- आले इमरान
मदीना में उतरी आयते 200
परिचय
नाम
इस सूरा में एक स्थान पर 'आले इमरान' (इमरान के घरवालों) का उल्लेख हुआ है। उसी को पहचान के रूप में इसका यह नाम रख दिया गया है।
उतरने का समय और विषय
इसमें चार व्याख्यान हैं:
पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 32 तक है और वह शायद बद्र की लड़ाई के बाद क़रीबी समय ही में उतरा है। दूसरा व्याख्यान आयत 33, “अल्लाह ने आदम और और इबराहीम की संतान और इमरान की संतान को तमाम दुनियावालों पर प्राथमिकता देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था" से शुरू होता है और आयत 63 पर ख़त्म होता है। यह सन् 09 हिजरी में नजरान प्रतिनिधिमंडल के आगमन के अवसर पर उतरा। तीसरा व्याख्यान आयत 64 से आरंभ होता है और आयत 120 तक चलता है और इसका समय पहले व्याख्यान के समय से मिला हुआ लगता है। चौथा व्याख्यान आयत 121 से आरंभ होकर सूरा के अंत तक चलता है। यह उहुद की लड़ाई के बाद उतरा है।
सम्बोधन और वार्ताएँ
इन विभिन्न व्याख्यानों को मिलाकर जो चीज़ क्रमागत विषय बनाती है, वह उद्देश्य, अभिप्राय और केन्द्रीय विषय की एकरूपता है। सूरा का सम्बोधन मुख्य रूप से दो गिरोहों की ओर है : एक अहले-किताब (यहूदी और ईसाई), दूसरे वे लोग जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाए थे।
पहले गिरोह को उसी ढंग से और आगे की बात पहुँचाई गई है, जिसका सिलसिला सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू किया गया था। दूसरे गिरोह को, जो अब सर्वोत्तम गिरोह होने की हैसियत से सत्य का ध्वजावाहक और दुनिया के सुधार का ज़िम्मेदार बनाया जा चुका है, उसी सिलसिले में कुछ और आदेश दिए गए हैं जो सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू हुआ था। उन्हें पिछले समुदायों के धार्मिक और नैतिक पतन का शिक्षाप्रद दृश्य दिखाकर सचेत किया गया है कि उनके पद-चिह्नों पर चलने से बचें। उन्हें बताया गया है कि एक सुधारक जमाअत होने की हैसियत से वे किस तरह काम करें।
उतरने का कारण
इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है : (1) सूरा-2 (अल-बकरा) में इस सत्य-धर्म पर ईमान लानेवालों को जिन आज़माइशों, मुसीबतों और कठिनाइयों से समय से पहले सचेत कर दिया गया था, वे पूरी तीव्रता के साथ सामने आ चुकी थीं। बद्र की लड़ाई में यद्यपि ईमानवालो को विजय मिली थी, लेकिन यह लड़ाई मानो भिड़ों के छत्ते में पत्थर मारने जैसी थी [चुनांचे इसके बाद हर ओर तूफ़ान के लक्षण दिखाई देने लगे और मुसलमान नित्य- भय और अनवरत अशांति से दोचार हो गए] (2) हिजरत के बाद नबी (सल्ल.) ने मदीना के आस-पास के यहूदी कबीलों के साथ जो समझौते किए थे, उन लोगों ने उन समझौतों का कुछ भी सम्मान न किया। [और बराबर उनका उल्लंघन करने लगे।] अन्तत: जब उनकी शरारतें और वादाख़िलाफ़ियाँ असह्य हो गई तो नबी (सल्ल.) ने बद्र के कुछ महीने बाद बनी-क़ैनुकाअ पर, जो इन यहूदी क़बीलों में सबसे अधिक उद्दण्ड थे, हमला कर दिया और उन्हें मदीना के आस-पास से निकाल बाहर किया, लेकिन इससे दूसरे यहूदी क़बीलों की दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। उन्होंने मदीना के मुनाफ़िक़ मुसलमानों और हिजाज़ के मुशरिक क़बीलों के साथ साँठ-गांठ करके इस्लाम और मुसलमानों के लिए हर ओर संकट ही संकट पैदा कर दिए। (3) बद्र की पराजय के बाद कुरैश के दिलों में अपने आप ही प्रतिशोध की आग भड़क रही थी कि उसपर यहूदियों ने और तेल छिड़क दिया। परिणाम यह हुआ कि एक ही साल बाद मक्का से तीन हज़ार की भारी सेना मदीना पर हमलावर हो गई और उहुद के दामन में वह लड़ाई हुई जो उहुद की लड़ाई के नाम से मशहूर है। (4) उहुद की लड़ाई में मुसलमानों की जो पराजय हुई, उसमें यद्यपि मुनाफ़िक़ों की चालों की एक बड़ी भूमिका थी, लेकिन उसके साथ मुसलमानों की अपनी कमज़ोरियों की भूमिका भी कुछ कम न थी, इसलिए यह ज़रूरत पेश आई कि लड़ाई के बाद उस लड़ाई की पूरी दास्तान की एक विस्तृत समीक्षा की जाए और इसमें इस्लामी दृष्टिकोण से जो कमज़ोरियाँ मुसलमानों के भीतर पाई गई थीं, उनमें से एक-एक की निशानदेही करके उसके सुधार के बारे में आदेश दिए जाएँ। इस संबंध में यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि इस लड़ाई पर क़ुरआन की समीक्षा उन सभी समीक्षाओं से कितनी भिन्न है जो दुनिया के सेनानायक अपनी लड़ाइयों के बाद किया करते हैं।
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هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۡهُ ءَايَٰتٞ مُّحۡكَمَٰتٌ هُنَّ أُمُّ ٱلۡكِتَٰبِ وَأُخَرُ مُتَشَٰبِهَٰتٞۖ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمۡ زَيۡغٞ فَيَتَّبِعُونَ مَا تَشَٰبَهَ مِنۡهُ ٱبۡتِغَآءَ ٱلۡفِتۡنَةِ وَٱبۡتِغَآءَ تَأۡوِيلِهِۦۖ وَمَا يَعۡلَمُ تَأۡوِيلَهُۥٓ إِلَّا ٱللَّهُۗ وَٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ يَقُولُونَ ءَامَنَّا بِهِۦ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ رَبِّنَاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ 6
(7) ऐ नबी! वही ख़ुदा है जिसने यह किताब तुमपर नाज़िल की है। इस किताब में दो तरह की आयात हैं— एक मुहकमात,1 जो किताब की असल बुनियाद हैं और दूसरी मुतशाबिहात।2 जिन लोगों के दिलों में टेढ़ है, वे फ़ितने की तलाश में हमेशा मुतशाबिहात ही के पीछे पड़े रहते हैं और उनको मानी पहनाने की कोशिश किया करते हैं, हालाँकि उनका हक़ीक़ी माहूम अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता बख़िलाफ़ इसके जो लोग इल्म में पुख़्ताकार है, वे कहते हैं कि “हमारा इनपर ईमान है, ये सब हमारे रब ही की तरफ़ से हैं”।3 और सच यह है कि किसी चीज़ से सही सबक़ सिर्फ़ दानिशमन्द लोग ही हासिल करते हैं।
1. ‘आयते-मुहकमात’ से मुराद वे आयात हैं जिनकी ज़बान बिलकुल साफ़ है और जिनका मफ़हूम मुतय्यन करने में किसी इशतिबाह की गुंजाइश नहीं है। ये आयात 'किताब की अस्ल बुनियाद है’ यानी क़ुरआन जिस ग़रज़ के लिए नाज़िल हुआ है, उस ग़रज़ को यही आयात पूरा करती हैं। इन्हीं में इस्लाम की तरफ़ दुनिया को दावत दी गई है, इन्हीं में इबरत और नसीहत की बातें फ़रमाई गई हैं, इन्हीं में गुमराहियों की तरदीद और राहे-रास्त की तौज़ीह की गई है, इन्हीं में दीन के बुनियादी उसूल बयान किए गए हैं, इन्हीं में अक़ाइद, इबादात, अख़लाक़, फ़राइज़ और अम्र व नही के अहकाम इरशाद हुए हैं।
2. 'मुतशाबिहात' यानी वे आयात जिनके मफ़हूम में इशतिबाह की गुंजाइश है। यह ज़ाहिर है कि इनसान के लिए ज़िन्दगी का कोई रास्ता तजवीज़ नहीं किया जा सकता, जब तक ग़ैबी हक़ीक़तों के मुताल्लिक़ कम-से-कम ज़रूरी मालूमात इनसान को न दी जाएँ। और यह भी ज़ाहिर है कि जो चीज़ें इनसान के हवास से मावरा हैं, जिनको उसने न कभी देखा, न छुआ, न चखा, उनके लिए इनसानी ज़बान में न ऐसे अलफ़ाज़ मिल सकते हैं जो उन्हीं के लिए वज़अ किए गए हों और न ऐसे मारूफ़ असालीबे-बयान मिल सकते हैं जिनसे हर सामेअ के ज़ेहन में उनकी सही तस्वीर खिंच जाए। ला-मुहाला यह नागुज़ीर है कि इस नौईयत के मज़ामीन को बयान करने के लिए अलफ़ाज़ और असालीबे-बयान वे इस्तेमाल किए जाएँ जो अस्ल हक़ीक़त से क़रीबतर मुशाबहत रखनेवाली मख़सूस चीज़ों के लिए इनसानी ज़बान में पाए जाते हैं। चुनाँचे इन हक़ीक़तों के बयान में क़ुरआन के अन्दर ऐसी ही ज़बान इस्तेमाल की गई है और मुतशाबिहात से मुराद वे आयात हैं जिनमें यह ज़बान इस्तेमाल हुई है।
3. यहाँ किसी को यह शुब्हा न हो कि जब वे लोग मुतशाबिहात का सही मफ़हूम जानते ही नहीं, तो उनपर ईमान कैसे ले आए। हक़ीक़त यह है कि एक माक़ूल आदमी को क़ुरआन के कलामुल्लाह होने का यक़ीन मुहकमात के मुताले से हासिल होता है, न कि मुतशाबिहात की तावीलों से। जब आयाते-मुहकमात में ग़ौरो-फ़िक्र करने से उसको यह इत्मीनान हासिल हो जाता है कि यह किताब वाक़ई अल्लाह ही की किताब है तो फिर मुतशाबिहात उसके दिल में कोई ख़लजान पैदा नहीं करते।
۞قُلۡ أَؤُنَبِّئُكُم بِخَيۡرٖ مِّن ذَٰلِكُمۡۖ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَأَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ 7
(15) कहो, मैं तुम्हें बताऊँ कि इनसे ज़्यादा अच्छी चीज़ क्या है? जो लोग तक़वा की रविश इख़्तियार करें, उनके लिए उनके रब के पास बाग़ हैं, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वहाँ उन्हें हमेशगी की ज़िन्दगी हासिल होगी, पाकीज़ा बीवियाँ उनकी रफ़ीक़ होंगी और अल्लाह की रिज़ा से वे सरफ़राज़ होंगे। अल्लाह अपने बन्दों के रवैये पर गहरी नज़र रखता है।
إِنَّ ٱلدِّينَ عِندَ ٱللَّهِ ٱلۡإِسۡلَٰمُۗ وَمَا ٱخۡتَلَفَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ 14
(19) अल्लाह के नज़दीक दीन सिर्फ़ इस्लाम है। इस दीन से हटकर जो मुख़्तलिफ़ तरीक़े उन लोगों ने इख़्तियार किए जिन्हें किताब दी गई थी, उनके अल्लाह ने ख़ुद इस बात की शहादत दी है कि उसके सिवा कोई इस तर्ज़े-अमल की कोई वजह इसके सिवा न थी कि उन्होंने इल्म आ जाने के बाद आपस में एक-दूसरे पर ज़्यादती करने के लिए ऐसा किया और जो कोई अल्लाह के अहकाम व हिदायात की इताअत से इनकार कर दे, अल्लाह को उससे हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
فَإِنۡ حَآجُّوكَ فَقُلۡ أَسۡلَمۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّهِ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِۗ وَقُل لِّلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡأُمِّيِّـۧنَ ءَأَسۡلَمۡتُمۡۚ فَإِنۡ أَسۡلَمُواْ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ 17
(20) अब अगर (ऐ नबी!) ये लोग तुमसे झगड़ा करें तो उनसे कहो, “मैंने और मेरे पैरुओं ने तो अल्लाह के आगे सरे-तसलीम ख़म कर दिया है।" फिर अहले-किताब और ग़ैर-अहले-किताब दोनों से पूछो, “क्या तुमने भी उसकी इताअत व बन्दगी क़ुबूल की?”अगर की तो वे राहे-रास्त पा गए, और अगर उससे मुँह मोड़ा तो तुमपर सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी। आगे अल्लाह ख़ुद अपने बन्दों के मामलात देखनेवाला है।
قَدۡ كَانَ لَكُمۡ ءَايَةٞ فِي فِئَتَيۡنِ ٱلۡتَقَتَاۖ فِئَةٞ تُقَٰتِلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَأُخۡرَىٰ كَافِرَةٞ يَرَوۡنَهُم مِّثۡلَيۡهِمۡ رَأۡيَ ٱلۡعَيۡنِۚ وَٱللَّهُ يُؤَيِّدُ بِنَصۡرِهِۦ مَن يَشَآءُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ 18
(13) तुम्हारे लिए उन दो गरोहों में एक निशाने-इबरत था, जो (बद्र में) एक-दूसरे से नबर्दआज़मा हुए। एक गरोह अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा गरोह काफ़िर था। देखनेवाले बचश्मे-सर देख रहे थे कि काफ़िर गरोह मोमिन गरोह से दो चंद है।4 है। मगर (नतीजे ने साबित कर दिया कि) अल्लाह अपनी फ़त्ह व नुसरत से जिसको चाहता है, मदद देता है। दीदए-बीना रखनेवालों के लिए इसमें बड़ा सबक़ पोशीदा है।
4. अगरचे हक़ीक़ी फ़र्क़ सेह चंद था, लेकिन सरसरी निगाह से देखनेवाला भी यह महसूस किए बग़ैर तो नहीं रह सकता था कि कुफ़्फ़ार का लश्कर मुसलमानों से दोगुना है।
زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ ٱلشَّهَوَٰتِ مِنَ ٱلنِّسَآءِ وَٱلۡبَنِينَ وَٱلۡقَنَٰطِيرِ ٱلۡمُقَنطَرَةِ مِنَ ٱلذَّهَبِ وَٱلۡفِضَّةِ وَٱلۡخَيۡلِ ٱلۡمُسَوَّمَةِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ وَٱلۡحَرۡثِۗ ذَٰلِكَ مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلۡمَـَٔابِ 20
(14) लोगों के लिए मरग़ूबाते-नफ़्स, औरतें, औलाद, सोने-चाँदी के ढेर, चीदा घोड़े, मवेशी और ज़रई ज़मीनें-बड़ी ख़ुशआइन्द बना दी गई हैं, मगर ये सब दुनिया की चंद रोज़ा ज़िन्दगी के सामान हैं। हक़ीक़त में जो बेहतर ठिकाना है वह तो अल्लाह के पास है।
لَّا يَتَّخِذِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَلَيۡسَ مِنَ ٱللَّهِ فِي شَيۡءٍ إِلَّآ أَن تَتَّقُواْ مِنۡهُمۡ تُقَىٰةٗۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ 22
(28) मोमिनीन अहले-ईमान को छोड़कर काफ़िरों को अपना रफ़ीक़ और यारो-मददगार हरगिज़ न बनाएँ। जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक़ नहीं। हाँ, यह माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिए बज़ाहिर ऐसा तर्ज़े-अमल इख़्तियार कर जाओ5। मगर अल्लाह तुम्हें अपने-आपसे डराता है, और तुम्हें उसी की तरफ़ पलटकर जाना है।6
5. यानी अगर कोई मोमिन किसी दुश्मने-इस्लाम जमाअत के चंगुल में फँस गया है और उसे उनके ज़ुल्मो-सितम का ख़ौफ़ हो तो उसको इजाज़त है कि अपने ईमान को छिपाए रखे और कुफ़्फ़ार के साथ बज़ाहिर इस तरह रहे कि गोया उन्हीं में का एक आदमी है। या अगर उसका मुसलमान होना ज़ाहिर हो गया हो तो अपनी जान बचाने के लिए वह कुफ़्फ़ार के साथ दोस्ताना रवैये का इज़हार कर सकता है, हत्ता कि शदीद ख़ौफ़ की हालत में जो शख़्स बरदाश्त की ताक़त न रखता हो उसको कलिमाए-कुफ़्र तक कह जाने की रुख़सत है।
6. यानी अपनी जान बचाने के लिए तुम इस हद तक तो तक़ीयह कर सकते हो कि इस्लाम के मिशन और इस्लामी जमाअत के मफ़ाद और किसी मुसलमान की जानो-माल को नुक़सान पहुँचाए बग़ैर अपनी जानो-माल का तहफ़्फ़ुज़ कर लो। लेकिन ख़बरदार, कुफ़्र और कुफ़्फ़ार की कोई ऐसी ख़िदमत तुम्हारे हाथों अंजाम न होने पाए जिससे इस्लाम के मुक़ाबले में कुफ़्र को फ़रोग़ हासिल होने और मुसलमानों पर कुफ़्फ़ार के ग़ालिब आ जाने का इमकान हो।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ كِتَٰبِ ٱللَّهِ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ وَهُم مُّعۡرِضُونَ 23
(23) तुमने देखा नहीं कि जिन लोगों को किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा मिला है, तो उनका हाल क्या है? उन्हें जब किताबे-इलाही की तरफ़ बुलाया जाता है ताकि वह उनके दरमियान फ़ैसला करे, तो उनमें से एक फ़रीक़ इससे पहलू-तही करता है और इस फ़ैसले की तरफ़ आने से मुँह फेर जाता है।
فَنَادَتۡهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُوَ قَآئِمٞ يُصَلِّي فِي ٱلۡمِحۡرَابِ أَنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحۡيَىٰ مُصَدِّقَۢا بِكَلِمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَسَيِّدٗا وَحَصُورٗا وَنَبِيّٗا مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ 28
(39) जवाब में फ़रिश्तों ने आवाज़ दी, जबकि वह मेहराब में खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था, कि “अल्लाह तुझे यहया की ख़ुशख़बरी देता है। वह अल्लाह की तरफ़ से एक फ़रमान9 की तसदीक़ करनेवाला बनकर आएगा। उसमें सरदारी व बुजुर्गी की शान होगी। कमाल दर्जे का ज़ाबिता होगा। नुबूवत से सरफ़राज़ होगा और सॉलिहीन में शुमार किया जाएगा।”
9. अल्लाह के 'फ़रमान' से मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) हैं। चूँकि उनकी पैदाइश अल्लाह तआला के एक ग़ैर-मामूली फ़रमान से ख़रके-आदत के तौर पर हुई थी, इसलिए उनको क़ुरआन मजीद में कलि-मतुम-मिनल्लाह' कहा गया है।
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَقَدۡ بَلَغَنِيَ ٱلۡكِبَرُ وَٱمۡرَأَتِي عَاقِرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكَ ٱللَّهُ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ 31
(40) ज़करिया ने कहा, “परवरदिगार! भला मेरे यहाँ लड़का कहाँ से होगा? मैं तो बहुत बूढ़ा हो चुका हूँ और मेरी बीवी बाँझ है।” जवाब मिला, “ऐसा ही होगा,10 अल्लाह जो चाहता है करता है।”
10. यानी तेरे बुढ़ापे और तेरी बीवी के बाँझपन के बावजूद अल्लाह तुझे बेटा देगा।
قَالَ رَبِّ ٱجۡعَل لِّيٓ ءَايَةٗۖ قَالَ ءَايَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ ٱلنَّاسَ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٍ إِلَّا رَمۡزٗاۗ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ كَثِيرٗا وَسَبِّحۡ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ 34
(41) अर्ज़ किया," मालिक! फिर कोई निशानी मेरे लिए मुक़र्रर फ़रमा दे।” कहा, “निशानी यह है कि तुम तीन दिन तक लोगों से इशारे के सिवा कोई बातचीत न करोगे (या न कर सकोगे)। इस दौरान में अपने रब को बहुत याद करना और सुबह व शाम उसकी तसबीह करते रहना।”
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰٓ ءَادَمَ وَنُوحٗا وَءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ وَءَالَ عِمۡرَٰنَ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ 35
(33) अल्लाह ने आदम और नूह और आले-इबराहीम और आले-इमरान7 को तमाम दुनियावालों पर तरजीह देकर (अपनी रिसालत के लिए) मुंतख़ब किया था।
7. इमरान हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत हारून (अलैहि०) के वालिद का नाम था, जिसे बाइबल में 'अमराम' लिखा गया है।
إِذۡ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ عِمۡرَٰنَ رَبِّ إِنِّي نَذَرۡتُ لَكَ مَا فِي بَطۡنِي مُحَرَّرٗا فَتَقَبَّلۡ مِنِّيٓۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ 37
(35) (वह उस वक़्त सुन रहा था) जब इमरान की औरत8 कह रही थी कि “मेरे परवरदिगार! मैं इस बच्चे को जो मेरे पेट में है तेरी नज़्र करती हूँ, वह तेरे ही काम के लिए वक़्फ़ होगा। मेरी इस पेशकश को क़ुबूल फ़रमा। तू सुनने और जाननेवाला है।
8. अगर ‘इमरान की औरत से' मुराद इमरान की बीवी ली जाए तो उसके मानी ये होंगे कि ये वे इमरान नहीं हैं जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ है, बल्कि ये हज़रत मरयन के वालिद थे, जिनका नाम शायद इमरान होगा। और अगर इमरान की औरत से मुराद आले-इमरान की औरत ली जाए तो इसके मानी ये होंगे कि हज़रत मरयम की वालिदा इस क़बीले से थीं।
۞فَلَمَّآ أَحَسَّ عِيسَىٰ مِنۡهُمُ ٱلۡكُفۡرَ قَالَ مَنۡ أَنصَارِيٓ إِلَى ٱللَّهِۖ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ نَحۡنُ أَنصَارُ ٱللَّهِ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ 38
(52) जब ईसा ने महसूस किया कि बनी-इसराईल कुफ़्र व इनकार पर आमादा हैं तो उसने कहा, “कौन अल्लाह की राह में मेरा मददगार होता है?” हवारियों14 ने जवाब दिया, “हम अल्लाह के मददगार है,15 हम अल्लाह परईमान लाए, आप गवाह रहें कि हम मुस्लिम (अल्लाह के आगे सरे-इताअत झुका देनेवाले) हैं।
14. 'हवारी' का लफ़्ज़ क़रीब-क़रीब वही मानी रखता है जो हमारे यहाँ 'अनसार' का मफ़हूम है।
15. यानी अल्लाह के काम में आपके मददगार हैं।
فَلَمَّا وَضَعَتۡهَا قَالَتۡ رَبِّ إِنِّي وَضَعۡتُهَآ أُنثَىٰ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا وَضَعَتۡ وَلَيۡسَ ٱلذَّكَرُ كَٱلۡأُنثَىٰۖ وَإِنِّي سَمَّيۡتُهَا مَرۡيَمَ وَإِنِّيٓ أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ 39
(36) फिर जब वह बच्ची उसके यहाँ पैदा हुई तो उसने कहा, “मालिक! मेरे यहाँ तो लड़की पैदा हो गई है।— हालाँकि जो कुछ उसने जना था, अल्लाह को उसकी ख़बर थी— और लड़का लड़की की तरह नहीं होता। ख़ैर, मैंने उसका नाम मरयम रख दिया है और मैं उसे और उसकी आइन्दा नस्ल को शैतान मरदूद के फ़ितने से तेरी पनाह में देती हूँ।"
فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُولٍ حَسَنٖ وَأَنۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنٗا وَكَفَّلَهَا زَكَرِيَّاۖ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيۡهَا زَكَرِيَّا ٱلۡمِحۡرَابَ وَجَدَ عِندَهَا رِزۡقٗاۖ قَالَ يَٰمَرۡيَمُ أَنَّىٰ لَكِ هَٰذَاۖ قَالَتۡ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٍ 42
(37) आख़िरकार उसके रब ने उस लड़की को बख़ुशी क़ुबूल फ़रमा लिया, उसे बड़ी अच्छी लड़की बनाकर उठाया और ज़करिया को उसका सरपरस्त बना दिया।
ज़करिया जब कभी उसके पास मेहराब में जाता तो उसके पास कुछ-न-कुछ खाने-पीने का सामान पाता। पूछता, “मरयम! यह तेरे पास कहाँ से आया?” वह जवाब देती, “अल्लाह के पास से आया है, अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब रिज़्क़ देता है।”
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۚ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يُلۡقُونَ أَقۡلَٰمَهُمۡ أَيُّهُمۡ يَكۡفُلُ مَرۡيَمَ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يَخۡتَصِمُونَ 46
(44) (ऐ नबी!) ये ग़ैब की ख़बरें हैं जो हम तुमको वह्य के ज़रिए से बता रहे हैं, वरना तुम उस वक़्त वहाँ मौजूद न थे जब हैकल के ख़ादिम यह फ़ैसला करने के लिए कि मरयम का सरपरस्त कौन हो अपने-अपने क़लम फेंक रहे थे,11 और न तुम उस वक़्त हाज़िर थे जब उनके दरमियान झगड़ा बरपा था।
यानी कुरआ-अन्दाज़ी कर रहे थे।
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَىٰٓ إِنِّي مُتَوَفِّيكَ وَرَافِعُكَ إِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَجَاعِلُ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوكَ فَوۡقَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ ثُمَّ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ 47
(55) (वह अल्लाह की ख़ुफ़िया तदबीर ही थी) जब उसने कहा कि “ऐ ईसा! अब मैं तुझे वापस ले लूँगा16 और तुझको अपनी तरफ़ उठा लूँगा और जिन्होंने तेरा इनकार किया है उनसे (यानी उनकी मईयत से और उनके गन्दे माहौल में उनके साथ रहने से) तुझे पाक कर दूँगा और तेरी पैरवी करनेवालों को क़ियामत तक उन लोगों पर बालादस्त रखूँगा जिन्होंने तेरा इनकार किया है। फिर तुम सबको आख़िरकार मेरे पास आना है, उस वक़्त मैं उन बातों का फ़ैसला कर दूँगा जिनमें तुम्हारे दरमियान इख़्तिलाफ़ हुआ है।
16. अस्ल में लफ़्ज़ ‘मुतवफ़्फ़ी-क' इस्तेमाल हुआ है। ‘तवफ़्फ़ी' के अस्ल मानी लेने और वुसूल करने के हैं। ‘रूह क़ब्ज़ करना' इस लफ़्ज़ का मजाज़ी इस्तेमाल है न कि अस्ल लुग़वी मानी।
إِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٖ مِّنۡهُ ٱسۡمُهُ ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ وَجِيهٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ 48
(45) और जब फ़रिश्तों ने कहा, "ऐ मरयम! अल्लाह तुझे अपने एक फ़रमान की ख़ुशख़बरी देता है। उसका नाम मसीह ईसा इब्ने-मरयम होगा, दुनिया और आख़िरत में मुअज़्ज़ज़ होगा, अल्लाह के मुक़र्रब बन्दों में शुमार किया जाएगा,
قَالَتۡ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي وَلَدٞ وَلَمۡ يَمۡسَسۡنِي بَشَرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكِ ٱللَّهُ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ إِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ 52
(47) यह सुनकर मरयम बोली, “परवरदिगार! मेरे यहाँ बच्चा कहाँ से होगा, मुझे तो किसी मर्द ने हाथ तक नहीं लगाया।” अल्लाह जो चाहता है पैदा करता है। वह जवाब मिला, “ऐसा ही होगा12, वह जब किसी काम के करने का फ़ैसला फ़रमाता है तो बस कहता है कि हो जा और वह हो जाता है।”
12. यानी बावजूद इसके कि किसी मर्द ने तुझे हाथ नहीं लगाया, तेरे यहाँ बच्चा पैदा होगा।
إِنَّ مَثَلَ عِيسَىٰ عِندَ ٱللَّهِ كَمَثَلِ ءَادَمَۖ خَلَقَهُۥ مِن تُرَابٖ ثُمَّ قَالَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ 56
(59) अल्लाह के नज़दीक ईसा की मिसाल आदम की-सी है कि अल्लाह ने उसे मिट्टी से पैदा किया और हुक्म दिया कि हो जा और वह हो गया।17
17. यानी अगर मह्ज़ बेबाप पैदा होना ही किसी को ख़ुदा या ख़ुदा का बेटा बनाने के लिए काफ़ी दलील हो तब तो फिर ईसाइयों को आदम (अलैहि०) के मुताल्लिक़ बदर्जए-औला ऐसा अक़ीदा तजवीज़ करना चाहिए था,क्योंकि मसीह (अलैहि०) तो सिर्फ़ बेबाप ही के पैदा हुए थे, मगर आदम (अलैहि०) माँ और बाप दोनों के बग़ैर पैदा हुए।
وَرَسُولًا إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنِّي قَدۡ جِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ أَنِّيٓ أَخۡلُقُ لَكُم مِّنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ فَأَنفُخُ فِيهِ فَيَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ وَأُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُنَبِّئُكُم بِمَا تَأۡكُلُونَ وَمَا تَدَّخِرُونَ فِي بُيُوتِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ 58
(49) और बनी-इसराईल की तरफ़ अपना रसूल मुक़र्रर करेगा।”
(और जब वह बहैसियते-रसूल बनी-इसराईल के पास आया तो उसने कहा,) “मैं तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ। मैं तुम्हारे सामने मिट्टी से परिन्दे की सूरत का एक मुजस्समा बनाता हूँ और उसमें फूँक मारता हूँ, वह अल्लाह के हुक्म से परिन्दा बन जाता है। मैं अल्लाह के हुक्म से मादरज़ाद अन्धे और कोढ़ी को अच्छा करता हूँ और उसके इज़्न से मुर्दे को ज़िन्दा करता हूँ। मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम क्या खाते हो और क्या अपने घरों में ज़ख़ीरा करके रखते हो। इसमें तुम्हारे लिए काफ़ी निशानी है। अगर तुम ईमान लानेवाले हो।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ 60
(70) अहले-किताब! क्यों अल्लाह की आयात का इनकार करते हो हालाँकि ख़ुद उनका मुशाहदा कर रहे हो।19
19. दूसरा तर्जमा इस फ़िक़रे का यह भी हो सकता है कि 'तुम ख़ुद भी गवाही देते हो'। दोनों सूरतों में नफ़्से-मानी पर कोई असर नहीं पड़ता। दरअस्ल नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पाकीज़ा ज़िन्दगी और सहाबा किराम की ज़िन्दगियों पर आप (सल्ल०) की तालीम व तरबियत के हैरतअंगेज़ असरात, और वे बलन्द पाया मज़ामीन जो क़ुरआन में इरशाद हो रहे थे, ये सारी चीज़ें अल्लाह तआला की ऐसी रौशन आयात थीं कि जो शख़्स अम्बिया के अहवाल और कुतुबे-आसमानी के तर्ज़ से वाक़िफ़ हो उसके लिए इन आयात को देखकर आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नुबूवत पर शक करना मुशकिल था।
وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيَّ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي حُرِّمَ عَلَيۡكُمۡۚ وَجِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ 62
(50) और मैं उस तालीम व हिदायत की तसदीक़ करनेवाला बनकर आया हूँ जो तौरात में से इस वक़्त मेरे ज़माने में मौजूद है। और इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे लिए बाज़ उन चीज़ों को हलाल कर दूँ जो तुमपर हराम कर दी गई हैं।13 देखो, मैं तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ, लिहाज़ा अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
13. यानी तुम्हारे जुहला के तवह्हुमात, तुम्हारे फ़क़ीहों की क़ानूनी मूशिगाफ़ियों, तुम्हारे रहबानियत-पसन्द लोगों के तशद्दुदात और ग़ैर-मुस्लिम क़ौमों के ग़लबे व तसल्लुत की बदौलत तुम्हारे यहाँ अस्ल शरीअते-इलाही पर जिन क़ुयूद का इज़ाफ़ा हो गया है, मैं उनको मंसूख़ करूँगा और तुम्हारे लिए वही चीज़ें हलाल और वही हराम क़रार दूँगा जिन्हें अल्लाह ने हलाल या हराम किया है।
وَلَا تُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّا لِمَن تَبِعَ دِينَكُمۡ قُلۡ إِنَّ ٱلۡهُدَىٰ هُدَى ٱللَّهِ أَن يُؤۡتَىٰٓ أَحَدٞ مِّثۡلَ مَآ أُوتِيتُمۡ أَوۡ يُحَآجُّوكُمۡ عِندَ رَبِّكُمۡۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ 68
(73) नीज़ ये लोग आपस में कहते हैं कि अपने मज़हबवाले के सिवा किसी की बात न मानो !) ऐ नबी, इनसे कह दो कि “अस्ल में हिदायत तो अल्लाह की हिदायत है और यह उसी की देन है कि किसी को वही कुछ दे दिया जाए जो कभी तुमको दिया गया था। या यह कि दूसरों को तुम्हारे रब के पेश करने के लिए तुम्हारे ख़िलाफ़ क़वी हुज्जत मिल जाए।” (ऐनबी !) उनसे कहो कि “फ़ज़्ल व शरफ़ अल्लाह के इख़्तियार में है, जिसे चाहे अता फ़रमाए। वह वसीउन्नज़र है20 और सब कुछ जानता है, अपनी रहमत के लिए जिसको चाहता है मख़सूस कर लेता है और उसका फ़ज़्ल बहुत बड़ा है।
20. अस्ल में लफ़्ज़ 'वासिउन' इस्तेमाल हुआ है जो बिल-उमूम क़ुरआन में तीन मवाक़े पर आया करता है। एक वह मौक़ा जहाँ इनसानों के किसी गरोह की तंग-ख़याली व तंग-नज़री का ज़िक्र आता है और उसे इस हक़ीक़त पर मुतनब्बह करने की ज़रूरत पेश आती है कि अल्लाह तुम्हारी तरह तंगनज़र नहीं है। दूसरा वह मौक़ा जहाँ किसी के बुख़्ल और तंगदिली और कम-हौसलगी पर मलामत करते हुए यह बताना होता है कि अल्लाह फ़राख़-दस्त है, तुम्हारी तरह बख़ील नहीं है। तीसरा वह मौक़ा जहाँ लोग अपने तख़ैयुल की तंगी के सबब से अल्लाह की तरफ़ किसी क़िस्म की महदूदियत मंसूब करते हैं और उन्हें यह बताना होता है कि अल्लाह ग़ैर-महदूद है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ كَلِمَةٖ سَوَآءِۭ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ أَلَّا نَعۡبُدَ إِلَّا ٱللَّهَ وَلَا نُشۡرِكَ بِهِۦ شَيۡـٔٗا وَلَا يَتَّخِذَ بَعۡضُنَا بَعۡضًا أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُولُواْ ٱشۡهَدُواْ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ 69
(64) (ऐ नबी!) कहो, “ऐ अहले-किताब! आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान यकसाँ है। यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएँ, और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न बनाले।” इस दावत को क़ुबूल करने से अगर वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (सिर्फ़ ख़ुदा की बन्दगी व इताअत करनेवाले) हैं।
۞وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مَنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِقِنطَارٖ يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِدِينَارٖ لَّا يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ إِلَّا مَا دُمۡتَ عَلَيۡهِ قَآئِمٗاۗ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَيۡسَ عَلَيۡنَا فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ سَبِيلٞ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ 73
(75) अहले-किताब में कोई तो ऐसा है कि अगर तुम उसके एतिमाद पर माल व दौलत का एक ढेर भी दे दो तो वह तुम्हारा माल तुम्हें अदा कर देगा, और किसी का हाल यह है कि अगर तुम एक दीनार के मामले में भी उसपर भरोसा करो तो वह अदा न करेगा, इल्ला यह कि तुम उसके सिर पर सवार हो जाओ। उनकी इस अख़लाक़ी हालत का सबब यह है कि वे कहते “उम्मियों (ग़ैर-यहूदी लोगों) के मामले में हमपर कोई मुआख़ज़ा नहीं है। और यह बात मह्ज़ झूठ गढ़कर अल्लाह की तरफ़ मंसूब करते है, हालाँकि उन्हें मालूम है (कि अल्लाह ने ऐसी कोई बात नहीं फ़रमाई है)।
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ لَمَآ ءَاتَيۡتُكُم مِّن كِتَٰبٖ وَحِكۡمَةٖ ثُمَّ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مُّصَدِّقٞ لِّمَا مَعَكُمۡ لَتُؤۡمِنُنَّ بِهِۦ وَلَتَنصُرُنَّهُۥۚ قَالَ ءَأَقۡرَرۡتُمۡ وَأَخَذۡتُمۡ عَلَىٰ ذَٰلِكُمۡ إِصۡرِيۖ قَالُوٓاْ أَقۡرَرۡنَاۚ قَالَ فَٱشۡهَدُواْ وَأَنَا۠ مَعَكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ 74
(81) याद करो, अल्लाह ने पैग़म्बरों से अहद लिया था कि “आज मैंने तुम्हें किताब और हिकमत व दानिश से नवाज़ा है, कल अगर कोई दूसरा रसूल तुम्हारे पास उसी तालीम की तसदीक़ करता हुआ आए जो पहले से तुम्हारे पास मौजूद है, तो तुमको उसपर ईमान लाना होगा और उसकी मदद करनी होगी।21” यह इरशाद फ़रमाकर अल्लाह ने पूछा, “ क्या तुम इसका इक़रार करते हो और इसपर मेरी तरफ़ से अह्द की भारी ज़िम्मेदारी उठाते हो?” उन्होंने कहा, “हाँ, हम इक़रार करते हैं।” अल्लाह ने फ़रमाया, “अच्छा तो गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाह हूँ,
21. मतलब यह कि हर पैग़म्बर से इस अम्र का अह्द लिया जाता रहा है। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पहले हर नबी से यही अह्द लिया जाता रहा है और इसी बिना पर हर नबी ने अपनी उम्मत को बाद के आनेवाले नबी की ख़बर दी है और उसका साथ देने की हिदायत की है। लेकिन न क़ुरआन में न हदीस में, कहीं भी इस अम्र का पता नहीं चलता कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कोई ऐसा अह्द लिया गया हो या आप (सल्ल०) ने अपनी उम्मत को किसी बाद के आनेवाले नबी की ख़बर देकर उसपर ईमानलाने की हिदायत फ़रमाई हो, बल्कि क़ुरआन में सराहत के साथ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को ख़ातिमुन्नबियीन फ़रमाया गया है, और ब-कसरत अहादीस में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है कि आप (सल्ल०) के बाद कोई नबी आनेवाला नहीं है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَشۡتَرُونَ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ وَأَيۡمَٰنِهِمۡ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ لَا خَلَٰقَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيۡهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 78
(77) रहे वे लोग जो अल्लाह के अह्द और अपनी क़सम को थोड़ी क़ीमत पर बेच डालते हैं, तो उनके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह क़ियामत के रोज़ न उनसे बात करेगा न उनकी तरफ़ देखेगा, और न उन्हें पाक करेगा, बल्कि उनके लिए तो सख़्त दर्दनाक सज़ा है।
مَا كَانَ إِبۡرَٰهِيمُ يَهُودِيّٗا وَلَا نَصۡرَانِيّٗا وَلَٰكِن كَانَ حَنِيفٗا مُّسۡلِمٗا وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ 80
(67) इबराहीम न यहूदी था न ईसाई, बल्कि वह तो एक मुस्लिमे-यकसू था18 और वह हरगिज़ मुशरिकों में से न था।
18. अस्ल में लफ़्ज़ ‘हनीफ़' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद ऐसा शख़्स है जो हर तरफ़ से रुख़ फेरकर एक ख़ास रास्ते पर चले। इसी मफ़हूम को हमने 'मुस्लिमे-यकसू' से अदा किया है।
وَإِنَّ مِنۡهُمۡ لَفَرِيقٗا يَلۡوُۥنَ أَلۡسِنَتَهُم بِٱلۡكِتَٰبِ لِتَحۡسَبُوهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمَا هُوَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَمَا هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ 81
(78) उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो किताब पढ़ते हुए इस तरह ज़बान का उलट-फेर करते हैं कि तुम समझो जो कुछ वे पढ़ रहे हैं वह किताब ही की इबारत है, हालाँकि वह किताब की इबारत नहीं होती वे कहते हैं कि यह जी कुछ हम पढ़ रहे हैं यह ख़ुदा की तरफ़ से है, हालाँकि वह ख़ुदा की तरफ़ से नहीं होता, वे जान-बूझकर झूठ बात अल्लाह की तरफ़ मंसूब कर देते हैं।
قُلۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ 82
(84) (ऐ नबी!) कहो कि “हम अल्लाह को मानते हैं, उस तालीम को मानते हैं जो हमपर नाज़िल की गई है, उन तालीमात को भी मानते हैं जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और औलादे-याक़ूब पर नाज़िल हुई थीं, और उन हिदायात पर भी ईमान रखते हैं जो मूसा और ईसा और दूसरे पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गईं। हम उनके दरमियान फ़र्क़ नहीं करते और हम अल्लाह के ताबे-फ़रमान (मुस्लिम) हैं।”
كُلُّ ٱلطَّعَامِ كَانَ حِلّٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِلَّا مَا حَرَّمَ إِسۡرَٰٓءِيلُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ مِن قَبۡلِ أَن تُنَزَّلَ ٱلتَّوۡرَىٰةُۚ قُلۡ فَأۡتُواْ بِٱلتَّوۡرَىٰةِ فَٱتۡلُوهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ 86
(93) खाने की ये सारी चीज़ें (जो शरीअते-मुहम्मदी में हलाल हैं) बनी-इसराईल के लिए भी हलाल थीं,23 अलबत्ता बाज़ चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के नाज़िल किए जाने से पहले इसराईल (हज़रत याकूब अलैहि०) ने ख़ुद अपने ऊपर हराम कर लिया था। उनसे कहो, “अगर तुम (अपने एतिराज़ में) सच्चे हो तो लाओ तौरात और पेश करो उसकी कोई इबारत।”
23. क़ुरआन और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तालीमात पर जब उलमा-ए-यहूद कोई उसूली एतिराज़ न कर सके (क्योंकि असासे-दीन जिन उमूर पर है उनमें अंबियए-साबिक़ीन की तालीमात और नबी-ए-अरबी सल्लo की तालीम में यक सरे-मू फ़र्क़ न था) तो उन्होंने फ़िक़ही एतिराज़ात शुरू किए। इस सिलसिले में उनका पहला एतिराज़ यह था कि आपने खाने-पीने की बाज़ ऐसी चीज़ों को हलाल क़रार दिया है जो पिछले अम्बिया के ज़माने से हराम चली आ रही हैं। इसी एतिराज़ का यहाँ जवाब दिया जा रहा है। इसी तरह एक एतिराज़ उनका यह भी था कि बैतुल-मक़दिस को छोड़कर ख़ाना-ए-काबा को क़िबला क्यों बनाया गया। बाद की आयात इसी एतिराज़ के जवाब में हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّن تُقۡبَلَ تَوۡبَتُهُمۡ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلضَّآلُّونَ 94
(90) मगर जिन लोगों ने ईमान लाने के बाद कुफ़्र इख़्तियार किया, फिर अपने कुफ़्र में बढ़ते चले गए22”उनकी तौबा हरगिज़ क़ुबूल न होगी, ऐसे लोग तो पक्के गुमराह हैं।
22. यानी सिर्फ़ इनकार ही पर बस न किया, बल्कि अमलन मुख़ालफ़त व मुज़ाहमत भी की, लोगों को ख़ुदा के रास्ते से रोकने की कोशिश में एड़ी-चोटी तक का ज़ोर लगाया, शुबहात पैदा किए, बदगुमानियाँ फैलाईं, दिलों में वसवसे डाले और बदतरीन साज़िशें और रेशादवानियाँ की, ताकि नबी का मिशन किसी तरह कामयाब न होने पाए।
فِيهِ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ مَّقَامُ إِبۡرَٰهِيمَۖ وَمَن دَخَلَهُۥ كَانَ ءَامِنٗاۗ وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ مَنِ ٱسۡتَطَاعَ إِلَيۡهِ سَبِيلٗاۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ 96
(97) उसमें खुली हुई निशानियाँ हैं,24 इबराहीम का मक़ामे-इबादत है, और उसका हाल यह है कि जो उसमें दाख़िल हुआ मामून हो गया। लोगों पर अल्लाह का यह हक़ है कि जो इस घर तक पहुँचने की इस्तिताअत रखता हो वह इसका हज करे, और जो कोई इस हुक्म की पैरवी से इनकार करे तो उसे मालूम हो जाना चाहिए कि अल्लाह तमाम दुनियावालों से बेनियाज़ है।
24. यानी इस घर में ऐसी सरीह अलामात पाई जाती हैं जिनसे साबित होता है कि यह अल्लाह की जनाब में मक़बूल हुआ है और इसे अल्लाह ने अपने घर की हैसियत से पसन्द फ़रमा लिया है। लक़ो-दक़ बयाबान में बनाया गया और फिर अल्लाह ने इसके जवार में रहनेवालों की रिज़्क़-रसानी का बेहतर-से-बेहतर इन्तिज़ाम कर दिया। ढाई हज़ार बरस तक जाहिलियत के सबब से सारा मुल्के-अरब इन्तिहाई बदअम्नी की हालत में मुब्तला रहा, मगर इस फ़साद-भरी सरज़मीन में काबा और अतराफ़े-काबा ही का एक ख़ित्ता ऐसा था जिसमें अम्न कायम रहा, बल्कि इसी काबा की यह बरकत थी कि साल-भर में चार महीने के लिए पूरे मुल्क को इसकी बदौलत अम्न मुयस्सर आ जाता था। फिर अभी निस्फ़ सदी पहले ही सब देख चुके थे कि अबरहा ने जब काबा की तख़रीब के लिए मक्का पर हमला किया तो उसकी फ़ौज किस तरह क़हरे-इलाही की शिकार हुई। इस वाक़िए से उस वक्त अरब का बच्चा-बच्चा वाक़िफ़ था और उसके चश्मदीद शाहिद इन आयात के नुक़ूल के वक्त मौजूद थे।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ تَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَأَنتُمۡ شُهَدَآءُۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ 102
(99) कहो, “अहले-किताब! यह तुम्हारी क्या रविश है कि जो अल्लाह की बात मानता है उसे भी तुम अल्लाह के रास्ते से रोकते हो और चाहते हो कि वह टेढी राह चले, हालाँकि तुम ख़ुद (इसके राहे-रास्त होने पर) गवाह हो। तुम्हारी हरकतों से अल्लाह ग़ाफ़िल नहीं है।
كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِۗ وَلَوۡ ءَامَنَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۚ مِّنۡهُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ 106
(110) अब दुनिया में वह बेहतरीन गरोह तुम हो जिसे इनसानों की हिदायत व इस्लाह के लिए मैदान में लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो, बदी से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो। ये अहले–किताब26 ईमान लाते तो इन्हीं के हक़ में बेहतर था। अगरचे इनमें कुछ लोग ईमानदार भी पाए जाते हैं, मगर इनके बेशतर अफ़राद नाफ़रमान हैं।
26. यहाँ अहले-किताब से मुराद यहूदी हैं।
هَٰٓأَنتُمۡ أُوْلَآءِ تُحِبُّونَهُمۡ وَلَا يُحِبُّونَكُمۡ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ كُلِّهِۦ وَإِذَا لَقُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ عَضُّواْ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَنَامِلَ مِنَ ٱلۡغَيۡظِۚ قُلۡ مُوتُواْ بِغَيۡظِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ 107
(119) तुम उनसे मुहब्बत रखते हो मगर वे तुमसे मुहब्बत नहीं रखते, हालाँकि तुम तमाम कुतुबे-आसमानी को मानते हो। जब वे तुमसे मिलते हैं तो कहते हैं कि “हमने भी (तुम्हारे रसूल और तुम्हारी किताब को) मान लिया है”, मगर जब जुदा होते हैं तो तुम्हारे ख़िलाफ़ उनके ग़ैज़ो-ग़ज़ब का यह हाल होता है कि अपनी उंगलियाँ चबाने लगते हैं। उनसे कह दो कि “अपने ग़ुस्से में आप जल मरो, अल्लाह दिलों के छिपे हुए राज़ तक जानता है।”
إِن تَمۡسَسۡكُمۡ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡ وَإِن تُصِبۡكُمۡ سَيِّئَةٞ يَفۡرَحُواْ بِهَاۖ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ لَا يَضُرُّكُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـًٔاۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ 110
(120)—तुम्हारा भला होता है तो इनको बुरा मालूम होता है, मुसीबत आती है तो ये ख़ुश होते हैं। मगर इनकी कोई तदबीर तुम्हारे ख़िलाफ़ कारगर नहीं हो सकती, बशर्ते कि तुम सब्र से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो। जो कुछ ये कर रहे है अल्लाह उसपर और तुमपर हावी है।
وَٱعۡتَصِمُواْ بِحَبۡلِ ٱللَّهِ جَمِيعٗا وَلَا تَفَرَّقُواْۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ كُنتُمۡ أَعۡدَآءٗ فَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِكُمۡ فَأَصۡبَحۡتُم بِنِعۡمَتِهِۦٓ إِخۡوَٰنٗا وَكُنتُمۡ عَلَىٰ شَفَا حُفۡرَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ فَأَنقَذَكُم مِّنۡهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ 111
(103) सब मिलकर अल्लाह की रस्सी25 को मज़बूत पकड़ लो और किसी तफ़रिक़े में न पड़ो। अल्लाह के उस एहसान को याद रखो जो उसने तुमपर किया है। तुम एक-दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे दिल जोड़ दिए और उसके फ़ज़्लो-करम से तुम भाई-भाई बन गए। तुम आग से भरे हुए एक गढ़े के किनारे खड़े थे, अल्लाह ने तुमको उससे बचा लिया। इस तरह अल्लाह अपनी निशानियाँ तुम्हारे सामने रौशन करता है, शायद कि इन अलामतों से तुम्हें अपनी फ़लाह का सीधा रास्ता नज़र आ जाए।
25. 'अल्लाह की रस्सी' से मुराद उसका दीन है, और उसको रस्सी से इसलिए ताबीर किया गया है कि यही वह रिश्ता है जो एक तरफ़ अहले-ईमान का ताल्लुक़ अल्लाह से क़ायम करता है और दूसरी तरफ़ तमाम ईमान लानेवालों को बाहम मिलाकर एक जमाअत बनाता है।
ضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ أَيۡنَ مَا ثُقِفُوٓاْ إِلَّا بِحَبۡلٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَحَبۡلٖ مِّنَ ٱلنَّاسِ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَسۡكَنَةُۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ 112
(112) ये जहाँ भी पाए गए इनपर ज़िल्लत की मार ही पड़ी, कहीं अल्लाह के ज़िम्मे या इनसानों के ज़िम्मे में पनाह मिल गई तो यह और बात है।27 ये अल्लाह के ग़ज़ब में घिर चुके हैं, इनपर मुहताजी व मग़लूबी मुसल्लत कर दी गई है, और यह सब कुछ इसी वजह से हुआ है कि ये अल्लाह की आयात से कुफ़्र करते रहे और उन्होंने पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल किया। यह उनकी नाफ़रमानियों और ज़्यादतियों का अंजाम है।
27. यानी दुनिया में अगर कहीं उनको थोड़ा-बहुत अम्न-चैन नसीब हुआ भी है तो वह उनके अपने बल-बूते पर क़ायम किया हुआ अम्न-चैन नहीं है, बल्कि दूसरों की हिमायत और मेहरबानी का नतीजा है। कहीं किसी मुस्लिम हुकूमत ने उनको ख़ुदा के नाम पर अमान दे दी, और कहीं किसी ग़ैर-मुस्लिम हुकूमत ने अपने तौर पर उन्हें अपनी हिमायत में ले लिया। इसी तरह बसा-औक़ात उन्हें दुनिया में कहीं ज़ोर पकड़ने का मौक़ा भी मिल गया है, लेकिन वह भी अपने ज़ोरे-बाज़ू से नहीं बल्कि मह्ज़ 'बपाए-मरवी हमसाया'। यही हैसियत उस यहूदी रियासत की है जो इसराईल के नाम से मह्ज़ अमेरिका, बरतानिया और रूस की हिमायत से क़ायम हुई।
يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ 121
(114) अल्लाह और रोज़े-आख़िरत पर ईमान रखते हैं, नेकी का हुक्म देते हैं, बुराइयों से रोकते हैं और भलाई के कामों में सरगर्म हते हैं। ये सॉलेह लोग हैं,
إِن يَمۡسَسۡكُمۡ قَرۡحٞ فَقَدۡ مَسَّ ٱلۡقَوۡمَ قَرۡحٞ مِّثۡلُهُۥۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيۡنَ ٱلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَتَّخِذَ مِنكُمۡ شُهَدَآءَۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ 128
(140) इस वक़्त अगर तुम्हें चोट लगी है तो इससे पहले ऐसी ही चोट तुम्हारे मुख़ालिफ़ फ़रीक़ को भी लग चुकी है।29” यह तो ज़माने के नशेबो-फ़राज़ हैं जिन्हें हम लोगों के दरमियान गरदिश देते रहते हैं। तुमपर यह वक़्त इसलिए लाया गया कि अल्लाह देखना चाहता था कि तुममें सच्चे मोमिन कौन हैं, और उन लोगों को छाँट लेना चाहता था जो वाक़ई (रास्ती के) गवाह हों।30 — क्योंकि ज़ालिम लोग अल्लाह को पसन्द नहीं हैं!
29. इशारा है जंगे-बद्र की तरफ़। और कहने का मतलब यह है कि जब उस चोट को खाकर काफ़िर पस्त हिम्मत न हुए तो जंगे-उहुद में यह चोट खाकर तुम क्यों दिल शिकस्ता हो?
30. अस्ल अलफ़ाज़ हैं ‘व-यत-तख़ि-ज़ मिनकुम शु-हदा'। इसका एक मतलब तो यह है कि तुममें से कुछ शहीद लेना चाहता था, यानी कुछ लोगों को शहादत की इज़्ज़त बख़्शना चाहता था। और दूसरा मतलब यह है कि अहले-ईमान और मुनाफ़िक़ीन के उस मख़लूत गरोह में से जिसपर तुम इस वक़्त मुश्तमिल हो, उन लोगों को अलग छाँट लेना चाहता था जो हक़ीक़त में 'शु-हदा-अ-अलन्नास हैं यानी उस मनसबे-जलील के अहल है जिसपर हमने उम्मते-मुस्लिमा को सरफ़राज़ किया है।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 131
(129) ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसका मालिक अल्लाह है, जिसको चाहे बख़्श दे और जिसको चाहे अज़ाब दे, वह माफ़ करनेवाला और रहीम है128
28. जंगे-उहुद में जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ज़ख़्मी हुए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुँह से कुफ़्फ़ार के हक़ में बद्दुआ निकल गई और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि “वह क़ौम कैसे फ़लाह पा सकती है जो अपने नबी को ज़ख़्मी करे।” ये आयात इसी के बारे में इरशाद हुई हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ بِطَانَةٗ مِّن دُونِكُمۡ لَا يَأۡلُونَكُمۡ خَبَالٗا وَدُّواْ مَا عَنِتُّمۡ قَدۡ بَدَتِ ٱلۡبَغۡضَآءُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَمَا تُخۡفِي صُدُورُهُمۡ أَكۡبَرُۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ 133
(118) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अपनी जमाअत के लोगों के सिवा दूसरों को अपना राज़दार न बनाओ, वे तुम्हारी ख़राबी के किसी मौक़े फ़ायदा से उठाने से नहीं चूकते। तुम्हें जिस चीज़ से नुक़सान पहुँचे वही उनको महबूब है। उनके दिल का बुग़्ज़ उनके मुँह से निकला पड़ता है और जो कुछ वे अपने सीनों में छिपाए हुए हैं वह इससे शदीदतर है। हमने तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायात दे दी हैं, अगर तुम अक़्ल रखते हो (तो उनसे ताल्लुक रखने में एहतियात बरतोगे)।
وَمَا مُحَمَّدٌ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُۚ أَفَإِيْن مَّاتَ أَوۡ قُتِلَ ٱنقَلَبۡتُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡۚ وَمَن يَنقَلِبۡ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ فَلَن يَضُرَّ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ وَسَيَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلشَّٰكِرِينَ 139
(144) मुहम्मद इसके सिवा कुछ नहीं की बस एक रसूल हैं, उनसे पहले और रसूल भी गुज़र चुके हैं, फिर क्या अगर वे मर जाएँ या क़त्ल कर दिए जाएँ तो तुम लोग उल्टे पाँव फिर जाओगे? याद रखो! जो उलटा फिरेगा वह अल्लाह का कुछ नुक़सान न करेगा, अलबत्ता जो अल्लाह के शुक्रगुज़ार बन्दे बनकर रहेंगे उन्हें वह उसकी जज़ा देगा।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تَمُوتَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِ كِتَٰبٗا مُّؤَجَّلٗاۗ وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلۡأٓخِرَةِ نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَاۚ وَسَنَجۡزِي ٱلشَّٰكِرِينَ 141
(145) कोई ज़ी-रूह अल्लाह के इज़्न के बग़ैर नहीं मर सकता। मौत का वक्त तो लिखा हुआ है। जो शख़्स सवाबे-दुनिया के इरादे से काम करेगा, उसको हम दुनिया ही में से देंगे और जो सवाबे-आख़िरत के इरादे से काम करेगा, वह आख़िरत का सवाब पाएगा, और शुक्र करनेवालों को हम उनकी जज़ा ज़रूर अता करेंगे।
وَلَقَدۡ صَدَقَكُمُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥٓ إِذۡ تَحُسُّونَهُم بِإِذۡنِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا فَشِلۡتُمۡ وَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَعَصَيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَآ أَرَىٰكُم مَّا تُحِبُّونَۚ مِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلدُّنۡيَا وَمِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۚ ثُمَّ صَرَفَكُمۡ عَنۡهُمۡ لِيَبۡتَلِيَكُمۡۖ وَلَقَدۡ عَفَا عَنكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 142
(152) अल्लाह ने (ताईद व नुसरत का) जो वादा तुमसे किया था वह तो उसने पूरा कर दिया। इबतिदा में उसके हुक्म से तुम ही उनको क़त्ल कर रहे थे मगर जब तुमने कमज़ोरी दिखाई और अपने काम में बाहम इख़्तिलाफ़ किया, और ज्यों ही कि वह चीज़ अल्लाह ने तुम्हें दिखाई जिसकी मुहब्बत में तुम गिरिफ़्तार थे (यानी माले-ग़नीमत), तुम अपने सरदार के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर बैठे, इसलिए कि तुममें से कुछ लोग दुनिया के तालिब थे और कुछ आख़िरत की ख़ाहिश रखते थे, तब अल्लाह ने तुम्हें काफ़िरों के मुक़ाबले में पस्पा कर दिया ताकि तुम्हारी आज़माइश करे। और हक़ यह है कि अल्लाह ने फिर भी तुम्हें माफ़ ही कर दिया, क्योंकि मोमिनों पर अल्लाह बड़ी नज़रे-इनायत रखता है।
وَكَأَيِّن مِّن نَّبِيّٖ قَٰتَلَ مَعَهُۥ رِبِّيُّونَ كَثِيرٞ فَمَا وَهَنُواْ لِمَآ أَصَابَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا ٱسۡتَكَانُواْۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلصَّٰبِرِينَ 143
(146) इससे पहले कितने ही नबी ऐसे गुज़र चुके हैं, जिनके साथ मिलकर बहुत-से ख़ुदापरस्तों ने जंग की। अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उनपर पड़ीं उनसे वे दिल शिकस्ता नहीं हुए, उन्होंने कमज़ोरी नहीं दिखाई, वे (बातिल के आगे) सरनिगूँ नहीं हुए। ऐसे ही साबिरों को अल्लाह पसन्द करता है।
۞إِذۡ تُصۡعِدُونَ وَلَا تَلۡوُۥنَ عَلَىٰٓ أَحَدٖ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ فِيٓ أُخۡرَىٰكُمۡ فَأَثَٰبَكُمۡ غَمَّۢا بِغَمّٖ لِّكَيۡلَا تَحۡزَنُواْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا مَآ أَصَٰبَكُمۡۗ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ 147
(153) याद करो जब तुम भागे चले जा रहे थे, किसी की तरफ़ पलटकर देखने तक का होश तुम्हें न था, और रसूल तुम्हारे पीछे तुमको पुकार रहा था,31 उस वक़्त तुम्हारी इस रविश का बदला अल्लाह ने तुम्हें यह दिया कि तुमको रंज-पर-रंज दिए ताकि आइन्दा के लिए तुम्हें यह सबक़ मिले कि जो कुछ तुम्हारे हाथ से जाए या जो मुसीबत तुमपर नाज़िल हो उसपर मलूल न हो। अल्लाह तुम्हारे सब आमाल से बाख़बर है।
31. जंगे-उहुद में जब मुसलमानों पर अचानक दो तरफ़ से बयक वक़्त हमला हुआ और उनकी सफ़ों में अबतरी फैल गई तो कुछ लोग मदीना की तरफ़ भाग निकले और कुछ उहुद पर चढ़ गए, मगर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक इंच अपनी जगह से न हटे। दुश्मनों का चारों तरफ़ हुजूम था, दस-बारह आदमियों की मुट्ठीभर जमाअत पास रह गई थी, मगर अल्लाह का रसूल उस नाज़ुक मौक़े पर भी पहाड़ की तरह अपनी जगह जमा हुआ था और भागनेवालों को पुकार रहा था 'इलय्या इबादल्लाहि, इलय्या इबादल्लाहि, अल्लाह के बन्दो, मेरी तरफ़ आओ। अल्लाह के बन्दो मेरी तरफ़ आओ।
ثُمَّ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنۢ بَعۡدِ ٱلۡغَمِّ أَمَنَةٗ نُّعَاسٗا يَغۡشَىٰ طَآئِفَةٗ مِّنكُمۡۖ وَطَآئِفَةٞ قَدۡ أَهَمَّتۡهُمۡ أَنفُسُهُمۡ يَظُنُّونَ بِٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ ظَنَّ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِۖ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ مِن شَيۡءٖۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَمۡرَ كُلَّهُۥ لِلَّهِۗ يُخۡفُونَ فِيٓ أَنفُسِهِم مَّا لَا يُبۡدُونَ لَكَۖ يَقُولُونَ لَوۡ كَانَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٞ مَّا قُتِلۡنَا هَٰهُنَاۗ قُل لَّوۡ كُنتُمۡ فِي بُيُوتِكُمۡ لَبَرَزَ ٱلَّذِينَ كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَتۡلُ إِلَىٰ مَضَاجِعِهِمۡۖ وَلِيَبۡتَلِيَ ٱللَّهُ مَا فِي صُدُورِكُمۡ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ 150
(154) इस ग़म के बाद फिर अल्लाह ने तुममें से कुछ लोगों पर ऐसी इत्मीनान की-सी हालत तारी कर दी कि वे ऊँघने लगे।32 मगर एक दूसरा गरोह, जिसके लिए सारी अहमियत बस अपनी ज़ात ही की थी, अल्लाह के मुताल्लिक़ तरह-तरह के जाहिलाना गुमान करने लगा जो सरासर ख़िलाफ़े-हक़ थे। ये लोग अब कहते हैं कि “इस काम के चलाने में हमारा भी कोई हिस्सा है?” इनसे कहो, “(किसी का कोई हिस्सा नहीं) इस काम के सारे इख़्तियारात अल्लाह के हाथ में हैं।” दरअस्ल ये लोग अपने दिलों में जो बात छिपाए हुए हैं उसे तुमपर ज़ाहिर नहीं करते। इनका अस्ल मतलब यह है कि “अगर (क़ियादत के) इख़्तियारात में हमारा कुछ हिस्सा होता तो यहाँ हम न मारे जाते। “इनसे कह दो कि “अगर तुम अपने घरों में भी होते तो जिन लोगों की मौत लिखी हुई थी वे ख़ुद अपनी क़त्लगाहों की तरफ़ निकल आते। “और यह मामला जो पेश आया, यह तो इसलिए था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में पोशीदा है अल्लाह उसे आज़मा ले और जो खोट तुम्हारे दिलों में है उसे छाँट दे, अल्लाह दिलों का हाल ख़ूब जानता है।
32. यह एक अजीब तजरिबा था जो उस वक़्त लश्करे-इस्लाम के बाज़ लोगों को पेश आया। हज़रत अबू-तलहा (रज़ि०), जो उस जंग में शरीक थे, बयान करते हैं कि उस हालत में हमपर ऊँघ का ऐसा ग़लबा हो रहा था कि तलवारें हाथ से छूटी पड़ती थीं।
سَنُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ بِمَآ أَشۡرَكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗاۖ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلظَّٰلِمِينَ 154
(151) अन-क़रीब वह वक़्त आनेवाला है जब हम मुनकिरीने-हक़ के दिलों में रोब बिठा देंगे, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह के साथ उनको ख़ुदाई में शरीक ठहराया है जिनके शरीक होने पर अल्लाह ने कोई सनद नाज़िल नहीं की। उनका आख़िरी ठिकाना जहन्नम है, और बहुत ही बुरी है वह क़ियामगाह जो उन ज़ालिमों को नसीब होगी!
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَقَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ إِذَا ضَرَبُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ كَانُواْ غُزّٗى لَّوۡ كَانُواْ عِندَنَا مَا مَاتُواْ وَمَا قُتِلُواْ لِيَجۡعَلَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ حَسۡرَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ 156
(156) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! काफ़िरों की-सी बातें न करो जिनके अज़ीज़ व अक़ारिब अगर कभी सफ़र पर जाते हैं या जंग में शरीक होते हैं। (और वहाँ किसी हादिसे से दोचार हो जाते हैं) तो वे कहते हैं कि “अगर वे हमारे पास होते तो न मारे जाते और न क़त्ल होते।” अल्लाह इस क़िस्म की बातों को उनके दिलों में हसरत व अन्दोह का सबब बना देता है, वरना दरअस्ल मारने और जिलानेवाला तो अल्लाह ही है और तुम्हारी तमाम हरकात पर वही निगराँ है।
فَٱنقَلَبُواْ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ لَّمۡ يَمۡسَسۡهُمۡ سُوٓءٞ وَٱتَّبَعُواْ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَظِيمٍ 162
(174) आख़िरकार वह अल्लाह तआला की नेमत और फ़ज़्ल के साथ पलट आए, उनको किसी क़िस्म का ज़रर भी नहीं पहुँचा और अल्लाह की रिज़ा पर चलने का शरफ़ भी उन्हें हासिल हो गया, अल्लाह बड़ा फ़ज़्ल फ़रमानेवाला है।34
34. जंगे-उहुद से पलटते हुए अबू-सुफ़ियान मुसलमानों को चैलेंज दे गया था कि आइन्दा साल बद्र में हमारा-तुम्हारा फिर मुक़ाबला होगा। मगर जब वादे का वक़्त क़रीब आया तो उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। लिहाज़ा उसने पहलू बचाने के लिए खुफ़िया तौर पर एक शख़्स को भेजा जिसने मदीना पहुँचकर मुसलमानों में ये ख़बरें मशहूर करनी शुरू कीं कि अब के साल क़ुरैश ने बड़ी ज़बरदस्त तैयारी की है और ऐसा भारी लश्कर जमा कर रहे हैं, जिसका मुक़ाबला तमाम अरब में कोई न कर सकेगा। मुसलमान इस प्रोपगण्डे से कुछ मुतास्सिर हो गए थे। मगर जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भरे मजमे में एलान कर दिया कि अगर कोई न जाएगा तो मैं अकेला जाऊँगा, तो 15 सौ फ़िदाकार आप (सल्ल०) के साथ चलने के लिए खड़े हो गए और आप (सल्ल०) उन्हीं को लेकर बद्र तशरीफ़ ले गए। अबू-सुफ़ियान मुक़ाबले पर न आया और मुसलमानों ने आठ रोज़ तक बद्र में ठहरकर तिजारती कारोबार से माली फ़ायदा उठाया।
فَبِمَا رَحۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ وَشَاوِرۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِۖ فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَوَكِّلِينَ 163
(159) (ऐ पैग़म्बर!) यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि तुम इन लोगों के लिए नर्म मिज़ाज वाक़े हुए हो। वरना अगर कहीं तुम तुन्दख़ू और संगदिल होते तो ये सब तुम्हारे गिरदोपेश से छँट जाते। इनके क़ुसूर माफ़ कर दो, इनके हक़ में दुआ-ए-मग़फ़िरत करो, और दीन के काम में इनको भी शरीके-मश्वरा रखो। फिर जब तुम्हारा अज़्म किसी राय पर मुस्तहकम हो जाए तो अल्लाह पर भरोसा करो, अल्लाह को वे लोग पसन्द हैं जो उसी के भरोसे पर काम करते हैं।
لَقَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ بَعَثَ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ 164
(164) दर-हक़ीक़त अहले-ईमान पर तो अल्लाह ने यह बहुत बड़ा एहसान किया है कि उनके दरमियान ख़ुद उन्हीं में से एक ऐसा पैग़म्बर उठाया जो उसकी आयात उन्हें सुनाता है, उनकी ज़िन्दगियों को सँवारता है और उनको किताब और दानाई की तालीम देता है, हालाँकि इससे पहले यही लोग सरीह गुमराहियों में पड़े हुए थे।
أَوَلَمَّآ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَدۡ أَصَبۡتُم مِّثۡلَيۡهَا قُلۡتُمۡ أَنَّىٰ هَٰذَاۖ قُلۡ هُوَ مِنۡ عِندِ أَنفُسِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ 166
(165) और यह तुम्हारा क्या हाल है कि जब तुमपर मुसीबत आ पड़ी तो तुम कहने लगे यह कहाँ से आई? हालाँकि (जंगे-बद्र में) इससे दोगुनी मुसीबत तुम्हारे हाथों (फ़रीक़े-मुख़ालिफ़ पर) पड़ चुकी है। (ऐ नबी!) इनसे कहो, यह मुसीबत तुम्हारी अपनी लाई हुई है, अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।
وَلَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِۚ إِنَّهُمۡ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ يُرِيدُ ٱللَّهُ أَلَّا يَجۡعَلَ لَهُمۡ حَظّٗا فِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٌ 167
(176) (ऐ पैग़म्बर!) जो लोग आज कुफ़्र की राह में बड़ी दौड़-धूप कर रहे हैं, उनकी सरगर्मियाँ तुम्हें आज़ुर्दा न करें, ये अल्लाह का कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे। अल्लाह का इरादा यह है कि उनके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा न रखे, और बिल-आख़िर उनको सख़्त सज़ा मिलनेवाली है।
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ نَافَقُواْۚ وَقِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ قَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوِ ٱدۡفَعُواْۖ قَالُواْ لَوۡ نَعۡلَمُ قِتَالٗا لَّٱتَّبَعۡنَٰكُمۡۗ هُمۡ لِلۡكُفۡرِ يَوۡمَئِذٍ أَقۡرَبُ مِنۡهُمۡ لِلۡإِيمَٰنِۚ يَقُولُونَ بِأَفۡوَٰهِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يَكۡتُمُونَ 170
(167) और मुनाफ़िक़ कौन। वे मुनाफ़िक़ कि जब उनसे कहा गया, “आओ अल्लाह की राह में जंग करो या कम-अज़-कम (अपने शहर की) मुदाफ़अत ही करो,” तो कहने लगे, “अगर हमें इल्म होता कि आज जंग होगी तो हम ज़रूर तुम्हारे साथ चलते।” यह बात जब वे कह रहे थे उस वक़्त वे ईमान की बनिस्बत कुफ़्र से ज़्यादा क़रीब थे। वे अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं होतीं, और जो कुछ वे दिलों में छिपाते हैं अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
ٱلَّذِينَ قَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ وَقَعَدُواْ لَوۡ أَطَاعُونَا مَا قُتِلُواْۗ قُلۡ فَٱدۡرَءُواْ عَنۡ أَنفُسِكُمُ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ 173
(168) ये वही लोग हैं जो ख़ुद तो बैठे रहे और उनके जो भाई-बन्द लड़ने गए और मारे गए उनके मुताल्लिक़ उन्होंने कह दिया कि अगर वे हमारी बात मान लेते तो न मारे जाते। उनसे कहो, “अगर तुम अपने इस क़ौल में सच्चे हो तो ख़ुद तुम्हारी मौत जब आए, उसे टालकर दिखा देना।”
مَّا كَانَ ٱللَّهُ لِيَذَرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَىٰ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ حَتَّىٰ يَمِيزَ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُطۡلِعَكُمۡ عَلَى ٱلۡغَيۡبِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَجۡتَبِي مِن رُّسُلِهِۦ مَن يَشَآءُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَلَكُمۡ أَجۡرٌ عَظِيمٞ 175
(179) अल्लाह मोमिनों को इस हालत में हरगिज़ न रहने देगा जिसमें तुम लोग इस वक़्त पाए जाते हो। वह पाक लोगों को नापाक लोगों से अलग करके रहेगा। मगर अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि तुम लोगों को ग़ैब पर मुत्तला कर दे।35 (ग़ैब की बातें बताने के लिए तो) अल्लाह अपने रसूलों में से जिसको चाहता है मुंतख़ब कर लेता है। लिहाज़ा (उमूरे-ग़ैब के बारे में) अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान रखो। अगर तुम ईमान और ख़ुदातरसी की रविश पर चलोगे तो तुमको बड़ा अज्र मिलेगा।
35. यानी तुम्हें यह बता दे कि तुममें से कौन मोमिन है और कौन मुनाफ़िक़।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ هُوَ خَيۡرٗا لَّهُمۖ بَلۡ هُوَ شَرّٞ لَّهُمۡۖ سَيُطَوَّقُونَ مَا بَخِلُواْ بِهِۦ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ 178
(180) जिन लोगों को अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल से नवाज़ा है और फिर वे बुख़्ल से काम लेते हैं, वे इस ख़याल में न रहें कि यह बख़ीली उनके लिए अच्छी है। नहीं, यह उनके हक़ में निहायत बुरी है। जो कुछ वे अपनी कंजूसी से जमा कर रहे हैं वही क़ियामत के रोज़ उनके गले का तौक़ बन जाएगा। ज़मीन और आसमानों की मीरास अल्लाह ही के लिए है और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है।
لَّقَدۡ سَمِعَ ٱللَّهُ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ فَقِيرٞ وَنَحۡنُ أَغۡنِيَآءُۘ سَنَكۡتُبُ مَا قَالُواْ وَقَتۡلَهُمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَنَقُولُ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ 181
(181) अल्लाह ने उन लोगों का क़ौल सुना जो कहते हैं कि अल्लाह फ़क़ीर है। और हम ग़नी हैं।36 उनकी ये बातें भी हम लिख लेंगे, और इससे पहले जो वे पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल करते रहे हैं वह भी उनके नामा-ए-आमाल में सब्त है। (जब फ़ैसले का वक़्त आएगा उस वक़्त) हम इनसे कहेंगे कि लो अब अज़ाबे-जहन्नम का मज़ा चखो,
36. यह यहूदियों का क़ौल था। क़ुरआन मजीद में जब यह आयत आई कि “कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे” तो उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए यहूदियों ने कहना शुरू किया कि जी हाँ, अल्लाह मियाँ मुफ़लिस हो गए हैं। अब वे बन्दों से क़र्ज़ माँग रहे हैं।
ٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡقَرۡحُۚ لِلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ مِنۡهُمۡ وَٱتَّقَوۡاْ أَجۡرٌ عَظِيمٌ 184
(172) (ऐसे मोमिनों के अज्र को) जिन्होंने ज़ख़्म खाने के बाद भी अल्लाह और रसूल की पुकार पर लब्बैक कहा।33 — उनमें जो अशख़ास नेकूकार और परहेज़गार हैं उनके लिए बड़ा अज्र है।
33. जंगे-उहुद से पलटकर जब मुशरिकीन कई मंज़िल दूर चले गए तो उन्हें होश आया और उन्होंने आपस में कहा कि यह हमने क्या हरकत की कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ताक़त को तोड़ देने का जो बेशक़ीमत मौक़ा मिला था उसे खोकर चले आए। चुनाँचे एक जगह ठहरकर उन्होंने आपस में मश्वरा किया कि मदीना पर फ़ौरन ही दूसरा हमला कर दिया जाए। लेकिन फिर हिम्मत न पड़ी और मक्का वापस चले गए। इधर नबी सल्लल्लाहु अलैहि सल्लम को भी अंदेशा था कि ये लोग कहीं फिर न पलट आएँ। इसलिए जंगे-उहुद के दूसरे ही दिन आप (सल्ल०) ने मुसलमानों को जमा करके फ़रमाया कि कुफ़्फ़ार के तआक़ुब में चलना चाहिए। यह अगरचे निहायत नाज़ुक मौक़ा था, मगर फिर भी जो सच्चे मोमिन थे वे जान निसार करने के लिए आमादा हो गए और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ हमराउल-असद तक गए जो मदीना से 8 मील के फ़ासिले पर वाक़े है। इस आयत का इशारा उन्हीं फ़िदाकारों की तरफ़ है।
ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ عَهِدَ إِلَيۡنَآ أَلَّا نُؤۡمِنَ لِرَسُولٍ حَتَّىٰ يَأۡتِيَنَا بِقُرۡبَانٖ تَأۡكُلُهُ ٱلنَّارُۗ قُلۡ قَدۡ جَآءَكُمۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِي بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَبِٱلَّذِي قُلۡتُمۡ فَلِمَ قَتَلۡتُمُوهُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ 186
(183) जो लोग कहते हैं, “अल्लाह ने हमको हिदायत कर दी है कि हम किसी को रसूल तसलीम न करें जब तक वह हमारे सामने ऐसी क़ुरबानी न करे जिसे (ग़ैब से आकर) आग खा ले।” उनसे कहो, “तुम्हारे पास मुझसे पहले बहुत-से रसूल आ चुके हैं, जो बहुत-सी रौशन निशानियाँ लाए थे और वह निशानी भी लाए थे जिसका तुम ज़िक्र करते हो, फिर अगर (ईमान लाने के लिए यह शर्त पेश करने में) तुम सच्चे हो तो उन रसूलों को तुमने क्यों क़त्ल किया?”
ٱلَّذِينَ يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِهِمۡ وَيَتَفَكَّرُونَ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبَّنَا مَا خَلَقۡتَ هَٰذَا بَٰطِلٗا سُبۡحَٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ 190
(191) जो उठते, बैठते और लेटते, हर हाल में ख़ुदा को याद करते हैं और ज़मीन और आसमानों की साख़्त में ग़ौर व फ़िक्र करते हैं। (वे बेइख़्तियार बोल उठते हैं) “परवरदिगार! यह सब कुछ तूने फ़ुज़ूल और बेमक़सद नहीं बनाया है, तू पाक है इससे कि अबस काम करे। पस ऐ रब! हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा ले,
فَٱسۡتَجَابَ لَهُمۡ رَبُّهُمۡ أَنِّي لَآ أُضِيعُ عَمَلَ عَٰمِلٖ مِّنكُم مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰۖ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۖ فَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَأُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأُوذُواْ فِي سَبِيلِي وَقَٰتَلُواْ وَقُتِلُواْ لَأُكَفِّرَنَّ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ ثَوَابٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلثَّوَابِ 194
(195) जवाब में उनके रब ने फ़रमाया, “मैं तुममें से किसी का अमल ज़ाया करनेवाला नहीं हूँ। ख़ाह मर्द हो या औरत, तुम सब एक-दूसरे के हम–जिंस हो। लिहाज़ा जिन लोगों ने मेरी ख़ातिर अपने वतन छोड़े और जो मेरी राह में अपने घरों से निकाले गए और सताए गए और मेरे लिए लड़े और मारे गए, उनके सब क़ुसूर मैं माफ़ कर दूँगा और उन्हें ऐसे बाग़ों में दाख़िल करूँगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। यह उनकी जज़ा है अल्लाह के यहाँ, और बेहतरीन जज़ा अल्लाह ही के पास है।”
لَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا نُزُلٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۗ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لِّلۡأَبۡرَارِ 197
(198) बरअक्स इसके जो लोग अपने रब से डरते हुए ज़िन्दगी बसर करते हैं, उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती हैं, उन बाग़ों में वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह की तरफ़ से यह सामाने-ज़ियाफ़त है उनके लिए, और जो कुछ अल्लाह के पास है नेक लोगों के लिए वही सबसे बेहतर है।
وَإِنَّ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَمَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِمۡ خَٰشِعِينَ لِلَّهِ لَا يَشۡتَرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ 198
(199) अहले-किताब में भी कुछ लोग ऐसे हैं अल्लाह को मानते हैं, इस किताब पर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी तरफ़ भेजी गई है और उस किताब पर भी ईमान रखते हैं जो इससे पहले ख़ुद उनकी तरफ़ भेजी गई थी, अल्लाह के आगे झुके हुए हैं, और अल्लाह की आयात को थोड़ी-सी क़ीमत पर बेच नहीं देते। उनका अज्र उनके रब के पास है और अल्लाह हिसाब चुकाने में देर नहीं लगाता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱصۡبِرُواْ وَصَابِرُواْ وَرَابِطُواْ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ 199
(200) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! सब्र से काम लो, बातिल-परस्तों के मुक़ाबले में पामर्दी दिखाओ, हक़ की ख़िदमत के लिए कमर-बस्ता रहो और अल्लाह से डरते रहो, उम्मीद है कि फ़लाह पाओगे।