23. अल-मोमिनून
(मक्का में उतरी-आयतें 118)
परिचय
नाम
पहली ही आयत “क़द अफ़-ल-हल मोमिनून (निश्चय ही सफलता पाई है ईमान लानेवालों ने)" से लिया गया है।
उतरने का समय
वर्णनशैली और विषय, दोनों से यही मालूम होता है कि इस सूरा के उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है। आयत 75-76 से स्पष्ट रूप से यह गवाही मिलती है कि यह मक्का के उस भीषण अकाल के समय में उतरी है जो विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसी मध्यकाल में पड़ा था।
विषय और वार्ताएँ
रसूल (सल्ल०) की पैरवी की दावत इस सूरा का केंद्रीय विषय है और पूरा भाषण इसी केंद्र के चारों ओर घूमता है। बात का आरंभ इस तरह होता है कि जिन लोगों ने इस पैग़म्बर की बात मान ली है, उनके भीतर ये और ये गुण पैदा हो रहे हैं और निश्चय ही ऐसे ही लोग दुनिया और आख़िरत की सफलता के अधिकारी हैं। इसके बाद इंसान की पैदाइश, आसमान और ज़मीन की पैदाइश, पेड़-पौधों और जानवरों की पैदाइश और सृष्टि की दूसरी निशानियों से तौहीद और आख़िरत के सत्य होने के प्रमाण जुटाए गए हैं, फिर नबियों (अलैहि०) और उनकी उम्मतों (समुदायों) के क़िस्से |बयान करके] कुछ बातें श्रोताओं को समझाई गई हैं-
एक यह कि आज तुम लोग मुहम्मद (सल्ल०) की दावत पर जो सन्देह और आपत्तियाँ कर रहे हो वे कुछ नई नहीं हैं, पहले भी जो नबी दुनिया में आए थे, उन सबपर उनके समय के अज्ञानियों ने यही आपत्तियाँ की थीं। अब देख लो कि इतिहास का पाठ क्या बता रहा है, आपत्ति करनेवाले सत्य पर थे या नबी?
दूसरे यह कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के बारे में जो शिक्षा मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं, यही शिक्षा हर युग के नबियों ने दी है।
तीसरे यह कि जिन क़ौमों ने नबियों की बात सुनकर न दो, वे अन्तत: नष्ट होकर रहीं।
चौथे यह कि अल्लाह की ओर से हर समय में एक ही दीन आता रहा है और सारे नबी एक ही उम्मत (समुदाय) के लोग थे, उस अकेले धर्म के सिवा, जो अलग-अलग धर्म तुम लोग दुनिया में देख रहे हो, ये सब लोगों के गढ़े हुए हैं।
इन क़िस्सों के बाद लोगों को यह बताया गया है कि वास्तविक चीज़ जिसपर अल्लाह के यहाँ प्रिय या अप्रिय होना आश्रित है, वह आदमी का ईमान और उसकी ख़ुदातर्सी और सत्यवादिता है। ये बातें इसलिए कही गई हैं कि नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में उस समय जो रुकावटें पैदा की जा रही थी, उसके ध्वजावाहक सब के सब मक्का के बुजुर्ग और बड़े-बड़े सरदार थे। वे अपनी जगह स्वयं भी यह घमंड रखते थे और उनके प्रभावाधीन लोग भी इस भ्रम में पड़े हुए थे कि नेमतों की बारिश जिन लोगों पर हो रही है, उनपर ज़रूर अल्लाह और देवताओं की कृपा है। रहे ये टूटे-मारे लोग जो मुहम्मद के साथ हैं, इनकी तो हालत स्वयं ही यह बता रही है कि अल्लाह इनके साथ नहीं है और देवताओं की तो मार ही इनपर पड़ी हुई है। इसके बाद मक्कावालों को अलग-अलग पहलुओं से नबी (सल्ल०) की नुबूवत पर सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। फिर उनको बताया गया है कि यह अकाल जो तुमपर आ पड़ा है, यह एक चेतावनी है, बेहतर है कि इसको देखकर संभलो और सीधे रास्ते पर आ जाओ। फिर उनको नए सिरे से उन निशानियों की ओर ध्यान दिलाया गया है जो सृष्टि और स्वयं उनके अपने अस्तित्त्व में मौजूद हैं। और अल्लाह की तौहीद और मरने के बाद की ज़िन्दगी की खुली हुई गवाही दे रही हैं। फिर नबी (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि चाहे ये लोग तुम्हारे मुक़ाबले में कैसा ही रवैया अपनाएँ, तुम भले तरीक़ों ही से बचाव करना । शैतान कभी तुमको जोश में लाकर बुराई का जवाब बुराई से देने पर तैयार न करने पाए।
वार्ता के अन्त में सत्य के विरोधियों को आख़िरत की पूछ-ताछ से डराया गया है और उन्हें सचेत किया गया है कि जो कुछ तुम सत्य की दावत और उसकी पैरवी करनेवालों के साथ कर रहे हो, उसका कड़ा हिसाब तुमसे लिया जाएगा।
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