59. अल-हश्र
(मक्का में उतरी, आयतें 24)
परिचय
नाम
दूसरी आयत के वाक्यांश 'अख़-र-जल्लज़ी-न क-फ़-रू मिन अहलिल किताबि मिन दियारिहिम लिअव्वलिल हश्र' अर्थात् 'अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले (हश्र) में उनके घरों से निकाल बाहर किया' से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अल- हश्र' शब्द आया है।
उतरने का समय
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) [फ़रमाते हैं कि सूरा हश्र] बनी-नज़ीर के अभियान के बारे में उतरी थी जिस तरह सूरा-8 (अन्फ़ाल) बद्र के युद्ध के विषय में उतरी थी। [(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) विश्वस्त उल्लेखों के अनुसार इस अभियान का समय रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० है।]
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
इस सूरा की वार्ताओं को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि मदीना तय्यिबा और हिजाज़ के यहूदियों के इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाए, क्योंकि इसके बिना आदमी ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अन्ततः उनके विभिन्न क़बीलों के साथ जो मामला किया, उसके वास्तविक कारण क्या थे। [यह इतिहास पहली सदी ईसवी के अन्त से शुरू होता है,] जब सन् 70 ई० में रूमियों (रोमवासियों) ने फ़िलस्तीन में यहूदियों का क़त्ले-आम किया और फिर सन् 132 ई० में उन्हें इस भू-भाग से बिल्कुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि यह क्षेत्र फ़िलस्तीन के दक्षिण से बिल्कुल मिला हुआ था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, वहाँ ठहर गए और फिर धीरे-धीरे अपने जोड़-तोड़ और सूदी (ब्याज के) कारोबारों के ज़रिए उनपर क़ब्ज़ा जमा लिया। ऐला, मक़ना, तबूक, तैमा, वादिउल-क़ुरा, फ़दक और ख़ैबर पर उनका क़ब्ज़ा उसी समय में क़ायम हुआ और बनी-क़ुरैज़ा, बनी-नज़ीर, बनी-बहदल और बनी-कैनुक़ाअ ने भी उसी समय आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्ज़ी जमाया। यसरिब में आबाद होनेवाले क़बीलों में से बनी-नज़ीर और बनी-क़ुरेज़ा अधिक प्रसिद्ध और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उनको अपने संप्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको उन्होंने दबा लिया और व्यावहारिक रूप से इस हरी-भरी जगह के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के बाद औस और ख़ज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए [और उन्होंने कुछ दिनों बाद यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से पहले, हिजरत के आरंभ तक, हिजाज़ में सामान्य रूप से और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की स्थिति की स्पष्ट रूप-रेखाएँ ये थीं—
भाषा, पहनावा, संस्कृति एवं सभ्यता, हर दृष्टि से उन्होंने पूरी तरह से अरब-संस्कृति का रंग अपना लिया था। उनके और अरबों के बीच शादी-ब्याह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिल्कुल न हुए थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक अपने यहूदी पक्षपात को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पक्षपात और वंशगत गर्व और अहंकार पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे जिसका अर्थ केवल अपढ़ ही नहीं बल्कि असभ्य और उज्जड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन 'उम्मियों' को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका माल हर वैध या अवैध तरीक़े से मार खाना इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ थी। वे बहुत-सी ऐसी कलाएँ जानते थे जो अरबों में नहीं पाई जाती थीं और बाहर की दुनिया से उनके व्यावसायिक संबंध भी थे। वे अपने व्यापार में ख़ूब लाभ बटोरते थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था, जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फाँस रखा था। मगर इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में सामान्य रूप से उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से न बिगाड़ें और न उनकी आपसी लड़ाइयों में भाग लें। इसके अलावा अपनी रक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी न किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्रीपूर्ण संबंध भी स्थापित [कर रखे थे।] यसरिब में बनी-क़ुरैज़ा और बनी-नज़ीर औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी-क़ैनुक़ाअ ख़ज़रज के। ये परिस्थितियाँ थीं जब मदीना में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आप (सल्ल०) ने इस राज्य को स्थापित करते ही सबसे पहले जो काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई, और दूसरा यह था कि इस मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक समझौता तय किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ न डालेगा और बाहरी शत्रुओं के मुक़ाबले में ये सब मिलकर बचाव करेंगे। इस समझौते के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं—
''.....यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च, और यह कि इस समझौते में शरीक लोग हमलावर के मुक़ाबले में एक-दूसरे की मदद करने के पाबन्द होंगे, और यह कि वे शुद्ध हृदयता के साथ एक-दूसरे का हित चाहेंगे और उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक-दूसरे के साथ न्याय करेंगे। गुनाह और ज़्यादती नहीं करेंगे और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की मदद की जाएगी, और यह कि जब तक लड़ाई रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे, और यह कि उस समझौते में शरीक लोगों के लिए यसरिब में किसी भी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है, और यह कि इस समझौते में शरीक होनेवालों के दरमियान अगर कोई ऐसा विवाद या मतभेद पैदा हो जिससे फ़साद का ख़तरा हो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के क़ानून के अनुसार रसूल मुहम्मद (सल्ल०) करेंगे....... और यह कि क़ुरैश और उसका समर्थन करनेवालों को शरण नहीं दी जाएगी, और यह कि यसरिब पर जो हमलावर हो उसके मुक़ाबले में समझौते में शरीक लोग एक-दूसरे की सहायता करेंगे......... । हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का ज़िम्मेदार होगा।" (इब्ने-हिशाम, भाग 2, पृष्ठ 147-150)
यह एक निश्चित और स्पष्ट समझौता था जिसकी शर्ते यहूदियों ने स्वयं स्वीकार की थीं, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०), इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी दुश्मनी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) के विरोध को अपना जातीय लक्ष्य बना लिया। आप (सल्ल०) को पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको कणभर भी संकोच न था। समझौते के विरुद्ध खुली-खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र की लड़ाई से पहले ही वे अपना चुके थे, मगर जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों को क़ुरैश पर खुली विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनकी दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। बनी-नज़ीर का सरदार काब-बिन-अशरफ़ चीख़ उठा कि "ख़ुदा की क़सम ! अगर मुहम्मद (सल्ल०) ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है तो ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।" फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे, उनके बड़े भड़काऊ मर्सिये (शोक गीत) कहकर मक्कावालों को बदला लेने पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र की लड़ाई के बाद खुल्लम-खुल्ला अपना समझौता तोड़ दिया, बनी-क़ैनुक़ाअ था, जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा) सन् 02 हि० के अन्त में उनके महल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए [और अन्त में उन्हें] अपना सब माल-हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्ने-साद, इब्ने-हिशाम, तारीख़े-तबरी)। इसके बाद जब शव्वाल 03 हि० में कुरैश के लोग बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए तो इन यहूदियों ने समझौते का पहला और खुला विरोध इस तरह किया कि मदीना की प्रतिरक्षा में आप (सल्ल०) के साथ शरीक न हुए, हालाँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को भारी क्षति पहुँची तो उनका सहास और बढ़ गया। यहाँ तक कि बनी-नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्यंत्र रचा जो ठीक समय पर असफल हो गया। [इन घटनाओं के बाद] अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का सवाल बाक़ी ही न रहा। नबी (सल्ल०) ने उनको अविलम्ब यह चेतावनी भेज दी कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे मालूम हो गई है, इसलिए दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाओ। इसके बाद अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी आबादी में पाया जाएगा, उसकी गर्दन मार दी जाएगी। [अब्दुल्लाह-बिन-उबई के] झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल०) की चेतावनी का यह उत्तर दिया कि "हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो हो सके, कर लीजिए।" इसपर रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनका घेराव कर लिया और सिर्फ़ कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने के लिए राज़ी हो गए कि हथियार के सिवा जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लाद कर ले जा सकेंगे, ले जाएंँगे। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की धरती ख़ाली करा ली गई। उनमें से सिर्फ़ दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष शाम (सीरिया) और ख़ैबर की ओर निकल गए। यही घटना है जिसकी इस सूरा में विवेचना की गई है।
विषय और वार्ता
सूरा का विषय, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, बनी-नज़ीर के अभियान (युद्ध) की समीक्षा है। इसमें सामूहिक रूप से चार विषय बयान किए गए हैं—
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