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سُورَةُ الأَنفَالِ

    1. अल-अनफ़ाल

    (मदीना में उतरी – आयतें 75)

    परिचय

    उतरने का समय

    यह सूरा 02 हि० में बद्र की लड़ाई के बाद उतरी है और इसमें इस्लाम और कुफ़्र की इस पहली लड़ाई की सविस्तार समीक्षा की गई है।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

    इससे पहले कि इस सूरा की समीक्षा की जाए, बद्र की लड़ाई और उससे संबंधित परिस्थतियों पर एक ऐतिहासिक दृष्टि डाल लेनी चाहिए।

    नबी (सल्ल०) का सन्देश [मक्का-काल के अंत तक] इस हैसियत से अपनी दृढ़ता और स्थायित्व सिद्ध कर चुका था कि एक ओर इसके पीछे एक श्रेष्ठ आचरणवाला,विशाल हृदय और विवेकशील ध्वजावाहक मौजूद था जिसकी कार्य-विधि से यह तथ्य पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था कि वह इस सन्देश को अति सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए अटल इरादा रखता है, दूसरी ओर इस सन्देश में स्वयं इतना आकर्षण था कि वह हर एक के मन۔मस्तिष्क में अपना स्थान बनाता चला जा रहा था, लेकिन उस समय तक कुछ पहलुओं से इस सन्देश के प्रचार में बहुत कुछ कमी पाई जाती थी-

    एक यह कि यह बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुई थी कि उसे ऐसे अनुपालकों की एक बड़ी संख्या मिल गई है जो उसके लिए अपनी हर चीज़ कुर्बान कर देने के लिए और दुनिया भर से लड़ जाने के लिए, यहाँ तक कि अपनी प्रियतम नातेदारियों को भी काट फेंकने के लिए तैयार है। दूसरे यह कि इस सन्देश की आवाज़ यद्यपि समूचे देश में फैल गई थी, लेकिन इसके प्रभाव बिखरे हुए थे, इसे वह सामूहिक शक्ति न प्राप्त हो सकी थी जो पुरानी अज्ञानी-व्यवस्था से निर्णायक मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी थी। तीसरे यह कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह सन्देश क़दम जमाकर अपने पक्ष को सुदृढ़ बना सकता और फिर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता। चौथे यह कि उस समय तक इस सन्देश को व्यावहारिक जीवन के मामलों को अपने हाथ में लेकर चलाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए उन नैतिक सिद्धान्तों का प्रदर्शन नहीं हो सका था जिनपर यह सन्देश जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और चलाना चाहता था।

    बाद की घटनाओं ने उन अवसरों को जन्म दिया जिनसे ये चारों कमियाँ पूरी हो गईं।

    मक्का-काल के अन्तिम तीन-चार वर्षों से यसरिब (मदीना) में इस्लाम के सूर्य की किरणें बराबर पहुँच रही थीं और वहाँ के लोग कई कारणों से अरब के दूसरे क़बीलों की अपेक्षा अधिक आसानी के साथ उस रौशनी को स्वीकार करते जा रहे थे। अन्तत: पैग़म्बरी के बारहवें वर्ष में हज के मौक़े पर 75 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल नबी (सल्ल०) से रात के अंधेरे में मिला और उसने न केवल यह कि इस्लाम स्वीकार किया, बल्कि आपको और आपके अनुपालकों को अपने नगर में जगह देने पर तत्परता दिखाई। उद्देश्य यह था कि अरब के विभिन्न क़बीलों और भागों में जो मुसलमान बिखरे हुए हैं, वे यसरिब में जमा होकर और यसरिब के मुसलमानों के साथ मिलकर एक सुसंगठित समाज बना लें। इस तरह यसरिब ने वास्तव में अपने आपको 'इस्लाम का शहर' (मदीनतुल इस्लाम) की हैसियत से प्रस्तुत किया और नबी (सल्ल०) ने उसे स्वीकार करके अरब में पहला दारुल इस्लाम (इस्लाम का घर) बना लिया।

    इस प्रस्ताव का अर्थ जो भी था, इससे मदीनावासी अनभिज्ञ न थे। इसका खुला अर्थ यह था एक छोटा-सा क़स्बा अपने आपको समूचे देश की तलवारों और आर्थिक व सांस्कृतिक बहिष्कार के मुक़ाबले में प्रस्तुत कर रहा था। दूसरी ओर मक्कावासियों के लिए यह मामला जो अर्थ रखता था, वह भी किसी से छिपा हुआ न था। वास्तव में इस तरह मुहम्मद (सल्ल०) के नेतृत्व में इस्लाम के माननेवाले और उसपर चलनेवाले एक सुसंगठित जत्थे के रूप में एकत्र हुए जा रहे थे। यह पुरानी व्यवस्था के लिए मौत का सन्देश था। साथ ही मदीना जैसे स्थान पर मुसलमानों की इस शक्ति के एकत्र होने से कुरैश को और अधिक ख़तरा यह था कि यमन से सीरिया की ओर जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के तट के किनारे-किनारे जाता था, जिसके सुरक्षित रहने पर क़ुरैश और दूसरे बड़े-बड़े मुशरिक (बहुदेववादी) क़बीलों का आर्थिक जीवन आश्रित था, वह मुसलमानों के निशाने पर आ रहा था और उस समय (जो परिस्थतियाँ थी, उन्हें देखते हुए) मुसलमानों के लिए वास्तव में इसके सिवा कोई रास्ता भी न था कि उस व्यापारिक राजमार्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत करें। चुनांँचे नबी (सल्ल०) ने [मदीना पहुँचने के बाद जल्द ही इस समस्या पर ध्यान दिया और इस सिलसिले में दो महत्त्वपूर्ण उपाय किए : एक यह कि मदीना और लाल सागर के तट के बीच उस राजमार्ग से मिले हुए जो क़बीले आबाद थे उनसे वार्ताएँ आरंभ कर दीं, ताकि वे मैत्रीपूर्ण एकता या कम से कम निरपेक्षता के समझौते कर लें। चुनांँचे इसमें आपको पूरी सफलता मिली। दूसरा उपाय आपने यह किया कि कुरैश के क़ाफ़िलों को धमकी देने के लिए उस राजमार्ग पर लगातार छोटे-छोटे दस्ते भेजने शुरू किए और कुछ दस्तों के साथ आप स्वयं भी तशरीफ़ ले गए। [उधर से मक्कावासी भी मदीना की ओर लूट-पाट करनेवाले दस्ते भेजते रहे ।] परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि शाबान सन् 02 हि० (फ़रवरी या मार्च सन् 623 ई०) में क़ुरैश का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से मक्का वापस आते हुए उस क्षेत्र में पहुँचा जो मदीना के निशाने पर था। चूँकि माल ज़्यादा था, रक्षक कम थे और ख़तरा बड़ा था कि कहीं मुसलमानों का कोई शक्तिशाली दस्ता उसपर छापा न मार दे, इसलिए क़ाफिले के सरदार अबू-सुफियान ने उस ख़तरेवाले क्षेत्र में पहुँचते ही एक व्यक्ति को मदद लाने के लिए मक्का की ओर दौड़ा दिया। उस व्यक्ति की सूचना पर सारे मक्का में खलबली मच गई। क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार लड़ाई के लिए तैयार हो गए। लगभग एक हज़ार योद्धा, जिनमें से छ: सौ कवचधारी थे और सौ घुड़सवार भी, बड़ी धूमधाम से लड़ने के लिए चले। उनके सामने सिर्फ़ यही काम न था कि अपने क़ाफ़िले को बचा लाएँ, बल्कि वे इस इरादे से निकले थे कि उस आए दिन के ख़तरे को सदा के लिए समाप्त कर दें। अब नबी (सल्ल०) ने, जो परिस्थितियों की सदैव ख़बर रखते थे, महसूस किया कि निर्णय का समय आ पहुँचा है। [चुनांँचे भीतर और बाहर की अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद आपने निर्णायक क़दम उठाने का इरादा कर लिया, यह] इरादा करके आपने अंसार और मुहाजिरीन को जमा किया और उनके सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट शब्दों में रख दी कि एक ओर उत्तर में व्यावसायिक क़ाफ़िला है और दूसरी ओर दक्षिण से कुरैश की सेना चली आ रही है। अल्लाह का वादा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किसके मुक़ाबले पर चलना चाहते हो? उत्तर में एक बड़े गिरोह की ओर से यह इच्छा व्यक्त की गई कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए। लेकिन नबी (सल्ल०) के सामने कुछ और था। इसलिए आपने अपना प्रश्‍न दोहराया। इसपर मुहाजिरों में से मिक़दाद बिन अम्र (रज़ि०) ने [और उनके बाद, नबी (सल्ल०) की ओर से प्रश्न के फिर दोहराए जाने पर, अंसार में से हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) ने उत्साहवर्द्धक भाषण दिए, जिनमें उन्होंने कहा कि] ऐ अल्लाह के रसूल ! जिधर आपका रब आपको हुक्म दे रहा है उसी ओर चलिए, हम आपके साथ हैं। इन भाषणों के बाद निर्णय हो गया कि क़ाफ़िले के बजाय क़ुरैश की सेना के मुक़ाबले पर चलना चाहिए। लेकिन यह निर्णय कोई सामान्य निर्णय न था। जो लोग इस थोड़े समय में लड़ाई के लिए उठे थे उनकी संख्या तीन सौ से कुछ अधिक थी। युद्ध-सामग्री भी अपर्याप्त थी, इसलिए अधिकतर लोग दिलों में सहम रहे थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि जानते-बूझते मौत के मुँह में जा रहे हैं। अवसरवादी (मुनाफ़िक़) इस मुहिम को दीवानापन कह रहे थे। परन्तु नबी (सल्ल०) और सच्चे मुसलमान यह समझ चुके थे कि यह समय जान की बाज़ी लगाने ही का है। इसलिए अल्लाह के भरोसे पर वे निकल खड़े हुए और उन्होंने सीधे दक्षिण-पश्चिम का रास्ता लिया जिधर से क़ुरैश की सेना आ रही थी, हालाँकि अगर आरंभ में क़ाफ़िले को लूटना अभीष्ट होता तो उत्तर-पश्चिम का रास्ता पकड़ा जाता।

    17 रमज़ान को बद्र नामक स्थान पर दोनों पक्षों का मुक़ाबला हुआ जिसमें मुसलमानों की ईमानी निष्ठा अल्लाह की ओर से 'सहायता' रूपी पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गई और क़ुरैश अपने पूरे शक्ति-गर्व के बावजूद उन निहत्थे फ़िदाइयों के हाथों पराजित हुए। इस निर्णायक विजय के बाद एक पश्चिमी शोधकर्ता के अनुसार “बद्र के पहले इस्लाम मात्र एक धर्म और राज्य था, मगर बद्र के बाद वह राष्ट्र-धर्म बल्कि स्वयं राष्ट्र बन गया।"

    वार्ताएँ

    यह है वह महान् युद्ध जिसपर क़ुरआन की इस सूरा में समीक्षा की गई है, मगर इस समीक्षा की शैली उन तमाम समीक्षाओं से भिन्न है जो दुनियादार बादशाह अपनी सेना की विजय के बाद किया करते हैं।

    इसमें सबसे पहले उन त्रुटियों को चिह्नित किया गया है जो नैतिक दृष्टि से अभी मुसलमानों  में बाक़ी थीं, ताकि भविष्य में उन्हें सुधारने का बराबर यत्न करते रहें।

    फिर उन्हें बताया गया है कि इस विजय में ईश-समर्थन एवं सहायता का कितना बड़ा भाग था, ताकि वे अपनी वीरता एवं साहस पर न फूलें, बल्कि अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन की शिक्षा ग्रहण करें।

    फिर उस नैतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है जिसके लिए मुसलमानों को सत्य-असत्य का यह संघर्ष करना है और उन नैतिक गुणों को स्पष्ट किया गया है जिनसे इस संघर्ष में उन्हें सफलता मिल सकती है।

    फिर मुशरिकों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) और यहूदियों और उन लोगों को जो लड़ाई में कैद होकर आए थे, अति शिक्षाप्रद शैली में सम्बोधित किया गया है।

    फिर उन मालों के बारे में, जो लड़ाई में हाथ आए थे, मुसलमानों को निर्देश दिए गए हैं।

    फिर युद्ध और संधि के क़ानून के बारे में वे नैतिक आदेश दिए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण इस चरण में इस्लाम के आह्वान के प्रवेश कर जाने के बाद ज़रूरी था।

    फिर इस्लामी राज्य के संवैधानिक नियमों की कुछ धाराएँ वर्णित की गई हैं जिनसे दारुल इस्लाम के मुसलमान निवासियों की क़ानूनी हैसियत उन मुसलमानों से अलग कर दी गई है जो दारुल इस्लाम की सीमाओं से बाहर रहते हों।

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سُورَةُ الأَنفَالِ
8. सूरा अल-अनफ़ाल
إِذۡ يُغَشِّيكُمُ ٱلنُّعَاسَ أَمَنَةٗ مِّنۡهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ لِّيُطَهِّرَكُم بِهِۦ وَيُذۡهِبَ عَنكُمۡ رِجۡزَ ٱلشَّيۡطَٰنِ وَلِيَرۡبِطَ عَلَىٰ قُلُوبِكُمۡ وَيُثَبِّتَ بِهِ ٱلۡأَقۡدَامَ ۝ 1
(11) और वह वक़्त जबकि अल्लाह अपनी तरफ़ से ग़ुनूदगी की शक्ल में तुमपर इत्मीनान और बेख़ौफ़ी की कैफ़ियत तारी कर रहा था,4 और आसमान तुम्हारे ऊपर पानी बरसा रहा था ताकि तुम्हें पाक करे और तुमसे शैतान की डाली हुई नजासत दूर करे और तुम्हारी हिम्मत बँधाए और उसके ज़रिए से तुम्हारे क़दम जमा दे।
4. यही तजरिबा मुसलमानों को जंगे-उहुद में पेश आया था जैसा कि सूरा-3 आले-इमरान, आयत-154 में गुज़र चुका है।
إِذۡ يُوحِي رَبُّكَ إِلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَنِّي مَعَكُمۡ فَثَبِّتُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ سَأُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ فَٱضۡرِبُواْ فَوۡقَ ٱلۡأَعۡنَاقِ وَٱضۡرِبُواْ مِنۡهُمۡ كُلَّ بَنَانٖ ۝ 2
(12) और वह वक़्त जबकि तुम्हारा रब फ़रिश्तों को इशारा कर रहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम अहले-ईमान को साबित क़दम रखो, मैं अभी इन काफ़िरों के दिलों में रोब डाले देता हूँ, पस तुम उनकी गर्दनों पर ज़र्ब और जोड़-जोड़ पर चोट लगाओ।”5
5. यहाँ तक जंगे-बद्र के जिन वाक़िआत को एक-एक करके याद दिलाया गया है उससे मक़सूद दरअस्ल लफ़्ज़ 'अनफ़ाल' की मानवियत वाज़ेह करना है। इबतिदा में इरशाद हुआ था कि इस माले-ग़नीमत को अपनी जाँफ़िशानी का समरह समझकर उसके मालिक व मुख़्तार कहाँ बने जाते हो, यह तो दरअस्ल अतीया-ए-इलाही है और मुअती ख़ुद ही अपने माल का मुख़्तार है। अब इसके सुबूत में ये वाक़िआत गिनवाए गए हैं कि इस फ़त्‌ह में ख़ुद ही हिसाब लगाकर देख लो कि तुम्हारी अपनी जाँफ़िशानी और जुरअत व जसारत का कितना हिस्सा था और अल्लाह की इनायत का कितना हिस्सा, इसलिए इसका फ़ैसला करना कि यह किस तरह तक़सीम हो तुम्हारा नहीं, बल्कि अल्लाह का काम है।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَمَن يُشَاقِقِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 3
(13) यह इसलिए कि उन लोगों ने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया, और जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करे अल्लाह उसके लिए निहायत सख़्तगीर है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَنفَالِۖ قُلِ ٱلۡأَنفَالُ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَصۡلِحُواْ ذَاتَ بَيۡنِكُمۡۖ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ
(1) तुमसे अनफ़ाल के मुताल्लिक़ पूछते हैं।1 कहो, “ये अनफ़ाल तो अल्लाह और उसके रसूल के हैं, पस तुम लोग अल्लाह से डरो और अपने-आपस के ताल्लुक़ात दुरुस्त करो और अल्लाह और रसूल की इताअत करो अगर तुम मोमिन हो।”2
1. 'अनफ़ाल' जमा है नफ़्ल की। अरबी ज़बान में नफ़्ल उस चीज़ को कहते हैं जो वाजिब या हक़ से ज़ाइद हो। जब यह ताबेअ की तरफ़ से हो तो इससे मुराद वह रज़ाकाराना ख़िदमत होती है जो एक बन्दा अपने आक़ा के लिए फ़र्ज़ से बढ़कर अपनी ख़ुशी से बजा लाता है, जैसे नफ़्ल नमाज़। और जब यह मतबूअ की तरफ़ से हो तो इससे मुराद वह अतीया व इनाम होता है जो आक़ा अपने बन्दे को उसके हक़ से ज़ाइद देता है। यहाँ अनफ़ाल का लफ़्ज़ उन अमवाले-ग़नीमत के लिए इस्तेमाल हुआ है जो जंगे-बद्र में मुसलमानों के हाथ आए थे और उनको अनफ़ाल क़रार देने का मतलब यह बात मुसलमानों के ज़ेहन-नशीन करना है कि ये तुम्हारी कमाई नहीं है, बल्कि अल्लाह का फ़ज़्ल व इनाम है जो उसनें तुम्हें बख़्शा है।
2. यह बात इसलिए फ़रमाई गई कि इस माल की तक़सीम के बारे में कोई हुक्म आने से पहले मुसलमानों में से मुख़्तलिफ़ गरोह अपने-अपने हिस्से के मुताल्लिक़ दावे पेश करने लगे थे।
ذَٰلِكُمۡ فَذُوقُوهُ وَأَنَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 4
(14) — यह6 है तुम लोगों की सज़ा, अब इसका मज़ा चखो, और तुम्हें मालूम हो कि हक़ का इनकार करनेवालों के लिए दोज़ख का अज़ाब है।
6. इस फ़िक़रे के मुख़ातब कुफ़्फ़ारे-क़ुरैश हैं जिनको बद्र में शिकस्त हुई थी।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَإِذَا تُلِيَتۡ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُهُۥ زَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 5
(2) सच्चे अहले-ईमान तो वे लोग हैं जिनके दिल अल्लाह का ज़िक्र सुनकर लरज़ जाते है और जब अल्लाह की आयात उनके सामने पढ़ी जाती है तो उनका ईमान बढ़ जाता है, और वे अपने रब पर एतिमाद रखते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ زَحۡفٗا فَلَا تُوَلُّوهُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ۝ 6
(15) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुम एक लश्कर की सूरत में कुफ़्फ़ार से दोचार हो तो उनके मुक़ाबले में पीठ न फेरो।
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 7
(3) जो नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से (हमारी राह में) ख़र्च करते हैं।
وَمَن يُوَلِّهِمۡ يَوۡمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ إِلَّا مُتَحَرِّفٗا لِّقِتَالٍ أَوۡ مُتَحَيِّزًا إِلَىٰ فِئَةٖ فَقَدۡ بَآءَ بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 8
(16) जिसने ऐसे मौक़े पर पीठ फेरी — इल्ला यह कि जंगी चाल के तौर पर ऐसा करे या किसी दूसरी फ़ौज से जा मिलने के लिए — तो वह अल्लाह के ग़ज़ब में घिर जाएगा। उसका ठिकाना जहन्नम होगा, और वह बहुत बुरी जाए-बाज़गश्त है।
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَمَغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 9
(4) ऐसे ही लोग हक़ीक़ी मोमिन हैं। उनके लिए उनके रब के पास बड़े दर्जे हैं, क़ुसूरों से दरगुज़र है और बेहतरीन रिज़्क़ है।
فَلَمۡ تَقۡتُلُوهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ قَتَلَهُمۡۚ وَمَا رَمَيۡتَ إِذۡ رَمَيۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ رَمَىٰ وَلِيُبۡلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡهُ بَلَآءً حَسَنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 10
(17) पस हक़ीक़त यह है कि तुमने उन्हें क़त्ल नहीं किया, बल्कि अल्लाह ने उनको क़त्ल किया और (ऐ नबी!) तूने नहीं फेंका बल्कि अल्लाह ने फेंका,7 (और मोमिनों के हाथ जो इस काम में इस्तेमाल किए गए) तो यह इसलिए था कि अल्लाह मोमिनों को एक बेहतरीन आज़माइश से कामयाबी के साथ गुज़ार दे, यक़ीनन अल्लाह सुनने और जाननेवाला है।
7. मार्का-ए-बद्र में जब मुसलमानों और कुफ़्फ़ार के लश्कर एक-दूसरे के मुक़ाबिल हुए और आम ज़द व ख़ुर्द का मौक़ा आ गया तो हुज़ूर (सल्ल०) ने मुट्ठी-भर रेत हाथ में लेकर 'शा-हतिल-वुजूह' कहते हुए कुफ़्फ़ार की तरफ़ फेंकी और इसके साथ ही आप (सल्ल०) के इशारे से मुसलमान यकबारगी कुफ़्फ़ार पर हमलावर हुए। इसी वाक़िए की तरफ़ इशारा है। मतलब यह है कि हाथ तो रसूल (सल्ल०) का था मगर ज़र्ब अल्लाह की तरफ़ से थी।
كَمَآ أَخۡرَجَكَ رَبُّكَ مِنۢ بَيۡتِكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لَكَٰرِهُونَ ۝ 11
(5) (इस माले-ग़नीमत के मामले में भी वैसी ही सूरत पेश आ रही है जैसी उस वक़्त पेश आई थी जबकि) तेरा रब तुझे हक़ के साथ तेरे घर से निकाल लाया था और मोमिनों में से एक गरोह को यह नागवार था।
ذَٰلِكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُوهِنُ كَيۡدِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 12
(18) यह मामला तो तुम्हारे साथ है और काफ़िरों के साथ मामला यह है कि अल्लाह उनकी चालों को कमज़ोर करनेवाला है।
يُجَٰدِلُونَكَ فِي ٱلۡحَقِّ بَعۡدَ مَا تَبَيَّنَ كَأَنَّمَا يُسَاقُونَ إِلَى ٱلۡمَوۡتِ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 13
(6) वे उस हक़ के मामले में तुझसे झगड़ रहे थे दर आँ हाले कि वह साफ़-साफ़ नुमायाँ हो चुका था। उनका हाल यह था कि गोया वे आँखों देखते मौत की तरफ़ हाँके जा रहे हैं।
إِن تَسۡتَفۡتِحُواْ فَقَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡفَتۡحُۖ وَإِن تَنتَهُواْ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَعُودُواْ نَعُدۡ وَلَن تُغۡنِيَ عَنكُمۡ فِئَتُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَوۡ كَثُرَتۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 14
(19) (उन काफ़िरों से कह दो) “अगर तुम फ़ैसला चाहते ये तो लो, फ़ैसला तुम्हारे सामने आ गया।8 अब बाज़ आ जाओ, तुम्हारे ही लिए बेहतर है वरना फिर पलटकर उसी हिमाक़त का इआदा करोगे तो हम भी उसी सज़ा का इआदा करेंगे और तुम्हारी जमीअत, ख़ाह वह कितनी ही ज़्यादा हो, तुम्हारे कुछ काम न आ सकेगी। अल्लाह मोमिनों के साथ है।”
8. मक्का से रवाना होते वक़्त मुशरिकीन ने काबा के परदे पकड़कर दुआ माँगी थी कि ख़ुदाया दोनों गरोहों में से जो बेहतर है उसको फ़त्‌ह अता कर।
وَإِذۡ يَعِدُكُمُ ٱللَّهُ إِحۡدَى ٱلطَّآئِفَتَيۡنِ أَنَّهَا لَكُمۡ وَتَوَدُّونَ أَنَّ غَيۡرَ ذَاتِ ٱلشَّوۡكَةِ تَكُونُ لَكُمۡ وَيُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُحِقَّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَيَقۡطَعَ دَابِرَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 15
(7) याद करो वह मौक़ा जबकि अल्लाह तुमसे वादा कर रहा था कि दोनों गरोहों में से एक तुम्हें मिल जाएगा।3 तुम चाहते थे कि कमज़ोर गरोह तुम्हें मिले। मगर अल्लाह का इरादा यह था कि अपने इरशादात से हक़ को हक़ कर दिखाए और काफ़िरों की जड़ काट दे
3. यानी क़ुरैश का तिजारती क़ाफ़िला जो शाम (सीरिया) की तरफ़ से आ रहा था, या लश्करे-क़ुरैश जो मक्का से आ रहा था।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَأَنتُمۡ تَسۡمَعُونَ ۝ 16
(20) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो और हुक्म सुनने के बाद उससे सरताबी न करो।
لِيُحِقَّ ٱلۡحَقَّ وَيُبۡطِلَ ٱلۡبَٰطِلَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 17
(8) ताकि हक़ हक़ होकर रहे और बातिल बातिल होकर रह जाए ख़ाह मुजरिमों को यह कितना ही नागवार हो।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 18
(21) उन लोगों की तरह न हो जाओ जिन्होंने कहा कि हमने सुना, हालाँकि वे नहीं सुनते।
إِذۡ تَسۡتَغِيثُونَ رَبَّكُمۡ فَٱسۡتَجَابَ لَكُمۡ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلۡفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُرۡدِفِينَ ۝ 19
(9) और वह मौक़ा जबकि तुम अपने रब से फ़रियाद कर रहे थे। जवाब में उसने फ़रमाया कि मैं तुम्हारी मदद के लिए पै-दर-पै एक हज़ार फ़रिश्ते भेज रहा हूँ।
۞إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلصُّمُّ ٱلۡبُكۡمُ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 20
(22) यक़ीनन ख़ुदा के नज़दीक बदतरीन क़िस्म के जानवर वे बहरे-गूँगे लोग हैं जो अक़्ल से काम नहीं लेते।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ وَلِتَطۡمَئِنَّ بِهِۦ قُلُوبُكُمۡۚ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 21
(10) यह बात अल्लाह ने तुम्हें सिर्फ़ इसलिए बता दी कि तुम्हें ख़ुशख़बरी हो और तुम्हारे दिल इससे मुत्मइन हो जाएँ, वरना मदद तो जब भी होती है अल्लाह ही की तरफ़ से होती है। यक़ीनन अल्लाह ज़बरदस्त और दाना है।
وَلَوۡ عَلِمَ ٱللَّهُ فِيهِمۡ خَيۡرٗا لَّأَسۡمَعَهُمۡۖ وَلَوۡ أَسۡمَعَهُمۡ لَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 22
(23) अगर अल्लाह को मालूम होता कि उनमें कुछ भी भलाई है तो वह ज़रूर उन्हें सुनने की तौफ़ीक़ देता (लेकिन भलाई के बग़ैर) अगर वह उनको सुनवाता तो वे बेरुख़ी के साथ मुँह फेर जाते।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَجِيبُواْ لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمۡ لِمَا يُحۡيِيكُمۡۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَحُولُ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَقَلۡبِهِۦ وَأَنَّهُۥٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 23
(24) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह और उसके रसूल की पुकार पर लब्बैक कहो जबकि रसूल तुम्हे उस चीज़ की तरफ़ बुलाए जो तुम्हे जिन्दगी बख़्शनेवाली है, और जान रखो कि अल्लाह आदमी और उसके दिल के दरमियान हाइल है और उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे।
وَٱتَّقُواْ فِتۡنَةٗ لَّا تُصِيبَنَّ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنكُمۡ خَآصَّةٗۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 24
(25) और बचो उस फ़ितने से जिसकी शामत मख़्सूस तौर पर सिर्फ़ उन्हीं लोगों तक महदूद न रहेगी जिन्होंने तुममें से गुनाह किया हो।9 और जान रखो कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
9. इससे मुराद वे इजतिमाई फ़ितने हैं जो वबा-ए-आम की तरह ऐसी शामत लाते हैं जिसमें सिर्फ़ गुनाह करनेवाले ही गिरफ़्तार नहीं होते, बल्कि वे लोग भी मारे जाते हैं जो गुनहगार सोसाइटी में रहना गवारा करते रहे हों।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَنتَهُواْ يُغۡفَرۡ لَهُم مَّا قَدۡ سَلَفَ وَإِن يَعُودُواْ فَقَدۡ مَضَتۡ سُنَّتُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 25
(38) (ऐ नबी!) इन काफ़िरों से कहो कि अगर अब भी बाज़ आ जाएँ तो कुछ पहले हो चुका है उससे दरगुज़र कर लिया जाएगा, लेकिन अगर ये उसी पिछली रविश का इआदा करेंगे तो गुज़िश्ता क़ौमों के साथ जो कुछ हो चुका है वह सबको मालूम है।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ أَنتُمۡ قَلِيلٞ مُّسۡتَضۡعَفُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَخَافُونَ أَن يَتَخَطَّفَكُمُ ٱلنَّاسُ فَـَٔاوَىٰكُمۡ وَأَيَّدَكُم بِنَصۡرِهِۦ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 26
(26) याद करो वह वक़्त जबकि तुम थोड़े थे, ज़मीन में तुमको बेज़ोर समझा जाता था, तुम डरते रहते थे कि कहीं लोग तुम्हें मिटा न दें। फिर अल्लाह ने तुमको जाए-पनाह मुहैया कर दी, अपनी मदद से तुम्हारे हाथ मज़बूत किए और तुम्हें अच्छा रिज़्क़ पहुँचाया, शायद कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَخُونُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ وَتَخُونُوٓاْ أَمَٰنَٰتِكُمۡ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 27
(27) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जानते-बूझते अल्लाह और उसके रसूल के साथ ख़ियानत न करो, अपनी अमानतों10 में ग़द्दारी के मुर्तक़िब न हो
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ كُلُّهُۥ لِلَّهِۚ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 28
(39) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! इन काफ़िरों से जंग करो यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन पूरा-का-पूरा अल्लाह के लिए हो जाए। फिर अगर वे फ़ितने से रुक जाएँ तो उनके आमाल का देखनेवाला अल्लाह है,
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 29
(28) और जान रखो कि तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद हक़ीक़त में सामाने आज़माइश है और अल्लाह के पास अज्र देने के लिए बहुत कुछ है।
10. 'अपनी अमानतों' से मुराद वे तमाम ज़िम्मेदारियाँ हैं जो किसी पर एतिमाद करके उसके सिपुर्द की जाएँ, ख़ाह वे अहदे-वफ़ा की ज़िम्मेदारियाँ हों, या इजतिमाई मुआहदात की, या जमाअत के राज़ों की, या शख़्सी व जमाअती अमवाल की, या किसी उहदे या मनसब की जो किसी शख़्स पर भरोसा करते हुए जमाअत उसके हवाले करे।
وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَىٰكُمۡۚ نِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 30
(40) और अगर वे न मानें तो जान रखो कि अल्लाह तुम्हारा सरपरस्त है और वह बेहतरीन हामी व मददगार है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَتَّقُواْ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّكُمۡ فُرۡقَانٗا وَيُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 31
(29) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अगर तुम ख़ुदा-तरसी इख़्तियार करोगे तो अल्लाह तुम्हारे लिए कसौटी बहम पहुँचा देगा11 और तुम्हारी बुराइयों को तुमसे दूर करेगा और तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करेगा। अल्लाह बड़ा फ़ज़्ल फ़रमानेवाला है।
11. 'कसौटी' उस चीज़ को कहते हैं जो खरे और खोटे के इमतियाज़ को नुमायाँ करती है। यही मफ़हूम ‘फ़ुरक़ान' का भी है, इसी लिए हमने फ़ुरक़ान का तर्जमा कसौटी किया है। इरशादे-इलाही का मंशा यह है कि अगर दुनिया में अल्लाह से डरते हुए काम करोगे तो अल्लाह तआला तुम्हारे अन्दर वह क़ुव्वते-तमीज़ पैदा कर देगा जिससे क़दम-क़दम पर तुम्हें ख़ुद यह मालूम होता रहेगा कि कौन-सा रवैया सही है और कौन-सा ग़लत, कौन-सी राह हक़ है और ख़ुदा की तरफ़ जाती है और कौन-सी राह बातिल है और शैतान से मिलाती है।
۞وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا غَنِمۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَأَنَّ لِلَّهِ خُمُسَهُۥ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا يَوۡمَ ٱلۡفُرۡقَانِ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 32
(41) और तुम्हें मालूम हो कि जो कुछ माले-ग़नीमत तुमने हासिल किया है13 पाँचवाँ हिस्सा अल्लाह और उसके रसूल और रिश्तेदारों और यतीमों और मिसकीनों और मुसाफिरों के लिए है। अगर तुम ईमान लाए हो अल्लाह पर और उस चीज़ पर जो फ़ैसले के रोज़, यानी दोनों फ़ौजों की मुडभेड़ के दिन हमने अपने बन्दे पर नाज़िल की थी,14 (तो यह हिस्सा बख़ुशी अदा करो)। अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।
13. यहाँ उस माले-ग़नीमत की तक़सीम का क़ानून बताया है जिसके मुताल्लिक़ तक़रीर की इबतिदा में कहा गया था कि यह अल्लाह का इनाम है जिसके बारे में फ़ैसला करने का इख़्तियार अल्लाह और उसके रसूल ही को हासिल है। अब वह फ़ैसला बयान कर दिया गया है।
14. यानी वह ताईद व नुसरत जिसकी बदौलत तुम्हें फ़त्‌ह हासिल हुई और जिसकी बदौलत ही तुम्हें यह माले-ग़नीमत हासिल हुआ।
وَإِذۡ يَمۡكُرُ بِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيُثۡبِتُوكَ أَوۡ يَقۡتُلُوكَ أَوۡ يُخۡرِجُوكَۚ وَيَمۡكُرُونَ وَيَمۡكُرُ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 33
(30) वह वक़्त भी याद करने के क़ाबिल है जबकि मुनकिरीने-हक़ तेरे ख़िलाफ़ तदबीरें सोच रहे थे कि तुझे कैद कर दें या क़त्ल कर डालें या जलावतन कर दें।12 वे अपनी चालें चल रहे थे और अल्लाह अपनी चाल चल रहा था, और अल्लाह सबसे बेहतर चाल चलनेवाला है।
12. यह उस मौक़े का ज़िक्र है जबकि क़ुरैश का यह अंदेशा यक़ीन की हद को पहुँच चुका था कि अब मुहम्मद (सल्ल०) भी मदीना चले जाएँगे। उस वक़्त वे आपस में कहने लगे कि अगर यह शख़्स मक्का से निकल गया तो फिर ख़तरा हमारे क़ाबू से बाहर हो जाएगा। चुनाँचे उन्होंने आप (सल्ल०) के मामले में एक आख़िरी फ़ैसला करने के लिए एक इजतिमा किया और इस अम्र पर बाहम मुशावरत की कि इस ख़तरे का सद्दे-बाब किस तरह किया जाए।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا قَالُواْ قَدۡ سَمِعۡنَا لَوۡ نَشَآءُ لَقُلۡنَا مِثۡلَ هَٰذَآ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 34
(31) जब उनको हमारी आयात सुनाई जाती थीं तो कहते थे कि “हाँ, सुन लिया हमने। हम चाहें तो ऐसी ही बातें हम भी बना सकते हैं, ये तो वही पुरानी कहानियाँ हैं जो पहले से लोग कहते चले आ रहे हैं।”
وَإِذۡ قَالُواْ ٱللَّهُمَّ إِن كَانَ هَٰذَا هُوَ ٱلۡحَقَّ مِنۡ عِندِكَ فَأَمۡطِرۡ عَلَيۡنَا حِجَارَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ أَوِ ٱئۡتِنَا بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 35
(32) और वह बात भी याद है जो उन्होंने कही थी कि “ख़ुदाया! अगर यह वाक़ई हक़ है तेरी तरफ़ से तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा दे या कोई दर्दनाक अज़ाब हमपर ले आ।”
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمۡ وَأَنتَ فِيهِمۡۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ مُعَذِّبَهُمۡ وَهُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 36
(33) उस वक़्त तो अल्लाह उनपर अज़ाब नाज़िल करनेवाला न था जबकि तू उनके दरमियान मौजूद था और न अल्लाह का यह क़ायदा है कि लोग इस्तिग़फ़ार कर रहे हों और वह उनको अज़ाब दे दे।
وَمَا لَهُمۡ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ ٱللَّهُ وَهُمۡ يَصُدُّونَ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَمَا كَانُوٓاْ أَوۡلِيَآءَهُۥٓۚ إِنۡ أَوۡلِيَآؤُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُتَّقُونَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 37
(34) लेकिन अब क्यों न वह उनपर अज़ाब नाज़िल करे जबकि वे मस्जिदे-हराम का रास्ता रोक रहे हैं, हालाँकि वे इस मस्जिद के जाइज़ मुतवल्ली नहीं हैं। उसके जाइज़ मुतवल्ली तो सिर्फ़ अहले-तक़वा ही हो सकते हैं, मगर अकसर लोग इस बात को नहीं जानते।
وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمۡ عِندَ ٱلۡبَيۡتِ إِلَّا مُكَآءٗ وَتَصۡدِيَةٗۚ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 38
(35) बैतुल्लाह के पास उन लोगों की नमाज़ क्या होती है? बस सीटियाँ बजाते और तालियाँ पीटते हैं। पस अब लो, उस अज़ाब का मज़ा चखो, अपने उस इनकारे-हक़ की पादाश में जो तुम करते रहे हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ لِيَصُدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَسَيُنفِقُونَهَا ثُمَّ تَكُونُ عَلَيۡهِمۡ حَسۡرَةٗ ثُمَّ يُغۡلَبُونَۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ يُحۡشَرُونَ ۝ 39
(36) जिन लोगों ने हक़ को मानने से इनकार किया है वे अपने माल ख़ुदा के रास्ते से रोकने के लिए सर्फ़ कर रहे है और अभी और ख़र्च करते रहेंगे, मगर आख़िरकार यही कोशिशें उनके लिए पछतावे का सबब बनेंगी, फिर वे मग़लूब होंगे, फिर ये काफ़िर जहन्नम की तरफ़ घेर लाए जाएँगे,
لِيَمِيزَ ٱللَّهُ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِ وَيَجۡعَلَ ٱلۡخَبِيثَ بَعۡضَهُۥ عَلَىٰ بَعۡضٖ فَيَرۡكُمَهُۥ جَمِيعٗا فَيَجۡعَلَهُۥ فِي جَهَنَّمَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 40
(37) ताकि अल्लाह गन्दगी को पाकीज़गी से छाँटकर अलग करे और हर क़िस्म की गन्दगी को मिलाकर इकट्ठा करे फिर उस पुलिन्दे को जहन्नम में झोंक दे। यही लोग अस्ली दीवालिए हैं।
وَإِذۡ زَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَإِنِّي جَارٞ لَّكُمۡۖ فَلَمَّا تَرَآءَتِ ٱلۡفِئَتَانِ نَكَصَ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ وَقَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكُمۡ إِنِّيٓ أَرَىٰ مَا لَا تَرَوۡنَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَۚ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 41
(48) ज़रा ख़याल करो उस वक़्त का जबकि शैतान ने उन लोगों के करतूत उनकी निगाहों में ख़ुशनुमा बनाकर दिखाए थे और उनसे कहा था कि आज कोई तुमपर ग़ालिब नहीं आ सकता और यह कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। मगर जब दोनों गरोहों का आमना-सामना हुआ तो वह उलटे पाँव फिर गया और कहने लगा कि मेरा-तुम्हारा साथ नहीं है, मैं वह कुछ देख रहा हूँ जो तुम नहीं देखते, मुझे ख़ुदा से डर लगता है और ख़ुदा बड़ी सख़्त सज़ा देनेवाला है।
وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٖ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّكُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 42
(60) और तुम लोग, जहाँ तक तुम्हारा बस चले, ज़्यादा-से-ज़्यादा ताक़त और तैयार बंधे रहनेवाले घोड़े उनके मुक़ाबले के लिए मुहैया रखो,21 ताकि उसके ज़रिए से अल्लाह के और अपने दुश्मनों को और उन दूसरे आदा को ख़ौफ़ज़दा कर दो, जिन्हें तुम नहीं जानते, मगर अल्लाह जानता है। अल्लाह की राह में जो कुछ तुम ख़र्च करोगे उसका पूरा-पूरा बदल तुम्हारी तरफ़ पलटाया जाएगा और तुम्हारे साथ हरगिज़ ज़ुल्म न होगा।
21. मतलब यह है कि तुम्हारे पास सामाने-जंग और एक मुस्तक़िल फ़ौज हर वक़्त तैयार रहनी चाहिए ताकि बवक़्ते-ज़रूरत फौरन जंगी कार्रवाई कर सको। यह न हो कि ख़तरा सर पर आने के बाद घबराहट में जल्दी-जल्दी रज़ाकार और अस्लिहा और सामाने-रसद जमा करने की कोशिश करो और इस असना में कि यह तैयारी मुक़म्मल हो, दुश्मन अपना काम कर जाए।
إِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ غَرَّ هَٰٓؤُلَآءِ دِينُهُمۡۗ وَمَن يَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 43
(49) जबकि मुनाफ़िक़ीन और वे सब लोग जिनके दिलों को रोग लगा हुआ है, कह रहे थे कि इन लोगों को तो इनके दीन ने ख़ब्त में मुब्तला कर रखा है।17 हालाँकि अगर कोई अल्लाह पर भरोसा करे तो यक़ीनन अल्लाह बड़ा ज़बरदस्त और दाना है।
17. यानी मदीना के मुनाफ़िक़ीन और वे सब लोग जो दुनियापरस्ती और ख़ुदा से गफ़लत के मरज़ में गिरफ़्तार थे, यह देखकर कि मुसलमानों की मुट्ठीभर बे-सरो-सामान जमाअत क़ुरैश जैसी ज़बरदस्त ताक़त से टकराने के लिए जा रही है, आपस में कहते थे कि ये लोग अपने दीनी जोश में दीवाने हो गए है। इस मारिके में इनकी तबाही यक़ीनी है, मगर इस नबी ने कुछ ऐसा अफ़सूँ उनपर फूँक रखा है कि इनकी अक़्ल खब्त हो गई है और आँखों देखे ये मौत के मुँह में चले जा रहे हैं।
۞وَإِن جَنَحُواْ لِلسَّلۡمِ فَٱجۡنَحۡ لَهَا وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 44
(61) और (ऐ नबी!) अगर दुश्मन सुलह व सलामती की तरफ़ माइल हों तो तुम भी इसके लिए आमादा हो जाओ और अल्लाह पर भरोसा करो, यक़ीनन वही सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ يَتَوَفَّى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 45
(50) काश! तुम उस हालत को देख सकते जबकि फ़रिश्ते मक़तूल काफ़िरों की रूहें क़ब्ज़ कर रहे थे। वे उनके चेहरों और उनके कूल्हों पर ज़र्बें लगाते जाते थे और कहते जाते थे, “लो अब जलने की सज़ा भुगतो,
وَإِن يُرِيدُوٓاْ أَن يَخۡدَعُوكَ فَإِنَّ حَسۡبَكَ ٱللَّهُۚ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَيَّدَكَ بِنَصۡرِهِۦ وَبِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 46
(62) और अगर वे धोखे की नीयत रखते हों तो तुम्हारे लिए अल्लाह काफ़ी है। वही तो है जिसने अपनी मदद से और मोमिनों के ज़रिए से तुम्हारी ताईद की
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 47
(51) यह वह जज़ा है जिसका सामान तुम्हारे अपने हाथों ने पेशगी मुहैया कर रखा था, वरना अल्लाह तो अपने बन्दों पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं है।”
وَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡۚ لَوۡ أَنفَقۡتَ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مَّآ أَلَّفۡتَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ أَلَّفَ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّهُۥ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 48
(63) और मोमिनों के दिल एक-दूसरे से साथ जोड़ दिए। तुम रूए-ज़मीन की सारी दौलत भी ख़र्च कर डालते तो लोगों के दिल न जोड़ सकते थे, मगर वह अल्लाह है जिसने इन लोगों के दिल जोड़े, यक़ीनन वह बड़ा ज़बरदस्त और दाना है।
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 49
(52) यह मामला उनके साथ उसी तरह पेश आया जिस तरह आले-फ़िरऔन और उनसे पहले के दूसरे लोगों के साथ पेश आता रहा है कि उन्होंने अल्लाह की आयात को मानने से इनकार किया और अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया। अल्लाह कुव्वत रखता है और सख़्त सज़ा देनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَسۡبُكَ ٱللَّهُ وَمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 50
(64) ऐ नबी! तुम्हारे लिए और तुम्हारे पैरौ अहले-ईमान के लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ لَمۡ يَكُ مُغَيِّرٗا نِّعۡمَةً أَنۡعَمَهَا عَلَىٰ قَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 51
(53) यह अल्लाह की इस सुन्नत के मुताबिक़ हुआ कि वह किसी नेमत को, जो उसने किसी क़ौम को अता की हो, उस वक़्त तक नहीं बदलता जब तक कि वह क़ौम ख़ुद अपने तर्ज़े-अमल को नहीं बदल देती। अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَى ٱلۡقِتَالِۚ إِن يَكُن مِّنكُمۡ عِشۡرُونَ صَٰبِرُونَ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 52
(65) ऐ नबी! मोमिनों को जंग पर उभारो। अगर तुममें से बीस आदमी साबिर हों तो वे दो सौ पर ग़ालिब आएँगे और अगर सौ आदमी ऐसे हों तो मुनकिरीने-हक़ में से हज़ार आदमियों पर भारी रहेंगे क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ नहीं रखते।22
22. आजकल की इस्तिलाह में जिस चीज़ को क़ुव्वते-मानवी या क़ुव्वते-अख़लाक़ी (मोराल- Morale) कहते हैं, अल्लाह तआला ने उसी को फ़िक़्ह व फ़हम और समझ-बूझ से ताबीर किया है। जो शख़्स अपने मक़सद का सही शुऊर रखता हो और ठंडे दिल से ख़ूब सोच-समझकर इसलिए लड़ रहा हो कि जिस चीज़ के लिए वह जान की बाज़ी लगाने आया है वह उसकी इनफ़िरादी ज़िन्दगी से ज़्यादा क़ीमती है और उसके ज़ाया हो जाने के बाद जीना बेक़ीमत है, वह बेशुऊरी के साथ लड़नेवाले आदमी से कई गुनी ज़्यादा ताक़त रखता है। अगरचे जिस्मानी ताक़त में दोनों के दरमियान कोई फ़र्क़ न हो।
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَۚ وَكُلّٞ كَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 53
(54) आले-फ़िरऔन और उनसे पहले की क़ौमों के साथ जो कुछ पेश आया वह इसी ज़ाबते के मुताबिक़ था। उन्होंने अपने रब की आयात को झुठलाया तब हमने उनके गुनाहों की पादाश में उन्हें हलाक किया और आले-फ़िरऔन को ग़र्क़ कर दिया। ये सब ज़ालिम लोग थे।
ٱلۡـَٰٔنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمۡ ضَعۡفٗاۚ فَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ صَابِرَةٞ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُمۡ أَلۡفٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفَيۡنِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 54
(66) अच्छा! अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हलका किया और उसे मालूम हुआ कि अभी तुममें कमज़ोरी है, पस अगर तुम में से सौ आदमी साबिर हों तो वे दो सौ पर और हज़ार आदमी ऐसे हों तो दो हज़ार पर अल्लाह के हुक्म से ग़ालिब आएँग,23 और अल्लाह उन लोगों के साथ है जो सब्र करनेवाले हैं।
23. इसका यह मतलब नहीं है कि पहले एक और दस की निस्बत थी और अब चूँकि तुममें कमज़ोरी आ गई है इसलिए एक और दो की निस्बत क़ायम का दी गई है, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि उसूली और मेआरी हैसियत से तो अहले-ईमान और कुफ़्फ़ार के दरमियान एक और दस ही की निस्बत है, लेकिन चूँकि अभी तुम लोगों की अख़लाक़ी तरबियत मुकम्मल नहीं हुई है और अभी तक तुम्हारा शुऊर और तुम्हारी समझ-बूझ का पैमाना बुलूग़ की हद को नहीं पहुँचा है इसलिए सरे-दस्त बर-सबीले-तनज़्ज़ुल तुमसे यह मुतालबा किया जाता है कि अपने से दोगुनी ताक़त से टकराने में तो तुम्हें कोई ताम्मुल न होना चाहिए। ख़याल रहे कि यह इरशाद सन् 2 हिजरी का है जबकि मुसलमानों में बहुत-से लोग अभी ताज़ा-ताज़ा ही दाख़िले-इस्लाम हुए थे और उनकी तरबियत इबतिदाई हालत में थी।
إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 55
(55) यक़ीनन अल्लाह के नज़दीक ज़मीन पर चलनेवाली मख़लूक़ में सबसे बदतर वे लोग हैं जिन्होंने हक़ को मानने से इनकार कर दिया फिर किसी तरह वे उसे क़ुबूल करने पर तैयार नहीं हैं।
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُۥٓ أَسۡرَىٰ حَتَّىٰ يُثۡخِنَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ ٱلدُّنۡيَا وَٱللَّهُ يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 56
(67) किसी नबी के लिए यह ज़ेबा नहीं है कि उसके पास क़ैदी हों जब तक कि वह ज़मीन में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल न दे। तुम लोग दुनिया के फ़ायदे चाहते हो, हलाँकि अल्लाह के पेशे-नज़र आख़िरत है, और अल्लाह ग़ालिब और हकीम है।
ٱلَّذِينَ عَٰهَدتَّ مِنۡهُمۡ ثُمَّ يَنقُضُونَ عَهۡدَهُمۡ فِي كُلِّ مَرَّةٖ وَهُمۡ لَا يَتَّقُونَ ۝ 57
(56) (ख़ुसूसन) उनमें से वे लोग जिनके साथ तूने मुआहदा किया फिर वे हर मौक़े पर उसको तोड़ते हैं और ज़रा ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं करते।18
18. यहाँ ख़ास तौर पर इशारा है यहूद की तरफ़ जिनसे नबी (सल्ल०) का मुआहदा था और इसके बावजूद आप (सल्ल०) की और मुसलमानों की मुख़ालफ़त में सरगर्म थे। जंगे-बद्र के फ़ौरन बाद ही उन्होंने क़ुरैश को इन्तिक़ाम के लिए भड़काना शुरू कर दिया था।
لَّوۡلَا كِتَٰبٞ مِّنَ ٱللَّهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمۡ فِيمَآ أَخَذۡتُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 58
(68) अगर अल्लाह का नविश्ता पहले न लिखा जा चुका होता तो जो कुछ तुम लोगों ने लिया है उसकी पादाश में तुमको बड़ी सज़ा दी जाती।
فَإِمَّا تَثۡقَفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡحَرۡبِ فَشَرِّدۡ بِهِم مَّنۡ خَلۡفَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 59
(57) पस अगर ये लोग तुम्हें लड़ाई में मिल जाएँ तो इनकी ऐसी ख़बर लो कि इनके बाद दूसरे लोग हैं जो लोग ऐसी रविश इख़्तियार करनेवाले हों उनके हवास बाख़ता हो जाएँ।19 तवक़्क़ो है कि बद अह्दों के इस अंजाम से वे सबक़ लेंगे।
19. इसका मतलब यह है कि अगर किसी क़ौम से हमारा मुआहदा हो और फिर वह अपनी मुआहदाना ज़िम्मेदारियों को पसे-पुश्त डालकर हमारे ख़िलाफ़ किसी जंग में हिस्सा ले तो हम भी मुआहदे की अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों से सुबुकदोश हो जाएँगे और हमें हक़ होगा कि उससे जंग करें। नीज़ अगर किसी क़ौम से हमारी लड़ाई हो रही हो और हम देखें कि दुश्मन के साथ एक ऐसी क़ौम के अफ़राद भी शरीके-जंग है जिससे हमारा मुआहदा है, तो हम उनको क़त्ल करने और उनसे दुश्मन का-सा मामला करने में हरगिज़ कोई ताम्मुल न करेंगे।
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمۡتُمۡ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 60
(69) पस जो कुछ तुमने माल हासिल किया है उसे खओ कि वह हलाल और पाक है और अल्लाह से डरते रहो।24 यक़ीनन अल्लाह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
24. जंगे-बद्र से पहले सूरा-47 मुहम्मद में जंग के मुताल्लिक़ जो इब्तिदाई हिदायात दी गई थीं, उनमें जंगी क़ैदियों से फ़िदया वुसूल करने की इजाज़त तो दे दी गई थी लेकिन उसके साथ शर्त यह लगाई गई थी कि पहले दुश्मन की ताक़त को अच्छी तरह कुचल दिया जाए फिर क़ैदी पकड़ने की फ़िक्र की जाए। इस फ़रमान की रू से मुसलमानों ने बद्र में जो क़ैदी गिरफ़्तार किए और उसके बाद उनसे जो फ़िदया वुसूल किया वह था तो इजाज़त के मुताबिक़ मगर ग़लती यह हुई कि “दुश्मन की ताक़त को कुचल देने” की जो शर्त मुक़द्दम रखी गई थी उसको पूरा करने से पहले ही मुसलमान दुश्मनों को क़ैद करने और माले-ग़नीमत जमा करने में मशग़ूल हो गए। इसी बात को अल्लाह तआला ने नापसन्द फ़रमाया। क्योंकि अगर ऐसा न किया जाता और मुसलमान कुफ़्फ़ार का तआक़ुब करते तो उसी मौक़े पर क़ुरैश की ताक़त तोड़ दी जाती।
وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوۡمٍ خِيَانَةٗ فَٱنۢبِذۡ إِلَيۡهِمۡ عَلَىٰ سَوَآءٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 61
(58) और अगर कभी तुम्हें किसी क़ौम से ख़ियानत का अंदेशा हो तो उसके मुआहदे को अलानिया उसके आगे फेंक दो,20 यक़ीनन अल्लाह ख़ाइनों को पसन्द नहीं करता।
20. यानी उसे साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दो कि हमारा-तुम्हारा कोई मुआहदा बाक़ी नहीं है, क्योंकि तुम अह्द की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे हो।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَبَقُوٓاْۚ إِنَّهُمۡ لَا يُعۡجِزُونَ ۝ 62
(59) मुनकिरीने-हक़ इस ग़लतफ़हमी में न रहें कि वे बाज़ी ले गए, यक़ीनन वे हमको हरा नहीं सकते।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّمَن فِيٓ أَيۡدِيكُم مِّنَ ٱلۡأَسۡرَىٰٓ إِن يَعۡلَمِ ٱللَّهُ فِي قُلُوبِكُمۡ خَيۡرٗا يُؤۡتِكُمۡ خَيۡرٗا مِّمَّآ أُخِذَ مِنكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 63
(70) ऐ नबी! तुम लोगों के क़ब्ज़े में जो क़ैदी हैं उनसे कहो अगर अल्लाह को मालूम हुआ कि तुम्हारे दिलों में कुछ ख़ैर है तो वह तुम्हे इससे बढ़-चढ़कर देगा जो तुमसे लिया गया है और तुम्हारी ख़ताएँ माफ़ करेगा, अल्लाह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
وَإِن يُرِيدُواْ خِيَانَتَكَ فَقَدۡ خَانُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ فَأَمۡكَنَ مِنۡهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 64
(71) लेकिन अगर वे तेरे साथ ख़ियानत का इरादा रखते हैं तो इससे पहले वे अल्लाह के साथ ख़ियानत का चुके हैं, चुनाँचे उसी की सज़ा अल्लाह ने उन्हें दी कि वे तेरे क़ाबू में आ गए, अल्लाह सब कुछ जानता और हकीम है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يُهَاجِرُواْ مَا لَكُم مِّن وَلَٰيَتِهِم مِّن شَيۡءٍ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْۚ وَإِنِ ٱسۡتَنصَرُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ فَعَلَيۡكُمُ ٱلنَّصۡرُ إِلَّا عَلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 65
(72) जिन लोगों ने ईमान क़ुबूल किया और हिजरत की और अल्लाह की राह में अपनी जानें लड़ाईं और अपने माल खपाए, और जिन लोगों ने हिजरत करनेवालों को जगह दी और उनकी मदद की, वही दरअस्ल एक-दूसरे के वली हैं। रहे वे लोग जो ईमान तो ले आए मगर हिजरत करके (दारुल इस्लाम में) आ नहीं गए तो उनसे तुम्हारा विलायत का कोई ताल्लुक़ नहीं है। जब तक कि वे हिजरत करके न आ जाएँ।25 हाँ! अगर वे दीन के मामले में तुमसे मदद माँगें तो उनकी मदद करना तुमपर फ़र्ज़ है, लेकिन किसी ऐसी क़ौम के ख़िलाफ़ नहीं जिससे तुम्हारा मुआहदा हो।26 जो कुछ तुम करते हो। अल्लाह उसे देखता है,
25. विलायत का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में हिमायत, नुसरत, मददगारी, पुश्तीबानी, दोस्ती, क़राबत, सरपरस्ती और उससे मिलते-जुलते मफ़हूमात के लिए बोला जाता है। इस आयत के सियाक़ व सबाक़ में सरीह तौर पर इससे मुराद वह रिश्ता है जो एक रियासत का अपने शहरियों से, और शहरियों को अपनी रियासत से, और शहरियों के दरमियान आपस में होता है। पस यह आयत दस्तूरी व सियासी विलायत को इस्लामी रियासत के अरज़ी हुदूद तक महदूद का देती है, और इन हुदूद से बाहर के मुसलमानों को इस मख़सूस रिश्ते से ख़ारिज क़रार देती है। इस अदमे-विलायत के क़ानूनी नताइज बहुत वसीअ हैं जिनकी तफ़सीलात बयान करने का यहाँ मौक़ा नहीं है।
26. ऊपर के फ़िक़रे में दारुल-इस्लाम से बाहर रहनेवाले मुसलमानों को 'सियासी विलायत' के रिश्ते से ख़ारिज क़रार दिया गया था। अब यह आयत इस अम्र की तौज़ीह करती है कि इस रिश्ते से ख़ारिज होने के बावजूद वे 'दीनी उख़ूवत’ के रिश्ते से ख़ारिज नहीं हैं। अगर कहीं उनपर ज़ुल्म हो रहा हो और वे इस्लामी बिरादरी के ताल्लुक़ की बिना पर दारुल-इस्लाम की हुकूमत और उसके बाशिन्दों से मदद माँगें तो उनका फ़र्ज़ है कि अपने मज़लूम भाइयों की मदद करें। लेकिन इसके बाद मज़ीद तौज़ीह करते हुए फ़रमाया गया कि इन दीनी भाइयों की मदद का फ़रीज़ा अन्धा-धुंध अंजाम नहीं दिया जाएगा, बल्कि बैनल-अक़वामी ज़िम्मेदारियों और अख़लाक़ी हुदूद का पास व लिहाज़ रखते हुए अंजाम दिया जा सकेगा। अगर ज़ुल्म करनेवाली क़ौम से दारुल-इस्लाम के मुआहदाना ताल्लुक़ात हों तो इस सूरत में मज़लूम मुसलमानों की कोई ऐसी मदद नहीं की जा सकेगी जो मुआहदात की अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों के ख़िलाफ़ पड़ती हो।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٍۚ إِلَّا تَفۡعَلُوهُ تَكُن فِتۡنَةٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَفَسَادٞ كَبِيرٞ ۝ 66
(73) जो लोग मुनकिरीने-हक़ हैं वे एक-दूसरे की हिमायत करते हैं। अगर तुम यह न करोगे तो ज़मीन में फ़ितना और बड़ा फ़साद बरपा होगा।27
27. यानी अगर दारुल-इस्लाम के मुसलमान एक-दूसरे के 'वली' न बनें और अगर हिजरत करके दारुल-इस्लाम में न आनेवाले और दारुल-कुफ़्र में मुक़ीम रहनेवाले मुसलमानों को दारुल-इस्लाम के मुसलमान अपनी सियासी विलायत से ख़ारिज न समझें, और अगर बाहर के मज़लूम मुसलमानों के मदद माँगने पर उनकी मदद न की जाए, और अगर इसके साथ-साथ इस क़ायदे की पाबन्दी भी न की जाए कि जिस क़ौम से इस्लामी रियासत का मुआहदा हो उसके ख़िलाफ़ मुसलमानों की मदद नहीं की जाएगी, और अगर मुसलमान काफ़िरों से मवालात का ताल्लुक़ ख़त्म न करें, तो ज़मीन में फ़ितना और फ़सादे-अज़ीम बरपा होगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 67
(74) जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अल्लाह की राह में घर-बार छोड़े और जिद्दो-जुहद की और जिन्होंने पनाह दी और मदद की वही सच्चे मोमिन हैं। उनके लिए ख़ताओं से दरगुज़र है और बेहतरीन रिज़्क़ है,
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ مَعَكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ مِنكُمۡۚ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 68
(75) और जो लोग बाद में ईमान लाए और हिजरत करके आ गए और तुम्हारे साथ मिलकर जिद्दो-जहद करने लगे वे भी तुम ही में शामिल हैं। मगर अल्लाह की किताब में ख़ून के रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हकदार हैं,28 यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ को जानता है।
28. यानी विरासत इस्लामी बिरादरी की बिना पर नहीं, बल्कि रिश्तेदारी की बिना पर तक़सीम होगी। और इस हुक्म की तशरीह नबी (सल्ल०) का यह हुक्म करता है कि सिर्फ़ मुसलमान रिश्तेदार ही एक-दूसरे के वारिस होंगे। मुसलमान किसी काफ़िर या काफ़िर किसी मुसलमान का वारिस न होगा।
إِذۡ أَنتُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلۡقُصۡوَىٰ وَٱلرَّكۡبُ أَسۡفَلَ مِنكُمۡۚ وَلَوۡ تَوَاعَدتُّمۡ لَٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡمِيعَٰدِ وَلَٰكِن لِّيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗا لِّيَهۡلِكَ مَنۡ هَلَكَ عَنۢ بَيِّنَةٖ وَيَحۡيَىٰ مَنۡ حَيَّ عَنۢ بَيِّنَةٖۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَسَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 69
(42) याद करो वह वक़्त जब कि तुम वादी के इस जानिब थे और वे दूसरी जानिब पड़ाव डाले हुए थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे (साहिल) की तरफ़ था। अगर कहीं पहले से तुम्हारे और उनके दरमियान मुक़ाबले की क़रारदाद हो चुकी होती तो तुम ज़रूर इस मौक़े पर पहलू-तही कर जाते, लेकिन जो कुछ पेश आया, वह इसलिए था कि जिस बात का फ़ैसला अल्लाह कर चुका था उसे ज़ुहूर में ले आए ताकि जिसे हलाक होना है वह दलीले-रौशन के साथ हलाक हो और जिसे ज़िन्दा रहना है, वह दलीले-रौशन के साथ ज़िन्दा रहे। उसे यक़ीनन ख़ुदा सुनने और जाननेवाला है।
إِذۡ يُرِيكَهُمُ ٱللَّهُ فِي مَنَامِكَ قَلِيلٗاۖ وَلَوۡ أَرَىٰكَهُمۡ كَثِيرٗا لَّفَشِلۡتُمۡ وَلَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ سَلَّمَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 70
(43) और याद करो वह वक़्त जबकि (ऐ नबी!) ख़ुदा उनको तुम्हारे ख़ाब में थोड़ा दिखा रहा था।15 अगर कहीं वह तुम्हें उनकी तादाद ज़्यादा दिखा देता तो ज़रूर तुम लोग हिम्मत हार जाते और लड़ाई के मामले में झगड़ा शुरू कर देते, लेकिन अल्लाह ही ने इससे तुम्हें बचाया, यक़ीनन वह सीनों का हाल तक जानता है।
15. यह उस वक़्त की बात है जब नबी (सल्ल०) मुसलमानों को लेकर मदीना निकल रहे थे या रास्ते में किसी मंज़िल पर थे और यह मुतहक़्क़क़ न हुआ था कि कुफ़्फ़ार का लश्कर फ़िल-वाक़े कितना है। उस वक़्त हुज़ूर (सल्ल०) ने ख़ाब में उस लश्कर को देखा और जो मंज़र आप (सल्ल०) के सामने पेश किया गया, उससे आप (सल्ल०) ने अंदाज़ा लगाया कि दुश्मनों की तादाद कुछ बहुत ज़्यादा नहीं है।
وَإِذۡ يُرِيكُمُوهُمۡ إِذِ ٱلۡتَقَيۡتُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِكُمۡ قَلِيلٗا وَيُقَلِّلُكُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِهِمۡ لِيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗاۗ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 71
(44) और याद करो जबकि मुक़ाबले के वक़्त ख़ुदा ने तुम लोगों की निगाहों में दुश्मनों को थोड़ा दिखाया और उनकी निगाहों में तुम्हें कम करके पेश किया, ताकि जो बात होनी थी उसे अल्लाह ज़ुहूर में ले आए, और आख़िरकार सारे मामलात अल्लाह ही की तरफ़ रुजूअ होते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمۡ فِئَةٗ فَٱثۡبُتُواْ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 72
(45) लोगो, जो ईमान लाए हो! जब किसी गरोह से तुम्हारा मुक़ाबला हो तो साबित क़दम रहो और अल्लाह को कसरत से याद करो, तवक़्क़ो है कि तुम्हें कामयाबी नसीब होगी।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَنَٰزَعُواْ فَتَفۡشَلُواْ وَتَذۡهَبَ رِيحُكُمۡۖ وَٱصۡبِرُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 73
(46) और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो और आपस में झगड़ो नहीं, वरना तुम्हारे अन्दर कमज़ोरी पैदा हो जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। सब्र से काम लो,16 यक़ीनन अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।
16. यानी अपने जज़्बात व ख़ाहिशात को क़ाबू में रखो। जल्दबाज़ी, घबराहट, हिर्स, तमअ और नामुनासिब जोश से बचो। ठंडे दिल और जँची-तुली क़ुव्वते-फ़ैसला के साथ काम करो। ख़तरात और मुशकिलात सामने हों तो तुम्हारे क़दमों में लग़ज़िश न आए। इशतिआल-अंगेज़ मवाक़े पेश आएँ तो ग़ैज़ व गज़ब का हैजान तुमसे कोई बेमहल हरकत सरज़द न कराने पाए। मसाइब का हमला हो और हालात बिगड़ते नज़र आ रहे हों तो इज़तिराब में तुम्हारे हवास परागन्दा न हो जाएँ। हुसूले-मक़सद के शौक़ से बेक़रार होकर या किसी नीमपुख़्ता तदबीर को सरसरी नज़र में कारगर देखकर तुम्हारे इरादे शिताबकारी से मग़लूब न हों। और अगर कभी दुनियावी फ़वाइद व मनाफ़े और लज़्ज़ते-नफ़्स की तरग़ीबात तुम्हें अपनी तरफ़ लुभा रही हों तो उनके मुक़ाबले में भी तुम्हारा नफ़्स इस दर्जा कमज़ोर न हो कि बेइख़्तियार उसकी तरफ़ खिंच जाओ। यह तमाम मफ़हूमात सिर्फ़ एक लफ़्ज़ 'सब्र' में पोशीदा हैं, और अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जो लोग इन तमाम हैसियात से साबिर हों मेरी ताईद उन्हीं को हासिल है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بَطَرٗا وَرِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 74
(47) और उन लोगों के से रंग-ढंग न इख़्तियार करो जो अपने घरों से इतराते और लोगों को अपनी शान दिखाते हुए निकले और जिनकी रविश यह है कि अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं, जो कुछ वे कर रहे है वह अल्लाह की गिरिफ़्त से बाहर नहीं है।