وَٱبۡتَغُواْ مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَكُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكُمُ ٱلۡخَيۡطُ ٱلۡأَبۡيَضُ مِنَ ٱلۡخَيۡطِ ٱلۡأَسۡوَدِ مِنَ ٱلۡفَجۡرِۖ ثُمَّ أَتِمُّواْ ٱلصِّيَامَ إِلَى ٱلَّيۡلِۚ وَلَا تُبَٰشِرُوهُنَّ وَأَنتُمۡ عَٰكِفُونَ فِي ٱلۡمَسَٰجِدِۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَقۡرَبُوهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 186
(187) तुम्हारे लिए रोज़ों के ज़माने में रातों को अपनी बीवियों के पास जाना हलाल कर दिया गया है। वे तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम उनके लिए लिबास हो। अल्लाह को मालूम हो गया कि तुम लोग चुपके-चुपके अपने-आपसे ख़ियानत कर रहे थे, मगर उसने तुम्हारा क़ुसूर माफ़ कर दिया और तुमसे दरगुज़र फ़रमाया। अब तुम अपनी बीवियों के साथ शबबाशी करो और जो लुत्फ़ अल्लाह ने तुम्हारे लिए जाइज़ कर दिया है, उसे हासिल करो नीज़ रातों को खाओ-पियो, यहाँ तक कि तुमको स्याही-ए-शब की धारी से सपेदए-सुब्ह की धारी नुमायाँ नज़र जाए। तब ये सब काम छोड़कर रात तक अपना रोज़ा पूरा करो। और जब तुम मस्जिदों में मुअतकिफ़ हो तो बीवियों से मुबाशरत न करो। ये अल्लाह की बाँधी हुई हदें हैं, इनके क़रीब न फटकना। इस तरह अल्लाह अपने अहकाम लोगों के लिए ब-सराहत बयान करता है, तवक़्क़ो है कि वे ग़लत रवैये से बचेंगे।
وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ ثَقِفۡتُمُوهُمۡ وَأَخۡرِجُوهُم مِّنۡ حَيۡثُ أَخۡرَجُوكُمۡۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَشَدُّ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۚ وَلَا تُقَٰتِلُوهُمۡ عِندَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِيهِۖ فَإِن قَٰتَلُوكُمۡ فَٱقۡتُلُوهُمۡۗ كَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 187
(191) उनसे लड़ो जहाँ भी तुम्हारा उनसे मुक़ाबला पेश आए, और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुमको निकाला है, इसलिए कि क़त्ल अगरचे बुरा है, मगर फितना उससे भी ज़्यादा बुरा है।59 और मस्जिदे-हराम के क़रीब जब तक वे तुमसे न लड़ें, तुम भी न लड़ो, मगर जब वे वहाँ लड़ने से न चूकें तो तुम भी बेतकल्लुफ़ उन्हें मारो कि ऐसे काफ़िरों की यही सज़ा है।
59. यहाँ फ़ितने से मुराद है किसी गरोह या शख़्स को मह्ज़ इस बिना पर ज़ुल्मो-सितम का निशाना बनाना कि उसने बातिल को छोड़कर हक़ को क़ुबूल कर लिया है।
فَإِذَا قَضَيۡتُم مَّنَٰسِكَكُمۡ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَذِكۡرِكُمۡ ءَابَآءَكُمۡ أَوۡ أَشَدَّ ذِكۡرٗاۗ فَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ رَبَّنَآ ءَاتِنَا فِي ٱلدُّنۡيَا وَمَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖ ۝ 188
(200) फिर जब अपने हज के अरकान अदा कर चुको, तो जिस तरह पहले अपने आबा-ओ-अज्दाद का ज़िक्र करते थे, उस तरह अब अल्लाह का ज़िक्र करो, बल्कि उससे भी बढ़कर। (मगर अल्लाह को याद करनेवाले लोगों में भी बहुत फ़र्क है) उनमें से कोई तो ऐसा है, जो कहता है कि ऐ हमारे रब! हमें दुनिया ही में सब कुछ दे दे। ऐसे शख़्स के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं।
فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 189
(192) फिर अगर वे बाज़ आ जाएँ तो जान लो कि अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
كَانَ ٱلنَّاسُ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَبَعَثَ ٱللَّهُ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ وَأَنزَلَ مَعَهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ فِيمَا ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِۚ وَمَا ٱخۡتَلَفَ فِيهِ إِلَّا ٱلَّذِينَ أُوتُوهُ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۖ فَهَدَى ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِمَا ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ مِنَ ٱلۡحَقِّ بِإِذۡنِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٍ ۝ 190
(213) इबतिदा में सब लोग एक ही तरीक़े पर थे। (फिर यह हालत बाक़ी न रही और इख़्तिलाफ़ात रूनुमा हुए) तब अल्लाह ने नबी भेजे जो रास्त-रवी पर बशारत देनेवाले और कजरवी के नताइज से डरानेवाले थे, और उनके साथ किताबे-बरहक़ नाज़िल की ताकि हक़ के बारे में लोगों के दरमियान जो इख़्तिलाफ़ात रूनुमा हो गए थे, उनका फ़ैसला करे। (और उन इख़्तिलाफ़ात के रूनुमा होने की वजह यह न थी कि इबतिदा में लोगों को हक़ बताया नहीं गया था। नहीं,) इख़्तिलाफ़ उन लोगों ने किया, जिन्हें हक़ का इल्म दिया जा चुका था। उन्होंने रौशन हिदायात पा लेने के बाद मह्ज़ इसलिए हक़ को छोड़कर मुख़्तलिफ़ तरीक़े निकाले कि वे आपस में ज़्यादती करना चाहते थे।— पस जो लोग अम्बिया पर ईमान ले आए, उन्हें अल्लाह ने अपने इज़्न से उस हक़ का रास्ता दिखा दिया, जिसमें लोगों ने इख़्तिलाफ़ किया था। अल्लाह जिसे चाहता है राहे-रास्त दिखा देता है।
وَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ رَبَّنَآ ءَاتِنَا فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ حَسَنَةٗ وَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 191
(201) और कोई कहता है कि ऐ हमारे रब! हमें दुनिया में भी भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई, और आग के अज़ाब से हमें बचा।
وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ وَتُدۡلُواْ بِهَآ إِلَى ٱلۡحُكَّامِ لِتَأۡكُلُواْ فَرِيقٗا مِّنۡ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ بِٱلۡإِثۡمِ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 192
(188) और तुम लोग न तो आपस में एक-दूसरे के माल ना-रवा तरीक़े से खाओ और न हाकिमों के आगे उनको इस ग़रज़ के लिए पेश करो कि तुम्हें दूसरों के माल का कोई हिस्सा क़सदन ज़ालिमाना तरीक़े से खाने का मौक़ा मिल जाए।57
57. इस आयत का एक मफ़हूम तो यह है कि हाकिमों को रिश्वत देकर नाजाइज़ फ़ायदे उठाने की कोशिश न करो। और दूसरा मफ़हूम यह है कि जब तुम ख़ुद जानते हो कि माल दूसरे शख़्स का है तो मह्ज़ इसलिए कि उसके पास अपनी मिलकियत का कोई सुबूत नहीं है या इस बिना पर कि किसी ऐंच-पेंच से तुम उसको खा सकते हो,उसका मुक़द्दमा अदालत में न ले जाओ। हो सकता है कि हाकिमे-अदालत रूदादे-मुक़द्दमा के लिहाज़ से वह माल तुमको दिलवा दे। मगर वह तुम्हारा जाइज़ माल न होगा।
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ لِلَّهِۖ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَلَا عُدۡوَٰنَ إِلَّا عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 193
(193) तुम उनसे लड़ते रहो यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन अल्लाह के लिए हो जाए। फिर अगर वे बाज़ आ जाएँ, तो समझ लो कि ज़ालिमों के सिवा और किसी पर दस्तदराज़ी रवा नहीं।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ نَصِيبٞ مِّمَّا كَسَبُواْۚ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 194
(202) ऐसे लोग अपनी कमाई के मुताबिक़ (दोनों जगह) हिस्सा पाएँगे और अल्लाह को हिसाब चुकाते कुछ देर नहीं लगती।
۞وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن تَعَجَّلَ فِي يَوۡمَيۡنِ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِ وَمَن تَأَخَّرَ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۖ لِمَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 195
(203) ये गिनती के चंद रोज़ हैं जो तुम्हें अल्लाह की याद में बसर करने चाहिएँ। फिर जो कोई जल्दी करके दो ही दिन में वापस हो गया तो कोई हरज नहीं और जो कुछ देर ज़्यादा ठहरकर पलटा तो भी कोई हरज नहीं।66 बशर्ते कि ये दिन उसने तक़वा के साथ बसर किए हों। अल्लाह की नाफ़रमानी से बचो और ख़ूब जान रखो कि एक रोज़ उसके हुज़ूर में तुम्हारी पेशी होनेवाली है।
66. यानी अय्यामे-तशरीक़ में मिना से मक्का की तरफ़ वापसी ख़ाह 12 ज़ुल-हिज्जा को हो या तेरहवीं तारीख़ को दोनों सूरतों में कोई हरज नहीं।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَهِلَّةِۖ قُلۡ هِيَ مَوَٰقِيتُ لِلنَّاسِ وَٱلۡحَجِّۗ وَلَيۡسَ ٱلۡبِرُّ بِأَن تَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِن ظُهُورِهَا وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِنۡ أَبۡوَٰبِهَاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 196
(189) (ऐ नबी!) लोग तुमसे चाँद की घटती-बढ़ती सूरतों के मुताल्लिक़ पूछते हैं। कहो, “ये लोगों के लिए तारीख़ों की तायीन की और हज की अलामतें हैं।" नीज़ उनसे कहो, “यह कोई नेकी का काम नहीं है कि तुम अपने घरों में पीछे की तरफ़ से दाख़िल होते हो। नेकी तो अस्ल में यह है कि आदमी अल्लाह की नाराज़ी से बचे। लिहाज़ा तुम अपने घरों में दरवाज़े ही से आया करो। अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो। शायद कि तुम्हें फ़लाह नसीब हो जाए।”58
58. मिन-जुमला उन तवह्हुम परस्ताना रस्मों के, जो अरब में राइज थीं, एक यह भी थी कि जब हज के लिए इहराम बाँध लेते तो अपने घरों में दरवाज़े से दाख़िल न होते थे, बल्कि पीछे से दीवार कूदकर या दीवार में खिड़की-सी बनाकर दाख़िल होते थे। नीज़ सफ़र से वापस आकर भी घरों में पीछे से दाख़िल हुआ करते थे। इस आयत में न सिर्फ़ इस रस्म की तरदीद की गई है, बल्कि इन तमाम तवह्हुमात पर यह कहकर ज़र्ब लगाई गई है कि नेकी इन रस्मों में नहीं है, बल्कि अस्ल नेकी अल्लाह से डरना और उसके अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचना है।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَأۡتِكُم مَّثَلُ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۖ مَّسَّتۡهُمُ ٱلۡبَأۡسَآءُ وَٱلضَّرَّآءُ وَزُلۡزِلُواْ حَتَّىٰ يَقُولَ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ مَتَىٰ نَصۡرُ ٱللَّهِۗ أَلَآ إِنَّ نَصۡرَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ ۝ 197
(214) फिर क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यूँ ही जन्नत का दाख़िला तुम्हें मिल जाएगा, हालाँकि अभी तुमपर वह सब कुछ नहीं गुज़रा है जो तुमसे पहले ईमान लानेवालों पर गुज़र चुका है?69 उनपर सख़्तियाँ गुज़रीं, मुसीबतें आईं, हिला मारे गए, हत्ता कि वक़्त का रसूल और उसके साथी अहले-ईमान चीख़ उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी? (उस वक़्त उन्हें तसल्ली दी गई कि) हाँ, अल्लाह की मदद क़रीब है।
69. मतलब यह है कि अम्बिया तो जब भी दुनिया में आए हैं उन्हें और उनपर ईमान लानेवाले लोगों को ख़ुदा के बाग़ी व सरकश बन्दों से सख़्त मुक़ाबला पेश आया है और उन्होंने अपनी जानें जोखों में डालकर बातिल तरीक़ों के मुक़ाबले में दीने-हक़ को क़ायम करने की जिद्दो-जुहद की है, तब कहीं वे जन्नत के मुस्तहिक़ हुए। ख़ुदा की जन्नत इतनी सस्ती नहीं है कि तुम ख़ुदा और उसके दीन की ख़ातिर कोई तकलीफ़ न उठाओ और वह तुम्हें मिल जाए।
ٱلشَّهۡرُ ٱلۡحَرَامُ بِٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡحُرُمَٰتُ قِصَاصٞۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَٱعۡتَدُواْ عَلَيۡهِ بِمِثۡلِ مَا ٱعۡتَدَىٰ عَلَيۡكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 198
(194) माहे-हराम का बदला माहे-हराम ही है और तमाम हुर्मतों का लिहाज़ बराबरी के साथ होगा। लिहाज़ा जो तुमपर दस्तदराज़ी करे, तुम भी उसी तरह उसपर दस्तदराज़ी करो। अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो और यह जान रखो कि अल्लाह उन्हीं लोगों के साथ है, जो उसकी हुदूद को तोड़ने से परहेज़ करते हैं।
60. अहले-अरब में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के वक़्त से यह क़ायदा चला आ रहा था कि ज़ू–कादा, ज़ुल-हिज्जा और मुहर्रम के तीन महीने हज के लिए मुख़्तस थे और रजब का महीना उमरे के लिए ख़ास किया गया था, और इन चारों महीनों में जंग और क़त्ल व ग़ारतगरी ममनूअ थी ताकि ज़ायरीने-काबा अम्न व अमान के साथ ख़ुदा के घर तक जाएँ और अपने घरों को वापस हो सकें। इस बिना पर इन महीनों को हराम महीने कहा जाता था।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُعۡجِبُكَ قَوۡلُهُۥ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَيُشۡهِدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا فِي قَلۡبِهِۦ وَهُوَ أَلَدُّ ٱلۡخِصَامِ ۝ 199
(204) इनसानों में कोई तो ऐसा है जिसकी बातें दुनिया की ज़िन्दगी में तुम्हें ही भली मालूम होती हैं और अपनी नेक नीयती पर वह बार-बार ख़ुदा को गवाह ठहराता है, मगर हक़ीक़त में वह बदतरीन दुश्मने-हक़ होता है।
وَقَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 200
(190) और तुम अल्लाह की राह में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़ते हैं। मगर ज़्यादती न करो कि अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَأَنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا تُلۡقُواْ بِأَيۡدِيكُمۡ إِلَى ٱلتَّهۡلُكَةِ وَأَحۡسِنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 201
(195) अल्लाह की राह में ख़र्च करो और अपने हाथों अपने-आपको हलाकत में न डालो। एहसान का तरीक़ा इख़्तियार करो कि अल्लाह मुहसिनों को पसन्द करता है।
وَإِذَا تَوَلَّىٰ سَعَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُفۡسِدَ فِيهَا وَيُهۡلِكَ ٱلۡحَرۡثَ وَٱلنَّسۡلَۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡفَسَادَ ۝ 202
(205) जब उसे इक़तिदार हासिल हो जाता है67 तो ज़मीन में उसकी सारी दौड़-धूप इसलिए होती है कि फ़साद फैलाए, खेतियों को ग़ारत करे और नस्ले-इनसानी को तबाह करे।— हालाँकि अल्लाह (जिसे वह गवाह बना रहा था) फ़साद को हरगिज़ पसन्द नहीं करता।
67. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि 'जब वह पलटता है’। मतलब यह है कि ये बातें बनाकर जब वह पलटता है तो अमलन यह कुछ करता है।
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلۡ مَآ أَنفَقۡتُم مِّنۡ خَيۡرٖ فَلِلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۗ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٞ ۝ 203
(215) लोग पूछते हैं हम क्या ख़र्च करें? जवाब दो कि जो माल भी तुम ख़र्च करो अपने वालिदैन पर, रिश्तेदारों पर, यतीमों और मिसकीनों और मुसाफ़िरों पर ख़र्च करो। और जो भलाई भी तुम करोगे, अल्लाह उससे बाख़बर होगा।
وَأَتِمُّواْ ٱلۡحَجَّ وَٱلۡعُمۡرَةَ لِلَّهِۚ فَإِنۡ أُحۡصِرۡتُمۡ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۖ وَلَا تَحۡلِقُواْ رُءُوسَكُمۡ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡهَدۡيُ مَحِلَّهُۥۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ بِهِۦٓ أَذٗى مِّن رَّأۡسِهِۦ فَفِدۡيَةٞ مِّن صِيَامٍ أَوۡ صَدَقَةٍ أَوۡ نُسُكٖۚ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَمَن تَمَتَّعَ بِٱلۡعُمۡرَةِ إِلَى ٱلۡحَجِّ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۚ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖ فِي ٱلۡحَجِّ وَسَبۡعَةٍ إِذَا رَجَعۡتُمۡۗ تِلۡكَ عَشَرَةٞ كَامِلَةٞۗ ذَٰلِكَ لِمَن لَّمۡ يَكُنۡ أَهۡلُهُۥ حَاضِرِي ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 204
(196) अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए जब हज और उमरे की नीयत करो, तो उसे पूरा करो, और अगर कहीं घिर जाओ तो जो क़ुरबानी मुयस्सर आए, अल्लाह की जनाब में पेश करो61, और अपने सर न मूँडो जब तक कि क़ुरबानी अपनी जगह न पहुँच जाए। मगर जो शख़्स मरीज़ हो या जिसके सर में कोई तकलीफ़ हो और इस बिना पर अपना सिर मुँडवाले, तो उसे चाहिए कि फ़िदये के तौर पर रोज़े रखे या सदक़ा दे या क़ुरबानी करे। फिर अगर तुम्हें अम्न नसीब हो जाए (और तुम हज से पहले मक्का पहुँच जाओ), तो जो शख़्स तुममें से हज का ज़माना आने तक उमरे का फ़ायदा उठाए, वह हस्बे-मक़दूर क़ुरबानी दे, और अगर क़ुरबानी मुयस्सर न हो तो तीन रोज़े हज के ज़माने में और सात घर पहुँचकर, इस तरह पूरे दस रोज़े रख ले। यह रिआयत उन लोगों के लिए है, जिनके घर मस्जिदे-हराम के क़रीब न हों। अल्लाह के इन अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
61. यानी अगर रास्ते में कोई ऐसा सबब पेश आ जाए, जिसकी वजह से आगे जाना ग़ैर-मुमकिन हो और मजबूरन रुक जाना पड़े तो ऊँट,गाय,बकरी में से जो जानवर भी मुयस्सर हो अल्लाह के लिए क़ुरबान कर दो।
62. हदीस से मालूम होता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस सूरत में तीन दिन के रोज़े रखने या छह मिसकीनों को खाना खिलाने या कम-अज़-कम एक बकरी ज़ब्ह करने का हुक्म दिया है।
63. यानी वह सबब दूर हो जाए जिसकी वजह से मजबूरन तुम्हें रास्ते में रुक जाना पड़ा था।
كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِتَالُ وَهُوَ كُرۡهٞ لَّكُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تُحِبُّواْ شَيۡـٔٗا وَهُوَ شَرّٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 205
(216) तुम्हें जंग का हुक्म दिया गया है और वह तुम्हें नागवार है। — हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें नागवार हो और वही तुम्हारे लिए बेहतर हो। और हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द हो और वही तुम्हारे लिए बुरी हो। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
وَإِذَا قِيلَ لَهُ ٱتَّقِ ٱللَّهَ أَخَذَتۡهُ ٱلۡعِزَّةُ بِٱلۡإِثۡمِۚ فَحَسۡبُهُۥ جَهَنَّمُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 206
(206) — और जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डर, तो अपने वक़ार का ख़याल उसको गुनाह पर जमा देता है। ऐसे शख़्स के लिए तो बस जहन्नम ही काफ़ी है, और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
ٱلۡحَجُّ أَشۡهُرٞ مَّعۡلُومَٰتٞۚ فَمَن فَرَضَ فِيهِنَّ ٱلۡحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوقَ وَلَا جِدَالَ فِي ٱلۡحَجِّۗ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ يَعۡلَمۡهُ ٱللَّهُۗ وَتَزَوَّدُواْ فَإِنَّ خَيۡرَ ٱلزَّادِ ٱلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُونِ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 207
(197) हज के महीने सबको मालूम हैं। जो शख़्स इन मुक़र्रर महीनों में हज की नीयत करे, उसे ख़बरदार रहना चाहिए कि हज के दौरान में उससे कोई शहवानी फ़ेल, कोई बदअमली, कोई लड़ाई-झगड़े की बात सरज़द न हो। और जो नेक काम तुम करोगे, वह अल्लाह के इल्म में होगा। सफ़रे-हज के लिए ज़ादे-राह साथ ले जाओ, और सबसे बेहतर ज़ादे-राह परहेज़गारी है। पस ऐ होशमन्दो! मेरी नाफ़रमानी से परहेज़ करो।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَشۡرِي نَفۡسَهُ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ رَءُوفُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 208
(207) दूसरी तरफ़ इनसानों ही में कोई ऐसा भी है जो रिज़ा-ए-इलाही की तलब में अपनी जान खपा देता है और ऐसे बन्दों पर अल्लाह बहुत मेहरबान है। ऐ
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ قِتَالٖ فِيهِۖ قُلۡ قِتَالٞ فِيهِ كَبِيرٞۚ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَكُفۡرُۢ بِهِۦ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَإِخۡرَاجُ أَهۡلِهِۦ مِنۡهُ أَكۡبَرُ عِندَ ٱللَّهِۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَكۡبَرُ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ حَتَّىٰ يَرُدُّوكُمۡ عَن دِينِكُمۡ إِنِ ٱسۡتَطَٰعُواْۚ وَمَن يَرۡتَدِدۡ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَيَمُتۡ وَهُوَ كَافِرٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 209
(217) लोग पूछते हैं, माहे-हराम में लड़ना कैसा है? कहो, उसमें लड़ना बहुत बुरा है, मगर राहे-ख़ुदा से लोगों को रोकना और अल्लाह से कुफ़्र करना और मस्जिदे-हराम का रास्ता ख़ुदापरस्तों पर बन्द करना और हरम के रहनेवालों को वहाँ से निकालना अल्लाह के नज़दीक इससे भी ज़्यादा बुरा है और फ़ितना ख़ूँरेज़ी से शदीदतर है।70 वे तो तुमसे लड़े ही जाएँगे हत्ता कि अगर उनका बस चले तो तुम्हारे दीन से तुमको फेर ले जाएँ। (और यह ख़ूब समझ लो कि) तुममें से जो कोई अपने दीन से फिरेगा और कुफ़्र की हालत में जान देगा, उसके आमाल दुनिया और आख़िरत दोनों में ज़ाया हो जाएँगे। ऐसे सब लोग जहन्नमी हैं और हमेशा जहन्नम ही में रहेंगे।
70. यह बात एक वाक़िए से मुताल्लिक़ है। रजब सन 2 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आठ आदमियों का एक दस्ता नख़ला की तरफ़ भेजा था (जो मक्का और ताइफ़ के दरमियान एक मक़ाम है) और उसको हिदायत फ़रमा दी थी कि क़ुरैश की नक़्लो-हरकत और उनके आइन्दा इरादों के मुताल्लिक़ मालूमात हासिल करे। जंग की कोई इजाज़त आप (सल्ल०) ने नहीं दी थी। लेकिन इन लोगों को रास्ते में क़ुरैश का एक छोटा-सा तिजारती क़ाफ़िला मिला और उसपर उन्होंने हमला करके एक आदमी को क़त्ल कर दिया और बाक़ी लोगों को उनके माल समेत गिरिफ़्तार करके मदीना ले आए। यह कार्रवाई ऐसे वक़्त हुई जबकि रजब ख़त्म और शाबान शुरू हो रहा था और यह अम्र मुश्तबह था कि आया हमला रजब (यानी माहे-हराम) में हुआ है या शाबान में। लेकिन क़ुरैश ने, और उनसे दर-परदा मिले हुए मदीना के यहूदियों और मुनाफ़िक़ीन ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रोपेगण्डा करने के लिए इस वाक़िए को ख़ूब शोहरत दी और सख़्त एतिराज़ात शुरू कर दिए कि ये लोग चले हैं बड़े अल्लाहवाले बनकर और हाल यह है कि माहे-हराम तक में ख़ूँरेज़ी से नहीं चूकते। इन्हीं एतिराज़ात का जवाब इस आयत में दिया गया है।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِۖ قُلۡ فِيهِمَآ إِثۡمٞ كَبِيرٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَإِثۡمُهُمَآ أَكۡبَرُ مِن نَّفۡعِهِمَاۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلِ ٱلۡعَفۡوَۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ ۝ 210
(219) पूछते हैं, शराब और जुए का क्या हुक्म है? कहो, इन दोनों चीज़ों में बड़ी ख़राबी है। अगरचे इनमें लोगों के लिए कुछ मनाफ़े भी हैं, मगर इनका नुक़सान उनके फ़ायदे से बहुत ज़्यादा है।72 पूछते हैं, हम राहे-ख़ुदा में क्या ख़र्च करें? कहो, जो ज़रूरत से ज़्यादा हो।73 इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए साफ़-साफ़ अहकाम बयान करता है, शायद कि तुम दुनिया और आख़िरत दोनों की फ़िक्र करो।
72. यह शराब और जुए के मुताल्लिक़ पहला हुक्म है, जिसमें सिर्फ़ इज़हारे-नापसन्दीदगी करके छोड़ दिया गया है, आगे सूरा-4, निसा, 43 और सूरा-5, माइदा, आयत 90 में बाद के अहकाम आ रहे हैं।
73. इस आयत से आजकल अजीब-अजीब मानी निकाले जा रहे हैं। हालाँकि आयत के अलफ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर कि लोग अपने माल के मालिक थे। सवाल यह कर रहे थे कि हम ख़ुदा की रिज़ा के लिए क्या ख़र्च करें? फ़रमाया गया कि पहले इससे अपनी ज़रूरियात पूरी करो। फिर जो ज़ाइद बचे उसे अल्लाह की राह में सर्फ़ करो। यह रज़ाकाराना ख़र्च है जो बन्दा अपने रब की राह में अपनी ख़ुशी से करता है।
لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡۚ فَإِذَآ أَفَضۡتُم مِّنۡ عَرَفَٰتٖ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ عِندَ ٱلۡمَشۡعَرِ ٱلۡحَرَامِۖ وَٱذۡكُرُوهُ كَمَا هَدَىٰكُمۡ وَإِن كُنتُم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 211
(198) और अगर हज के साथ-साथ तुम अपने रब का फ़ज़्ल भी तलाश करते जाओ तो इसमें कोई मुज़ायक़ा नहीं।64 फिर जब अरफ़ात से चलो तो मशअरे-हराम (मुज़दलिफ़ा) के पास ठहरकर अल्लाह को याद करो और उस तरह याद करो जिसकी हिदायत उसने तुम्हें की है, वरना इससे पहले तो तुम लोग भटके हुए थे।
64. रब के फ़ज़्ल की तलाश से मुराद है सफ़रे-हज के दौरान में अपनी कसबे-मआश के लिए कोई काम करना।
ثُمَّ أَفِيضُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَفَاضَ ٱلنَّاسُ وَٱسۡتَغۡفِرُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 212
(199) फिर जहाँ से और सब लोग पलटते हैं वहीं से तुम भी पलटो और अल्लाह से माफ़ी चाहो,65 यक़ीनन वह माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
65. हज़रत इबराहीम व इसमाईल (अलैहि०) के ज़माने से अरब का मारूफ़ तरीक़ा-ए-हज यह था कि 9 ज़ुल-हिज्जा को मिना से अरफ़ात जाते थे और रात को वहाँ से पलटकर मुज़दलिफ़ा में ठहरते थे। मगर बाद के ज़माने में जब रफ़्ता-रफ़्ता क़ुरैश की ब्रह्मनियत क़ायम हो गई तो उन्होंने कहा, "हम अहले-हरम हैं, हमारे मर्तबे से यह बात फ़िरोतर है कि आम अहले-अरब के साथ अरफ़ात तक जाएँ।” चुनाँचे उन्होंने अपने लिए यह शाने-इमतियाज़ क़ायम की कि मुज़दलिफ़ा तक जाकर पलट आते और आम लोगों को अरफ़ात तक जाने के लिए छोड़ देते थे। इसी फ़ख़्र व ग़ुरूर का बुत इस आयत में तोड़ा गया है।
فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡيَتَٰمَىٰۖ قُلۡ إِصۡلَاحٞ لَّهُمۡ خَيۡرٞۖ وَإِن تُخَالِطُوهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ ٱلۡمُفۡسِدَ مِنَ ٱلۡمُصۡلِحِۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَعۡنَتَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 213
(220) पूछते हैं, यतीमों के साथ क्या मामला किया जाए? कहो, जिस तर्ज़े-अमल में उनके लिए भलाई हो, वही इख़्तियार करना बेहतर है। अगर तुम अपना और उनका ख़र्च और रहना-सहना मुश्तरक रखो तो इसमें कोई मुज़ायक़ा नहीं। आख़िर वे तुम्हारे भाई-बन्द ही तो हैं। बुराई करनेवाले और भलाई करनेवाले, दोनों का हाल अल्लाह पर रौशन है। अल्लाह चाहता तो इस मामले में तुमपर सख़्ती करता, मगर वह साहिबे-इख़्तियार होने के साथ साहिबे-हिकमत भी है।
وَلَا تَنكِحُواْ ٱلۡمُشۡرِكَٰتِ حَتَّىٰ يُؤۡمِنَّۚ وَلَأَمَةٞ مُّؤۡمِنَةٌ خَيۡرٞ مِّن مُّشۡرِكَةٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَتۡكُمۡۗ وَلَا تُنكِحُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤۡمِنُواْۚ وَلَعَبۡدٞ مُّؤۡمِنٌ خَيۡرٞ مِّن مُّشۡرِكٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكُمۡۗ أُوْلَٰٓئِكَ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلنَّارِۖ وَٱللَّهُ يَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلۡجَنَّةِ وَٱلۡمَغۡفِرَةِ بِإِذۡنِهِۦۖ وَيُبَيِّنُ ءَايَٰتِهِۦ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 214
(221) तुम मुशरिक औरतों से हरगिज़ निकाह न करना, जब तक कि वे ईमान न ले आएँ। एक मोमिन लौंडी मुशरिक शरीफ़ज़ादी से बेहतर है, अगरचे वह तुम्हें बहुत पसन्द हो। और अपनी औरतों के निकाह मुशरिक मर्दों से कभी न करना, जब तक वे ईमान न ले आएँ। एक मोमिन ग़ुलाम मुशरिक शरीफ़ से बेहतर है, अगरचे वह तुम्हें बहुत पसन्द हो। ये लोग तुम्हें आग की तरफ़ बुलाते हैं और अल्लाह अपने इज़्न से तुमको जन्नत और मग़फ़िरत की तरफ़ बुलाता है, और वह अपने अहकाम वाज़ेह तौर पर लोगों के सामने बयान करता है, तवक़्क़ो है कि वे सबक़ लेंगे और नसीहत क़ुबूल करेंगे।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡمَحِيضِۖ قُلۡ هُوَ أَذٗى فَٱعۡتَزِلُواْ ٱلنِّسَآءَ فِي ٱلۡمَحِيضِ وَلَا تَقۡرَبُوهُنَّ حَتَّىٰ يَطۡهُرۡنَۖ فَإِذَا تَطَهَّرۡنَ فَأۡتُوهُنَّ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَكُمُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلتَّوَّٰبِينَ وَيُحِبُّ ٱلۡمُتَطَهِّرِينَ ۝ 215
(222) पूछते हैं, “हैज़ का क्या हुक्म है?” कहो, वह एक गन्दगी की हालत है। उसमें औरतों से अलग रहो और उनके क़रीब न जाओ74, जब तक कि वे पाक-साफ़ न हो जाएँ। फिर जब वे पाक हो जाएँ तो उनके पास जाओ, उस तरह जैसा कि अल्लाह ने तुमको हुक्म दिया है। अल्लाह उन लोगों को पसन्द करता है जो बदी से बाज़ रहें और पाकीज़गी इख़्तियार करें।
74. मतलब यह है कि इस हालत में उनसे मुबाशरत न करो।
وَٱلۡمُطَلَّقَٰتُ يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ ثَلَٰثَةَ قُرُوٓءٖۚ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ أَن يَكۡتُمۡنَ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِيٓ أَرۡحَامِهِنَّ إِن كُنَّ يُؤۡمِنَّ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ وَبُعُولَتُهُنَّ أَحَقُّ بِرَدِّهِنَّ فِي ذَٰلِكَ إِنۡ أَرَادُوٓاْ إِصۡلَٰحٗاۚ وَلَهُنَّ مِثۡلُ ٱلَّذِي عَلَيۡهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ وَلِلرِّجَالِ عَلَيۡهِنَّ دَرَجَةٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 216
(228) जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, वे तीन मर्तबा अय्यामे-माहवारी आने तक अपने-आपको रोके रखें, और उनके लिए यह जाइज़ नहीं है कि अल्लाह ने उनके रहिम में जो कुछ ख़ल्क़ फ़रमाया हो, उसे छिपाएँ। उन्हें हरगिज़ ऐसा न करना चाहिए अगर वे अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखती हैं। उनके शौहर ताल्लुक़ात दुरुस्त कर लेने पर आमादा हों, तो वे इद्दत के दौरान में उन्हें फिर अपनी ज़ौजियत में वापस ले लेने के हक़दार हैं ।78 औरतों के लिए भी मारूफ़ तरीक़े पर वैसे ही हुकूक हैं जैसे मर्दों के हुकूक़ उनपर हैं। अलबत्ता मर्दों को उनपर एक दर्जा हासिल है। और सबपर अल्लाह ग़ालिब इक़तिदार रखनेवाला और हकीम व दाना मौजूद है।
78. यह हुक्म सिर्फ़ उस सूरत से मुताल्लिक़ है जिसमें शौहर ने औरत को एक या दो तलाक़ें दी हों इस सूरत में तलाक़े-रजई होती है और इद्दत के दौरान में शौहर रुजूअ कर सकता है।
نِسَآؤُكُمۡ حَرۡثٞ لَّكُمۡ فَأۡتُواْ حَرۡثَكُمۡ أَنَّىٰ شِئۡتُمۡۖ وَقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُم مُّلَٰقُوهُۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 217
(223) तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं। तुम्हें इख़्तियार है, जिस तरह चाहो, अपनी खेती में जाओ, मगर अपने मुस्तक़बिल की फ़िक्र करो और अल्लाह की नाराज़गी75 से बचो। ख़ूब जान लो कि तुम्हें एक दिन उससे मिलना है। और ऐ नबी! जो तुम्हारी हिदायात को मान लें उन्हें (फ़लाह व सआदत की) ख़ुशखबरी दे दो।
75. ये जामेअ अलफ़ाज़ हैं, जिनसे दो मतलब निकलते हैं और दोनों की यकसाँ अहमियत है। एक यह कि अपनी नस्ल बरक़रार रखने की कोशिश करो ताकि तुम्हारे दुनिया छोड़ने से पहले तुम्हारी जगह दूसरे काम करनेवाले पैदा हों। दूसरे यह कि जिस आनेवाली नस्ल को तुम अपनी जगह छोड़नेवाले हो, उसको दीन, अख़लाक़ और आदमियत के जौहरों से आरास्ता करने की कोशिश करो।
ٱلطَّلَٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَٰنٖۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَأۡخُذُواْ مِمَّآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ شَيۡـًٔا إِلَّآ أَن يَخَافَآ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَا فِيمَا ٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَعۡتَدُوهَاۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 218
(229) तलाक़ दो बार है। फिर या तो सीधी तरह औरत को रोक लिया जाए या भले तरीक़े से उसको रुख़सत कर दिया जाए।79 और रुख़सत करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिए जाइज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो। अलबत्ता यह सूरत मुस्तसना है कि ज़ौजैन को अल्लाह के हुदूद पर क़ायम न रह सकने का अंदेशा हो। ऐसी सूरत में अगर तुम्हें यह खौफ़ हो कि वे दोनों हुदूदे-इलाही पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के दरमियान यह मामला हो जाने में मुज़ाइक़ा नहीं कि औरत अपने शौहर को कुछ मुआवज़ा देकर अलाहिदगी हासिल कर ले।80 ये अल्लाह की मुकर्रर करदा हुदूद हैं, इनसे तजावुज़ न करो। और जो लोग हुदूदे-इलाही से तजावुज़ करें वही ज़ालिम हैं।
79. इस आयत की रू से एक मर्द एक रिश्ता-ए-निकाह में अपनी बीवी पर हद-से-हद दो ही मर्तबा तलाक़े-रजई का हक़ इस्तेमाल कर सकता है। जो शख़्स अपनी मनकूहा को दो मर्तबा तलाक़ देकर उससे रुजूअ कर चुका हो, वह अपनी उम्र में जब कभी उसको तीसरी बार तलाक़ देगा, औरत उससे मुस्तक़िल तौर पर जुदा हो जाएगी।
80. शरीअत की इस्तिलाह में इसे 'ख़ुलअ' कहते हैं, यानी एक औरत का अपने शौहर को कुछ दे-दिलाकर उससे तलाक़ हासिल करना। इस सूरत में मर्द के लिए जाइज़ होगा कि अपना दिया हुआ माल या उसका कोई हिस्सा, जिसपर भी बाहम इत्तिफ़ाक़ हुआ हो, औरत से वापस ले ले। लेकिन अगर मर्द ने ख़ुद ही औरत को तलाक़ दी हो तो वह उससे अपना दिया हुआ कोई माल वापस नहीं ले सकता।
وَلَا تَجۡعَلُواْ ٱللَّهَ عُرۡضَةٗ لِّأَيۡمَٰنِكُمۡ أَن تَبَرُّواْ وَتَتَّقُواْ وَتُصۡلِحُواْ بَيۡنَ ٱلنَّاسِۚ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 219
(224) अल्लाह के नाम को ऐसी क़समें खाने के लिए इस्तेमाल न करो, जिनसे मक़सूद नेकी और तक़वा और बन्दगाने-ख़ुदा की भलाई के कामों से बाज़ रहना हो। अल्लाह तुम्हारी सारी बातें सुन रहा है और सब कुछ जानता है।
فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُۥ مِنۢ بَعۡدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوۡجًا غَيۡرَهُۥۗ فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يَتَرَاجَعَآ إِن ظَنَّآ أَن يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۗ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 220
(230) फिर अगर (दो बार तलाक़ देने के बाद शौहर ने औरत को तीसरी बार) तलाक़ दे दी, तो वह औरत फिर उसके लिए हलाल न होगी। इल्ला यह कि उसका निकाह किसी दूसरे शख़्स से हो और वह उसे तलाक़ दे दे,81 तब अगर पहला शौहर और यह औरत दोनों यह ख़याल करें कि हुदूदे-इलाही पर क़ायम रहेंगे, तो उनके लिए एक-दूसरे की तरफ़ रुजूअ कर लेने में कोई मुज़ाइक़ा नहीं। यह अल्लाह की मुक़र्रर करदा हदें हैं, जिन्हें वह उन लोगों की हिदायत के लिए वाज़ेह कर रहा है, जो (उसकी हदों को तोड़ने का अंजाम) जानते हैं।
81. यानी किसी वक़्त ख़ुद अपनी मर्ज़ी से तलाक़ दे दे। इससे साज़िशी निकाह और तलाक़ का कोई जवाज़ नहीं निकलता जो मह्ज़ पहले शौहर के लिए औरत हलाल करने की ख़ातिर किया गया हो।
وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمۡسِكُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ سَرِّحُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٖۚ وَلَا تُمۡسِكُوهُنَّ ضِرَارٗا لِّتَعۡتَدُواْۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَقَدۡ ظَلَمَ نَفۡسَهُۥۚ وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ هُزُوٗاۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمَآ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَٱلۡحِكۡمَةِ يَعِظُكُم بِهِۦۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 221
(231) और जब तुम औरतों को तलाक़ दे दो और उनकी इद्दत पूरी होने को आ जाए, तो या भले तरीक़े से उन्हें रोक लो या भले तरीक़े से रुख़सत कर दो। महज़ सताने की ख़ातिर उन्हें न रोके रखना कि यह ज़्यादती होगी और जो ऐसा करेगा, वह दर-हक़ीक़त आप-अपने ही ऊपर ज़ुल्म करेगा। अल्लाह की आयात का खेल न बनाओ। भूल न जाओ कि अल्लाह ने किस नेमते-उज़मा से तुम्हें सरफ़राज़ किया है। वह तुम्हें नसीहत करता है कि जो किताब और हिकमत उसने तुमपर नाज़िल की है, उसका एहतिराम मलहूज़ रखो। अल्लाह से डरो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह को हर बात की ख़बर है।
وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ أَن يَنكِحۡنَ أَزۡوَٰجَهُنَّ إِذَا تَرَٰضَوۡاْ بَيۡنَهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ ذَٰلِكَ يُوعَظُ بِهِۦ مَن كَانَ مِنكُمۡ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۗ ذَٰلِكُمۡ أَزۡكَىٰ لَكُمۡ وَأَطۡهَرُۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 222
(232) जब तुम अपनी औरतों को तलाक़ दे चुको और वे अपनी इद्दत पूरी कर लें, तो फिर इसमें मानेअ न हो कि वे अपने ज़ेरे-तजवीज़ शौहरों से निकाह कर लें, जबकि वे मारूफ़ तरीक़े से बाहम मुनाकहत पर राज़ी हों। तुम्हें नसीहत की जाती है कि ऐसी हरकत हरगिज़ न करना, अगर तुम अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान लानेवाले हो। तुम्हारे लिए शाइस्ता और पाकीज़ा तरीक़ा यही है कि इससे बाज़ रहो। अल्लाह जानता है तुम नहीं जानते।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱدۡخُلُواْ فِي ٱلسِّلۡمِ كَآفَّةٗ وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 223
(208) ऐ ईमान लानेवालो! तुम पूरे-के-पूरे इस्लाम में आ जाओ68 और शैतान की पैरवी न करो कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
68. यानी किसी इस्तिसना और तहफ़्फ़ुज़ के बग़ैर अपनी पूरी ज़िन्दगी को इस्लाम के तहत ले आओ। ऐसा न हो कि तुम अपनी ज़िन्दगी को मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तक़सीम करके बाज़ हिस्सों में इस्लाम की पैरवी करो और बाज़ हिस्सों को उस की पैरवी से मुस्तसना कर लो।
فَإِن زَلَلۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡكُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 224
(209) जो साफ़-साफ़ हिदायात तुम्हारे पास आ चुकी हैं, अगर उनको पा लेने के बाद फिर तुमने लग़ज़िश खाई, तो ख़ूब जान रखो कि अल्लाह सबपर ग़ालिब और हकीम व दाना है।
۞وَٱلۡوَٰلِدَٰتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ لَا تُكَلَّفُ نَفۡسٌ إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَا تُضَآرَّ وَٰلِدَةُۢ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوۡلُودٞ لَّهُۥ بِوَلَدِهِۦۚ وَعَلَى ٱلۡوَارِثِ مِثۡلُ ذَٰلِكَۗ فَإِنۡ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٖ مِّنۡهُمَا وَتَشَاوُرٖ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَاۗ وَإِنۡ أَرَدتُّمۡ أَن تَسۡتَرۡضِعُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا سَلَّمۡتُم مَّآ ءَاتَيۡتُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 225
(233) जो बाप चाहते हों कि उनकी औलाद पूरी मुद्दते-रज़ाअत तक दूध पिए। तो माँएँ अपने बच्चों को कामिल दो साल दूध पिलाएँ।82 इस सूरत में बच्चे के बाप को मारूफ़ तरीक़े से उन्हें खाना-कपड़ा देना होगा। मगर किसी पर उसकी वुसअत से बढ़कर बार न डालना चाहिए न तो माँ को इस वजह से तकलीफ़ में डाला जाए कि बच्चा उसका है, और न बाप ही को इस वजह से तंग किया जाए कि बच्चा उसका है।— दूध पिलानेवाली का यह हक़ जैसा कि बच्चे के बाप पर है, वैसा ही उसके वारिस पर भी है लेकिन अगर फ़रीक़ैन बाहमी रज़ामन्दी और मशवरे से दूध छुड़ाना चाहें, तो ऐसा करने में कोई मुज़ायक़ा नहीं। और अगर तुम्हारा ख़याल अपनी औलाद को किसी ग़ैर-औरत से दूध पिलवाने का हो, तो उसमें भी कोई हरज नहीं, बशर्ते कि उसका जो कुछ मुआवज़ा तय करो, वह मारूफ़ तरीक़े पर अदा करो। अल्लाह से डरो और जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
82. यह उस सूरत का हुक्म है, जबकि ज़ौजैन एक-दूसरे से अलाहिदा हो चुके हों, ख़ाह तलाक़ के ज़रिए से या ख़ुलअ या फ़स्ख़ और तफ़रीक़ के ज़रिए से, और औरत की गोद में दूध पीता बच्चा हो।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَعَشۡرٗاۖ فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 226
(234) तुममें से जो लोग मर जाएँ, उनके पीछे अगर उनकी बीवियाँ ज़िन्दा हों, तो वे अपने-आपको चार महीने, दस दिन रोके रखें।83 फिर जब उनकी इद्दत पूरी हो जाए, तो उन्हें इख़्तियार है, अपनी ज़ात के मामले में मारूफ़ तरीक़े से जो चाहें करें। तुमपर उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। अल्लाह तुम सबके आमाल से बाख़बर है।
83. यह इद्दते-वफ़ात उन औरतों के लिए भी है जिनसे शौहरों की ख़ल्वते-सहीहा न हुई हो। अलबत्ता हामिला औरत इससे मुस्तसना है। उसकी इद्दते-वफ़ात वज़ए-हमल तक है, ख़ाह वज़ए-हमल शौहर की वफ़ात के बाद ही हो जाए या उसमें कई महीने सर्फ़ हों। 'अपने-आपको रोके रखें' से मुराद सिर्फ़ दूसरा निकाह करने से रुकना ही नहीं है, बल्कि इससे मुराद अपने-आपको ज़ीनत से भी रोके रखना है।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن يَأۡتِيَهُمُ ٱللَّهُ فِي ظُلَلٖ مِّنَ ٱلۡغَمَامِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 227
(210) (इन सारी नसीहतों और हिदायतों के बाद भी लोग सीधे न हों, तो) क्या अब वे इसके मुन्तज़िर हैं कि अल्लाह बादलों का छत्र लगाए फ़रिश्तों के परे साथ लिए ख़ुद सामने आ मौजूद हो और फ़ैसला ही कर डाला जाए? आख़िरकार सारे मामलात पेश तो अल्लाह ही के हुज़ूर होनेवाले हैं।
وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا عَرَّضۡتُم بِهِۦ مِنۡ خِطۡبَةِ ٱلنِّسَآءِ أَوۡ أَكۡنَنتُمۡ فِيٓ أَنفُسِكُمۡۚ عَلِمَ ٱللَّهُ أَنَّكُمۡ سَتَذۡكُرُونَهُنَّ وَلَٰكِن لَّا تُوَاعِدُوهُنَّ سِرًّا إِلَّآ أَن تَقُولُواْ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗاۚ وَلَا تَعۡزِمُواْ عُقۡدَةَ ٱلنِّكَاحِ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡكِتَٰبُ أَجَلَهُۥۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ فَٱحۡذَرُوهُۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 228
(235) ज़मानए-इद्दत में ख़ाह तुम उन बेवा औरतों के साथ मंगनी का इरादा इशारे-किनाये में ज़ाहिर कर दो, ख़ाह दिल में छिपाए रखो, दोनों सूरतों में कोई मुज़ाइक़ा नहीं। अल्लाह जानता है कि उनका ख़याल तो तुम्हारे दिल में आएगा ही। मगर देखो, खुफ़िया अहदो-पैमान न करना। अगर कोई बात करनी है तो मारूफ़ तरीक़े से करो। और अक़दे-निकाह बाँधने का फ़ैसला उस वक़्त तक न करो जब तक कि इद्दत पूरी न हो जाए। ख़ूब समझ लो कि अल्लाह तुम्हारे दिलों का हाल तक जानता है। लिहाज़ा उससे डरो और यह भी जान लो कि अल्लाह बुर्दबार है, (छोटी-छोटी बातों से) दरगुज़र फ़रमाता है।
سَلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ كَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُم مِّنۡ ءَايَةِۭ بَيِّنَةٖۗ وَمَن يُبَدِّلۡ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 229
(211) बनी-इसराईल से पूछो, कैसी खुली-खुली निशानियाँ हमने उन्हें दिखाई हैं (और फिर यह भी उन्हीं से पूछ लो कि) अल्लाह की नेमत पाने के बाद जो क़ौम उसको शक़ावत से बदलती है उसे अल्लाह कैसी सख़्त सज़ा देता है।
زُيِّنَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَيَسۡخَرُونَ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۘ وَٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ فَوۡقَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 230
(212) जिन लोगों ने कुफ़्र की राह इख़्तियार की है, उनके लिए दुनिया की ज़िन्दगी बड़ी महबूब व दिलपसन्द बना दी गई है। ऐसे लोग ईमान की राह इख़्तियार करनेवालों का मज़ाक़ उड़ाते हैं, मगर क़ियामत के रोज़ परहेज़गार लोग ही उनके मुक़ाबले में आली मक़ाम होंगे। रहा दुनिया का रिज़्क़, तो अल्लाह को इख़्तियार है, जिसे चाहे बेहिसाब दे।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ مَا لَمۡ تَمَسُّوهُنَّ أَوۡ تَفۡرِضُواْ لَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَمَتِّعُوهُنَّ عَلَى ٱلۡمُوسِعِ قَدَرُهُۥ وَعَلَى ٱلۡمُقۡتِرِ قَدَرُهُۥ مَتَٰعَۢا بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 231
(236) तुमपर कुछ गुनाह नहीं, अगर अपनी औरतों को तलाक़ दे दो, क़ब्ल इसके कि हाथ लगाने की नौबत आए या महर मुक़र्रर हो। इस सूरत में उन्हें कुछ-न-कुछ देना ज़रूर चाहिए। ख़ुशहाल आदमी अपनी मक़दिरत के मुताबिक़ और ग़रीब अपनी मक़दिरत के मुताबिक़ मारूफ़ तरीक़े से दे। यह हक़ है नेक आदमियों पर।
وَإِن طَلَّقۡتُمُوهُنَّ مِن قَبۡلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ وَقَدۡ فَرَضۡتُمۡ لَهُنَّ فَرِيضَةٗ فَنِصۡفُ مَا فَرَضۡتُمۡ إِلَّآ أَن يَعۡفُونَ أَوۡ يَعۡفُوَاْ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ عُقۡدَةُ ٱلنِّكَاحِۚ وَأَن تَعۡفُوٓاْ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۚ وَلَا تَنسَوُاْ ٱلۡفَضۡلَ بَيۡنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 232
(237) और अगर तुमने हाथ लगाने से पहले तलाक़ दी हो, लेकिन मह्‍र मुक़र्रर किया जा चुका हो, तो इस सूरत में निस्फ़ मह्‍र देना होगा। यह और बात है कि औरत नर्मी बरते (और मह्‍र न ले) या वह मर्द, जिसके इख़्तियार में अक़्दे-निकाह है, नर्मी से काम ले (और पूरा मह्‍र दे दे), और तुम (यानी मर्द) नर्मी से काम लो, तो यह तक़वा से ज़्यादा मुनासबत रखता है। आपस के मामलात में फ़ैयाज़ी को न भूलो। तुम्हारे आमाल को अल्लाह देख रहा है।
حَٰفِظُواْ عَلَى ٱلصَّلَوَٰتِ وَٱلصَّلَوٰةِ ٱلۡوُسۡطَىٰ وَقُومُواْ لِلَّهِ قَٰنِتِينَ ۝ 233
(238) अपनी नमाज़ों की निगहदाश्त रखो, ख़ूसूसन ऐसी नमाज़ की जो महासिने-सलात की जामेअ हो।84 अल्लाह के आगे इस तरह खड़े हो, जैसे फ़रमाँबरदार ग़ुलाम खड़े होते हैं।
84. अस्ल में लफ़्ज़ ‘सलातुल-वुस्ता' इस्तेमाल हुआ है। वुस्ता के मानी बीचवाली चीज़ के भी हैं और ऐसी चीज़ के भी जो आला और अशरफ़ हो। सलाते-वुस्ता से मुराद बीच की नमाज़ भी हो सकती है और ऐसी नमाज़ भी जो सही वक़्त पर पूरे ख़ुशूअ और तवज्जुह इलल्लाह के साथ पढ़ी जाए, और जिसमें नमाज़ की तमाम ख़ूबियाँ मौजूद हों। जिन मुफ़स्सिरीन ने इस लफ़्ज़ को बीच की नमाज़ के मानी में लिया है वे बिल-उमूम इससे मुराद अस्र की नमाज़ लेते हैं।
لَّا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا كَسَبَتۡ قُلُوبُكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 234
(225) जो बेमानी क़समें तुम बिला इरादा खा लिया करते हो, उनपर अल्लाह गिरिफ़्त नहीं करता, मगर जो क़समें तुम सच्चे दिल से खाते हो, उनकी बाज़पुर्स वह ज़रूर करेगा। अल्लाह बहुत दरगुज़र करनेवाला और बुर्दबार है।
وَلِلۡمُطَلَّقَٰتِ مَتَٰعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 235
(241) इसी तरह जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, उन्हें भी मुनासिब तौर पर कुछ-न-कुछ देकर रुख़सत किया जाए। यह हक़ है मुत्तक़ी लोगों पर।
لِّلَّذِينَ يُؤۡلُونَ مِن نِّسَآئِهِمۡ تَرَبُّصُ أَرۡبَعَةِ أَشۡهُرٖۖ فَإِن فَآءُو فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 236
(226) जो लोग अपनी औरतों से ताल्लुक़ न रखने की क़सम खा बैठते हैं, उनके लिए चार महीने की मुहलत है।76 अगर उन्होंने रुजूअ कर लिया तो अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहीम है।
76. इस्तिलाहे-शरअ में इसको 'ईला' कहते हैं। मियाँ और बीवी के दरमियान ताल्लुक़ात हमेशा ख़ुशगवार तो नहीं रह सकते। बिगाड़ के असबाब पैदा होते ही रहते हैं। लेकिन ऐसे बिगाड़ को ख़ुदा की शरीअत पसन्द नहीं करती कि दोनों एक-दूसरे के साथ क़ानूनी तौर पर रिश्ता-ए-इज़दिवाज में तो बंधे रहें, मगर अमलन एक-दूसरे से इस तरह अलग रहें कि गोया वे मियाँ और बीवी नहीं हैं। ऐसे बिगाड़ के लिए अल्लाह तआला ने चार महीने की मुद्दत मुक़र्रर कर दी कि या तो इस दौरान में अपने ताल्लुक़ात दुरुस्त कर लो वरना इज़दिवाज का रिश्ता मुन्‌क़तअ कर दो ताकि दोनों एक-दूसरे से आज़ाद होकर जिससे निबाह कर सकें, उसके साथ निकाह कर लें।
كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 237
(242) इस तरह अल्लाह अपने अहकाम तुम्हें साफ़-साफ़ बताता है। उम्मीद है। कि तुम समझ-बूझकर काम करोगे।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَهُمۡ أُلُوفٌ حَذَرَ ٱلۡمَوۡتِ فَقَالَ لَهُمُ ٱللَّهُ مُوتُواْ ثُمَّ أَحۡيَٰهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 238
(243) तुमने उन लोगों के हाल पर भी कुछ ग़ौर किया, जो मौत के डर से अपने घर-बार छोड़कर निकले थे और हज़ारों की तादाद में थे? अल्लाह ने उनसे फ़रमाया, “मर जाओ!” फिर उसने उनको दोबारा ज़िन्दगी बख़्शी।85 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह इनसान पर बड़ा फ़ज़्ल फ़रमानेवाला है, मगर अकसर लोग शुक्र अदा नहीं करते।
85. यह इशारा बनी-इसराईल के वाक़िए-ख़ुरूज की तरफ़ है। सूरा-5 माइदा के चौथे रुकूअ (आयात—20-26) में अल्लाह तआला ने इसकी तफ़सील बयान की है।
وَإِنۡ عَزَمُواْ ٱلطَّلَٰقَ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 239
(227) और अगर उन्होंने तलाक़ ही की ठान ली हो तो जाने रहें कि अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।77
77. यानी अगर तुमने बीवी को ना-रवा बात पर छोड़ा है तो अल्लाह से बेख़ौफ़ न रहो, वह तुम्हारी ज़्यादती से नावाक़िफ़ नहीं है।
وَقَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 240
(244 ) — मुसलमानो! अल्लाह की राह में जंग करो और ख़ूब जान रखो कि अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।
مَّن ذَا ٱلَّذِي يُقۡرِضُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا فَيُضَٰعِفَهُۥ لَهُۥٓ أَضۡعَافٗا كَثِيرَةٗۚ وَٱللَّهُ يَقۡبِضُ وَيَبۡصُۜطُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 241
(245) तुममें कौन है जो अल्लाह को क़र्जे-हसन दे ताकि अल्लाह उसे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस करे?86 घटाना भी अल्लाह के इख़्तियार में है और बढ़ाना भी, और उसी की तरफ़ तुम्हें पलटकर जाना है।
86. 'क़र्ज़े-हसन’ से मुराद ख़ालिस नेकी के जज़्बे से बेग़रज़ाना अल्लाह की राह में माल सर्फ़ करना है। इसे अल्लाह तआला अपने ज़िम्मे क़र्ज़ क़रार देता है और वादा करता है कि मैं न सिर्फ़ अस्ल अदा करूँगा, बल्कि उससे कई गुना ज़्यादा दूँगा।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلۡمَلَإِ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰٓ إِذۡ قَالُواْ لِنَبِيّٖ لَّهُمُ ٱبۡعَثۡ لَنَا مَلِكٗا نُّقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ قَالَ هَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِتَالُ أَلَّا تُقَٰتِلُواْۖ قَالُواْ وَمَا لَنَآ أَلَّا نُقَٰتِلَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَقَدۡ أُخۡرِجۡنَا مِن دِيَٰرِنَا وَأَبۡنَآئِنَاۖ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ تَوَلَّوۡاْ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 242
(246) फिर तुमने उस मामले पर भी ग़ौर किया जो मूसा के बाद सरदाराने-बनी-इसराईल को पेश आया था? उन्होंने अपने नबी से कहा, "हमारे लिए एक बादशाह मुक़र्रर कर दो ताकि हम अल्लाह की राह में जंग करें।” नबी ने पूछा, “कहीं ऐसा तो न होगा कि तुमको लड़ाई का हुक्म दिया जाए और फिर तुम न लड़ो?” वे कहने लगे, “भला यह कैसे हो सकता है कि हम राहे-ख़ुदा में न लड़ें, जबकि हमें अपने घरों से निकाल दिया गया है और हमारे बाल-बच्चे हमसे जुदा कर दिए गए हैं!” मगर जब उनको जंग का हुक्म दिया गया, तो एक क़लील तादाद के सिवा वे सब पीठ मोड़ गए, और अल्लाह उनमें से एक-एक ज़ालिम को जानता है।
وَقَالَ لَهُمۡ نَبِيُّهُمۡ إِنَّ ٱللَّهَ قَدۡ بَعَثَ لَكُمۡ طَالُوتَ مَلِكٗاۚ قَالُوٓاْ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُ ٱلۡمُلۡكُ عَلَيۡنَا وَنَحۡنُ أَحَقُّ بِٱلۡمُلۡكِ مِنۡهُ وَلَمۡ يُؤۡتَ سَعَةٗ مِّنَ ٱلۡمَالِۚ قَالَ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰهُ عَلَيۡكُمۡ وَزَادَهُۥ بَسۡطَةٗ فِي ٱلۡعِلۡمِ وَٱلۡجِسۡمِۖ وَٱللَّهُ يُؤۡتِي مُلۡكَهُۥ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 243
(247) उनके नबी ने उनसे कहा कि “अल्लाह ने तालूत को तुम्हारे लिए बादशाह मुक़र्रर किया है।” यह सुनकर वे बोले, “हमपर बादशाह बनने का वह कैसे हक़दार हो गया? उसके मुक़ाबले में बादशाही के हम ज़्यादा मुस्तहिक़ हैं। वह तो कोई बड़ा मालदार आदमी नहीं है।” नबी ने जवाब दिया, “अल्लाह ने तुम्हारे मुक़ाबले में उसी को मुन्तख़ब किया है और उसको दिमाग़ी व जिस्मानी दोनों किस्म की अहलियतें फ़रावानी के साथ अता फ़रमाई हैं और अल्लाह को इख़्तियार है कि अपना मुल्क जिसे चाहे दे। अल्लाह बड़ी वुसअत रखता है और सब कुछ उसके इल्म में है।”
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۚ وَإِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 244
(252) ये अल्लाह की आयात हैं, जो हम ठीक-ठीक तुमको सुना रहे हैं। और ऐ मुहम्मद! तुम यक़ीनन उन लोगों में से हो जो रसूल बनाकर भेजे गए हैं।
۞تِلۡكَ ٱلرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۘ مِّنۡهُم مَّن كَلَّمَ ٱللَّهُۖ وَرَفَعَ بَعۡضَهُمۡ دَرَجَٰتٖۚ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا ٱقۡتَتَلَ ٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ وَلَٰكِنِ ٱخۡتَلَفُواْ فَمِنۡهُم مَّنۡ ءَامَنَ وَمِنۡهُم مَّن كَفَرَۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا ٱقۡتَتَلُواْ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ ۝ 245
(253) ये रसूल (जो हमारी तरफ़ से इनसानों की हिदायत पर मामूर हुए) हमने इनको एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर मर्तबे अता किए। इनमें कोई ऐसा था जिससे ख़ुदा ख़ुद हम-कलाम हुआ। किसी को उसने दूसरी हैसियतों से बलन्द दर्जे दिए, और आख़िर में ईसा इब्ने-मरयम को रौशन निशानियाँ अता कीं और रूहे-पाक से उसकी मदद की। अगर अल्लाह चाहता तो मुमकिन न था कि इन रसूलों के बाद जो लोग रौशन निशानियाँ देख चुके थे वे आपस में लड़ते। मगर (अल्लाह की मशीयत यह न थी कि वह लोगों को जबरन इख़्तिलाफ़ से रोके, इस वजह से) उन्होंने बाहम इख़्तिलाफ़ किया। फिर कोई ईमान लाया और किसी ने कुफ़्र की राह इख़्तियार की। हाँ, अल्लाह चाहता तो वे हरगिज़ न लड़ते, मगर अल्लाह जो चाहता है करता है।
وَقَالَ لَهُمۡ نَبِيُّهُمۡ إِنَّ ءَايَةَ مُلۡكِهِۦٓ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلتَّابُوتُ فِيهِ سَكِينَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَبَقِيَّةٞ مِّمَّا تَرَكَ ءَالُ مُوسَىٰ وَءَالُ هَٰرُونَ تَحۡمِلُهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 246
(248) इसके साथ उनके नबी ने उनको यह भी बताया कि “ख़ुदा की तरफ़ से उसके बादशाह मुक़र्रर होने की अलामत यह है कि उसके अह्द में वह सन्दूक़ तुम्हें वापस मिल जाएगा जिसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे लिए सुकूने-क़ल्ब का सामान है, जिसमें आले-मूसा और आले-हारून के छोड़े हुए तबर्रुकात हैं, और जिसको इस वक़्त फ़रिश्ते सम्भाले हुए हैं। अगर तुम मोमिन हो, तो यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी निशानी है।"
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا بَيۡعٞ فِيهِ وَلَا خُلَّةٞ وَلَا شَفَٰعَةٞۗ وَٱلۡكَٰفِرُونَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 247
(254) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जो कुछ माल व मताअ हमने तुमको बख़्शा है उसमें से ख़र्च करो क़ब्ल इससे कि वह दिन आए, जिसमें न ख़रीद-फ़रोख़्त होगी, न दोस्ती काम आएगी और न सिफ़ारिश चलेगी। और ज़ालिम अस्ल में वही हैं जो कुफ़्र की रविश इख़्तियार करते हैं।
فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوتُ بِٱلۡجُنُودِ قَالَ إِنَّ ٱللَّهَ مُبۡتَلِيكُم بِنَهَرٖ فَمَن شَرِبَ مِنۡهُ فَلَيۡسَ مِنِّي وَمَن لَّمۡ يَطۡعَمۡهُ فَإِنَّهُۥ مِنِّيٓ إِلَّا مَنِ ٱغۡتَرَفَ غُرۡفَةَۢ بِيَدِهِۦۚ فَشَرِبُواْ مِنۡهُ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۚ فَلَمَّا جَاوَزَهُۥ هُوَ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ قَالُواْ لَا طَاقَةَ لَنَا ٱلۡيَوۡمَ بِجَالُوتَ وَجُنُودِهِۦۚ قَالَ ٱلَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَٰقُواْ ٱللَّهِ كَم مِّن فِئَةٖ قَلِيلَةٍ غَلَبَتۡ فِئَةٗ كَثِيرَةَۢ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 248
(249) फिर जब तालूत और उसके साथी मुसलमान दरिया पार करके आगे बढ़े, तो उन्होंने तालूत से कह दिया कि आज हममें जालूत और उसके लश्करों का मुक़ाबला करने की ताक़त नहीं है।87 लेकिन जो लोग यह समझते थे कि उन्हें एक दिन अल्लाह से मिलना है, उन्होंने कहा, “बारहा ऐसा हुआ है कि एक क़लील गरोह अल्लाह के इज़्न से एक बड़े गरोह पर ग़ालिब आ गया है। अल्लाह सब्र करनेवालों का साथी है।”
87. ग़ालिबन यह कहनेवाले वही लोग होंगे जिन्होंने दरिया पर पहले ही अपनी बेसब्री का मुज़ाहरा कर दिया था।
وَلَمَّا بَرَزُواْ لِجَالُوتَ وَجُنُودِهِۦ قَالُواْ رَبَّنَآ أَفۡرِغۡ عَلَيۡنَا صَبۡرٗا وَثَبِّتۡ أَقۡدَامَنَا وَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 249
(250) और जब वे जालूत और उसके लश्करों के मुक़ाबले पर निकले, तो उन्होंने दुआ की, “हमारे रब! हमपर सब्र का फ़ैज़ान कर, हमारे क़दम जमा दे और इस काफ़िर गरोह पर हमें फ़त्‌ह नसीब कर।”
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُۚ لَا تَأۡخُذُهُۥ سِنَةٞ وَلَا نَوۡمٞۚ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ مَن ذَا ٱلَّذِي يَشۡفَعُ عِندَهُۥٓ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيۡءٖ مِّنۡ عِلۡمِهِۦٓ إِلَّا بِمَا شَآءَۚ وَسِعَ كُرۡسِيُّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۖ وَلَا يَـُٔودُهُۥ حِفۡظُهُمَاۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 250
(255) अल्लाह, वह ज़िन्दा-ए-जावेद हस्ती, जो तमाम कायनात को सम्भाले हुए है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है। ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है, उसी का है। कौन है जो उसकी जनाब में उसकी इजाज़त के बग़ैर सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह वाक़िफ़ है और उसकी मालूमात में से कोई चीज़ उनकी गिरिफ़्ते-इदराक में नहीं आ सकती, इल्ला यह कि किसी चीज़ का इल्म वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसकी हुकूमत88 आसमानों और ज़मीन पर छाई हुई है और उनकी निगहबानी उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक बुजुर्ग बरतर ज़ात है।
88. अस्ल में लफ़्ज़ 'कुर्सी' इस्तेमाल हुआ है, जिसे बिल-उमूम हुकूमत व इक़तिदार के लिए इस्तिआरे के तौर पर बोला जाता है। उर्दू ज़बान में भी अकसर कुर्सी का लफ़्ज़ बोलकर हाकिमाना इख़्तियारात मुराद लेते हैं। इसी लफ़्ज़ की रिआयत से यह आयत ‘आयतुल कुर्सी' के नाम से मशहूर है और इसमें अल्लाह तआला की ऐसी मुकम्मल मअरिफ़त बख़्शी गई है जिसकी नज़ीर कहीं नहीं मिलती। इसी बिना पर हदीस में इसको कुरआन की सबसे अफ़ज़ल आयत क़रार दिया गया है।
فَهَزَمُوهُم بِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَقَتَلَ دَاوُۥدُ جَالُوتَ وَءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَهُۥ مِمَّا يَشَآءُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّفَسَدَتِ ٱلۡأَرۡضُ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 251
(251) आख़िरकार अल्लाह के इज़्न से उन्होंने काफ़िरों को मार भगाया और दाऊद ने जालूत को क़त्ल कर दिया और अल्लाह ने उसे सल्तनत और हिकमत से नवाज़ा और जिन-जिन चीज़ों का चाहा, उसको इल्म दिया। अगर इस तरह अल्लाह इनसानों के एक गरोह को दूसरे गरोह के ज़रिए से हटाता न रहता तो ज़मीन का निज़ाम बिगड़ जाता, लेकिन दुनिया के लोगों पर अल्लाह का बड़ा फ़ज़्ल है (कि वह इस तरह दफ़ए-फ़साद का इन्तिज़ाम करता रहता है)।
لَآ إِكۡرَاهَ فِي ٱلدِّينِۖ قَد تَّبَيَّنَ ٱلرُّشۡدُ مِنَ ٱلۡغَيِّۚ فَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلطَّٰغُوتِ وَيُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱسۡتَمۡسَكَ بِٱلۡعُرۡوَةِ ٱلۡوُثۡقَىٰ لَا ٱنفِصَامَ لَهَاۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 252
(256) दीन के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है।89 सही बात ग़लत ख़यालात से अलग छाँटकर रख दी गई है। अब जो कोई ताग़ूत90 का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया, जो कभी टूटनेवाला नहीं, और अल्लाह (जिसका सहारा उसने लिया है) सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
89. यानी किसी को ईमान लाने पर मज़बूर नहीं किया जा सकता।
90. लुग़त के एतिबार से हर उस शख़्स को ताग़ूत कहा जाएगा जो अपनी जाइज़ हद से तजावुज़ कर गया हो। क़ुरआन की इस्तिलाह में ताग़ूत से मुराद वह बन्दा है। जो बन्दगी की हद से तजावुज़ करके ख़ुदआक़ाई व ख़ुदावन्दी का दम भरे और ख़ुदा के बन्दों से अपनी बन्दगी कराए।
ٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَوۡلِيَآؤُهُمُ ٱلطَّٰغُوتُ يُخۡرِجُونَهُم مِّنَ ٱلنُّورِ إِلَى ٱلظُّلُمَٰتِۗ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 253
(257) जो लोग ईमान लाते हैं उनका हामी व मददगार अल्लाह है और वह उनको तारीकियों से रौशनी में निकाल लाता है। और जो लोग कुफ़्र की राह इख़्तियार करते हैं, उनके हामी व मददगार ताग़ूत हैं91, और वे उन्हें रौशनी से तारीकियों की तरफ़ खींच ले जाते हैं। ये आग में जानेवाले लोग हैं, जहाँ ये हमेशा रहेंगे।
91. ‘ताग़ूत' यहाँ तवाग़ीत के मानी में इस्तेमाल किया गया है। यानी अल्लाह से मुँह मोड़कर इनसान एक ही ताग़ूत के चंगुल में नहीं फँसता, बल्कि बहुत-से तवाग़ीत उसपर मुसल्लत हो जाते हैं।
أَوۡ كَٱلَّذِي مَرَّ عَلَىٰ قَرۡيَةٖ وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا قَالَ أَنَّىٰ يُحۡيِۦ هَٰذِهِ ٱللَّهُ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۖ فَأَمَاتَهُ ٱللَّهُ مِاْئَةَ عَامٖ ثُمَّ بَعَثَهُۥۖ قَالَ كَمۡ لَبِثۡتَۖ قَالَ لَبِثۡتُ يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۖ قَالَ بَل لَّبِثۡتَ مِاْئَةَ عَامٖ فَٱنظُرۡ إِلَىٰ طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمۡ يَتَسَنَّهۡۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰ حِمَارِكَ وَلِنَجۡعَلَكَ ءَايَةٗ لِّلنَّاسِۖ وَٱنظُرۡ إِلَى ٱلۡعِظَامِ كَيۡفَ نُنشِزُهَا ثُمَّ نَكۡسُوهَا لَحۡمٗاۚ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥ قَالَ أَعۡلَمُ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 254
(259) या फिर मिसाल के तौर पर उस शख़्स को देखो, जिसका गुज़र एक ऐसी बस्ती पर हुआ, जो अपनी छतों पर औंधी गिरी पड़ी थी। उसने कहा, आबादी जो हलाक हो चुकी है, इसे अल्लाह किस तरह दोबारा ज़िन्दगी बख़्शेगा?” इसपर अल्लाह ने उसकी रूह क़ब्ज़ कर ली और वह सौ बरस तक मुर्दा पड़ा रहा। फिर अल्लाह ने उसे दोबारा ज़िन्दगी बख़्शी और उससे पूछा, “बताओ कितनी मुद्दत पड़े रहे हो? 'उसने कहा, “एक दिन या चंद घंटे रहा हूँगा।” फ़रमाया, “तुमपर सौ बरस इसी हालत में गुज़र चुके हैं। अब ज़रा अपने खाने और पानी को देखो कि उसमें ज़रा तग़य्युर नहीं आया है। दूसरी तरफ़ ज़रा अपने गधे को भी देखो (कि इसका पंजर तक बोसीदा हो रहा है)। और यह हमने इसलिए किया है कि हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी बना देना चाहते हैं। फिर देखो कि हड्डियों के इस पंजर को हम किस तरह उठाकर गोश्त-पोस्त इसपर चढ़ाते हैं।" इस तरह जब हक़ीक़त उसके सामने बिलकुल नुमायाँ हो गई, तो उसने कहा, “मैं जानता हूँ कि अल्लाह हर चीज़ पर कुदरत रखता है।"
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِي حَآجَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ فِي رَبِّهِۦٓ أَنۡ ءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ إِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّيَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ قَالَ أَنَا۠ أُحۡيِۦ وَأُمِيتُۖ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَأۡتِي بِٱلشَّمۡسِ مِنَ ٱلۡمَشۡرِقِ فَأۡتِ بِهَا مِنَ ٱلۡمَغۡرِبِ فَبُهِتَ ٱلَّذِي كَفَرَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 255
(258) क्या तुमने उस शख़्स के हाल पर गौर नहीं किया जिसने इबराहीम से झगड़ा किया था? झगड़ा92 इस बात पर कि इबराहीम का रब कौन है, और इस बिना पर कि उस शख़्स को अल्लाह ने हुकूमत दे रखी थी। जब इबराहीम ने कहा कि “मेरा रब वह है जिसके इख़्तियार में ज़िन्दगी और मौत है” उसने जवाब दिया, “ज़िन्दगी और मौत मेरे इख़्तियार में है।" इबराहीम ने कहा, “अच्छा, अल्लाह सूरज को मशरिक़ से निकालता है, तू ज़रा उसे मग़रिब से निकाल ला।” यह सुनकर वह मुनकिरे-हक़ शशदर रह गया। मगर अल्लाह ज़ालिमों को राहे-रास्त नहीं दिखाया करता।
92. उस शख़्स से मुराद नमरूद है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के वतन (इराक़) का बादशाह था।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّ أَرِنِي كَيۡفَ تُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ قَالَ أَوَلَمۡ تُؤۡمِنۖ قَالَ بَلَىٰ وَلَٰكِن لِّيَطۡمَئِنَّ قَلۡبِيۖ قَالَ فَخُذۡ أَرۡبَعَةٗ مِّنَ ٱلطَّيۡرِ فَصُرۡهُنَّ إِلَيۡكَ ثُمَّ ٱجۡعَلۡ عَلَىٰ كُلِّ جَبَلٖ مِّنۡهُنَّ جُزۡءٗا ثُمَّ ٱدۡعُهُنَّ يَأۡتِينَكَ سَعۡيٗاۚ وَٱعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 256
(260) और वह वाक़िआ भी पेशे-नज़र रहे, जब इबराहीम ने कहा था कि "मेरे मालिक! मुझे दिखा दे, तू मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करता है।” फ़रमाया, “क्या तू ईमान नहीं रखता?” उसने अर्ज़ किया, “ईमान तो रखता हूँ, मगर दिल का इत्मीनान दरकार है।”93 फ़रमाया, “अच्छा तो चार परिन्दे ले और उनको अपने से मानूस कर ले। फिर उनका एक-एक टुकड़ा एक-एक पहाड़ पर रख दे। फिर उनको पुकार, वे तेरे पास दौड़े चले आएँगे। ख़ूब जान ले कि अल्लाह निहायत बा-इक़तिदार और हकीम है।"
93. यानी वह इत्मीनान जो मुशाहदए-ऐनी से हासिल होता है।
مَّثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ أَنۢبَتَتۡ سَبۡعَ سَنَابِلَ فِي كُلِّ سُنۢبُلَةٖ مِّاْئَةُ حَبَّةٖۗ وَٱللَّهُ يُضَٰعِفُ لِمَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 257
(261) जो लोग अपने माल अल्लाह की राह में सर्फ़ करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल ऐसी है जैसे एक दाना बोया जाए और उससे सात बालें निकलें और हर बाली में सौ दाने हों। इसी तरह अल्लाह जिसके अमल को चाहता है, अफ़जूनी अता फ़रमाता है। वह फ़राख़दस्त भी है और अलीम भी।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ لَا يُتۡبِعُونَ مَآ أَنفَقُواْ مَنّٗا وَلَآ أَذٗى لَّهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 258
(262) जो लोग अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं और ख़र्च करके फिर एहसान नहीं जताते, न दुख देते हैं, उनका अज्र उनके रब के पास है और उनके लिए किसी रंज और ख़ौफ़ का मौक़ा नहीं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنفِقُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا كَسَبۡتُمۡ وَمِمَّآ أَخۡرَجۡنَا لَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِۖ وَلَا تَيَمَّمُواْ ٱلۡخَبِيثَ مِنۡهُ تُنفِقُونَ وَلَسۡتُم بِـَٔاخِذِيهِ إِلَّآ أَن تُغۡمِضُواْ فِيهِۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ حَمِيدٌ ۝ 259
(267) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जो माल तुमने कमाए हैं और जो हमने ज़मीन से तुम्हारे लिए निकाला है, उसमें से बेहतर हिस्सा राहे-ख़ुदा में ख़र्च करो। ऐसा न हो कि उसकी राह में देने के लिए बुरी-से-बुरी चीज़ छाँटने की कोशिश करने लगो। हालाँकि वही चीज़ अगर कोई तुम्हें दे, तो हरगिज़ उसे लेना गवारा न करोगे, इल्ला यह कि उसको क़ुबूल करने में इग़माज़ बरत जाओ। तुम्हें जान लेना चाहिए कि अल्लाह बेनियाज़ है और बेहतरीन सिफ़ात से मुत्तसिफ़ है।
ٱلشَّيۡطَٰنُ يَعِدُكُمُ ٱلۡفَقۡرَ وَيَأۡمُرُكُم بِٱلۡفَحۡشَآءِۖ وَٱللَّهُ يَعِدُكُم مَّغۡفِرَةٗ مِّنۡهُ وَفَضۡلٗاۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 260
(268) शैतान तुम्हें मुफ़लिसी से डराता है और शर्मनाक तर्ज़े-अमल इख़्तियार करने की तरग़ीब देता है, मगर अल्लाह तुम्हें अपनी बख़शिश और फ़ज़्ल की उम्मीद दिलाता है। अल्लाह बड़ा फ़राख़दस्त और दाना है।
۞قَوۡلٞ مَّعۡرُوفٞ وَمَغۡفِرَةٌ خَيۡرٞ مِّن صَدَقَةٖ يَتۡبَعُهَآ أَذٗىۗ وَٱللَّهُ غَنِيٌّ حَلِيمٞ ۝ 261
(263) एक मीठा बोल और किसी नागवार बात पर ज़रा-सी चश्म-पोशी उस ख़ैरात से बेहतर है जिसके पीछे दुख हो। अल्लाह बेनियाज़ है और बुर्दबारी उसकी सिफ़त है।
يُؤۡتِي ٱلۡحِكۡمَةَ مَن يَشَآءُۚ وَمَن يُؤۡتَ ٱلۡحِكۡمَةَ فَقَدۡ أُوتِيَ خَيۡرٗا كَثِيرٗاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 262
(269) जिसको चाहता है हिकमत अता करता है, और जिसको हिकमत मिली, उसे हक़ीक़त में बड़ी दौलत मिल गई। इन बातों से सिर्फ़ वही लोग सबक़ लेते हैं जो दानिशमंद हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُبۡطِلُواْ صَدَقَٰتِكُم بِٱلۡمَنِّ وَٱلۡأَذَىٰ كَٱلَّذِي يُنفِقُ مَالَهُۥ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ فَمَثَلُهُۥ كَمَثَلِ صَفۡوَانٍ عَلَيۡهِ تُرَابٞ فَأَصَابَهُۥ وَابِلٞ فَتَرَكَهُۥ صَلۡدٗاۖ لَّا يَقۡدِرُونَ عَلَىٰ شَيۡءٖ مِّمَّا كَسَبُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 263
(264) ऐ ईमान लानेवालो! अपने सदक़ात को एहसान जताकर और दुख देकर उस शख़्स की तरह ख़ाक में न मिला दो, जो अपना माल मह्ज़ लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करता है, और न अल्लाह पर ईमान रखता है न आख़िरत पर। उसके ख़र्च की मिसाल ऐसी है, जैसे एक चट्टान थी, जिसपर मिट्टी की तह जमी थी। उसपर जब ज़ोर का मेंह बरसा तो सारी मिट्टी बह गई और साफ़ चट्टान-की-चट्टान रह गई। ऐसे लोग अपने नज़दीक ख़ैरात करके जो नेकी कमाते हैं, उससे कुछ भी उनके हाथ नहीं आता, और काफ़िरों को सीधी राह दिखाना अल्लाह का दस्तूर नहीं है।94
94. यहाँ ‘काफ़िर’ का लफ़्ज़ नाशुक्रे और मुनकिरे-नेमत के मानी में इस्तेमाल हुआ है।
وَمَآ أَنفَقۡتُم مِّن نَّفَقَةٍ أَوۡ نَذَرۡتُم مِّن نَّذۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُهُۥۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٍ ۝ 264
(270) तुमने जो कुछ भी ख़र्च किया हो और जो नज़्र96 भी मानी हो, अल्लाह को उसका इल्म है, और ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।
96. 'नज़्र' यह है कि आदमी अपनी किसी मुराद के बर आने पर कोई ऐसा नेक काम करने का अह्द करे जो उसके ज़िम्मे फ़र्ज़ न हो। अगर यह मुराद किसी हलाल व जाइज़ अम्र की हो, और अल्लाह से माँगी गई हो, और उसके बर आने पर जो अमल करने का अह्द आदमी ने किया है वह अल्लाह ही के लिए हो, तो ऐसी नज़्र अल्लाह की इताअत में है और उसका पूरा करना अज्र व सवाब का मूजिब है। अगर यह सूरत न हो तो ऐसी नज़्र का मानना मासियत और उसका पूरा करना मूजिबे-अज़ाब है।
وَمَثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمُ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِ وَتَثۡبِيتٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ كَمَثَلِ جَنَّةِۭ بِرَبۡوَةٍ أَصَابَهَا وَابِلٞ فَـَٔاتَتۡ أُكُلَهَا ضِعۡفَيۡنِ فَإِن لَّمۡ يُصِبۡهَا وَابِلٞ فَطَلّٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 265
(265) बख़िलाफ़ इसके जो लोग अपने माल मह्ज़ अल्लाह की रज़ाजूई के लिए दिल के पूरे सबात व क़रार के साथ ख़र्च करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल ऐसी है जैसे किसी सतहे-मुर्तफ़ा पर एक बाग़ हो। अगर ज़ोर की बारिश हो जाए तो दोगुना फल लाए, और अगर ज़ोर की बारिश न भी हो तो एक हल्की फुहार ही उसके लिए काफ़ी हो जाए। तुम जो कुछ करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
أَيَوَدُّ أَحَدُكُمۡ أَن تَكُونَ لَهُۥ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَابٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ لَهُۥ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَأَصَابَهُ ٱلۡكِبَرُ وَلَهُۥ ذُرِّيَّةٞ ضُعَفَآءُ فَأَصَابَهَآ إِعۡصَارٞ فِيهِ نَارٞ فَٱحۡتَرَقَتۡۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ ۝ 266
(266) क्या तुममें से कोई यह पसन्द करता है कि उसके पास एक हरा-बाग़ हो, नहरों से सैराब, खजूरों और अंगूरों और हर क़िस्म के फलों से लदा और वह ऐन उस वक़्त एक तेज़ बगूले की ज़द में आकर झुलस जाए, जबकि वह ख़ुद बूढ़ा हो, और उसके कमसिन बच्चे अभी किसी लायक़ न हों?95 इस तरह अल्लाह अपनी बातें तुम्हारे सामने बयान करता है, शायद कि तुम गौर व फ़िक्र करो।
95. यानी अगर तुम यह पसन्द नहीं करते कि तुम्हारी उम्र-भर की कमाई एक ऐसे नाज़ुक मौक़े पर तबाह हो जाए जबकि तुम उससे फ़ायदा उठाने के सबसे ज़्यादा मुहताज हो और अज़-सरे-नौ कमाई करने का मौक़ा भी बाक़ी न रहा हो, तो यह बात तुम कैसे पसन्द कर रहे हो कि दुनिया में मुद्दतुल-उम्र काम करने के बाद आख़िरत की ज़िन्दगी में तुम इस तरह क़दम रखो कि वहाँ पहुँचकर यकायक तुम्हें मालूम हो कि तुम्हारा पूरा कारनाम-ए-हयात यहाँ कोई क़ीमत नहीं रखता, जो कुछ तुमने दुनिया के लिए कमाया था, वह दुनिया ही में रह गया, आख़िरत के लिए कुछ कमाकर लाए ही नहीं कि यहाँ उसके फल खा सको।
إِن تُبۡدُواْ ٱلصَّدَقَٰتِ فَنِعِمَّا هِيَۖ وَإِن تُخۡفُوهَا وَتُؤۡتُوهَا ٱلۡفُقَرَآءَ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ وَيُكَفِّرُ عَنكُم مِّن سَيِّـَٔاتِكُمۡۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 267
(271) अगर अपने सदक़ात अलानिया दो तो यह भी अच्छा है, लेकिन अगर छिपाकर हाजतमन्दों को दो तो यह तुम्हारे हक़ में ज़्यादा बेहतर है। तुम्हारी बहुत-सी बुराइयाँ इस तर्ज़े-अमल से महव हो जाती हैं। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को बहरहाल उसकी ख़बर है।
۞لَّيۡسَ عَلَيۡكَ هُدَىٰهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يَشَآءُۗ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَلِأَنفُسِكُمۡۚ وَمَا تُنفِقُونَ إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ وَجۡهِ ٱللَّهِۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 268
(272) ऐ नबी! लोगों को हिदायत बख़्श देने की ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। हिदायत तो अल्लाह ही जिसे चाहता है बख़्शता है। और राहे-ख़ैर में जो माल तुम लोग ख़र्च करते हो, वह तुम्हारे अपने लिए भला है, आख़िर तुम इसी लिए तो ख़र्च करते हो कि अल्लाह की रिज़ा हासिल हो। तो जो कुछ माल तुम राहे-ख़ैर में ख़र्च करोगे, उसका पूरा-पूरा अज्र तुम्हें दिया जाएगा और तुम्हारी हक़-तलफ़ी हरगिज़ न होगी।
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلَّذِينَ أُحۡصِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا يَسۡتَطِيعُونَ ضَرۡبٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ يَحۡسَبُهُمُ ٱلۡجَاهِلُ أَغۡنِيَآءَ مِنَ ٱلتَّعَفُّفِ تَعۡرِفُهُم بِسِيمَٰهُمۡ لَا يَسۡـَٔلُونَ ٱلنَّاسَ إِلۡحَافٗاۗ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٌ ۝ 269
(273) ख़ास तौर पर मदद के मुस्तहिक़ वे तंगदस्त लोग हैं जो अल्लाह के काम में ऐसे घिर गए हैं कि अपनी ज़ाती कसबे-मआश के लिए ज़मीन में कोई दौड़-धूप नहीं कर सकते। उनकी ख़ुद्दारी देखकर नावाक़िफ़ आदमी गुमान करता है कि ये ख़ुशहाल हैं। तुम उनके चेहरों से उनकी अन्दरूनी हालत पहचान सकते हो। मगर वे ऐसे लोग नहीं हैं कि लोगों के पीछे पड़कर कुछ माँगें। उनकी इआनत में जो कुछ माल तुम ख़र्च करोगे वह अल्लाह से पोशीदा न रहेगा।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 270
(277) हाँ, जो लोग ईमान ले आएँ और नेक अमल करें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें, उनका अज्र बेशक उनके रब के पास है और उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 271
(274) जो लोग अपने माल शबो-रोज़ खुले और छिपे ख़र्च करते हैं, उनका अज्र उनके रब के पास है और उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मक़ाम नहीं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَذَرُواْ مَا بَقِيَ مِنَ ٱلرِّبَوٰٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 272
(278) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! ख़ुदा से डरो और जो कुछ तुम्हारा सूद लोगों पर बाक़ी रह गया है उसे छोड़ दो, अगर वाक़ई तुम ईमान लाए हो।
فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ فَأۡذَنُواْ بِحَرۡبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَإِن تُبۡتُمۡ فَلَكُمۡ رُءُوسُ أَمۡوَٰلِكُمۡ لَا تَظۡلِمُونَ وَلَا تُظۡلَمُونَ ۝ 273
(279) लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, तो आगाह हो जाओ कि अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से तुम्हारे ख़िलाफ़ एलाने-जंग है।100 अब भी तौबा कर लो (और सूद छोड़ दो) तो अपना अस्ल सरमाया लेने के तुम हक़दार हो। न तुम ज़ुल्म करो, न तुमपर ज़ुल्म किया जाए।
100. यह आयत फ़त्‌हे-मक्का के बाद नाज़िल हुई थी जबकि अरब इस्लामी हुकूमत के ज़ेरे-नगीं आ गया था। इससे पहले अगरचे सूद एक नापसंदीदा चीज़ समझा जाता था मगर क़ानूनन उसे बन्द नहीं किया गया था। इस आयत के ऩुज़ूल के बाद इस्लामी हुकूमत के हुदूद में सूदी कारोबार एक फ़ौजदारी जुर्म बन गया। आयत के आख़िरी अलफ़ाज़ की बिना पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०), हसन बसरी (रह०), इब्ने-सीरीन (रह०) और रबीअ-बिन-अनस (रह०) की राय यह है कि जो शख़्स दारुल-इस्लाम में सूद खाए उसे तौबा पर मजबूर किया जाए और अगर बाज़ न आए तो उसे क़त्ल कर दिया जाए। दूसरे फ़ुक़हा की राय में ऐसे शख़्स को कैद कर देना काफ़ी है। जब तब वह सूदख़ोरी छोड़ देने का अह्द न करे, उसे न छोड़ा जाए।
ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 274
(275) मगर जो लोग सूद खाते हैं, उनका हाल उस शख़्स का-सा होता है। जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो।97 और इस हालत में उनके मुब्तला होने की वजह यह है कि वे कहते हैं, “तिजारत भी तो आख़िर सूद ही जैसी चीज़ है।”98 हालाँकि अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया है और सूद को हराम। लिहाज़ा जिस शख़्स को उसके रब की तरफ़ से यह नसीहत पहुँचे और आइन्दा के लिए वह सूदख़ोरी से बाज़ आ जाए, तो जो कुछ वह पहले खा चुका, सो खा चुका, उसका मामला अल्लाह के हवाले है।99 और जो इस हुक्म के बाद फिर उसी हरकत का इआदा करे, वह जहन्नमी है, जहाँ वह हमेशा रहेगा।
97. अहले-अरब दीवाने आदमी को ‘मजनून' (यानी आसेबज़दा) के लफ़्ज़ से ताबीर करते थे, और जब किसी शख़्स के मुताल्लिक़ यह कहना होता कि वह पागल हो गया है, तो यूँ कहते कि उसे जिन्न लग गया है। इसी मुहावरे को इस्तेमाल करते हुए क़ुरआन सूदख़ोर को उस शख़्स से तशबीह देता है जो मख़बूतुल-हवास हो गया हो।
98. यानी उनके नज़रिए की ख़राबी यह है कि वे तिजारत में अस्ल लागत पर जो मुनाफ़ा लिया जाता है उसकी नौइयत और सूद की नौइयत का फ़र्क़ नहीं समझते, और दोनों को एक ही क़िस्म की चीज़ समझकर यूँ इस्तिदलाल करते हैं कि जब तिजारत में लगे हुए रुपये का मुनाफ़ा जाइज़ है, तो क़र्ज़ पर दिए हुए रुपये का मुनाफ़ा क्यों नाजाइज़ होगा।
99. यह नहीं फ़रमाया कि जो कुछ उसने खा लिया उसे अल्लाह माफ़ कर देगा, बल्कि इरशाद यह हो रहा है कि उसका मामला अल्लाह के हवाले है। इस फ़िक़रे से मालूम होता है कि 'जो खा चुका सो खा चुका' कहने का मतलब यह नहीं है कि जो खा चुका उसे माफ़ कर दिया गया, बल्कि इससे मह्ज़ क़ानूनी रिआयत मुराद है। यानी जो सूद पहले खाया जा चुका है उसे वापस देने का क़ानूनन मुतालबा नहीं किया जाएगा।
وَإِن كَانَ ذُو عُسۡرَةٖ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيۡسَرَةٖۚ وَأَن تَصَدَّقُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 275
(280) तुम्हारा क़र्ज़दार तंगदस्त हो तो हाथ खुलने तक उसे मुहलत दो, और जो सदक़ा कर दो तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा बेहतर है, अगर तुम समझो।101
101. इसी आयत से यह हुक्म निकाला गया है कि जो शख़्स अदा-ए-क़र्ज़ से आजिज़ हो गया हो, इस्लामी अदालत उसके क़र्ज़ख़ाहों को मजबूर करेगी कि उसे मुहलत दें, और बाज़ हालात में वह पूरा क़र्ज़ या क़र्ज़ का एक हिस्सा माफ़ भी कराने की मजाज़ होगी। फ़ुक़हा ने तसरीह की है कि किसी के रहने का मकान, खाने के बर्तन, पहनने के कपड़े और वे आलात जिनसे वह अपनी रोज़ी कमाता हो, किसी हालत में क़ुर्क़ नहीं किए जा सकते।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا تُرۡجَعُونَ فِيهِ إِلَى ٱللَّهِۖ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 276
(281) उस दिन की रुसवाई व मुसीबत से बचो, जबकि तुम अल्लाह की तरफ़ वापस होगे। वहाँ हर शख़्स को उसकी कमाई हुई नेकी या बदी का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा और किसी पर ज़ुल्म हरगिज़ न होगा।
يَمۡحَقُ ٱللَّهُ ٱلرِّبَوٰاْ وَيُرۡبِي ٱلصَّدَقَٰتِۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ أَثِيمٍ ۝ 277
(276) अल्लाह सूद का मठ मार देता है और सदक़ात को नशो-नुमा देता है। और अल्लाह किसी नाशुक्रे, बदअमल इनसान को पसन्द नहीं करता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا تَدَايَنتُم بِدَيۡنٍ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى فَٱكۡتُبُوهُۚ وَلۡيَكۡتُب بَّيۡنَكُمۡ كَاتِبُۢ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَلَا يَأۡبَ كَاتِبٌ أَن يَكۡتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ ٱللَّهُۚ فَلۡيَكۡتُبۡ وَلۡيُمۡلِلِ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥ وَلَا يَبۡخَسۡ مِنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ فَإِن كَانَ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ سَفِيهًا أَوۡ ضَعِيفًا أَوۡ لَا يَسۡتَطِيعُ أَن يُمِلَّ هُوَ فَلۡيُمۡلِلۡ وَلِيُّهُۥ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَٱسۡتَشۡهِدُواْ شَهِيدَيۡنِ مِن رِّجَالِكُمۡۖ فَإِن لَّمۡ يَكُونَا رَجُلَيۡنِ فَرَجُلٞ وَٱمۡرَأَتَانِ مِمَّن تَرۡضَوۡنَ مِنَ ٱلشُّهَدَآءِ أَن تَضِلَّ إِحۡدَىٰهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحۡدَىٰهُمَا ٱلۡأُخۡرَىٰۚ وَلَا يَأۡبَ ٱلشُّهَدَآءُ إِذَا مَا دُعُواْۚ وَلَا تَسۡـَٔمُوٓاْ أَن تَكۡتُبُوهُ صَغِيرًا أَوۡ كَبِيرًا إِلَىٰٓ أَجَلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِ وَأَقۡوَمُ لِلشَّهَٰدَةِ وَأَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَرۡتَابُوٓاْ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً حَاضِرَةٗ تُدِيرُونَهَا بَيۡنَكُمۡ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَلَّا تَكۡتُبُوهَاۗ وَأَشۡهِدُوٓاْ إِذَا تَبَايَعۡتُمۡۚ وَلَا يُضَآرَّ كَاتِبٞ وَلَا شَهِيدٞۚ وَإِن تَفۡعَلُواْ فَإِنَّهُۥ فُسُوقُۢ بِكُمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱللَّهُۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 278
(282) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब किसी मुक़र्रर मुद्दत के लिए तुम आपस में क़र्ज़ का लेन-देन करो102 तो उसे लिख लिया करो। फ़रीक़ैन के दरमियान इनसाफ़ के साथ एक शख़्स दस्तावेज़ तहरीर करे। जिसे अल्लाह ने लिखने-पढ़ने की क़ाबिलियत बख़्शी हो, उसे लिखने से इनकार न करना चाहिए। वह लिखे और इमला वह शख़्स कराए जिसपर हक़ आता है (यानी क़र्ज़ लेनेवाला)। और उसे अल्लाह, अपने रब से डरना चाहिए कि जो मामला तय हुआ हो उसमें कोई कमी-बेशी न करे। लेकिन अगर क़र्ज़ लेनेवाला ख़ुद नादान या ज़ईफ़ हो या इमला न करा सकता हो तो उसका वली इनसाफ़ के साथ इमला कराए। फिर अपने मर्दों में से दो आदमियों की उसपर गवाही करा लो। और अगर दो मर्द न हों तो एक मर्द और दो औरतें हों ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे। ये गवाह ऐसे लोगों में से होने चाहिएँ जिनकी गवाही तुम्हारे दरमियान मक़बूल हो। गवाहों को जब गवाह बनने के लिए कहा जाए तो उन्हें इनकार न करना चाहिए। मामला ख़ाह छोटा हो या बड़ा, मीआद की तायीन के साथ उसकी दस्तावेज़ लिखवा लेने में तसाहुल न करो। अल्लाह के नज़दीक यह तरीक़ा तुम्हारे लिए ज़्यादा मबनी बर इनसाफ़ है और इससे शहादत क़ायम होने में ज़्यादा सुहूलत होती है। और तुम्हारे शुकूक व शुबहात में मुब्तला होने का इमकान कम रह जाता है। हाँ जो तिजारती लेन-देन दस्त-बदस्त तुम लोग आपस में करते हो, उसको न लिखा जाए तो कोई हरज नहीं। मगर तिजारती मामले तय करते वक़्त गवाह कर लिया करो। कातिब और गवाह को सताया न जाए। ऐसा करोगे तो गुनाह का इरतिकाब करोगे। अल्लाह के ग़ज़ब से बचो। वह तुमको सही तरीक़े-अमल की तालीम देता है और उसे हर चीज़ का इल्म है।
102. इससे यह हुक्म निकलता है कि क़र्ज़ के मामले में मुद्दत की तायीन होनी चाहिए।
لِّلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَإِن تُبۡدُواْ مَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ أَوۡ تُخۡفُوهُ يُحَاسِبۡكُم بِهِ ٱللَّهُۖ فَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 279
(284) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है, सब अल्लाह का है। तुम अपने दिल की बातें ख़ाह ज़ाहिर करो, ख़ाह छिपाओ, अल्लाह बहरहाल उनका हिसाब तुमसे ले लेगा। फिर उसे इख़्तियार है, जिसे चाहे माफ़ कर दे और जिसे चाहे, सज़ा दे। वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
ءَامَنَ ٱلرَّسُولُ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مِن رَّبِّهِۦ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۚ كُلٌّ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّن رُّسُلِهِۦۚ وَقَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ غُفۡرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 280
(285) रसूल उस हिदायत पर ईमान लाया है जो उसके रब की तरफ़ से उसपर नाज़िल हुई है। और जो लोग इस रसूल के माननेवाले हैं, उन्होंने भी उस हिदायत को दिल से तसलीम कर लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और उनका क़ौल यह है कि “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते हमने हुक्म सुना और इताअत क़ुबूल की। मालिक, हम तुझसे ख़ता बख़्शी के तालिब हैं और हमें तेरी ही तरफ़ पलटना है।"
لَا يُكَلِّفُ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَعَلَيۡهَا مَا ٱكۡتَسَبَتۡۗ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذۡنَآ إِن نَّسِينَآ أَوۡ أَخۡطَأۡنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تَحۡمِلۡ عَلَيۡنَآ إِصۡرٗا كَمَا حَمَلۡتَهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلۡنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهِۦۖ وَٱعۡفُ عَنَّا وَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَآۚ أَنتَ مَوۡلَىٰنَا فَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 281
(286) अल्लाह किसी मुत्तनफ़्फ़िस पर उसकी मक़दिरत से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता। हर शख़्स ने जो नेकी कमाई है, उसका फल उसी के लिए है और जो बदी समेटी है, उसका वबाल उसी पर है। (ईमान लानेवालो! तुम यूँ दुआ किया करो) ऐ हमारे रब! हमसे भूल चूक में जो क़ुसूर हो जाएँ, उनपर गिरिफ़त न कर। मालिक! हमपर वह बोझ न डाल, जो तूने हमसे पहले लोगों पर डाले थे। परवरदिगार! जिस बार को उठाने की ताक़त हममें नहीं है, वह हमपर न रख। हमारे साथ नर्मी कर, हमसे दरगुज़र फ़रमा, हमपर रहम कर, तू हमारा मौला है, काफ़िरों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर।
۞وَإِن كُنتُمۡ عَلَىٰ سَفَرٖ وَلَمۡ تَجِدُواْ كَاتِبٗا فَرِهَٰنٞ مَّقۡبُوضَةٞۖ فَإِنۡ أَمِنَ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا فَلۡيُؤَدِّ ٱلَّذِي ٱؤۡتُمِنَ أَمَٰنَتَهُۥ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥۗ وَلَا تَكۡتُمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَۚ وَمَن يَكۡتُمۡهَا فَإِنَّهُۥٓ ءَاثِمٞ قَلۡبُهُۥۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 282
(283) अगर तुम सफ़र की हालत में हो और दस्तावेज़ लिखने के लिए कोई कातिब न मिले तो रेहन-बिल-क़ब्ज़ पर मामला करो।103 अगर तुममें से कोई शख़्स दूसरे पर भरोसा करके उसके साथ कोई मामला करे तो जिसपर भरोसा किया गया है, उसे चाहिए कि अमानत अदा करे और अल्लाह, अपने रब से डरे। और शहादत हरगिज़ न छिपाओ। जो शहादत छिपाता है, उसका दिल गुनाह में आलूदा है, और अल्लाह तुम्हारे आमाल से बेख़बर नहीं है।
103. रेहन-बिल-कब्ज़ का मक़सद सिर्फ़ यह है कि क़र्ज़ देनेवाले को अपने क़र्ज़ की वापसी का इत्मीनान हो जाए। मगर उसे अपने दिए हुए माल के मुआवज़े में शए-मरहूना से फ़ायदा उठाने का हक़ नहीं है, क्योंकि यह सूद है। अलबत्ता अगर कोई जानवर रेहन लिया गया हो तो उसका दूध इस्तेमाल किया जा सकता है, और उससे सवारी व बार बरदारी की ख़िदमत ली जा सकती है, क्योंकि यह दरअसल उस चारे का मुआवज़ा है जो मुर्तहिन उस जानवर को खिलाता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ يَرۡجُونَ رَحۡمَتَ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 283
(218) बख़िलाफ़ इसके जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने ख़ुदा की राह में अपना घरबार छोड़ा और जिहाद किया है, वे रहमते-इलाही के जाइज़ उम्मीदवार हैं और अल्लाह उनकी लग़ज़िशों को माफ़ करनेवाला और अपनी रहमत से उन्हें नवाज़नेवाला है।
71. 'जिहाद' के मानी हैं किसी मक़सद को हासिल करने के लिए अपनी इन्तिहाई कोशिश सर्फ़ कर देना। यह मह्ज़ जंग का हममानी नहीं है। जंग के लिए तो 'क़िताल' का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है। जिहाद उससे वसीअतर मफ़हूम रखता है। और इसमें जंग समेत हर क़िस्म की जिद्दो-जुहद शामिल है।
فَإِنۡ خِفۡتُمۡ فَرِجَالًا أَوۡ رُكۡبَانٗاۖ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَمَا عَلَّمَكُم مَّا لَمۡ تَكُونُواْ تَعۡلَمُونَ ۝ 284
(239) बदअमनी की हालत हो, तो ख़ाह पैदल हो, ख़ाह सवार, जिस तरह मुमकिन हो नमाज़ पढ़ो। और जब अम्न मुयस्सर आ जाए तो अल्लाह को उस तरीक़े से याद करो, जो उसने तुम्हें सिखा दिया है, जिससे तुम पहले नावाक़िफ़ थे।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا وَصِيَّةٗ لِّأَزۡوَٰجِهِم مَّتَٰعًا إِلَى ٱلۡحَوۡلِ غَيۡرَ إِخۡرَاجٖۚ فَإِنۡ خَرَجۡنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِي مَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ مِن مَّعۡرُوفٖۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 285
(240) तुममें से जो लोग वफ़ात पाएँ और पीछे बीवियाँ छोड़ रहे हों, उनको चाहिए कि अपनी बीवियों के हक़ में यह वसीयत कर जाएँ कि एक साल तक उनको नान व नफ़क़ा दिया जाए और वे घर से न निकाली जाएँ। फिर अगर के ख़ुद निकल जाएँ, तो अपनी ज़ात के मामले में मारूफ़ तरीक़े से वे जो कुछ भी करें, उसकी कोई ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। अल्लाह सबपर ग़ालिब इक़तिदार रखनेवाला और हकीम व दाना है।