25. अल-फ़ुरक़ान
(मक्का में उतरी-आयतें 77)
परिचय
नाम
पहली ही आयत 'त बा-र-कल्लज़ी नज़्ज़-लल फ़ुर-क़ान' अर्थात् 'बहुत ही बरकतवाला है वह, जिसने यह फ़ुरक़ान (कसौटी) अवतरित किया' से लिया गया है। यह भी क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के नामों की तरह पहचान के रूप में है, न कि विषय के शीर्षक के रूप में। फिर भी इस सूरा के विषय में यह नाम क़रीबी लगाव रखता है, जैसा कि आगे चलकर मालूम होगा।
उतरने का समय
वर्णन-शैली और विषय पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि इसके उतरने का समय भी वही है जो सूरा-23 मोमिनून आदि का है, अर्थात् मक्का निवास का मध्यकाल।
विषय और वार्ताएँ
इसमें उन सन्देहों और आपत्तियों पर वार्ता की गई है जो क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत और आपकी पेश की हुई शिक्षा पर मक्का के विधर्मियों की ओर से की जाती थीं। उनमें से एक-एक का जंचा-तुला उत्तर दिया गया है और साथ-साथ सत्य सन्देश से मुंँह मोड़ने के दुष्परिणाम भी स्पष्ट शब्दों में बताए गए हैं। अन्त में सूरा-23 मोमिनून की तरह ईमानवालों के नैतिक गुणों का एक चित्र खींचकर आम लोगों के सामने रख दिया गया है कि इस कसौटी पर कस कर देख लो, कौन खोटा है और कौन खरा है। एक ओर इस चरित्र एवं आचरण के लोग हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) की शिक्षा से अब तक तैयार हुए है और आगे तैयार करने की कोशिश हो रही है। दूसरी ओर नैतिकता का वह नमूना है जो आम अरबो में पाया जाता है और जिसे बाक़ी रखने के लिए अज्ञानता के ध्वजावाहक एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। अब स्वयं फ़ैसला करो कि इन दोनों नमूनों में से किसे पसन्द करते हो? यह एक सांकेतिक प्रश्न था जो अरब के हर वासी के सामने रख दिया गया और कुछ साल के भीतर एक छोटी सी तादाद को छोड़कर सारी क़ौम ने इसका जो उत्तर दिया वह समय की किताब में लिखा जा चुका है।
---------------------
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗ لَّا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ وَلَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا وَلَا يَمۡلِكُونَ مَوۡتٗا وَلَا حَيَوٰةٗ وَلَا نُشُورٗا 1
(3) लोगों ने उसे छोड़कर ऐसे माबूद बना लिए जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि ख़ुद पैदा किए जाते हैं, जो ख़ुद अपने लिए भी किसी नफ़ा या नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखते, जो न मार सकते हैं, न जिला सकते हैं, न मरे हुए को फिर उठा सकते हैं।
ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖ فَقَدَّرَهُۥ تَقۡدِيرٗا 8
(2) वह जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, जिसने किसी को बेटा नहीं बनाया है, जिसके साथ बादशाही में कोई शरीक नहीं है, जिसने हर चीज़ को पैदा किया, फिर उसकी एक तक़दीर मुक़र्रर की।
فَقَدۡ كَذَّبُوكُم بِمَا تَقُولُونَ فَمَا تَسۡتَطِيعُونَ صَرۡفٗا وَلَا نَصۡرٗاۚ وَمَن يَظۡلِم مِّنكُمۡ نُذِقۡهُ عَذَابٗا كَبِيرٗا 24
(19) यूँ झुठला देंगे वे (तुम्हारे माबूद) तुम्हारी उन बातों को जो आज तुम कह रहे हो,2 फिर तुम न अपनी शामत को टाल सकोगे, न कहीं से मदद पा सकोगे और जो भी तुममें से ज़ुल्म करे, उसे हम सख़्त अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
2. मज़मून ख़ुद ज़ाहिर कर रहा है कि इन आयतों में माबूदों से मुराद बुत, या चाँद, सूरज वग़ैरा नहीं हैं, बल्कि फ़रिश्ते और नेक इनसान हैं जिनको दुनिया में माबूद बना लिया गया।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّآ إِنَّهُمۡ لَيَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشُونَ فِي ٱلۡأَسۡوَاقِۗ وَجَعَلۡنَا بَعۡضَكُمۡ لِبَعۡضٖ فِتۡنَةً أَتَصۡبِرُونَۗ وَكَانَ رَبُّكَ بَصِيرٗا 26
(20) ऐ नबी, तुमसे पहले जो रसूल भी हमने भेजे थे, वे सब भी खाना खानेवाले और बाज़ारों में चलने-फिरनेवाले लोग ही थे। दरअस्ल हमने तुम लोगों को एक-दूसरे के लिए आज़माइश का ज़रिआ बना दिया है।3 क्या तुम सब्र करते हो?4 तुम्हारा रब सब कुछ देखता है।
3. यानी रसूल और अहले-ईमान के लिए मुनकिरीन आज़माइश हैं और मुनकिरीन के लिए रसूल और अहले-ईमान।
4. यानी इस मस्लहत को समझ लेने के बाद क्या अब तुमको सब्र आ गया कि आज़माइश की यह हालत इस मक़सदे-ख़ैर के लिए निहायत ज़रूरी है जिसके लिए तुम काम कर रहे हो? क्या अब तुम वे चोटें खाने पर राज़ी हो जो इस आज़माइश के दौर में लगनी नागुज़ीर हैं?
أَلَمۡ تَرَ إِلَىٰ رَبِّكَ كَيۡفَ مَدَّ ٱلظِّلَّ وَلَوۡ شَآءَ لَجَعَلَهُۥ سَاكِنٗا ثُمَّ جَعَلۡنَا ٱلشَّمۡسَ عَلَيۡهِ دَلِيلٗا 32
(45) तुमने देखा नहीं कि तुम्हारा रब किस तरह साया फैला देता है? अगर वह चाहता तो उसे दाइमी साया बना देता। हमने सूरज को उसपर दलील बनाया,8
8. मल्लाहों की इस्तिलाह में दलील उस शख़्स को कहते हैं जो कश्तियों को रास्ता दिखाता हो। साए को सूरज पर दलील बनाने का मतलब यह है कि साए का फैलना और सिकुड़ना सूरज के उरूज व ज़वाल और तूलूअ व ग़ुरूब होने का ताबेअ है।
ثُمَّ قَبَضۡنَٰهُ إِلَيۡنَا قَبۡضٗا يَسِيرٗا 33
(46) फिर (जैसे-जैसे सूरज उठता जाता है) हम उस साए को रफ़्ता-रफ़्ता अपनी तरफ़ समेटते चले जाते हैं।9
9. अपनी तरफ़ समेटने से मुराद ग़ायब और फ़ना करना है, क्योंकि हर चीज़़ जो फ़ना होती है वह अल्लाह हो की तरफ़ पलटती है। हर शय उसी की तरफ़ से आती है और उसी की तरफ़ जाती है।
وَعِبَادُ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلَّذِينَ يَمۡشُونَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ هَوۡنٗا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ ٱلۡجَٰهِلُونَ قَالُواْ سَلَٰمٗا 34
(63) रहमान के (असली) बन्दे वे हैं जो ज़मीन पर नर्म चाल चलते हैं13 और जाहिल उनके मुँह आएँ तो कह देते हैं कि तुमको सलाम।
13. यानी तकब्बुर के साथ अकड़ते और ऐंठते हुए नहीं चलते, जब्बारों और मुफ़सिदों की तरह अपनी चाल से अपना ज़ोर जताने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उनकी चाल एक शरीफ़ और सलीमुत-तबअ और नेक मिज़ाज आदमी की-सी चाल होती है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلۡقُرۡءَانُ جُمۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ كَذَٰلِكَ لِنُثَبِّتَ بِهِۦ فُؤَادَكَۖ وَرَتَّلۡنَٰهُ تَرۡتِيلٗا 36
(32) मुनकिरीन कहते हैं, “इस आदमी पर सारा क़ुरआन एक ही वक़्त में क्यों न उतार दिया गया?”— हाँ, ऐसा इसलिए किया गया है कि इसको अच्छी तरह हम तुम्हारे ज़ेहन नशीन करते रहें। और (इसी ग़रज़ के लिए) हमने इसको एक ख़ास तरतीब के साथ अलग-अलग अजज़ा की शक्ल दी है।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَا مَعَهُۥٓ أَخَاهُ هَٰرُونَ وَزِيرٗا 46
(35) हमने मूसा को किताब5 दी और उसके साथ उसके भाई हारून को मददगार के तौर पर लगाया
5. यहाँ किताब से मुराद ग़ालिबन वह किताब नहीं है जो मिस्र से निकलने के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) को दो गई थी, बल्कि इससे मुराद वे हिदायात हैं जो मंसबे-नुबूवत पर मामूर होने के वक़्त से लेकर मिस्र से निकलने तक हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी जाती रही हैं। उनमें वे ख़ुतबे भी शामिल हैं जो अल्लाह के हुक्म से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन के दरबार में दिए और वे हिदायात भी शामिल हैं जो फ़िरऔन के ख़िलाफ जिद्दो-जुह्द के दौरान में आपको दी जाती रही हैं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह इन चीज़़ों का ज़िक्र है, मगर अग़लब यह है कि ये चीज़़ें तौरात में शामिल नहीं की गईं। तौरात का आग़ाज़ उन अहकामे-अ-श-र से होता है जो ख़ुरूज के बाद तूरे-सीना पर कतबों की शक्ल में आपको दिए गए थे।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَبَعَثۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٖ نَّذِيرٗا 47
(51) अगर हम चाहते तो एक-एक बस्ती में एक-एक ख़बरदार करनेवाला उठा खड़ा करते।10
10. यानी ऐसा करना हमारी क़ुदरत से बाहर न था, चाहते तो जगह-जगह नबी पैदा कर सकते थे मगर हमने ऐसा नहीं किया और दुनिया भर के लिए एक ही नबी मबऊस कर दिया, जिस तरह एक सूरज सारे जहान के लिए काफ़ी हो रहा है, उसी तरह यह अकेला आफ़ताबे-हिदायत ही सारे जहानवालों के लिए काफ़ी है।
۞وَهُوَ ٱلَّذِي مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ هَٰذَا عَذۡبٞ فُرَاتٞ وَهَٰذَا مِلۡحٌ أُجَاجٞ وَجَعَلَ بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٗا وَحِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا 52
(53) और वही है जिसने दो समुन्दरों को मिला रखा है। एक लज़ीज़ व शीरीं, दूसरा तल्ख़ व शोर। और दोनों के बीच एक परदा हाइल है। एक रुकावट है जो उन्हें गड्ड-मड्ड होने से रोके हुए है।11
11. यह कैफ़ियत हर उस जगह रूनुमा होती है जहाँ कोई बड़ा दरिया समुन्दर में आकर गिरता है। इसके अलावा ख़ुद समुन्दर में भी मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर मीठे पानी के चश्मे पाए जाते हैं जिनका पानी समुन्दर के निहायत तल्ख़ पानी के दरमियान भी अपनी मिठास पर क़ायम रहता है। मिसाल के तौर पर बहरैन और दूसरे मक़ामात पर ख़लीजे-फ़ारिस की तह से इस तरह के बहुत से चश्मे निकले हुए हैं जिनसे लोग मीठा पानी हासिल करते हैं।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا 62
(56) ऐ नबी, तुमको तो हमने बस एक बशारत देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाकर भेजा है।12
12. यानी तुम्हारा काम न किसी ईमान लानेवाले को जज़ा देना है, न किसी इनकार करनेवाले को सज़ा देना। तुम किसी को ईमान की तरफ़ खींच लाने और इनकार से ज़बरदस्ती रोक देने पर मामूर नहीं किए गए हो। तुम्हारी ज़िम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं कि जो राहे-रास्त क़ुबूल करे उसे अंजामे-नेक की बशारत दे दो, और जो अपनी बदराही पर जमा रहे उसको अल्लाह की पकड़ से डरा दो।
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا هَبۡ لَنَا مِنۡ أَزۡوَٰجِنَا وَذُرِّيَّٰتِنَا قُرَّةَ أَعۡيُنٖ وَٱجۡعَلۡنَا لِلۡمُتَّقِينَ إِمَامًا 64
(74) जो दुआएँ माँगा करते हैं, “ऐ हमारे रब, हमें अपनी बीवियों और अपनी औलाद से आँखों की ठण्डक दे और हमको परहेज़गारों का इमाम बना।”14
14. यानी हम तक़वा और इताअत में सबसे बढ़ जाएँ, भलाई और नेकी में सबसे आगे निकल जाएँ, सिर्फ़ नेक ही न हों बल्कि नेकों के पेशवा हों और हमारी बदौलत दुनिया भर में नेकी फैले। इस चीज़़ का ज़िक्र यहाँ दरअस्ल यह बताने के लिए किया गया है कि ये वे लोग हैं जो माल व दौलत और शौकत व हशमत में नहीं, बल्कि नेकी व परहेज़गारी में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करते हैं।
قُلۡ مَا يَعۡبَؤُاْ بِكُمۡ رَبِّي لَوۡلَا دُعَآؤُكُمۡۖ فَقَدۡ كَذَّبۡتُمۡ فَسَوۡفَ يَكُونُ لِزَامَۢا 74
(77) ऐ नबी, लोगों से कहो, “मेरे रब को तुम्हारी क्या हाजत पड़ी है अगर तुम उसको न पुकारो।15 अब कि तुमने झुठला दिया है, अन-क़रीब वह सज़ा पाओगे कि जान छुड़ानी मुशकिल होगी।”
15. यानी अगर तुम अल्लाह से दुआएँ न माँगो, और उसकी इबादत न करो, और अपनी हाजात में उसको मदद के लिए न पुकारो, तो फिर तुम्हारा कोई वज़्न भी अल्लाह तआला की निगाह में नहीं है जिसकी वजह से वह परे-काह बराबर भी तुम्हारी परवाह करे। मह्ज़ मख़लूक़ होने की हैसियत से तुममें और पत्थरों में कोई फ़र्क़ नहीं। तुमसे अल्लाह की कोई हाजत अटकी हुई नहीं है कि तुम बन्दगी न करोगे तो उसका कोई काम रुका रह जाएगा। उसकी निगाहे-इल्तिफ़ात को जो चीज़़ तुम्हारी तरफ़ माइल करती है वह तुम्हारा उसकी तरफ़ हाथ फैलाना और उससे दुआएँ माँगना ही है। यह काम न करोगे तो कूड़ा-करकट की तरह फेंक दिए जाओगे।