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وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَعۡبُدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ حَرۡفٖۖ فَإِنۡ أَصَابَهُۥ خَيۡرٌ ٱطۡمَأَنَّ بِهِۦۖ وَإِنۡ أَصَابَتۡهُ فِتۡنَةٌ ٱنقَلَبَ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ خَسِرَ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ

  1. अल-हज

(मक्का में उतरी-आयतें 78)

परिचय

नाम

इस सूरा की सत्ताइसवीं आयत "व अज़्ज़िनु फ़िन्‍नासि बिल हज्जि” अर्थात् "लोगों में हज के लिए सामान्य घोषणा कर दो" से लिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा में मक्की और मदनी सूरतों की विशेषताएँ मिली-जुली पाई जाती हैं। इसी कारण टीकाकारों में इस बात पर मतभेद हो गया है कि यह मक्की है या मदनी, लेकिन हमारे नज़दीक इसके विषय और वर्णन-शैली का यह रंग इस कारण है कि इसका एक भाग मक्की काल के अन्त में और दूसरा भाग मदनी काल के आरंभ में उतरा है। इसलिए दोनों कालों की विशेषताएँ इसमें इकट्ठा हो गई हैं।

आरंभिक भाग का विषय और वर्णन-शैली स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यह मक्का में उतरा है और अधिक संभावना यह है कि मक्की ज़िन्दगी के अन्तिम चरण में हिजरत से कुछ पहले उतरा हो। यह भाग आयत 24 "व हुदू इलत्तय्यिबि मिनल कौलि व हुदू इला सिरातिल हमीद” अर्थात् "उनको पाक बात स्वीकार करने की हिदायत दी गई और उन्हें प्रशंसनीय गुणों से विभूषित ईश्वर का मार्ग दिखाया गया" पर समाप्त होता है।

इसके बाद “इन्नल्लज़ी-न क-फ़-रू व यसुद्दू-न अन सबील्लिाहि" अर्थात् “जिन लोगों ने कुफ़्र (इंकार) किया और जो (आज) अल्लाह के मार्ग से रोक रहे हैं" से यकायक विषय का रंग बदल जाता है और साफ़ महसूस होता है कि यहाँ से आख़िर तक का भाग मदीना तैयबा में उतरा है। असंभव नहीं कि यह हिजरत के बाद पहले ही साल ज़िल-हिज्जा में उतरा हो, क्योंकि आयत 25 से 41 तक का विषय इसी बात का पता देता है और आयत 39-40 के उतरने का कारण भी इसकी पुष्टि करता है। उस समय मुहाजिरीन अभी ताज़ा-ताज़ा ही अपने घर-बार छोड़कर मदीने में आए थे। हज के ज़माने में उनको अपना शहर और हज का इज्तिमाअ (सम्मेलन) याद आ रहा होगा और यह बात बुरी तरह खल रही होगी कि क़ुरैश के मुशरिकों ने उनपर मस्जिदे-हराम का रास्ता तक बन्द कर दिया है। उस समय वे इस बात का भी इन्तिज़ार कर रहे होंगे कि जिन ज़ालिमों ने उनको घरों से निकाला, मस्जिदे-हराम की ज़ियारत (दर्शन) से वंचित किया और अल्लाह का रास्ता अपनाने पर उनका जीना तक दूभर कर दिया, उनके विरुद्ध जंग लड़ने की अनुमति मिल जाए। यह ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर था इन आयतों के उतरने का। इनमें पहले तो हज का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि यह मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद अर्थात् काबा) इसलिए बनाई गई थी और यह हज का तरीक़ा इसलिए शुरू किया गया था कि दुनिया में एक अल्लाह की बन्दगी की जाए, मगर आज वहाँ शिर्क हो रहा है और एक अल्लाह की बन्दगी करनेवालों के लिए उसके रास्ते बन्द कर दिए गए हैं। इसके बाद मुसलमानों को अनुमति दे दी गई है कि वे इन ज़ालिमों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ें और उन्हें बे-दख़ल करके देश में वह कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित करें जिसमें बुराइयाँ दबें और नेकियाँ फैलें। इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, उर्वह-बिन-ज़ुबैर, ज़ैद-बिन-असलम, मुक़ातिल-बिन-हय्यान, क़तादा और दूसरे बड़े टीकाकारों का बयान है कि यह पहली आयत है जिसमें मुसलमानों को युद्ध की अनुमति दी गई और हदीस और सीरत की रिवायतों से प्रमाणित है कि इस अनुमति के बाद तुरन्त ही क़ुरैश के विरुद्ध व्यावहारिक गतिविधियाँ शुरू कर दी गईं और पहली मुहिम सफ़र 02 हि० में लाल सागर के तट की ओर रवाना हुई जो वद्दान की लड़ाई या अबवा की लड़ाई के नाम से मशहूर है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में तीन गिरोहों को संबोधित किया गया है-मक्का के मुशरिक, दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान और सच्चे ईमानवाले लोग। मुशरिकों से सम्बोधन मक्का के आरंभ में किया गया और मदीना में उसका क्रम पूर्ण हुआ। इस सम्बोधन में उनको पूरा बल देकर सचेत किया गया है कि तुमने ज़िद और हठधर्मी के साथ अपने निराधार अज्ञानतापूर्ण विचारों पर आग्रह किया, अल्लाह को छोड़कर उन उपास्यों पर भरोसा किया जिनके पास कोई शक्ति नहीं और अल्लाह के रसूल को झुठला दिया। अब तुम्हारा अंजाम वही कुछ होकर रहेगा जो तुमसे पहले इस नीति पर चलनेवालों का हो चुका है। नबी को झुठलाकर और अपनी क़ौम के सबसे अच्छे तत्त्वों को अत्याचार का निशाना बनाकर तुमने अपना ही कुछ बिगाड़ा है। इसके नतीजे में अल्लाह का जो प्रकोप तुमपर उतरेगा, उससे तुम्हारे बनावटी उपास्य तुम्हें न बचा सकेंगे। इस चेतावनी और डरावे के साथ समझाने-बुझाने का पहलू बिल्कुल खाली नहीं छोड़ दिया गया है। पूरी सूरा में जगह-जगह याददिहानी और उपदेश भी है और शिर्क के विरुद्ध और तौहीद और आखिरत के पक्ष में प्रभावी तर्क भी प्रस्तुत किए गए है। दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान, जो अल्लाह की बन्दगी तो क़ुबूल कर चुके थे मगर इस राह में कोई ख़तरा उठाने को तैयार नहीं थे, उनको सम्बोधित करते हुए कड़ी डाँट-फटकार की गई है। उनसे कहा गया कि यह आखिर कैसा ईमान है कि राहत, ख़ुशी, ऐश मिले तो अल्लाह तुम्हारा प्रभु और तुम उसके बन्दे, मगर जहाँ अल्लाह की राह में विपदा आई और कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ीं, फिर न अल्लाह तुम्हारा प्रभु रहा और न तुम उसके बन्दे रहे, हालाँकि तुम अपनी इस नीति से किसी ऐसी विपत्ति और हानि और कष्ट को नहीं टाल सकते जो अल्लाह ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया हो। ईमानवालों से सम्बोधन दो तरीक़ों से किया गया है। एक सम्बोधन ऐसा है जिसमें वे स्वयं भी सम्बोधित हैं और अरब के आम लोग भी, दूसरे सम्बोधन में ईमानवाले सम्बोधित हैं।

पहले सम्बोधन में मक्का के मुशरिकों की इस नीति पर पकड़ की गई है कि उन्होंने मुसलमानों के लिए मस्जिदे-हराम (अर्थात काबा) का रास्ता बन्द कर दिया है, हालाँकि मस्जिदे-हराम (अर्थात् काबा) उनकी निजी सम्पत्ति नहीं है और वे किसी को हज से रोकने का अधिकार नहीं रखते। यह आपत्ति न केवल यह कि अपने आपमें सही थी, बल्कि राजनैतिक दृष्टि से यह क़ुरैश के विरुद्ध एक बहुत बड़ा हथियार भी था। इससे अरब के तमाम दूसरे क़बीलों के मन में यह प्रश्न पैदा कर दिया गया कि कुरैश हरम के मुजाविर हैं या मालिक? अगर आज अपनी निजी दुश्मनी के आधार पर वे गिरोह को हज से रोक देते और उसको सहन कर लिया जाता है, तो असंभव नहीं कि कल जिससे भी उनके सम्बन्ध बिगड़ें, उसको वे हरम की सीमाओं में प्रवेश करने से रोक दें और उसका उमरा और हज बन्द कर दें। इस सिलसिले में मस्जिदे-हराम का इतिहास बताते हुए एक ओर यह कहा गया है कि इबाहीम (अलैहि०) ने जब अल्लाह के आदेश से उसका निर्माण किया था तो सब लोगों का हज के लिए आम आह्वान किया था और वहाँ पहले दिन से स्थानीय निवासियों और बाहर से आनेवालों के अधिकार समान मान लिए गए थे। दूसरी ओर यह बताया गया कि यह घर शिर्क के लिए नहीं, बल्कि एक अल्लाह की बन्दगी के लिए बनाया गया था। अब यह क्या ग़ज़ब है कि वहाँ एक खुदा की बन्दगी पर तो रोक हो और बुतों की पूजा के लिए हो पूरी आज़ादी।

दूसरे सम्बोधन में मुसलमानों को कुरैश के ज़ुल्म का उत्तर ताक़त से देने की अनुमति दी गई है और साथ-साथ उनको यह भी बताया गया है कि जब तुम्हें सत्ता मिले तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए और अपने राज्य में तुमको किस उद्देश्य के लिए काम करना चाहिए। यह विषय सूरा के मध्य में भी है और अन्त में भी। अन्त में ईमानवालों के गिरोह के लिए "मुस्लिम” (आज्ञाकारी) के नाम विधिवत घोषणा करते हुए यह कहा गया है कि इब्राहीम के वास्तविक उत्तराधिकारी तो तुम लोग हो, तुम्हें इस सेवा के लिए चुन लिया गया है कि दुनिया में लोगों के सम्मुख सत्य की गवाही देने के पथ पर खड़े हो जाओ। अब तुम्हें नमाज़ क़ायम करके, ज़कात और ख़ैरात अदा करके अपने जीवन को श्रेष्ठ आदर्श जीवन बनाना चाहिए और अल्लाह के भरोसे पर अल्लाह के कलिमे को उच्च रखने के लिए 'जिहाद' करना चाहिए।

इस अवसर पर सूरा 2 (अल-बक़रा) और सूरा 8 (अल-अनफ़ाल) की भूमिकाओं पर भी दृष्टि डाल ली जाए तो समझने में अधिक आसानी होगी।

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وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَعۡبُدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ حَرۡفٖۖ فَإِنۡ أَصَابَهُۥ خَيۡرٌ ٱطۡمَأَنَّ بِهِۦۖ وَإِنۡ أَصَابَتۡهُ فِتۡنَةٌ ٱنقَلَبَ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ خَسِرَ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 1
(11) और लोगों में कोई ऐसा है जो किनारे पर रहकर अल्लाह की बन्दगी करता है।1 अगर फ़ायदा हुआ तो मुत्मइन हो गया और जो कोई मुसीबत आ गई तो उलटा फिर गया। उसकी दुनिया भी गई और आख़िरत भी। यह है सरीह ख़सारा।
1. यानी कुफ़्र और इस्लाम की सरहद पर खड़ा होकर बन्दगी करता है जैसे एक मुज़बज़ब आदमी किसी फ़ौज के किनारे पर खड़ा हो, अगर फ़तह होती देखे तो साथ आ मिले और शिकस्त होती देखे तो चुपके से सटक जाए।
يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُۥ وَمَا لَا يَنفَعُهُۥۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلضَّلَٰلُ ٱلۡبَعِيدُ ۝ 2
(12) — फिर वह अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारता है जो न उसको नुक़सान पहुँचा सकते हैं, न फ़ायदा। यह है गुमराही की इन्तिहा।
سُورَةُ الحَجِّ
22. अल-हज
يَدۡعُواْ لَمَن ضَرُّهُۥٓ أَقۡرَبُ مِن نَّفۡعِهِۦۚ لَبِئۡسَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَلَبِئۡسَ ٱلۡعَشِيرُ ۝ 3
(13) वह उनको पुकारता है जिनका नुक़सान उनके नफ़े से क़रीबतर है, बदतरीन है उसका मौला और बदतरीन है उसका रफ़ीक़!
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ ۝ 4
(14) (इसके बरअक्स) अल्लाह उन लोगों को, जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए, यक़ीनन ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمۡۚ إِنَّ زَلۡزَلَةَ ٱلسَّاعَةِ شَيۡءٌ عَظِيمٞ
(1) लोगो! अपने रब के ग़ज़ब से बचो, हक़ीक़त यह है कि क़ियामत का ज़लज़ला बड़ी (हौलनाक) चीज़ है।
مَن كَانَ يَظُنُّ أَن لَّن يَنصُرَهُ ٱللَّهُ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ فَلۡيَمۡدُدۡ بِسَبَبٍ إِلَى ٱلسَّمَآءِ ثُمَّ لۡيَقۡطَعۡ فَلۡيَنظُرۡ هَلۡ يُذۡهِبَنَّ كَيۡدُهُۥ مَا يَغِيظُ ۝ 5
(15) जो शख़्स यह गुमान रखता हो कि अल्लाह दुनिया और आख़िरत में उसकी कोई मदद न करेगा, उसे चाहिए कि एक रस्सी के ज़रिए आसमान तक पहुँचकर शिगाफ़ लगाए, फिर देख ले कि आया उसकी तदबीर किसी ऐसी चीज़ को रद्द कर सकती है जो उसको नागवार है।
يَوۡمَ تَرَوۡنَهَا تَذۡهَلُ كُلُّ مُرۡضِعَةٍ عَمَّآ أَرۡضَعَتۡ وَتَضَعُ كُلُّ ذَاتِ حَمۡلٍ حَمۡلَهَا وَتَرَى ٱلنَّاسَ سُكَٰرَىٰ وَمَا هُم بِسُكَٰرَىٰ وَلَٰكِنَّ عَذَابَ ٱللَّهِ شَدِيدٞ ۝ 6
(2) जिस रोज़ तुम उसे देखोगे, हाल यह होगा कि हर दूध पिलानेवाली अपने दूध-पीते बच्चे से ग़ाफ़िल हो जाएगी, हर हामिला का हम्ल गिर जाएगा और लोग तुमको मदहोश नज़र आएँगे, हालाँकि वे नशे में न होंगे, बल्कि अल्लाह का अज़ाब ही कुछ ऐसा सख़्त होगा।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ وَأَنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يُرِيدُ ۝ 7
(16) ऐसी ही खुली-खुली बातों के साथ हमने इस क़ुरआन को नाज़िल किया है, और हिदायत अल्लाह जिसे चाहता है देता है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَيَتَّبِعُ كُلَّ شَيۡطَٰنٖ مَّرِيدٖ ۝ 8
(3) बाज़ लोग ऐसे हैं जो इल्म के बग़ैर अल्लाह के बारे में बहसें करते है। और हर शैताने-सरकश की पैरवी करने लगते हैं,
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلۡمَجُوسَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 9
(17) जो लोग ईमान लाए, और जो यहूदी हुए, और साबिई और नसारा और मजूस और जिन लोगों ने शिर्क किया, उन सबके दरमियान अल्लाह क़ियामत के रोज़ फ़ैसला कर देगा, हर चीज़ अल्लाह की नज़र में है।
كُتِبَ عَلَيۡهِ أَنَّهُۥ مَن تَوَلَّاهُ فَأَنَّهُۥ يُضِلُّهُۥ وَيَهۡدِيهِ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 10
(4) हालाँकि उसके तो नसीब ही में यह लिखा है कि जो उसको दोस्त बनाएगा उसे वह गुमराह करके छोड़ेगा और अज़ाबे-जहन्नम का रास्ता दिखाएगा।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يَسۡجُدُۤ لَهُۥۤ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ وَٱلنُّجُومُ وَٱلۡجِبَالُ وَٱلشَّجَرُ وَٱلدَّوَآبُّ وَكَثِيرٞ مِّنَ ٱلنَّاسِۖ وَكَثِيرٌ حَقَّ عَلَيۡهِ ٱلۡعَذَابُۗ وَمَن يُهِنِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن مُّكۡرِمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ۩ ۝ 11
(18) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सर-ब-सुजूद हैं वे सब जो आसमानों में हैं और जो ज़मीन में हैं, सूरज और चाँद और तारे और पहाड़ और दरख़्त और जानवर और बहुत-से इनसान और बहुत-से वे लोग भी जो अज़ाब के मुस्तहिक़ हो चुके है। और जिसे अल्लाह ज़लील व ख़ार कर दे उसे फिर कोई इज़्ज़त देने वाला नहीं है, अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّنَ ٱلۡبَعۡثِ فَإِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ مِن مُّضۡغَةٖ مُّخَلَّقَةٖ وَغَيۡرِ مُخَلَّقَةٖ لِّنُبَيِّنَ لَكُمۡۚ وَنُقِرُّ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ مَا نَشَآءُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ نُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡۖ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡلَا يَعۡلَمَ مِنۢ بَعۡدِ عِلۡمٖ شَيۡـٔٗاۚ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ هَامِدَةٗ فَإِذَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهَا ٱلۡمَآءَ ٱهۡتَزَّتۡ وَرَبَتۡ وَأَنۢبَتَتۡ مِن كُلِّ زَوۡجِۭ بَهِيجٖ ۝ 12
(5) लोगो! अगर तुम्हें जिन्दगी बादे-मौत के बारे में कुछ शक है तो तुम्हें मालूम हो कि हमने तुमको मिट्टी से पैदा किया है, फिर नुत्फ़े से, फिर ख़ून के लोथड़े से, फिर गोश्त की बोटी से जो शक्लवाली भी होती है और बेशक्ल भी। (यह हम इसलिए बता रहे हैं) ताकि तुमपर हक़ीक़त वाज़ेह करें। हम जिस (नुत्फ़े) को चाहते हैं वक़्ते-ख़ास तक रहिमों में ठहराए रखते हैं, फिर तुमको एक बच्चे की सूरत में निकाल लाते हैं, (फिर तुम्हारी परवरिश करते हैं) ताकि तुम अपनी जवानी को पहुँचो। और तुममें से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है और कोई बदतरीन उम्र की तरफ़ फेर दिया जाता है ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने। और तुम देखते हो कि ज़मीन सूखी पड़ी है, फिर जहाँ हमने उसपर मेंह बरसाया कि यकायक वह फबक उठी और फूल गई और उसने हर क़िस्म की ख़ुशमंज़र नबातात उगलनी शुरू कर दीं।
لِّيَشۡهَدُواْ مَنَٰفِعَ لَهُمۡ وَيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡلُومَٰتٍ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۖ فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡبَآئِسَ ٱلۡفَقِيرَ ۝ 13
(28) ताकि वे फ़ायदे देखें जो यहाँ उनके लिए रखे गए हैं, और चंद मुक़र्रर दिनों में उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो इसने उन्हें बख़्शे हैं, ख़ुद भी खाएँ और तगदस्त मुहताज को भी दें,
۞هَٰذَانِ خَصۡمَانِ ٱخۡتَصَمُواْ فِي رَبِّهِمۡۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ قُطِّعَتۡ لَهُمۡ ثِيَابٞ مِّن نَّارٖ يُصَبُّ مِن فَوۡقِ رُءُوسِهِمُ ٱلۡحَمِيمُ ۝ 14
(19) ये दो फ़रीक़ हैं जिनके दरमियान अपने रब के बारे में झगड़ा है।2 इनमें से वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया उनके लिए आग के लिबास काटे जा चुके है, उनके सरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा
2. यहाँ ख़ुदा के बारे में झगड़ा करनेवाले तमाम गरोहों को उनकी कसरत के बावजूद दो फ़रीक़ों में तक़सीम कर दिया गया है। एक फ़रीक़ वह जो अम्बिया की बात मानकर ख़ुदा की सही बन्दगी इख़्तियार करता है। दूसरा वह जो उनकी बात नहीं मानता और कुफ़्र की राह इख़्तियार करता है, ख़ाह उसके अन्दर आपस में कितने ही इख़्तिलाफात हों और उसके कुफ़्र ने कितनी ही मुख़्तलिफ़ सूरतें इख़्तियार कर ली हों।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّهُۥ يُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَأَنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 15
(6) यह सब कुछ इस वजह से है कि अल्लाह ही हक़ है, और वह मुर्दों को ज़िन्दा करता है, और वह हर चीज़ पर क़ादिर है,
ثُمَّ لۡيَقۡضُواْ تَفَثَهُمۡ وَلۡيُوفُواْ نُذُورَهُمۡ وَلۡيَطَّوَّفُواْ بِٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ ۝ 16
(29) फिर मैल-कुचैल दूर करें और अपनी नज़रें पूरी करें और इस क़दीम घर का अपना तवाफ़ करें।
يُصۡهَرُ بِهِۦ مَا فِي بُطُونِهِمۡ وَٱلۡجُلُودُ ۝ 17
(20) जिससे उनकी खालें ही नहीं, पेट के अन्दर के हिस्से तक गल जाएँगे,
وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٞ لَّا رَيۡبَ فِيهَا وَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡعَثُ مَن فِي ٱلۡقُبُورِ ۝ 18
(7) और यह (इस बात की दलील है) कि क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं, और अल्लाह ज़रूर उन लोगों को उठाएगा जो क़ब्रों में जा चुके हैं।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ حُرُمَٰتِ ٱللَّهِ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥ عِندَ رَبِّهِۦۗ وَأُحِلَّتۡ لَكُمُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡۖ فَٱجۡتَنِبُواْ ٱلرِّجۡسَ مِنَ ٱلۡأَوۡثَٰنِ وَٱجۡتَنِبُواْ قَوۡلَ ٱلزُّورِ ۝ 19
(30) यह था (तामीरे-काबा का मक़सद) और जो कोई अल्लाह की हुर्मतों का एहतिराम करे तो यह उसके रब के नज़दीक ख़ुद उसी के लिए बेहतर है। और तुम्हारे लिए मवेशी जानवर हलाल किए गए4, मासिवा उन चीज़ों के जो तुम्हें बताई जा चुकी हैं। पस बुतों की गन्दगी से बचो, झूठी बातों से परहेज़ करो,
4. इस मौक़े पर मवेशी जानवरों की हिल्लत का ज़िक्र करने से मक़सूद दो ग़लतफ़हमियों को रफ़अ करना है। अव्वल यह कि क़ुरैश और मुशरिकीने-अरब 'बहीरा' और 'साइबा' और 'वसीला' और 'हाम' को भी अल्लाह की क़ायम की हुई हुर्मतों में शुमार करते थे। इसलिए फ़रमाया गया कि यह उसकी क़ायम करदा हुमतें नहीं हैं, बल्कि उसने तमाम मवेशी जानवर हलाल किए हैं। दोम यह कि हालते-इहराम में जिस तरह शिकार हराम हैं उसी तरह कहीं यह न समझ लिया जाए कि इस हालत में मवेशी जानवरों को ज़ब्ह करना और उनको खाना भी हराम है। इसलिए बताया गया है कि यह अल्लाह की क़ायम की हुई हुर्मतों में से नहीं है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَلَا هُدٗى وَلَا كِتَٰبٖ مُّنِيرٖ ۝ 20
(8) बाज़ और लोग ऐसे हैं जो किसी इल्म और हिदायत और रौशनी बख़्शनेवाली किताब के बग़ैर, गर्दन अकड़ाए हुए, ख़ुदा के बारे में झगड़ते हैं
وَلَهُم مَّقَٰمِعُ مِنۡ حَدِيدٖ ۝ 21
(21) और उसकी ख़बर लेने के लिए लोहे के गुर्ज़ होंगे।
كُلَّمَآ أَرَادُوٓاْ أَن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا مِنۡ غَمٍّ أُعِيدُواْ فِيهَا وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 22
(22) जब कभी वे घबराकर जहन्नम से निकलने की कोशिश करेंगे फिर उसी में धकेल दिए जाएँगे कि चखो अब जलने की सज़ा का मज़ा।
ثَانِيَ عِطۡفِهِۦ لِيُضِلَّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۖ لَهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَنُذِيقُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 23
(9) ताकि लोगों को राहे-ख़ुदा से भटका दें। ऐसे शख़्स के लिए दुनिया में रुसवाई है और क़ियामत के रोज़ उसको हम आग के अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
حُنَفَآءَ لِلَّهِ غَيۡرَ مُشۡرِكِينَ بِهِۦۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَكَأَنَّمَا خَرَّ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَتَخۡطَفُهُ ٱلطَّيۡرُ أَوۡ تَهۡوِي بِهِ ٱلرِّيحُ فِي مَكَانٖ سَحِيقٖ ۝ 24
(31) यकसू होकर अल्लाह के बन्दे बनो, उसके साथ किसी को शरीक न करो। और जो कोई अल्लाह के साथ शिर्क करे तो गोया आसमान से गिर गया, अब या तो उसे परिन्दे उचक ले जाएँगे या हवा उसको ऐसी जगह ले जाकर फेंक देगी जहाँ उसके चीथड़े उड़ जाएँगे।5
5. इस तमसील में आसमान से मुराद इनसान की फ़ितरी हालत है जिसमें वह एक ख़ुदा के सिवा किसी का बन्दा नहीं होता और तौहीद के सिवा उसकी फ़ितरत किसी और मज़हब को नहीं जानती। अगर इनसान अम्बिया की दी हुई रहनुमाई क़ुबूल कर ले तो वह उसी फ़ितरी हालत पर इल्म और बसीरत के साथ क़ायम हो जाता है, और आगे उसकी परवाज़ मज़ीद बलंदियों ही की तरफ़ होती है न कि पस्तियों की तरफ़। लेकिन शिर्क (और सिर्फ़ शिर्क ही नहीं बल्कि दहरियत और इल्हाद भी) इख़्तियार करते ही वह अपनी फ़ितरत के आसमान से यकायक गिर पड़ता है और फिर उसको दो सूरतों में से कोई एक सूरत लाज़िमन पेश आती है। एक यह कि शयातीन और गुमराह करनेवाले इनसान उसकी तरफ़ झपटते हैं और हर एक उसे उचक ले जाने की कोशिश करता है। दूसरे यह कि उसकी अपनी ख़ाहिशाते-नफ़्स और उसके अपने जज़बात और तख़य्युलात उसे उड़ाए-उड़ाए लिए फिरते हैं और आख़िरकार उसको किसी गहरे खड्ड में ले जाकर फेंक देते हैं।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَلُؤۡلُؤٗاۖ وَلِبَاسُهُمۡ فِيهَا حَرِيرٞ ۝ 25
(23) (दूसरी तरफ़) जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए उनको अल्लाह ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। वहाँ वे सोने के कंगनों और मोतियों से आरास्ता किए जाएँगे और उनके लिबास रेशम के होंगे।
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ يَدَاكَ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 26
(10) — यह है तेरा वह मुस्तक़बिल जो तेरे अपने हाथों ने तेरे लिए तैयार किया है, वरना अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं है।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ فَإِنَّهَا مِن تَقۡوَى ٱلۡقُلُوبِ ۝ 27
(32) यह है अस्ल मामला (इसे समझ लो), और जो अल्लाह के मुक़र्रर-करदा शआइर का एहतिराम करे तो यह दिलों के तकवा से है।6
6. यानी यह एहतिराम दिल के तक़वा का नतीजा है और इस बात की अलामत है कि आदमी के दिल में कुछ-न-कुछ ख़ुदा का खौफ़ है, जभी तो वह उसके शआइर का एहतिराम कर रहा है।
وَهُدُوٓاْ إِلَى ٱلطَّيِّبِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَهُدُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡحَمِيدِ ۝ 28
(24) उनको पाकीज़ा बात क़ुबूल करने की हिदायत बख़्शी गई और उन्हें ख़ुदाए-सतूदा सिफ़ात का रास्ता दिखाया गया।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ ٱلَّذِي جَعَلۡنَٰهُ لِلنَّاسِ سَوَآءً ٱلۡعَٰكِفُ فِيهِ وَٱلۡبَادِۚ وَمَن يُرِدۡ فِيهِ بِإِلۡحَادِۭ بِظُلۡمٖ نُّذِقۡهُ مِنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 29
(25) जिन लोगों ने कुफ़्र किया और जो (आज) अल्लाह के रास्ते से रोक रहे हैं और उस मस्जिदे-हराम की ज़ियारत में मानेअ हैं जिसे हमने सब लोगों के लिए बनाया है,3 जिसमें मक़ामी बाशिन्दों और बाहर से आनेवालों के हुकूक़ बराबर हैं (उनकी रविश यक़ीनन सज़ा की मुस्तहिक़ है)। इस (मस्जिदे-हराम) में जो भी रास्ती से हटकर ज़ुल्म का तरीक़ा इख़्तियार करेगा उसे हम दर्दनाक अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
3. यानी मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के पैरुओं को हज और उमरा नहीं करने देते।
لَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ مَحِلُّهَآ إِلَى ٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ ۝ 30
(33) तुम्हें एक वक़्ते-मुक़र्रर तक उन (हदी के जानवरों) से फ़ायदा उठाने का हक़ है,7 फिर उन (के क़ुरबान करने) की जगह इसी क़दीम घर के पास है।
7. पहली आयत में शआइरुल्लाह के एहतिराम का आम हुक्म देने के बाद यह फ़िक़रा एक ग़लतफ़हमी को रफ़अ करने के लिए इरशाद फ़रमाया गया है। शआइरुल्लाह में हदी के जानवर भी दाख़िल हैं। अहले-अरब यह समझते थे कि इन जानवरों को बैतुल्लाह की तरफ़ ले जाते हुए उनपर सवार न होना चाहिए, न उनपर सामान लादना चाहिए और न उनका दूध पीना चाहिए। इसी ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए फ़रमाया गया कि उनसे जो काम लेने की ज़रूरत पेश आए वह लिया जा सकता है।
وَإِذۡ بَوَّأۡنَا لِإِبۡرَٰهِيمَ مَكَانَ ٱلۡبَيۡتِ أَن لَّا تُشۡرِكۡ بِي شَيۡـٔٗا وَطَهِّرۡ بَيۡتِيَ لِلطَّآئِفِينَ وَٱلۡقَآئِمِينَ وَٱلرُّكَّعِ ٱلسُّجُودِ ۝ 31
(26) याद करो, वह वक़्त जबकि हमने इबराहीम के लिए इस घर (ख़ाना-ए-काबा) की जगह तजवीज़ की थी (इस हिदायत के साथ) कि मेरे साथ किसी चीज़ को शरीक न करो, और मेरे घर को तवाफ़ करनेवालों और क़ियाम व रुकूअ और सुजूद करनेवालों के लिए पाक रखो,
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكٗا لِّيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۗ فَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَلَهُۥٓ أَسۡلِمُواْۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُخۡبِتِينَ ۝ 32
(34) हर उम्मत के लिए हमने क़ुरबानी का एक क़ायदा मुक़र्रर कर दिया है ताकि (उस उम्मत के) लोग उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उनको बख़्शे हैं।8 (इन मुख़्तलिफ़ तरीक़ों के अन्दर मक़सद एक ही है) पस तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है और उसी के तुम मुतीए-फ़रमान बनो। और (ऐ नबी) बशारत दे दो आजिज़ाना रविश इख़्तियार करनेवालों को,
8. इस आयत से दो बातें मालूम हुईं। एक यह कि क़ुरबानी तमाम शराए-इलाहिया के निज़ामे-इबादत का एक लाज़िमी जुज़ रही है। दूसरी यह कि अस्ल चीज़ अल्लाह के नाम पर क़ुरबानी है जो सब शरीअतों में यकसाँ है, बाक़ी रहा उसका वक़्त और मौक़ा और दूसरी तफ़सीलात तो इनके अन्दर मुख़्तलिफ़ ज़मानों की शरीअतों के अहकाम मुख़्तलिफ़ रहे हैं।
لَن يَنَالَ ٱللَّهَ لُحُومُهَا وَلَا دِمَآؤُهَا وَلَٰكِن يَنَالُهُ ٱلتَّقۡوَىٰ مِنكُمۡۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرَهَا لَكُمۡ لِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 33
(37) न उनके गोश्त अल्लाह को पहँचते है न ख़ून, मगर उसे तुम्हारा तकवा पहुँचता है। उसने उनको तुम्हारे लिए इस तरह मुसख़्ख़र किया है ताकि उसकी बख़्शी हुई हिदायत पर तुम उसकी तकबीर करो।11 और (ऐ नबी!) बशारत दे दो नेकूकार लोगों को।
11. यानी दिल से उसकी बड़ाई और बरतरी मानो और अमल से उसका एलान व इज़हार करो। यह फिर हुक्मे-क़ुरबानी की ग़रज़ और इल्लत की तरफ़ इशारा है। क़ुरबानी सिर्फ़ इसी लिए वाजिब नहीं की गई है कि यह तसख़ीरे-हैवानात की नेमत पर अल्लाह का शुक्रिया है, बल्कि इसलिए भी वाजिब की गई है कि जिसके ये जानवर हैं, और जिसने इन्हें हमारे लिए मुसख़्ख़र किया है उसके हक़्क़े-मालिकाना का हम दिल से भी और अमलन भी एतिराफ़ करें, ताकि हमें कभी यह भूल लाहिक़ न हो जाए कि ये सब कुछ हमारा माल है।
وَأَذِّن فِي ٱلنَّاسِ بِٱلۡحَجِّ يَأۡتُوكَ رِجَالٗا وَعَلَىٰ كُلِّ ضَامِرٖ يَأۡتِينَ مِن كُلِّ فَجٍّ عَمِيقٖ ۝ 34
(27) और लोगों को हज के लिए इज़्ने-आम दे दो कि वे तुम्हारे पास हर दूर-दराज़ मक़ाम से पैदल और ऊँटों पर सवार आएँ,
ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ عَلَىٰ مَآ أَصَابَهُمۡ وَٱلۡمُقِيمِي ٱلصَّلَوٰةِ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 35
(35) जिनका हाल यह है कि अल्लाह का ज़िक्र सुनते हैं तो उनके दिल काँप उठते हैं, जो मुसीबत भी उनपर आती है उसपर सब्र करते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, और जो कुछ रिज़्क़ हमने उनको दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يُدَٰفِعُ عَنِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ كُلَّ خَوَّانٖ كَفُورٍ ۝ 36
(38) यक़ीनन अल्लाह मुदाफ़अत करता है उन लोगों की तरफ़ से जो ईमान लाए हैं। यक़ीनन अल्लाह किसी ख़ाइन काफ़िरे-नेमत को पसन्द नहीं करता।
وَٱلۡبُدۡنَ جَعَلۡنَٰهَا لَكُم مِّن شَعَٰٓئِرِ ٱللَّهِ لَكُمۡ فِيهَا خَيۡرٞۖ فَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا صَوَآفَّۖ فَإِذَا وَجَبَتۡ جُنُوبُهَا فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡقَانِعَ وَٱلۡمُعۡتَرَّۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرۡنَٰهَا لَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 37
(36) और (क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए शआइरुल्लाह में शामिल किया है, तुम्हारे लिए उनमें भलाई है, पस उन्हें खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो,9 और जब (क़ुरबानी के बाद) उनकी पीठें ज़मीन पर टिक जाएँ10 तो उनमें से ख़ुद भी खाओ और उनको भी खिलाओ जो क़नाअत किए बैठे हैं, और उनको भी जो अपनी हाजत पेश करें। इन जानवर को हमने इस तरह तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र किया है ताकि तुम शुक्रिया अदा करो।
9. उनपर अल्लाह का नाम लेने से मुराद है उनको ज़ब्ह करते हुए अल्लाह का नाम लेना। ऊँट को पहले खड़ा करके उसके हल्क़ूम में नेज़ा मारा जाता है। इसको नहर करना कहते हैं।
10. पीठ के ज़मीन पर टिकने का मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि वे ज़मीन पर गिर जाएँ, बल्कि यह भी है कि वे गिरकर ठहर जाएँ, यानी तड़पना बन्द कर दें और जान पूरी तरह निकल जाए।
أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَٰتَلُونَ بِأَنَّهُمۡ ظُلِمُواْۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ نَصۡرِهِمۡ لَقَدِيرٌ ۝ 38
(39) इजाज़त दे दी गई उन लोगों को जिनके ख़िलाफ़ जंग की जा रही है, क्योंकि व मज़लूम हैं,12 और अल्लाह यक़ीनन उनकी मदद पर क़ादिर है।
12. यह ईश्वरीय मार्ग में युद्ध करने के सम्बन्ध में पहली आयत है जो उतरी है। इस आयत में सिर्फ़ अनुमति दी गई थी। आगे चलकर सूरा 2 (बक़रा) की आयात 190 से लेकर 193 तक और 216 और 224 उतरीं, जिनमें युद्ध का आदेश दिया गया। इन आदेशों में सिर्फ़ कुछ ही महीनों का अन्तर है। अनुमति हमारी खोज के अनुसार ज़िलहिज्जा सन् 1 हिजरी में उतरी और आदेश बद्र की लड़ाई से कुछ पहले रजब या शाबान सन् 212. यह क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह के बारे में अव्वलीन आयत है जो नाज़िल हुई। इस आयत में सिर्फ़ इजाज़त दी गई थी। बाद में सूरा-2 बक़रा की आयात-190 से 193 और 216 और 224 नाज़िल हुई जिनमें जंग का हुक्म दिया गया। इन अहकाम में सिर्फ़ चंद महीनों का फ़स्ल है। इजाज़त, हमारी तहक़ीक़ के मुताबिक़, ज़िल-हिज्जा 1 हिजरी में नाज़िल हुई और हुक्म जंगे-बद्र से कुछ पहले रजब या शाबान 2 हिजरी में नाज़िल हुआ। हिजरी में उतरा।
ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بِغَيۡرِ حَقٍّ إِلَّآ أَن يَقُولُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّهُدِّمَتۡ صَوَٰمِعُ وَبِيَعٞ وَصَلَوَٰتٞ وَمَسَٰجِدُ يُذۡكَرُ فِيهَا ٱسۡمُ ٱللَّهِ كَثِيرٗاۗ وَلَيَنصُرَنَّ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ ۝ 39
(40) ये वे लोग है जो अपने घरों से नाहक़ निकाल दिए गए सिर्फ़ इस क़ुसूर पर कि वे कहते थे, “हमारा रब अल्लाह है।” अगर अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के ज़रिए दफ़ा न करता रहे तो ख़ानक़ाहें और गिरजा और मअबद और मस्जिदें, जिनमें अल्लाह का कसरत से नाम लिया जाता है, सब मिसमार कर डाली जाएँ। अल्लाह ज़रूर उन लोगों की मदद करेगा जो उसकी मदद करेंगे।13 अल्लाह बड़ा ताक़तवर और ज़बरदस्त है।
13. यह मज़मून क़ुरआन मजीद में मुतअद्दिद मक़ामात पर बयान हुआ है कि जो लोग ख़ल्क़े-ख़ुदा को तौहीद की तरफ़ बुलाने और दीने-हक़ को क़ायम करने और शर की जगह ख़ैर को फ़रोग़ देने की सई व जुह्द करते हैं वे अल्लाह के मददगार हैं, क्योंकि वह अल्लाह का काम है जिसे अंजाम देने में वे उसका साथ देते हैं।
وَٱلَّذِينَ سَعَوۡاْ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 40
(51) और जो हमारी आयात को नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे वे दोज़ख़ के यार हैं।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٖ وَلَا نَبِيٍّ إِلَّآ إِذَا تَمَنَّىٰٓ أَلۡقَى ٱلشَّيۡطَٰنُ فِيٓ أُمۡنِيَّتِهِۦ فَيَنسَخُ ٱللَّهُ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ ثُمَّ يُحۡكِمُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 41
(52) और (ऐ नबी!) तुमसे पहले हमने न कोई रसूल ऐसा भेजा है न नबी (जिसके साथ यह मामला न पेश आया हो कि) जब उसने तमन्ना की, शैतान उसकी तमन्ना में ख़ललअंदाज़ हो गया। इस तरह जो कुछ भी शैतान ख़ललअंदाज़ियाँ करता है, अल्लाह उनको मिटा देता है और अपनी आयात को पुख़्ता कर देता है, अल्लाह अलीम है और हकीम।
ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ وَلِلَّهِ عَٰقِبَةُ ٱلۡأُمُورِ ۝ 42
(41) ये वे लोग हैं जिन्हें अगर हम ज़मीन में इक़तिदार बख़्शें तो वे नमाज़ क़याम करेंगे, ज़कात देंगे, नेकी का हुक्म देंगे और बुराई से मना करेंगे। और तमाम मामलात का अंजामे-कार अल्लाह के हाथ में है।
لِّيَجۡعَلَ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡقَاسِيَةِ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَفِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 43
(53) (वह इसलिए ऐसा होने देता है) ताकि शैतान की डाली हुई ख़राबी को फ़ितना बना दे उन लोगों के लिए जिनके दिलों को (निफ़ाक़ का) रोग लगा हुआ है और जिनके दिल खोटे हैं — हक़ीक़त यह है कि ये ज़ालिम लोग इनाद में बहुत दूर निकल गए हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَحۡيَاكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَكَفُورٞ ۝ 44
(66) वही है जिसने तुम्हें ज़िन्दगी बख़्शी है, वही तुमको मौत देता है और वही फिर तुमको ज़िन्दा करेगा। सच यह है कि इनसान बड़ा मुनकिरे हक़ है।17
17. यानी ये सब कुछ देखते हुए भी उस हक़ीक़त का इनकार किए जाता है जिसे अम्बिया (अलैहि०) ने पेश किया है।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَعَادٞ وَثَمُودُ ۝ 45
(42) (ऐ नबी!) अगर वे (यानी कुफ़्फ़ार) तुम्हें झुठलाते हैं तो उनसे पहल क़ौमे-नूह और आद और समूद
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَيُؤۡمِنُواْ بِهِۦ فَتُخۡبِتَ لَهُۥ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهَادِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 46
(54) — और इल्म से बहरामन्द लोग जान लें कि यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से और वे इसपर ईमान ले आएँ और उनके दिल उसके आगे झुक जाएँ, यक़ीनन अल्लाह ईमान लानेवालों को हमेशा सीधा रास्ता दिखा देता है।15
15. मतलब यह है कि शैतान की इन फ़ितनापरदाज़ियों को अल्लाह ने लोगों की आज़माइश और खरे को खोटे से जुदा करने का एक ज़रीआ बना दिया है। बिगड़ी हुई ज़ेहनियत के लोग इन्हीं चीज़ों से ग़लत नतीजे अख़्ज़ करते हैं और ये उनके लिए गुमराही का ज़रीआ बन जाती हैं। साफ़ ज़ेहन के लोगों को यही बातें नबी और किताबुल्लाह के बरहक़ होने का यक़ीन दिलाती हैं और वे महसूस कर लेते है कि ये सब शैतान की शरारतें हैं और यह चीज़ उन्हें मुत्मइन कर देती है कि यह दावत यक़ीनन ख़ैर और रास्ती की दावत है, वरना शैतान इसपर इस क़दर न तिलमिलाता। नबी (सल्ल०) की दावत उस वक़्त जिस मरहले में थी उसको देखकर तमाम ज़ाहिरबीं निगाहें यह धोखा खा रही थीं कि आप (सल्ल०) अपने मक़सद में नाकाम हो गए हैं। देखनेवाले जो कुछ देख रहे थे वह तो यही था कि एक शख़्स, जिसकी तमन्ना और आरज़ू यह थी कि उसकी क़ौम उसपर ईमान लाए, उसे आख़िरकार हिजरत करनी पड़ी और मक्का के कुफ़्फ़ार कामयाब रहे। इस सूरते-हाल में जब लोग आपके इस बयान को देखते थे कि मैं अल्लाह का नबी हूँ और उसकी ताईद मेरे साथ है और क़ुरआन के इन एलानात को देखते थे कि नबी को झुठला देनेवाली क़ौम पर अज़ाब आ जाता है तो उन्हें आप (सल्ल०) की और क़ुरआन की सदाक़त मुश्तबह नज़र आने लगती थी और आप (सल्ल०) के मुख़ालिफ़ीन इसपर बढ़-बढ़कर बातें बनाते थे कि कहाँ गई वह ख़ुदा की ताईद, और क्या हुईं वे अज़ाब की वईदें, अब क्यों नहीं आ जाता वह अज़ाब जिसके हमको डरावे दिए जाते थे? इन्हीं बातों का जवाब इन आयात में दिया गया है।
لِّكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكًا هُمۡ نَاسِكُوهُۖ فَلَا يُنَٰزِعُنَّكَ فِي ٱلۡأَمۡرِۚ وَٱدۡعُ إِلَىٰ رَبِّكَۖ إِنَّكَ لَعَلَىٰ هُدٗى مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 47
(67) हर उम्मत के लिए हमने एक तरीक़े-इबादत मुक़र्रर किया है जिसकी वह परवी करती है, पस (ऐ नबी!) वे इस मामले में तुमसे झगड़ा न करें।18 तुम अपने रब की तरफ़ दावत दो। यक़ीनन तुम सीधे रास्ते पर हो।
18. यानी जिस तरह पहले अम्बिया (अलैहि०) अपने-अपने दौर की उम्मतों के लिए एक तरीक़े इबादत लाए थे, उसी तरह इस दौर की उम्मत के लिए तुम एक तरीक़े-इबादत लाए हो। अब किसी को तुमसे निज़ाअ करने का हक़ हासिल नहीं है, क्योंकि इस दौर के लिए बरहक़ तरीक़े-इबादत यही है।
وَقَوۡمُ إِبۡرَٰهِيمَ وَقَوۡمُ لُوطٖ ۝ 48
(43) और क़ौमे-इबराहीम और क़ौमे-लूत
وَلَا يَزَالُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُ حَتَّىٰ تَأۡتِيَهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةً أَوۡ يَأۡتِيَهُمۡ عَذَابُ يَوۡمٍ عَقِيمٍ ۝ 49
(55) इनकार करनेवाले तो उसकी तरफ़ से शक ही में पड़े रहेंगे, यहाँ तक कि या तो उनपर क़ियामत की घड़ी अचानक आ जाए, या एक मनहूस दिन का अज़ाब नाज़िल हो जाए।
وَإِن جَٰدَلُوكَ فَقُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 50
(68) और अगर वे तुमसे झगड़ें तो कह दो कि “जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह को ख़ूब मालूम है,
وَأَصۡحَٰبُ مَدۡيَنَۖ وَكُذِّبَ مُوسَىٰۖ فَأَمۡلَيۡتُ لِلۡكَٰفِرِينَ ثُمَّ أَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 51
(44) और अहले-मदयन भी झुठला चुके हैं और मूसा भी झुठलाए जा चुके है। इन सब मुनकिरीने-हक़ को मैंने पहले मुहलत दी फिर पकड़ लिया। अब देख लो कि मेरी उक़ूबत कैसी थी!
ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَئِذٖ لِّلَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡۚ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 52
(56) उस रोज़ बादशाही अल्लाह की होगी, और वह उनके दरमियान फ़ैसला कर देगा। जो ईमान रखनेवाले और अमले-सॉलेह करनेवाले होंगे वे नेमत-भरी जन्नतों में जाएँगे,
ٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 53
(69) अल्लाह क़ियामत के रोज़ तुम्हारे दरमियान उन सब बातों का फ़ैसला कर देगा जिनमें तुम इख़्तिलाफ करते रहे हो।”
فَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا وَهِيَ ظَالِمَةٞ فَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا وَبِئۡرٖ مُّعَطَّلَةٖ وَقَصۡرٖ مَّشِيدٍ ۝ 54
(45) कितनी ही ख़ताकार बस्तियाँ हैं जिनको हमने तबाह किया है और आज वे अपनी छतों पर उलटी पड़ी हैं, कितने ही कुएँ बेकार और कितने ही क़ुसूर खंडर बने हुए हैं।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 55
(57) और जिन्होंने कुफ़्र किया होगा और हमारी आयात को झुठलाया होगा उनके लिए रुसवाकुन अज़ाब होगा।
أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَتَكُونَ لَهُمۡ قُلُوبٞ يَعۡقِلُونَ بِهَآ أَوۡ ءَاذَانٞ يَسۡمَعُونَ بِهَاۖ فَإِنَّهَا لَا تَعۡمَى ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَلَٰكِن تَعۡمَى ٱلۡقُلُوبُ ٱلَّتِي فِي ٱلصُّدُورِ ۝ 56
(46) क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इनके दिल समझनेवाले या इनके कान सुननेवाले होते? हक़ीकत यह है कि आँखें अंधी नहीं होतीं, मगर वे दिल अंधे हो जाते हैं जो सीनों में हैं।
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّ ذَٰلِكَ فِي كِتَٰبٍۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 57
(70) क्या तुम नहीं जानते कि आसमान व ज़मीन की हर चीज़ अल्लाह के इल्म में है? सब कुछ एक किताब में दर्ज है। अल्लाह के लिए यह कुछ भी मुशकिल नहीं है।
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ قُتِلُوٓاْ أَوۡ مَاتُواْ لَيَرۡزُقَنَّهُمُ ٱللَّهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 58
(58) और जिन लोगों ने अल्लाह की राह में हिजरत की, फिर क़त्ल कर दिए गए या मर गए, अल्लाह उनको अच्छा रिज़्क़ देगा। और यक़ीनन अल्लाह ही बेहतरीन राज़िक़ है।
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥۚ وَإِنَّ يَوۡمًا عِندَ رَبِّكَ كَأَلۡفِ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ ۝ 59
(47) ये लोग अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं। अल्लाह हरगिज़ अपने वादे के ख़िलाफ़ न करेगा, मगर तेरे रब के यहाँ का एक दिन तुम्हारे शुमार के हज़ार बरस के बराबर हुआ करता है।14
14. यानी इनसानी तारीख़ में ख़ुदा के फ़ैसले तुम्हारी घड़ियों और जन्तरियों के लिहाज़ से नहीं होते कि आज एक सही या ग़लत रविश इख़्तियार की और कल उसके अच्छे या बुरे नताइज ज़ाहिर हो गए। किसी क़ौम से अगर यह कहा जाए कि फ़ुलाँ तर्ज़े-अमल इख़्तियार करने का अंजाम तुम्हारी तबाही की सूरत में निकलेगा तो वह बड़ी ही अहमक़ होगी अगर जवाब में यह इस्तिदलाल करे कि जनाब इस तर्ज़े-अमल को इख़्तियार किए हमें दस, बीस या पचास बरस हो चुके हैं, अभी तक तो हमारा कुछ बिगड़ा नहीं। तारीख़ी नताइज के लिए दिन और महीने और साल तो दरकिनार, सदियाँ भी कोई बड़ी चीज नहीं हैं।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَمَا لَيۡسَ لَهُم بِهِۦ عِلۡمٞۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِن نَّصِيرٖ ۝ 60
(71) ये लोग अल्लाह को छोड़कर उनकी इबादत कर रहे हैं जिनके लिए न तो उसने कोई सनद नाज़िल की और न ये ख़ुद उनके बारे में कोई इल्म रखते हैं। इन ज़ालिमों के लिए कोई मददगार नहीं है।
لَيُدۡخِلَنَّهُم مُّدۡخَلٗا يَرۡضَوۡنَهُۥۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَعَلِيمٌ حَلِيمٞ ۝ 61
(59) वह उन्हें ऐसी जगह पहुँचाएगा जिससे वे ख़ुश हो जाएँगे। बेशक अल्लाह अलीम और हलीम है।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ أَمۡلَيۡتُ لَهَا وَهِيَ ظَالِمَةٞ ثُمَّ أَخَذۡتُهَا وَإِلَيَّ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 62
(48) कितनी ही बस्तियाँ हैं जो ज़ालिम थीं, मैंने पहले उनको मुहलत दी, फिर पकड़ लिया, और सबको वापस तो मेरे ही पास आना है।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ تَعۡرِفُ فِي وُجُوهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمُنكَرَۖ يَكَادُونَ يَسۡطُونَ بِٱلَّذِينَ يَتۡلُونَ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۗ قُلۡ أَفَأُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكُمُۚ ٱلنَّارُ وَعَدَهَا ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 63
(72) और जब इनको हमारी साफ़-साफ़ आयात सुनाई जाती हैं तो तुम देखते हो कि मुनकिरीने-हक़ के चेहरे बिगड़ने लगते हैं, और ऐसा महसूस होता है कि अभी वे उन लोगों पर टूट पड़ेंगे जो उन्हें हमारी आयात सुनाते हैं। उनसे कहो, “मैं बताऊँ तुम्हें कि इससे बदतर चीज़ क्या है? आग, अल्लाह ने उसी का वादा उन लोगों के हक़ में कर रखा है जो क़ुबूले-हक़ से इनकार करें, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।
۞ذَٰلِكَۖ وَمَنۡ عَاقَبَ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبَ بِهِۦ ثُمَّ بُغِيَ عَلَيۡهِ لَيَنصُرَنَّهُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٞ ۝ 64
(60) यह तो है उनका अंजाम, और जो कोई बदला ले, वैसा ही जैसा उसके साथ किया गया, और फिर उसपर ज़्यादती भी की गई हो, तो अल्लाह उसकी मदद ज़रूर करेगा। अल्लाह माफ़ करनेवाला और दरगुज़र करनेवाला है।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّمَآ أَنَا۠ لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 65
(49) (ऐ नबी!) कह दो कि “लोगो! मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ़ वह शख़्स हूँ जो (बुरा वक़्त आने से पहले) साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाला हो।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ضُرِبَ مَثَلٞ فَٱسۡتَمِعُواْ لَهُۥٓۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَن يَخۡلُقُواْ ذُبَابٗا وَلَوِ ٱجۡتَمَعُواْ لَهُۥۖ وَإِن يَسۡلُبۡهُمُ ٱلذُّبَابُ شَيۡـٔٗا لَّا يَسۡتَنقِذُوهُ مِنۡهُۚ ضَعُفَ ٱلطَّالِبُ وَٱلۡمَطۡلُوبُ ۝ 66
(73) लोगो! एक मिसाल दी जाती है, ग़ौर से सुनो। जिन माबूदों को तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते, बल्कि अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहनेवाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद जाती है वे भी कमज़ोर।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ ۝ 67
(61) यह इसलिए कि रात से दिन और दिन से रात निकालनेवाला अल्लाह ही है और वह समीअ व बसीर है।
فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 68
(50) फिर जो इमान लाएँगे और नेक अमल करेंगे उनके लिए मग़फ़िरत है और इज़्ज़त की रोज़ी।
مَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ ۝ 69
(74) इन लोगों ने अल्लाह की क़द्र ही नहीं पहचानी जैसा कि उसके पहचाने का हक़ है। वस्तुस्थिति यह है कि बलवान और इज़्ज़तवाला तो अल्लाह ही है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّ مَا يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ هُوَ ٱلۡبَٰطِلُ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 70
(62) यह इसलिए कि अल्लाह ही हक़ है और वे सब बातिल हैं जिन्हें अल्लाह को छोड़कर ये लोग पुकारते हैं, और अल्लाह ही बालादस्त और बुज़ुर्ग है।
ٱللَّهُ يَصۡطَفِي مِنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ رُسُلٗا وَمِنَ ٱلنَّاسِۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ ۝ 71
(75) हक़ीक़त यह है कि अल्लाह (अपने फ़रामीन की तरसील के लिए) मलाइका में से भी पैग़ामरसाँ मुन्तख़ब करता है और इनसानों में से भी। वह समीअ और बसीर है,
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَتُصۡبِحُ ٱلۡأَرۡضُ مُخۡضَرَّةًۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَطِيفٌ خَبِيرٞ ۝ 72
(63) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और उसकी बदौलत ज़मीन सरसब्ज़ हो जाती है? हक़ीक़त यह है कि वह लतीफ़ व ख़बीर है।16
16. यानी कुफ़्र और ज़ुल्म की रविश इख़्तियार करनेवालों पर अज़ाब नाज़िल करना, मोमिन व सॉलेह बन्दों को इनाम देना, मज़लूम अहले-हक़ की दादरसी करना और ताक़त से ज़ुल्म का मुक़ाबला करनेवाले अहले-हक़ की नुसरत फ़रमाना, ये सब इस वजह से है कि अल्लाह की सिफ़ात ये और ये हैं।
لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 73
(64) उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, बेशक वही ग़नी व हमीद है।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 74
(70) जो कुछ लोगों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह वाक़िफ़ हैं, और सारे मामलात उसी की तरफ़ रुजूअ होते हैं।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ سَخَّرَ لَكُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡفُلۡكَ تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِأَمۡرِهِۦ وَيُمۡسِكُ ٱلسَّمَآءَ أَن تَقَعَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 75
(65) क्या तुम देखते नहीं हो कि उसने वह सब कुछ तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र कर रखा है जो ज़मीन में है, और उसी ने कश्ती को क़ायदे का पाबन्द बनाया है कि वह उसके हुक्म से समुन्दर में चलती है, और वही आसमान को इस तरह थामे हुए है कि उसके इज़्न के बग़ैर वह ज़मीन पर नहीं गिर सकता? वाक़िआ यह है कि अल्लाह लोगों के हक़ में बड़ा शफ़ीक़ और रहीम है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱرۡكَعُواْ وَٱسۡجُدُواْۤ وَٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمۡ وَٱفۡعَلُواْ ٱلۡخَيۡرَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ۩ ۝ 76
(77) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! रुकूअ और सजदा करो, अपने रब की बन्दगी करो, और नेक काम करो, इसी से तवक़्क़ो की जा सकती है कि तुमको फ़लाह नसीब हो।
وَجَٰهِدُواْ فِي ٱللَّهِ حَقَّ جِهَادِهِۦۚ هُوَ ٱجۡتَبَىٰكُمۡ وَمَا جَعَلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلدِّينِ مِنۡ حَرَجٖۚ مِّلَّةَ أَبِيكُمۡ إِبۡرَٰهِيمَۚ هُوَ سَمَّىٰكُمُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ مِن قَبۡلُ وَفِي هَٰذَا لِيَكُونَ ٱلرَّسُولُ شَهِيدًا عَلَيۡكُمۡ وَتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِۚ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱعۡتَصِمُواْ بِٱللَّهِ هُوَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ فَنِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 77
(78) अल्लाह की राह में जिहाद करो जैसा कि जिहाद करने का हक़ है। उसने तुम्हें अपने काम के लिए चुन लिया है और दीन में तुमपर कोई तंगी नहीं रखी। क़ायम हो जाओ अपने बाप इबराहीम की मिल्लत पर। अल्लाह ने पहले भी तुम्हारा नाम 'मुस्लिम' रखा था और इस (क़ुरआन) में भी (तुम्हारा यही नाम है)। ताकि रसूल तुमपर गवाह हो और तुम लोगों पर गवाह। पस नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो, और अल्लाह से वाबस्ता हो जाओ। वह है तुम्हारा मौला, बहुत ही अच्छा है वह मौला और बहुत ही अच्छा है वह मददगार।