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سُورَةُ الجِنِّ

72. अल-जिन्न

(मक्का में उतरी, आयतें 28)

परिचय

नाम

'अल-जिन्न' सूरा का नाम भी है और विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका शीर्षक भी, क्योंकि इसमें जिन्नों के द्वारा क़ुरआन सुनकर जाने और अपनी जाति में इस्लाम के प्रचार करने की घटना का सविस्तार वर्णन किया गया है।

उतरने का समय

बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रजि०) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपने कुछ सहाबा (साथियों) के साथ उकाज़ के बाज़ार जा रहे थे। रास्ते में नख़ला के स्थान पर आप (सल्ल०) ने फ़ज्र (प्रातः) की नमाज़ पढ़ाई। उस समय जिन्नों का एक गरोह उधर से गुज़र रहा था। क़ुरआन-पाठ की आवाज़ सुनकर वह ठहर गया और ध्यानपूर्वक क़ुरआन सुनता रहा। इसी घटना का उल्लेख इस सूरा में किया गया है। अधिकतर टीकाकारों ने इस उल्लेख के आधार पर यह समझा है कि यह नबी (सल्ल०) के ताइफ़ की यात्रा की प्रसिद्ध घटना है। किन्तु यह अनुमान कई कारणों से सही नहीं है। ताइफ़ की उस यात्रा में जिन्नों के द्वारा क़ुरआन सुनने की जो घटना घटी थी उसका क़िस्सा सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत 29 से 32 में बयान किया गया है। उन आयतों पर एक दृष्टि डालने से ही मालूम हो जाता है कि उस अवसर पर जो जिन्न क़ुरआन मजीद सुनकर ईमान लाए थे, वे पहले से ही हज़रत मूसा (अलैहि०) और पूर्व की आसमानी किताबों पर ईमान रखते थे। इसके विपरीत इस सूरा की आयत 2-7 से प्रत्यक्षतः स्पष्ट होता है कि इस अवसर पर क़ुरआन सुननेवाले जिन्न बहुदेववादियों और परलोक एवं ईशदूतत्व (पैग़म्बरी) का इनकार करनेवालों में से थे। इसलिए सही बात यह है कि सूरा-46 (अहक़ाफ़) और सूरा-72 (जिन्न) में एक ही घटना का उल्लेख नहीं किया गया है, बल्कि ये दो अलग-अलग घटनाएँ हैं। सूरा-46 (अहक़ाफ़) में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह सन् 10 नबवी की ताइफ़ की यात्रा में घटित हुई थी और इस सूरा की आयतों 8-10 पर विचार करने से महसूस होता है कि यह [दूसरी घटना] नुबूवत के आरम्भिक कालखण्ड की ही हो सकती है।

जिन्न की असलियत

जहाँ तक क़ुरआन का [सम्बन्ध है, उस] में एक जगह नहीं, अधिकतर स्थानों पर जिन्न और मनुष्य का उल्लेख इस हैसियत से किया गया है कि ये दो विभिन्न प्रकार के सृष्ट जीव (मख़लूक़) हैं। उदाहरणार्थ देखिए, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 38; सूरा-11 हूद, आयत 119; सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा, आयत 25 और 29; सूरा-46 अल-अहक़ाफ़, आयत 17; सूरा-51 अज़-ज़ारियात, आयत 56: सूरा-114 अन-नास, आयत 6 और पूरी सूरा-55 रहमान; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 12 और सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 26-27 में साफ़-साफ़ बताया गया है कि की इंसान की सृष्टि जिस तत्त्व से हुई है वह मिट्टी है और जिन्नों की सृष्टि जिस तत्त्व से हुई है वह है अग्नि। सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 27 में स्पष्ट किया गया है कि जिन्न मनुष्य से पहले पैदा किए गए थे। सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 27 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिन्न मनुष्यों को देखते हैं, किन्तु मनुष्य उनको नहीं देखते। सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 16-17; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 6-10 और सूरा-67 अल-मुल्क, आयत 5 में बताया गया है कि जिन्न यद्यपि उपरिलोक की ओर उड्डयन (परवाज़) कर सकते हैं, किन्तु एक सीमा से आगे नहीं जा सकते। सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 50 से मालूम होता है कि धरती की ख़िलाफ़त (शासनाधिकार) अल्लाह ने मनुष्य को प्रदान की है और मनुष्य जिन्नों से श्रेष्ठ प्राणी है। क़ुरआन यह भी बताता है कि जिन्न मनुष्य की तरह स्वतंत्र अधिकार प्राप्त सृष्ट जीव (मख़लूक़) है और जिन्नों को आज्ञापालन और अवज्ञा तथा कुफ़्र (ईश्वर का इनकार) और ईमान का वैसा ही अधिकार दिया गया है, जैसा मनुष्य को दिया गया है। [क़ुरआन मजीद में इसी तरह की और भी बहुत-सी बातें जिन्नों के विषय में बयान की गई हैं। उनके इन सभी बयानों] से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि जिन्न का अपना एक स्थायी बाह्य अस्तित्व होता है और वे मनुष्य से अलग एक दूसरी ही जाति के अदृश्य सृष्ट प्राणी हैं।

विषय और वार्ता

इस सूरा में पहली आयत से लेकर आयत 15 तक यह बताया गया है कि जिन्न के गरोह पर क़ुरआन मजीद सुनकर क्या प्रभाव पड़ा और फिर वापस जाकर अपनी जाति के दूसरे जिन्नों से क्या-क्या बातें कहीं। इस सिलसिले में अल्लाह ने उनकी सारी बातचीत उद्धृत नहीं की है, बल्कि केवल उन ख़ास-ख़ास बातों को उद्धृत किया है जो उल्लेखनीय थीं। इसके बाद आयत 16 से 18 तक लोगों को हितोपदेश दिया गया है कि वे बहुदेववाद को त्याग दें और सीधे मार्ग पर दृढ़ता के साथ चलें तो उनपर नेमतों की वर्षा होगी, अन्यथा अल्लाह की भेजी हुई नसीहत से मुँह मोड़ने का परिणाम यह होगा कि उन्हें कठोर यातना का सामना करना पड़ेगा। फिर आयत 19 से 23 तक मक्का के इस्लाम-विरोधियों की इस बात पर निन्दा की गई है कि जब अल्लाह का रसूल अल्लाह की ओर आमंत्रित करने के लिए आवाज़ बुलन्द करता है तो वे उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर आयत 24 से 25 में इस्लाम-विरोधियों को चेतावनी दी गई है कि आज वे रसूल को असहाय देखकर उसे दबा लेने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु एक समय आएगा जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि वास्तव में असहाय कौन है।

अन्त में लोगों को बताया गया है कि परोक्ष का ज्ञाता केवल अल्लाह है। रसूल (सल्ल०) को केवल वह ज्ञान प्राप्त होता है जो अल्लाह उसे देना चाहता है।

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سُورَةُ الجِنِّ
72. अल-जिन्न
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قُلۡ أُوحِيَ إِلَيَّ أَنَّهُ ٱسۡتَمَعَ نَفَرٞ مِّنَ ٱلۡجِنِّ فَقَالُوٓاْ إِنَّا سَمِعۡنَا قُرۡءَانًا عَجَبٗا
(1) ऐ नबी! कहो, “मेरी तरफ़ वह्य भेजी गई है कि जिन्नों के एक गरोह ने ग़ौर से सुना1 फिर (जाकर अपनी क़ौम के लोगों से) कहा, “हमने एक बड़ा अजीब क़ुरआन सुना है
1. इससे मालूम होता है कि जिन्न उस वक़्त रसूलुल्लाह (सल्ल०) को नज़र नहीं आ रहे थे और आप (सल्ल०) को यह मालूम न था कि वे क़ुरआन सुन रहे हैं, बल्कि बाद में वह्य के ज़रिए से अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को इस वाक़िए की ख़बर दी। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) भी इस क़िस्से को बयान करते हुए सराहत फ़रमाते हैं कि “रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने जिन्नों के सामने क़ुरआन नहीं पढ़ा था, न आप (सल्ल०) ने उनको देखा था।” (मुस्लिम, तिरमिजी, मुसनद अहमद, इब्ने-जरीर)
يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلرُّشۡدِ فَـَٔامَنَّا بِهِۦۖ وَلَن نُّشۡرِكَ بِرَبِّنَآ أَحَدٗا ۝ 1
(2) जो राहे-रास्त की तरफ़ रहनुमाई करता है इसलिए हम उसपर ईमान ले आए हैं और अब हम हरगिज़ अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे।”
وَأَنَّهُۥ تَعَٰلَىٰ جَدُّ رَبِّنَا مَا ٱتَّخَذَ صَٰحِبَةٗ وَلَا وَلَدٗا ۝ 2
(3) और यह कि “हमारे रब की शान बहुत आला व अरफ़ा है, उसने किसी को बीवी या बेटा नहीं बनाया है।”
وَأَنَّهُۥ كَانَ يَقُولُ سَفِيهُنَا عَلَى ٱللَّهِ شَطَطٗا ۝ 3
(4) और यह कि “हमारे नादान लोग2 अल्लाह के बारे में बहुत ख़िलाफ़े-हक़ बातें कहते रहे हैं।”
2. अस्ल में लफ़्ज़ ‘सफ़ीहुना’ इस्तेमाल किया गया है जो एक फ़र्द के लिए भी बोला जा सकता है और एक गरोह के लिए भी। अगर इसे एक नादान फ़र्द के मानी में लिया जाए तो मुराद इबलीस होगा। और अगर एक गरोह के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि जिन्नों में बहुत-से अहमक़ और बेअक़्ल लोग ऐसी बातें कहते थे।
وَأَنَّا ظَنَنَّآ أَن لَّن تَقُولَ ٱلۡإِنسُ وَٱلۡجِنُّ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا ۝ 4
(5) और यह कि “हमने समझा था कि इनसान और जिन्न ख़ुदा के बारे में झूठ नहीं बोल सकते।”
وَأَنَّهُۥ كَانَ رِجَالٞ مِّنَ ٱلۡإِنسِ يَعُوذُونَ بِرِجَالٖ مِّنَ ٱلۡجِنِّ فَزَادُوهُمۡ رَهَقٗا ۝ 5
(6) और यह कि “इनसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से लोगों की पनाह माँगा करते थे, इस तरह उन्होंने जिन्नों का ग़ुरूर और ज़्यादा बढ़ा दिया।”
وَأَنَّهُمۡ ظَنُّواْ كَمَا ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَبۡعَثَ ٱللَّهُ أَحَدٗا ۝ 6
(7) और यह कि “इनसानों ने भी वही गुमान किया जैसा तुम्हारा गुमान था कि अल्लाह किसी को रसूल बनाकर न भेजेगा।”
وَأَنَّا لَمَسۡنَا ٱلسَّمَآءَ فَوَجَدۡنَٰهَا مُلِئَتۡ حَرَسٗا شَدِيدٗا وَشُهُبٗا ۝ 7
(8) और यह कि “हमने आसमान को टटोला तो देखा कि वह पहरेदारों से पटा पड़ा है और शिहाबों की बारिश हो रही है।”
وَأَنَّا كُنَّا نَقۡعُدُ مِنۡهَا مَقَٰعِدَ لِلسَّمۡعِۖ فَمَن يَسۡتَمِعِ ٱلۡأٓنَ يَجِدۡ لَهُۥ شِهَابٗا رَّصَدٗا ۝ 8
(9) और यह कि “पहले हम सुन-गुन लेने के लिए आसमान में बैठने की जगह पा लेते थे, मगर अब जो चोरी-छिपे सुनने की कोशिश करता है वह अपने लिए घात में एक शिहाबे-साक़िब लगा हुआ पाता है।”
وَأَنَّا لَا نَدۡرِيٓ أَشَرٌّ أُرِيدَ بِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ أَرَادَ بِهِمۡ رَبُّهُمۡ رَشَدٗا ۝ 9
(10) और यह कि “हमारी समझ में न आता था कि आया ज़मीनवालों के साथ कोई बुरा मामला करने का इरादा किया गया या उनका रब उन्हें राहे-रास्त दिखाना चाहता है।”3
3. इससे मालूम हुआ कि ये जिन्न आसमान की यह कैफ़ियत देखकर इस तलाश में निकले थे कि आख़िर ज़मीन पर ऐसा क्या मामला पेश आया है या आनेवाला है, जिसकी ख़बरों को महफ़ूज़ रखने के लिए इस क़दर सख़्त इन्तिज़ामात किए गए हैं कि अब हम आलमे-बाला में सुन-गुन लेने का कोई मौक़ा नहीं पाते और जिधर भी जाते हैं मार भगाए जाते हैं।
وَأَنَّا ظَنَنَّآ أَن لَّن نُّعۡجِزَ ٱللَّهَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَن نُّعۡجِزَهُۥ هَرَبٗا ۝ 10
(12) और यह कि “हम समझते थे कि न ज़मीन में हम अल्लाह को आजिज़ कर सकते हैं और न भागकर उसे हरा सकते हैं।”4
4. मतलब यह है कि हमारे इसी ख़याल ने हमें नजात की राह दिखा दी। हम चूँकि अल्लाह से बेख़ौफ़ न थे और हमें यक़ीन था कि अगर हमने उसकी नाफ़रमानी की तो उसकी गिरिफ़्त से किसी तरह बच न सकेंगे, इसलिए जब वह कलाम हमने सुना जो अल्लाह तआला की तरफ़ से राहे-रास्त बताने आया था तो हम यह जुरअत न कर सके कि हक़ मालूम हो जाने के बाद भी उन्हीं अक़ाइद पर जमे रहते जो हमारे नादान लोगों ने हममें फैला रखे थे।
وَأَنَّا مِنَّا ٱلصَّٰلِحُونَ وَمِنَّا دُونَ ذَٰلِكَۖ كُنَّا طَرَآئِقَ قِدَدٗا ۝ 11
(11) और यह कि “हममें से कुछ लोग सॉलेह हैं और कुछ इससे फ़िरोतर हैं, हम मुख़्तलिफ़ तरीक़ों में बँटे हुए हैं।”
وَأَنَّا لَمَّا سَمِعۡنَا ٱلۡهُدَىٰٓ ءَامَنَّا بِهِۦۖ فَمَن يُؤۡمِنۢ بِرَبِّهِۦ فَلَا يَخَافُ بَخۡسٗا وَلَا رَهَقٗا ۝ 12
(13) और यह कि “हमने जब हिदायत की तालीम सुनी तो हम उसपर ईमान ले आए। अब जो कोई भी अपने रब पर ईमान ले आएगा उसे किसी हक़तल्फी़ या ज़ुल्म का ख़ौफ़ न होगा।”
وَأَنَّا مِنَّا ٱلۡمُسۡلِمُونَ وَمِنَّا ٱلۡقَٰسِطُونَۖ فَمَنۡ أَسۡلَمَ فَأُوْلَٰٓئِكَ تَحَرَّوۡاْ رَشَدٗا ۝ 13
(14) और यह कि “हममें से कुछ मुस्लिम (अल्लाह के इताअतगुज़ार) हैं और कुछ हक़ से मुनहरिफ़। तो जिन्होंने इस्लाम (इताअत का रास्ता) इख़्तियार कर लिया उन्होंने नजात की राह ढूँढ़ ली,
وَأَمَّا ٱلۡقَٰسِطُونَ فَكَانُواْ لِجَهَنَّمَ حَطَبٗا ۝ 14
(15) और जो हक़ से मुनहरिफ़ हैं वे जहन्नम का ईंधन बननेवाले हैं।5
5. सवाल किया जा सकता है कि क़ुरआन की रू से जिन्न तो ख़ुद आतिशी मख़लूक़ हैं, फिर जहन्नम की आग से उनको क्या तकलीफ़ हो सकती है? इसका जवाब यह है कि क़ुरआन की रू से तो आदमी भी मिट्टी से बना है, फिर अगर उसे मिट्टी का ढेला खींच मारा जाए तो उसे चोट क्यों लगती है?
وَأَلَّوِ ٱسۡتَقَٰمُواْ عَلَى ٱلطَّرِيقَةِ لَأَسۡقَيۡنَٰهُم مَّآءً غَدَقٗا ۝ 15
(16) और (ऐ नबी! कहो, मुझपर यह वह्य भी की गई है कि) लोग अगर राहे-रास्त पर साबित क़दमी से चलते तो हम उन्हें ख़ूब सैराब करते
لِّنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَمَن يُعۡرِضۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِۦ يَسۡلُكۡهُ عَذَابٗا صَعَدٗا ۝ 16
(17) ताकि इस नेमत से उनकी आज़माइश करें। और जो अपने रब के ज़िक्र से मुँह मोड़ेगा उसका रब उसे सख़्त अज़ाब में मुब्तला कर देगा।
وَأَنَّ ٱلۡمَسَٰجِدَ لِلَّهِ فَلَا تَدۡعُواْ مَعَ ٱللَّهِ أَحَدٗا ۝ 17
(18) और यह कि मसजिदें अल्लाह के लिए हैं, अतः उनमें अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो।6
6. यानी अल्लाह के साथ किसी और की इबादत न करो, किसी और से दुआ न माँगो, किसी और को मदद के लिए न पुकारो।
وَأَنَّهُۥ لَمَّا قَامَ عَبۡدُ ٱللَّهِ يَدۡعُوهُ كَادُواْ يَكُونُونَ عَلَيۡهِ لِبَدٗا ۝ 18
(19) और यह कि जब अल्लाह का बन्दा उसको पुकारने के लिए खड़ा हुआ तो लोग उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो गए।
قُلۡ إِنَّمَآ أَدۡعُواْ رَبِّي وَلَآ أُشۡرِكُ بِهِۦٓ أَحَدٗا ۝ 19
(20) (ऐ नबी!) कहो कि मैं तो अपने रब को पुकारता हूँ और उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता।”
قُلۡ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا رَشَدٗا ۝ 20
(21) कहो, “मैं तो तुम लोगों के लिए न किसी नुक़सान का इख़्तियार रखता हूँ न किसी भलाई का।”
قُلۡ إِنِّي لَن يُجِيرَنِي مِنَ ٱللَّهِ أَحَدٞ وَلَنۡ أَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدًا ۝ 21
(22) कहो, “मुझे अल्लाह की गिरिफ़्त से कोई बचा नहीं सकता और न मैं उसके दामन के सिवा कोई जाए-पनाह पा सकता हूँ।
إِلَّا بَلَٰغٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِسَٰلَٰتِهِۦۚ وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ لَهُۥ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًا ۝ 22
(23) मेरा काम इसके सिवा कुछ भी नहीं है कि अल्लाह की बात और उसके पैग़ामात पहुँचा दूँ। अब जो भी अल्लाह और उसके रसूल की बात न मानेगा उसके लिए जहन्नम की आग है और ऐसे लोग उसमें हमेशा रहेंगे।”
حَتَّىٰٓ إِذَا رَأَوۡاْ مَا يُوعَدُونَ فَسَيَعۡلَمُونَ مَنۡ أَضۡعَفُ نَاصِرٗا وَأَقَلُّ عَدَدٗا ۝ 23
(24) (ये लोग अपनी इस रविश से बाज़ न आएँगे) यहाँ तक कि जब उस चीज़ को देख लेंगे जिसका इनसे वादा किया जा रहा है तो इन्हें मालूम हो जाएगा कि किसके मददगार कमज़ोर हैं और किसका जत्था तादाद में कम है।7
7. उस ज़माने में कुरैश के जो लोग रसूलुल्लाह (सल्ल०) की दावते-इलल्लाह सुनते ही आप (सल्ल०) पर टूट पड़ते थे वे इस ज़अ्म में मुब्तला थे कि उनका जत्था बड़ा ज़बरदस्त है, और रसूलुल्लाह (सल्ल०) के साथ चन्द मुट्ठी-भर आदमी हैं। इसलिए वे ब-आसानी आप (सल्ल०) को दबा लेंगे।
قُلۡ إِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٞ مَّا تُوعَدُونَ أَمۡ يَجۡعَلُ لَهُۥ رَبِّيٓ أَمَدًا ۝ 24
(25) कहो, “मैं नहीं जनता कि जिस चीज़ का वादा तुमसे किया जा रहा है। वह क़रीब है या मेरा रब उसके लिए कोई लम्बी मुद्दत मुक़र्रर फ़रमाता है।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ فَلَا يُظۡهِرُ عَلَىٰ غَيۡبِهِۦٓ أَحَدًا ۝ 25
(26) वह आलिमुल-ग़ैब है, अपने ग़ैब पर किसी को मुत्तला नहीं करता,
إِلَّا مَنِ ٱرۡتَضَىٰ مِن رَّسُولٖ فَإِنَّهُۥ يَسۡلُكُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦ رَصَدٗا ۝ 26
(27) सिवाय उस रसूल के जिसे उसने (ग़ैब का इल्म देने के लिए) पसन्द कर लिया हो,8 तो उसके आगे और पीछे वह मुहाफ़िज़ लगा देता है9
8. यानी रसूल बजाय ख़ुद आलिमुल-ग़ैब नहीं होता, बल्कि अल्लाह तआला जब उसको रिसालत का फ़रीज़ा अंजाम देने के लिए मुन्तख़ब फ़रमाता है तो ग़ैब के हकाइक़ में से जिन चीज़ों का इल्म वह चाहता है उसे अता फ़रमा देता है।
9. 'मुहाफ़िज़' से मुराद फ़रिश्ते हैं। मतलब यह है कि जब अल्लाह तआला वह्य के ज़रिए से ग़ैब के हक़ाइक़ का इल्म रसूल के पास भेजता है तो उसकी निगहबानी करने के लिए हर तरफ़ फ़रिश्ते मुक़र्रर कर देता है ताकि वह इल्म निहायत महफ़ूज़ तरीक़े से रसूल तक पहुँच जाए और उसमें किसी क़िस्म की आमेज़िश न होने पाए।
لِّيَعۡلَمَ أَن قَدۡ أَبۡلَغُواْ رِسَٰلَٰتِ رَبِّهِمۡ وَأَحَاطَ بِمَا لَدَيۡهِمۡ وَأَحۡصَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ عَدَدَۢا ۝ 27
(28) ताकि वह जान ले कि उन्होंने अपने रब के पैग़ामात पहुँचा दिए,10 और वह उनके पूरे माहौल का इहाता किए हुए है और एक-एक चीज़ को उसने गिन रखा है''।11
10. इससे मालूम हुआ कि रसूल को वह इल्मे-ग़ैब दिया जाता है जो फ़रीज़ा-ए-रिसालत की अंजामदेही के लिए उसको देना ज़रूरी होता है, और फ़रिश्ते इस बात की भी निगहबानी करते है कि रसूल तक यह इल्म सही सूरत में पहुँच जाए, और इस बात की भी कि रसूल अपने रब के पैग़ामात उसके बन्दों तक ठीक-ठीक पहुँचा दे।
11. यानी रसूल पर भी और फ़रिश्तों पर भी अल्लाह तआला की क़ुदरत इस तरह मुहीत है कि अगर बाल-बराबर भी वे उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जुंबिश करें तो फ़ौरन गिरिफ़्त में आ जाएँ। और जो पैग़ामात अल्लाह भेजता है उनका हर्फ़-हर्फ़ गिना हुआ है, रसूलों और फ़रिश्तों की यह मजाल नहीं है कि उनमें एक हर्फ़ की कमी-बेशी भी कर सकें।