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فَقَدۡ كَذَّبُواْ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ فَسَوۡفَ يَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ

  1. अल-अनआम

(मक्‍का में उतरी आयतें 165)

परिचय

नाम

इस सूरा के रुकूअ 16-17 (आयत 130-144) में कुछ अन-आम (मवेशियों) की हुर्मत (हराम क़रार दिए जाने) और कुछ की हिल्लत (हलाल क़रार दिए जाने) के बारे में अरबों के अंधविश्वासों का खंडन किया गया है। इसी दृष्टि से इसका नाम 'अल-अनआम' रखा गया है।

उतरने का समय

इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह पूरी सूरा मक्का में एक ही समय में उतरी थी। हज़रत मुआज-बिन-जबल (रज़ि०) की चचेरी बहन अस्मा-बिन्ते-यज़ीद कहती हैं कि 'जब यह सूरा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतर रही थी, उस समय आप ऊँटनी पर सवार थे। मैं उसकी नकेल पकड़े हुए थी और बोझ के मारे ऊँटनी का यह हाल हो रहा था कि मालूम होता था कि उसकी हड्डियाँ अब टूट जाएँगी।' रिवायतों में इसका भी स्पष्टीकरण है कि जिस रात को यह उतरी, उसी रात को आपने इसे लिखवा दिया।

इसके विषयों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा मक्को युग के अन्तिम समय में उतरी होगी।

उतरने का कारण 

जिस समय यह व्याख्यान उतरा है, उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को इस्लाम की ओर दावत देते हुए बारह साल बीत चुके थे। क़ुरैश की डाली रुकावटें और ज़ुल्मो-सितम भरे कारनामे अपनी अन्तिम सीमा को पहुँच चुके थे। इस्लाम अपनानेवालों की एक बड़ी संख्या उनके ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर देश छोड़ चुकी थी और हबशा में ठहरी हुई थी।

वार्ताएँ

इन परिस्थितियों में यह व्याख्यान उतरा है और इसके विषयों को सात बड़े-बड़े शीर्षको में बांटा जा सकता है-

  1. शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का झुठलाना और तौहीद (एकेश्वरवाद) के अक़ीदे की ओर बुलाना,
  2. आख़िरत (परलोक) के अक़ीदे का प्रचार,
  3. अज्ञानता के अंधविश्वासों का खंडन,
  4. नैतिकता के उन बड़े-बड़े नियमों को अपनाने पर ज़ोर जिनपर इस्लाम समाज का निर्माण चाहता था,
  5. नबी (सल्ल०) और आपकी दावत (आह्वान) के विरुद्ध लोगों की आपत्तियों का उत्तर,
  6. प्यारे नबी (सल्ल०) और आम मुसलमानों को तसल्ली, और
  7. इंकारियों और विरोधियों को उपदेश, चेतावनी और डरावा।

मक्‍की जीवन के काल-खण्ड

यहाँ चूँकि पहली बार पढ़नेवालों के सामने एक सविस्तार मक्की सूरा आ रही है, इसलिए उचित मालूम हो रहा है कि यहाँ हम मक्की सूरतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की एक व्यापक व्याख्या कर दें, ताकि आगे तमाम मक्की सूरतों को और उनकी व्याख्याओं के सिलसिले में हमारे संकेतों को समझना आसान हो जाए।

जहाँ तक मदनी सूरतों का संबंध है, उनमें से तो क़रीब-क़रीब हर एक के उतरने का समय मालूम है या थोड़ी-सी कोशिश से निश्चित किया जा सकता है, बल्कि इनकी तो बहुत-सी आयतों के उतरने की अलग-अलग वजहें भी भरोसेमंद रिवायतों में मिल जाती हैं, लेकिन मक्की सूरतों के बारे में हमारे पास ज्ञान प्राप्त करने का ऐसा कोई साधन नहीं है। बहुत कम सूरतें या आयते ऐसी है जिनके उतरने के समय और मौक़े के बारे में कोई सही और भरोसेमंद रिवायत (उल्लेख) मिलती हो। इस कारण मक्की सूरतों के बारे में हमें ऐतिहासिक गवाहियों के बजाय अधिकतर उन अन्दरूनी गवाहियों पर भरोसा करना पड़ता है जो अलग-अलग सूरतों के विषय, सामग्री और शैली में और अपनी पृष्ठभूमि की ओर उनके खुले या छिपे संकेतों में पाई जाती हैं, और स्पष्ट है कि इस प्रकार की गवाहियों से मदद लेकर एक-एक सूरा और एक-एक आयत के बारे में यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि यह फ़ुलां तारीख़ को या फ़ुलां सन् में फ़ुलां मौके पर उतरी है। अधिक विश्वास के साथ जो बात कही जा सकती है, वह केवल यह है कि एक ओर हम मक्की सूरतों को अन्दरूनी गवाहियों को और दूसरी ओर नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन के इतिहास को आमने-सामने रखें और फिर दोनों की तुलना करते हुए यह राय बनाएँ कि कौन-सी सूरा किस युग से संबंधित है- शोध की इस पद्धति को बुद्धि में रखकर जब हम नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन पर नज़र डालते हैं तो वह इस्लामी दावत की दृष्टि से हमें चार बड़े-बड़े युगों में बँटा दिखाई देता है-

पहला युग, पैग़म्बर बनाए जाने से लेकर नुबूवत के एलान तक, लगभग 3 साल, जिसमें दावत खुफ़िया तरीके से खास-खास आदमियों को दी जा रही थी और सामान्य मक्कावालों को इसका ज्ञान न था।

दूसरा युग, नुबूवत के एलान से लेकर जुल्मो-सितम और फ़ितने (Persecution) के फैलने तक, लगभग 2 साल, जिसमें पहले विरोध शुरू हुआ, फिर उसने रोक-टोक का रूप लिया, फिर हँसी उड़ाना, आवाजें कसना, आरोप लगाना, गाली-गलोच, झूठे प्रोपगंडे और विरोधी जत्थेबन्दी तक नौबत पहुँची और अन्त में उन मुसलमानों पर ज़्यादतियाँ शुरू हो गईं जो औरों की तुलना में अधिक धनहीन, कमज़ोर और असहाय थे।

तीसरा युग, फ़ितने की शुरुआत (05 नबवी) से लेकर अबू-तालिब और हज़रत ख़दीजा (रजि०) के देहावसान (10 नबवी) तक, लगभग पाँच-छह साल। इसमें विरोध अति उग्र होता चला गया। बहुत-से मुसलमान मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के जुल्मो-सितम से तंग आकर हबशा की ओर हिजरत कर गए। नबी (सल्ल०) और आपके परिवार और बाक़ी मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया गया और आप अपने समर्थकों और साथियों सहित अबू-तालिब नामक घाटी में कैद कर दिए गए।

चौथा युग, 10 नबवी से लेकर 11 नबवी तक, लगभग तीन साल। यह नबी (सल्ल.) और आप के साथियों के लिए अति कठोर और विपदाओं का युग था। मक्का में आपके लिए ज़िन्दगी दूभर कर दी गई थी। अन्ततः अल्लाह की मेहरबानी से अंसार के दिल इस्लाम के लिए खुल गए और उनकी दावत पर आपने मदीने की और हिजरत की।

इनमें से हर युग में क़ुरआन मजीद की जो सूरतें उतरी हैं, उनमें उस युग की विशेष बातों का प्रभाव बहुत बड़ी हद तक दिखाई देता है। इन्ही निशानियों पर भरोसा करके हम आगे हर मक्की सूरा के शुरू में यह बताएँगे कि वह मक्का के किस काल में उतरी है।

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فَقَدۡ كَذَّبُواْ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ فَسَوۡفَ يَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 1
(5) चुनाँचे अब जो हक़ उनके पास आया तो उसे भी उन्होंने झुठला दिया। अच्छा, जिस चीज़ का वे अब तक मज़ाक़ उड़ाते रहे हैं अन-क़रीब उसके मुताल्लिक़ कुछ ख़बरें उन्हें पहुँचेंगी।2
2. इशारा है हिजरत और उन कामयाबियों की तरफ़ जो हिजरत के बाद इस्लाम को पै-दर-पै हासिल होनेवाली थीं। जिस वक़्त यह इशारा फ़रमाया गया था उस वक़्त न कुफ़्फ़ार यह गुमान कर सकते थे कि किस क़िस्म की ख़बरें उन्हें पहुँचनेवाली हैं और न मुसलमानों ही के ज़ेहन में इसका कोई तसव्वुर था।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّن قَرۡنٖ مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَا لَمۡ نُمَكِّن لَّكُمۡ وَأَرۡسَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡهِم مِّدۡرَارٗا وَجَعَلۡنَا ٱلۡأَنۡهَٰرَ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قَرۡنًا ءَاخَرِينَ ۝ 2
(6) क्या इन्होंने देखा नहीं कि इनसे पहले कितनी ऐसी क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं जिनका अपने-अपने ज़माने में दौर-दौरा रहा है? उनको हमने ज़मीन में वह इक़तिदार बख़्शा था जो तुम्हें नहीं बख़्शा है, उनपर हमने आसमान से ख़ूब बारिशें बरसाईं और उनके नीचे नहरें बहा दीं, (मगर जब उन्होंने कुफ़राने-नेमत किया तो) आख़िरकार हमने उनके गुनाहों की पादाश में उन्हें तबाह कर दिया और उनकी जगह दूसरे दौर की क़ौमों को उठाया।
وَلَوۡ نَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ كِتَٰبٗا فِي قِرۡطَاسٖ فَلَمَسُوهُ بِأَيۡدِيهِمۡ لَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 3
(7) (ऐ पैग़म्बर!) अगर हम तुम्हारे ऊपर कोई काग़ज़ में लिखी-लिखाई किताब भी उतार देते और लोग उसे अपने हाथों से छूकर भी देख लेते तब भी जिन्होंने हक़ का इनकार किया है वे यही कहते कि यह तो सरीह जादू है।
وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ مَلَكٞۖ وَلَوۡ أَنزَلۡنَا مَلَكٗا لَّقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ثُمَّ لَا يُنظَرُونَ ۝ 4
(8) कहते हैं कि “इस नबी पर कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा गया?3 अगर कहीं हमने फ़रिश्ता उतार दिया होता तो अब तक कभी का फ़ैसला हो चुका होता, फिर इन्हें कोई मुहलत न दी जाती।
3. यानी जब यह शख़्स ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है तो आसमान से एक फ़रिश्ता उतरना चाहिए था जो लोगों से कहता कि यह अल्लाह का पैग़म्बर है, इसकी बात मानो वरना तुम्हें सज़ा दी जाएगी।
وَلَوۡ جَعَلۡنَٰهُ مَلَكٗا لَّجَعَلۡنَٰهُ رَجُلٗا وَلَلَبَسۡنَا عَلَيۡهِم مَّا يَلۡبِسُونَ ۝ 5
(9) और अगर हम फ़रिश्ते को उतारते तब भी इसे इनसानी शक्ल ही में उतारते और इस तरह इन्हें उसी शुब्हे में मुब्तला कर देते जिसमें अब ये मुब्तला हैं।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 6
(10) (ऐ नबी!) तुमसे पहले भी बहुत-से रसूलों का मज़ाक़ उड़ाया जा चुका है, मगर उन मज़ाक़ उड़ानेवालों पर आख़िरकार वही हक़ीक़त मुसल्लत होकर रही जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ ٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 7
(11) इनसे कहो, “ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देखो, झुठलानेवालों का क्या अंजाम हुआ है।”
سُورَةُ الأَنۡعَامِ
6. सूरा अल-अनआम
قُل لِّمَن مَّا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قُل لِّلَّهِۚ كَتَبَ عَلَىٰ نَفۡسِهِ ٱلرَّحۡمَةَۚ لَيَجۡمَعَنَّكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 8
(12) इनसे पूछो, “आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है वह किसका है?”—- कहो, सब कुछ अल्लाह ही का है, उसने रहम व करम का शेवा अपने उपर ऊपर लाज़िम कर लिया है (इसी लिए वह नाफ़रमानियों और सरकशियों पर तुम्हें जल्दी से नहीं पकड़ लेता), क़ियामत के रोज़ वह तुम सबको ज़रूर जमा करेगा, यह बिलकुल एक ग़ैर-मुश्तबह हक़ीक़त है, मगर जिन लोगों ने अपने-आपको ख़ुद तबाही के ख़तरे में मुब्तला कर लिया है वे उसे नहीं मानते।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रहम करनेवाला है।
۞وَلَهُۥ مَا سَكَنَ فِي ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 9
(13) रात के अंधेरे और दिन के उजाले में जो कुछ ठहरा हुआ है, सब अल्लाह का है और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَجَعَلَ ٱلظُّلُمَٰتِ وَٱلنُّورَۖ ثُمَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡ يَعۡدِلُونَ
(1) तारीफ़ अल्लाह के लिए है जिसने ज़मीन और आसमान बनाए, रौशनी और तारीकियाँ पैदा कीं। फिर भी वे लोग जिन्होंने दावते-हक़ को मानने से इनकार कर दिया है दूसरों को अपने रब का हमसर ठहरा रहे हैं।
قُلۡ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَتَّخِذُ وَلِيّٗا فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَهُوَ يُطۡعِمُ وَلَا يُطۡعَمُۗ قُلۡ إِنِّيٓ أُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ أَوَّلَ مَنۡ أَسۡلَمَۖ وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 10
(14) कहो, “अल्लाह को छोड़कर क्या मैं किसी और को अपना सरपरस्त बना लूँ? उस ख़ुदा को छोड़कर जो ज़मीन व आसमान का ख़ालिक़ है और जो रोज़ी देता है, रोज़ी लेता नहीं है?” कहो, “मुझे तो यही हुक्म दिया गया है कि सबसे पहले मैं उसके आगे सरे-तसलीम ख़म करूँ” (और ताकीद की गई है कि कोई शिर्क करता है तो करे) तू बहरहाल मुशरिकों में शामिल न हो।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن طِينٖ ثُمَّ قَضَىٰٓ أَجَلٗاۖ وَأَجَلٞ مُّسَمًّى عِندَهُۥۖ ثُمَّ أَنتُمۡ تَمۡتَرُونَ ۝ 11
(2) वही है जिसने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर तुम्हारे लिए ज़िन्दगी की एक मुद्दत मुक़र्रर कर दी, और एक दूसरी मुद्दत और भी है जो उसके यहाँ तयशुदा है।1 मगर तुम लोग हो कि शक में पड़े हुए हो।
1. यानी क़ियामत की घड़ी जबकि तमाम अगले-पिछले इनसान अज़-सरे-नौ ज़िन्दा किए जाएँगे और हिसाब देने के लिए अपने रब के सामने हाज़िर होंगे।
قُلۡ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 12
(15) कहो, “अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूँ तो डरता हूँ कि एक बड़े (ख़ौफ़नाक) दिन मुझे सज़ा भुगतनी पड़ेगी।”
وَهُوَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَفِي ٱلۡأَرۡضِ يَعۡلَمُ سِرَّكُمۡ وَجَهۡرَكُمۡ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡسِبُونَ ۝ 13
(3) वही एक ख़ुदा आसमानों में भी है। और ज़मीन में भी, तुम्हारे खुले और छिपे सब हाल जानता है और जो बुराई या भलाई तुम कमाते हो उससे ख़ूब वाक़िफ़ है।
مَّن يُصۡرَفۡ عَنۡهُ يَوۡمَئِذٖ فَقَدۡ رَحِمَهُۥۚ وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 14
(16) उस दिन जो सज़ा से बच गया उसपर अल्लाह ने बड़ा ही करम किया और यही नुमायाँ कामयाबी है।
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 15
(4) लोगों का हाल यह है कि उनके रब की निशानियों में से कोई निशानी ऐसी नहीं जो उनके सामने आई हो और उन्होंने उससे मुँह न मोड़ लिया हो।
وَإِن يَمۡسَسۡكَ ٱللَّهُ بِضُرّٖ فَلَا كَاشِفَ لَهُۥٓ إِلَّا هُوَۖ وَإِن يَمۡسَسۡكَ بِخَيۡرٖ فَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 16
(17) अगर अल्लाह तुम्हें किसी क़िस्म का नुक़सान पहुँचाए तो उसके सिवा कोई नहीं जो तुम्हें इस नुक़सान से बचा सके, और अगर वह तुम्हें किसी भलाई से बहरामंद करे तो वह हर चीज़ पर क़ादिर है।
وَهُوَ ٱلۡقَاهِرُ فَوۡقَ عِبَادِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 17
(18) वह अपने बन्दों पर कामिल इख़्तियारात रखता है और दाना और बाख़बर है।
قُلۡ أَيُّ شَيۡءٍ أَكۡبَرُ شَهَٰدَةٗۖ قُلِ ٱللَّهُۖ شَهِيدُۢ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ وَأُوحِيَ إِلَيَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ لِأُنذِرَكُم بِهِۦ وَمَنۢ بَلَغَۚ أَئِنَّكُمۡ لَتَشۡهَدُونَ أَنَّ مَعَ ٱللَّهِ ءَالِهَةً أُخۡرَىٰۚ قُل لَّآ أَشۡهَدُۚ قُلۡ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَإِنَّنِي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 18
(19) इनसे पूछो, “किसकी गवाही सबसे बढ़कर है?” — कहो, “मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह गवाह है, और यह क़ुरआन मेरी तरफ़ ब-ज़रिए वह्य भेजा गया है ताकि तुम्हें और जिस- जिस को यह पहुँचे, सबको मुतनब्बेह कर दूँ।” क्या वाक़ई तुम लोग यह शहादत दे सकते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी हैं?4 कहो, “मैं तो उसकी शहादत हरगिज़ नहीं दे सकता।” कहो, “ख़ुदा तो वही एक है और मैं उस शिर्क से कतई बेज़ार हूँ जिसमें तुम मुब्तला हो।”
4. किसी चीज़ की शहादत देने के लिए मह्ज़ क़ियास या गुमान काफ़ी नहीं है, बल्कि उसके लिए इल्म होना ज़रूरी है जिसकी बिना पर आदमी यक़ीन के साथ कह सके कि ऐसा है। पस सवाल का मतलब यह है कि क्या वाक़ई तुम्हें यह इल्म है कि इस जहाने-हस्तो-बूद में अल्लाह के सिवा और भी कोई कारफ़रमा हाकिम ज़ी-इख़्तियार है जो बन्दगी व परस्तिश का मुस्तहिक़ हो।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡرِفُونَهُۥ كَمَا يَعۡرِفُونَ أَبۡنَآءَهُمُۘ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 19
(20) जिन लोगों को हमने किताब दी है वे इस बात को इस तरह ग़ैर-मुश्तबह तौर पर पहचानते हैं जैसे उनको अपने बेटों के पहचानने में कोई इश्तिबाह पेश नहीं आता। मगर जिन्होंने अपने-आपको ख़ुद ख़सारे में डाल दिया है वे उसे नहीं मानते।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 20
(21) और उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बुहतान लगाए, या अल्लाह की निशानियों को झुठलाए? यक़ीनन ऐसे ज़ालिम कभी फ़लाह नहीं पा सकते।
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ أَيۡنَ شُرَكَآؤُكُمُ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 21
(22) जिस रोज़ हम इन सबको इकट्ठा करेंगे और मुशरिकों से पूछेगे कि अब वे तुम्हारे ठहराए हुए शरीक कहाँ हैं, जिनको तुम अपना ख़ुदा समझते थे,
قَدۡ نَعۡلَمُ إِنَّهُۥ لَيَحۡزُنُكَ ٱلَّذِي يَقُولُونَۖ فَإِنَّهُمۡ لَا يُكَذِّبُونَكَ وَلَٰكِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 22
(33) (ऐ नबी!) हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग बनाते हैं उनसे तुम्हें रंज होता है, लेकिन ये लोग तुम्हें नहीं झुठलाते, बल्कि ये ज़ालिम दरअस्ल अल्लाह की आयात का इनकार कर रहे हैं।6
6. वाक़िआ यह है कि जब तक मुहम्मद (सल्ल०) ने अल्लाह की आयात सुनानी शुरू न की थीं, आप (सल्ल०) की क़ौम के सब लोग आप (सल्ल०) को अमीन और सादिक़ समझते थे और आप (सल्ल०) की रास्तबाज़ी पर कामिल एतिमाद रखते थे। उन्होंने आप (सल्ल०) को झुठलाया उस वक़्त जबकि आप (सल्ल०) ने अल्लाह की तरफ़ से पैग़ाम पहुँचाना शुरू किया। और उस दूसरे दौर में भी उनके अन्दर कोई शख़्स ऐसा न था जो शख़्सी हैसियत से आप (सल्ल०) को झूठा क़रार देने की जुर्अत कर सकता हो। आप (सल्ल०) के किसी सख़्त-से-सख़्त मुख़ालिफ़ ने भी कभी आप (सल्ल०) पर यह इलज़ाम नहीं लगाया कि आप दुनिया के किसी मामले में कभी झूठ बोलने के मुर्तकिब हुए हैं। उन्होंने जितनी आप (सल्ल०) की तकज़ीब की वह मह्ज़ नबी होने की हैसियत से की। आप (सल्ल०) का सबसे बड़ा दुश्मन अबू-जहल था और हज़रत अली (रज़ि०) की रिवायत है कि एक मर्तबा उसने ख़ुद नबी (सल्ल०) से गुफ़्तगू करते हुए कहा, “हम आपको तो झूठा नहीं कहते मगर जो कुछ आप पेश कर रहे हैं उसे झूठ क़रार देते हैं।”
ثُمَّ لَمۡ تَكُن فِتۡنَتُهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ وَٱللَّهِ رَبِّنَا مَا كُنَّا مُشۡرِكِينَ ۝ 23
(23) तो वे इसके सिवा कोई फ़ितना न उठा सकेंगे कि (यह झूठा बयान दें कि) हमारे आक़ा! तेरी क़सम, हम हरगिज़ मुशरिक न थे।
وَلَقَدۡ كُذِّبَتۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَ فَصَبَرُواْ عَلَىٰ مَا كُذِّبُواْ وَأُوذُواْ حَتَّىٰٓ أَتَىٰهُمۡ نَصۡرُنَاۚ وَلَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِ ٱللَّهِۚ وَلَقَدۡ جَآءَكَ مِن نَّبَإِيْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 24
(34) तुमसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके हैं, मगर इस तकज़ीब पर और उन अज़ीयतों पर जो उन्हें पहुँचाई गईं, उन्होंने सब्र किया, यहाँ तक कि उन्हें हमारी मदद पहुँच गई। अल्लाह की बातों को बदलने की ताक़त किसी में नहीं है, और पिछले रसूलों के साथ जो कुछ पेश आया उसकी ख़बरें तुम्हें पहुँच ही चुकी हैं।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ كَذَبُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡۚ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 25
(24) देखो, उस वक़्त ये किस तरह अपने ऊपर आप झूठ गढ़ेंगे, और वहाँ इनके सारे बनावटी माबूद गुम हो जाएँगे।
وَإِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكَ إِعۡرَاضُهُمۡ فَإِنِ ٱسۡتَطَعۡتَ أَن تَبۡتَغِيَ نَفَقٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ سُلَّمٗا فِي ٱلسَّمَآءِ فَتَأۡتِيَهُم بِـَٔايَةٖۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَمَعَهُمۡ عَلَى ٱلۡهُدَىٰۚ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 26
(35) ताहम अगर इन लोगों की बेरुख़ी तुमसे बरदाश्त नहीं होती तो अगर तुममें कुछ ज़ोर है तो ज़मीन में कोई सुरंग ढूँढ़ो या आसमान में सीढ़ी लगाओ और उनके पास कोई निशानी लाने की कोशिश करो। अगर अल्लाह चाहता तो उन सबको हिदायत पर जमा कर सकता था, लिहाज़ा नादान मत बनो।7
7. यानी इस फ़िक्र में न पड़ो कि इन लोगों को कोई ऐसी निशानी दिखा दी जाए जिससे ये ईमान ले आएँ। अगर अल्लाह के पेशे-नज़र यह होता कि सारे इनसान राहे-रास्त पर जमा कर दिए जाएँ तो वह सबको मोमिन ही पैदा कर देता। फिर रसूलों को भेजने और अहले-ईमान और अहले-कुफ़्र के दरमियान बरसों कश-मकश कराने की ज़रूरत ही क्या थी?
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَۖ وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوكَ يُجَٰدِلُونَكَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 27
(25) इनमें से बाज़ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं मगर हाल यह है कि हमने उनके दिलों पर परदे डाल रखे हैं जिनकी वजह से वे इसको कुछ नहीं समझते और उनके कानों में गिरानी डाल दी है (कि सब कुछ सुनने पर भी कुछ नहीं सुनते)। वे ख़ाह कोई निशानी देख लें, उसपर ईमान लाकर न देंगे। हद यह है कि जब वे तुम्हारे पास आकर तुमसे झगड़ते हैं तो उनमें से जिन लोगों ने इनकार का फ़ैसला कर लिया है वे (सारी बातें सुनने के बाद) यही कहते हैं कि यह एक दास्ताने-पारीना के सिवा कुछ नहीं।
۞إِنَّمَا يَسۡتَجِيبُ ٱلَّذِينَ يَسۡمَعُونَۘ وَٱلۡمَوۡتَىٰ يَبۡعَثُهُمُ ٱللَّهُ ثُمَّ إِلَيۡهِ يُرۡجَعُونَ ۝ 28
(36) दावते-हक़ पर लब्बैक वही लोग कहते हैं जो सुननेवाले हैं। रहे मुर्दे8, तो उन्हें तो अल्लाह बस क़ब्रों ही से उठाएगा और फिर वे (उसकी अदालत में पेश होने के लिए) वापस लाए जाएँगे।
8. सुननेवालों से मुराद वे लोग हैं जिनके ज़मीर जिन्दा है, जिन्होंने अपनी अक़्ल व फ़िक्र को मुअत्तल नहीं कर दिया है, और जिन्होंने अपने दिल के दरवाज़ों पर तास्सुब और जुमूद के क़ुफ़्ल नहीं चढ़ा दिए हैं। उनके मुक़ाबले में मुर्दा वे लोग हैं जो लकीर के फ़क़ीर बने अधों की तरह चले जा रहे हैं और इस लकीर से हटकर कोई बात क़ुबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं ख़ाह वह सरीह हक़ ही क्यों न हो।
وَهُمۡ يَنۡهَوۡنَ عَنۡهُ وَيَنۡـَٔوۡنَ عَنۡهُۖ وَإِن يُهۡلِكُونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 29
(26) वे उस अम्रे-हक़ को क़ुबूल करने से लोगों को रोकते हैं और ख़ुद भी उससे दूर भागते हैं। (वे समझते हैं कि इस हरकत से वे तुम्हारा कुछ बिगाड़ रहे हैं) हालाँकि दरअस्ल वे ख़ुद अपनी ही तबाही का सामान कर रहे हैं, मगर उन्हें इसका शुऊर नहीं है।
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ قَادِرٌ عَلَىٰٓ أَن يُنَزِّلَ ءَايَةٗ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 30
(37) ये लोग कहते हैं कि “इस नबी पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतारी गई?” कहो, “अल्लाह निशानी उतारने की पूरी क़ुदरत रखता है, मगर इनमें से अकसर लोग नादानी में मुब्तला हैं।”9
9. निशानी मुराद महसूस मोजिज़ा है। अल्लाह तआला के इस इरशाद का मतलब यह है कि मोजिज़ा न दिखाए जाने की वजह यह नहीं है कि हम उसको दिखाने से आजिज़ हैं, बल्कि इसकी वजह कुछ और है जिसे ये लोग मह्ज़ अपनी नादानी से नहीं समझते।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ وُقِفُواْ عَلَى ٱلنَّارِ فَقَالُواْ يَٰلَيۡتَنَا نُرَدُّ وَلَا نُكَذِّبَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّنَا وَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 31
(27) काश! तुम उस वक़्त की हालत देख सकते जब वे दोज़ख़ के किनारे खड़े किए जाएँगे। उस वक़्त वे कहेंगे, “काश! कोई सूरत ऐसी हो कि हम दुनिया में फिर वापस भेजे जाएँ और अपने रब की निशानियों को न झुठलाएँ और ईमान लानेवालों में शामिल हों।”
وَمَا مِن دَآبَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا طَٰٓئِرٖ يَطِيرُ بِجَنَاحَيۡهِ إِلَّآ أُمَمٌ أَمۡثَالُكُمۚ مَّا فَرَّطۡنَا فِي ٱلۡكِتَٰبِ مِن شَيۡءٖۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يُحۡشَرُونَ ۝ 32
(38) ज़मीन में चलनेवाले किसी जानवर और हवा में परों से उड़नेवाले किसी परिन्दे को देख लो, ये सब तुम्हारी ही तरह अनवाअ हैं, हमने उनकी तक़दीर के नविश्ते में कोई कमी नहीं छोड़ी है, फिर ये सब अपने रब की तरफ़ समेटे जाते हैं।
بَلۡ بَدَا لَهُم مَّا كَانُواْ يُخۡفُونَ مِن قَبۡلُۖ وَلَوۡ رُدُّواْ لَعَادُواْ لِمَا نُهُواْ عَنۡهُ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 33
(28) दर-हक़ीक़त यह बात वे मह्ज़ इस वजह से कहेंगे कि जिस हक़ीक़त पर उन्होंने परदा डाल रखा था वह उस वक़्त बेनक़ाब होकर उनके सामने आ चुकी होगी, वरना अगर उन्हें साबिक़ ज़िन्दगी की तरफ़ वापस भेजा जाए तो फिर वही सब कुछ करें जिससे उन्हें मना किया गया है। वे तो हैं ही झूठे (इसलिए अपनी इस ख़ाहिश के इज़हार में भी झूठ ही से काम लेंगे)।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا صُمّٞ وَبُكۡمٞ فِي ٱلظُّلُمَٰتِۗ مَن يَشَإِ ٱللَّهُ يُضۡلِلۡهُ وَمَن يَشَأۡ يَجۡعَلۡهُ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 34
(39) मगर जो लोग हमारी निशानियों को झुठलाते हैं वे बहरे और गूँगे हैं, तारीकियों में पड़े हुए हैं। अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधे रास्ते पर लगा देता है।10
10. ख़ुदा का भटकाना यह है कि एक जहालत-पसन्द इनसान को अल्लाह की निशानियों के मुताले की तौफ़ीक़ न बख़्शी जाए और एक मुतास्सिब ग़ैर-हक़ीक़त-पसन्द तालिबे-इल्म अगर उनका मुशाहदा करे भी तो हक़ीक़त-रसी के निशानात उसकी आँख से ओझल रहें और ग़लत-फ़हमियों में उलझानेवाली चीज़ें उसे हक़ से दूर और दूरतर खींचती चली जाएँ। बख़िलाफ़ इसके अल्लाह की हिदायत यह है एक तालिबे-हक़ को इल्म के ज़रिए से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक बख़्शी जाए और अल्लाह की आयात में उसे हक़ीक़त तक पहुँचने के निशानात मिलते चले जाएँ।
وَقَالُوٓاْ إِنۡ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا وَمَا نَحۡنُ بِمَبۡعُوثِينَ ۝ 35
(29) आज ये लोग कहते हैं कि “ज़िन्दगी जो कुछ भी है बस यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है और हम मरने के बाद हरगिज़ दोबारा न उठाए जाएँगे।”
قُلۡ أَرَءَيۡتَكُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُ ٱللَّهِ أَوۡ أَتَتۡكُمُ ٱلسَّاعَةُ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَدۡعُونَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 36
(40) इनसे कहो, “ज़रा ग़ौर करके बताओ, अगर कभी तुमपर अल्लाह की तरफ़ से कोई बड़ी मुसीबत आ जाती है या आखिरी घड़ी आ पहुँचती है तो क्या उस वक़्त तुम अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारते हो? बोलो अगर तुम सच्चे हो।”
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ وُقِفُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ قَالَ أَلَيۡسَ هَٰذَا بِٱلۡحَقِّۚ قَالُواْ بَلَىٰ وَرَبِّنَاۚ قَالَ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 37
(30) काश! वह मंज़र तुम देख सको जब ये अपने रब के सामने खड़े किए जाएँगे। उस वक़्त उनका रब उनसे पूछेगा, “क्या यह हक़ीक़त नहीं है? “ये कहेंगे, “हाँ, ऐ हमारे रब! यह हक़ीक़त ही है।” वह फ़रमाएगा, “अच्छा, तो अब अपने इनकारे-हक़ीक़त की पादाश में अज़ाब का मज़ा चखो।”
بَلۡ إِيَّاهُ تَدۡعُونَ فَيَكۡشِفُ مَا تَدۡعُونَ إِلَيۡهِ إِن شَآءَ وَتَنسَوۡنَ مَا تُشۡرِكُونَ ۝ 38
(41) उस वक़्त तुम अल्लाह ही को पुकारते हो, फिर अगर वह चाहता है तो उस मुसीबत को तुमपर से टाल देता है। ऐसे मौक़ों पर तुम अपने ठहराए हुए शरीकों को भूल जाते हो।11
11. यानी यह निशानी तो तुम्हारे अपने नफ़्स में मौजूद है। जब तुमपर कोई बड़ी आफ़त आ जाती है, या मौत अपनी भयानक सूरत के साथ सामने आ खड़ी होती है, उस वक़्त एक अल्लाह के दामन के सिवा कोई दूसरी पनाहगाह तुम्हें नज़र नहीं आती। बड़े-बड़े मुशरिक ऐसे मौक़े पर अपने माबूदों को भूलकर ख़ुदा-ए-वाहिद को पुकारने लगते हैं। कट्टे-से-कट्टा दहरिया तक ख़ुदा से दुआ के लिए हाथ फैला देता है। यह इस बात की दलील है कि ख़ुदा-परस्ती और तौहीद की शहादत हर इनसान के नफ़्स में मौजूद है जिसपर ग़फ़लत व जहालत के ख़ाह कितने ही परदे डाल दिए गए हों मगर फिर भी कभी-न-कभी वह उभरकर सामने आ जाती है।
قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱللَّهِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَتۡهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةٗ قَالُواْ يَٰحَسۡرَتَنَا عَلَىٰ مَا فَرَّطۡنَا فِيهَا وَهُمۡ يَحۡمِلُونَ أَوۡزَارَهُمۡ عَلَىٰ ظُهُورِهِمۡۚ أَلَا سَآءَ مَا يَزِرُونَ ۝ 39
(31) नुक़सान में पड़ गए वे लोग जिन्होंने अल्लाह से अपनी मुलाक़ात की इत्तिला को झूठ क़रार दिया। जब अचानक वह घड़ी आ जाएगी तो यही लोग कहेंगे, “अफ़सोस! हमसे इस मामले में कैसी तक़सीर हुई।” और इनका हाल यह होगा कि अपनी पीठों पर अपने गुनाहों का बोझ लादे हुए होंगे। देखो, कैसा बुरा बोझ है जो ये उठा रहे हैं!
وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۖ وَلَلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 40
(32) दुनिया की ज़िन्दगी तो एक खेल और एक तमाशा है।5 हक़ीक़त में आख़िरत ही का मक़ाम उन लोगों के लिए बेहतर है जो ज़ियाँकारी से बचना चाहते हैं। फिर क्या तुम लोग अक़्ल से काम न लोगे?
5. इसका यह मतलब नहीं कि दुनिया की ज़िन्दगी में कोई संजीदगी नहीं है और यह मह्ज़ खेल और तमाशे के तौर पर बनाई गई है। दरअस्ल इसका मतलब यह है कि आख़िरत की हक़ीक़ी और पायदार ज़िन्दगी के मुक़ाबले में यह दुनिया की ज़िन्दगी ऐसी है जैसे कोई शख़्स कुछ देर खेल और तफ़रीह में दिल बहलाए और फिर अस्ल संजीदा कारोबार की तरफ़ वापस हो जाए। नीज़ इसे खेल और तमाशे से तशबीह इसलिए भी दी गई है कि यहाँ हक़ीक़त के मख़फ़ी होने की वजह से बेबसीरत और ज़ाहिर-परस्त इनसानों के लिए ग़लत-फ़हमियों में मुब्तला करने के बहुत-से असबाब मौजूद हैं और इन ग़लत-फ़हमियों में फंसकर लोग हक़ीक़ते-नफ़सुल-अमरी के ख़िलाफ़ ऐसे-ऐसे अजीब तर्ज़े-अमल इख़्तियार करते हैं जिनकी बदौलत उनकी ज़िन्दगी मह्ज़ एक खेल और तमाशा बनकर रह जाती है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَأَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ لَعَلَّهُمۡ يَتَضَرَّعُونَ ۝ 41
(42) तुमसे पहले बहुत-सी क़ौमों की तरफ़ हमने रसूल भेजे और उन क़ौमों को मसाइब व आलाम में मुब्तला किया ताकि वे आजिज़ी के साथ हमारे सामने झुक जाएँ।
فَلَوۡلَآ إِذۡ جَآءَهُم بَأۡسُنَا تَضَرَّعُواْ وَلَٰكِن قَسَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 42
(43) पस जब हमारी तरफ़ से उनपर सख़्ती आई तो क्यों न उन्होंने आजिज़ी इख़्तियार की? मगर उनके दिल तो और सख़्त हो गए और शैतान ने उनको इत्मीनान दिलाया कि जो कुछ तुम कर रहे हो, ख़ूब कर रहे हो।
فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَبۡوَٰبَ كُلِّ شَيۡءٍ حَتَّىٰٓ إِذَا فَرِحُواْ بِمَآ أُوتُوٓاْ أَخَذۡنَٰهُم بَغۡتَةٗ فَإِذَا هُم مُّبۡلِسُونَ ۝ 43
(44) फिर जब उन्होंने उस नसीहत को, जो उन्हें की गई थी, भुला दिया तो हमने हर तरह की ख़ुशहालियों के दरवाज़े उनके लिए खोल दिए, यहाँ तक कि जब वे उन बख़शिशों में, जो उन्हें अता की गई थीं, ख़ूब मगन हो गए तो अचानक हमने उन्हें पकड़ लिया और अब हाल यह था कि वे हर ख़ैर से मायूस थे।
قُلۡ إِنِّي نُهِيتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ قُل لَّآ أَتَّبِعُ أَهۡوَآءَكُمۡ قَدۡ ضَلَلۡتُ إِذٗا وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 44
(56) (ऐ नबी!) इनसे कहो कि “तुम लोग अल्लाह के सिवा जिन दूसरों को पुकारते हो उनकी बन्दगी करने से मुझे मना किया गया है।” कहो, “मैं तुम्हारी ख़ाहिशात की पैरवी नहीं करूँगा, अगर मैंने ऐसा किया तो गुमराह हो गया, राहे-रास्त पानेवालों में से न रहा।”
فَقُطِعَ دَابِرُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْۚ وَٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 45
(45) इस तरह उन लोगों की जड़ काटकर रख दी गई जिन्होंने ज़ुल्म किया था और तारीफ़ है अल्लाह रब्बुल-आलमीन के लिए (कि उसने उनकी जड़ काट दी)।
قُلۡ إِنِّي عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَكَذَّبۡتُم بِهِۦۚ مَا عِندِي مَا تَسۡتَعۡجِلُونَ بِهِۦٓۚ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ يَقُصُّ ٱلۡحَقَّۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡفَٰصِلِينَ ۝ 46
(57) कहो, “मैं अपने रब की तरफ़ से एक दलीले-रौशन पर क़ायम हूँ और तुमने उसे झुठला दिया है, अब मेरे इख़्तियार में वह चीज़ है नहीं जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे हो, फ़ैसले का सारा इख़्तियार अल्लाह को है, वही अम्रे-हक़ बयान करता है और वही बेहतरीन फ़ैसला करनेवाला है।”
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَخَذَ ٱللَّهُ سَمۡعَكُمۡ وَأَبۡصَٰرَكُمۡ وَخَتَمَ عَلَىٰ قُلُوبِكُم مَّنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِهِۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ هُمۡ يَصۡدِفُونَ ۝ 47
(46) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर अल्लाह तुम्हारी बीनाई और समाअत तुमसे छीन ले और तुम्हारे दिलों पर मुहर कर दे12 तो अल्लाह के सिवा और कौन-सा ख़ुदा है जो ये क़ुव्वतें तुम्हें वापस दिला सकता हो?” देखो, किस तरह हम बार-बार अपनी निशानियाँ उनके सामने पेश करते हैं और फिर ये किस तरह उनसे नज़र चुरा जाते हैं।
12. यहाँ दिलों पर मुहर करने से मुराद सोचने और समझने की क़ुव्वतें सल्ब कर लेना है।
قُل لَّوۡ أَنَّ عِندِي مَا تَسۡتَعۡجِلُونَ بِهِۦ لَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۗ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 48
(58) कहो, “अगर कहीं वह चीज़ मेरे इख़्तियार में होती जिसकी तुम जल्दी मचा रहे हो तो मेरे और तुम्हारे दरमियान कभी का फ़ैसला हो चुका होता। मगर अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि ज़ालिमों के साथ क्या मामला किया जाना चाहिए।
قُلۡ أَرَءَيۡتَكُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُ ٱللَّهِ بَغۡتَةً أَوۡ جَهۡرَةً هَلۡ يُهۡلَكُ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 49
(47) कहो, “कभी तुमने सोचा कि अगर अल्लाह की तरफ़ से अचानक या अलानिया तुमपर अज़ाब आ जाए तो क्या ज़ालिम लोगों के सिवा कोई और हलाक होगा?”
وَمَا نُرۡسِلُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَۖ فَمَنۡ ءَامَنَ وَأَصۡلَحَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 50
(48) हम जो रसूल भेजते हैं इसी लिए तो भेजते हैं कि वे नेक-किरदार लोगों के लिए ख़ुशख़बरी देनेवाले और बद-किरदारों के लिए डरानेवाले हों। फिर जो लोग उनकी बात मान लें और अपने तर्ज़े-अमल की इसलाह कर लें तो उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं है।
۞وَعِندَهُۥ مَفَاتِحُ ٱلۡغَيۡبِ لَا يَعۡلَمُهَآ إِلَّا هُوَۚ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۚ وَمَا تَسۡقُطُ مِن وَرَقَةٍ إِلَّا يَعۡلَمُهَا وَلَا حَبَّةٖ فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡأَرۡضِ وَلَا رَطۡبٖ وَلَا يَابِسٍ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 51
(59) उसी के पास ग़ैब की कुंजियाँ हैं, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता। बहर व बर में जो कुछ है, सबसे वह वाक़िफ़ है। दरख़्त से गिरनेवाला कोई पत्ता ऐसा नहीं जिसका उसे इल्म न हो। ज़मीन के तारीक परदों में कोई दाना ऐसा नहीं जिससे वह बाख़बर न हो। ख़ुश्क व तर सब कुछ एक खुली किताब में लिखा हुआ है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَمَسُّهُمُ ٱلۡعَذَابُ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 52
(49) और जो हमारी आयात को झुठलाएँ वे अपनी नाफ़रमानियों की पादाश में सज़ा भुगतकर रहेंगे।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُم بِٱلَّيۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا جَرَحۡتُم بِٱلنَّهَارِ ثُمَّ يَبۡعَثُكُمۡ فِيهِ لِيُقۡضَىٰٓ أَجَلٞ مُّسَمّٗىۖ ثُمَّ إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ ثُمَّ يُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 53
(60) वही है जो रात को तुम्हारी रूहें क़ब्ज़ करता है और दिन को जो कुछ तुम करते हो उसे जानता है, फिर दूसरे रोज़ वह तुम्हें इसी कारोबार के आलम में वापस भेज देता है ताकि ज़िन्दगी की मुक़र्रर मुद्दत पूरी हो। आख़िरकार उसी की तरफ़ तुम्हारी वापसी है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
وَمَا عَلَى ٱلَّذِينَ يَتَّقُونَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَلَٰكِن ذِكۡرَىٰ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 54
(69) उनके हिसाब में से किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी परहेज़गार लोगों पर नहीं है, अलबत्ता नसीहत करना उनका फ़र्ज है शायद कि वे ग़लतरवी से बच जाएँ।
وَهُوَ ٱلۡقَاهِرُ فَوۡقَ عِبَادِهِۦۖ وَيُرۡسِلُ عَلَيۡكُمۡ حَفَظَةً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ تَوَفَّتۡهُ رُسُلُنَا وَهُمۡ لَا يُفَرِّطُونَ ۝ 55
(61) अपने बन्दों पर वह पूरी क़ुदरत रखता है और तुमपर निगरानी करनेवाले मुक़र्रर करके भेजता है, यहाँ तक कि जब तुम में से किसी की मौत का वक़्त आ जाता है तो उसके भेजे हए फ़रिश्ते उसकी जान निकाल लेते है और अपना फ़र्ज़ अंजाम देने में ज़रा कोताही नहीं करते,
وَذَرِ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَهُمۡ لَعِبٗا وَلَهۡوٗا وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ وَذَكِّرۡ بِهِۦٓ أَن تُبۡسَلَ نَفۡسُۢ بِمَا كَسَبَتۡ لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٞ وَلَا شَفِيعٞ وَإِن تَعۡدِلۡ كُلَّ عَدۡلٖ لَّا يُؤۡخَذۡ مِنۡهَآۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ أُبۡسِلُواْ بِمَا كَسَبُواْۖ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 56
(70) छोड़ो उन लोगों को जिन्होंने अपने दीन को खेल और तमाशा बना रखा है और जिन्हें दुनिया की ज़िन्दगी फ़रेब में मुब्तला किए हुए है। हाँ, मगर यह क़ुरआन सुनाकर नसीहत और तंबीह करते रहो कि कहीं कोई शख़्स अपने किए करतूतों के वबाल में गिरफ़्तार न हो जाए, और गिरफ़्तार भी इस हाल में हो कि अल्लाह से बचानेवाला कोई हामी व मददगार और कोई सिफ़ारिशी उसके लिए न हो, और अगर वह हर मुमकिन चीज़ फ़िदये में देकर छूटना चाहे तो वह भी उससे क़ुबूल न की जाए, क्योंकि ऐसे लोग तो ख़ुद अपनी कमाई के नतीजे में पकड़े जाएँगे, उनको अपने इनकारे-हक़ के मुआवज़े में खौलता हुआ पानी पीने को और दर्दनाक आज़ाब भुगतने को मिलेगा।
ثُمَّ رُدُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ مَوۡلَىٰهُمُ ٱلۡحَقِّۚ أَلَا لَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَهُوَ أَسۡرَعُ ٱلۡحَٰسِبِينَ ۝ 57
(62) फिर सब-के-सब अल्लाह, अपने हक़ीक़ी आक़ा की तरफ़ वापस लाए जाते है। ख़बरदार हो। जाओ, फ़ैसले के सारे इख़्तियारात उसी को हासिल हैं और वह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।
قُلۡ أَنَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُنَا وَلَا يَضُرُّنَا وَنُرَدُّ عَلَىٰٓ أَعۡقَابِنَا بَعۡدَ إِذۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ كَٱلَّذِي ٱسۡتَهۡوَتۡهُ ٱلشَّيَٰطِينُ فِي ٱلۡأَرۡضِ حَيۡرَانَ لَهُۥٓ أَصۡحَٰبٞ يَدۡعُونَهُۥٓ إِلَى ٱلۡهُدَى ٱئۡتِنَاۗ قُلۡ إِنَّ هُدَى ٱللَّهِ هُوَ ٱلۡهُدَىٰۖ وَأُمِرۡنَا لِنُسۡلِمَ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 58
(71) (ऐ नबी!) उनसे पूछो, “क्या हम अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारें जो न हमें नफ़ा दे सकते हैं न नुक़सान? और जबकि अल्लाह हमें सीधा रास्ता दिखा चुका है तो क्या अब हम उल्टे पाँव फिर जाएँ? क्या हम अपना हाल उस शख़्स का सा कर लें जिसे शैतानों ने सहरा में भटका दिया हो और हैरान व सरगरदाँ फिर रहा हो, दरआँ-हाले कि उसके साथी उसे पुकार रहे हो कि इधर आ यह सीधी राह मौजूद है?” कहो, “हक़ीक़त में सही रहनुमाई तो सिर्फ़ अल्लाह ही की रहनुमाई है और उसकी तरफ़ से हमें यह हुक्म मिला है कि मालिके-कायनात के आगे सरे-इताअत ख़म कर दो,
قُل لَّآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ إِنِّي مَلَكٌۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُۚ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ ۝ 59
(50) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, न मैं ग़ैब का इल्म रखता हूँ, और न यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ। मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मुझपर नाज़िल की जाती है।” फिर इनसे पूछो, “क्या अंधा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो सकते हैं? क्या तुम ग़ौर नहीं करते?”
قُلۡ مَن يُنَجِّيكُم مِّن ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ تَدۡعُونَهُۥ تَضَرُّعٗا وَخُفۡيَةٗ لَّئِنۡ أَنجَىٰنَا مِنۡ هَٰذِهِۦ لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 60
(63) (ऐ नबी!) इनसे पूछो, “सहरा और समुन्दर की तारीकियों में कौन तुम्हें ख़तरात से बचाता है? कौन है जिससे तुम (मुसीबत के वक़्त) गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ाकर और चुपके-चुपके दुआएँ माँगते हो? किससे कहते हो कि अगर इस बला से उसने हमको बचा लिया तो हम ज़रूर शुक्रगुज़ार होंगे?”
وَأَنۡ أَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَٱتَّقُوهُۚ وَهُوَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 61
(72) नमाज़ क़ायम करो और उसकी नाफ़रमानी से बचो, उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे।”
وَأَنذِرۡ بِهِ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَن يُحۡشَرُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ لَيۡسَ لَهُم مِّن دُونِهِۦ وَلِيّٞ وَلَا شَفِيعٞ لَّعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 62
(51) और (ऐ नबी !) तुम इस (इल्मे–वह्य) के ज़रिए से उन लोगों को नसीहत करो जो इसका खौफ़ रखते हैं कि अपने रब के सामने कभी इस हाल में पेश किए जाएँगे कि उसके सिवा वहाँ कोई (ऐसा ज़ी-इक़तिदार) न होगा जो उनका हामी व मददगार हो, या उनकी सिफ़ारिश करे, शायद कि (इस नसीहत से मुतनब्बेह होकर) वे ख़ुदा-तरसी की रविश इख़्तियार कर लें।
قُلِ ٱللَّهُ يُنَجِّيكُم مِّنۡهَا وَمِن كُلِّ كَرۡبٖ ثُمَّ أَنتُمۡ تُشۡرِكُونَ ۝ 63
(64) — कहो, “अल्लाह तुम्हें इससे और हर तकलीफ़ से नजात देता है, फिर तुम दूसरों को उसका शरीक ठहराते हो”।15
15. यानी यह हक़ीक़त कि तन्हा अल्लाह ही क़ादिरे-मुतलक़ है, और वही तमाम इख़्तियारात का मालिक और तुम्हारी भलाई और बुराई का मुख़्तारे-कुल है, और उसी के हाथ में तुम्हारी क़िस्मतों की बागडोर है, इसकी शहादत तो तुम्हारे अपने नफ़्स में मौजूद है। जब कोई सख़्त वक़्त आता है और असबाब के सर-रिश्ते टूटते नज़र आते हैं तो उस वक़्त तुम बेइख़्तियार उसी की तरफ़ रुजूअ करते हो। लेकिन इस खुली अलामत के होते हुए भी तुमने ख़ुदाई में बिला दलील व हुज्जत और बिला सुबूत दूसरों को उसका शरीक बना रखा है। पलते हो उसके रिज़्क़ पर और अन्नदाता बनाते हो दूसरों को। मदद पाते हो उसके फ़ज़्ल व करम से और हामी व नासिर ठहराते हो दूसरों को। ग़ुलाम हो उसके और बन्दगी बजा लाते हो दूसरों की। मुशकिल-कुशाई करता है वह, बुरे वक़्त पर गिड़गिड़ाते हो उसके सामने, और जब वह वक़्त गुज़र जाता है तो तुम्हारे मुशकिल-कुशा बन जाते हैं दूसरे और नज़रें और नियाज़ें चढ़ने लगती हैं दूसरों के नाम की।
وَلَا تَطۡرُدِ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ مَا عَلَيۡكَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَمَا مِنۡ حِسَابِكَ عَلَيۡهِم مِّن شَيۡءٖ فَتَطۡرُدَهُمۡ فَتَكُونَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 64
(52) और जो लोग अपने रब को रात-दिन पुकारते रहते हैं और उसकी ख़ुशनूदी की तलब में लगे हुए हैं उन्हें अपने से दूर न फेंको। उनके हिसाब में से किसी चीज़ का बार तुमपर नहीं है और तुम्हारे हिसाब में से किसी चीज़ का बार उनपर नहीं। इसपर भी अगर तुम उन्हें दूर फेंकोगे तो ज़ालिमों में शुमार होगे।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ وَيَوۡمَ يَقُولُ كُن فَيَكُونُۚ قَوۡلُهُ ٱلۡحَقُّۚ وَلَهُ ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 65
(73) वही है जिसने आसमान व ज़मीन को बरहक़ पैदा किया है।17 और जिस दिन वह कहेगा कि हश्र हो जाए, उसी दिन वह हो जाएगा। उसका इरशाद ऐन हक़ है। और जिस रोज़ सूर फूँका जाएगा उस रोज़ बादशाही उसी की होगी वह ग़ैब और शहादत18 हर चीज़ का आलिम है और दाना और बाख़बर है।
17. क़ुरआन में यह बात जगह-जगह बयान की गई है कि अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को बरहक़ पैदा किया है या हक़ के साथ पैदा किया है। इसका एक मतलब यह है कि ज़मीन और आसमानों की तख़लीक़ मह्ज़ खेल के तौर पर नहीं हुई है, यह किसी बच्चे का खिलौना नहीं है कि मह्ज़ दिल बहलाने के लिए वह इससे खेलता रहे और फिर यूँ ही उसे तोड़-फोड़कर फेंक दे। दरअस्ल यह एक निहायत संजीदा काम है जो हिकमत की बिना पर किया गया है, एक मक़सदे-अज़ीम इसके अन्दर कारफ़रमा है, और इसका एक दौर गुज़र जाने के बाद नागुज़ीर है कि ख़ालिक़ उस पूरे काम का हिसाब ले जो उस दौर में अंजाम पाया हो और उसी दौर के नताइज पर दूसरे दौर की बुनियाद रखे। दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह ने यह सारा निज़ामे-कायनात हक़ की ठोस बुनियादों पर क़ायम किया है। अद्ल और हिकमत और रास्ती के क़वानीन पर इसकी हर चीज़ मबनी है। बातिल के लिए फ़िल-हक़ीक़त इस निज़ाम में जड़ पकड़ने और बारआवर होने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यह और बात है कि अल्लाह बातिल-परस्तों को मौक़ा दे दे कि वे अगर अपने झूठ और ज़ुल्म और नारास्ती को फ़रोग़ देना चाहते हैं तो अपनी कोशिश कर देखें। लेकिन आख़िरकार ज़मीन बातिल के हर बीज को उगलकर फेंक देगी और आख़िरी फ़र्दे-हिसाब में हर बातिल-परस्त देख लेगा कि जो कोशिशें उसने इस शजरे-ख़बीस की काश्त और आबयारी में सर्फ़ कीं वे सब ज़ाया हो गईं। तीसरा मतलब यह है कि ख़ुदा ने इस सारी कायनात को बर बिना-ए-हक़ पैदा किया है और अपने ज़ाती हक़ की बिना पर ही वह इसपर फ़रमाँरवाई कर रहा है। उसका हुक्म यहाँ इसलिए चलता है कि वही अपनी पैदा की हुई कायनात में हुक्मरानी का हक़ रखता है। दूसरे किसी का हक़ नहीं है कि यहाँ उसका हुक्म चले।
18. 'ग़ैब' वह सब कुछ जो मख़लूक़ात से पोशीदा है। 'शहादत', वह सब कुछ जो मख़लूक़ात के लिए ज़ाहिर व मालूम है।
قُلۡ هُوَ ٱلۡقَادِرُ عَلَىٰٓ أَن يَبۡعَثَ عَلَيۡكُمۡ عَذَابٗا مِّن فَوۡقِكُمۡ أَوۡ مِن تَحۡتِ أَرۡجُلِكُمۡ أَوۡ يَلۡبِسَكُمۡ شِيَعٗا وَيُذِيقَ بَعۡضَكُم بَأۡسَ بَعۡضٍۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَفۡقَهُونَ ۝ 66
(65) कहो, “वह इसपर क़ादिर है कि तुमपर कोई अज़ाब ऊपर से नाज़िल कर दे, या तुम्हारे क़दमों के नीचे से बरपा कर दे या तुम्हें गरोहों में तक़सीम करके एक गरोह को दूसरे गरोह की ताक़त का मज़ा चखवा दे”। देखो, हम किस तरह बार-बार मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से अपनी निशानियाँ उनके सामने पेश कर रहे हैं शायद कि ये हक़ीक़त को समझ लें।
وَكَذَٰلِكَ فَتَنَّا بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لِّيَقُولُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنۢ بَيۡنِنَآۗ أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِأَعۡلَمَ بِٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 67
(53) दरअस्ल हमने इस तरह इन लोगों में से बाज़ को बाज़ के ज़रिए से आज़माइश में डाला है13 ताकि वे उन्हें देखकर कहें, “क्या ये हैं वे लोग जिनपर हमारे दरमियान अल्लाह का फ़ज़्ल व करम हुआ है?” — हाँ! क्या ख़ुदा अपने शुक्रगुज़ार बन्दों को इनसे ज़्यादा नहीं जानता है?
13. यानी ग़रीबों और मुफ़लिसों और ऐसे लोगों को जो सोसाइटी में अदना हैसियत रखते हैं, सबसे पहले ईमान की तौफ़ीक़ देकर हमने दौलत और इज़्ज़त का घमण्ड रखनेवाले लोगों को आज़माइश में डाल दिया है।
۞وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ لِأَبِيهِ ءَازَرَ أَتَتَّخِذُ أَصۡنَامًا ءَالِهَةً إِنِّيٓ أَرَىٰكَ وَقَوۡمَكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 68
(74) इबराहीम का वाक़िआ याद करो जब कि उसने अपने बाप आज़र से कहा था, “क्या तू बुतों को ख़ुदा बनाता है? मैं तो तुझे और तेरी क़ौम को खुली गुमराही में पाता हूँ।”
وَإِذَا جَآءَكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِنَا فَقُلۡ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡۖ كَتَبَ رَبُّكُمۡ عَلَىٰ نَفۡسِهِ ٱلرَّحۡمَةَ أَنَّهُۥ مَنۡ عَمِلَ مِنكُمۡ سُوٓءَۢا بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ تَابَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَأَنَّهُۥ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 69
(54) जब तुम्हारे पास वे लोग आएँ जो हमारी आयात पर ईमान लाते हैं तो उनसे कहो, “तुमपर सलामती है। तुम्हारे रब ने रहम व करम का शेवा अपने ऊपर लाज़िम कर लिया है। (यह उसका रहम व करम ही है कि) अगर तुममें से कोई नादानी के साथ किसी बुराई का इरतिकाब कर बैठा हो, फिर उसके बाद तौबा करे और इसलाह कर ले तो वह उसे माफ़ कर देता है और नरमी से काम लेता है।”14
14. जो लोग उस वक़्त नबी (सल्ल०) पर ईमान लाए थे उनमें ब-कसरत लोग ऐसे भी थे जिनसे ज़माना-ए-जाहिलियत में बड़े-बड़े गुनाह हो चुके थे। अब इस्लाम क़ुबूल करने के बाद अगरचे उनकी ज़िन्दगियाँ बिलकुल बदल गई थीं लेकिन मुख़ालिफ़ीने-इस्लाम उनको साबिक़ ज़िन्दगी के उयूब और अफ़आल के ताने देते थे। इसपर फ़रमाया जा रहा है कि अहले- ईमान को तसल्ली दो, उन्हें बताओ कि जो शख़्स तौबा करके अपनी इस्लाह कर लेता है उसके पिछले क़ुसूरों पर गिरिफ़्त करने का तरीक़ा अल्लाह के यहाँ नहीं है।
وَكَذَّبَ بِهِۦ قَوۡمُكَ وَهُوَ ٱلۡحَقُّۚ قُل لَّسۡتُ عَلَيۡكُم بِوَكِيلٖ ۝ 70
(66) तुम्हारी क़ौम उसका इनकार कर रही है, हालाँकि वह हकीक़त है। इनसे कह दो कि “मैं तुमपर हवालेदार नहीं बनाया गया हूँ,16
16. यानी मेरा यह काम नहीं है कि जो कुछ तुम नहीं देख रहे हो वह ज़बरदस्ती तुम्हें दिखाऊँ और जो कुछ तुम नहीं समझ रहे हो वह बज़ोर तुम्हारी समझ में उतार दूँ। और मेरा यह काम भी नहीं है कि अगर तुम न देखो और न समझो तो तुमपर अज़ाब नाज़िल कर दूँ।
وَكَذَٰلِكَ نُرِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ مَلَكُوتَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلِيَكُونَ مِنَ ٱلۡمُوقِنِينَ ۝ 71
(75) इबराहीम को हम इसी तरह ज़मीन और आसमानों का निज़ामे-सल्तनत दिखाते थे और इसलिए दिखाते थे कि वह यक़ीन करनेवालों में से हो जाए।
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلِتَسۡتَبِينَ سَبِيلُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 72
(55) और इस तरह हम अपनी निशानियाँ खोल-खोलकर पेश करते हैं ताकि मुजरिमों की राह बिलकुल नुमायाँ हो जाए।
لِّكُلِّ نَبَإٖ مُّسۡتَقَرّٞۚ وَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 73
(67) हर ख़बर के ज़ुहूर में आने का एक वक़्त मुकर्रर है, अन-क़रीब तुमको ख़ुद अंजाम मालूम हो जाएगा।”
فَلَمَّا جَنَّ عَلَيۡهِ ٱلَّيۡلُ رَءَا كَوۡكَبٗاۖ قَالَ هَٰذَا رَبِّيۖ فَلَمَّآ أَفَلَ قَالَ لَآ أُحِبُّ ٱلۡأٓفِلِينَ ۝ 74
(76) चुनाँचे जब रात उसपर तारी हुई तो उसने तारा देखा। कहा, “यह मेरा रब है।” मगर जब वह डूब गया तो बोला, “डूब जानेवालों का तो मैं गिरवीदा नहीं हूँ।”
وَإِذَا رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ يَخُوضُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيۡرِهِۦۚ وَإِمَّا يُنسِيَنَّكَ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَلَا تَقۡعُدۡ بَعۡدَ ٱلذِّكۡرَىٰ مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 75
(68) और (ऐ नबी!) जब तुम देखो कि लोग हमारी आयात पर नुक्ताचीनियाँ कर रहे हैं तो उनके पास से हट जाओ, यहाँ तक कि वे उस गुफ़्तगू को छोड़कर दूसरी बातों में लग जाएँ। और अगर कभी शैतान तुम्हें भुलावे में डाल दे तो जिस वक़्त तुम्हें इस ग़लती का एहसास हो जाए उसके बाद फिर ऐसे ज़ालिम लोगों के पास न बैठो।
فَلَمَّا رَءَا ٱلۡقَمَرَ بَازِغٗا قَالَ هَٰذَا رَبِّيۖ فَلَمَّآ أَفَلَ قَالَ لَئِن لَّمۡ يَهۡدِنِي رَبِّي لَأَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 76
(77) फिर जब चाँद चमकता नज़र आया तो कहा, “यह है मेरा रब।” मगर जब वह भी डूब गया तो कहा अगर मेरे रब ने मेरी रहनुमाई न की होती तो मैं भी गुमराह लोगों में शामिल हो गया होता।
فَلَمَّا رَءَا ٱلشَّمۡسَ بَازِغَةٗ قَالَ هَٰذَا رَبِّي هَٰذَآ أَكۡبَرُۖ فَلَمَّآ أَفَلَتۡ قَالَ يَٰقَوۡمِ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 77
(78) फिर जब सूरज को रौशन देखा तो कहा, “यह है मेरा रब सबसे बड़ा है।” मगर जब वह भी डूबा तो इबराहीम पुकार उठा, “ऐ” बिरादराने-क़ौम! मैं उन सबसे बेज़ार हूँ जिन्हें तुम ख़ुदा का शरीक ठहराते हो।19
19. यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के उस इब्तिदाई तफ़क्कुर की कैफ़ियत बयान की गई है जो मंसबे-नुबूवत पर सरफ़राज़ होने से पहले उनके लिए हक़ीक़त तक पहुँचने का ज़रिआ बना। इसमें बताया गया है कि एक सहीहुद्दिमाग़ और सलीमुन-नज़र इनसान, जिसने सरासर शिर्क के माहौल में आँखें खोली थीं, किस तरह आसारे-कायनात का मुशाहदा करके और उनपर सही तरीक़े से ग़ौर व फ़िक्र करके अम्रे-हक़ मालूम करने में कामयाब हो गया।
إِنِّي وَجَّهۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّذِي فَطَرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ حَنِيفٗاۖ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 78
(79) मैंने तो यकसू होकर अपना रुख़ उस हस्ती की तरफ़ कर लिया जिसने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया है और मैं हरगिज़ शिर्क करनेवालों में से नहीं हूँ।”
وَحَآجَّهُۥ قَوۡمُهُۥۚ قَالَ أَتُحَٰٓجُّوٓنِّي فِي ٱللَّهِ وَقَدۡ هَدَىٰنِۚ وَلَآ أَخَافُ مَا تُشۡرِكُونَ بِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَشَآءَ رَبِّي شَيۡـٔٗاۚ وَسِعَ رَبِّي كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمًاۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 79
(80) उसकी क़ौम उससे झगड़ने लगी तो उसने क़ौम से कहा, क्या तुम लोग अल्लाह के मामले में मुझसे झगड़ते हो? हालाँकि उसने मुझे राहे-रास्त दिखा दी है। और मैं तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों से नहीं डरता। हाँ, अगर मेरा रब कुछ चाहे तो वह ज़रूर हो सकता है। मेरे रब का इल्म हर चीज़ पर छाया हुआ है। फिर क्या तुम होश में न आओगे?20
20. अस्ल में लफ़्ज़ ‘तज़क्कुर' इस्तेमाल हुआ है जिसका सहीह मफ़हूम यह है कि एक शख़्स जो ग़फ़लत और भुलावे में पड़ा हुआ हो वह चौंककर उस चीज़ को याद कर ले जिससे वह ग़ाफ़िल था। इसी लिए हमने ‘अ-फ़ला त-तज़क्करून’ का यह तर्जमा किया है।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ مُّصَدِّقُ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَلِتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَاۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَهُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 80
(92) (उसी किताब की तरह) यह एक किताब है जिसे हमने नाज़िल किया है। बड़ी ख़ैर व बरकतवाली है। उस चीज़ की तसदीक़ करती है जो इससे पहले आई थी। और इसलिए नाज़िल की गई है कि इसके ज़रिए से तुम बस्तियों के इस मर्कज़ (यानी मक्का) और इसके अतराफ़ में रहनेवालों को मुतनब्बेह करो। जो लोग आख़िरत को मानते हैं, वे इस किताब पर ईमान लाते हैं और उनका हाल यह है कि अपनी नमाज़ों की पाबन्दी करते हैं।
وَكَيۡفَ أَخَافُ مَآ أَشۡرَكۡتُمۡ وَلَا تَخَافُونَ أَنَّكُمۡ أَشۡرَكۡتُم بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ عَلَيۡكُمۡ سُلۡطَٰنٗاۚ فَأَيُّ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ أَحَقُّ بِٱلۡأَمۡنِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 81
(81) और आख़िर मैं तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों से कैसे डरूँ जबकि तुम अल्लाह के साथ उन चीज़ों को ख़ुदाई में शरीक बनाते हुए नहीं डरते जिनके लिए उसने तुमपर कोई सनद नाज़िल नहीं की है? हम दोनों फ़रीक़ों में से कौन ज़्यादा बेख़ौफ़ी व इत्मीनान का मुस्तहिक़ है? बताओ अगर तुम कुछ इल्म रखते हो।
ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ فَٱعۡبُدُوهُۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٞ ۝ 82
(102) यह है अल्लाह तुम्हारा रब, कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं है, हर चीज़ का ख़ालिक़, लिहाज़ा तुम उसी की बन्दगी करो और वह हर चीज़ का कफ़ील है।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ قَالَ أُوحِيَ إِلَيَّ وَلَمۡ يُوحَ إِلَيۡهِ شَيۡءٞ وَمَن قَالَ سَأُنزِلُ مِثۡلَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۗ وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلظَّٰلِمُونَ فِي غَمَرَٰتِ ٱلۡمَوۡتِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ بَاسِطُوٓاْ أَيۡدِيهِمۡ أَخۡرِجُوٓاْ أَنفُسَكُمُۖ ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ عَذَابَ ٱلۡهُونِ بِمَا كُنتُمۡ تَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَكُنتُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهِۦ تَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 83
(93) और उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बुहतान गढ़े, या कहे कि मुझपर वह्य आई है, दरआँ-हाले कि उसपर कोई वह्य नाज़िल न की गई हो, या जो अल्लाह की नाज़िल-करदा चीज़ के मुक़ाबले में कहे कि मैं भी ऐसी चीज़ नाज़िल करके दिखा दूँगा? काश! तुम ज़ालिमों को इस हालत में देख सको जबकि वे सकराते-मौत में डुबकियाँ खा रहे होते और फ़रिश्ते हाथ बढ़ा-बढ़ाकर कह रहे होते हैं कि “लाओ, निकालो अपनी जान, आज तुम्हें उन बातों की पादाश में ज़िल्लत का अज़ाब दिया जाएगा जो तुम अल्लाह पर तुहमत रखकर नाहक़ बका करते थे और उसकी आयात के मुक़ाबले में सरकशी दिखाते थे।”
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يَلۡبِسُوٓاْ إِيمَٰنَهُم بِظُلۡمٍ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلۡأَمۡنُ وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 84
(82) हक़ीक़त में तो अम्न उन्हीं के लिए है और राहे-रास्त पर वही हैं जो ईमान लाए और जिन्होंने अपने ईमान को ज़ुल्म के साथ आलूदा नहीं किया।”
لَّا تُدۡرِكُهُ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَهُوَ يُدۡرِكُ ٱلۡأَبۡصَٰرَۖ وَهُوَ ٱللَّطِيفُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 85
(103) निगाहें उसको नहीं पा सकतीं और वह निगाहों को पा लेता है, वह निहायत बारीकबीं और बाख़बर है।
وَلَقَدۡ جِئۡتُمُونَا فُرَٰدَىٰ كَمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَتَرَكۡتُم مَّا خَوَّلۡنَٰكُمۡ وَرَآءَ ظُهُورِكُمۡۖ وَمَا نَرَىٰ مَعَكُمۡ شُفَعَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُمۡ أَنَّهُمۡ فِيكُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْۚ لَقَد تَّقَطَّعَ بَيۡنَكُمۡ وَضَلَّ عَنكُم مَّا كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 86
(94) (और अल्लाह फ़रमाएगा) “लो अब तुम वैसे ही तने–तन्हा हमारे सामने हाज़िर हो गए जैसा हमने तुम्हें पहली मर्तबा अकेला पैदा किया था, जो कुछ हमने तुम्हें दुनिया में दिया था वह सब तुम पीछे छोड़ आए हो, और अब हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशियों को भी नहीं देखते जिनके मुताल्लिक़ तुम समझते थे कि तुम्हारे काम बनाने में उनका भी कुछ हिस्सा है, तुम्हारे आपस के सब राबते टूट गए और वे सब तुमसे गुम हो गए जिनका तुम ज़अम रखते थे।
وَتِلۡكَ حُجَّتُنَآ ءَاتَيۡنَٰهَآ إِبۡرَٰهِيمَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 87
(83) यह थी हमारी वह हुज्जत जो हमने इबराहीम को उसकी क़ौम के मुक़ाबले में अता की। हम जिसे चाहते है बुलन्द मर्तबे अता करते हैं। हक़ यह है कि तुम्हारा रब निहायत दाना और अलीम है।
قَدۡ جَآءَكُم بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنۡ أَبۡصَرَ فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ عَمِيَ فَعَلَيۡهَاۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ ۝ 88
(104) देखो तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से बसीरत की रौशनियाँ आ गई हैं। अब जो बीनाई से काम लेगा, अपना ही भला करेगा और जो अंधा बनेगा ख़ुद नुक़सान उठाएगा। मैं तुमपर कोई पासबान नहीं हूँ।27
27. यह फ़िक़रा अगरचे अल्लाह ही का कलाम है मगर नबी (सल्ल०) की तरफ़ से अदा हो रहा है, जिस तरह सूरा-1 फ़तिहा है तो अल्लाह का कलाम मगर बन्दों की ज़बान से अदा होता है। “मैं तुमपर पासबान नहीं हूँ” यानी मेरा काम बस इतना ही है कि इस रौशनी को तुम्हारे सामने पेश कर दूँ। इसके बाद आँखें खोलकर देखना या न देखना तुम्हारा अपना काम है। मेरे सिपुर्द यह ख़िदमत नहीं की गई है कि जिन्होंने ख़ुद आँखें बन्द कर रखी हैं उनकी आँखें ज़बरदस्ती खोलूँ और जो कुछ वे नहीं देखते वह उन्हें दिखाकर ही छोड़ूँ।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۚ كُلًّا هَدَيۡنَاۚ وَنُوحًا هَدَيۡنَا مِن قَبۡلُۖ وَمِن ذُرِّيَّتِهِۦ دَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ وَأَيُّوبَ وَيُوسُفَ وَمُوسَىٰ وَهَٰرُونَۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 89
(84) फिर हमने इबराहीम को इसहाक़ और याक़ूब जैसी औलाद दी और हर एक को राहे-रास्त दिखाई, (वही राहे-रास्त जो) उससे पहले नूह को दिखाई और उसी की नस्ल से हमने दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ़, मूसा और हारून को (हिदायत बख़्शी)। इस तरह हम नेकूकारों को उनकी नेकी का बदला देते हैं।
۞إِنَّ ٱللَّهَ فَالِقُ ٱلۡحَبِّ وَٱلنَّوَىٰۖ يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَمُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتِ مِنَ ٱلۡحَيِّۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 90
(95) दाने और गुठली को फाड़नेवाला अल्लाह है।23 वही ज़िन्दा को मुर्दा से निकालता है और वही मुर्दा को ज़िन्दा से ख़ारिज करनेवाला है। ये सारे काम करनेवाला तो अल्लाह है, फिर तुम किधर बहके चले जा रहे हो?
23. यानी ज़मीन की तहों में बीज को फाड़कर उससे दरख़्त की कोंपल निकालनेवाला।
24. ज़िन्दा को मुर्दा से निकालने का मतलब बेजान मादे से ज़िन्दा मख़लूक़ात को पैदा करना है, और मुर्दा को ज़िन्दा से ख़ारिज करने का मतलब जानदार अजसाम में से बेजान माद्दों को ख़ारिज करना।
وَكَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلِيَقُولُواْ دَرَسۡتَ وَلِنُبَيِّنَهُۥ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 91
(105) इस तरह हम अपनी आयात को बार-बार मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से बयान करते हैं और इसलिए करते हैं कि ये लोग कहें, “तुम किसी से पढ़ आए हो,” और जो लोग इल्म रखते हैं उनपर हम हक़ीक़त को रौशन कर दें।
وَزَكَرِيَّا وَيَحۡيَىٰ وَعِيسَىٰ وَإِلۡيَاسَۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 92
(85) (उसी की औलाद से) ज़करीया, यहया, ईसा और इलयास को (राहयाब किया)। हर एक उनमें से सॉलेह था।
فَالِقُ ٱلۡإِصۡبَاحِ وَجَعَلَ ٱلَّيۡلَ سَكَنٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ حُسۡبَانٗاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 93
(96) परदा-ए-शब को चाक करके वही सुबह निकालता है। उसी ने रात को सुकून का वक़्त बनाया है। उसी ने चाँद और सूरज के तुलूअ व ग़ुरूब का हिसाब मुक़र्रर किया है। ये सब उसी ज़बर्दस्त क़ुदरत और इल्म रखनेवाले के ठहराए हए अंदाज़े हैं।
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَٱلۡيَسَعَ وَيُونُسَ وَلُوطٗاۚ وَكُلّٗا فَضَّلۡنَا عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 94
(86) (उसी के ख़ानदान से) इसमाईल, अल-यसअ और यूनुस और लूत को (रास्ता दिखाया)। उनमें से हर एक को हमने तमाम दुनियावालों पर फ़ज़ीलत अता की।
ٱتَّبِعۡ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 95
(106) (नबी!) उस वह्य की पैरवी किए जाओ जो तुमपर तुम्हारे रब की तरफ़ से नाज़िल हुई है क्योंकि उस एक रब के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है। और उन मुशरिकीन के पीछे न पड़ो।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلنُّجُومَ لِتَهۡتَدُواْ بِهَا فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 96
(97) और वही है जिसने तुम्हारे लिए तारों को सहरा और समुन्दर की तारीकियों में रास्ता मालूम करने का ज़रिआ बनाया। देखो हमने निशानियाँ25 खोलकर बयान कर दी हैं उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं।
25. यानी इस हक़ीक़त की निशानियाँ कि अल्लाह सिर्फ़ एक है। कोई दूसरा न ख़ुदाई की सिफ़ात रखता है, न ख़ुदाई के इख़्तियारात में हिस्सेदार है और न ख़ुदाई के हुक़ूक़ में किसी हक़ का मुस्तहिक़ है।
وَمِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡ وَإِخۡوَٰنِهِمۡۖ وَٱجۡتَبَيۡنَٰهُمۡ وَهَدَيۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 97
(87) नीज़ उनके आबा व अजदाद और उनकी औलाद और उनके भाई-बन्दों में से बहुतों को हमने नवाज़ा, उन्हें अपनी ख़िदमत के लिए चुन लिया और सीधे रास्ते की तरफ़ उनकी रहनुमाई की।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَآ أَشۡرَكُواْۗ وَمَا جَعَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظٗاۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ ۝ 98
(107) अगर अल्लाह की मशीयत होती तो (वह ख़ुद ऐसा बन्दोबस्त कर सकता था कि) ये लोग शिर्क न करते। तुमको हमने उनपर पासबान मुक़र्रर नहीं किया है और न तुम उनपर हवालेदार हो।
ذَٰلِكَ هُدَى ٱللَّهِ يَهۡدِي بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۚ وَلَوۡ أَشۡرَكُواْ لَحَبِطَ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 99
(88) यह अल्लाह की हिदायत है जिसके साथ का अपने बन्दों में से जिसकी चाहता है रहनुमाई करता है। लेकिन अगर कहीं उन लोगों ने शिर्क किया होता तो उनका सब किया कराया ग़ारत हो जाता।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ فَمُسۡتَقَرّٞ وَمُسۡتَوۡدَعٞۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَفۡقَهُونَ ۝ 100
(98) और वही है जिसने एक जान से तुमको पैदा किया, फिर हर एक के लिए एक जाए-क़रार है और एक उसके सौंपे जाने की जगह। ये निशानियाँ हमने वाज़ेह कर दी हैं उन लोगों के लिए जो समझ-बूझ रखते हैं।
وَلَا تَسُبُّواْ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَسُبُّواْ ٱللَّهَ عَدۡوَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖۗ كَذَٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ أُمَّةٍ عَمَلَهُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِم مَّرۡجِعُهُمۡ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 101
(108) और (ऐ मुसलमानो!) ये लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं उन्हें गालियाँ न दो, कहीं ऐसा न हो कि ये शिर्क से आगे बढ़कर जहालत की बिना पर अल्लाह को गालियाँ देने लगें। हमने तो इसी तरह हर गरोह के लिए उसके अमल को ख़ुशनुमा बना दिया है, फिर उन्हें अपने रब ही की तरफ़ पलटकर आना है, उस वक़्त वह उन्हें बता देगा कि वे क्या करते रहे हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَۚ فَإِن يَكۡفُرۡ بِهَا هَٰٓؤُلَآءِ فَقَدۡ وَكَّلۡنَا بِهَا قَوۡمٗا لَّيۡسُواْ بِهَا بِكَٰفِرِينَ ۝ 102
(89) वे लोग थे जिनको हमने किताब और हुक्म और नुबूवत आता की थी।21 अब अगर ये लोग उसको मानने से इनकार करते हैं तो (परवा नहीं) हमने और लोगों को यह नेमत सौंप दी है जो इससे मुनकिर नहीं हैं।
21. यहाँ अम्बिया (अलैहि०) को तीन चीज़ें अता किए जाने का ज़िक्र किया गया है। एक किताब यानी अल्लाह का हिदायतनामा। दूसरे हुक्म यानी उस हिदायतनामे का सहीह फ़हम, और उसके उसूलों को मामलाते-ज़िन्दगी पर मुंतबिक़ करने की सलाहियत, और मसाइले-हयात में फ़ैसलाकुन राय क़ायम करने की ख़ुदादाद क़ाबिलियत। तीसरे नुबूवत, यानी यह मंसब कि वह इस हिदायतनामे के मुताबिक़ ख़ल्क़ुल्लाह की रहनुमाई करें।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ نَبَاتَ كُلِّ شَيۡءٖ فَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهُ خَضِرٗا نُّخۡرِجُ مِنۡهُ حَبّٗا مُّتَرَاكِبٗا وَمِنَ ٱلنَّخۡلِ مِن طَلۡعِهَا قِنۡوَانٞ دَانِيَةٞ وَجَنَّٰتٖ مِّنۡ أَعۡنَابٖ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلرُّمَّانَ مُشۡتَبِهٗا وَغَيۡرَ مُتَشَٰبِهٍۗ ٱنظُرُوٓاْ إِلَىٰ ثَمَرِهِۦٓ إِذَآ أَثۡمَرَ وَيَنۡعِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكُمۡ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 103
(99) और वही है जिसने आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके ज़रिए से हर क़िस्म की नबातात उगाई, फिर उससे हरे-हरे खेत और दरख़्त पैदा किए, फिर उनसे तह-ब-तह चढ़े हुए दाने निकाले और खजूर के शगूफों से फलों के गुच्छे-के गुच्छे पैदा किए जो बोझ के मारे झुके पड़ते हैं, और अंगूर, जैतून और अनार के बाग़ लगाए, जिनके फल एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी हैं और फिर हर एक की ख़ुसूसियात जुदा-जुदा भी है। ये दरख़्त जब फलते हैं तो उनमें फल आने और फिर उनके पकने की कैफ़ियत ज़रा ग़ौर की नज़र से देखो, इन चीजों में निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِن جَآءَتۡهُمۡ ءَايَةٞ لَّيُؤۡمِنُنَّ بِهَاۚ قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡأٓيَٰتُ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَا يُشۡعِرُكُمۡ أَنَّهَآ إِذَا جَآءَتۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 104
(109) ये लोग कड़ी-कड़ी क़समें खा-खाकर कहते हैं कि अगर कोई निशानी (यानी मोजिज़ा) हमारे सामने आ जाए तो हम उसपर ईमान ले आएँगे। (ऐ नबी!) इनसे कहो कि “निशानियाँ तो अल्लाह के इख़्तियार में हैं।” और तुम्हें कैसे समझाया जाए कि अगर निशानियाँ आ भी जाएँ तो ये ईमान लानेवाले नहीं।28
28. यह ख़िताब मुसलमानों से है जो बेताब हो-होकर तमन्ना करते थे कि कोई ऐसी निशानी ज़ाहिर हो जाए जिससे उनके गुमराह भाई राहे-रास्त पर आ जाएँ।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۖ فَبِهُدَىٰهُمُ ٱقۡتَدِهۡۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًاۖ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 105
(90) (ऐ नबी!) वही लोग अल्लाह की तरफ़ से हिदायतयाफ़्ता थे, उन्हीं के रास्ते पर तुम चलो और कह दो कि मैं इस (तबलीग़ व हिदायत के) काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ, यह तो एक आम नसीहत है तमाम दुनियावालों के लिए।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ ٱلۡجِنَّ وَخَلَقَهُمۡۖ وَخَرَقُواْ لَهُۥ بَنِينَ وَبَنَٰتِۭ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 106
(100) इसपर भी लोगों ने जिन्नों को अल्लाह का शरीक ठहरा दिया,26 हालाँकि वह उनका खालिक है, और बेजाने-बूझे उसके लिए बेटे और बेटियाँ तसनीफ़ कर दीं, हालाँकि वह पाक और बालातर है उन बातों से जो ये लोग कहते हैं।
26. यानी अपने वहम व गुमान से यह ठहरा लिया कि कायनात के इन्तिज़ाम में और इनसान की क़िस्मत के बनाने और बिगाड़ने में अल्लाह के साथ दूसरी पोशीदा हस्तियाँ भी शरीक हैं। कोई बारिश का देवता है तो कोई रूईदगी का, कोई दौलत की देवी है तो कोई बीमारी की। इस क़िस्म के लग़्व एतिक़ादात दुनिया की तमाम मुशरिक क़ौमों में अरवाह और शयातीन और राक्षसों और देवताओं और देवियों के मुताल्लिक़ पाए जाते रहे हैं।
وَنُقَلِّبُ أَفۡـِٔدَتَهُمۡ وَأَبۡصَٰرَهُمۡ كَمَا لَمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهِۦٓ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَنَذَرُهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 107
(110) हम उसी तरह इनके दिलों और निगाहों को फेर रहे हैं जिस तरह ये पहली मर्तबा इस (किताब) पर ईमान नहीं लाए थे। हम इन्हें इनकी सरकशी ही में भटकने के लिए छोड़ देते हैं।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓ إِذۡ قَالُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ بَشَرٖ مِّن شَيۡءٖۗ قُلۡ مَنۡ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِي جَآءَ بِهِۦ مُوسَىٰ نُورٗا وَهُدٗى لِّلنَّاسِۖ تَجۡعَلُونَهُۥ قَرَاطِيسَ تُبۡدُونَهَا وَتُخۡفُونَ كَثِيرٗاۖ وَعُلِّمۡتُم مَّا لَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنتُمۡ وَلَآ ءَابَآؤُكُمۡۖ قُلِ ٱللَّهُۖ ثُمَّ ذَرۡهُمۡ فِي خَوۡضِهِمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 108
(91) इन लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अंदाज़ा लगाया, जब कहा कि “अल्लाह ने किसी बशर पर कुछ नाज़िल नहीं किया है इनसे पूछो, फिर वह किताब जिसे मूसा लाया था, जो तमाम इनसानों के लिए रौशनी और हिदायत थी, जिसे तुम पारा-पारा करके रखते हो, कुछ दिखाते हो और बहुत कुछ छिपा जाते हो, और जिसके ज़रिए से तुमको वह इल्म दिया गया। जो न तुम्हें हासिल था और न तुम्हारे बाप-दादा को, आख़िर उसका नाज़िल करनेवाला कौन था?”22 बस इतना कह दो कि “अल्लाह”, फिर उन्हें अपनी दलीलबाज़ियों से खेलने के लिए छोड़ दो।
22. यह जवाब चूँकि यहूदियों को दिया जा रहा है इसलिए मूसा (अलैहि०) पर तौरात के नुज़ूल को दलील के तौर पर पेश किया गया है, क्योंकि वे ख़ुद उसके क़ायल थे। ज़ाहिर है कि उनका यह तसलीम करना कि हज़रत मूसा (अलैहि०) पर तौरात नाज़िल हुई थी, उनके इस क़ौल की आप-से-आप तरदीद कर देता है कि ख़ुदा ने किसी बशर पर कुछ नाज़िल नहीं किया। नीज़ इससे कम-अज़-कम इतनी बात तो साबित हो जाती है कि बशर पर ख़ुदा का कलाम नाज़िल हो सकता है और हो चुका है।
۞وَلَوۡ أَنَّنَا نَزَّلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ وَكَلَّمَهُمُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَحَشَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ كُلَّ شَيۡءٖ قُبُلٗا مَّا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ يَجۡهَلُونَ ۝ 109
(111) अगर हम फ़रिश्ते भी इनपर नाज़िल कर देते और मुर्दे इनसे बातें करते और दुनिया भर की चीज़ों को हम इनकी आँखों के सामने जमा कर देते तब भी ये ईमान लानेवाले न थे, इल्ला यह कि मशीयते-इलाही यही हो (कि ये ईमान लाएँ), मगर अकसर लोग नादानी की बातें करते हैं।
بَدِيعُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَمۡ تَكُن لَّهُۥ صَٰحِبَةٞۖ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 110
(101) वह तो आसमानों और ज़मीन का मूजिद है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है जबकि कोई उसकी शरीके-ज़िन्दगी ही नहीं है! उसने हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ का इल्म रखता है।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا شَيَٰطِينَ ٱلۡإِنسِ وَٱلۡجِنِّ يُوحِي بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ زُخۡرُفَ ٱلۡقَوۡلِ غُرُورٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ ۝ 111
(112) और हमने तो इसी तरह हमेशा शैतान इनसानों और शैतान जिन्नों को हर नबी का दुश्मन बनाया है जो एक-दूसरे पर ख़ुशआइन्द बातें, धोखे और फ़रेब के तौर पर इलक़ा करते रहे हैं। अगर तुम्हारे रब की मशीयत यह होती कि वे ऐसा न करें तो वे कभी न करते। पस तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो कि अपनी इफ़तिरापरदाज़ियाँ करते रहें।
وَلِتَصۡغَىٰٓ إِلَيۡهِ أَفۡـِٔدَةُ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ وَلِيَرۡضَوۡهُ وَلِيَقۡتَرِفُواْ مَا هُم مُّقۡتَرِفُونَ ۝ 112
(113) (ये सब कुछ हम इन्हें इसी लिए करने दे रहे हैं कि) जो लोग आख़िरत पर ईमान नहीं रखते उनके दिल इस (ख़ुशनुमा धोखे) की तरफ़ माइल हों और वे इससे राज़ी हो जाएँ और उन बुराइयों का इकतिसाब करें जिनका इकतिसाब वे करना चाहते हैं।29
29. आयत 110 से 113 तक जो बात फ़रमाई गई है वह यह है कि इनसान के बारे में अल्लाह तआला का क़ानून यह नहीं है कि उसे मशीयत के तहत उस तरीक़े से हिदायत बख़्शी जाए जिस तरह दरख़्त में फल आते हैं या ख़ुद इनसान के सर पर बाल उगते हैं, बल्कि उसने इनसान को दुनिया में आज़माइश के लिए पैदा किया है और आज़माइश की ग़रज़ से यह बात ख़ुद उसके इख़्तियार पर छोड़ी गई है कि वह राहे-रास्त की तरफ़ जाना चाहता है या गुमराही की तरफ़। अगर वह आप ही गुमराह होना चाहे तो अल्लाह अपनी मशीयत से जबरन उसे हिदायत नहीं देता।
أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡتَغِي حَكَمٗا وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡكِتَٰبَ مُفَصَّلٗاۚ وَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡلَمُونَ أَنَّهُۥ مُنَزَّلٞ مِّن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّۖ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 113
(114) — फिर जब हाल यह है तो क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और फ़ैसला करनेवाला तलाश करूँ हालाँकि उसने पूरी तफ़सील के साथ तुम्हारी तरफ़ किताब नाज़िल कर दी है?30 और जिन लोगों को हमने (तुमसे पहले) किताब दी थी वे जानते हैं कि यह किताब तुम्हारे रब ही की तरफ़ से हक़ के साथ नाज़िल हुई है, लिहाज़ा तुम शक करनेवालों में शामिल न हो।
30. इस फ़िकरे में मुतकल्लिम नबी (सल्ल०) हैं और ख़िताब मुसलमानों से है।
وَتَمَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ صِدۡقٗا وَعَدۡلٗاۚ لَّا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 114
(115) तुम्हारे रब की बात सच्चाई और इनसाफ़ के एतिबार से कामिल है, कोई उसके फ़रामीन को तबदील करनेवाला नहीं है। और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَكَذَٰلِكَ نُوَلِّي بَعۡضَ ٱلظَّٰلِمِينَ بَعۡضَۢا بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 115
(129) देखो, इस तरह हम (आख़िरत में) ज़ालिमों को एक-दूसरे का साथी बनाएँगे, उस कमाई की वजह से जो वे (दुनिया में एक-दूसरे के साथ मिलकर) करते थे
وَإِن تُطِعۡ أَكۡثَرَ مَن فِي ٱلۡأَرۡضِ يُضِلُّوكَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 116
(116) और (ऐ नबी!) अगर तुम उन लोगों की अकसरियत के कहने पर चलो जो ज़मीन में बसते हैं तो वे तुम्हें अल्लाह के रास्ते से भटका देंगे। वे तो मह्ज़ गुमान पर चलते और क़ियास आराइयाँ करते हैं।
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَقُصُّونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِي وَيُنذِرُونَكُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَاۚ قَالُواْ شَهِدۡنَا عَلَىٰٓ أَنفُسِنَاۖ وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَشَهِدُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰفِرِينَ ۝ 117
(130) (इस मौक़े पर अल्लाह उनसे यह भी पूछेगा कि) “ऐ गरोहे-जिन्न व इन्स! क्या तुम्हारे पास ख़ुद तुम में से ऐसे रसूल नहीं आए थे जो तुमको मेरी आयात सुनाते और उस दिन के अंजाम से डराते थे?” वे कहेंगे, “हाँ, हम अपने ख़िलाफ़ ख़ुद गवाही देते हैं।” आज दुनिया की ज़िन्दगी ने उन लोगों को धोखे में डाल रखा है, मगर उस वक़्त वे ख़ुद अपने ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि व काफ़िर थे।।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ مَن يَضِلُّ عَن سَبِيلِهِۦۖ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 118
(117) दर-हक़ीक़त तुम्हारा रब ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसके रास्ते से हटा हुआ है और कौन सीधी राह पर है।
ذَٰلِكَ أَن لَّمۡ يَكُن رَّبُّكَ مُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ بِظُلۡمٖ وَأَهۡلُهَا غَٰفِلُونَ ۝ 119
(131) (यह शहादत उनसे इसलिए ली जाएगी कि) यह साबित हो जाए कि तुम्हारा रब बस्तियों को ज़ुल्म के साथ तबाह करनेवाला न था जबकि उनके बाशिन्दे हक़ीक़त से नावाकिफ़ हों।
وَقَالُواْ مَا فِي بُطُونِ هَٰذِهِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ خَالِصَةٞ لِّذُكُورِنَا وَمُحَرَّمٌ عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِنَاۖ وَإِن يَكُن مَّيۡتَةٗ فَهُمۡ فِيهِ شُرَكَآءُۚ سَيَجۡزِيهِمۡ وَصۡفَهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 120
(139) और कहते हैं कि जो कुछ इन जानवरों के पेट में है, यह हमारे मर्दों के लिए मख़सूस है और हमारी औरतों पर हराम, लेकिन अगर वह मुर्दा हो तो दोनों उसके खाने में शरीक हो सकते हैं। ये बातें जो उन्होंने गढ़ ली हैं, इनका बदला अल्लाह उन्हें देकर रहेगा। यक़ीनन वह हकीम है और सब बातों की उसे ख़बर है।
فَكُلُواْ مِمَّا ذُكِرَ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كُنتُم بِـَٔايَٰتِهِۦ مُؤۡمِنِينَ ۝ 121
(118) फिर अगर तुम लोग अल्लाह की आयात पर ईमान रखते हो तो जिस जानवर पर अल्लाह का नाम लिया गया हो उसका गोश्त खाओ।
وَلِكُلّٖ دَرَجَٰتٞ مِّمَّا عَمِلُواْۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 122
(132) हर शख़्स का दर्जा उसके अमल के लिहाज़ से है और तुम्हारा रब लोगों के आमाल से बेख़बर नहीं है।
قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ قَتَلُوٓاْ أَوۡلَٰدَهُمۡ سَفَهَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَحَرَّمُواْ مَا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُ ٱفۡتِرَآءً عَلَى ٱللَّهِۚ قَدۡ ضَلُّواْ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 123
(140) यक़ीनन ख़सारे में पड़ गए वे लोग जिन्होंने अपनी औलाद को जहालत व नादानी की बिना पर क़त्ल किया और अल्लाह के दिए हुए रिज़्क़ को अल्लाह पर इफ़तिरापरदाज़ी करके हराम ठहरा लिया। यक़ीनन वे भटक गए और हरगिज़ वे राहे-रास्त पानेवालों में से न थे।
وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تَأۡكُلُواْ مِمَّا ذُكِرَ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَقَدۡ فَصَّلَ لَكُم مَّا حَرَّمَ عَلَيۡكُمۡ إِلَّا مَا ٱضۡطُرِرۡتُمۡ إِلَيۡهِۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا لَّيُضِلُّونَ بِأَهۡوَآئِهِم بِغَيۡرِ عِلۡمٍۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 124
(119) आख़िर क्या वजह है कि तुम वह चीज़ न खाओ जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो? हालाँकि जिन चीज़ों का इस्तेमाल हालते-इज़तिरार के सिवा दूसरी तमाम हालतों में अल्लाह ने हराम कर दिया है उनकी तफ़सील वह तुम्हें बता चुका है। ब-कसरत लोगों का हाल यह है कि इल्म के बग़ैर मह्ज़ अपनी ख़ाहिशात की बिना पर गुमराहकुन बातें करते हैं, उन हद से गुज़रनेवालों को तुम्हारा रब ख़ूब जानता है।
وَرَبُّكَ ٱلۡغَنِيُّ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۚ إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفۡ مِنۢ بَعۡدِكُم مَّا يَشَآءُ كَمَآ أَنشَأَكُم مِّن ذُرِّيَّةِ قَوۡمٍ ءَاخَرِينَ ۝ 125
(133) तुम्हारा रब बेनियाज़ है और मेहरबानी उसका शेवा है। अगर वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और तुम्हारी जगह दूसरे जिन लोगों को चाहे ले आए जिस तरह उसने तुम्हें कुछ और लोगों की नस्ल से उठाया है।
۞وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَ جَنَّٰتٖ مَّعۡرُوشَٰتٖ وَغَيۡرَ مَعۡرُوشَٰتٖ وَٱلنَّخۡلَ وَٱلزَّرۡعَ مُخۡتَلِفًا أُكُلُهُۥ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلرُّمَّانَ مُتَشَٰبِهٗا وَغَيۡرَ مُتَشَٰبِهٖۚ كُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦٓ إِذَآ أَثۡمَرَ وَءَاتُواْ حَقَّهُۥ يَوۡمَ حَصَادِهِۦۖ وَلَا تُسۡرِفُوٓاْۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 126
(141) वह अल्लाह ही है जिसने तरह-तरह के बाग़ और ताकिस्तान और नख़लिस्तान पैदा किए, खेतियाँ उगाईं जिनसे क़िस्म-क़िस्म के माकूलात हासिल होते हैं, ज़ैतून और अनार के दरख़्त पैदा किए जिनके फल सूरत में मुशाबेह और मज़े में मुख़्तलिफ़ होते हैं। खाओ उनकी पैदावार जबकि ये फलें, और अल्लाह का हक़ अदा करो जब उनकी फ़स्ल काटो, और हद से न गुज़रो कि अल्लाह हद से गुज़रनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَذَرُواْ ظَٰهِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَبَاطِنَهُۥٓۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡسِبُونَ ٱلۡإِثۡمَ سَيُجۡزَوۡنَ بِمَا كَانُواْ يَقۡتَرِفُونَ ۝ 127
(120) तुम खुले गुनाहों से भी बचो और छिपे गुनाहों से भी, जो लोग गुनाह का इकतिसाब करते हैं, वे अपनी इस कमाई का बदला पाकर रहेंगे।
إِنَّ مَا تُوعَدُونَ لَأٓتٖۖ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 128
(134) तुमसे जिस चीज़ का वादा किया जा रहा है वह यक़ीनन आनेवाली है। और तुम ख़ुदा को आजिज़ कर देने की ताक़त नहीं रखते।
وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ حَمُولَةٗ وَفَرۡشٗاۚ كُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 129
(142) फिर वही जिसने मवेशियों में से वे जानवर भी पैदा किए जिनसे सवारी व बारबरदारी का काम लिया जाता है और वे भी जो खाने और बिछाने के काम आते हैं।” खाओ उन चीज़ों में से जो अल्लाह ने तुम्हें बख़्शी हैं और शैतान की पैरवी न करो कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
36. यानी उनकी खालों और उनके बालों से फ़र्श बनाए जाते हैं।
وَلَا تَأۡكُلُواْ مِمَّا لَمۡ يُذۡكَرِ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَإِنَّهُۥ لَفِسۡقٞۗ وَإِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ لَيُوحُونَ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِهِمۡ لِيُجَٰدِلُوكُمۡۖ وَإِنۡ أَطَعۡتُمُوهُمۡ إِنَّكُمۡ لَمُشۡرِكُونَ ۝ 130
(121) और जिस जानवर को अल्लाह का नाम लेकर ज़ब्ह न किया गया हो उसका गोश्त न खाओ, ऐसा करना फ़िस्क़ है। शयातीन अपने साथियों के दिलों में शुकूक व एतिराज़ात इलक़ा करते हैं ताकि वे तुमसे झगड़ा करें। लेकिन अगर तुमने उनकी इताअत क़ुबूल कर ली तो यक़ीनन तुम मुशरिक हो।
قُلۡ يَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَامِلٞۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن تَكُونُ لَهُۥ عَٰقِبَةُ ٱلدَّارِۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 131
(135) (ऐ नबी!) कह दो कि “लोगो! तुम अपनी जगह अमल करते रहो और मैं भी अपनी जगह अमल कर रहा हूँ, अन-क़रीब तुम्हें मालूम हो जाएगा कि अंजामे-कार किसके हक़ में बेहतर होता है,” बहरहाल यह हक़ीक़त है कि ज़ालिम कभी फ़लाह नहीं पा सकते।
ثَمَٰنِيَةَ أَزۡوَٰجٖۖ مِّنَ ٱلضَّأۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَمِنَ ٱلۡمَعۡزِ ٱثۡنَيۡنِۗ قُلۡ ءَآلذَّكَرَيۡنِ حَرَّمَ أَمِ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ أَمَّا ٱشۡتَمَلَتۡ عَلَيۡهِ أَرۡحَامُ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۖ نَبِّـُٔونِي بِعِلۡمٍ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 132
(143) ये आठ नर व मादा हैं, दो भेड़ की क़िस्म से और दो बकरी की क़िस्म से। (ऐ नबी!) इनसे पूछो कि अल्लाह ने उनके नर हराम किए हैं या मादा, या वे बच्चे जो भेड़ों और बकरियों के पेट में हों? ठीक-ठीक इल्म के साथ मुझे बताओ अगर तुम सच्चे हो।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ مِمَّا ذَرَأَ مِنَ ٱلۡحَرۡثِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ نَصِيبٗا فَقَالُواْ هَٰذَا لِلَّهِ بِزَعۡمِهِمۡ وَهَٰذَا لِشُرَكَآئِنَاۖ فَمَا كَانَ لِشُرَكَآئِهِمۡ فَلَا يَصِلُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَا كَانَ لِلَّهِ فَهُوَ يَصِلُ إِلَىٰ شُرَكَآئِهِمۡۗ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 133
(136) इन लोगों ने अल्लाह के लिए ख़ुद उसी की पैदा की हुई खेतियों और मवेशियों में से एक हिस्सा मुक़र्रर किया है और कहते हैं कि यह अल्लाह के लिए है, बज़अमे-ख़ुद, और यह हमारे ठहराए हुए शरीकों के लिए। फिर जो हिस्सा उनके ठहराए हुए शरीकों के लिए है वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता। मगर जो अल्लाह के लिए है वह उनके शरीकों को पहुँच जाता है।33 कैसे बुरे फ़ैसले करते हैं ये लोग!
33. वे लोग अल्लाह के नाम से जो हिस्सा निकालते थे उसमें भी तरह-तरह की चालबाज़ियाँ करके कमी करते रहते थे और हर सूरत से अपने ख़ुदसाख़्ता शरीकों का हिस्सा बढ़ाने की कोशिश करते थे। मसलन जो ग़ल्ले या फल वग़ैरा अल्लाह के नाम पर निकाले जाते उनमें से अगर कुछ गिर जाता तो वह शरीकों के हिस्से में शामिल कर दिया जाता था, और अगर शरीकों के हिस्से में से गिरता, या ख़ुदा के हिस्से में मिल जाता तो उसे उन्हीं के हिस्से में वापस किया जाता। अगर किसी वजह से नज़्र व नियाज़ का ग़ल्ला ख़ुद इस्तेमाल करने की सूरत पेश आ जाती तो ख़ुदा का हिस्सा खा लेते थे मगर शरीकों के हिस्से को हाथ लगाते हुए डरते थे कि कहीं कोई बला नाज़िल न हो जाए।
أَوَمَن كَانَ مَيۡتٗا فَأَحۡيَيۡنَٰهُ وَجَعَلۡنَا لَهُۥ نُورٗا يَمۡشِي بِهِۦ فِي ٱلنَّاسِ كَمَن مَّثَلُهُۥ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ لَيۡسَ بِخَارِجٖ مِّنۡهَاۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡكَٰفِرِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 134
(122) क्या वह शख़्स जो पहले मुर्दा था, फिर हमने उसे ज़िन्दगी बख़्शी और उसको वह रौशनी अता की जिसके उजाले में वह लोगों के दरमियान ज़िन्दगी की राह तय करता है उस शख़्स की तरह हो सकता है जो तारीकियों में पड़ा हो और किसी तरह उनसे न निकलता हो?31 काफ़िरों के लिए तो इसी तरह उनके आमाल ख़ुशनुमा बना दिए गए हैं,
31. यानी तुम किस तरह यह तवक़्क़ो कर सकते हो कि जिस इनसान को इनसानियत का शुऊर नसीब हो चुका है और जो इल्म की रौशनी में टेढ़े रास्तों के दरमियान हक़ की सीधी राह को साफ़ देख रहा है वह उन बेशुऊर लोगों की तरह दुनिया में ज़िन्दगी बसर करेगा जो नादानी व जहालत की तारीकियों में भटकते फिर रहे हैं।
وَمِنَ ٱلۡإِبِلِ ٱثۡنَيۡنِ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ ٱثۡنَيۡنِۗ قُلۡ ءَآلذَّكَرَيۡنِ حَرَّمَ أَمِ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ أَمَّا ٱشۡتَمَلَتۡ عَلَيۡهِ أَرۡحَامُ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۖ أَمۡ كُنتُمۡ شُهَدَآءَ إِذۡ وَصَّىٰكُمُ ٱللَّهُ بِهَٰذَاۚ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا لِّيُضِلَّ ٱلنَّاسَ بِغَيۡرِ عِلۡمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 135
(144) और इसी तरह दो ऊँट की क़िस्म से हैं और दो गाय की क़िस्म से। पूछो, इनके नर अल्लाह ने हराम किए हैं या मादा, या वे बच्चे जो ऊँटनी और गाय के पेट में हों? क्या तुम उस वक़्त हाज़िर थे जब अल्लाह ने इनके हराम होने का हुक्म तुम्हें दिया था? फिर उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह की तरफ़ मंसूब करके झूठी बात कहे ताकि इल्म के बग़ैर लोगों की ग़लत रहनुमाई करे। यक़ीनन अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को राहे-रास्त नहीं दिखाता।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٍ أَكَٰبِرَ مُجۡرِمِيهَا لِيَمۡكُرُواْ فِيهَاۖ وَمَا يَمۡكُرُونَ إِلَّا بِأَنفُسِهِمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 136
(123) और इसी तरह हमने हर बस्ती में उसके बड़े-बड़े मुजरिमों को लगा दिया है कि वहाँ अपने मकरो-फ़रेब का जाल फैलाएँ। दरअस्ल वे अपने फ़रेब के जाल में आप फँसते हैं, मगर उन्हें इसका शुऊर नहीं है।
قُل لَّآ أَجِدُ فِي مَآ أُوحِيَ إِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلَىٰ طَاعِمٖ يَطۡعَمُهُۥٓ إِلَّآ أَن يَكُونَ مَيۡتَةً أَوۡ دَمٗا مَّسۡفُوحًا أَوۡ لَحۡمَ خِنزِيرٖ فَإِنَّهُۥ رِجۡسٌ أَوۡ فِسۡقًا أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ رَبَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 137
(145) (ऐ नबी!) इनसे कहो कि जो वह्य मेरे पास आई है उसमें तो मैं कोई चीज़ ऐसी नहीं पाता जो किसी खानेवाले पर हराम हो, इल्ला यह कि वह मुर्दार हो, या बहाया हुआ ख़ून हो, या सूअर का गोश्त हो कि वह नापाक है, या फ़िस्क़ हो कि अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो।37 फिर जो शख़्स मजबूरी की हालत में (कोई चीज़ उनमें से खा ले) बग़ैर इसके कि वह नाफ़रमानी का इरादा रखता हो और बग़ैर इसके कि वह हद्दे-ज़रूरत से तजावुज़ करे, तो यक़ीनन तुम्हारा रब दरगुज़र से काम लेनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
37. इसका मतलब यह नहीं है कि उनके सिवा खाने की कोई चीज़ शरीअत में हराम नहीं है, बल्कि मतलब यह है कि हराम वे चीज़ें नहीं जो तुम लोगों ने हराम कर ली हैं, बल्कि हराम ये चीज़ें हैं। तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-5 माइदा, हाशिया 2,9।
وَإِذَا جَآءَتۡهُمۡ ءَايَةٞ قَالُواْ لَن نُّؤۡمِنَ حَتَّىٰ نُؤۡتَىٰ مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ رُسُلُ ٱللَّهِۘ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ حَيۡثُ يَجۡعَلُ رِسَالَتَهُۥۗ سَيُصِيبُ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْ صَغَارٌ عِندَ ٱللَّهِ وَعَذَابٞ شَدِيدُۢ بِمَا كَانُواْ يَمۡكُرُونَ ۝ 138
(124) जब उनके सामने कोई आयत आती है तो वे कहते हैं, “हम न मानेंगे जब तक कि वह चीज़ हमको न दी जाए जो अल्लाह के रसूलों को दी गई है।” अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि अपनी पैग़म्बरी का काम किससे ले और किस तरह ले। क़रीब है वह वक़्त जब ये मुजरिम अपनी मक्कारियों की पादाश में अल्लाह के यहाँ ज़िल्लत और सख़्त अज़ाब से दोचार होंगे।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا كُلَّ ذِي ظُفُرٖۖ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ وَٱلۡغَنَمِ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ شُحُومَهُمَآ إِلَّا مَا حَمَلَتۡ ظُهُورُهُمَآ أَوِ ٱلۡحَوَايَآ أَوۡ مَا ٱخۡتَلَطَ بِعَظۡمٖۚ ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِبَغۡيِهِمۡۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 139
(146) और जिन लोगों ने यहूदियत इख़्तियार की उसपर हमने सब नाख़ुनवाले जानवर हराम कर दिए थे, और गाय और बकरी की चरबी भी बजुज़ उसके जो उनकी पीठ या उनकी आँतों से लगी हो या हड्डी से लगी रह जाए। यह हमने उनकी सरकशी की सज़ा उन्हें दी थी38 और यह जो कुछ हम कह रहे हैं बिलकुल सच कह रहे हैं।
38. मुलाहज़ा हो सूरा-3 आले-इमरान, आयत-93 और सूरा-4 निशा, आयत-60।
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل رَّبُّكُمۡ ذُو رَحۡمَةٖ وَٰسِعَةٖ وَلَا يُرَدُّ بَأۡسُهُۥ عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 140
(147) अब अगर वे तुम्हें झुठलाएँ तो उनसे कह दो कि तुम्हारे रब का दामने-रहमत वसीअ है और मुजरिमों से उसके अज़ाब को फेरा नहीं जा सकता।
فَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يَهۡدِيَهُۥ يَشۡرَحۡ صَدۡرَهُۥ لِلۡإِسۡلَٰمِۖ وَمَن يُرِدۡ أَن يُضِلَّهُۥ يَجۡعَلۡ صَدۡرَهُۥ ضَيِّقًا حَرَجٗا كَأَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِي ٱلسَّمَآءِۚ كَذَٰلِكَ يَجۡعَلُ ٱللَّهُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 141
(125) पस (यह हक़ीक़त है कि) जिसे अल्लाह हिदायत बख़्शने का इरादा करता है, उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है और जिसे गुमराही में डालने का इरादा करता है उसके सीने को तंग कर देता है और ऐसा भींचता है (कि इस्लाम का तसव्वुर करते ही) उसे यूँ मालूम होने लगता है कि गोया उसकी रूह आसमान की तरफ़ परवाज़ कर रही है। इस तरह अल्लाह (हक़ से फ़रार और नफ़रत की) नापाकी उन लोगों पर मुसल्लत कर देता है जो ईमान नहीं लाते,32
32. इस फ़िकरे से यह बात वाज़ेह हो गई कि जो लोग ईमान नहीं लाते अल्लाह उन्हीं का सीना इस्लाम के लिए तंग कर देता है और उन्हें हिदायत बख़्शने का इरादा नहीं करता।
وَهَٰذَا صِرَٰطُ رَبِّكَ مُسۡتَقِيمٗاۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَذَّكَّرُونَ ۝ 142
(126) हालाँकि यह रास्ता तुम्हारे रब का सीधा रास्ता है और इसके निशानात उन लोगों के लिए वाज़ेह कर दिए गए हैं जो नसीहत क़ुबूल करते हैं।
۞لَهُمۡ دَارُ ٱلسَّلَٰمِ عِندَ رَبِّهِمۡۖ وَهُوَ وَلِيُّهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 143
(127) उनके रब के पास उनके लिए सलामती का घर है और वह उनका सरपरस्त है, उस सही तर्ज़े-अमल की वजह से जो उन्होंने इख़्तियार किया।
سَيَقُولُ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَآ أَشۡرَكۡنَا وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ حَتَّىٰ ذَاقُواْ بَأۡسَنَاۗ قُلۡ هَلۡ عِندَكُم مِّنۡ عِلۡمٖ فَتُخۡرِجُوهُ لَنَآۖ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَخۡرُصُونَ ۝ 144
(148) ये मुशरिक लोग (तुम्हारी इन बातों के जवाब में) ज़रूर कहेंगे अगर अल्लाह चाहता तो न हम शिर्क करते और न हमारे बाप दादा, और न हम किसी चीज़ को हराम ठहराते।”39 ऐसी ही बातें बना-बनाकर ही इनसे पहले के लोगों ने भी हक़ को झुठलाया था यहाँ तक कि आख़िरकार हमारे अज़ाब का मज़ा उन्होंने चख लिया। उनसे कहो, “क्या तुम्हारे पास कोई इल्म है जिसे हमारे सामने पेश कर सको? तुम तो मह्ज़ गुमान पर चल रहे हो और निरी क़ियास आराइयाँ करते हो।”
39. यानी वे अपने ज़ुर्म और अपनी ग़लतकारी के लिए वही पुराना उज़्र पेश करेंगे जो हमेशा से मुजरिम और ग़लतकार लोग पेश करते रहे है। वे कहेंगे कि हमारे हक़ में अल्लाह की मशीयत यही है कि हम शिर्क को और जिन चीज़ों को हमने हराम ठहरा रखा है उन्हें हराम ठहराएँ। वरना अगर अल्लाह न चाहता कि हम ऐसा करें तो क्योंकर मुमकिन था कि ये अफ़आल हमसे सादिर होते। पस चूँकि हम सब अल्लाह की मशीयत के मुताबिक़ ये सब कुछ कर रहे हैं इसलिए दुरुस्त कर रहे हैं, इसका इलज़ाम अगर है तो हमपर नहीं, अल्लाह पर है। और जो कुछ हम कर रहे हैं ऐसा ही करने पर मजबूर हैं कि इसके सिवा कुछ और करना हमारी क़ुदरत से बाहर है।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ قَدِ ٱسۡتَكۡثَرۡتُم مِّنَ ٱلۡإِنسِۖ وَقَالَ أَوۡلِيَآؤُهُم مِّنَ ٱلۡإِنسِ رَبَّنَا ٱسۡتَمۡتَعَ بَعۡضُنَا بِبَعۡضٖ وَبَلَغۡنَآ أَجَلَنَا ٱلَّذِيٓ أَجَّلۡتَ لَنَاۚ قَالَ ٱلنَّارُ مَثۡوَىٰكُمۡ خَٰلِدِينَ فِيهَآ إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 145
(128) जिस रोज़ अल्लाह इन सब लोगों को घेरकर जमा करेगा उस रोज़ वह जिन्नों (यानी शयातीने-जिन्न) से ख़िताब करके फ़रमाएगा कि “ऐ गरोहे-जिन्न! तुमने तो नौए-इनसानी पर ख़ूब हाथ साफ़ किया।” इनसानों में से जो उनके रफ़ीक़ थे वे अर्ज़ करेंगे “परवरदिगार! हममें से हर एक ने दूसरे को ख़ूब इस्तेमाल किया है, और अब हम उस वक़्त पर आ पहुँचे हैं जो तूने हमारे लिए मुक़र्रर कर दिया था।” अल्लाह फ़रमाएगा, “अच्छा अब आग तुम्हारा ठिकाना है, इसमें तुम हमेशा रहोगे।” उससे बचेंगे सिर्फ़ वही जिन्हें अल्लाह बचाना चाहेगा, बेशक तुम्हारा रब दाना और अलीम है।
قُلۡ فَلِلَّهِ ٱلۡحُجَّةُ ٱلۡبَٰلِغَةُۖ فَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 146
(149) फिर कहो (तुम्हारी इस हुज्जत के मुक़ाबले में) “हक़ीक़त-रस हुज्जत तो अल्लाह के पास है। बेशक अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको हिदायत दे देता”40
40. यानी तुम अपनी मअज़िरत में यह हुज्जत जो पेश करते हो कि अगर अल्लाह चाहता तो हम शिर्क न करते, इससे पूरी बात अदा नहीं होती। पूरी बात कहना चाहते हो तो यूँ कहो कि अगर अल्लाह चाहता तो हम सबको हिदायत दे देता। बअल्फ़ाज़े-दीगर तुम ख़ुद अपने इन्तिख़ाब से राहे-रास्त इख़्तियार करने पर तैयार नहीं हो, बल्कि यह चाहते हो कि ख़ुदा ने जिस तरह फ़रिश्तों को पैदाइशी रास्तरौ बनाया था, उस तरह तुम्हें भी बना देता। तो बेशक अगर अल्लाह की मशीयत इनसान के हक़ में यह होती तो वह ज़रूर ऐसा कर सकता था, लेकिन यह उसकी मशीयत नहीं है। लिहाज़ा जिस गुमराही को तुमने अपने लिए ख़ुद पसन्द किया है अल्लाह भी तुम्हें उसी में पड़ा रहने देगा।
قُلۡ هَلُمَّ شُهَدَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ يَشۡهَدُونَ أَنَّ ٱللَّهَ حَرَّمَ هَٰذَاۖ فَإِن شَهِدُواْ فَلَا تَشۡهَدۡ مَعَهُمۡۚ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ وَهُم بِرَبِّهِمۡ يَعۡدِلُونَ ۝ 147
(150) इनसे कहो, “लाओ अपने वे गवाह जो इस बात की शहादत दें कि अल्लाह ही ने उन चीज़ों को हराम किया है।” फिर अगर वे शहादत दे दें तो तुम उनके साथ शहादत न देना,41 और हरगिज़ उन लोगों की ख़ाहिशात के पीछे न चलना जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया है, और जो आख़िरत के मुनकिर हैं और जो दूसरों को अपने रब का हमसर बनाते हैं।
41. यानी अगर वे शहादत की ज़िम्मेदारी को समझते हों और जानते हों कि शहादत उसी बात की देनी चाहिए जिसका आदमी को इल्म हो, तो वे कभी यह शहादत देने की जुरअत न करेंगे। लेकिन अगर ये लोग शहादत की ज़िम्मेदारी को महसूस किए बग़ैर इतनी ढिठाई पर उतर आएँ कि अल्लाह का नाम लेकर झूठी शहादत देने में भी ताम्मुल न करें, तो इनके इस झूठ में तुम इनके साथी न बनो।
۞قُلۡ تَعَالَوۡاْ أَتۡلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمۡ عَلَيۡكُمۡۖ أَلَّا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗاۖ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُم مِّنۡ إِمۡلَٰقٖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكُمۡ وَإِيَّاهُمۡۖ وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَۖ وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 148
(151) (ऐ नबी!) उनसे कहो कि आओ मैं तुम्हें सुनाऊँ तुम्हारे रब ने तुमपर क्या पाबन्दियाँ आइद की हैं42— यह कि उसके साथ किसी के शरीक न करो, और वालिदैन के साथ नेक सुलूक करो, और अपनी औलाद को मुफ़लिसी के डर से क़त्ल न करो, हम तुम्हें भी रिज़्क़ देते हैं और उनको भी देंगे, और बेशर्मी की बातों43 के क़रीब भी न जाओ ख़ाह वे खुली हों या छिपी, और किसी जान को, जिसे अल्लाह ने मोहतरम ठहराया है, हलाक न करो मगर हक़ के साथ। ये बातें हैं जिनकी हिदायत उसने तुम्हें की है शायद कि तुम समझ-बूझ से काम लो।
42. यानी तुम्हारे रब की आइद की हुई पाबन्दियाँ वे नहीं हैं जिनमें तुम गिरफ़्तार हो, बल्कि अस्ल पाबन्दियाँ ये हैं।
43. अस्ल में लफ़्ज़ ‘फ़वाहिश' इस्तेमाल हुआ है जिसका इतलाक़ उन तमाम अफ़आल पर होता है जिनकी बुराई बिलकुल वाज़ेह है। क़ुरआन में ज़िना, अमले-क़ौमे-लूत, बरहनगी, झूठी तुहमत और बाप की मनकूहा से निकाह करने को ‘फ़ुहश' अफ़आल में शुमार किया गया है। हदीस में चोरी और शराबनोशी और भीक माँगने को मिन-जुमला ‘फ़वाहिश' कहा गया है। इस तरह दूसरे तमाम शर्मनाक अफ़आल भी फ़वाहिश में दाख़िल हैं और इरशादे-इलाही यह है कि इस क़िस्म के अफ़आल न अलानिया किए जाएँ न छिपकर।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۖ وَإِذَا قُلۡتُمۡ فَٱعۡدِلُواْ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰۖ وَبِعَهۡدِ ٱللَّهِ أَوۡفُواْۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 149
(152) और यह कि माले-यतीम के क़रीब न जाओ, मगर ऐसे तरीक़े से जो बेहतरीन हो, यहाँ तक कि वह अपने सिने-रुश्द को पहुँच जाए। और नाप-तौल में पूरा इनसाफ़ करो, हम हर शख़्स पर ज़िम्मेदारी का उतना ही बार रखते हैं जितना उसके इमकान में है। और जब बात कहो इनसाफ़ की कहो, ख़ाह मामला अपने रिश्तेदार ही का क्यों न हो। और अल्लाह के अह्द को पूरा करो।44 इन बातों की हिदायत अल्लाह ने तुम्हें की है शायद कि तुम नसीहत क़ुबूल करो।
44. 'अल्लाह के अह्द' से मुराद वह अह्द है जो इनसान और ख़ुदा और इनसान और इंसान के दरमियान फ़ितरी तौर पर उस वक़्त आप-से-आप बँध जाता है जिस वक़्त एक शख़्स ख़ुदा की ज़मीन पर एक इनसानी मुआशरे में पैदा होता है।
وَأَنَّ هَٰذَا صِرَٰطِي مُسۡتَقِيمٗا فَٱتَّبِعُوهُۖ وَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلسُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمۡ عَن سَبِيلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 150
(153) नीज़ उसकी हिदायत यह है कि यही मेरा सीधा रास्ता है, लिहाज़ा तुम इसी पर चलो और दूसरे रास्तों पर न चलो कि वह उसके रास्ते से हटाकर तुम्हें परागन्दा कर देंगे। यह है वह हिदायत जो तुम्हारे रब ने तुम्हें की है शायद कि तुम कजरवी से बचो।
ثُمَّ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ تَمَامًا عَلَى ٱلَّذِيٓ أَحۡسَنَ وَتَفۡصِيلٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لَّعَلَّهُم بِلِقَآءِ رَبِّهِمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 151
(154) फिर हमने मूसा को किताब अता की थी जो भलाई की रविश इख़्तियार करनेवाले इनसान पर नेमत की तकमील और हर ज़रूरी चीज़ की तफ़सील और सरासर हिदायत व रहमत थी (और इसलिए बनी-इसराईल को दी गई थी कि) शायद लोग अपने रब की मुलाक़ात पर ईमान लाएँ।45
45. मुराद यह है कि लोग अपने-आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार समझना छोड़ दें और यह मान लें कि उन्हें अपने रब के सामने हाज़िर होकर एक रोज़ अपने आमाल की जवाबदेही करनी है।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ فَٱتَّبِعُوهُ وَٱتَّقُواْ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 152
(155) और इसी तरह यह किताब हमने नाज़िल की है, एक बरकतवाली किताब। पस तुम इसकी पैरवी करो और तक़वा की रविश इख़्तियार करो बईद नहीं कि तुमपर रहम किया जाए।
أَن تَقُولُوٓاْ إِنَّمَآ أُنزِلَ ٱلۡكِتَٰبُ عَلَىٰ طَآئِفَتَيۡنِ مِن قَبۡلِنَا وَإِن كُنَّا عَن دِرَاسَتِهِمۡ لَغَٰفِلِينَ ۝ 153
(156) अब तुम यह नहीं कह सकते कि किताब तो हमसे पहले के दो गरोहों को दी गई थी, और हमको कुछ ख़बर न थी कि वे क्या पढ़ते-पढ़ाते थे।
أَوۡ تَقُولُواْ لَوۡ أَنَّآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا ٱلۡكِتَٰبُ لَكُنَّآ أَهۡدَىٰ مِنۡهُمۡۚ فَقَدۡ جَآءَكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞۚ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَصَدَفَ عَنۡهَاۗ سَنَجۡزِي ٱلَّذِينَ يَصۡدِفُونَ عَنۡ ءَايَٰتِنَا سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ بِمَا كَانُواْ يَصۡدِفُونَ ۝ 154
(157) और अब तुम यह बहाना भी नहीं कर सकते कि अगर हमपर किताब नाज़िल की गई होती तो हम उनसे ज़्यादा रास्तरौ साबित होते। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से एक दलीले-रौशन और हिदायत और रहमत आ गई है। अब उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की आयात को झुठलाए और उनसे मुँह मोड़े। जो लोग हमारी आयात से मुँह मोड़ते हैं उन्हें इस रू गरदानी की पादाश में हम बदतरीन सज़ा देकर रहेंगे।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ رَبُّكَ أَوۡ يَأۡتِيَ بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَۗ يَوۡمَ يَأۡتِي بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَ لَا يَنفَعُ نَفۡسًا إِيمَٰنُهَا لَمۡ تَكُنۡ ءَامَنَتۡ مِن قَبۡلُ أَوۡ كَسَبَتۡ فِيٓ إِيمَٰنِهَا خَيۡرٗاۗ قُلِ ٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ ۝ 155
(158) क्या अब लोग इसके मुन्तज़िर हैं कि उनके सामने फ़रिश्ते आ खड़े हों, या तुम्हारा रब ख़ुद आ जाए, या तुम्हारे रब की बाज़ सरीह निशानियाँ46 नमूदार हो जाएँ? जिस रोज़ तुम्हारे रब की बाज़ मख़सूस निशानियाँ नमूदार हो जाएँगी फिर किसी ऐसे शख़्स को उसका ईमान कुछ फ़ायदा न देगा जो पहले ईमान न लाया हो या जिसने अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई हो। (ऐ नबी!) इनसे कह दो कि अच्छा, तुम इन्तिज़ार करो, हम भी इन्तिज़ार करते हैं।
46. यानी आसारे-क़ियामत, या अज़ाब या कोई और ऐसी निशानी जो हक़ीक़त की बिलकुल परदाकुशाई कर देनेवाली हो और जिसके ज़ाहिर होने के बाद इमतिहान व आज़माइश का कोई सवाल बाक़ी न रहे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗا لَّسۡتَ مِنۡهُمۡ فِي شَيۡءٍۚ إِنَّمَآ أَمۡرُهُمۡ إِلَى ٱللَّهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 156
(159) जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गरोह-गरोह बन गए, यक़ीनन उनसे तुम्हारा कुछ वास्ता नहीं, उनका मामला तो अल्लाह के सिपुर्द है, वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ عَشۡرُ أَمۡثَالِهَاۖ وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَلَا يُجۡزَىٰٓ إِلَّا مِثۡلَهَا وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 157
(160) जो अल्लाह के हुज़ूर नेकी लेकर आएगा उसके लिए दस गुना अज्र है, और जो बदी लेकर आएगा उसको उतना ही बदला दिया जाएगा जितना उसने क़ुसूर किया है, और किसी पर ज़ुल्म न किया जाएगा।
قُلۡ إِنَّنِي هَدَىٰنِي رَبِّيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ دِينٗا قِيَمٗا مِّلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۚ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 158
(161) (ऐ नबी!) कहो, “मेरे रब ने बिल-यक़ीन मुझे सीधा रास्ता दिखा दिया है, बिलकुल ठीक दीन जिसमें कोई टेढ़ नहीं, इबराहीम का तरीक़ा जिसे यकसू होकर उसने इख़्तियार किया था और वह मुशरिकों में से न था।”
قُلۡ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحۡيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 159
(162) कहो, “मेरी नमाज़, मेरे तमाम मरासिमे-उबूदियत,47 मेरा जीना और मेरा मरना, सब कुछ अल्लाह रब्बुल-आलमीन के लिए है
47. अस्ल में लफ़्ज़ ‘नुसुक' इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी क़ुरबानी के भी हैं और इसका इतलाक़ उमूमियत के साथ बन्दगी व परस्तिश की दूसरी तमाम सूरतों पर भी होता है।
لَا شَرِيكَ لَهُۥۖ وَبِذَٰلِكَ أُمِرۡتُ وَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 160
(163) जिसका कोई शरीक नहीं। इसी का मुझे हुक्म दिया गया है और सबसे पहले सरे-इताअत झुकानेवाला मैं हूँ।”
قُلۡ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡغِي رَبّٗا وَهُوَ رَبُّ كُلِّ شَيۡءٖۚ وَلَا تَكۡسِبُ كُلُّ نَفۡسٍ إِلَّا عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُم مَّرۡجِعُكُمۡ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 161
(164) कहो, “क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और रब तलाश करूँ हालाँकि वही हर चीज़ का रब है? “हर शख़्स जो कुछ कमाता है उसका ज़िम्मेदार वह ख़ुद है, कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाता,48 फिर तुम सबको अपने रब की तरफ़ पलटना है, उस वक़्त वह तुम्हारे इख़्तिलाफ़ात की हक़ीक़त तुमपर खोल देगा।
48. यानी हर शख़्स ख़ुद ही अपने अमल का ज़िम्मेदार है, एक के अमल की ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं है।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَكُمۡ خَلَٰٓئِفَ ٱلۡأَرۡضِ وَرَفَعَ بَعۡضَكُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۗ إِنَّ رَبَّكَ سَرِيعُ ٱلۡعِقَابِ وَإِنَّهُۥ لَغَفُورٞ رَّحِيمُۢ ۝ 162
(165) वही है जिसने तुमको ज़मीन का ख़लीफ़ा बनाया, और तुममें से बाज़ को बाज़ के मुक़ाबले में ज़्यादा बलन्द दर्जे दिए, ताकि जो कुछ तुमको दिया है उसमें तुम्हारी आज़माइश करे। बेशक तुम्हारा रब सज़ा देने में भी बहुत तेज़ है और दरगुज़र करने और रहम फ़रमानेवाला भी है।
وَكَذَٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ قَتۡلَ أَوۡلَٰدِهِمۡ شُرَكَآؤُهُمۡ لِيُرۡدُوهُمۡ وَلِيَلۡبِسُواْ عَلَيۡهِمۡ دِينَهُمۡۖ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ ۝ 163
(137) और इसी तरह बहुत-से मुशरिकों के लिए उनके शरीकों ने अपनी औलाद के क़त्ल को ख़ुशनुमा बना दिया है34 ताकि उनको हलाकत में मुब्तला करें और उनपर उनके दीन को मुश्तबह बना दें।35 अगर अल्लाह चाहता तो ये ऐसा न करते, लिहाज़ा इन्हें छोड़ दो कि इफ़तिरापरदाज़ियों में लगे रहें।
34. यहाँ ‘शरीकों’ का लफ़्ज़ एक दूसरे मानी में इस्तेमाल हुआ है जो ऊपर के मानी से मुख़्तलिफ़ है। आयत 136 में जिन्हें ‘शरीक' के लफ़्ज़ से ताबीर किया गया था वे उनके वे माबूद थे जिनकी बरकत या सिफ़ारिश या तवस्सुत को ये लोग नेमत के हुसूल में मददगार समझते थे और शुक्रे-नेमत के इस्तिहक़ाक़ में उन्हें अल्लाह के साथ हिस्सेदार बनाते थे। बख़िलाफ़ इसके इस आयत में ‘शरीक' से मुराद वे इनसान हैं जिन्होंने क़त्ले-औलाद की रस्म ईजाद की थी और वे शैतान हैं जिन्होंने इस ज़ालिमाना रस्म को उन लोगों की निगाह में एक जाइज़ और पसंदीदा फ़ेल बना दिया था। क़त्ले-औलाद की तीन सूरतें अहले-अरब में राइज थीं और क़ुरआन में तीनों की तरफ़ इशारा किया गया है— (1) लड़कियों का क़ल्ल, इस ख़याल से कि कोई उनका दामाद न बने, या क़बाइली लड़ाइयों में वे दुश्मन के हाथ न पड़ें, या किसी दूसरे सबब से उनके लिए सबबे-आर न बनें। (2) बच्चों का क़त्ल, इस ख़याल से कि उनकी परवरिश का बार न उठाया जा सकेगा और ज़राए-मआश की कमी के सबब से वे नाक़ाबिले बरदाश्त बोझ बन जाएँगे। (3) बच्चों को अपने माबूदों की ख़ुशनूदी के लिए भेट चढ़ाना।
35. ज़माना-ए-जाहिलियत के अरब अपने-आपको हज़रत इबराहीम (अलैहि०) व इसमाईल (अलैहि०) का पैरौ कहते और समझते थे और इस बिना पर उनका ख़याल यह था कि जिस मज़हब का वे इत्तिबाअ कर रहे हैं वह ख़ुदा का पसंदीदा मज़हब ही है। लेकिन इस दीन के अन्दर बाद की सदियों में उनके मज़हबी पेशवा, क़बाइल के सरदार, ख़ानदानों के बड़े-बूढ़े और मुख़्तलिफ़ लोग तरह-तरह के अक़ाइद और आमाल और रुसूम का इज़ाफ़ा करते चले गए, जिन्हें आनेवाली नस्लों ने अस्ल मज़हब का जुज़ समझ लिया और उनका पूरा दीन मुश्तबह होकर रह गया।
وَقَالُواْ هَٰذِهِۦٓ أَنۡعَٰمٞ وَحَرۡثٌ حِجۡرٞ لَّا يَطۡعَمُهَآ إِلَّا مَن نَّشَآءُ بِزَعۡمِهِمۡ وَأَنۡعَٰمٌ حُرِّمَتۡ ظُهُورُهَا وَأَنۡعَٰمٞ لَّا يَذۡكُرُونَ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا ٱفۡتِرَآءً عَلَيۡهِۚ سَيَجۡزِيهِم بِمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 164
(138) कहते हैं ये जानवर और ये खेत महफ़ूज़ हैं, इन्हें सिर्फ़ वही लोग खा सकते हैं जिन्हें हम खिलाना चाहें, हलाँकि यह पाबन्दी उनकी ख़ुदसाख्ता है। फिर कुछ जानवर हैं जिनपर सवारी और बारबरदारी हराम कर दी गई है। और कुछ जानवर हैं जिनपर अल्लाह का नाम नहीं लेते, और ये सब कुछ उन्होंने अल्लाह पर इफ़तिरा किया है, अन-क़रीब अल्लाह उन्हें इन इफ़तिरापरदाज़ियों का बदला देगा।