33. अल-अहज़ाब
(मदीना में उतरी, आयतें 73)
परिचय
नाम
आयत 20 के वाक्य “यहसबूनल अहज़ा-ब लम यज़-हबू” [ये समझ रहे हैं कि आक्रमणकारी गिरोह (अल-अहज़ाब) अभी गए नहीं हैं से लिया गया है।
उतरने का समय
[यह सूरा मदीना में उतरी है। इस सूरा के विषय का संबंध तीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं से है-
एक, अहज़ाब का युद्ध, जो शव्वाल सन् 05 हिजरी में हुआ,
दूसरा, बनी-क़ुरैज़ा का युद्ध जो ज़ी-कादा सन् 05 हिजरी में हुआ,
तीसरा, हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) का निकाह जो इसी साल ज़ी-क़ादा में हुआ।
इन ऐतिहासिक घटनाओं से सूरा के उतरने का समय सही-सही निश्चित हो जाता है, [और यही घटनाएँ इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी हैं।]
सामाजिक सुधार
उहुद और अहज़ाब के युद्ध के बीच के दो वर्ष का समय यद्यपि ऐसे हंगामों का था जिनके कारण नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (रज़ि०) को एक दिन के लिए भी सुख-शान्ति प्राप्त न हुई। लेकिन इस पूरी अवधि में नए मुस्लिम समाज का निर्माण और ज़िन्दगी के हर पहलू में सुधार का काम बराबर चलता रहा। यही समय था जिसमें मुसलमानों के निकाह और तलाक़ के क़ानून लगभग पूरे हो गए। विरासत का क़ानून बना, शराब और जुए को हराम किया गया, [परदे के आदेश आने शुरू हुए] और अर्थव्यवस्था तथा सामाजिकता और समाज के दूसरे बहुत-से पहलुओं में नए क़ानून लागू किए गए।
विषय और वार्ता
यह पूरी सूरा एक व्याख्यान नहीं है जो एक ही समय में उतरा हो, बल्कि यह अनेक आदेश, फ़रमान और व्याख्यानों पर सम्मिलित है। इसके निम्नलिखित अंश स्पष्ट रूप से अलग-अलग दिखाई देते हैं-
- आयत नम्बर 1 से 8 तक का भाग अहज़ाब अभियान से कुछ पहले का अवतरित मालूम होता है। इसके अवतरण के समय हज़रत ज़ैद (रज़ि०), हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे चुके थे। नबी (सल्ल०) इस ज़रूरत को महसूस कर रहे थे कि मुँह बोले बेटे के विषय में अज्ञानकाल की धारणाओं [को मिटाने के लिए हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से स्वयं निकाह कर लें] लेकिन सेक साथ ही इस कारण बहुत संकोच में थे कि यदि [मैंने ऐसा] किया तो इस्लाम के विरुद्ध हँगामा उठाने के लिए मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और यहूद और बहुदेववादियों को एक भारी शोशा हाथ आ जाएगा।
- आयत 9 से लेकर 27 तक में अहज़ाब और बनी-क़ुरैज़ा के अभियान की समीक्षा की गई है। यह इस बात का स्पष्ट लक्षण है कि ये आयतें इन अभियानों के पश्चात् अवतरित हुईं हैं।
- आयत 28 के आरंभ से आयत 35 तक का अभिभाषण दो विषयों पर आधारित है। पहले भाग में नबी (सल्ल.) की पत्नियों को जो उस तंगी और निर्धनता के समय में अधीर हो रही थीं, अल्लाह ने नोटिस दिया है कि संसार और उसकी सजावट और अल्लाह के रसूल और परलोक में से किसी को चुन लो। दूसरे भाग में सामाजिक सुधार [के पहले क़दम के रूप में] आपकी धर्म-पत्नियों को आदेश दिया गया है कि अज्ञानकाल की सज-धज से बचें, प्रतिष्ठापूर्वक अपने घरों में बैठें और अन्य पुरुषों के साथ बातचीत में बहुत सतर्कता से काम लें। ये परदे के आदेशों का आरंभ था।
- आयत 36 से 48 तक का विषय हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के साथ नबी (सल्ल०) के विवाह से सम्बन्ध रखता है। इसमें उन सभी आक्षेपों का उत्तर दिया गया है, जो विधर्मियों की ओर से किए जा रहे थे।
- आयत 49 में तलाक़ के क़ानून की एक धारा वर्णित हुई है। यह एक अकेली आयत है जो सम्भवतः इन्हीं घटनाओं के सिलसिले में किसी अवसर पर अवतरित हुई थी।
- आयत 50 से 52 तक में नबी (सल्ल०) के लिए विवाह का विशिष्ट विधान प्रस्तुत किया गया है।
- आयत 53 से 55 तक में सामाजिक सुधार का दूसरा क़दम उठाया गया है। यह निम्नलिखित आदेशों पर आधारित है : नबी (सल्ल०) के घरों में पराए पुरुषों के आने-जाने पर प्रतिबंध, मिलने-जुलने और भोज-निमंत्रण का नियम, नबी (सल्ल०) की पत्नियों के विषय में यह आदेश कि वे मुसलमानों के लिए माँ की तरह हराम (प्रतिष्ठित) हैं।
- आयत 56 और 57 में उन निराधार कानाफूसियों पर सख़्त चेतावनी दी गई है जो नबी (सल्ल०) के विवाह और पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में की जा रही थीं।
- आयत 59 में सामाजिक सुधार का तीसरा क़दम उठाया गया है। इसमें समस्त मुस्लिम स्त्रियों को यह आदेश दिया गया है कि जब घरों से बाहर निकलें तो चादरों से अपने आपको ढाँककर और घूँघट काढ़कर निकलें—इसके पश्चात् सूरा के अन्त तक अफ़वाह उड़ाने के उस अभियान (Whispering Campaign) पर बड़ी भर्त्सना की गई है, जो मुनाफ़िक़ों और मूर्खों और नीच प्रकृति के लोगों ने उस समय छेड़ रखा था।
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وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مِيثَٰقَهُمۡ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٖ وَإِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۖ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا 1
(7) और (ऐ नबी!) याद रखो उस अह्दो-पैमान को जो हमने सब पैग़म्बरों से लिया है, तुमसे भी और नूह और इबराहीम और मूसा और ईसा इब्ने-मरयम से भी। सबसे हम पुख़्ता अह्द ले चुके हैं।2
2. इस आयत में अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को यह बात याद दिलाता है कि तमाम अम्बिया (अलैहि०) की तरह आप (सल्ल०) से भी अल्लाह तआला एक पुख़्ता अह्द ले चुका है जिसकी आप (सल्ल०) को सख़्ती के साथ पाबन्दी करनी चाहिए। ऊपर से जो सिलसिला-ए-कलाम चला आ रहा है उसपर ग़ौर करने से साफ़ मालूम होता है कि इससे मुराद यह अह्द है कि पैग़म्बर अल्लाह तआला के हर हुक्म की ख़ुद इताअत करेगा और दूसरों से कराएगा, अल्लाह की बातों को बे-कम व कास्त पहुँचाएगा और उन्हें अमलन नाफ़िज़ करने की सई व जुहद में कोई दरेग़ न करेगा। क़ुरआन मजीद में इस अह्द का ज़िक्र मुतअदिद मक़ामात पर किया गया है। मसलन सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-83; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-187; सूरा-5 माइदा, आयत-7; सूरा-7 अल-आराफ़, आयात-169 से 171; सूरा-26 शुअरा, आयत-13।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَآءَتۡكُمۡ جُنُودٞ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا وَجُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا 3
(9) ऐ लोगो,3 जो ईमान लाए हो! याद करो अल्लाह के एहसान को जो (अभी-अभी) उसने तुमपर किया है।
3. यहाँ से आयत 27 तक ग़ज़्वा-ए-अहज़ाब और ग़ज़्वा-ए-बनी-क़ुरैज़ा का ज़िक्र किया गया है।
إِذۡ جَآءُوكُم مِّن فَوۡقِكُمۡ وَمِنۡ أَسۡفَلَ مِنكُمۡ وَإِذۡ زَاغَتِ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَبَلَغَتِ ٱلۡقُلُوبُ ٱلۡحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِٱللَّهِ ٱلظُّنُونَا۠ 4
(10) जब लश्कर तुमपर चढ़ आए तो हमने उनपर एक सख़्त आँधी भेज दी और ऐसी फ़ौजें रवाना कीं जो तुमको नज़र न आती थीं।4 अल्लाह वह सब कुछ देख रहा था जो तुम लोग उस वक़्त कर रहे थे। जब दुश्मन ऊपर से और नीचे से तुमपर चढ़ आए, जब ख़ौफ़ के मारे आँखें पथरा गईं, कलेजे मुँह को आ गए, और तुम लोग अल्लाह के बारे में तरह-तरह के गुमान करने लगे,
4. यानी फ़रिश्तों की फ़ौजें।
وَإِذۡ قَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ يَٰٓأَهۡلَ يَثۡرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمۡ فَٱرۡجِعُواْۚ وَيَسۡتَـٔۡذِنُ فَرِيقٞ مِّنۡهُمُ ٱلنَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوۡرَةٞ وَمَا هِيَ بِعَوۡرَةٍۖ إِن يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارٗا 7
(13) जब उनमें से एक गरोह ने कहा कि “ऐ यसरिब के लोगो! तुम्हारे लिए अब ठहरने का कोई मौका नहीं है, पलट चलो।” जब उनका एक फ़रीक़ यह कहकर नबी से रुख़्सत तलब कर रहा था। कि “हमारे घर ख़तरे में हैं,” हलाँकि वे ख़तरे में न थे, दरअस्ल वे (महाज़े-जंग से) भागना चाहते थे।
لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِي رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَ وَذَكَرَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا 9
(21) दर-हक़ीक़त तुम लोगों के लिए अल्लाह के रसूल में नमूना था,5 हर उस शख़्स के लिए जो अल्लाह और यौमे-आख़िर का उम्मीदवार हो और कसरत से अल्लाह को याद करे।
5. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि बेहतरीन नमूना है।
وَرَدَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِغَيۡظِهِمۡ لَمۡ يَنَالُواْ خَيۡرٗاۚ وَكَفَى ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلۡقِتَالَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزٗا 19
(25) अल्लाह ने कुफ़्फ़ार का मुँह फेर दिया, वे कोई फ़ायदा हासिल किए बग़ैर अपने दिल की जलन लिए यूँ ही पलट गए, और मोमिनीन की तरफ़ से अल्लाह ही लड़ने के लिए काफ़ी हो गया, अल्लाह बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।
وَإِذۡ تَقُولُ لِلَّذِيٓ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَأَنۡعَمۡتَ عَلَيۡهِ أَمۡسِكۡ عَلَيۡكَ زَوۡجَكَ وَٱتَّقِ ٱللَّهَ وَتُخۡفِي فِي نَفۡسِكَ مَا ٱللَّهُ مُبۡدِيهِ وَتَخۡشَى ٱلنَّاسَ وَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَىٰهُۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيۡدٞ مِّنۡهَا وَطَرٗا زَوَّجۡنَٰكَهَا لِكَيۡ لَا يَكُونَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ حَرَجٞ فِيٓ أَزۡوَٰجِ أَدۡعِيَآئِهِمۡ إِذَا قَضَوۡاْ مِنۡهُنَّ وَطَرٗاۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولٗا 21
(37) (ऐ नबी!) याद करो वह मौक़ा जब तुम उस शख़्स से कह रहे थे कि जिसपर अल्लाह ने और तुमने एहसान किया था कि “अपनी बीवी को न छोड़ और अल्लाह से डर।”10 उस वक़्त तुम अपने दिल में वह बात छिपाए हुए थे जिसे अल्लाह खोलना चाहता था, तुम लोगों से डर रहे थे, हलाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि तुम उससे डरो।11 फिर जब ज़ैद उससे अपनी हाजत पूरी कर चुका12 तो हमने उस (मुतल्लक़ा ख़ातून) का तुमसे निकाह कर दिया ताकि मोमिनों पर अपने मुँहबोले बेटों की बीवियों के मामले में कोई तंगी न रहे जबकि वे उनसे अपनी हाजत पूरी कर चुके हों। और अल्लाह का हुक्म तो अमल में आना ही चाहिए था।
10. उस शख़्स से मुराद हैं हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) जो रसूलुल्लाह (सल्ल०) के आज़ादकरदा ग़ुलाम और आप (सल्ल०) के मुँहबोले बेटे थे। और उनकी बीवी से मुराद हैं हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) जो हुज़ूर (सल्ल०) की फूफीज़ाद बहन थीं और आप (सल्ल०) ने उनका निकाह हज़रत ज़ैद (रज़ि०) से कर दिया था। मगर दोनों का निबाह नहीं हो रहा था और हज़रत ज़ैद (रज़ि०) उनको तलाक़ देने पर आमादा हो रहे थे।
11. यानी अल्लाह तआला की मर्ज़ी यह थी कि जब हज़रत ज़ैद (रज़ि०) हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे दें तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) ख़ुद उनसे निकाह करके अरब की उस क़दीम रस्म को तोड़ दें जिसकी रू से मुँहबोले बेटे को हक़ीक़ी बेटा समझा जाता था। लेकिन हुज़ूर (सल्ल०) इस अंदेशे से कि इसपर अहले-अरब सख़्त नुक्ता-चीनियाँ करेंगे, इस आज़माइश में पड़ने से बचना चाहते थे, इसी लिए आप (सल्ल०) ने कोशिश फ़रमाई कि ज़ैद (रज़ि०) अपनी बीवी को तलाक़ न दें।
12. यानी तलाक़ देने की ख़ाहिश जो वे रखते थे उसे उन्होंने पूरा कर दिया और अपनी मुतल्लक़ा बीवी से उनका कोई रिश्ता बाक़ी न रहा।
وَأَنزَلَ ٱلَّذِينَ ظَٰهَرُوهُم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن صَيَاصِيهِمۡ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَ فَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ وَتَأۡسِرُونَ فَرِيقٗا 22
(26) फिर अहले-किताब में से जिन लोगों ने इन हमलाआवरों का साथ दिया था,6 अल्लाह उनकी गढ़ियों से उन्हें उतार लाया और उनके दिलों में उसने ऐसा रोब डाल दिया कि आज उनमें से एक गरोह को तुम क़त्ल कर रहे हो और दूसरे गरोह को क़ैद कर रहे हो।
6. यानी यहूद बनी-कुरैज़ा।
مَّا جَعَلَ ٱللَّهُ لِرَجُلٖ مِّن قَلۡبَيۡنِ فِي جَوۡفِهِۦۚ وَمَا جَعَلَ أَزۡوَٰجَكُمُ ٱلَّٰٓـِٔي تُظَٰهِرُونَ مِنۡهُنَّ أُمَّهَٰتِكُمۡۚ وَمَا جَعَلَ أَدۡعِيَآءَكُمۡ أَبۡنَآءَكُمۡۚ ذَٰلِكُمۡ قَوۡلُكُم بِأَفۡوَٰهِكُمۡۖ وَٱللَّهُ يَقُولُ ٱلۡحَقَّ وَهُوَ يَهۡدِي ٱلسَّبِيلَ 23
(4) अल्लाह ने किसी शख़्स के धड़ में दो दिल नहीं रखे, न उसने तुम लोगों की उन बीवियों को, जिनसे तुम ज़िहार1 करते हो, तुम्हारी माँ बना दिया है और न उसने तुम्हारे मुँहबोले बेटों को तुम्हारा हक़ीक़ी बेटा बनाया है। ये तो वे बातें हैं जो तुम लोग अपने मुँह से निकाल देते हो, मगर अल्लाह वह बात कहता है जो मब्नी बर-हक़ीक़त है, और वही सही तरीक़े की तरफ़ राहनुमाई करता है।
1 ‘ज़िहार’ से मुराद है बीवी को माँ से तशबीह देना।
ٱدۡعُوهُمۡ لِأٓبَآئِهِمۡ هُوَ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِۚ فَإِن لَّمۡ تَعۡلَمُوٓاْ ءَابَآءَهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَمَوَٰلِيكُمۡۚ وَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٞ فِيمَآ أَخۡطَأۡتُم بِهِۦ وَلَٰكِن مَّا تَعَمَّدَتۡ قُلُوبُكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا 25
(5) मुँहबोले बेटों को उनके बापों की निस्बत से पुकारो, यह अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा मुनसिफ़ाना बात है। और अगर तुम्हें मालूम न हो कि उनके बाप कौन हैं तो वे तुम्हारे दीनी भाई और रफ़ीक़ है। नादानिस्ता जो बात तुम कहो उसके लिए तुमपर कोई गिरिफ़्त नहीं है, लेकिन उस बात पर ज़रूर गिरिफ़्त है जिसका तुम दिल से इरादा करो। अल्लाह दरगुज़र करनेवाला और रहीम है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ إِن كُنتُنَّ تُرِدۡنَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيۡنَ أُمَتِّعۡكُنَّ وَأُسَرِّحۡكُنَّ سَرَاحٗا جَمِيلٗا 27
(28) ऐ नबी! अपनी बीवियों से कहो, “अगर तुम दुनिया और उसकी ज़ीनत चाहती हो तो आओ, मैं तुम्हें कुछ दे-दिलाकर भले तरीक़े से रुखसत कर दू।7
7. यह आयत उस ज़माने में नाज़िल हुई थी जब रसूल (सल्ल०) के यहाँ फ़ाक़ों-पर-फ़ाक़े गुज़र रहे थे और अज़वाजे-मुतह्हरात सख़्त परेशान थीं।
ٱلنَّبِيُّ أَوۡلَىٰ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَأَزۡوَٰجُهُۥٓ أُمَّهَٰتُهُمۡۗ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ إِلَّآ أَن تَفۡعَلُوٓاْ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِكُم مَّعۡرُوفٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا 28
(6) बिला शुबह नबी तो अहले-ईमान के लिए उनकी अपनी ज़ात पर मुक़द्दम हैं, और नबी की बीवियाँ उनकी माएँ हैं, मगर किताबुल्लाह की रू से आम मोमिनीन व मुहाजिरीन की बनिस्बत रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार हैं, अलबत्ता अपने रफ़ीक़ों के साथ तुम कोई भलाई (करना चाहो तो) कर सकते हो। यह हुक्म किताबे-इलाही में लिखा हुआ है।
أَشِحَّةً عَلَيۡكُمۡۖ فَإِذَا جَآءَ ٱلۡخَوۡفُ رَأَيۡتَهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ تَدُورُ أَعۡيُنُهُمۡ كَٱلَّذِي يُغۡشَىٰ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَإِذَا ذَهَبَ ٱلۡخَوۡفُ سَلَقُوكُم بِأَلۡسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى ٱلۡخَيۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يُؤۡمِنُواْ فَأَحۡبَطَ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا 29
(19) जो तुम्हारा साथ देने में सख़्त बख़ील हैं। ख़तरे का वक़्त आ जाए तो इस तरह दीदे फिरा-फिराकर तुम्हारी तरफ़ देखते हैं जैसे किसी मरनेवाले पर ग़शी तारी हो रही हो, मगर जब ख़तरा गुज़र जाता है तो यही लोग फ़ायदों के हरीस बनकर क़ैंची की तरह चलती हुई ज़बानें लिए तुम्हारे इस्तिक़बाल को आ जाते हैं। ये लोग हरगिज़ ईमान नहीं लाए, इसी लिए अल्लाह ने इनके सारे आमाल ज़ाया कर दिए। और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान है।
مَّا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَآ أَحَدٖ مِّن رِّجَالِكُمۡ وَلَٰكِن رَّسُولَ ٱللَّهِ وَخَاتَمَ ٱلنَّبِيِّـۧنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا 32
(40) (लोगो!) मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं, मगर वे अल्लाह के रसूल और ख़ातमुन्नबिय्यीन हैं, और अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखनेवाला है|13
13. इस एक फ़िकरे में उन तमाम एतिराज़ात की जड़ काट दी गई है जो मुख़ालिफ़ीन नबी (सल्ल०) के इस निकाह पर कर रहे थे। उनका अव्वलीन एतिराज़ यह था कि आप (सल्ल०) ने अपनी बहू से निकाह किया है। इसके जवाब में फ़रमाया गया कि “मुहम्मद (सल्ल०) तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं।” यानी वह बेटा था कब कि उसकी मुतल्लका से निकाह हराम होता? दूसरा एतिराज़ यह था कि अगर मुँहबोला बेटा हक़ीक़ी बेटा नहीं है तब भी उसकी छोड़ी हुई औरत से निकाह कर लेना कुछ ज़रूरी तो न था। इसके जवाब में फ़रमाया गया “मगर वे अल्लाह के रसूल हैं।” यानी रसूल होने की हैसियत से उनपर यह फ़र्ज़ आइद होता था कि जिस हलाल चीज़ को तुम्हारी रस्मों ने ख़ाह-मख़ाह हराम कर रखा है उसके बारे में तमाम तास्सुबात का ख़ातिमा कर दें और उसकी हिल्लत के मामले में किसी शक व शुबहे की गुंजाइश बाक़ी न रहने दें। फिर मज़ीद ताकीद के लिए फ़रमाया, “और वे ख़ातमुन्नबिय्यीन हैं।” यानी उनके बाद कोई रसूल तो दरकिनार, कोई नबी तक आनेवाला नहीं है कि अगर कानून और मुआशरे की कोई इसलाह उनके जमाने में नाफ़िज़ होने से रह जाए तो बाद का आनेवाला नबी यह कसर पूरी कर दे, लिहाज़ा यह और भी ज़रूरी हो गया था कि इस रस्मे-जाहिलियत का ख़ातिमा ख़ुद ही करके जाएँ। इसके बाद मज़ीद ज़ोर देते हुए फ़रमाया गया कि “अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखनेवाला है।” यानी अल्लाह को मालूम है कि इस वक़्त मुहम्मद (सल्ल०) के हाथों इस रस्मे-जाहिलियत को ख़त्म करा देना क्यों ज़रूरी था और ऐसा न करने में क्या क़बाहत थी।
يَٰنِسَآءَ ٱلنَّبِيِّ مَن يَأۡتِ مِنكُنَّ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖ يُضَٰعَفۡ لَهَا ٱلۡعَذَابُ ضِعۡفَيۡنِۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا 33
(30) नबी की बीवियो! तुममें से जो किसी सरीह फ़ुह्श हरकत का इरतिकाब करेगी उसे दोहरा अज़ाब दिया जाएगा,8 अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।
8. इसका यह मतलब नहीं है कि अज़वाजे-मुतह्हरात से मआज़ल्लाह किसी फ़ुह्श हरकत का अंदेशा था, बल्कि उनको यह एहसास दिलाना मक़सूद था कि तुम सारी उम्मत की माएँ हो, इसलिए अपने मर्तबे से गिरा हुआ कोई काम न करना।
وَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَدَعۡ أَذَىٰهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا 37
(48) और हरगिज़ न दबो कुफ़्फ़ार व मुनाफ़िक़ीन से, कोई परवाह न करो उनकी अज़ीयत-रसानी की14 और भरोसा कर लो अल्लाह पर, अल्लाह ही इसके लिए काफ़ी है कि आदमी अपने मामलात उसके सिपुर्द कर दे।
14. यानी उन नुक्ताचीनियों की जो ये लोग इस निकाह पर कर रहे हैं।
وَقَرۡنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجۡنَ تَبَرُّجَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ ٱلۡأُولَىٰۖ وَأَقِمۡنَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتِينَ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِعۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُذۡهِبَ عَنكُمُ ٱلرِّجۡسَ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِ وَيُطَهِّرَكُمۡ تَطۡهِيرٗا 40
(33) अपने घरों में टिककर रहो और साबिक़ दौरे-जाहिलियत की-सी सज-धज न दिखाती फिरो। नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो। अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम अहले-बैते-नबी से गन्दगी को दूर करे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِنَّآ أَحۡلَلۡنَا لَكَ أَزۡوَٰجَكَ ٱلَّٰتِيٓ ءَاتَيۡتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَ مِمَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّٰتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَٰلَٰتِكَ ٱلَّٰتِي هَاجَرۡنَ مَعَكَ وَٱمۡرَأَةٗ مُّؤۡمِنَةً إِن وَهَبَتۡ نَفۡسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنۡ أَرَادَ ٱلنَّبِيُّ أَن يَسۡتَنكِحَهَا خَالِصَةٗ لَّكَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۗ قَدۡ عَلِمۡنَا مَا فَرَضۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ لِكَيۡلَا يَكُونَ عَلَيۡكَ حَرَجٞۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 44
(50) ऐ नबी! हमने तुम्हारे लिए हलाल कर दीं तुम्हारी वे बीवियाँ जिनके मह्र तुमने अदा किए हैं,15 और वे औरतें जो अल्लाह की अता करदा लौंडियों में से तुम्हारी मिलकियत में आएँ, और तुम्हारी वे चचाज़ाद और फूफीज़ाद और मामूज़ाद और ख़ालाज़ाद बहनें जिन्होंने तुम्हारे साथ हिजरत की है, और वह मोमिन औरत जिसने अपने-आपको नबी के लिए हिबा किया हो अगर नबी उसे निकाह में लेना चाहे।16 यह रिआयत ख़ालिसतन तुम्हारे लिए है, दूसरे मोमिनों के लिए नहीं है। हमको मालूम है कि आम मोमिनों पर उनकी बीवियों और लौंडियों के बारे में हमने क्या हुदूद आयद किए हैं। (तुम्हें उन हुदूद से हमने इसलिए मुस्तसना किया है) ताकि तुम्हारे ऊपर कोई तंगी न रहे, और अल्लाह ग़फ़ूर व रहीम है।
15. यह दरअस्ल जवाब है उन लोगों के एतिराज़ का जो कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) दूसरे लोगों के लिए तो बयक-वक़्त चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को ममनूअ क़रार देते हैं, मगर ख़ुद उन्होंने यह पाँचवीं बीवी कैसे कर ली? वाज़ेह रहे कि उस वक़्त हुज़ूर (सल्ल०) के घर में चार बीवियाँ हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत सौदा (रज़ि०), हज़रत हफ़सा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) पहले से मौजूद थीं।
16. यानी उन पाँच बीवियों के अलावा मज़ीद इन अक़साम की ख़वातीन को भी अपनी ज़ौजियत में लाने की हुज़ूर (सल्ल०) को इजाज़त दी गई जिनका इस आयत में ज़िक्र है।
إِنَّ ٱلۡمُسۡلِمِينَ وَٱلۡمُسۡلِمَٰتِ وَٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡقَٰنِتَٰتِ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلصَّٰدِقَٰتِ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰبِرَٰتِ وَٱلۡخَٰشِعِينَ وَٱلۡخَٰشِعَٰتِ وَٱلۡمُتَصَدِّقِينَ وَٱلۡمُتَصَدِّقَٰتِ وَٱلصَّٰٓئِمِينَ وَٱلصَّٰٓئِمَٰتِ وَٱلۡحَٰفِظِينَ فُرُوجَهُمۡ وَٱلۡحَٰفِظَٰتِ وَٱلذَّٰكِرِينَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱلذَّٰكِرَٰتِ أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمٗا 46
(35) बिल-यक़ीन जो मर्द और जो औरतें मुस्लिम हैं, मोमिन हैं, मुतीए-फ़रमान हैं, रास्तबाज़ हैं, साबिर हैं, अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं, सदक़ा देनेवाले हैं, रोज़े रखनेवाले हैं, अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करनेवाले हैं, और अल्लाह को कसरत से याद करनेवाले हैं, अल्लाह ने उनके लिए मग़फ़िरत और बड़ा अज्र मुहैया कर रखा है।
۞تُرۡجِي مَن تَشَآءُ مِنۡهُنَّ وَتُـٔۡوِيٓ إِلَيۡكَ مَن تَشَآءُۖ وَمَنِ ٱبۡتَغَيۡتَ مِمَّنۡ عَزَلۡتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكَۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن تَقَرَّ أَعۡيُنُهُنَّ وَلَا يَحۡزَنَّ وَيَرۡضَيۡنَ بِمَآ ءَاتَيۡتَهُنَّ كُلُّهُنَّۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمٗا 47
(51) तुमको इख़्तियार दिया जाता है कि अपनी बीवियों में से जिसको चाहो अपने से अलग रखो, जिसे चाहो अपने साथ रखो और जिसे चाहो अलग रखने के बाद अपने पास बुला लो। इस मामले में तुमपर कोई मुज़ायक़ा नहीं है। इस तरह ज़्यादा मुतवक़्क़े है कि उनकी आँखें ठंडी रहेंगी और वे रंजीदा न होंगी, और जो कुछ भी तुम उनको दोगे उसपर वे सब राज़ी रहेंगी। अल्लाह जानता है जो कुछ तुम लोगों के दिलों में है, और अल्लाह अलीम व हलीम है।
لَّا يَحِلُّ لَكَ ٱلنِّسَآءُ مِنۢ بَعۡدُ وَلَآ أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ حُسۡنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ رَّقِيبٗا 49
(52) इसके बाद तुम्हारे लिए दूसरी औरतें हलाल नहीं है, और न इसकी इजाज़त है कि इनकी जगह और बीवियाँ ले आओ ख़ाह उनका हुस्न तुम्हें कितना ही पसन्द हो,17 अलबत्ता लौंडियों की तुम्हें इजाज़त है।18 अल्लाह हर चीज़ पर निगराँ है।
17. इस इरशाद के दो मतलब हैं। एक यह कि जो औरतें ऊपर आयत नम्बर 50 में हुज़ूर (सल्ल०) के लिए हलाल की गई हैं उनके सिवा दूसरी कोई औरत अब आप (सल्ल०) के लिए हलाल नहीं है। दूसरे यह कि जब आप (सल्ल०) की अज़वाजे-मुतह्हरात इस बात के लिए राज़ी हो गई हैं कि तंगी व तुरशी में आप (सल्ल०) का साथ दें और आख़िरत के लिए दुनिया को तज दें, और इसपर भी ख़ुश हैं कि आप (सल्ल०) जो बरताव भी उनके साथ चाहें करें, तो अब आपके लिए यह हलाल नहीं है कि उनमें से किसी को तलाक़ देकर उसकी जगह कोई और बीवी ले आएँ।
18. यह आयत इस अम्र की सराहत कर रही है कि मनकूहा बीवियों के अलावा ममलूका औरतों से भी तमत्तोअ की इजाज़त है और उनके लिए तादाद की कोई क़ैद नहीं है। इसी मज़मून की तसरीह सूरा-4 निसा, आयत-3; सूरा-23 मोमिनून, आयत-6 और सूरा-70 मआरिज, आयत-30 में भी की गई है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتَ ٱلنَّبِيِّ إِلَّآ أَن يُؤۡذَنَ لَكُمۡ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيۡرَ نَٰظِرِينَ إِنَىٰهُ وَلَٰكِنۡ إِذَا دُعِيتُمۡ فَٱدۡخُلُواْ فَإِذَا طَعِمۡتُمۡ فَٱنتَشِرُواْ وَلَا مُسۡتَـٔۡنِسِينَ لِحَدِيثٍۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ يُؤۡذِي ٱلنَّبِيَّ فَيَسۡتَحۡيِۦ مِنكُمۡۖ وَٱللَّهُ لَا يَسۡتَحۡيِۦ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ وَإِذَا سَأَلۡتُمُوهُنَّ مَتَٰعٗا فَسۡـَٔلُوهُنَّ مِن وَرَآءِ حِجَابٖۚ ذَٰلِكُمۡ أَطۡهَرُ لِقُلُوبِكُمۡ وَقُلُوبِهِنَّۚ وَمَا كَانَ لَكُمۡ أَن تُؤۡذُواْ رَسُولَ ٱللَّهِ وَلَآ أَن تَنكِحُوٓاْ أَزۡوَٰجَهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦٓ أَبَدًاۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمًا 51
(53) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! नबी के घरों में बिला इजाज़त न चले आया करो। न खाने का वक़्त ताकते रहो। हाँ, अगर तुम्हें खाने पर बुलाया जाए तो ज़रूर आओ। मगर जब खाना खा लो तो मुन्तशिर हो जाओ, बातें करने में न लगे रहो। तुम्हारी ये हरकतें नबी को तकलीफ़ देती हैं, मगर वह शर्म की वजह से कुछ नहीं कहता। और अल्लाह हक़ बात कहने में नहीं शरमाता। नबी की बीवियों से अगर तुम्हें कुछ माँगना हो तो परदे के पीछे से माँगा करो, यह तुम्हारे और उनके दिलों की पाकीज़गी के लिए ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा है। तुम्हारे लिए यह हरगिज़ जाइज़ नहीं कि अल्लाह के रसूल को तकलीफ़ दो और न यह जाइज़ है कि उनके बाद उनकी बीवियों से निकाह करो, यह अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा गुनाह है।
إِنَّ ٱللَّهَ وَمَلَٰٓئِكَتَهُۥ يُصَلُّونَ عَلَى ٱلنَّبِيِّۚ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ صَلُّواْ عَلَيۡهِ وَسَلِّمُواْ تَسۡلِيمًا 52
(56) अल्लाह और उसके मलाइका नबी पर दुरूद भेजते हैं, ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम भी उनपर दुरूद व सलाम भेजो।19
19. अल्लाह की तरफ़ से अपने नबी पर सलात का मतलब यह है कि वह आप (सल्ल०) पर बेहद मेहरबान है, आप (सल्ल०) की तारीफ़ फ़रमाता है, आप (सल्ल०) के काम में बरकत देता है, आप (सल्ल०) का नाम बलन्द करता है और आप (सल्ल०) पर अपनी रहमतों की बारिश फ़रमाता है। मलाइका की तरफ़ से आप (सल्ल०) पर सलात का मतलब यह है कि वे आप (सल्ल०) से ग़ायत दर्जे की मुहब्बत रखते हैं और आप (सल्ल०) के हक़ में अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह आप (सल्ल०) को ज़्यादा-से-ज़्यादा बलन्द मर्तबे अता फ़रमाए। अहले-ईमान की तरफ़ से आप (सल्ल०) पर सलात का मतलब यह है कि वे भी आप (सल्ल०) के हक़ में अल्लाह से दुआ करें कि वह आप (सल्ल०) पर अपनी रहमतें नाज़िल फ़रमाए।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡهِنَّ فِيٓ ءَابَآئِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآئِهِنَّ وَلَآ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ أَخَوَٰتِهِنَّ وَلَا نِسَآئِهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّۗ وَٱتَّقِينَ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا 54
(55) अज़वाजे-नबी के लिए इसमें कोई मुज़ायक़ा नहीं है कि उनके बाप, उनके बेटे, उनके भाई, उनके भतीजे, उनके भाँजे, उनके मेल-जोल की औरतें और उनके ममलूक घरों में आएँ। (ऐ औरतो!) तुम्हें अल्लाह की नाफ़रमानी से परहेज़ करना चाहिए। अल्लाह हर चीज़ पर निगाह रखता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡهِنَّ مِن جَلَٰبِيبِهِنَّۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يُعۡرَفۡنَ فَلَا يُؤۡذَيۡنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 57
(59) ऐ नबी! अपनी बीवियों और बेटियों और अहले-ईमान की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें।20 यह ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा है ताकि वे पहचान ली जाएँ और न सताई जाएँ।21 अल्लाह तआला ग़फ़ूर व रहीम है।
20. यानी चादर ओढ़कर ऊपर से घूँघट डाल लिया करें, बअलफ़ाजे-दीगर मुँह खोले न फिरें।
21. ‘पहचान ली जाएँ’ से मुराद यह है कि उनको इस सादा और हयादार लिबास में देखकर हर देखनेवाला जान ले कि वे शरीफ़ और बाइस्मत औरतें हैं, आवारा और खिलाड़ी नहीं हैं, कि कोई बदकिरदार इनसान उनसे अपने दिल की तमन्ना पूरी करने की उम्मीद कर सके। ‘न सताई जाएँ’ से मुराद यह है कि उनको न छेड़ा जाए, उनसे तअर्रुज़ न किया जाए।
۞لَّئِن لَّمۡ يَنتَهِ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡمُرۡجِفُونَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لَنُغۡرِيَنَّكَ بِهِمۡ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُونَكَ فِيهَآ إِلَّا قَلِيلٗا 58
(60) अगर मुनाफ़िक़ीन, और वे लोग जिनके दिलों में ख़राबी है, और वे जो मदीना में हैजानअंगेज़ अफवाहें फैलानेवाले हैं, अपनी हरकतों से बाज न आए तो हम उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए तुम्हें उठा खड़ा करेंगे, फिर वे इस शहर में मुशकिल ही से तुम्हारे साथ रह सकेंगे।
إِنَّا عَرَضۡنَا ٱلۡأَمَانَةَ عَلَى ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡجِبَالِ فَأَبَيۡنَ أَن يَحۡمِلۡنَهَا وَأَشۡفَقۡنَ مِنۡهَا وَحَمَلَهَا ٱلۡإِنسَٰنُۖ إِنَّهُۥ كَانَ ظَلُومٗا جَهُولٗا 70
(72) हमने इस अमानत22 को आसमानों और ज़मीन और पहाड़ों के सामने पेश किया तो वे उसे उठाने के लिए तैयार न हुए और उससे डर गए, मगर इनसान ने उसे उठा लिया, बेशक वह बड़ा ज़ालिम और जाहिल है।23
22. ‘अमानत’ से मुराद है उन ज़िम्मेदारियों का बार जो अल्लाह तआला ने अपनी ज़मीन में इख़्तियारात और अक़्ल देकर इनसान पर डाली हैं।
23. यानी इस बारे-अमानत का हामिल होकर भी अपनी ज़िम्मेदारी महसूस नहीं करता और ख़ियानत करके अपने ऊपर आप ज़ुल्म करता है।