2.सूरा अल-बक़रा
(मदीना में उतरी, आयतें 286)
परिचय
नाम और नाम रखने का कारण
इस सूरा का नाम बक़रा इसलिए है कि इसमें एक जगह ‘बक़रा’ का उल्लेख हुआ है। अरबी भाषा में ‘बक़रा’ का अर्थ होता है - गाय । क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने व्यापक विषयों का उल्लेख हुआ है कि उनके लिए विषयानुसार व्यापक शीर्षक नहीं दिए जा सकते। इसलिए नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के मार्गदर्शन से क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के लिए विषयानुसार शीर्षक देने के बजाए नाम निश्चित किए हैं, जो केवल पहचान का काम देते हैं। इस सूरा को ‘बक़रा’ कहने का अर्थ यह नहीं है कि इसमें गाय की समस्या पर वार्ता की गई है, बल्कि इसका अर्थ केवल यह है कि 'वह सूरा जिसमें गाय का उल्लेख हुआ है’।
उतरने का समय
इस सूरा का अधिकतर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदीना वाली ज़िदंगी के बिल्कुल आरम्भ में उतरा है और बहुत कम हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और विषय की अनुकूलता की दृष्टि से इसमें शामिल कर दिया गया।
उतरने का कारण
इस सूरा को समझने के लिए पहले इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए-
1. हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, संबोधन अधिकतर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिए इस्लाम की आवाज़ एक नई और अनजानी आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता यहूदियों से पड़ा। ये यहूदी लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वह्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों को मानते थे और सैद्धांतिक रूप में उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था, जिसकी शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों से होनेवाले निरंतर पतन ने उनको असल धर्म (मूसा-धर्म) से बहुत दूर हटा दिया था। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे, तो अल्लाह ने आपको निर्देश दिया कि उनको असल धर्म की ओर बुलाएँ । अत: इस सूरा बक़रा की आरंभिक 141 आयतें इसी आह्वान पर आधारित हैं।
2. मदीना पहुँचकर इस्लामी आह्वान एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था। मक्का में तो मामला केवल धर्म की बुनियादी बातों के प्रचार और धर्म अपनानेवालों के नैतिक प्रशिक्षण तक सीमित था, लेकिन जब हिजरत के बाद मदीने में एक छोटे-से इस्लामी स्टेट की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, क़ानून और राजनीति के बारे में भी मूल निर्देश देने शुरू किए और यह बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर यह नई जीवन-व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? यह सूरा आयत 142 से लेकर अंत तक इन्हीं निर्देशों पर आधारित है।
3. हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की ओर स्वयं उन्हीं के घर में (अर्थात् मक्का में) बुलाया जाता रहा और विभिन्न क़बीलों में से जो लोग इस्लाम ग्रहण करते थे, वे अपनी-अपनी जगह रहकर ही धर्म का प्रचार करते और जवाब में अत्याचारों और मुसीबतों को झेलते रहते थे, किन्तु हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटा-सा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो स्थिति यह हो गई कि एक ओर एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी ओर तमाम अरब उसकी जड़ें काट देने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी-भर लोगों के गिरोह की सफलता का ही नहीं, बल्कि उसका अस्तित्व और स्थायित्व इस बात पर निर्भर था कि एक तो वह पूरे उत्साह के साथ अपने दृष्टिकोण का प्रचार करके अधिक-से-अधिक लोगों को अपने विचारों का माननेवाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वह विरोधियों का असत्य पर होना इस तरह प्रमाणित और पूरी तरह स्पष्ट कर दे कि किसी भी सोचने-समझनेवाले व्यक्ति को उसमें संदेह न रहे। तीसरे यह कि जिन ख़तरों में वे चारों ओर से घिर गए थे, उनमें वे हताश न हो, बल्कि पूरे धैर्य और जमाव के साथ उन परिस्थितियों का मुक़ाबला करें। चौथे यह कि वे पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबन्द अवरोध का सशस्त्र मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो जाएँ, जो उनके आह्वान को विफल बनाने के लिए किसी ताक़त की ओर से किया जाए। पाँचवें, उनमें इतना साहस पैदा किया जाए कि अगर अरब के लोग इस नई व्यवस्था को, जो इस्लाम स्थापित करना चाहता है, समझाने-बुझाने से न अपनाएँ, तो उन्हें अज्ञान की दूषित जीवन-व्यवस्था को शक्ति से मिटा देने में भी संकोच न हो। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में आरंभिक निर्देश दिए हैं।
4. इस्लामी आह्वान के इस चरण में एक नया गिरोह भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का गिरोह था। यद्यपि निफ़ाक़ (कपटाचार) के आरंभिक लक्षण मक्का के आखिरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, लेकिन वहाँ केवल इस प्रकार के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पाए जाते थे, जो इस्लाम के हक़ (सत्य) होने को तो मानते थे और ईमान का इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिए [किसी प्रकार की कु़रबानी देने के लिए] तैयार न थे। मदीना पहुँचकर इस प्रकार के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और प्रकार के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी गिरोह में पाए जाने लगे [इसलिए उनके बारे में भी निर्देशों का आना ज़रूरी हुआ]।
सूरा बक़रा के उतरने के समय इन विभिन्न प्रकार के मुनाफ़िक़ों के प्रादुर्भाव का केवल आरंभ था, इसलिए अल्लाह ने उनकी ओर केवल संक्षिप्त संकेत किए हैं। बाद में जितनी-जितनी उनकी विशेषताएँ और हरकतें सामने आती गईं, उतने ही विस्तार के साथ बाद की सूरतों में हर प्रकार के मुनाफ़िकों के बारे में उनकी श्रेणियों के अनुसार अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।
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ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡغَيۡبِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ 7
(3) जो ग़ैब2 पर ईमान लाते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं,3 जो रिज़्क़ हमने उनको दिया है, उसमें से ख़र्च करते हैं,
2. 'ग़ैब' से मुराद वे हक़ीक़तें हैं जो इनसान के हवास से पोशीदा हैं और कभी बराहे-रास्त आम इनसानों के तजरिबे व मुशाहदे में नहीं आतीं। मसलन-ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात, मलाइका, वह्य, जन्नत, दोज़ख़ वग़ैरा।
3. 'इक़ामते-सलात' के मानी सिर्फ़ यही नहीं हैं कि आदमी पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करे, बल्कि इसका मतलब यह है कि इज्तिमाई तौर पर नमाज़ का निज़ाम बाक़ायदा क़ायम किया जाए। अगर किसी बस्ती में एक-एक शख़्स इनफ़िरादी तौर पर नमाज़ का पाबन्द हो, लेकिन जमाअत के साथ इस फ़र्ज़ के अदा करने का नज़्म न हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ नमाज़ क़ायम की जा रही है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَسۡتَحۡيِۦٓ أَن يَضۡرِبَ مَثَلٗا مَّا بَعُوضَةٗ فَمَا فَوۡقَهَاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَيَقُولُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۘ يُضِلُّ بِهِۦ كَثِيرٗا وَيَهۡدِي بِهِۦ كَثِيرٗاۚ وَمَا يُضِلُّ بِهِۦٓ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقِينَ 17
(26) हाँ, अल्लाह इससे हरगिज़ नहीं शरमाता कि मछर या इससे भी हक़ीरतर किसी चीज़ की तमसीलें दे11। जो लोग हक़ बात को क़ुबूल करनेवाले हैं, वे इन ही तमसीलों को देखकर जान लेते हैं कि ये हक़ है जो उनके रब कि तरफ़ से आया है, और जो मामनेवाले नहीं हैं, वे इन्हें सुनकर कहने लगते हैं कि ऐसी तमसीलों से अल्लाह को क्या सरोकार? इस तरह अल्लाह एक ही बात से बहुतों को गुमराही में मुब्तला कर देता है और बहुतों को राहे-रास्त दिखा देता है। और इससे वो गुमराही में उन्हीं को मुब्तला करता है जो फ़ासिक़ हैं,12
11. यहाँ एक एतिराज़ का ज़िक्र किए बग़ैर उसका जवाब दिया गया है। क़ुरआन में मुतअद्दिद मक़ामात पर तौजीहे-मुद्दआ के लिए मकड़ी, मक्खी, मच्छर वग़ैरा की जो तमसीलें दी गई हैं, उनपर मुख़ालिफ़ीन को एतिराज़ था कि यह कैसा कलामे-इलाही है जिसमें ऐसी हक़ीर चीज़ों की तमसीलें दी गई हैं।
12. फ़ासिक के मानी है नाफ़रमान, इताअत की हद से निकल जानेवाला।
ٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ 18
(27) अल्लाह के अहद को मजबूत बाँध लेने के बाद तोड़ देते हैं,13 अल्लाह ने जिसे तोड़ने का हुकम दिया है उसे काटते हैं14 और ज़मीन में फ़साद बरपा करते हैं। हक़ीक़त में यही लोग नुक़सान उठाने वाले हैं।
13. बादशाह अपने मुलाज़िमों और रिआया के नाम जो फ़रमान या हिदायात जारी करता है, उनको अरबी ज़बान में अहद से ताबीर किया जाता है। अल्लाह के अहद से मुराद उसका वह मुस्तक़िल फ़रमान है जिसकी रू से तमाम नौए-इनसानी सिर्फ़ उसी की बन्दगी, इताअत और परस्तिश करने पर मामूर है। "मज़बूत बाँध लेने के बाद" से इशारा इस तरफ़ है कि आदम की तख़लीक़ के वक़्त तमाम नौए-इनसानी से इस फ़रमान की पाबन्दी का इक़रार ले लिया गया था जैसा कि सूरा 7 आराफ़, आयत 172 में बयान हुआ है।
14. यानी जिन रवाबित के क़ियाम और इस्तेहकाम पर इनसान की इज्तिमाई व इनफ़िरादी फ़लाह का इनहिसार है, और जिन्हें दुरुस्त रखने का अल्लाह ने हुक्म दिया है, उनपर ये लोग तेशा चलाते हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ 48
(62) यक़ीन जानो कि नबी-ए-अरबी को माननेवाले हों या यहूदी, ईसाई हों या साबी, जो भी अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा, उसका अज्र उसके रब के पास है और उसके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं26 है।
26. सिलसिला-ए-इबारत को पेशेनज़र रखने से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद वाज़ेह हो जाती है कि यहाँ ईमान और आमाले-सालिहा की तफ़सीलात बयान करना मक़सूद नहीं है कि किन-किन बातों को आदमी माने और क्या-क्या आमाल करे तो ख़ुदा के यहाँ अज्र का मुस्तहिक़ होगा। यहाँ तो यहूदियों के इस ज़ोमे-बातिल की तरदीद मक़सूद है कि वे सिर्फ़ यहूदी गरोह को नजात का इजारादार समझते थे और इस ख़याले-ख़ाम में मुब्तला थे कि जो उनके गरोह से ताल्लुक़ रखता है, वह ख़ाह आमाल व अक़ाइद के लिहाज़ से कैसा ही हो, बहरहाल नजात उसके लिए मुक़द्दर है, और बाक़ी तमाम इनसान जो उनके गरोह से बाहर हैं वे सिर्फ़ जहन्नम का ईंधन बनने के लिए पैदा हुए हैं। इस ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह के यहाँ अस्ल चीज़ तुम्हारी ये गरोहबन्दियाँ नहीं हैं, बल्कि वहाँ जो कुछ एतिबार है, वह ईमान और अमले-सॉलेह का है, जो इनसान भी यह चीज़ लेकर हाज़िर होगा वह अपने रब से अपना अज्र पाएगा। ख़ुदा के यहाँ फैसला आदमी की सिफ़ात पर होगा न कि तुम्हारी मरदुम शुमारी के रजिस्टरों पर।
قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا ذَلُولٞ تُثِيرُ ٱلۡأَرۡضَ وَلَا تَسۡقِي ٱلۡحَرۡثَ مُسَلَّمَةٞ لَّا شِيَةَ فِيهَاۚ قَالُواْ ٱلۡـَٰٔنَ جِئۡتَ بِٱلۡحَقِّۚ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُواْ يَفۡعَلُونَ 55
(71) मूसा ने जवाब दिया, “अल्लाह कहता है वह ऐसी गाय है जिससे ख़िदमत नहीं ली जाती, न ज़मीन जोतती है न पानी खींचती है, सही-सालिम और बेदाग़ है।” इसपर वे पुकार उठे कि “हाँ, अब तुमने ठीक पता बतया है।” फिर उन्होंने उसे ज़बह किया, वरना वे ऐसा कहते मालूम न होते थे।28
28. चूँकि बनी-इसराईल को अहले-मिस्र और अपनी हमसाया क़ौमों से गाय की अज़मत व तक़दीस और गावपरस्ती के मरज़ की छूत लग गई थी और इसी बिना पर उन्होंने मिस्र से निकलते ही बछड़े को माबूद बना लिया था, इसलिए उनको हुक्म दिया गया कि गाय ज़ब्ह करें। उन्होंने टालने की कोशिश की और तफ़सीलात पूछने लगे। मगर जितनी-जितनी तफ़सीलात वे पूछते गए उतने ही घिरते चले गए यहाँ तक कि आख़िरकार उसी ख़ास क़िस्म की सुनहरी गाय पर, जिसे उस ज़माने में परस्तिश के लिए मुख़्तस (ख़ास) किया जाता था, गोया उंगली रखकर बता दिया गया कि इसे ज़ब्ह करो।
بِئۡسَمَا ٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡ أَن يَكۡفُرُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بَغۡيًا أَن يُنَزِّلَ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ فَبَآءُو بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٖۚ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٞ مُّهِينٞ 77
(90) कैसा बुरा ज़रिआ है जिससे ये अपने नफ़्स की तसल्ली हासिल करते हैं32 कि जो हिदायत अल्लाह ने नाज़िल की है उसको क़ुबूल करने से सिर्फ़ इस ज़िद की बिना पर इनकार कर रहे हैं कि अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल (वहय व रिसालत) से अपने जिस बंदे को चाहा नवाज़ दिया।33 लिहाज़ा अब ये ग़ज़ब बाला-ए-ग़ज़ब के मुस्तहिक़ हो गए हैं और ऐसे काफ़िरों के लिए सख़्त ज़िल्लतआमेज़ सज़ा मुक़र्रर है।
32. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “कैसी बुरी चीज़ है, जिसकी ख़ातिर इन्होंने अपनी जानों को बेच डाला।” यानी अपनी फ़लाह व सआदत और अपनी नजात को क़ुरबान कर दिया।
33. ये लोग चाहते थे कि आनेवाला नबी उनकी क़ौम में पैदा हो। मगर जब वह एक दूसरी क़ौम में पैदा हुआ, जिसे वे अपने मुक़ाबले में हेच समझते थे, तो वे उसके इनकार पर आमादा हो गए। गोया उनका मतलब यह था कि अल्लाह उनसे पूछकर नबी भेजता।
وَٱتَّبَعُواْ مَا تَتۡلُواْ ٱلشَّيَٰطِينُ عَلَىٰ مُلۡكِ سُلَيۡمَٰنَۖ وَمَا كَفَرَ سُلَيۡمَٰنُ وَلَٰكِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ كَفَرُواْ يُعَلِّمُونَ ٱلنَّاسَ ٱلسِّحۡرَ وَمَآ أُنزِلَ عَلَى ٱلۡمَلَكَيۡنِ بِبَابِلَ هَٰرُوتَ وَمَٰرُوتَۚ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنۡ أَحَدٍ حَتَّىٰ يَقُولَآ إِنَّمَا نَحۡنُ فِتۡنَةٞ فَلَا تَكۡفُرۡۖ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنۡهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِۦ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَزَوۡجِهِۦۚ وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِۦ مِنۡ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡۚ وَلَقَدۡ عَلِمُواْ لَمَنِ ٱشۡتَرَىٰهُ مَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖۚ وَلَبِئۡسَ مَا شَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ 97
(102) और लगे उन चीज़ों कि पैरवी करने जो शयातीन सुलैमान की सल्तनत का नाम लेकर पेश किया करते थे, हालाँकि सुलैमान ने कभी कुफ़्र नहीं किया, कुफ्र के मुर्तक़िब तो वे शयातीन थे जो लोगों को जादूगरी कि तालीम देते थे। वे पीछे पड़े उस चीज़ के जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत व मारूत, पर नाज़िल कि गयी थी। हालाँकि वे (फ़रिश्ते) जब भी किसी को उसकी तालीम देते थे पहले साफ़ तौर पर मुतनब्बेह कर दिया करते थे कि “देख हम महज़ एक आज़माइश हैं, तू कुफ़्र में मुब्तला न हो35”। फिर भी ये लोग उनसे ये चीज़ सीखते थे जिससे शौहर और बीवी में जुदाई दाल दें। ज़ाहिर था कि इज़्ने इलाही के बग़ैर वे इस ज़रिये से किसी को ज़रर नहीं पहुँचा सकते थे, मगर इसके बावजूद वे ऐसी चीज़ सीखते थे जो ख़ुद उनके लिए नफ़ाबख़्श नहीं, बल्कि नुक़सानदेह थी, और इन्हें ख़ूब मालूम था कि जो इस चीज़ का खरीददार बना, उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। कितनी बुरी मताअ थी जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों को बेच डाला, काश उन्हें मालूम होता!
35. इस आयत की तावील में मुख़्तलिफ़ अक़वाल हैं, मगर जो कुछ मैंने समझा है वह यह है कि जिस ज़माने में बनी-इसराईल की पूरी क़ौम बाबिल में क़ैदी और ग़ुलाम बनी हुई थी, अल्लाह तआला ने दो फरिश्तों को इंसानी शक्ल में उनकी आज़माइश के लिए भेजा होगा। जिस तरह क़ौमे-लूत के पास फ़रिश्ते ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में गए थे, उसी तरह इन इसराईलियों के पास वे पीरों और फ़क़ीरों की शक्ल में गए होंगे। वहाँ एक तरफ़ उन्होंने बाज़ारे-साहिरी में अपनी दुकान लगाई होगी और दूसरी तरफ़ वे इतमामे-हुज्जत के लिए हर एक को ख़बरदार भी कर देते होंगे कि देखो, हम तुम्हारे लिए आज़माइश की हैसियत रखते हैं, तुम अपनी आक़िबत न ख़राब करो। मगर इसक बावजूद लोग उनके पेश-करदा सिफ़ली अमलियात और नुक़ूश व तावीज़ात पर टूटे पड़ते होंगे।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَٰكُمۡ أُمَّةٗ وَسَطٗا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيۡكُمۡ شَهِيدٗاۗ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلۡقِبۡلَةَ ٱلَّتِي كُنتَ عَلَيۡهَآ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يَتَّبِعُ ٱلرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِۚ وَإِن كَانَتۡ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِيعَ إِيمَٰنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ 126
(143) और इसी तरह तो हमने तुम मुसलमानों को एक ‘उम्मते-वसत’44 बनाया ताकि तुम दुनिया के लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।45 पहले जिस तरफ़ तुम रुख़ करते थे, उसको तो सिर्फ़ हमने यह देखने के लिए क़िबला मुक़र्रर किया था कि कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उलटा फिर जाता है। ये मामला था बड़ा सख़्त, मगर उन लोगों के लिए कुछ भी सख़्त साबित न हुआ जो अल्लाह कि हिदायत से फ़ैज़याब थे। अल्लाह तुम्हारे इस ईमान को हरगिज़ ज़ाया न करेगा, यक़ीन जानो कि वह लोगों के हक़ में शफ़ीक़ व रहीम है।
44. 'उम्मते-वसत’ से मुराद एक ऐसा आला और अशरफ़ गरोह है जो अद्ल व इनसाफ़ और तवस्सुत की रविश पर क़ायम हो, जो दुनिया की क़ौमों के दरमियान सद्र की हैसियत रखता हो, जिसका ताल्लुक़ सबके साथ यकसाँ हक़ और रास्ती का ताल्लुक़ हो और नाहक़, नारवा ताल्लुक़ किसी से न हो।
45. इससे मुराद यह है कि आख़िरत में जब पूरी नौए-इनसानी का इकट्ठा हिसाब लिया जाएगा, उस वक़्त अल्लाह के ज़िम्मेदार नुमाइन्दे की हैसियत से रसूल तुमपर गवाही देगा कि फ़िक्रे-सही और अमले-सॉलेह और निज़ामे-अद्ल की जो तालीम हमने उसे दी थी, वह उसने तुमको बे-कमो-कास्त पूरी-की-पूरी पहुँचा दी और अमलन उसके मुताबिक़ काम करके दिखा दिया। इसके बाद रसूल के क़ायम मक़ाम होने की हैसियत से तुमको आम इनसानों पर गवाह बनकर उठना होगा और यह शहादत देनी होगी कि रसूल ने जो कुछ तुम्हें पहुँचाया था, वह तुमने उन्हें पहुँचाने में, और जो कुछ रसूल ने तुम्हें अमल करके दिखाया था, वह तुमने उन्हें अमल करके दिखाने में अपनी हद तक कोई कोताही नहीं की।
قَدۡ نَرَىٰ تَقَلُّبَ وَجۡهِكَ فِي ٱلسَّمَآءِۖ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبۡلَةٗ تَرۡضَىٰهَاۚ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ 130
(144) (ऐ नबी!) यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठाना हम देख रहे हैं। लो, हम उसी क़िब्ले की तरफ़ मुँह फेर देते हैं जिसे तुम पसंद करते हो। मस्जिदे-हराम की तरफ़ रुख़ फेर दो। अब जहाँ कहीं तुम हो, उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।46 ये लोग जिन्हें किताब दी गई थी, ख़ूब जानते हैं कि (तहवीले-क़िब्ला का) यह हुक्म उनके रब ही कि तरफ़ से है और बरहक़ है, मगर इसके बावजूद ये जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह इनसे ग़ाफ़िल नहीं है।
46. यह है वह अस्ल हुक्म जो तहवीले-क़िब्ला के बारे में दिया गया था। यह हुक्म रजब या शाबान सन् 2 हिजरी में नाज़िल हुआ। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक सहाबी के यहाँ दावत पर गए हुए थे। वहाँ ज़ुह्र का वक़्त आ गया और आप (सल्ल०) लोगों को नमाज़ पढ़ाने खड़े हुए। दो रकअतें पढ़ा चुके थे कि तीसरी रकअत में यकायक वह्य के ज़रिए से यह आयत नाज़िल हुई और उसी वक़्त आप (सल्ल०) और आप (सल्ल०) की इक़तिदा में जमाअत के तमाम लोग बैतुल-मक़दिस से काबा के रुख़ फिर गए। उसके बाद मदीना और अतराफ़े-मदीना में इसकी आम मुनादी की गई। और यह जो फ़रमाया कि हम तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना देख रहे हैं और यह कि “हम उसी क़िब्ले की तरफ़ तुम्हें फेरे देते हैं, जिसे तुम पसन्द करते हो,” इससे साफ़ मालूम होता है कि तहवीले-क़िब्ला का हुक्म आने से पहले नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसके मुन्तज़िर थे।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَيۡكُمۡ حُجَّةٌ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِي وَلِأُتِمَّ نِعۡمَتِي عَلَيۡكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ 131
(150) और जहाँ से भी तुम्हारा गुज़र हो, अपना रुख़ मस्जिदे-हराम ही की तरफ़ फेरा करो, और जहाँ भी तुम हो, उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ो ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई हुज्जत न मिले।48 हाँ, उनमें से जो ज़ालिम हैं, उनकी ज़बान किसी हाल में बंद न होगी, तो उनसे तुम न डरो, बल्कि मुझसे डरो, और49 इसलिए कि मैं तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दूँ और इस तवक़्क़ो पर कि मेरे इस हुक्म कि पैरवी से तुम उसी तरह फ़लाह का रास्ता पाओगे,
48. यानी किसी को यह कहने का मौक़ा न मिले कि ये अच्छे मोमिन हैं जो अपने ख़ुदा के सरीह हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते हैं।
49. इस फ़िक़रे का ताल्लुक़ इस इबारत से है कि “उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ो ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई हुज्जत न मिले।”
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٌ أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةُ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ 165
(161) जिन लोगों ने कुफ़्र का रवैया' इख़्तियार किया और कुफ़्र की हालत ही में जान दी, उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और तमाम इनसानों की लानत है।
51. 'कुफ़्र' का लफ़्ज़ ईमान के मुक़ाबले में बोला जाता है। ईमान के मानी हैं मानना, क़ुबूल करना, तसलीम कर लेना। इसके बरअक्स कुफ़्र के मानी हैं न मानना, रद्द कर देना, इनकार करना। क़ुरआन की रू से कुफ़्र के रवैये की मुख़्तलिफ़ सूरते हैं— एक यह कि इनसान सिरे से ख़ुदा ही को न माने, या उसके इक़तिदारे-आला को तसलीम न करे और उसको अपना और सारी कायनात का मालिक और माबूद मानने से इनकार कर दे, या उसे वाहिद मालिक और माबूद न माने। दूसरे यह कि अल्लाह को तो माने मगर उसके अहकाम और उसकी हिदायात को वाहिद मम्बए-इल्मो-क़ानून तसलीम करने से इनकार कर दे। तीसरे यह कि उसूलन इस बात को भी तस्लीम कर ले कि उसे अल्लाह ही की हिदायत पर चलना चाहिए, मगर अल्लाह अपनी हिदायात और अपने अहकाम पहुँचाने के लिए जिन पैग़म्बरों को वास्ता बनाता है, उन्हें तसलीम न करे। चौथे यह कि पैग़म्बरों के दरमियान तफ़रीक़ करे और अपनी पसन्द या अपने तास्सुबात की बिना पर उनमें से किसी को माने और किसी को न माने। पाँचवें यह कि पैग़म्बरों ने ख़ुदा की तरफ़ से अक़ाइद, अख़लाक़ और क़वानीने-हयात के मुताल्लिक़ जो तालीमात बयान की हैं उनको या उनमें से किसी चीज़ को मानने से इनकार कर दे। छठे यह कि नज़रिए के तौर पर तो इन सब चीज़ों को मान ले मगर अमलन अहकामे-इलाही की दानिस्ता नाफ़रमानी करता रहे और इस नाफ़रमानी पर इसरार करे और दुनियवी ज़िन्दगी में अपने रवैये की बिना इताअत पर न रखे, बल्कि नाफ़रमानी ही पर रखे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِصَاصُ فِي ٱلۡقَتۡلَىۖ ٱلۡحُرُّ بِٱلۡحُرِّ وَٱلۡعَبۡدُ بِٱلۡعَبۡدِ وَٱلۡأُنثَىٰ بِٱلۡأُنثَىٰۚ فَمَنۡ عُفِيَ لَهُۥ مِنۡ أَخِيهِ شَيۡءٞ فَٱتِّبَاعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَأَدَآءٌ إِلَيۡهِ بِإِحۡسَٰنٖۗ ذَٰلِكَ تَخۡفِيفٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَرَحۡمَةٞۗ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ 173
(178) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम्हारे लिए क़त्ल के मुक़द्दमों में क़िसास का हुक्म लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने क़त्ल किया हो तो उस आज़ाद ही से बदला लिया जाए, ग़ुलाम क़ातिल हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए और औरत इस जुर्म की मुर्तकिब हो तो उस औरत ही से क़िसास लिया जाए। हाँ, अगर किसी क़ातिल के साथ उसका भाई कुछ नर्मी करने के लिए तैयार हो तो मारूफ़ तरीक़े के मुताबिक़ ख़ू-बहा का तसफ़िया होना चाहिए और क़ातिल को लाज़िम है कि रास्ती के साथ ख़ू-बहा अदा करे।53 यह तुम्हारे रब की तरफ़ से तख़फ़ीफ़ और रहमत है। इसपर भी जो ज़्यादती करे54, उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
53. इससे मालूम हुआ कि इस्लामी क़ानूने-ताज़ीरात में क़त्ल का मामला क़ाबिले-राज़ीनामा है। मक़तूल के वारिसों को यह हक़ पहुँचता है कि क़ातिल को क़िसास से माफ़ कर दें और इस सूरत में अदालत के लिए जाइज़ नहीं कि क़ातिल की जान ही लेने पर इसरार करे। अलबत्ता माफ़ी की सूरत में क़ातिल को ख़ूँ-बहा अदा करना होगा।
54. मसलन यह कि मक़तूल का वारिस ख़ूँ-बहा वुसूल कर लेने के बाद फिर इन्तिकाम लेने की कोशिश करे, या क़ातिल ख़ूँ-बहा अदा करने में टाल-मटोल करे और मक़तूल के वारिस ने जो एहसान उसके साथ किया है, उसका बदला एहसान-फ़रामोशी से दे।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَهِلَّةِۖ قُلۡ هِيَ مَوَٰقِيتُ لِلنَّاسِ وَٱلۡحَجِّۗ وَلَيۡسَ ٱلۡبِرُّ بِأَن تَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِن ظُهُورِهَا وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِنۡ أَبۡوَٰبِهَاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ 196
(189) (ऐ नबी!) लोग तुमसे चाँद की घटती-बढ़ती सूरतों के मुताल्लिक़ पूछते हैं। कहो, “ये लोगों के लिए तारीख़ों की तायीन की और हज की अलामतें हैं।" नीज़ उनसे कहो, “यह कोई नेकी का काम नहीं है कि तुम अपने घरों में पीछे की तरफ़ से दाख़िल होते हो। नेकी तो अस्ल में यह है कि आदमी अल्लाह की नाराज़ी से बचे। लिहाज़ा तुम अपने घरों में दरवाज़े ही से आया करो। अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो। शायद कि तुम्हें फ़लाह नसीब हो जाए।”58
58. मिन-जुमला उन तवह्हुम परस्ताना रस्मों के, जो अरब में राइज थीं, एक यह भी थी कि जब हज के लिए इहराम बाँध लेते तो अपने घरों में दरवाज़े से दाख़िल न होते थे, बल्कि पीछे से दीवार कूदकर या दीवार में खिड़की-सी बनाकर दाख़िल होते थे। नीज़ सफ़र से वापस आकर भी घरों में पीछे से दाख़िल हुआ करते थे। इस आयत में न सिर्फ़ इस रस्म की तरदीद की गई है, बल्कि इन तमाम तवह्हुमात पर यह कहकर ज़र्ब लगाई गई है कि नेकी इन रस्मों में नहीं है, बल्कि अस्ल नेकी अल्लाह से डरना और उसके अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचना है।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَأۡتِكُم مَّثَلُ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۖ مَّسَّتۡهُمُ ٱلۡبَأۡسَآءُ وَٱلضَّرَّآءُ وَزُلۡزِلُواْ حَتَّىٰ يَقُولَ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ مَتَىٰ نَصۡرُ ٱللَّهِۗ أَلَآ إِنَّ نَصۡرَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ 197
(214) फिर क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यूँ ही जन्नत का दाख़िला तुम्हें मिल जाएगा, हालाँकि अभी तुमपर वह सब कुछ नहीं गुज़रा है जो तुमसे पहले ईमान लानेवालों पर गुज़र चुका है?69 उनपर सख़्तियाँ गुज़रीं, मुसीबतें आईं, हिला मारे गए, हत्ता कि वक़्त का रसूल और उसके साथी अहले-ईमान चीख़ उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी? (उस वक़्त उन्हें तसल्ली दी गई कि) हाँ, अल्लाह की मदद क़रीब है।
69. मतलब यह है कि अम्बिया तो जब भी दुनिया में आए हैं उन्हें और उनपर ईमान लानेवाले लोगों को ख़ुदा के बाग़ी व सरकश बन्दों से सख़्त मुक़ाबला पेश आया है और उन्होंने अपनी जानें जोखों में डालकर बातिल तरीक़ों के मुक़ाबले में दीने-हक़ को क़ायम करने की जिद्दो-जुहद की है, तब कहीं वे जन्नत के मुस्तहिक़ हुए। ख़ुदा की जन्नत इतनी सस्ती नहीं है कि तुम ख़ुदा और उसके दीन की ख़ातिर कोई तकलीफ़ न उठाओ और वह तुम्हें मिल जाए।
وَأَتِمُّواْ ٱلۡحَجَّ وَٱلۡعُمۡرَةَ لِلَّهِۚ فَإِنۡ أُحۡصِرۡتُمۡ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۖ وَلَا تَحۡلِقُواْ رُءُوسَكُمۡ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡهَدۡيُ مَحِلَّهُۥۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ بِهِۦٓ أَذٗى مِّن رَّأۡسِهِۦ فَفِدۡيَةٞ مِّن صِيَامٍ أَوۡ صَدَقَةٍ أَوۡ نُسُكٖۚ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَمَن تَمَتَّعَ بِٱلۡعُمۡرَةِ إِلَى ٱلۡحَجِّ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۚ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖ فِي ٱلۡحَجِّ وَسَبۡعَةٍ إِذَا رَجَعۡتُمۡۗ تِلۡكَ عَشَرَةٞ كَامِلَةٞۗ ذَٰلِكَ لِمَن لَّمۡ يَكُنۡ أَهۡلُهُۥ حَاضِرِي ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 204
(196) अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए जब हज और उमरे की नीयत करो, तो उसे पूरा करो, और अगर कहीं घिर जाओ तो जो क़ुरबानी मुयस्सर आए, अल्लाह की जनाब में पेश करो61, और अपने सर न मूँडो जब तक कि क़ुरबानी अपनी जगह न पहुँच जाए। मगर जो शख़्स मरीज़ हो या जिसके सर में कोई तकलीफ़ हो और इस बिना पर अपना सिर मुँडवाले, तो उसे चाहिए कि फ़िदये के तौर पर रोज़े रखे या सदक़ा दे या क़ुरबानी करे। फिर अगर तुम्हें अम्न नसीब हो जाए (और तुम हज से पहले मक्का पहुँच जाओ), तो जो शख़्स तुममें से हज का ज़माना आने तक उमरे का फ़ायदा उठाए, वह हस्बे-मक़दूर क़ुरबानी दे, और अगर क़ुरबानी मुयस्सर न हो तो तीन रोज़े हज के ज़माने में और सात घर पहुँचकर, इस तरह पूरे दस रोज़े रख ले। यह रिआयत उन लोगों के लिए है, जिनके घर मस्जिदे-हराम के क़रीब न हों। अल्लाह के इन अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
61. यानी अगर रास्ते में कोई ऐसा सबब पेश आ जाए, जिसकी वजह से आगे जाना ग़ैर-मुमकिन हो और मजबूरन रुक जाना पड़े तो ऊँट,गाय,बकरी में से जो जानवर भी मुयस्सर हो अल्लाह के लिए क़ुरबान कर दो।
62. हदीस से मालूम होता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस सूरत में तीन दिन के रोज़े रखने या छह मिसकीनों को खाना खिलाने या कम-अज़-कम एक बकरी ज़ब्ह करने का हुक्म दिया है।
63. यानी वह सबब दूर हो जाए जिसकी वजह से मजबूरन तुम्हें रास्ते में रुक जाना पड़ा था।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ قِتَالٖ فِيهِۖ قُلۡ قِتَالٞ فِيهِ كَبِيرٞۚ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَكُفۡرُۢ بِهِۦ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَإِخۡرَاجُ أَهۡلِهِۦ مِنۡهُ أَكۡبَرُ عِندَ ٱللَّهِۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَكۡبَرُ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ حَتَّىٰ يَرُدُّوكُمۡ عَن دِينِكُمۡ إِنِ ٱسۡتَطَٰعُواْۚ وَمَن يَرۡتَدِدۡ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَيَمُتۡ وَهُوَ كَافِرٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ 209
(217) लोग पूछते हैं, माहे-हराम में लड़ना कैसा है? कहो, उसमें लड़ना बहुत बुरा है, मगर राहे-ख़ुदा से लोगों को रोकना और अल्लाह से कुफ़्र करना और मस्जिदे-हराम का रास्ता ख़ुदापरस्तों पर बन्द करना और हरम के रहनेवालों को वहाँ से निकालना अल्लाह के नज़दीक इससे भी ज़्यादा बुरा है और फ़ितना ख़ूँरेज़ी से शदीदतर है।70 वे तो तुमसे लड़े ही जाएँगे हत्ता कि अगर उनका बस चले तो तुम्हारे दीन से तुमको फेर ले जाएँ। (और यह ख़ूब समझ लो कि) तुममें से जो कोई अपने दीन से फिरेगा और कुफ़्र की हालत में जान देगा, उसके आमाल दुनिया और आख़िरत दोनों में ज़ाया हो जाएँगे। ऐसे सब लोग जहन्नमी हैं और हमेशा जहन्नम ही में रहेंगे।
70. यह बात एक वाक़िए से मुताल्लिक़ है। रजब सन 2 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आठ आदमियों का एक दस्ता नख़ला की तरफ़ भेजा था (जो मक्का और ताइफ़ के दरमियान एक मक़ाम है) और उसको हिदायत फ़रमा दी थी कि क़ुरैश की नक़्लो-हरकत और उनके आइन्दा इरादों के मुताल्लिक़ मालूमात हासिल करे। जंग की कोई इजाज़त आप (सल्ल०) ने नहीं दी थी। लेकिन इन लोगों को रास्ते में क़ुरैश का एक छोटा-सा तिजारती क़ाफ़िला मिला और उसपर उन्होंने हमला करके एक आदमी को क़त्ल कर दिया और बाक़ी लोगों को उनके माल समेत गिरिफ़्तार करके मदीना ले आए। यह कार्रवाई ऐसे वक़्त हुई जबकि रजब ख़त्म और शाबान शुरू हो रहा था और यह अम्र मुश्तबह था कि आया हमला रजब (यानी माहे-हराम) में हुआ है या शाबान में। लेकिन क़ुरैश ने, और उनसे दर-परदा मिले हुए मदीना के यहूदियों और मुनाफ़िक़ीन ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रोपेगण्डा करने के लिए इस वाक़िए को ख़ूब शोहरत दी और सख़्त एतिराज़ात शुरू कर दिए कि ये लोग चले हैं बड़े अल्लाहवाले बनकर और हाल यह है कि माहे-हराम तक में ख़ूँरेज़ी से नहीं चूकते। इन्हीं एतिराज़ात का जवाब इस आयत में दिया गया है।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِۖ قُلۡ فِيهِمَآ إِثۡمٞ كَبِيرٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَإِثۡمُهُمَآ أَكۡبَرُ مِن نَّفۡعِهِمَاۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلِ ٱلۡعَفۡوَۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ 210
(219) पूछते हैं, शराब और जुए का क्या हुक्म है? कहो, इन दोनों चीज़ों में बड़ी ख़राबी है। अगरचे इनमें लोगों के लिए कुछ मनाफ़े भी हैं, मगर इनका नुक़सान उनके फ़ायदे से बहुत ज़्यादा है।72 पूछते हैं, हम राहे-ख़ुदा में क्या ख़र्च करें? कहो, जो ज़रूरत से ज़्यादा हो।73 इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए साफ़-साफ़ अहकाम बयान करता है, शायद कि तुम दुनिया और आख़िरत दोनों की फ़िक्र करो।
72. यह शराब और जुए के मुताल्लिक़ पहला हुक्म है, जिसमें सिर्फ़ इज़हारे-नापसन्दीदगी करके छोड़ दिया गया है, आगे सूरा-4, निसा, 43 और सूरा-5, माइदा, आयत 90 में बाद के अहकाम आ रहे हैं।
73. इस आयत से आजकल अजीब-अजीब मानी निकाले जा रहे हैं। हालाँकि आयत के अलफ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर कि लोग अपने माल के मालिक थे। सवाल यह कर रहे थे कि हम ख़ुदा की रिज़ा के लिए क्या ख़र्च करें? फ़रमाया गया कि पहले इससे अपनी ज़रूरियात पूरी करो। फिर जो ज़ाइद बचे उसे अल्लाह की राह में सर्फ़ करो। यह रज़ाकाराना ख़र्च है जो बन्दा अपने रब की राह में अपनी ख़ुशी से करता है।
ٱلطَّلَٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَٰنٖۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَأۡخُذُواْ مِمَّآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ شَيۡـًٔا إِلَّآ أَن يَخَافَآ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَا فِيمَا ٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَعۡتَدُوهَاۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ 218
(229) तलाक़ दो बार है। फिर या तो सीधी तरह औरत को रोक लिया जाए या भले तरीक़े से उसको रुख़सत कर दिया जाए।79 और रुख़सत करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिए जाइज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो। अलबत्ता यह सूरत मुस्तसना है कि ज़ौजैन को अल्लाह के हुदूद पर क़ायम न रह सकने का अंदेशा हो। ऐसी सूरत में अगर तुम्हें यह खौफ़ हो कि वे दोनों हुदूदे-इलाही पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के दरमियान यह मामला हो जाने में मुज़ाइक़ा नहीं कि औरत अपने शौहर को कुछ मुआवज़ा देकर अलाहिदगी हासिल कर ले।80 ये अल्लाह की मुकर्रर करदा हुदूद हैं, इनसे तजावुज़ न करो। और जो लोग हुदूदे-इलाही से तजावुज़ करें वही ज़ालिम हैं।
79. इस आयत की रू से एक मर्द एक रिश्ता-ए-निकाह में अपनी बीवी पर हद-से-हद दो ही मर्तबा तलाक़े-रजई का हक़ इस्तेमाल कर सकता है। जो शख़्स अपनी मनकूहा को दो मर्तबा तलाक़ देकर उससे रुजूअ कर चुका हो, वह अपनी उम्र में जब कभी उसको तीसरी बार तलाक़ देगा, औरत उससे मुस्तक़िल तौर पर जुदा हो जाएगी।
80. शरीअत की इस्तिलाह में इसे 'ख़ुलअ' कहते हैं, यानी एक औरत का अपने शौहर को कुछ दे-दिलाकर उससे तलाक़ हासिल करना। इस सूरत में मर्द के लिए जाइज़ होगा कि अपना दिया हुआ माल या उसका कोई हिस्सा, जिसपर भी बाहम इत्तिफ़ाक़ हुआ हो, औरत से वापस ले ले। लेकिन अगर मर्द ने ख़ुद ही औरत को तलाक़ दी हो तो वह उससे अपना दिया हुआ कोई माल वापस नहीं ले सकता।
۞وَٱلۡوَٰلِدَٰتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ لَا تُكَلَّفُ نَفۡسٌ إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَا تُضَآرَّ وَٰلِدَةُۢ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوۡلُودٞ لَّهُۥ بِوَلَدِهِۦۚ وَعَلَى ٱلۡوَارِثِ مِثۡلُ ذَٰلِكَۗ فَإِنۡ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٖ مِّنۡهُمَا وَتَشَاوُرٖ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَاۗ وَإِنۡ أَرَدتُّمۡ أَن تَسۡتَرۡضِعُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا سَلَّمۡتُم مَّآ ءَاتَيۡتُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ 225
(233) जो बाप चाहते हों कि उनकी औलाद पूरी मुद्दते-रज़ाअत तक दूध पिए। तो माँएँ अपने बच्चों को कामिल दो साल दूध पिलाएँ।82 इस सूरत में बच्चे के बाप को मारूफ़ तरीक़े से उन्हें खाना-कपड़ा देना होगा। मगर किसी पर उसकी वुसअत से बढ़कर बार न डालना चाहिए न तो माँ को इस वजह से तकलीफ़ में डाला जाए कि बच्चा उसका है, और न बाप ही को इस वजह से तंग किया जाए कि बच्चा उसका है।— दूध पिलानेवाली का यह हक़ जैसा कि बच्चे के बाप पर है, वैसा ही उसके वारिस पर भी है लेकिन अगर फ़रीक़ैन बाहमी रज़ामन्दी और मशवरे से दूध छुड़ाना चाहें, तो ऐसा करने में कोई मुज़ायक़ा नहीं। और अगर तुम्हारा ख़याल अपनी औलाद को किसी ग़ैर-औरत से दूध पिलवाने का हो, तो उसमें भी कोई हरज नहीं, बशर्ते कि उसका जो कुछ मुआवज़ा तय करो, वह मारूफ़ तरीक़े पर अदा करो। अल्लाह से डरो और जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
82. यह उस सूरत का हुक्म है, जबकि ज़ौजैन एक-दूसरे से अलाहिदा हो चुके हों, ख़ाह तलाक़ के ज़रिए से या ख़ुलअ या फ़स्ख़ और तफ़रीक़ के ज़रिए से, और औरत की गोद में दूध पीता बच्चा हो।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَعَشۡرٗاۖ فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ 226
(234) तुममें से जो लोग मर जाएँ, उनके पीछे अगर उनकी बीवियाँ ज़िन्दा हों, तो वे अपने-आपको चार महीने, दस दिन रोके रखें।83 फिर जब उनकी इद्दत पूरी हो जाए, तो उन्हें इख़्तियार है, अपनी ज़ात के मामले में मारूफ़ तरीक़े से जो चाहें करें। तुमपर उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। अल्लाह तुम सबके आमाल से बाख़बर है।
83. यह इद्दते-वफ़ात उन औरतों के लिए भी है जिनसे शौहरों की ख़ल्वते-सहीहा न हुई हो। अलबत्ता हामिला औरत इससे मुस्तसना है। उसकी इद्दते-वफ़ात वज़ए-हमल तक है, ख़ाह वज़ए-हमल शौहर की वफ़ात के बाद ही हो जाए या उसमें कई महीने सर्फ़ हों। 'अपने-आपको रोके रखें' से मुराद सिर्फ़ दूसरा निकाह करने से रुकना ही नहीं है, बल्कि इससे मुराद अपने-आपको ज़ीनत से भी रोके रखना है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُۚ لَا تَأۡخُذُهُۥ سِنَةٞ وَلَا نَوۡمٞۚ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ مَن ذَا ٱلَّذِي يَشۡفَعُ عِندَهُۥٓ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيۡءٖ مِّنۡ عِلۡمِهِۦٓ إِلَّا بِمَا شَآءَۚ وَسِعَ كُرۡسِيُّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۖ وَلَا يَـُٔودُهُۥ حِفۡظُهُمَاۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ 250
(255) अल्लाह, वह ज़िन्दा-ए-जावेद हस्ती, जो तमाम कायनात को सम्भाले हुए है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है। ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है, उसी का है। कौन है जो उसकी जनाब में उसकी इजाज़त के बग़ैर सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह वाक़िफ़ है और उसकी मालूमात में से कोई चीज़ उनकी गिरिफ़्ते-इदराक में नहीं आ सकती, इल्ला यह कि किसी चीज़ का इल्म वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसकी हुकूमत88 आसमानों और ज़मीन पर छाई हुई है और उनकी निगहबानी उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक बुजुर्ग बरतर ज़ात है।
88. अस्ल में लफ़्ज़ 'कुर्सी' इस्तेमाल हुआ है, जिसे बिल-उमूम हुकूमत व इक़तिदार के लिए इस्तिआरे के तौर पर बोला जाता है। उर्दू ज़बान में भी अकसर कुर्सी का लफ़्ज़ बोलकर हाकिमाना इख़्तियारात मुराद लेते हैं। इसी लफ़्ज़ की रिआयत से यह आयत ‘आयतुल कुर्सी' के नाम से मशहूर है और इसमें अल्लाह तआला की ऐसी मुकम्मल मअरिफ़त बख़्शी गई है जिसकी नज़ीर कहीं नहीं मिलती। इसी बिना पर हदीस में इसको कुरआन की सबसे अफ़ज़ल आयत क़रार दिया गया है।
أَيَوَدُّ أَحَدُكُمۡ أَن تَكُونَ لَهُۥ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَابٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ لَهُۥ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَأَصَابَهُ ٱلۡكِبَرُ وَلَهُۥ ذُرِّيَّةٞ ضُعَفَآءُ فَأَصَابَهَآ إِعۡصَارٞ فِيهِ نَارٞ فَٱحۡتَرَقَتۡۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ 266
(266) क्या तुममें से कोई यह पसन्द करता है कि उसके पास एक हरा-बाग़ हो, नहरों से सैराब, खजूरों और अंगूरों और हर क़िस्म के फलों से लदा और वह ऐन उस वक़्त एक तेज़ बगूले की ज़द में आकर झुलस जाए, जबकि वह ख़ुद बूढ़ा हो, और उसके कमसिन बच्चे अभी किसी लायक़ न हों?95 इस तरह अल्लाह अपनी बातें तुम्हारे सामने बयान करता है, शायद कि तुम गौर व फ़िक्र करो।
95. यानी अगर तुम यह पसन्द नहीं करते कि तुम्हारी उम्र-भर की कमाई एक ऐसे नाज़ुक मौक़े पर तबाह हो जाए जबकि तुम उससे फ़ायदा उठाने के सबसे ज़्यादा मुहताज हो और अज़-सरे-नौ कमाई करने का मौक़ा भी बाक़ी न रहा हो, तो यह बात तुम कैसे पसन्द कर रहे हो कि दुनिया में मुद्दतुल-उम्र काम करने के बाद आख़िरत की ज़िन्दगी में तुम इस तरह क़दम रखो कि वहाँ पहुँचकर यकायक तुम्हें मालूम हो कि तुम्हारा पूरा कारनाम-ए-हयात यहाँ कोई क़ीमत नहीं रखता, जो कुछ तुमने दुनिया के लिए कमाया था, वह दुनिया ही में रह गया, आख़िरत के लिए कुछ कमाकर लाए ही नहीं कि यहाँ उसके फल खा सको।
ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ 274
(275) मगर जो लोग सूद खाते हैं, उनका हाल उस शख़्स का-सा होता है। जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो।97 और इस हालत में उनके मुब्तला होने की वजह यह है कि वे कहते हैं, “तिजारत भी तो आख़िर सूद ही जैसी चीज़ है।”98 हालाँकि अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया है और सूद को हराम। लिहाज़ा जिस शख़्स को उसके रब की तरफ़ से यह नसीहत पहुँचे और आइन्दा के लिए वह सूदख़ोरी से बाज़ आ जाए, तो जो कुछ वह पहले खा चुका, सो खा चुका, उसका मामला अल्लाह के हवाले है।99 और जो इस हुक्म के बाद फिर उसी हरकत का इआदा करे, वह जहन्नमी है, जहाँ वह हमेशा रहेगा।
97. अहले-अरब दीवाने आदमी को ‘मजनून' (यानी आसेबज़दा) के लफ़्ज़ से ताबीर करते थे, और जब किसी शख़्स के मुताल्लिक़ यह कहना होता कि वह पागल हो गया है, तो यूँ कहते कि उसे जिन्न लग गया है। इसी मुहावरे को इस्तेमाल करते हुए क़ुरआन सूदख़ोर को उस शख़्स से तशबीह देता है जो मख़बूतुल-हवास हो गया हो।
98. यानी उनके नज़रिए की ख़राबी यह है कि वे तिजारत में अस्ल लागत पर जो मुनाफ़ा लिया जाता है उसकी नौइयत और सूद की नौइयत का फ़र्क़ नहीं समझते, और दोनों को एक ही क़िस्म की चीज़ समझकर यूँ इस्तिदलाल करते हैं कि जब तिजारत में लगे हुए रुपये का मुनाफ़ा जाइज़ है, तो क़र्ज़ पर दिए हुए रुपये का मुनाफ़ा क्यों नाजाइज़ होगा।
99. यह नहीं फ़रमाया कि जो कुछ उसने खा लिया उसे अल्लाह माफ़ कर देगा, बल्कि इरशाद यह हो रहा है कि उसका मामला अल्लाह के हवाले है। इस फ़िक़रे से मालूम होता है कि 'जो खा चुका सो खा चुका' कहने का मतलब यह नहीं है कि जो खा चुका उसे माफ़ कर दिया गया, बल्कि इससे मह्ज़ क़ानूनी रिआयत मुराद है। यानी जो सूद पहले खाया जा चुका है उसे वापस देने का क़ानूनन मुतालबा नहीं किया जाएगा।
۞وَإِن كُنتُمۡ عَلَىٰ سَفَرٖ وَلَمۡ تَجِدُواْ كَاتِبٗا فَرِهَٰنٞ مَّقۡبُوضَةٞۖ فَإِنۡ أَمِنَ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا فَلۡيُؤَدِّ ٱلَّذِي ٱؤۡتُمِنَ أَمَٰنَتَهُۥ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥۗ وَلَا تَكۡتُمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَۚ وَمَن يَكۡتُمۡهَا فَإِنَّهُۥٓ ءَاثِمٞ قَلۡبُهُۥۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ 282
(283) अगर तुम सफ़र की हालत में हो और दस्तावेज़ लिखने के लिए कोई कातिब न मिले तो रेहन-बिल-क़ब्ज़ पर मामला करो।103 अगर तुममें से कोई शख़्स दूसरे पर भरोसा करके उसके साथ कोई मामला करे तो जिसपर भरोसा किया गया है, उसे चाहिए कि अमानत अदा करे और अल्लाह, अपने रब से डरे। और शहादत हरगिज़ न छिपाओ। जो शहादत छिपाता है, उसका दिल गुनाह में आलूदा है, और अल्लाह तुम्हारे आमाल से बेख़बर नहीं है।
103. रेहन-बिल-कब्ज़ का मक़सद सिर्फ़ यह है कि क़र्ज़ देनेवाले को अपने क़र्ज़ की वापसी का इत्मीनान हो जाए। मगर उसे अपने दिए हुए माल के मुआवज़े में शए-मरहूना से फ़ायदा उठाने का हक़ नहीं है, क्योंकि यह सूद है। अलबत्ता अगर कोई जानवर रेहन लिया गया हो तो उसका दूध इस्तेमाल किया जा सकता है, और उससे सवारी व बार बरदारी की ख़िदमत ली जा सकती है, क्योंकि यह दरअसल उस चारे का मुआवज़ा है जो मुर्तहिन उस जानवर को खिलाता है।