56. अल-वाक़िआ
(मक्का में उतरी, आयतें 96)
परिचय
नाम
पहली ही आयत के शब्द 'अल-वाक़िआ' (वह होनेवाली घटना) को इस सूरा का नाम दिया गया है।
उतरने का समय
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने सूरतों के उतरने का जो क्रम बयान किया है, उसमें वे कहते हैं कि पहले सूरा-20 ता-हा उतरी, फिर अल-वाक़िआ और उसके बाद सूरा-26 शुअरा [अल-इतक़ान लिस-सुयूती] । यही क्रम इक्रिमा ने भी बयान किया है, (बैहक़ी, दलाइलुन्नुबुव्वत)। इसकी पुष्टि उस क़िस्से से भी होती है जो हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बारे में इब्ने-हिशाम ने इब्ने-इस्हाक़ से उद्धृत किया है। उसमें यह उल्लेख हुआ है कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बहन के घर में दाख़िल हुए तो सूरा-20 ता-हा पढ़ी जा रही थी और जब उन्होंने कहा था कि अच्छा, मुझे वह सहीफ़ा (लिखित पृष्ठ) दिखाओ जिसे तुमने छिपा लिया है तो बहन ने कहा, "आप अपने शिर्क के कारण नापाक हैं और इस सहीफ़े को सिर्फ़ पाक व्यक्ति ही हाथ लगा सकता है।" अतएव हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर स्नान किया और फिर उस सहीफ़े को लेकर पढ़ा। इससे मालूम हुआ कि उस समय सूरा-56 अल-वाक़िआ उतर चुकी थी, क्योंकि इसी में आयत "इसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता" (आयत-79) आई है। और यह ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि०) हबशा की हिजरत के बाद सन् 05 नबवी में ईमान लाए हैं।
विषय और वार्ता
इसका विषय आख़िरत (परलोक), तौहीद (एकेश्वरवाद) और क़ुरआन के सम्बन्ध में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों का खंडन है। सबसे अधिक जिस चीज़ को वे अविश्वसनीय ठहराते थे, वह [क़ियामत और आख़िरत थी। उनका कहना] यह था कि ये सब काल्पनिक बातें हैं जिनका वास्तविक लोक में घटित होना असम्भव है। इसके जवाब में कहा गया कि जब वह घटना घटित होगी तो उस समय कोई यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटित नहीं हुई है, न किसी में यह शक्ति होगी कि उसे आते-आते रोक दे या घटना को असत्य कर दिखाए। उस समय निश्चित रूप से तमाम इंसान तीन वर्गों में बँट जाएँगे। एक आगेवाले, दूसरे आम नेक लोग, तीसरे वे लोग जो आख़िरत के इंकारी रहे और मरते दम तक कुफ़्र (इंकार), शिर्क और बड़े-बड़े गुनाहों पर जमे रहे। इन तीनों वर्गों के लोगों के साथ जो व्यवहार होगा उसे आयत 7 से 56 तक में सविस्तार बयान किया गया है। इसके बाद आयत 57 से 74 तक इस्लाम के उन दोनों बुनियादी अक़ीदों (आधारभूत अवधारणाओं) की सत्यता पर निरन्तर प्रमाण दिए गए हैं, जिनको मानने से विरोधी इंकार कर रहे थे अर्थात् तौहीद और आख़िरत। फिर आयत 75 से 82 तक क़ुरआन के सम्बन्ध में उनके सन्देहों का खंडन किया गया है और क़ुरआन की सत्यता पर दो संक्षिप्त वाक्यों में यह अतुल्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि इसपर कोई विचार करे तो इसमें ठीक वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था पाएगा, जैसी जगत् के तारों और नक्षत्रों की व्यवस्था सुदृढ़ है और यही इस बात का प्रमाण है कि इसका रचयिता वही है जिसने सृष्टि की यह व्यवस्था बनाई है। फिर इस्लाम-विरोधियों से कहा गया है कि यह किताब उस नियति-पत्र में अंकित है जो मख़लूक (सृष्ट प्राणियों) की पहुँच से परे है। तुम समझते हो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) के पास शैतान लाते हैं, हालाँकि 'लौहे-महफूज़' (सुरक्षित पट्टिका) से मुहम्मद (सल्ल०) तक जिस माध्यम से यह पहुँचती है, उसमें पवित्र आत्मा फ़रिश्तों के सिवा किसी को तनिक भी हस्तक्षेप करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं है। अंत में इंसान को बताया गया है कि तू अपनी स्वच्छन्दता के घमंड में कितना ही आधारभूत तथ्यों की ओर से अंधा हो जाए, मगर मौत का समय तेरी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। [तेरे रिश्ते-नातेदार] तेरी आँखों के सामने मरते हैं और तू देखता रह जाता है। अगर कोई सर्वोच्च सत्ता तेरे ऊपर शासन नहीं कर रही है और तेरा यह दंभ उचित है कि संसार में बस तू ही तू है, कोई ख़ुदा नहीं है, तो किसी मरनेवाले की निकलती हुई जान को पलटा क्यों नहीं लाता? जिस तरह तू इस मामले में बेबस है, उसी तरह ख़ुदा की पूछ-गच्छ और उसके इनाम और सज़ा को भी रोक देना तेरे बस में नहीं है। तू चाहे माने या न माने, मौत के बाद हर मरनेवाला अपना अंजाम देखकर रहेगा।
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