(मदीना में उतरी – आयतें 129)
परिचय
नाम
यह सूरा दो नामों से मशहूर है। एक अत-तौबा, दूसरे अल-बराअत । तौबा इस दृष्टि से कि इसमें एक जगह कुछ ईमानवालों की ग़लतियों की माफ़ी का उल्लेख है और बराअत इस दृष्टि से कि इसके आरंभ में मुशरिकों (बहुदेववादियों) के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्ति पाने का एलान है
'बिस्मिल्लाह' न लिखने का कारण
इस सूरा के आरंभ में 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' नहीं लिखी जाती है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं नहीं लिखवाई थी।
उतरने का समय और सूरा के भाग
यह सूरा तीन व्याख्यानों पर सम्मिलित है-
पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 37 तक चलता है। इसके उतरने का समय ज़ी-क़ादा सन् 09 हि० या उसके लगभग है। नबी (सल्ल.) इस वर्ष हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को 'अमीरुल-हाज्ज' (हाजियों का अमीर) नियुक्त करके मक्का भेज चुके थे कि यह व्याख्यान उतरा और नबी (सल्ल०) ने तुरन्त हज़रत अली (रज़ि०) को उनके पीछे भेजा ताकि हज के अवसर पर तमाम अरब के प्रतिनिधि सम्मेलन में उसे सुनाएँ और उसके मुताबिक़ जो कार्य-नीति तय की गई थी, उसका एलान कर दें।
दूसरा व्याख्यान आयत 38 से आयत 22 तक चलता है और यह रजब सन् 09 हि० या इससे कुछ पहले उतरा, जबकि नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। इसमें ईमानवालों को जिहाद पर उकसाया गया है और मुनाफ़िक़ों और कमज़ोर ईमानवालों की कठोरता के साथ निन्दा की गई है।
तीसरा व्याख्यान आयत 73 से आरंभ होकर सूरा के साथ समाप्त होता है और यह तबूक की लड़ाई से वापसी पर उतरा। इसमें मुनाफ़िक़ों की हरकतों पर चेतावनी, तबूक की लड़ाई से पीछे रह जानेवालों पर डाँट-फटकार और उन सच्चे ईमानवालों पर निन्दा के साथ क्षमा करने का एलान है, जो अपने ईमान में सच्चे तो थे, परन्तु अल्लाह की राह के जिहाद में भाग लेने से रुके रह गए थे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिस घटनाक्रम से इस सूरा के विषयों का संबंध है, उसकी शुरुआत हुदैबिया के समझौते से होती है। हुदैबिया तक अरब के लगभग एक तिहाई भाग में इस्लाम एक संगठित समाज का दीन (धर्म) और एक पूर्ण सत्ताधिकार प्राप्त राज्य का धर्म बन गया था। हुदैबिया का जब समझौता हुआ तो इस धर्म को यह अवसर भी प्राप्त हो गया कि अपने प्रभावों को कुछ अधिक सुख-शान्ति के वातावरण में चारों ओर फैला सके। इसके बाद घटनाओं की गति ने दो बड़े रास्ते अपनाए जिसके आगे चलकर बड़े महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। इनमें से एक का सम्बन्ध अरब से था और दूसरे का रोमी साम्राज्य से।
अरब पर अधिकार प्राप्ति
अरब में हुदैबिया के बाद प्रचार-प्रसार और शक्ति को दृढ़ बनाने के जो उपाय किए गए उनके कारण दो साल के भीतर ही इस्लाम का प्रभावक्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि क़ुरैश के अधिक उत्साही तत्त्वों से रहा न गया और उन्होंने हुदैबिया के समझौते को तोड़ डाला। वे इस बंधन से मुक्त होकर इस्लाम से एक अन्तिम निर्णायक मुक़ाबला करना चाहते थे, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनके इस समझौते को भंग करने के बाद उनको संभलने का कोई अवसर न दिया और अचानक मक्का पर हमला करके रमज़ान सन् 08 हि० में उसे जीत लिया। इसके बाद पुरानी अज्ञानतापूर्ण व्यवस्था की अन्तिम ख़ूनी चाल हुनैन के मैदान में ली गई, लेकिन यह चाल भी विफल रही और हुनैन की पराजय के साथ अरब के भाग का पूर्ण निर्णय हो गया कि उसे अब 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनकर रहना है। इस घटना को हुए पूरा साल भी न हुआ कि अरब का बड़ा भाग इस्लाम के क्षेत्र में सम्मिलित हो गया।
तबूक की लड़ाई
रोमी साम्राज्य के साथ संघर्ष की शुरुआत मक्का-विजय से पहले ही हो चुकी थी। नबी (सल्ल०) ने हुदैबिया के बाद इस्लाम का सन्देश फैलाने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल अरब के विभिन्न भागों में भेजे थे, उनमें से एक उत्तर की ओर शाम (सीरिया) की सीमा से मिले [ईसाई] क़बीलों में [और एक बुसरा के ईसाई सरदार के पास भी गया था, लेकिन इन प्रतिनिधिमंडलों के अधिकतर आदमियों को क़त्ल कर दिया गया।] इन कारणों से नबी (सल्ल.) ने जुमादल-ऊला सन् 08 हि० में तीन हज़ार मुजाहिदीन की एक सेना शाम की सीमा की ओर भेजी, ताकि आगे के लिए यह क्षेत्र मुसलमानों के लिए शान्तिपूर्ण बन जाए। यह छोटी-सी सेना मौता नामी जगह पर शुरहबील की एक लाख सेना से जा टकराई। एक और 33 के इस मुक़ाबले में भी शत्रु मुसलमानों पर विजयी न हो सके। यही चीज़ थी जिसने शाम और उससे मिले क्षेत्रों में रहनेवाले अर्धस्वतंत्र अरबी क़बीलों को, बल्कि इराक़ के क़रीब रहनेवाले नज्दी कबीलों को भी जो किसरा के प्रभाव में थे, इस्लाम की ओर आकर्षित कर दिया और वे हज़ारों की संख्या में मुसलमान हो गए। दूसरे ही साल क़ैसर ने मुसलमानों को मौता की लड़ाई की सजा देने के लिए शाम की सीमा पर सैनिक तैयारियाँ शुरू कर दीं। नबी (सल्ल०) [को इसकी सूचना मिली तो] रजब सन् 09 हि० में तीस हज़ार मुजाहिदों के साथ शाम की ओर रवाना हो गए। तबूक पहुँचकर मालूम हुआ कि क़ैसर ने मुक़ाबले पर आने के बजाय अपनी सेनाएँ सीमा से हटा ली हैं। क़ैसर के यों टाल जाने से जो नैतिक विजय प्राप्त हुई उसको नबी (सल्ल०) ने इस मरहले पर काफ़ी समझा और बजाय इसके कि तबूक से आगे बढ़कर शाम की सीमा में प्रवेश करते, आपने इस बात को प्रमुखता दी कि इस विजय से अति संभव राजनैतिक व सामरिक लाभ प्राप्त कर लें। चुनांँचे आपने तबूक में 20 दिन ठहरकर उन बहुत-से छोटे-छोटे राज्यों को, जो रूमी साम्राज्य और 'दारुल इस्लाम' के बीच स्थित थे और अब तक रोमवासियों के प्रभाव में रहे थे, सैनिक दबाव से इस्लामी राज्य को लगान देनेवाला और अधीन बना लिया। फिर इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि रोमी साम्राज्य से एक लंबे संघर्ष में उलझ जाने से पहले इस्लाम को अरब पर अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने का पूरा अवसर मिल गया।
समस्याएँ और वार्ताएँ
इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने के बाद हम आसानी से उन बड़ी-बड़ी समस्याओं को समझ सकते हैं जो उस समय सामने थीं और जिन्हें सूरा तौबा में लिया गया है :
(1) अब चूँकि अरब का प्रबंध पूर्ण रूप से ईमानवालों के हाथ में आ गया था इसलिए वह नीति खुलकर सामने आ जानी चाहिए थी जो अरब को पूर्ण 'दारुल इस्लाम' बनाने के लिए अपनानी ज़रूरी थी। चुनांँचे वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की गई—
(अ) अरब से शिर्क (बहुदेववाद) को बिलकुल ही मिटा दिया जाए, ताकि इस्लाम का केन्द्र सदा के लिए विशुद्ध इस्लामी केन्द्र हो जाए। इसी उद्देश्य के लिए मुशरिकों (बहुदेववादियो) से छुटकारे और उनके साथ समझौतों के अन्त का एलान किया गया।
(ब) आदेश हुआ कि आगे काबा की देख-रेख भी तौहीद (एकेश्वरवाद) वालों के क़ब्ज़े में रहनी चाहिए और अल्लाह के घर की सीमाओं में शिर्क और अज्ञानता की तमाम रस्में भी बलपूर्वक बन्द कर देनी चाहिएँ, बल्कि अब मुशरिक इस घर के क़रीब फटकने भी न पाएँ ।
(इ) अरब के सांस्कृतिक जीवन में अज्ञानता की रस्मों की जो निशानियाँ अभी तक बाक़ी थीं, उनके उन्मूलन की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया। 'नसी' का नियम उन रस्मों में सबसे अधिक भौंडा नियम था इसलिए उसपर सीधे-सीधे चोट लगाई गई।
(2) अरब में इस्लाम का मिशन पूरा होने के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण जो सामने था, वह यह था कि अरब के बाहर सत्य-धर्म का प्रभाव क्षेत्र व्यापक बनाया जाए। इस सिलसिले में मुसलमानों को आदेश दिया गया कि अरब के बाहर जो लोग सत्य-धर्म का पालन करनेवाले नहीं हैं उनके स्वतंत्र प्रभुत्व को तलवार के बल पर समाप्त कर दो, यहाँ तक कि वह इस्लामी सत्ता के अधीन होकर रहना स्वीकार कर लें। जहाँ तक सत्य-धर्म पर ईमान लाने का संबंध है, उनको अधिकार है कि ईमान लाएँ या न लाएँ।
(3) तीसरी महत्त्वपूर्ण समस्या मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की थी जिनके साथ अब तक सामयिक निहितार्थ की दृष्टि से छोड़ देने और क्षमा कर देने का मामला किया जा रहा था अब आदेश दिया गया कि आगे उनके साथ कोई नर्मी न की जाए और वही कठोर बर्ताव इन छिपे हुए सत्य के इंकारियों के साथ भी हो जो खुले सत्य के इंकारियों के साथ होता है।
(4) सच्चे ईमानवालो में अब तक जो थोड़ी-बहुत इरादे की कमज़ोरी बाक़ी थी उसका इलाज भी अनिवार्य था। इसलिए जिन लोगों ने तबूक के अवसर पर सुस्ती और कमज़ोरी दिखाई थी उनकी घोर निन्दा की गई और आगे के लिए पूरी सफ़ाई के साथ यह बात स्पष्ट कर दी गई कि अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने की जिद्दोजुहद और कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम का संघर्ष ही वह असली कसौटी है, जिसपर ईमानवालों के ईमान का दावा परखा जाएगा।
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