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رَّبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا ٱلرَّحۡمَٰنِۖ لَا يَمۡلِكُونَ مِنۡهُ خِطَابٗا

78. अन-नबा

(मक्का में उतरी, आयतें 40)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के वाक्यांश 'अनिन-न-ब-इल अज़ीम' के शब्द 'अन-नबा' (ख़बर) को इसका नाम क़रार दिया गया है, और यह सिर्फ़ नाम ही नहीं है, बल्कि इस सूरा के विषयों का शीर्षक भी है, क्योंकि 'नबा' से मुराद क़ियामत और आख़िरत (परलोक) की ख़बर है और इस सूरा में सारी वार्ता इसी पर की गई है।

उतरने का समय

सूरा-75 (क़ियामह) से सूरा-79 (नाज़िआत) तक सबका विषय एक-दूसरे से मिलता-जुलता है और यह सब मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल में उतरी मालूम होती हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय क़ियामत और आख़िरत की पुष्टि और उसको मानने या न मानने के नतीजों से लोगों को सचेत करना है। मक्का मुअज़्ज़मा में जब पहले-पहल अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस्लाम के प्रचार का आरम्भ किया तो इसकी बुनियाद तीन चीजें थीं : [तौहीद (एकेश्वरवाद), हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी और आख़िरत- इन तीनों चीज़ों में से पहली दो चीजें भी] हालाँकि मक्कावालों को अत्यंत अप्रिय [और अस्वीकार्य थीं, लेकिन फिर भी स्पष्ट कारणों से ये उन] के लिए उतनी ज़्यादा उलझन का कारण न थीं, जितनी तीसरी बात थी। उसको जब उनके सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे ज़्यादा उसी की हँसी उड़ाई, मगर इस्लाम की राह पर उनको लाने के लिए यह निश्चित रूप से ज़रूरी था कि आख़िरत का अक़ीदा उनके मन में उतारा जाए, क्योंकि इस अक़ीदे को माने बिना यह सम्भव ही न था कि सत्य और असत्य के मामले में उनकी सोच गम्भीर हो सकती। यही कारण है कि मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की सूरतों में अधिकतर ज़ोर आख़िरत के अक़ीदे को दिलों में बिठाने पर दिया गया है। इस काल की सूरतों में आख़िरत के विषय को बार-बार दोहराए जाने का कारण अच्छी तरह समझ लेने के बाद अब इस सूरा की वार्ताओं पर एक दृष्टि डाल लीजिए।

इसमें सबसे पहले उन चर्चाओं और कानाफूसियों की ओर इशारा किया गया है जो क़ियामत की ख़बर सुनकर मक्का की हर गली, बाज़ार और मक्कावालों की हर सभा में हो रही थीं। इसके बाद इंकार करनेवालों से पूछा गया है कि क्या तुम्हें [ज़मीन से लेकर आसमान तक का प्रकृति का कारख़ाना और उसके अन्दर पाई जानेवाली हिक्मतें (तत्वदर्शिताएँ) और उद्देश्य नज़र नहीं आते? इसकी ये सारी चीज़ें क्या तुम्हें यही बता रही हैं कि जिस सामर्थ्यवान ने इनको पैदा किया है, उसकी सामर्थ्य क़ियामत लाने और आख़िरत बरपा करने में विवश है? और इस पूरे कारख़ाने में जो श्रेष्ठ दर्जे की दत्वदर्शिता और बुद्धिमत्ता स्पष्ट रूप से कार्यरत है, क्या उसे देखते हुए तुम्हारी समझ में यह आता है कि इस कारख़ाने का एक-एक अंश और एक-एक काम तो उद्देश्यपूर्ण है, मगर ख़ुद पूरा कारख़ाना निरुद्देश्य है? आख़िर इससे ज़्यादा बेकार और व्यर्थ बात क्या हो सकती है कि इस कारख़ाने में इंसान को फ़ोरमैन (Foreman) के पद पर बिठाकर उसे यहाँ बड़े व्यापक अधिकार तो दे दिए जाएँ, मगर जब वह अपना काम पूरा करके यहाँ से विदा हो तो उसे यों ही छोड़ दिया जाए- न काम बनाने पर पेंशन और इनाम, न बिगाड़ने पर पूछ-गच्छ और सज़ा? ये तर्क देने के बाद पूरे ज़ोर के साथ कहा गया है कि फ़ैसले का दिन निश्चित रूप से अपने निश्चित समय पर आकर रहेगा। तुम्हारा इंकार इस घटना को पेश आने से नहीं रोक सकता। इसके बाद आयत 21 से 30 तक बताया गया है कि जो लोग हिसाब-किताब की उम्मीद नहीं रखते और जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, उनकी एक-एक करतूत गिन-गिनकर हमारे यहाँ लिखी है और उनकी ख़बर लेने के लिए जहन्नम घात लगाए हुए तैयार है। फिर आयत 31 से 36 तक उन लोगों का बेहतरीन बदला बमान हुआ है, जिन्होंने अपने आपको ज़िम्मेदार और उत्तरदायी समझकर दुनिया में अपनी आख़िरत ठीक करने की पहले ही चिंता कर ली है। अन्त में अल्लाह की अदालत का चित्र खींचा गया है कि वहाँ किसी के अड़कर बैठ जाने और अपने लोगों को बख़्शवाकर छोड़ने का क्या सवाल, वहाँ तो कोई बिना इजाज़त ज़बान तक न खोल सकेगा, और इजाज़त भी इस शर्त के साथ मिलेगी कि जिसके पक्ष में सिफ़ारिश की इजाज़त हो, सिर्फ़ उसी के लिए सिफ़ारिश करे और सिफ़ारिश में कोई अनुचित बात न कहे। साथ ही सिफ़ारिश की इजाज़त सिर्फ़ उन लोगों के पक्ष में दी जाएगी जो दुनिया में हक़ के कलिमे के समर्थक रहे हैं और सिर्फ़ गुनाहगार हैं । अल्लाह के बाग़ी और सत्य के इंकारी किसी सिफ़ारिश के अधिकारी न होंगे। फिर वार्ता को इस चेतावनी पर समाप्त किया गया है कि जिस दिन के आने की ख़बर दी जा रही है, उसका आना सत्य है, उसे दूर न समझो, वह क़रीब ही आ लगा है। [जो आज उसके इंकार पर तुला बैठा है कल] वह पछता-पछताकर कहेगा कि काश! मैं दुनिया में पैदा ही न होता। उस वक्त उसका यह एहसास उसी दुनिया के बारे में होगा जिस पर वह आज आसक्त हो रहा है।

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رَّبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا ٱلرَّحۡمَٰنِۖ لَا يَمۡلِكُونَ مِنۡهُ خِطَابٗا ۝ 1
(37) जो ज़मीन और आसमानों का और उनके दरमियान की हर चीज़ का मालिक है, जिसके सामने किसी को बोलने का यारा नहीं।6
6. यानी मैदाने-हश्र में दरबारे-इलाही के रोब का यह आलम होगा कि अहले-ज़मीन हों या अहले-आसमान, किसी की भी यह मजाल न होगी कि अज़-ख़ुद अल्लाह तआला के हुज़ूर ज़बान खोल सके, या अदालत के काम में मुदाख़लत कर सके।
سُورَةُ النَّبَإِ
78. अन-नबा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَوۡمَ يَقُومُ ٱلرُّوحُ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ صَفّٗاۖ لَّا يَتَكَلَّمُونَ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَقَالَ صَوَابٗا ۝ 2
(38) जिस रोज़ रूह7 और मलाइका सफ़-बस्ता खड़े होंगे, कोई न बोलेगा सिवाय उसके जिसे रहमान इजाज़त दे और जो ठीक बात कहे।
7. रूह' से मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं और उनका जो बलंद मर्तबा अल्लाह तआला के यहाँ है उसकी वजह से मलाइका से अलग उनका ज़िक्र किया गया है।
عَمَّ يَتَسَآءَلُونَ
(1) ये लोग किस चीज़ के बारे में पूछ-गछ कर रहे हैं?
ذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَن شَآءَ ٱتَّخَذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ مَـَٔابًا ۝ 3
(39) वह दिन बरहक़ है, अब जिसका जी चाहे अपने रब की तरफ़ पलटने का रास्ता इख़्तियार कर ले।
عَنِ ٱلنَّبَإِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 4
(2) क्या उस बड़ी ख़बर के बारे में
إِنَّآ أَنذَرۡنَٰكُمۡ عَذَابٗا قَرِيبٗا يَوۡمَ يَنظُرُ ٱلۡمَرۡءُ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُ وَيَقُولُ ٱلۡكَافِرُ يَٰلَيۡتَنِي كُنتُ تُرَٰبَۢا ۝ 5
(40) हमने तुम लोगों को उस अज़ाब से डरा दिया है जो क़रीब आ लगा है। जिस रोज़ आदमी वह सब कुछ देख लेगा जो उसके हाथों ने आगे भेजा है, और काफ़िर पुकार उठेगा कि काश मैं ख़ाक होता!
ٱلَّذِي هُمۡ فِيهِ مُخۡتَلِفُونَ ۝ 6
(3) जिसके मुताल्लिक़ ये मुख़्तलिफ़ चे-मीगोइयाँ करने में लगे हुए हैं?
كَلَّا سَيَعۡلَمُونَ ۝ 7
(4) हरगिज़ नहीं,1 अन-क़रीब इन्हें मालूम हो जाएगा।
1. यानी आख़िरत के मुताल्लिक़ जो बातें वे लोग बना रहे हैं, सब ग़लत हैं। जो कुछ इन्होंने समझ रखा है वह हरगिज़ सही नहीं है।
ثُمَّ كَلَّا سَيَعۡلَمُونَ ۝ 8
(5) हाँ, हरगिज़ नहीं, अन-क़रीब इन्हें मालूम हो जाएगा।
أَلَمۡ نَجۡعَلِ ٱلۡأَرۡضَ مِهَٰدٗا ۝ 9
(6) क्या यह वाक़िआ नहीं है कि हमने ज़मीन को फ़र्श बनाया,
وَٱلۡجِبَالَ أَوۡتَادٗا ۝ 10
(7) और पहाड़ों को मेख़ों की तरह गाड़ दिया,
وَخَلَقۡنَٰكُمۡ أَزۡوَٰجٗا ۝ 11
(8) और तुम्हें (मर्दों और औरतों के) जोड़ों की शक्ल में पैदा किया,
وَجَعَلۡنَا نَوۡمَكُمۡ سُبَاتٗا ۝ 12
(9) और तुम्हारी नींद को बाइसे-सुकून बनाया,
وَجَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ لِبَاسٗا ۝ 13
(10) और रात को पर्दापोश
وَجَعَلۡنَا ٱلنَّهَارَ مَعَاشٗا ۝ 14
(11) और दिन को मआश का वक़्त बनाया,
وَبَنَيۡنَا فَوۡقَكُمۡ سَبۡعٗا شِدَادٗا ۝ 15
(12) और तुम्हारे ऊपर सात मज़बूत आसमान क़ायम किए,
وَجَعَلۡنَا سِرَاجٗا وَهَّاجٗا ۝ 16
(13) और एक निहायत रौशन और गर्म चराग़2
2. मुराद है सूरज। अस्ल में लफ़्ज़ ‘वह्हाज’ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी निहायत गर्म के भी हैं और निहायत रौशन के भी, इसलिए तर्जमा में हमने दोनों मानी दर्ज कर दिए हैं।
وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلۡمُعۡصِرَٰتِ مَآءٗ ثَجَّاجٗا ۝ 17
(14) और बादलों से लगातार बारिश बरसाई
لِّنُخۡرِجَ بِهِۦ حَبّٗا وَنَبَاتٗا ۝ 18
(15) ताकि उसके ज़रिए से ग़ल्ला और सब्ज़ी
وَجَنَّٰتٍ أَلۡفَافًا ۝ 19
(16) और घने बाग़ उगाएँ।
إِنَّ يَوۡمَ ٱلۡفَصۡلِ كَانَ مِيقَٰتٗا ۝ 20
(17) बेशक, फ़ैसले का दिन एक मुक़र्रर वक़्त है।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِ فَتَأۡتُونَ أَفۡوَاجٗا ۝ 21
(18) जिस रोज सूर में फूँक मार दी जाएगी, तुम फ़ौज-दर-फ़ौज निकल आओगे,
وَفُتِحَتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ أَبۡوَٰبٗا ۝ 22
(19) और आसमान खोल दिया जाएगा हत्ता कि वह दरवाज़े-ही-दरवाज़े बनकर रह जाएगा
وَسُيِّرَتِ ٱلۡجِبَالُ فَكَانَتۡ سَرَابًا ۝ 23
(20) और पहाड़ चलाए जायेंगे, यहाँ तक कि वे सराब हो जाएँगे।
إِنَّ جَهَنَّمَ كَانَتۡ مِرۡصَادٗا ۝ 24
(21) दर-हक़ीक़त जहन्नम एक घात3 है,
3. घात उस जगह को कहते हैं जो शिकार को फाँसने के लिए बनाई जाती है ताकि वह बेख़बरी की हालत में आए और अचानक उसमें फँस जाए। जहन्नम के लिए यह लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि ख़ुदा के बाग़ी उससे बेख़ौफ़ होकर दुनिया में यह समझते हुए उछल-कूद करते फिर रहे हैं कि ख़ुदा की ख़ुदाई उनके लिए एक खुली आमाजगाह है, और यहाँ किसी पकड़ का ख़तरा नहीं है, लेकिन जहन्नम उनके लिए एक ऐसी छिपी हुई घात है जिसमें वे यकायक फँसेंगे और बस फँसकर ही रह जाएँगे।
لِّلطَّٰغِينَ مَـَٔابٗا ۝ 25
(22) सरकशों का ठिकाना,
لَّٰبِثِينَ فِيهَآ أَحۡقَابٗا ۝ 26
(23) जिसमें वे मुद्दतों पड़े रहेंगे।4
4. अस्ल में लफ़्ज़ 'अह्क़ाब' इस्तेमाल किया गया है जिसके मानी हैं पै-दर-पै आनेवाले तवील ज़माने, ऐसे मुसलसल अदवार कि एक दौर ख़त्म होते ही दूसरा दौर शुरू हो जाए।
لَّا يَذُوقُونَ فِيهَا بَرۡدٗا وَلَا شَرَابًا ۝ 27
(24) उसके अंदर किसी ठंडक और पीने के क़ाबिल किसी चीज़ का मज़ा वे न चखेंगे,
إِلَّا حَمِيمٗا وَغَسَّاقٗا ۝ 28
(25) कुछ मिलेगा तो बस गर्म पानी और जख़्मों का धोवन,
جَزَآءٗ وِفَاقًا ۝ 29
(26) (उनके करतूतों) का भरपूर बदला।
إِنَّهُمۡ كَانُواْ لَا يَرۡجُونَ حِسَابٗا ۝ 30
(27) वे किसी हिसाब की तवक़्क़ो न रखते थे
وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا كِذَّابٗا ۝ 31
(28) और हमारी आयात को उन्होंने बिलकुल झुठला दिया था।
وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ كِتَٰبٗا ۝ 32
(29) और हाल यह था कि हमने हर चीज़ गिन-गिनकर लिख रखी थी।
فَذُوقُواْ فَلَن نَّزِيدَكُمۡ إِلَّا عَذَابًا ۝ 33
(30) अब चखो मज़ा, हम तुम्हारे लिए अज़ाब के सिवा किसी चीज़ मैं हरगिज़ इज़ाफ़ा न करेंगे।
إِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ مَفَازًا ۝ 34
(31) यक़ीनन मुत्तक़ियों के लिए कामरानी का एक मक़ाम है,
حَدَآئِقَ وَأَعۡنَٰبٗا ۝ 35
(32) बाग़ और अंगूर,
وَكَوَاعِبَ أَتۡرَابٗا ۝ 36
(33) और नौखेज़ हमसिन लड़कियाँ,
وَكَأۡسٗا دِهَاقٗا ۝ 37
(34) और छलकते हुए जाम।
لَّا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا كِذَّٰبٗا ۝ 38
(35) वहाँ कोई लग़्व और झूठी वात वे न सुनेंगे।
جَزَآءٗ مِّن رَّبِّكَ عَطَآءً حِسَابٗا ۝ 39
(36) ज़ज़ा और काफ़ी इनाम5 तुम्हारे रब की तरफ़ से, उस निहायत मेहरबान ख़ुदा की तरफ़ से
5. जज़ा के बाद काफ़ी इनाम देने का ज़िक्र यह मानी रखता है कि उनको सिर्फ़ वही जज़ा नहीं दी जाएगी जिसके वे अपने नेक आमाल की बिना पर मुस्तहिक़ होंगे, बल्कि उसपर मज़ीद इनाम और काफ़ी इनआम भी उन्हें दिया जाएगा।