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سُورَةُ القِيَامَةِ

75. अल-क़ियामह

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-क़ियामह' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है और यह केवल नाम ही नहीं है, बल्कि विषय-वस्तु की दृष्टि से इस सूरा का शीर्षक भी है, क्योंकि इसमें क़ियामत ही पर वार्ता की गई है।

उतरने का समय

इसके विषय में एक अन्दरूनी गवाही ऐसी मौजूद है जिससे मालूम होता है कि यह बिल्कुल आरंभिक समय की उतरी सूरतों में से है। आयत 15 के बाद अचानक वार्ता-क्रम तोड़कर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) [को वह्य ग्रहण करने के बारे में कुछ आदेश दिए गए हैं। आयत 16 से लेकर आयत 19 तक का] यह संविष्ट वाक्य अपने संदर्भ और प्रसंग की दृष्टि से भी और रिवायतों के अनुसार भी इस कारण वार्ता के दौरान आया है कि जिस समय हज़रत जिबरील (अलैहि०) यह सूरा नबी (सल्ल०) को सुना रहे थे, उस समय आप इस आशंका से कि कहीं बाद में भूल न जाएँ, उसके शब्द अपनी मुबारक ज़बान से दोहराते जा रहे थे। इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय की है जब प्यारे नबी (सल्ल०) को वह्य के उतरने का नया-नया अनुभव हो रहा था और अभी आप (सल्ल०) को वह्य ग्रहण करने की आदत अच्छी तरह नहीं पड़ी थी। क़ुरआन मजीद में इसके दो उदाहरण और भी मिलते हैं। एक सूरा-20 ता-हा (आयत 114) में, दूसरा सूरा-87 अल-आला (आयत 6) में। बाद में जब नबी (सल्ल०) को वह्य ग्रहण करने का अच्छी तरह अभ्यास हो गया तो इस तरह के आदेश देने की कोई आवश्यकता बाक़ी नहीं रही। इसी लिए क़ुरआन में इन तीन जगहों के सिवा इसका कोई और उदाहरण नहीं मिलता।

विषय और वार्ता

यहाँ से क़ुरआन के अन्त तक जो सूरतें पाई जाती हैं, उनमें से अधिकतर अपनी विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से उस समय की उतरी हुई मालूम होती हैं जब सूरा-74 अल-मुद्दस्सिर की शुरू की आयतों के बाद क़ुरआन के उतरने का सिलसिला बारिश की तरह आरंभ हो गया था। इस सूरा में आख़िरत के इंकारियों को सम्बोधित करके उनके एक-एक सन्देह और एक-एक आपत्ति का उत्तर दिया गया है। बड़ी मज़बूत दलीलों के साथ क़ियामत और आख़िरत की संभावना, उसके घटित होने और उसके अनिवार्यतः घटित होने का प्रमाण दिया गया है और यह भी साफ़-साफ़ बता दिया गया है कि जो लोग भी आखिरत का इंकार करते हैं, उनके इंकार का मूल कारण यह नहीं है कि उनकी बुद्धि उसे असंभव समझती है, बल्कि उसका मूल प्रेरक यह है कि उनकी मनोकामनाएँ उसे मानना नहीं चाहतीं। इसके साथ लोगों को सचेत कर दिया गया है कि जिस वक़्त के आने का तुम इंकार कर रहे हो, वह आकर रहेगा, तुम्हारा सब किया-धरा तुम्हारे सामने लाकर रख दिया जाएगा और वास्तव में तो अपना कर्मपत्र देखने से भी पहले तुममें से हर आदमी को स्वयं मालूम होगा कि वह दुनिया में क्या करके आया है।

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سُورَةُ القِيَامَةِ
75. अल-क़ियामा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
لَآ أُقۡسِمُ بِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ
(1) नहीं,1 मैं क़सम खाता हूँ क़ियामत के दिन की!2
1. कलाम की इबतिदा नहीं से करना ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात पर दलालत करता है कि पहले से कोई बात चल रही थी जिसकी तरीदद में यह सूरा नाज़िल हुई है। पस यहाँ 'नहीं' कहने का मतलब यह है कि जो कुछ तुम समझ रहे हो वह सहीह नहीं है, मैं क़सम खाकर कहता हूँ कि अस्ल बात यह है।
2. क़ियामत के आने पर ख़ुद क़ियामत की क़सम इसलिए खाई गई है कि उसका आना यक़ीनी है। पूरा निज़ामे-आलम गवाही दे रहा है कि यह निज़ाम न अज़ली है न अबदी। एक वक़्त अदम से वुजूद में आया है और एक वक़्त ज़रूर ख़त्म होकर रहेगा।
وَلَآ أُقۡسِمُ بِٱلنَّفۡسِ ٱللَّوَّامَةِ ۝ 1
(2) और नहीं, मैं क़सम खाता हूँ मलामत करनेवाले नफ़्स की!3
3. यानी ज़मीर की, जो इनसान को बुराई पर मलामत करता है और जिसका इनसान में मौजूद होना यह शहादन देता है कि इनसान अपने आमाल के लिए जवाबदेह है।
أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَلَّن نَّجۡمَعَ عِظَامَهُۥ ۝ 2
(3) क्या इनसान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को जमा न कर सकेंगे?
فَإِذَا قَرَأۡنَٰهُ فَٱتَّبِعۡ قُرۡءَانَهُۥ ۝ 3
(18) लिहाज़ा जब हम इसे पढ़ रहे हों उस वक़्त तुम इसकी किरअत को ग़ौर से सुनते रहो,
بَلَىٰ قَٰدِرِينَ عَلَىٰٓ أَن نُّسَوِّيَ بَنَانَهُۥ ۝ 4
(4) क्यों नहीं? हम तो उसकी उंगलियों की पोर-पोर तक ठीक बना देने पर क़ादिर हैं।
ثُمَّ إِنَّ عَلَيۡنَا بَيَانَهُۥ ۝ 5
(19) फिर इसका मतलब समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है।
كَلَّا بَلۡ تُحِبُّونَ ٱلۡعَاجِلَةَ ۝ 6
(20) — हरगिज़ नहीं,7 अस्ल बात यह है कि तुम लोग जल्दी हासिल होनेवाली चीज़ (यानी दुनिया) से मुहब्बत रखते हो
7. यहाँ से सिलसिला-ए-कलाम फिर उसी मज़मून के साथ जुड़ जाता है जो बीच के जुमला-ए-मुअ्तरिज़ा से पहले चला आ रहा था। 'हरगिज़ नहीं' का मतलब यह है कि तुम लोगों के इनकारे-आख़िरत की अस्ल वजह यह नहीं है कि तुम ख़ालिक़े-कायनात को क़ियामत बरपा करने और मौत के बाद दोबारा ज़िन्दा कर देने से आजिज़ समझते हो, बल्कि अस्ल वजह यह है।
بَلۡ يُرِيدُ ٱلۡإِنسَٰنُ لِيَفۡجُرَ أَمَامَهُۥ ۝ 7
(5) मगर इनसान चाहता यह है कि आगे भी बदआमालियाँ करता रहे।4
4. यानी क़ियामत के इनकार की अस्ल वजह यह है न कि कोई ऐसी अक़्ली और इल्मी दलील जिसकी बिना पर आदमी यह कह सकता हो कि क़ियामत हरगिज़ बरपा न होगी या उसका बरपा होना ग़ैर-मुमकिन है।
وَتَذَرُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 8
(21) और आख़िरत को छोड़ देते हो।
يَسۡـَٔلُ أَيَّانَ يَوۡمُ ٱلۡقِيَٰمَةِ ۝ 9
(6) पूछता है, “आख़िर कब आना है वह क़ियामत का दिन?”
وُجُوهٞ يَوۡمَئِذٖ نَّاضِرَةٌ ۝ 10
(22) उस रोज़ कुछ चेहरे तरो-ताज़ा होंगे,
فَإِذَا بَرِقَ ٱلۡبَصَرُ ۝ 11
(7) फिर जब दीदे पथरा जाएँगे
إِلَىٰ رَبِّهَا نَاظِرَةٞ ۝ 12
(23) अपने रब की तरफ़ देख रहे होंगे।
وَخَسَفَ ٱلۡقَمَرُ ۝ 13
(8) और चाँद बेनूर हो जाएगा
وَوُجُوهٞ يَوۡمَئِذِۭ بَاسِرَةٞ ۝ 14
(24) और कुछ चेहरे उदास होंगे
وَجُمِعَ ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ ۝ 15
(9) और चाँद और सूरज मिलाकर एक कर दिए जाएँगे,
تَظُنُّ أَن يُفۡعَلَ بِهَا فَاقِرَةٞ ۝ 16
(25) और समझ रहे होंगे कि उनके साथ कमरतोड़ बरताव होनेवाला है।
يَقُولُ ٱلۡإِنسَٰنُ يَوۡمَئِذٍ أَيۡنَ ٱلۡمَفَرُّ ۝ 17
(10) उस वक़्त यही इनसान कहेगा, “कहाँ भागकर जाऊँ?”
كَلَّآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلتَّرَاقِيَ ۝ 18
(26) हरगिज़ नहीं,8 जब जान हल्क़ तक पहुँच जाएगी,
8. इस 'हरगिज़ नहीं' का ताल्लुक़ उसी सिलसिला-ए-कलाम से है जो ऊपर से चला आ रहा है, यानी तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है कि तुम्हें मरकर फ़ना हो जाना है और अपने रब के हुज़ूर वापस जाना नहीं है।
كَلَّا لَا وَزَرَ ۝ 19
(11) हरगिज़ नहीं, वहाँ कोई जाए-पनाह न होगी,
وَقِيلَ مَنۡۜ رَاقٖ ۝ 20
(27) और कहा जाएगा कि है कोई झाड़-फूँक करनेवाला,
إِلَىٰ رَبِّكَ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡمُسۡتَقَرُّ ۝ 21
(12) उस रोज़ तेरे रब ही के सामने जाकर ठहरना होगा।
وَظَنَّ أَنَّهُ ٱلۡفِرَاقُ ۝ 22
(28) और आदमी समझ लेगा कि यह दुनिया से जुदाई का वक़्त है,
يُنَبَّؤُاْ ٱلۡإِنسَٰنُ يَوۡمَئِذِۭ بِمَا قَدَّمَ وَأَخَّرَ ۝ 23
(13) उस रोज़ इनसान को उसका सब अगला-पिछला, किया-कराया बता दिया जाएगा,
وَٱلۡتَفَّتِ ٱلسَّاقُ بِٱلسَّاقِ ۝ 24
(29) और पिंडली से पिंडली जुड़ जाएगी,
بَلِ ٱلۡإِنسَٰنُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ بَصِيرَةٞ ۝ 25
(14) बल्कि इनसान ख़ुद ही अपने-आपको ख़ूब जानता है
إِلَىٰ رَبِّكَ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡمَسَاقُ ۝ 26
(30) वह दिन होगा तेरे रब की तरफ़ रवानगी का।
وَلَوۡ أَلۡقَىٰ مَعَاذِيرَهُۥ ۝ 27
(15) चाहे वह कितनी ही माज़िरतें पेश करे।5
5. यानी आदमी का नामा-ए-आमाल उसके सामने रखने की ग़रज़ दर-हक़ीक़त यह नहीं होगी कि मुजरिम को उसका जुर्म बताया जाए, बल्कि ऐसा करना तो इस वजह से ज़रूरी होगा कि इनसाफ़ के तक़ाज़े बरसरे-अदालत जुर्म का सुबूत पेश किए बग़ैर पूरे नहीं होते। वरना हर इनसान ख़ूब जानता है कि वह ख़ुद क्या है।
فَلَا صَدَّقَ وَلَا صَلَّىٰ ۝ 28
(31) मगर उसने न सच माना और न नमाज़ पढ़ी,
لَا تُحَرِّكۡ بِهِۦ لِسَانَكَ لِتَعۡجَلَ بِهِۦٓ ۝ 29
(16) (ऐ नबी!)6 इस वह्य को जल्दी-जल्दी याद करने के लिए अपनी ज़बान को हरकत न दो,
6. यहाँ से लेकर 'फिर इसका मतलब समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है।' तक की पूरी इबारत एक जुमला-ए मुअतरिज़ा है जो सिलसिला-ए-कलाम को बीच में तोड़कर नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके इरशाद फ़रमाई गई है। जिबरील (अलैहि०) जब यह सूरा हुज़ूर (सल्ल०) को सुना रहे थे उस वक़्त आप (सल्ल०) इस अंदेशे से कि कहीं मैं भूल न जाऊँ इसको ज़बान से दोहराने की कोशिश फ़रमा रहे थे।
وَلَٰكِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 30
(32) बल्कि झुठलाया और पलट गया,
إِنَّ عَلَيۡنَا جَمۡعَهُۥ وَقُرۡءَانَهُۥ ۝ 31
(17) इसको याद करा देना और पढ़वा देना हमारे ज़िम्मे है,
ثُمَّ ذَهَبَ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ يَتَمَطَّىٰٓ ۝ 32
(33) फिर अकड़ता हुआ अपने घरवालों की तरफ़ चल दिया।
أَوۡلَىٰ لَكَ فَأَوۡلَىٰ ۝ 33
(34) यह रविश तेरे ही लिए सज़ावार है और तुझी को ज़ेब देती है।
ثُمَّ أَوۡلَىٰ لَكَ فَأَوۡلَىٰٓ ۝ 34
(35) हाँ, यह रविश तेरे ही लिए सज़ावार है और तुझी को ज़ेब देती है।
أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَن يُتۡرَكَ سُدًى ۝ 35
(36) क्या इनसान ने यह समझ रखा है कि वह यूँ ही मुहमल9 छोड़ दिया जाएगा?
9. 9. अस्ल में लफ़्ज 'सुदा' इस्तेमाल हुआ है। अरबी ज़बान में 'इबिलुन-सुदा' उस ऊँट के लिए बोलते हैं जो यूँ ही छुटा फिर रहा हो, जिधर चाहे चरता फिरे, कोई उसकी निगरानी करनेवाला न हो। इसी मानी में हम शुत्रे-बेमहार का लफ़्ज़ बोलते हैं।
أَلَمۡ يَكُ نُطۡفَةٗ مِّن مَّنِيّٖ يُمۡنَىٰ ۝ 36
(37) क्या वह एक हक़ीर पानी का नुत्फ़ा न था जो (रहिमे-मादर में) टपकाया जाता है?
ثُمَّ كَانَ عَلَقَةٗ فَخَلَقَ فَسَوَّىٰ ۝ 37
(38) फिर वह एक लोथड़ा बना, फिर अल्लाह ने उसका जिस्म बनाया और उसके आज़ा दुरुस्त किए,
فَجَعَلَ مِنۡهُ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰٓ ۝ 38
(39) फिर उससे मर्द और औरत की दो क़िस्में बनाईं।
أَلَيۡسَ ذَٰلِكَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يُحۡـِۧيَ ٱلۡمَوۡتَىٰ ۝ 39
(40) क्या वह इसपर क़ादिर नहीं है कि मरनेवालों को फिर से ज़िन्दा कर दे।