44. अद-दुख़ान
(मक्का में उतरी, आयतें 59)
परिचय
नाम
आयत 10 "जब आकाश प्रत्यक्ष धुआँ (दुख़ान) लिए हुए आएगा" के 'दुख़ान' शब्द को इस सूरा का शीर्षक बनाया गया है, अर्थात् यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'दुख़ान' आया है।
उतरने का समय
सूरा की विषय-वस्तुओं के आन्तरिक साक्ष्य से पता चलता है कि यह भी उसी समय उतरी है जिस समय सूरा-43 जुखरुफ़ और उससे पहले की कुछ सूरतें उतरी थीं, अलबत्ता यह उनसे कुछ बाद की है। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि [वह ज़बरदस्त अकाल है, जो सारे इलाक़े में पड़ा था। (इस अकाल का विवरण आगे टिप्पणी 13 में आ रहा है।)]
विषय और वार्ता
इस सूरा की भूमिका कुछ महत्त्वपूर्ण वार्ताओं पर आधारित है :
एक यह कि यह किताब अपने आप में स्वयं इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह किसी इंसान की नहीं, बल्कि जगत-प्रभु की किताब है।
दूसरे यह कि तुम्हारे नज़दीक यह एक आपदा है जो तुमपर उतरी है, हालाँकि वास्तव में वह घड़ी बड़ी शुभ घड़ी थी, जब अल्लाह ने सरासर अपनी रहमत के कारण तुम्हारे यहाँ अपना रसूल भेजने और अपनी किताब उतारने का फ़ैसला किया।
तीसरे यह कि इस रसूल का भेजा जाना और इस किताब का उतारा जाना उस ख़ास घड़ी में हुआ जब अल्लाह भाग्यों के फ़ैसले किया करता है, और अल्लाह के फ़ैसले बोदे नहीं होते कि जिसका जी चाहे उन्हें बदल डाले, न वे किसी अज्ञान और नादानी पर आधारित होते हैं कि उनमें दोष और कमी पाई जाए। वे तो उस जगत-शासक के पक्के और अटल फ़ैसले होते हैं जो सब कुछ सुननेवाला, सब कुछ जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है। उनसे लड़ना कोई खेल नहीं है।
चौथे यह कि अल्लाह को तुम स्वयं भी जगत् की हर चीज़ का मालिक और पालनकर्ता मानते हो, मगर इसके बावजूद तुम्हें दूसरों को उपास्य बनाने पर आग्रह है और इसके लिए तर्क तुम्हारे पास इसके सिवा और कुछ नहीं है कि बाप-दादा के समयों से यही काम होता चला आ रहा है। हालाँकि तुम्हारे बाप दादा ने अगर यह मूर्खता की थी तो कोई कारण नहीं कि तुम भी आँखें बन्द करके वही करते चले जाओ।
पाँचवें यह की अल्लाह को पालन-क्रिया और दयालुता को केवल यही अपेक्षित नहीं है कि तुम्हारा पेट पाले, बल्कि यह भी है कि तुम्हारे मार्गदर्शन का प्रबन्ध करे। इस मार्गदर्शन के लिए उसने रसूल भेजा है और किताब उतारी है।
इस भूमिका के बाद उस अकाल के मामले को लिया गया है जो उस वक़्त पड़ा हुआ था [और बताया गया है कि यह अकाल रूपी चेतावनी भी सत्य के इन शत्रुओं की गफ़लत (बेसुध अवस्था) दूर न कर सकेगी।] इसी सिलसिले में आगे चलकर फ़िरऔन और उसकी क़ौम का हवाला दिया गया है कि उन लोगों को भी ठीक इसी प्रकार परीक्षा ली गई थी जो परीक्षा क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी सरदारों की ली जा रही है। उनके पास भी ऐसा ही एक प्रतिष्ठित रसूल आया था। वे भी निशानी पर निशानी देखते चले गए, मगर अपने दुराग्रह को त्याग न सके, यहाँ तक कि अन्त में रसूल की जान लेने पर उतर आए और नतीजा वह कुछ देखा जो हमेशा के लिए शिक्षाप्रद बनकर रह गया।
इसके बाद दूसरा विषय आख़िरत (परलोक) का लिया गया है जिससे मक्का के इस्लाम-विरोधियों को पूर्णत: इंकार था। इसके उत्तर में आख़िरत के अक़ीदे की दो दलीलें संक्षेप में दी गई हैं-
एक यह कि इस अक़ीदे का इंकार हमेशा नैतिकता के लिए विनाशकारी सिद्ध होता रहा है।
दूसरे यह कि जगत् किसी खिलवाड़ करनेवालों का खिलौना नहीं है, बल्कि यह एक तत्त्वदर्शिता पर आधारित व्यवस्था है, और तत्त्वदर्शी का कोई काम निरर्थक नहीं होता। फिर यह कहकर बात समाप्त कर दी गई है कि तुम लोगों को समझाने के लिए यह क़ुरआन साफ़-सुथरी भाषा में और तुम्हारी अपनी भाषा में उतार दिया गया है। अब अगर तुम समझाने से नहीं समझते तो इन्तिज़ार करो, हमारा नबी भी इन्तिज़ार कर रहा है, जो कुछ होना है वह अपने समय पर सामने आएगा।
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