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خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَصَوَّرَكُمۡ فَأَحۡسَنَ صُوَرَكُمۡۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ

64. अत-तग़ाबुन

(मदीना में उतरी, आयतें 18)

परिचय

नाम

इसी सूरा के आयत 9 के वाक्यांश 'ज़ालि क यौमुत-तगाबुन' अर्थात् "वह दिन होगा एक-दूसरे के मुक़ाबले में लोगों की हार-जीत (तग़ाबुन) का" से उद्धृत है । तात्पर्य यह कि वह सूरा जिसमें शब्द 'तग़ाबुन' आया है।

उतरने का समय

मुक़ातिल और कल्बी कहते हैं कि इसका कुछ अंश मक्की है और कुछ मदनी। मगर अधिकतर टीकाकार पूरी सूरा को मदनी ठहराते हैं। किन्तु वार्ता की विषय-वस्तु पर विचार करने पर अनुमान होता है कि सम्भवत: यह मदीना तय्यिबा के आरम्भिक कालखण्ड में अवतरित हुई होगी। यही कारण है कि इसमें कुछ रंग मक्की सूरतों का और कुछ मदनी सूरतों का पाया जाता है।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय ईमान और आज्ञापालन का आमंत्रण और सदाचार की शिक्षा है। वार्ता का क्रम यह है कि पहली चार आयतों में संबोधन सभी इंसानों से है। फिर आयत 5 से 10 तक उन लोगों को सम्बोधित किया गया है जो क़ुरआन के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करते और इसके बाद आयत 11 से अन्त तक की आयतों की वार्ता का रुख़ उन लोगों की ओर है जो इस आमंत्रण को स्वीकार करते हैं। सभी इंसानों को सम्बोधित करके कुछ थोड़े-से वाक्यों में उन्हें चार मौलिक सच्चाइयों से अवगत कराया गया है—

एक यह कि इस जगत् का स्रष्टा, मालिक और शासक एक ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके पूर्ण और दोषमुक्त होने की गवाही इस ब्रह्माण्ड की हर चीज़ दे रही है।

दूसरे यह कि यह ब्रह्माण्ड निरुद्देश्य और तत्त्वदर्शिता से रिक्त नहीं है, बल्कि इसके स्रष्टा ने सर्वथा सत्य और औचित्य के आधार पर इसकी रचना की है। यहाँ इस भ्रम में न रहो कि यह व्यर्थ तमाशा है जो निरर्थक शुरू हुआ और निर्रथक ही समाप्त हो जाएगा।

तीसरे यह कि तुम्हें जिस सुन्दरतम रूप के साथ ईश्वर ने पैदा किया है और फिर जिस प्रकार इंकार और ईमान का अधिकार तुमपर छोड़ दिया है, यह कोई फल-रहित और निरर्थक काम नहीं है। वास्तव में ईश्वर यह देख रहा है कि तुम अपनी स्वतंत्रता को किस तरह प्रयोग में लाते हो।

चौथे यह कि तुम दायित्व मुक्त और अनुत्तरदायी नहीं हो । अन्तत: तुम्हें अपने स्रष्टा की ओर पलटकर जाना है, जिसपर मन में छिपे हुए विचार तक प्रकट हैं।

इसके बाद वार्ता का रुख़ उन लोगों की ओर मुड़ता है जिन्होंने इनकार (अधर्म) की राह अपनाई है और उन्हें [विगत विनष्ट जातियों के इतिहास का ध्यान दिलाकर बताया जाता है कि उन] के विनष्ट होने के मूल कारण केवल दो थे, एक यह कि उसने (अल्लाह ने) जिन रसूलों को उनके मार्गदर्शन के लिए भेजा था, उनकी बात मानने से उन्होंने इनकार किया। दूसरे यह कि उन्होंने परलोक की धारणा को भी रद्द कर दिया और अपनी दंभपूर्ण भावना के अन्तर्गत यह समझ लिया कि जो कुछ है बस यही सांसारिक जीवन है। मानव-इतिहास के इन दो शिक्षाप्रद तथ्यों को बयान करके सत्य के न माननेवालों को आमंत्रित किया गया है कि वे होश में आएँ और यदि विगत जातियों के जैसा परिणाम नहीं देखना चाहते तो अल्लाह और उसके रसूल और मार्गदर्शन के उस प्रकाश पर ईमान ले आएँ जो अल्लाह ने क़ुरआन मजीद के रूप में अवतरित किया है। इसके साथ उनको सचेत किया जाता है कि अन्ततः वह दिन आनेवाला है जब समस्त अगले और पिछले एक जगह एकत्र किए जाएंँगे और तुममें से हर एक का ग़बन सबके सामने खुल जाएगा। फिर सदैव के लिए सारे इंसानों के भाग्य का निर्णय [उनके ईमान और कर्म के आधार पर कर दिया जाएगा] । इसके बाद ईमान की राह अपनानेवालों को सम्बोधित करके कुछ महत्त्वपूर्ण आदेश उन्हें दिए जाते हैं-

एक यह कि दुनिया में जो मुसीबत आती है, अल्लाह की अनुज्ञा से आती है। ऐसी स्थितियों में जो व्यक्ति ईमान पर जमा रहे, अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, अन्यथा घबराहट या झुंझलाहट में पड़कर जो आदमी ईमान की राह से हट जाए उसका दिल अल्लाह के मार्गदर्शन से वंचित हो जाता है।

दूसरे यह कि ईमानवाले व्यक्ति का काम केवल ईमान ले आना ही नहीं है, बल्कि ईमान लाने के बाद उसे व्यवहारतः अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) की आज्ञा का पालन करना चाहिए।

तीसरे यह कि ईमानवाले व्यक्ति का भरोसा अपनी शक्ति या संसार की किसी शक्ति पर नहीं, बल्कि केवल अल्लाह पर होना चाहिए।

चौथे यह कि ईमानवाले व्यक्ति के लिए उसका धन और उसके बाल-बच्चे एक बहुत बड़ी परीक्षा हैं, क्योंकि अधिकतर इन्हीं का प्रेम मनुष्य को ईमान और आज्ञापालन के मार्ग से हटा देता है। इसलिए ईमानवालों को [इनके मामले में बहुत] सतर्क रहना चाहिए।

पाँचवें यह कि हर मनुष्य पर उसकी अपनी सामर्थ्य ही तक दायित्व का बोझ डाला गया है। अल्लाह को यह अपेक्षित नहीं है कि मनुष्य अपनी सामर्थ्य से बढ़कर काम करे। अलबत्ता ईमानवाले व्यक्ति को जिस बात की कोशिश करनी चाहिए वह यह है कि अपनी हद तक ख़ुदा से डरते हुए जीवन व्यतीत करने में कोई कमी न होने दे।

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خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَصَوَّرَكُمۡ فَأَحۡسَنَ صُوَرَكُمۡۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 1
(3) उसने ज़मीन और आसमानों को बरहक़ पैदा किया है, और तुम्हारी सूरत बनाई और बड़ी उम्दा बनाई है, और उसी की तरफ़ आख़िरकार तुम्हें पलटना है।
يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَيَعۡلَمُ مَا تُسِرُّونَ وَمَا تُعۡلِنُونَۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 2
(4) ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का उसे इल्म है, जो कुछ तुम छिपाते हो और जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो2 सब उसको मालूम है, और वह दिलों का हाल तक जानता है।
2. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि ‘जो कुछ तुम छिपकर करते हो और जो कुछ अलानिया करते हो।’
أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَبَؤُاْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَبۡلُ فَذَاقُواْ وَبَالَ أَمۡرِهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 3
(5) क्या तुम्हें उन लोगों की कोई ख़बर नहीं पहुँची जिन्होंने इससे पहले कुफ़्र किया और फिर अपनी शामते-आमाल का मज़ा चख लिया और आगे उनके लिए एक दर्दनाक अज़ाब है?
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ وَأَوۡلَٰدِكُمۡ عَدُوّٗا لَّكُمۡ فَٱحۡذَرُوهُمۡۚ وَإِن تَعۡفُواْ وَتَصۡفَحُواْ وَتَغۡفِرُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 4
(14) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम्हारी बीबियों और तुम्हारी औलाद में से बाज़ तुम्हारे दुश्मन हैं, उनसे होशियार रहो। और अगर तुम अफ़्व व दरगुज़र से काम लो और माफ़ कर दो तो अल्लाह ग़फ़ूर व रहीम है।8
8. यानी दुनयवी रिश्ते के लिहाज़ से अगरचे ये लोग वे हैं जो इनसान को सबसे ज़्यादा अज़ीज़ होते हैं, लेकिन दीन के लिहाज़ से ये तुम्हारे ‘दुश्मन’ हैं। यह दुश्मनी ख़ाह इस हैसियत से हो कि वे तुम्हें नेकी से रोकते और बदी की तरफ़ माइल करते हों, या इस हैसियत से कि वे तुम्हें ईमान से रोकते और कुफ़्र की तरफ़ खींचते हों, या इस हैसियत से कि उनकी हमदर्दियाँ कुफ़्फ़ार के साथ हों, बहरहाल यह है ऐसी चीज़ कि तुम्हें इससे होशियार रहना चाहिए और उनकी मुहब्बत में गिरफ़्तार होकर अपनी आक़िबत बरबाद न करनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उन्हें दुश्मन समझकर उनसे सख़्त बरताव करने लगो, बल्कि मुद्दआ सिर्फ़ यह है कि उनकी इसलाह अगर न कर सको तो कम-अज़-कम अपने-आपको बिगड़ने से बचाए रखो।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُۥ كَانَت تَّأۡتِيهِمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالُوٓاْ أَبَشَرٞ يَهۡدُونَنَا فَكَفَرُواْ وَتَوَلَّواْۖ وَّٱسۡتَغۡنَى ٱللَّهُۚ وَٱللَّهُ غَنِيٌّ حَمِيدٞ ۝ 5
(6) इस अंजाम के मुस्तहिक़ वे इसलिए हुए कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली दलीलें और निशानियाँ लेकर आते रहे, मगर उन्होंने कहा, “क्या इनसान हमें हिदायत देंगे?” इस तरह उन्होंने मानने से इनकार कर दिया और मुँह फेर लिया, तब अल्लाह भी उनसे बेपरवा हो गया और अल्लाह तो है ही बेनियाज़ और अपनी ज़ात में आप महमूद।
زَعَمَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَن لَّن يُبۡعَثُواْۚ قُلۡ بَلَىٰ وَرَبِّي لَتُبۡعَثُنَّ ثُمَّ لَتُنَبَّؤُنَّ بِمَا عَمِلۡتُمۡۚ وَذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 6
(7) मुनकिरीन ने बड़े दावे से कहा है कि वे मरने के बाद हरगिज़ दोबारा न उठाए जाएँगे। उनसे कहो, “नहीं, मेरे रब की कसम! तुम ज़रूर उठाए जाओगे,3 फिर ज़रूर तुम्हें बताया जाएगा कि तुमने (दुनिया में) क्या कुछ किया है, और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान है।”
3. यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि एक मुनकिरे-आख़िरत के लिए आख़िर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि आप (सल्ल०) उसे आख़िरत के आने की ख़बर क़सम खाकर दें या क़सम खाए बग़ैर दें? वह जब इस चीज को नहीं मानता तो मह्ज़ इस बिना पर कैसे मान लेगा कि आप (सल्ल०) क़सम खाकर उससे यह बात कह रहे हैं? इसका यह जवाब है कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) के मुख़ातब वे लोग थे जो अपने ज़ाती इल्म और तजरिबे की बिना पर यह बात ख़ूब जानते थे कि आप (सल्ल०) ने कभी उम्र-भर झूठ नहीं बोला है, इसलिए चाहे ज़बान से वे आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ कैसे ही बुहतान गढ़ते रहे हों, अपने दिलों में वे यह तसव्वुर तक नहीं कर सकते थे कि ऐसा सच्चा इनसान कभी ख़ुदा की क़सम खाकर वह बात कह सकता है जिसके बरहक़ होने का उसे इल्म और यक़ीन न हो।
إِنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞۚ وَٱللَّهُ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 7
(15) तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद तो एक आज़माइश है, और अल्लाह ही है जिसके पास बड़ा अज्र है।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُمۡ وَٱسۡمَعُواْ وَأَطِيعُواْ وَأَنفِقُواْ خَيۡرٗا لِّأَنفُسِكُمۡۗ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 8
(16) लिहाज़ा जहाँ तक तुम्हारे बस में हो अल्लाह से डरते रहो, और सुनो और इताअत करो, और अपने माल ख़र्च करो, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। जो अपने दिल की तंगी से महफ़ूज़ रह गए बस वही फ़लाह पानेवाले हैं।
فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلنُّورِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلۡنَاۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 9
(8) पस ईमान लाओ अल्लाह पर, और उसके रसूल पर, और उस रौशनी पर जो हमने नाज़िल की है।4 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है
4. यहाँ सियाक़ व सबाक़ ख़ुद बता रहा है कि अल्लाह की नाज़िल-करदा रौशनी से मुराद क़ुरआन है। जिस तरह रौशनी ख़ुद नुमायाँ होती है और गिर्दो-पेश की उन तमाम चीज़ों को नुमायाँ कर देती है जो पहले तारीकी में छिपी हुई थीं, उसी तरह क़ुरआन एक ऐसा चिराग़ है जिसका बरहक़ होना बजाय ख़ुद रौशन है, और उसकी रौशनी में इनसान हर उस मसले को समझ सकता है जिसे समझने के लिए उसके अपने ज़राइए-इल्म व अक़्ल काफ़ी नहीं हैं।
إِن تُقۡرِضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا يُضَٰعِفۡهُ لَكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ شَكُورٌ حَلِيمٌ ۝ 10
(17) अगर तुम अल्लाह को क़र्ज़े-हसन दो तो वह तुम्हें कई गुना बढ़ाकर देगा और तुम्हारे क़ुसूरों से दरगुज़र फ़रमाएगा, अल्लाह बड़ा क़द्रदान और बुर्दबार है,
يَوۡمَ يَجۡمَعُكُمۡ لِيَوۡمِ ٱلۡجَمۡعِۖ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلتَّغَابُنِۗ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَيَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا يُكَفِّرۡ عَنۡهُ سَيِّـَٔاتِهِۦ وَيُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 11
(9) (इसका पता तुम्हें उस रोज़ चल जाएगा) जब इजतिमा के दिन वह तुम सबको इकठ्ठा करेगा।5 वह दिन होगा एक-दूसरे के मुक़ाबले में लोगों की हार-जीत का।6 जो अल्लाह पर ईमान लाया है और नेक अमल करता है। अल्लाह उसके गुनाह झाड़ देगा और उसे ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। ये लोग हमेशा-हमेशा उनमें रहेंगे। यही बड़ी कामयाबी है।
5. इजतिमा के दिन से मुराद है क़ियामत, और सबको इकट्ठा करने से मुराद उन इनसानों को बयक-वक़्त ज़िन्दा करके जमा करना जो इबतिदाए-आफ़रीनिश से क़ियामत तक दुनिया में पैदा हुए हों।
6. यानी अस्ल हार-जीत क़ियामत के रोज़ होगी। वहाँ जाकर पता चलेगा कि अस्ल में ख़सारा किसने उठाया और कौन नफ़ा कमा ले गया। अस्ल में धोखा किसने खाया और कौन होशियार निकला। अस्ल में किसने अपना तमाम सरमाया-ए-हयात एक ग़लत कारोबार में खपाकर अपना दीवालिया निकाल दिया और किसने अपनी क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों और मसाई और अमवाल और औक़ात को नफ़े के सौदे पर लगाकर वे सारे फ़ायदे लूट लिए जो पहले शख़्स को भी हासिल हो सकते थे अगर वह दुनिया की हक़ीक़त समझने में धोखा न खाता।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 12
(18) हाज़िर और ग़ायब हर चीज़ को जानता है, ज़बरदस्त और दाना है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 13
(10) और जिन लोगों ने कुफ़्र किया है और हमारी आयात को झुठलाया है वे दोज़ख़ के बाशिन्दे होंगे जिसमें वे हमेशा रहेंगे और वह बद-तरीन ठिकाना है।
مَآ أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ يَهۡدِ قَلۡبَهُۥۚ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 14
(11) कोई मुसीबत कभी नहीं आती मगर अल्लाह के इज़्न ही से आती है। जो शख़्स अल्लाह पर ईमान रखता हो अल्लाह उसके दिल को हिदायत बख़्शता है, अल्लाह को हर चीज़ का इल्म है।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَۚ فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَإِنَّمَا عَلَىٰ رَسُولِنَا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 15
(12) अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो। लेकिन अगर तुम इताअत से मुँह मोड़ते हो तो हमारे रसूल पर साफ़-साफ़ हक़ पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 16
(13) अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं, लिहाज़ा ईमान लानेवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।7
7. यानी ख़ुदाई के सारे इख़्तियारात तन्हा अल्लाह तआला के हाथ में हैं। कोई दूसरा सिरे से यह इख़्तियार रखता ही नहीं है कि तुम्हारी अच्छी या बुरी तक़दीर बना सके। अच्छा वक़्त आ सकता है तो उसी के लाए आ सकता है, और बुरा वक़्त टल सकता है तो उसी के टाले टल सकता है। लिहाज़ा जो शख़्स सच्चे दिल से अल्लाह को ख़ुदा-ए-वाहिद मानता हो उसके लिए इसके सिवा सिरे से कोई रास्ता ही नहीं है कि वह अल्लाह पर भरोसा रखे और दुनिया में एक मोमिन की हैसियत से अपना फ़र्ज़ इस यक़ीन के साथ अंजाम देता चला जाए कि ख़ैर बहरहाल उसी राह में है जिसकी तरफ़ अल्लाह ने रहनुमाई फ़रमाई है।
سُورَةُ التَّغَابُنِ
64. अत-तग़ाबुन
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ لَهُ ٱلۡمُلۡكُ وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ
(1) अल्लाह की तसबीह कर रही है हर वह हर चीज़ जो आसमानों में है और हर वह चीज़ जो ज़मीन में है। उसी की बादशाही है और उसी के लिए तारीफ़ है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है।1
1. यानी वह क़ादिरे-मुतलक़ है। जो कुछ करना चाहे कर सकता है। कोई ताक़त उसकी क़ुदरत को महदूद करनेवाली नहीं है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ فَمِنكُمۡ كَافِرٞ وَمِنكُم مُّؤۡمِنٞۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 17
(2) वही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुममें से कोई काफ़िर है और कोई मोमिन, और अल्लाह वह सब कुछ देख रहा है जो तुम करते हो।