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سُورَةُ الحَدِيدِ

57. अल-हदीद

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

आयत 25 के वाक्यांश "व अंज़ल-नल हदीद' अर्थात् "और हमने लोहा (हदीद) उतारा" से लिया गया है।

उतरने का समय

इसके मदनी सूरा होने में सभी टीकाकार एकमत हैं और इसके विषयों पर विचार करने से महसूस होता है कि शायद यह उहुद के युद्ध और हुदैबिया के समझौते के बीच किसी समय उतरी है। यह वह समय था जब इस्लाम को अपने अनुयायियों से केवल प्राण की क़ुरबानी ही की ज़रूरत न थी, बल्कि धन की क़ुरबानी की भी थी, और इस सूरा में इसी क़ुरबानी के लिए ज़ोरदार अपील की गई है। इस अनुमान की आयत 10 से और अधिक पुष्टि होती है।

विषय और वार्ता

इसका विषय अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने पर उभारता है। यह सूरा इस उद्देश्य के लिए उतारी गई थी कि मुसलमानों को विशेष रूप से धन की क़ुरबानियों के लिए तैयार किया जाए और यह बात उनके मन में बिठा दी जाए कि ईमान [की मूल आत्मा और वास्तविकता] अल्लाह और उसके धर्म के लिए निष्ठावान होना है। जो व्यक्ति इस आत्मा से वंचित है और ख़ुदा और उसके धर्म की तुलना में अपनी जान-माल और अपने हित को अधिक प्रिय समझे, उसके ईमान की स्वीकृति खोखली है। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले अल्लाह के गुणों को बयान किया गया है, ताकि सुननेवालों को अच्छी तरह यह एहसास हो जाए कि इस महान हस्ती की ओर से उनको संबोधित किया जा रहा है। इसके बाद निम्नलिखित विषय-वस्तुएँ क्रमशः प्रस्तुत की गई हैं—

  1. ईमान का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि आदमी ख़ुदा के रास्ते में माल ख़र्च करने से न कतराए।
  2. ख़ुदा की राह में जान-माल की क़ुरबानी देना यद्यपि हर हाल में अपना मूल्य रखता है,

मगर इन क़ुरबानियों का मूल्य मौक़ों की गंभीरता की दृष्टि से निश्चित होता है। जो लोग इस्लाम की कमज़ोरी की हालत में उसे उच्च करने के लिए जानें लड़ाएँ और माल खर्च करें, उनके दर्जे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो इस्लाम के प्रभावी होने की स्थिति में उसकी तदधिक उन्नति और आगे बढ़ाने के लिए जान-माल क़ुरबान करें।

  1. सत्य मार्ग में जो माल भी ख़र्च किया आए, वह अल्लाह के ज़िम्मे है, और अल्लाह न सिर्फ़ यह कि उसे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस देगा, बल्कि अपनी और से और अधिक प्रतिदान भी प्रदान करेगा।
  2. आख़िरत में ख़ुदा का नूर (प्रकाश) उन्हीं ईमानवालों को मिलेगा, जिन्होंने अल्लाह के मार्ग में अपना माल ख़र्च किया हो। रहे ये मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) जो दुनिया में अपने ही हित को देखते रहे, आख़िरत में उनको ईमानवालों से अलग कर दिया जाएगा। वे प्रकाश से वंचित होंगे और उनका परिणाम वही होगा जो इंकार करनेवालों का होगा।
  3. मुसलमानों को उन अहले-किताब की तरह नहीं हो जाना चाहिए जिनके दिल लम्बे समय की ग़फ़लतों (बेसुधियों) की वजह से पत्थर हो गए हैं। वह ईमानवाला ही क्या जिसका दिल ख़ुदा की याद से न पिघले और उसके उतारे हुए सत्य के आगे न झुके।
  4. अल्लाह की दृष्टि में 'सिद्दीक़' (सत्यवान) और 'शहीद' (साक्षी) कैवल वे ईमानवाले हैं जो अपना माल किसी दिखावे की भावना के बिना सच्चे दिल से उसके मार्ग में ख़र्च करते हैं।
  5. दुनिया की ज़िन्दगी सिर्फ़ कुछ दिनों की बहार और एक धोखे का सामान है। यहाँ की साज-सजा और यहाँ का धन-दौलत, जिसमें लोग एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिशें करते हैं, सब कुछ अस्थायी है। स्थायी जीवन वास्तव में आख़िरत की ज़िन्दगी है। तुम्हें एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करनी है तो यह कोशिश जन्नत की ओर दौड़ने में करो।
  6. दुनिया में सुख और दुख जो भी होता है, अल्लाह के पहले से लिखे हुए फ़ैसले के अनुसार होता है। ईमानवालों का चरित्र यह होना चाहिए कि दुख या मुसीबत आए तो हिम्मत न हार बैठें, और सुख आए तो इतराने न लगें।
  7. अल्लाह ने अपने रसूल खुली-खुली निशानियों और किताब और न्याय-तुला के साथ भेजे, ताकि लोग न्याय पर स्थिर रह सकें, और इसके साथ लोहा भी उतारा, ताकि सत्य को स्थापित करने और असत्य का सिर नीचा करने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाए। इस तरह अल्लाह यह देखना चाहता है कि इंसानों में से कौन लोग ऐसे निकलते हैं जो उसके धर्म के समर्थन और उसकी सहायता के लिए खड़े हों और उसके लिए जान लड़ा दें।
  8. अल्लाह की ओर से पहले पैग़म्बर आते रहे जिनकी दावत से कुछ लोग सीधी राह पर आए और अधिकतर अवज्ञाकारी बने रहे। फिर ईसा (अलैहि०) आए, जिनकी शिक्षा से लोगों में बहुत-से नैतिक गुण पैदा हुए, मगर उनकी उम्मत ने संन्यास की नई नीति अपना ली। अब सर्वोच्च अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) को भेजा है। उनपर जो लोग ईमान लाएँगे, अल्लाह उनको अपनी दयालुता का दोहरा हिस्सा देगा और उन्हें [सीधी राह दिखानेवाला] नूर (प्रकाश) प्रदान करेगा। अहले-किताब चाहे अपने आपको अल्लाह की कृपाओं का ठेकेदार समझते रहें, मगर अल्लाह की कृपा उसके अपने ही हाथ में है, उसे अधिकार है जिसे चाहे अपने उदार दान से सम्पन्न करे।

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سُورَةُ الحَدِيدِ
57. अल-हदीद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
अल्लाह की तसबीह की है हर उस चीज़ ने जो ज़मीन और आसमानों में है, और वही ज़बरदस्त और दाना है।
لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 1
(2) ज़मीन और आसमानों की सल्तनत का मालिक वही है, ज़िन्दगी बख़्शता है और मौत देता और हर चीज पर क़ुदरत रखता है।
هُوَ ٱلۡأَوَّلُ وَٱلۡأٓخِرُ وَٱلظَّٰهِرُ وَٱلۡبَاطِنُۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 2
(3) वही अव्वल भी है और आख़िर भी, और ज़ाहिर भी है। और मख़फ़ी भी,1 और वह हर चीज़ का इल्म रखता है।
1. यानी जब कुछ न था तो वह था और जब कुछ न रहेगा तो वह रहेगा। वह सब ज़ाहिरों से बढ़कर ज़ाहिर है, क्योंकि दुनिया में जो कुछ भी ज़ुहूर है उसी की सिफ़ात और उसी के अफ़आल और उसी के नूर का ज़ुहूर है। और वह हर मख़फ़ी से बढ़कर मख़फ़ी है, क्योंकि हवास से उसकी ज़ात को महसूस करना तो दरकिनार, अक़्ल व फ़िक्र व ख़याल तक उसकी कुन्ह व हक़ीक़त को नहीं पा सकते।
وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا يَسۡتَوِي مِنكُم مَّنۡ أَنفَقَ مِن قَبۡلِ ٱلۡفَتۡحِ وَقَٰتَلَۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡظَمُ دَرَجَةٗ مِّنَ ٱلَّذِينَ أَنفَقُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَقَٰتَلُواْۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 3
(10) आख़िर क्या वजह है कि तुम अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते हालाँकि ज़मीन और आसमानों की मीरास अल्लाह ही के लिए है।6 तुममें से जो लोग फ़त्‌ह के बाद ख़र्च और जिहाद करेंगे वे कभी उन लोगों के बराबर नहीं हो सकते जिन्होंने फ़त्‌ह से पहले ख़र्च और जिहाद किया है। उनका दरजा बाद में ख़र्च और जिहाद करनेवालों से बढ़कर है अगरचे अल्लाह ने दोनों ही से अच्छे वादे फ़रमाए हैं।7 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है।
6. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि माल तुम्हारे पास हमेशा रहनेवाला नहीं है, एक दिन तुम्हें लाज़िमन इसे छोड़कर ही जाना है और अल्लाह ही इसका वारिस होनेवाला है। दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह तआला की राह में माल ख़र्च करते हुए तुमको किसी फ़िक्र और तंगदस्ती का अंदेशा लाहिक़ न होना चहिए, क्योंकि जिस ख़ुदा की ख़ातिर तुम उसे ख़र्च करोगे वह ज़मीन व आसमान के सारे ख़जानों का मालिक है, उसके पास तुम्हें देने को बस उतना ही कुछ न था जो उसने आज तुम्हें दे रखा है, बल्कि कल वह तुम्हें इससे बहुत ज़्यादा दे सकता है।
7. इससे मालूम हुआ कि जब कभी इस्लाम पर ऐसा वक़्त आ जाए जिसमें कुफ़्र और कुफ़्फ़ार का पलड़ा बहुत भारी हो और बज़ाहिर इस्लाम के ग़लबे के आसार दूर-दूर तक नज़र न आते हो, उस वक़्त जो लोग इस्लाम की हिमायत में जाने लड़ाएँ और माल ख़र्च करें उनके मर्तबे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो कुफ़्र व इस्लाम की कश-मकश का फ़ैसला इस्लाम के हक़ में हो जाने के बाद क़ुरबानियाँ दें।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۖ وَهُوَ مَعَكُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 4
(4) वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छह दिनों में पैदा किया और फिर अर्श पर जलवाफ़रमा हुआ। उसके इल्म में है जो कुछ ज़मीन में जाता है और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है2 वह तुम्हारे साथ है जहाँ भी तुम हो। जो काम भी तुम करते हो उसे वह देख रहा है।
2. ब-अलफ़ाज़े-दीगर वह मह्ज़ कुल्लियात ही का आलिम नहीं है, बल्कि जुज़्इयात का इल्म भी रखता है। एक-एक दाना जो ज़मीन की तहों में जाता है, एक-एक पत्ती और कोंपल जो ज़मीन से फूटती है, बारिश का एक-एक क़तरा जो आसमान से गिरता है और बुख़ारात की हर मिक़दार जो समुन्दरों और झीलों से उठकर आसमान की तरफ़ जाती है, उसकी निगाह में है। उसको मालूम है कि कौन-सा दाना ज़मीन में किस जगह पड़ा है, तभी तो वह उसे फाड़कर उसमें से कोंपल निकालता है और उसे परवरिश करके बढ़ाता है। उसको मालूम है कि बुख़ारात की कितनी मिक़दार कहाँ से उठी है और कहाँ पहुँची है, तभी तो वह उन सबको जमा करके बादल बनाता है और ज़मीन के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बाँटकर हर जगह एक हिसाब से बारिश बरसाता है।
لَّهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 5
(5) वही ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है। और तमाम मामलात फ़ैसले के लिए उसी की तरफ़ रुजूअ किए जाते हैं,
مَّن ذَا ٱلَّذِي يُقۡرِضُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا فَيُضَٰعِفَهُۥ لَهُۥ وَلَهُۥٓ أَجۡرٞ كَرِيمٞ ۝ 6
(11) कौन है जो अल्लाह को क़र्ज़ दे? अच्छा क़र्ज़, ताकि अल्लाह उसे कई गुना बढ़ाकर वापस दे और उसके लिए बेहतरीन अज्र है।8
8. यह अल्लाह तआला की शाने-करीमी है कि आदमी अगर उसके बख़्शे हुए माल को उसी की राह में सर्फ़ करे तो उसे वह अपने ज़िम्मे क़र्ज़ क़रार देता है, बशर्ते कि वह क़र्ज़े-हसन (अच्छा क़र्ज़) हो, यानी ख़ालिस नीयत के साथ किसी ज़ाती ग़रज़ के बग़ैर दिया जाए। इस क़र्ज़ के मुताल्लिक़ अल्लाह के दो वादे हैं। एक यह कि वह उसको कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस देगा, दूसरे यह कि वह इसपर अपनी तरफ़ से बेहतरीन अज्र भी अता फ़रमाएगा।
يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِۚ وَهُوَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 7
(6) वही रात को दिन में और दिन को रात में दाख़िल करता है, और दिलों के छिपे हुए राज़ तक जानता है।
يَوۡمَ تَرَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَسۡعَىٰ نُورُهُم بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَبِأَيۡمَٰنِهِمۖ بُشۡرَىٰكُمُ ٱلۡيَوۡمَ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 8
(12) उस दिन जबकि तुम मोमिन मर्दों और औरतों को देखोगे कि उनका नूर उनके आगे-आगे और उनके दाएँ जानिब दौड़ रहा होगा।9 (उनसे कहा जाएगा कि) “आज बशारत है तुम्हारे लिए।” जन्नतें होंगी जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जिनमें वे हमेशा रहेंगे। यही है बड़ी कामयाबी।
9. यहाँ एक सवाल आदमी के ज़ेहन में खटक पैदा कर सकता है। वह यह कि आगे-आगे नूर का दौड़ना तो समझ में आता है मगर नूर का सिर्फ़ दाएँ जानिब दौड़ना क्या मानी? क्या उनके बाएँ जानिब तारीकी होगी? इसका जवाब यह है कि अगर एक शख़्स अपने दाएँ हाथ पर रौशनी लिए हुए चल रहा हो तो इससे रोशन तो बाएँ जानिब भी होगी मगर अम्रे-वाक़िआ यही होगा कि रौशनी उसके दाएँ हाथ पर है।
ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَأَنفِقُواْ مِمَّا جَعَلَكُم مُّسۡتَخۡلَفِينَ فِيهِۖ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَأَنفَقُواْ لَهُمۡ أَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 9
(7) ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर3 और ख़र्च करो उन चीज़ों में से जिनपर उसने तुमको ख़लीफ़ा बनाया है। जो लोग तुममें से ईमान लाएँगे और माल ख़र्च करेंगे उनके लिए बड़ा अज्र है।
3. यहाँ ईमान लाने से मुराद मह्ज़ ज़बानी इक़रारे-इस्लाम नहीं, बल्कि सच्चे दिल से ईमान लाना है।
يَوۡمَ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتُ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱنظُرُونَا نَقۡتَبِسۡ مِن نُّورِكُمۡ قِيلَ ٱرۡجِعُواْ وَرَآءَكُمۡ فَٱلۡتَمِسُواْ نُورٗاۖ فَضُرِبَ بَيۡنَهُم بِسُورٖ لَّهُۥ بَابُۢ بَاطِنُهُۥ فِيهِ ٱلرَّحۡمَةُ وَظَٰهِرُهُۥ مِن قِبَلِهِ ٱلۡعَذَابُ ۝ 10
(13) उस रोज़ मुनाफ़िक़ मर्दों और औरतों का हाल यह होगा कि वे मोमिनों से कहेंगे, “ज़रा हमारी तरफ़ देखो ताकि हम तुम्हारे नूर से कुछ फ़ायदा उठाएँ।” मगर उनसे कहा जाएगा, “पीछे हट जाओ, अपना नूर कहीं और तलाश करो।” फिर उनके दरमियान एक दीवार हाइल कर दी जाएगी जिसमें एक दरवाज़ा होगा। उस दरवाजे के अन्दर रहमत होगी और बाहर अज़ाब।
وَمَا لَكُمۡ لَا تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ لِتُؤۡمِنُواْ بِرَبِّكُمۡ وَقَدۡ أَخَذَ مِيثَٰقَكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 11
(8) तुम्हें क्या हो गया है कि तुम अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, हलाँकि रसूल तुम्हें अपने रब पर ईमान लाने की दावत दे रहा है4 और वह तुम से अह्द ले चुका है5 अगर तुम वाक़ई माननेवाले हो।
4. यहाँ भी ईमान लाने से मुराद सच्चे दिल से ईमान लाना है।
5. यानी इताअत का अह्द।
يُنَادُونَهُمۡ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡۖ قَالُواْ بَلَىٰ وَلَٰكِنَّكُمۡ فَتَنتُمۡ أَنفُسَكُمۡ وَتَرَبَّصۡتُمۡ وَٱرۡتَبۡتُمۡ وَغَرَّتۡكُمُ ٱلۡأَمَانِيُّ حَتَّىٰ جَآءَ أَمۡرُ ٱللَّهِ وَغَرَّكُم بِٱللَّهِ ٱلۡغَرُورُ ۝ 12
(14) वे मोमिनों से पुकार-पुकारकर कहेंगे, “क्या हम तुम्हारे साथ न थे?” मोमिन जवाब देंगे, “हाँ, मगर तुमने अपने-आपको ख़ुद फ़ितने में डाला, मौक़ा-परस्ती की, शक में पड़े रहे और झूठी तवक़्कुआत तुम्हें फ़रेब देती रहीं, यहाँ तक कि अल्लाह का फ़ैसला आ गया और आख़िर वक़्त तक वह बड़ा धोखेबाज़ (शैतान) तुम्हें अल्लाह के मामले में धोखा देता रहा।
هُوَ ٱلَّذِي يُنَزِّلُ عَلَىٰ عَبۡدِهِۦٓ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لِّيُخۡرِجَكُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ بِكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 13
(9) वह अल्लाह ही तो है जो अपने बन्दे पर साफ़-साफ़ आयतें नाज़िल कर रहा है ताकि तुम्हें तारीकियों से निकालकर रौशनी में ले आए, और हक़ीक़त यह है कि अल्लाह तुमपर निहायत शफ़ीक़ और मेहरबान है।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا يُؤۡخَذُ مِنكُمۡ فِدۡيَةٞ وَلَا مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ مَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُۖ هِيَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 14
(15) लिहाज़ा आज न तुमसे कोई फ़िदया क़ुबूल किया जाएगा और न उन लोगों से जिन्होंने खुला-खुला कुफ़्र किया था। तुम्हारा ठिकाना जहन्नम है, वही तुम्हारी ख़बरगीरी करनेवाली है और यह बदतरीन अंजाम है।”
۞أَلَمۡ يَأۡنِ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن تَخۡشَعَ قُلُوبُهُمۡ لِذِكۡرِ ٱللَّهِ وَمَا نَزَلَ مِنَ ٱلۡحَقِّ وَلَا يَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلُ فَطَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَمَدُ فَقَسَتۡ قُلُوبُهُمۡۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 15
(16) क्या ईमान लानेवालों10 के लिए अभी वह वक़्त नहीं आया कि उनके दिल अल्लाह के ज़िक्र से पिघलें और उसके नाज़िल-करदा हक़ के आगे झुकें और वे उन लोगों की तरह न हो जाएँ जिन्हें पहले किताब दी गई थी, फिर एक लम्बी मुद्दत उनपर गुज़र गई तो उनके दिल सख़्त हो गए और आज उनमें से अकसर फ़ासिक बने हुए हैं?
10. यहाँ ‘ईमान लानेवालों’ से मुराद तमाम मुसलमान नहीं, बल्कि मुसलमानों का वह ख़ास गरोह है जो ईमान का इक़रार करके रसूलुल्लाह (सल्ल०) के माननेवालों में शामिल हो गया था और इसके बावजूद इस्लाम के दर्द से उसका दिल ख़ाली था।
إِنَّ ٱلۡمُصَّدِّقِينَ وَٱلۡمُصَّدِّقَٰتِ وَأَقۡرَضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا يُضَٰعَفُ لَهُمۡ وَلَهُمۡ أَجۡرٞ كَرِيمٞ ۝ 16
(18) मर्दो और औरतों में से जो लोग सदक़ात12 देनेवाले हैं और जिन्होंने अल्लाह को क़र्ज़े-हसन दिया है, उनको यक़ीनन कई गुना बढ़ाकर दिया जाएगा और उनके लिए बेहतरीन अज्र है।
12. ‘सदक़ा’ उर्दू ज़बान में तो बहुत ही बुरे मानों में बोला जाता है, मगर इस्लाम की इस्तिलाह में यह उस अतिए को कहते हैं जो सच्चे दिल और ख़ालिस नीयत के साथ मह्ज़ अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए दिया जाए और जिसमें कोई रियाकारी न हो, न किसी पर एहसान जताया जाए।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 17
(17) ख़ूब जान लो कि अल्लाह ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी बख़्शता है,11 हमने निशानियाँ तुमको साफ़-साफ़ दिखा दी हैं, शायद कि तुम अक़्ल से काम लो।
11. यहाँ जिस मुनासबत से यह बात इरशाद हुई है उसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क़ुरआन मजीद में मुताद्दिद मक़ामात पर नुबूवत और किताब के नुज़ुल को बारिश की बरकात से तशबीह दी गई है क्योंकि इनसानियत पर उसके वही असरात मुरत्तब होते हैं जो ज़मीन पर बारिश के हुआ करते हैं। जिस ज़मीन में कुछ भी रुईदगी की सलाहियत होती है वह लहलहा उठती है, अलबत्ता बंजर ज़मीन जैसी थी वैसी ही बंजर पड़ी रहती है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصِّدِّيقُونَۖ وَٱلشُّهَدَآءُ عِندَ رَبِّهِمۡ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ وَنُورُهُمۡۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 18
(19) और जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हैं वही अपने रब के नज़दीक सिद्दीक,13 और शहीद14 हैं, उनके लिए उनका अज्र और उनका नूर है और जिन लोगों ने कुफ़्र किया है और हमारी आयात को झुठलाया है वे दोज़ख़ी हैं।
13. यह ‘सिद्क़’ का मुबालग़ा है। सादिक़ सच्चा और सिद्दीक़ निहायत सच्चा। मुराद है ऐसा रास्तबाज़ आदमी जिसमें कोई खोट न हो, जो कभी हक़ और रास्ती से न हटा हो, जिससे यह तवक़्क़ो ही न की जा सकती हो कि वह कभी अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ कोई बात कहेगा, जिसने किसी बात को माना हो तो पूरे ख़ुलूस के साथ माना हो, उसकी वफ़ादारी का हक़ अदा किया हो और अपने अमल से साबित कर दिया हो कि वह फ़िल-वाक़े वैसा ही माननेवाला है जैसा एक माननेवाले को होना चाहिए।
14. ‘शहीद’ से मुराद यहाँ वह शख़्स है जो अपने क़ौल और अमल से हक़ की शहादत दे।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞ وَزِينَةٞ وَتَفَاخُرُۢ بَيۡنَكُمۡ وَتَكَاثُرٞ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِۖ كَمَثَلِ غَيۡثٍ أَعۡجَبَ ٱلۡكُفَّارَ نَبَاتُهُۥ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَىٰهُ مُصۡفَرّٗا ثُمَّ يَكُونُ حُطَٰمٗاۖ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٞ شَدِيدٞ وَمَغۡفِرَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٞۚ وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا مَتَٰعُ ٱلۡغُرُورِ ۝ 19
(20) ख़ूब जान लो कि यह दुनिया की जिन्दगी इसके सिवा कुछ नहीं कि एक खेल और दिल्लगी और ज़ाहिरी टिप-टाप और तुम्हारा आपस में एक-दूसरे पर फ़ख़्र जताना और माल व औलाद में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करना है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक बारिश हो गई तो उससे पैदा होनेवाली नबातात को देखकर काश्तकार ख़ुश हो गए। फिर वही खेती पक जाती है और तुम देखते हो कि वह ज़र्द हो गई। फिर वह भुस बनकर रह जाती है। इसके बरअक्स आख़िरत वह जगह है जहाँ सख़्त अज़ाब है और अल्लाह की मग़फ़िरत और उसकी ख़ुशनूदी है। दुनिया की ज़िन्दगी एक धोखे की टट्टी के सिवा कुछ नहीं।
سَابِقُوٓاْ إِلَىٰ مَغۡفِرَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ وَجَنَّةٍ عَرۡضُهَا كَعَرۡضِ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ أُعِدَّتۡ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 20
(21) दौड़ो और एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश करो, अपने रब की मग़फ़िरत और उस जन्नत की तरफ़ जिसकी वुसआत आसमान व ज़मीन जैसी है,15 जो मुहैया की गई है उन लोगों के लिए जो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हों। यह अल्लाह का फ़ज़्ल है, जिसे चाहता है अता फ़रमाता है, और अल्लाह बड़े फ़ज़्लवाला है।
15. इस आयत को सूरा-3 आले-इमरान की आयत-133 के साथ मिलाकर पढ़ने से कुछ ऐसा तसव्वुर ज़ेहन में आता है कि जन्नत में एक इनसान को जो बाग़ और महलात मिलेंगे वो तो सिर्फ़ उसके क़ियाम के लिए होंगे मगर दर-हक़ीक़त पूरी कायनात उसकी सैरगाह होगी।
مَآ أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مِّن قَبۡلِ أَن نَّبۡرَأَهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 21
(22) कोई मुसीबत ऐसी नहीं है जो ज़मीन में या तुम्हारे अपने नफ़्स पर नाज़िल होती हो और हमने उसको पैदा करने से पहले एक किताब (यानी नविशता-ए-तक़दीर) में लिख न रखा हो। ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान काम है।
ثُمَّ قَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِرُسُلِنَا وَقَفَّيۡنَا بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَۖ وَجَعَلۡنَا فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ رَأۡفَةٗ وَرَحۡمَةٗۚ وَرَهۡبَانِيَّةً ٱبۡتَدَعُوهَا مَا كَتَبۡنَٰهَا عَلَيۡهِمۡ إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ رِضۡوَٰنِ ٱللَّهِ فَمَا رَعَوۡهَا حَقَّ رِعَايَتِهَاۖ فَـَٔاتَيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۡهُمۡ أَجۡرَهُمۡۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 22
(27) उनके बाद हमने पै-दर-पै अपने रसूल भेजे, और उन सबके बाद ईसा इब्ने-मरयम को मबऊस किया और उसको इंजील अता की और जिन लोगों ने उसकी पैरवी इख़्तियार की उनके दिलों में हमने तरस और रह्म डाल दिया। और रहबानियत18 उन्होंने ख़ुद ईजाद कर ली हमने उसे उनपर फ़र्ज़ नहीं किया था, मगर अल्लाह की ख़ुशनूदी की तलब में उन्होंने आप ही यह बिदअत निकाली और फिर उसकी पाबन्दी करने का जो हक़ था उसे अदा न किया। उनमें से जो लोग ईमान लाए हुए थे उनका अज्र हमने उनको अता किया, मगर उनमें से अकसर लोग फ़ासिक़ हैं।
18. रहबानियत के मानी हैं तारिकुद्-दुनिया बन जाना और दुनियवी ज़िन्दगी से भागकर जंगलों और पहाड़ों में पनाह लेना या गोशहाए-उज़लत में जा बैठना।
لِّكَيۡلَا تَأۡسَوۡاْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا تَفۡرَحُواْ بِمَآ ءَاتَىٰكُمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ مُخۡتَالٖ فَخُورٍ ۝ 23
(23) (यह सब कुछ इसलिए है) ताकि जो कुछ भी नुक़सान तुम्हें हो उसपर तुम दिल शिकस्ता न हो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें अता फ़रमाए उसपर फूल न जाओ। अल्लाह ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करता जो अपने-आपको बड़ी चीज़ समझते हैं और फ़ख़्र जताते हैं,
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَءَامِنُواْ بِرَسُولِهِۦ يُؤۡتِكُمۡ كِفۡلَيۡنِ مِن رَّحۡمَتِهِۦ وَيَجۡعَل لَّكُمۡ نُورٗا تَمۡشُونَ بِهِۦ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 24
(28) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो और उसके रसूल (मुहम्मद सल्ल०) पर ईमान लाओ, अल्लाह तुम्हें अपनी रहमत का दोहरा हिस्सा अता फ़रमाएगा और तुम्हें वह नूर बख़्शेगा जिसकी रोशनी में तुम चलोगे, और तुम्हारे क़ुसूर माफ़ कर देगा, अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और मेहरबान है।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِۗ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 25
(24) जो ख़ुद बुख़्ल करते हैं और दूसरों को बुख़्ल करने पर उकसाते हैं। अब अगर कोई रूगरदानी करता है तो अल्लाह बेनियाज़ और सितूदा सिफ़ात है।
لِّئَلَّا يَعۡلَمَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَلَّا يَقۡدِرُونَ عَلَىٰ شَيۡءٖ مِّن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 26
(29) (तुमको वह रविश इख़्तियार करनी चाहिए) ताकि अहले-किताब को मालूम हो जाए कि अल्लाह के फ़ज़्ल पर उनका कोई इजारा नहीं है। और यह कि अल्लाह का फ़ज़्ल उसके अपने ही हाथ में है। जिसे चाहता है अता फ़रमाता है, और अल्लाह बड़े फ़ज़्लवाला है।
لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلَنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَنزَلۡنَا مَعَهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمِيزَانَ لِيَقُومَ ٱلنَّاسُ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَأَنزَلۡنَا ٱلۡحَدِيدَ فِيهِ بَأۡسٞ شَدِيدٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥ وَرُسُلَهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٞ ۝ 27
(25) हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों और हिदायात के साथ भेजा, और उनके साथ किताब और मीज़ान नाज़िल की ताकि लोग इनसाफ़ पर क़ायम हों,16 और लोहा उतारा जिसमें बड़ा ज़ोर है और लोगों के लिए मनाफ़े हैं।17 यह इसलिए किया गया है कि अल्लाह को मालूम हो जाए कि कौन उसको देखे बग़ैर उसकी और उसके रसूलों की मदद करता है। यक़ीनन अल्लाह बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।
16. इस मुख़्तसर से फ़िक़रे में अम्बिया (अलैहि०) के मिशन का पूरा लुब्बे-लुबाब बयान कर दिया गया है। दुनिया में ख़ुदा के जितने रसूल भी अल्लाह तआला की तरफ़ से आए वे सब तीन चीज़ें लेकर आए थे : (1) बैयिनात, यानी खुली-गुली निशानियाँ, रौशन दलाइल और वाज़ेह हिदायात। (2) किताब, जिसमें वे सारी तालीमात लिख दी गई थी जो इनसान की हिदायत के लिए दरकार थी ताकि लोग रहनुमाई के लिए उसकी तरफ़ रुजूअ कर सकें। (3) मीज़ान यानी वह मेयारे-हक़ व बातिल जो ठीक-ठीक तराज़ू की तोल-तौलकर यह बता दे कि अफ़कार, अख़लाक़ और मामलात में इफ़रात व तफ़रीत की मुख़्तलिफ इन्तिहाओं के दरमियान इनसाफ़ की बात क्या है।
17. अम्बिया (अलैहि०) के मिशन को बयान करने के मअन बाद यह फ़रमाना, ख़ुद-ब-ख़ुद इस अम्र की तरफ़ इशारा करता है कि यहाँ लोहे से मुराद सियासी और जंगी ताक़त है, और कलाम का मुद्दआ यह है कि अल्लाह तआला ने अपने रसूलों को क़ियामे-अद्ल की मह्ज़ एक स्कीम पेश कर देने के लिए मबऊस नहीं फ़रमाया था बल्कि यह बात भी उनके मिशन में शामिल थी कि उसको अमलन नाफ़िज़ करने की कोशिश की जाए और वह क़ुव्वत फ़राहम की जाए जिससे फ़िल-वाक़े अद्ल क़ायम हो सके, उसे दरहम-बरहम करनेवालों को सज़ा दी जा सके और उसकी मुज़ाहमत करनेवालों का ज़ोर तोड़ा जा सके।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحٗا وَإِبۡرَٰهِيمَ وَجَعَلۡنَا فِي ذُرِّيَّتِهِمَا ٱلنُّبُوَّةَ وَٱلۡكِتَٰبَۖ فَمِنۡهُم مُّهۡتَدٖۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 28
(26) हमने नूह और इबराहीम को भेजा और उन दोनों की नस्ल में नुबूवत और किताब रख दी। फिर उनकी औलाद में से किसी ने हिदायत इख़्तियार की और बहुत-से फ़ासिक़ हो गए।