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بَرَآءَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ

  1. अत-तौबा

(मदीना में उतरी – आयतें 129)

परिचय

नाम

यह सूरा दो नामों से मशहूर है। एक अत-तौबा, दूसरे अल-बराअत । तौबा इस दृष्टि से कि इसमें एक जगह कुछ ईमानवालों की ग़लतियों की माफ़ी का उल्लेख है और बराअत इस दृष्टि से कि इसके आरंभ में मुशरिकों (बहुदेववादियों) के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्ति पाने का एलान है

'बिस्मिल्लाह' न लिखने का कारण

इस सूरा के आरंभ में 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' नहीं लिखी जाती है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं नहीं लिखवाई थी।

उतरने का समय और सूरा के भाग

यह सूरा तीन व्याख्यानों पर सम्मिलित है-

पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 37 तक चलता है। इसके उतरने का समय ज़ी-क़ादा सन् 09 हि० या उसके लगभग है। नबी (सल्ल.) इस वर्ष हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को 'अमीरुल-हाज्ज' (हाजियों का अमीर) नियुक्त करके मक्का भेज चुके थे कि यह व्याख्यान उतरा और नबी (सल्ल०) ने तुरन्त हज़रत अली (रज़ि०) को उनके पीछे भेजा ताकि हज के अवसर पर तमाम अरब के प्रतिनिधि सम्मेलन में उसे सुनाएँ और उसके मुताबिक़ जो कार्य-नीति तय की गई थी, उसका एलान कर दें।

दूसरा व्याख्यान आयत 38 से आयत 22 तक चलता है और यह रजब सन् 09 हि० या इससे कुछ पहले उतरा, जबकि नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। इसमें ईमानवालों को जिहाद पर उकसाया गया है और मुनाफ़िक़ों और कमज़ोर ईमानवालों की कठोरता के साथ निन्दा की गई है।

तीसरा व्याख्यान आयत 73 से आरंभ होकर सूरा के साथ समाप्त होता है और यह तबूक की लड़ाई से वापसी पर उतरा। इसमें मुनाफ़िक़ों की हरकतों पर चेतावनी, तबूक की लड़ाई से पीछे रह जानेवालों पर डाँट-फटकार और उन सच्चे ईमानवालों पर निन्दा के साथ क्षमा करने का एलान है, जो अपने ईमान में सच्चे तो थे, परन्तु अल्लाह की राह के जिहाद में भाग लेने से रुके रह गए थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस घटनाक्रम से इस सूरा के विषयों का संबंध है, उसकी शुरुआत हुदैबिया के समझौते से होती है। हुदैबिया तक अरब के लगभग एक तिहाई भाग में इस्लाम एक संगठित समाज का दीन (धर्म) और एक पूर्ण सत्ताधिकार प्राप्त राज्य का धर्म बन गया था। हुदैबिया का जब समझौता हुआ तो इस धर्म को यह अवसर भी प्राप्त हो गया कि अपने प्रभावों को कुछ अधिक सुख-शान्ति के वातावरण में चारों ओर फैला सके। इसके बाद घटनाओं की गति ने दो बड़े रास्ते अपनाए जिसके आगे चलकर बड़े महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। इनमें से एक का सम्बन्ध अरब से था और दूसरे का रोमी साम्राज्य से।

अरब पर अधिकार प्राप्ति

अरब में हुदैबिया के बाद प्रचार-प्रसार और शक्ति को दृढ़ बनाने के जो उपाय किए गए उनके कारण दो साल के भीतर ही इस्लाम का प्रभावक्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि क़ुरैश के अधिक उत्साही तत्त्वों से रहा न गया और उन्होंने हुदैबिया के समझौते को तोड़ डाला। वे इस बंधन से मुक्त होकर इस्लाम से एक अन्तिम निर्णायक मुक़ाबला करना चाहते थे, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनके इस समझौते को भंग करने के बाद उनको संभलने का कोई अवसर न दिया और अचानक मक्का पर हमला करके रमज़ान सन् 08 हि० में उसे जीत लिया। इसके बाद पुरानी अज्ञानतापूर्ण व्यवस्था की अन्तिम ख़ूनी चाल हुनैन के मैदान में ली गई, लेकिन यह चाल भी विफल रही और हुनैन की पराजय के साथ अरब के भाग का पूर्ण निर्णय हो गया कि उसे अब 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनकर रहना है। इस घटना को हुए पूरा साल भी न हुआ कि अरब का बड़ा भाग इस्लाम के क्षेत्र में सम्मिलित हो गया।

तबूक की लड़ाई

रोमी साम्राज्य के साथ संघर्ष की शुरुआत मक्का-विजय से पहले ही हो चुकी थी। नबी (सल्ल०) ने हुदैबिया के बाद इस्लाम का सन्देश फैलाने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल अरब के विभिन्न भागों में भेजे थे, उनमें से एक उत्तर की ओर शाम (सीरिया) की सीमा से मिले [ईसाई] क़बीलों में [और एक बुसरा के ईसाई सरदार के पास भी गया था, लेकिन इन प्रतिनिधिमंडलों के अधिकतर आदमियों को क़त्ल कर दिया गया।] इन कारणों से नबी (सल्ल.) ने जुमादल-ऊला सन् 08 हि० में तीन हज़ार मुजाहिदीन की एक सेना शाम की सीमा की ओर भेजी, ताकि आगे के लिए यह क्षेत्र मुसलमानों के लिए शान्तिपूर्ण बन जाए। यह छोटी-सी सेना मौता नामी जगह पर शुरहबील की एक लाख सेना से जा टकराई। एक और 33 के इस मुक़ाबले में भी शत्रु मुसलमानों पर विजयी न हो सके। यही चीज़ थी जिसने शाम और उससे मिले क्षेत्रों में रहनेवाले अर्धस्वतंत्र अरबी क़बीलों को, बल्कि इराक़ के क़रीब रहनेवाले नज्दी कबीलों को भी जो किसरा के प्रभाव में थे, इस्लाम की ओर आकर्षित कर दिया और वे हज़ारों की संख्या में मुसलमान हो गए। दूसरे ही साल क़ैसर ने मुसलमानों को मौता की लड़ाई की सजा देने के लिए शाम की सीमा पर सैनिक तैयारियाँ शुरू कर दीं। नबी (सल्ल०) [को इसकी सूचना मिली तो] रजब सन् 09 हि० में तीस हज़ार मुजाहिदों के साथ शाम की ओर रवाना हो गए। तबूक पहुँचकर मालूम हुआ कि क़ैसर ने मुक़ाबले पर आने के बजाय अपनी सेनाएँ सीमा से हटा ली हैं। क़ैसर के यों टाल जाने से जो नैतिक विजय प्राप्त हुई उसको नबी (सल्ल०) ने इस मरहले पर काफ़ी समझा और बजाय इसके कि तबूक से आगे बढ़कर शाम की सीमा में प्रवेश करते, आपने इस बात को प्रमुखता दी कि इस विजय से अति संभव राजनैतिक व सामरिक लाभ प्राप्त कर लें। चुनांँचे आपने तबूक में 20 दिन ठहरकर उन बहुत-से छोटे-छोटे राज्यों को, जो रूमी साम्राज्य और 'दारुल इस्लाम' के बीच स्थित थे और अब तक रोमवासियों के प्रभाव में रहे थे, सैनिक दबाव से इस्लामी राज्य को लगान देनेवाला और अधीन बना लिया। फिर इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि रोमी साम्राज्य से एक लंबे संघर्ष में उलझ जाने से पहले इस्लाम को अरब पर अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने का पूरा अवसर मिल गया।

समस्याएँ और वार्ताएँ

इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने के बाद हम आसानी से उन बड़ी-बड़ी समस्याओं को समझ सकते हैं जो उस समय सामने थीं और जिन्हें सूरा तौबा में लिया गया है :

(1) अब चूँकि अरब का प्रबंध पूर्ण रूप से ईमानवालों के हाथ में आ गया था इसलिए वह नीति खुलकर सामने आ जानी चाहिए थी जो अरब को पूर्ण 'दारुल इस्लाम' बनाने के लिए अपनानी ज़रूरी थी। चुनांँचे वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की गई—

(अ) अरब से शिर्क (बहुदेववाद) को बिलकुल ही मिटा दिया जाए, ताकि इस्लाम का केन्द्र सदा के लिए विशुद्ध इस्लामी केन्द्र हो जाए। इसी उद्देश्य के लिए मुशरिकों (बहुदेववादियो) से छुटकारे और उनके साथ समझौतों के अन्त का एलान किया गया।

(ब) आदेश हुआ कि आगे काबा की देख-रेख भी तौहीद (एकेश्वरवाद) वालों के क़ब्ज़े में रहनी चाहिए और अल्लाह के घर की सीमाओं में शिर्क और अज्ञानता की तमाम रस्में भी बलपूर्वक बन्द कर देनी चाहिएँ, बल्कि अब मुशरिक इस घर के क़रीब फटकने भी न पाएँ ।

(इ) अरब के सांस्कृतिक जीवन में अज्ञानता की रस्मों की जो निशानियाँ अभी तक बाक़ी थीं, उनके उन्मूलन की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया। 'नसी' का नियम उन रस्मों में सबसे अधिक भौंडा नियम था इसलिए उसपर सीधे-सीधे चोट लगाई गई।

(2) अरब में इस्लाम का मिशन पूरा होने के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण जो सामने था, वह यह था कि अरब के बाहर सत्य-धर्म का प्रभाव क्षेत्र व्यापक बनाया जाए। इस सिलसिले में मुसलमानों को आदेश दिया गया कि अरब के बाहर जो लोग सत्य-धर्म का पालन करनेवाले नहीं हैं उनके स्वतंत्र प्रभुत्व को तलवार के बल पर समाप्त कर दो, यहाँ तक कि वह इस्लामी सत्ता के अधीन होकर रहना स्वीकार कर लें। जहाँ तक सत्य-धर्म पर ईमान लाने का संबंध है, उनको अधिकार है कि ईमान लाएँ या न लाएँ।

(3) तीसरी महत्त्वपूर्ण समस्या मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की थी जिनके साथ अब तक सामयिक निहितार्थ की दृष्टि से छोड़ देने और क्षमा कर देने का मामला किया जा रहा था अब आदेश दिया गया कि आगे उनके साथ कोई नर्मी न की जाए और वही कठोर बर्ताव इन छिपे हुए सत्य के इंकारियों के साथ भी हो जो खुले सत्य के इंकारियों के साथ होता है।

(4) सच्चे ईमानवालो में अब तक जो थोड़ी-बहुत इरादे की कमज़ोरी बाक़ी थी उसका इलाज भी अनिवार्य था। इसलिए जिन लोगों ने तबूक के अवसर पर सुस्ती और कमज़ोरी दिखाई थी उनकी घोर निन्दा की गई और आगे के लिए पूरी सफ़ाई के साथ यह बात स्पष्ट कर दी गई कि अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने की जिद्दोजुहद और कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम का संघर्ष ही वह असली कसौटी है, जिसपर ईमानवालों के ईमान का दावा परखा जाएगा।

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بَرَآءَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ
(1) एलाने-बराअत है1अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से उन मुशरिकीन को जिनसे तुमने मुआहदे किए थे।2
1. ये आयात रुकूअ 5 के आख़िर तक सन् 9 हिजरी में उस वक़्त नाज़िल हुई थीं जब नबी (सल्ल०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को हज के लिए रवाना कर चुके थे। उनके पीछे जब ये आयात नाज़िल हुईं तो हुज़ूर (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०) को भेजा ताकि हाजियों के मजमा-ए-आम में उन्हें सुनाएँ और फिर हस्बे-ज़ैल चार बातों का एलान कर दें— (1) जन्नत में कोई ऐसा शख़्स दाख़िल न होगा जो दीने-इस्लाम को क़ुबूल करने से इनकार करे। (2) इस साल के बाद कोई मुशरिक हज के लिए न आए, (3) बैतुल्लाह के गिर्द बरहना तवाफ़ करना ममनूअ है। (4) जिन लोगों के साथ रसूलुल्लाह (सल्ल०) का मुआहदा बाक़ी है, यानी जो नक्ज़े-अह्द के मुर्तकिब नहीं हुए हैं उनके साथ मुद्दते-मुआहदा तक वफ़ा की जाएगी। हुज़ूर (सल्ल०) की इस हिदायत के मुताबिक़ हज़रत अली (रज़ि०) ने यह एलान 10 ज़िल-हिज्जा को किया।
2. सूरा-8 अनफ़ाल, आयत 58 में गुज़र चुका है कि जब तुम्हें किसी क़ौम से ख़ियानत (नक़्ज़े-अह्द और ग़द्दारी) का अंदेशा हो तो अलल-एलान उसका मुआहदा उसकी तरफ़ फेंक दो और उसे ख़बरदार कर दो कि अब हमारा-तुम्हारा कोई मुआहदा बाक़ी नहीं है। इसी ज़ाबता-ए-अख़लाक़ के मुताबिक़ मुआहदात की मंसूख़ी का ये एलाने-आम उन तमाम क़बाइल के ख़िलाफ़ किया गया जो अह्द व पैमान के बावजूद हमेशा इस्लाम के ख़िलाफ़ साज़िशें करते रहे थे, और मौक़ा पाते ही पासे-अह्द को बाला-ए-ताक़ रखकर दुश्मनी पर उतर आते थे। इस एलान के बाद मुशरिकीने-अरब के लिए इसके सिवा कोई चारा बाक़ी न रहा कि या तो लड़ने पर तैयार हो जाएँ और इस्लामी ताक़त से टकराकर सफ़हए-हस्ती से मिट जाएँ या मुल्क छोड़कर निकल जाएँ, या फिर इस्लाम क़ुबूल करके अपने-आपको और अपने इलाक़े को उस नज़्म व ज़ब्त की गिरिफ़्त में दे दें जो मुल्क के बेशतर हिस्से को पहले ही इस्लामी हुकूमत का ताबे कर चुका था।
فَسِيحُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ غَيۡرُ مُعۡجِزِي ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُخۡزِي ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 1
(2) पस तुम लोग मुल्क में चार महीने और चल-फिर लो और जान रखो कि तुम अल्लाह को आजिज़ करनेवाले नहीं हो, और यह कि अल्लाह मुनकिरीने-हक़ को रुसवा करनेवाला है।
وَأَذَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلنَّاسِ يَوۡمَ ٱلۡحَجِّ ٱلۡأَكۡبَرِ أَنَّ ٱللَّهَ بَرِيٓءٞ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ وَرَسُولُهُۥۚ فَإِن تُبۡتُمۡ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ غَيۡرُ مُعۡجِزِي ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 2
(3) इत्तिला-ए-आम है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से हज्जे-अकबर के दिन3 तमाम लोगों के लिए कि अल्लाह मुशरिकीन से बरीउज़-ज़िम्मा है और उसका रसूल भी। अब अगर तुम लोग तौबा कर लो तो तुम्हारे ही लिए बेहतर है, और जो मुँह फेरते हो तो ख़ूब समझ लो कि तुम अल्लाह को आजिज़ करनेवाले नहीं हो। और ऐ (नबी!) इनकार करनेवालों को सख़्त अज़ाब की ख़ुशख़बरी सुना दो,
إِلَّا ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ثُمَّ لَمۡ يَنقُصُوكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَمۡ يُظَٰهِرُواْ عَلَيۡكُمۡ أَحَدٗا فَأَتِمُّوٓاْ إِلَيۡهِمۡ عَهۡدَهُمۡ إِلَىٰ مُدَّتِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 3
(4) बजुज़ उन मुशरिकीन के जिनसे मुआहदे किए, फिर उन्होंने अपने अह्द को पूरा करने में तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे ख़िलाफ़ किसी की मदद की, तो ऐसे लोगों के साथ तुम भी मुद्दते-मुआहदा तक वफ़ा करो क्योंकि अल्लाह मुत्तक़ियों को पसन्द करता है।
3. ‘हज्जे-अकबर' का लफ़्ज़ हज्जे-असग़र के मुक़ाबले में है। अहले-अरब उमरे को छोटा हज कहते थे। उसके मुक़ाबले में जो हज ज़िल-हिज्जा की मुक़र्ररा तारीख़ों में होता है, हज्जे-अकबर कहलाता है।
فَإِذَا ٱنسَلَخَ ٱلۡأَشۡهُرُ ٱلۡحُرُمُ فَٱقۡتُلُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ حَيۡثُ وَجَدتُّمُوهُمۡ وَخُذُوهُمۡ وَٱحۡصُرُوهُمۡ وَٱقۡعُدُواْ لَهُمۡ كُلَّ مَرۡصَدٖۚ فَإِن تَابُواْ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ فَخَلُّواْ سَبِيلَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) पस जब हराम महीने4 गुज़र जाएँ तो मुशरिकीन को क़त्ल करो जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो और हर घात में उनकी ख़बर लेने के लिए बैठो। फिर अगर वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो उन्हें छोड़ दो।5 अल्लाह दरगुज़र फ़रमानेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
4. यहाँ 'हराम महीनों’ से मुराद वे चार महीने हैं जिनकी मुशरिकीन को मुहलत दी गई थी, चूँकि इस मुहलत के ज़माने में मुसलमानों के लिए जाइज़ न था कि मुशरिकीन पर हमलाआवर हो जाते इसलिए उन्हें हराम महीने फ़रमाया गया है।
5. यानी मह्ज़ कुफ़्र व शिर्क से तौबा कर लेने पर मामला ख़त्म नहीं हो जाएगा, बल्कि उन्हें नमाज़ क़ायम करनी और ज़कात देनी होगी वरना यह नहीं माना। जाएगा कि उन्होंने कुफ़्र छोड़कर इस्लाम इख़्तियार कर लिया है।
سُورَةُ التَّوۡبَةِ
9. सूरा अत-तौबा
وَإِنۡ أَحَدٞ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ٱسۡتَجَارَكَ فَأَجِرۡهُ حَتَّىٰ يَسۡمَعَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ أَبۡلِغۡهُ مَأۡمَنَهُۥۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 5
(6) और अगर मुशरिकीन में से कोई शख़्स पनाह माँगकर तुम्हारे पास आना चाहे (ताकि अल्लाह का कलाम सुने) तो उसे पनाह दे दो, कि वह अल्लाह का कलाम सुन ले। फिर उसे उसके मामन तक पहुँचा दो। यह इसलिए करना चाहिए कि ये लोग इल्म नहीं रखते।
كَيۡفَ يَكُونُ لِلۡمُشۡرِكِينَ عَهۡدٌ عِندَ ٱللَّهِ وَعِندَ رَسُولِهِۦٓ إِلَّا ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّمۡ عِندَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۖ فَمَا ٱسۡتَقَٰمُواْ لَكُمۡ فَٱسۡتَقِيمُواْ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 6
(7) इन मुशरिकीन के लिए अल्लाह और उसके रसूल के नज़दीक कोई अह्द आख़िर कैसे हो सकता है? बजुज़ उन लोगों के जिनसे तुमने मस्जिदे-हराम के पास मुआहदा किया था,6 तो जब तक वे तुम्हारे साथ सीधे रहें, तुम भी उनके साथ सीधे रहो क्योंकि अल्लाह मुत्तक़ियों को पसन्द करता है।
6. यानी बनी-किनाना और बनी-ख़ुज़ाआ और बनी-ज़मरा।
كَيۡفَ وَإِن يَظۡهَرُواْ عَلَيۡكُمۡ لَا يَرۡقُبُواْ فِيكُمۡ إِلّٗا وَلَا ذِمَّةٗۚ يُرۡضُونَكُم بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَتَأۡبَىٰ قُلُوبُهُمۡ وَأَكۡثَرُهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 7
(8) — मगर उनके सिवा दूसरे मुशरिकीन के साथ कोई अह्द कैसे हो सकता है जबकि उनका हाल यह है कि तुमपर क़ाबू पा जाएँ तो न तुम्हारे मामले में किसी क़राबत का लिहाज़ करें, न किसी मुआहदे की ज़िम्मेदारी का? वे अपनी ज़बानों से तुमको राज़ी करने की कोशिश करते हैं मगर दिल उनके इनकार करते हैं, और उनमें से अकसर फ़ासिक़ हैं।
فَإِن تَابُواْ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِۗ وَنُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 8
(11) पस अगर ये तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो तुम्हारे दीनी भाई हैं,7 और जाननेवालों के लिए हम अपने अहकाम वाज़ेह किए देते हैं।
7. यानी नमाज़ और ज़कात के बग़ैर मह्ज़ तौबा कर लेने से वे तुम्हारे दीनी भाई नहीं बन जाएँगे। अलबत्ता अगर वे यह शर्त पूरी कर दें तो इसका नतीजा सिर्फ़ यही न होगा कि तुम्हारे लिए उनपर हाथ उठाना और उनके जान व माल से तअर्रुज़ करना हराम हो जाएगा, बल्कि मजीद बर आँ इसका फ़ायदा यह होगा कि इस्लामी मुआशरे में उनको बराबर के हुक़ूक़ हासिल हो जाएँगे। मुआशरती, तमद्दुनी और क़ानूनी हैसियत से वे तमाम दूसरे मुसलमानों की तरह होंगे, कोई फ़र्क़ व इमतियाज़ उनकी तरक़्क़ी की राह में हाइल न होगा।
ٱشۡتَرَوۡاْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلٗا فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 9
(9) उन्होंने अल्लाह की आयात के बदले थोड़ी-सी क़ीमत क़ुबूल कर ली, फिर अल्लाह के रास्ते में सद्दे-राह बनकर खड़े हो गए। बहुत बुरे करतूत थे जो ये करते रहे।
وَإِن نَّكَثُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُم مِّنۢ بَعۡدِ عَهۡدِهِمۡ وَطَعَنُواْ فِي دِينِكُمۡ فَقَٰتِلُوٓاْ أَئِمَّةَ ٱلۡكُفۡرِ إِنَّهُمۡ لَآ أَيۡمَٰنَ لَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَنتَهُونَ ۝ 10
(12) और अह्द करने के बाद ये फिर अपनी क़समों को तोड़ डालें और तुम्हारे दीन पर हमले करने शुरू कर दें तो कुफ़्र के अलमबरदारों से जंग करो क्योंकि उनकी क़समों का कोई एतिबार नहीं। शायद कि (फिर तलवार ही के ज़ोर से) वे बाज़ आएँगे।8
8. यहाँ अह्द करने और क़समें खाने से मुराद मुसलमान होने का अह्द करना और इस्लाम की वफ़ादारी की क़समें खाना है। मतलब यह है कि ये लोग मुसलमान हो जाने के बाद फिर कुफ़्र की तरफ़ पलट जाएँ तो इनसे जंग की जाए। इसी हुक्म के मुताबिक़ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने मुर्तदीन के ख़िलाफ़ जंग की थी।
لَا يَرۡقُبُونَ فِي مُؤۡمِنٍ إِلّٗا وَلَا ذِمَّةٗۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُعۡتَدُونَ ۝ 11
(10) किसी मोमिन के मामले में न ये क़राबत का लिहाज़ करते हैं और न किसी अह्द की ज़िम्मेदारी का। और ज़्यादती हमेशा इन्हीं की तरफ़ से हुई है।
أَلَا تُقَٰتِلُونَ قَوۡمٗا نَّكَثُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ وَهَمُّواْ بِإِخۡرَاجِ ٱلرَّسُولِ وَهُم بَدَءُوكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٍۚ أَتَخۡشَوۡنَهُمۡۚ فَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَوۡهُ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 12
(13) क्या तुम न लड़ोगे ऐसे लोगों से जो अपने अह्द तोड़ते हैं और जिन्होंने रसूल को मुल्क से निकाल देने का क़स्द किया था और ज़्यादती की इब्तिदा करनेवाले वही थे? क्या तुम उनसे डरते हो? अगर तुम मोमिन हो तो अल्लाह इसका ज़्यादा मुस्तहिक़ है कि उससे डरो।
قَٰتِلُوهُمۡ يُعَذِّبۡهُمُ ٱللَّهُ بِأَيۡدِيكُمۡ وَيُخۡزِهِمۡ وَيَنصُرۡكُمۡ عَلَيۡهِمۡ وَيَشۡفِ صُدُورَ قَوۡمٖ مُّؤۡمِنِينَ ۝ 13
(14) उनसे लड़ो, अल्लाह तुम्हारे हाथों उनको सजा दिलवाएगा और उन्हें ज़लील व ख़ार करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी मदद करेगा और बहुत-से मोमिनों के दिल ठंडे करेगा
وَيُذۡهِبۡ غَيۡظَ قُلُوبِهِمۡۗ وَيَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 14
(15) और उनके क़ुलूब की जलन मिटा देगा, और जिसे चाहेगा तौबा की तौफ़ीक़ भी देगा।9 अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और दाना है।
9. मुसलमान डर रहे थे कि यह एलान होते ही तमाम अतराफ़े-अरब में आग भड़क उठेगी और हमें एक बड़ी ख़ूरेज़ जंग से साबिक़ा पेश आएगा। अल्लाह तआला ने आयात में इत्मीनान दिलाया कि तुम्हारा यह अंदेशा ग़लत है, नतीजा इसके बर-अक्स होगा।
قُلۡ إِن كَانَ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ وَإِخۡوَٰنُكُمۡ وَأَزۡوَٰجُكُمۡ وَعَشِيرَتُكُمۡ وَأَمۡوَٰلٌ ٱقۡتَرَفۡتُمُوهَا وَتِجَٰرَةٞ تَخۡشَوۡنَ كَسَادَهَا وَمَسَٰكِنُ تَرۡضَوۡنَهَآ أَحَبَّ إِلَيۡكُم مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَجِهَادٖ فِي سَبِيلِهِۦ فَتَرَبَّصُواْ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ ٱللَّهُ بِأَمۡرِهِۦۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 15
(24) (ऐ नबी!) कह दो कि अगर तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी बीवियाँ और तुम्हारे अज़ीज़ व अक़ारिब और तुम्हारे वे माल जो तुमने कमाए हैं और तुम्हारे वे कारोबार जिसके माँद पड़ जाने का तुमको ख़ौफ़ है और तुम्हारे वे घर जो तुमको पसन्द हैं, तुमको अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में जिहाद से अज़ीज़तर हैं तो इन्तिज़ार करो यहाँ तक कि अल्लाह अपना फ़ैसला तुम्हारे सामने ले आए, और अल्लाह फ़ासिक़ लोगों की रहनुमाई नहीं किया करता।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تُتۡرَكُواْ وَلَمَّا يَعۡلَمِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ مِنكُمۡ وَلَمۡ يَتَّخِذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَا رَسُولِهِۦ وَلَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَلِيجَةٗۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 16
(16) क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यूँ ही छोड़ दिए जाओगे, हालाँकि अभी अल्लाह ने यह तो देखा ही नहीं कि तुममें से कौन वे लोग हैं जिन्होंने (उसकी राह में) जाँफ़िशानी की और अल्लाह और रसूल और मोमिनीन के सिवा किसी को जिगरी दोस्त न बनाया, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है।
لَقَدۡ نَصَرَكُمُ ٱللَّهُ فِي مَوَاطِنَ كَثِيرَةٖ وَيَوۡمَ حُنَيۡنٍ إِذۡ أَعۡجَبَتۡكُمۡ كَثۡرَتُكُمۡ فَلَمۡ تُغۡنِ عَنكُمۡ شَيۡـٔٗا وَضَاقَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ ثُمَّ وَلَّيۡتُم مُّدۡبِرِينَ ۝ 17
(25) अल्लाह इससे पहले बहुत-से मवाक़े पर तुम्हारी मदद कर चुका है। अभी ग़ज़वा-ए-हुनैन के रोज़ (उसकी दस्तगीरी की शान तुम देख चुके हो)।11 उस रोज़ तुम्हें अपनी कसरते-तादाद का ग़र्रा था। मगर वह तुम्हारे कुछ काम न आई और ज़मीन अपनी वुसअत के बावजूद तुमपर तंग हो गई और तुम पीठ फेरकर भाग निकले।
11. ग़ज़वा-ए-हुनैन शव्वाल सन् 8 हिजरी में इन आयात के नुज़ूल से सिर्फ़ बारह-तेरह महीने पहले मक्का और ताइफ़ के दरमियान वादी-ए-हुनैन में पेश आया था। इस ग़ज़्वे में मुसलमानों की तरफ़ से 12 हज़ार फ़ौज थी और दूसरी तरफ़ कुफ़्फ़ार उनसे बहुत कम थे। लेकिन इसके बावजूद क़बीला-ए-हवाज़िन के तीरंदाज़ों ने मुसलमानों का मुँह फेर दिया और लश्करे-इस्लाम बुरी तरह तितर-बितर होकर पसपा हुआ। उस वक़्त सिर्फ़ नबी (सल्ल०) और मुट्ठीभर जाँबाज़ सहाबा जिनके क़दम अपनी जगह जमे रहे और उन्हीं की साबित-क़दमी का नतीजा था कि दोबारा फ़ौज की तरतीब क़ायम हो सकी और बिल-आख़िर फ़त्‌ह मुसलमानों के हाथ रही। वरना फ़त्‌हे-मक्का से जो कुछ हासिल हुआ था उससे बहुत ज़्यादा हुनैन में खो देना पड़ता।
مَا كَانَ لِلۡمُشۡرِكِينَ أَن يَعۡمُرُواْ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ شَٰهِدِينَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِم بِٱلۡكُفۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ وَفِي ٱلنَّارِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 18
(17) मुशरिकीन का यह काम नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिदों के मुजाविर व ख़ादिम बनें दरआँ-हाले कि अपने ऊपर वे ख़ुद कुफ़्र की शहादत दे रहे हैं। उनके तो सारे आमाल ज़ाया हो गए और जहन्नम में उन्हें हमेशा रहना है।
إِنَّمَا يَعۡمُرُ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَأَقَامَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَى ٱلزَّكَوٰةَ وَلَمۡ يَخۡشَ إِلَّا ٱللَّهَۖ فَعَسَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ أَن يَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 19
(18) अल्लाह की मस्जिदों के आबादकार (मुजाविर व ख़ादिम) तो वही लोग हो सकते हैं जो अल्लाह और रोज़े-आख़िर को मानें, और नमाज़ क़ायम करें, ज़कात दें, और अल्लाह के सिवा किसी से न डरें। उन्हीं से यह तवक़्क़ो है कि सीधी राह चलेंगे।
ثُمَّ أَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَنزَلَ جُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَا وَعَذَّبَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 20
(26) फिर अल्लाह ने अपनी 'सकीनत' अपने रसूल पर और मोमिनीन पर नाज़िल फ़रमाई और वे लश्कर उतारे जो नज़र न आते थे और मुनकिरीने-हक़ को सज़ा दी कि यही बदला है उन लोगों के लिए जो हक़ का इनकार करें।
ثُمَّ يَتُوبُ ٱللَّهُ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 21
(27) फिर (तुम यह भी देख चुके हो कि) इस तरह सज़ा देने के बाद अल्लाह जिसको चाहता है तौबा की तौफ़ीक़ भी बख़्श देता है,12 अल्लाह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
12. इशारा है इस बात की तरफ़ कि ग़ज़वा-ए-हुनैन में जिन कुफ़्फ़ार ने शिकस्त खाई थी वे सब बाद में मुसलमान हो गए।
۞أَجَعَلۡتُمۡ سِقَايَةَ ٱلۡحَآجِّ وَعِمَارَةَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ كَمَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَجَٰهَدَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ لَا يَسۡتَوُۥنَ عِندَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 22
(19) क्या तुम लोगों ने हाजियों को पानी पिलाने और मस्जिदे-हराम की मुजाविरी करने को उस शख़्स के काम के बराबर ठहरा लिया है जो ईमान लाया अल्लाह पर और रोज़े-आख़िर पर और जिसने जाँफ़िशानी की अल्लाह की राह में?10 अल्लाह के नज़दीक तो ये दोनों बराबर नहीं हैं और अल्लाह ज़ालिमों की रहनुमाई नहीं करता।
10. इस इरशाद से यह फ़ैसला कर दिया गया है कि बैतुल्लाह की तौलियत अब मुशरिकीन के पास नहीं रह सकती। मुशरिकीने-क़ुरैश सिर्फ़ इस बिना पर इसके मुस्तहिक़ नहीं हो सकते कि वे हाजियों की ख़िदमत करते रहे हैं।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ أَعۡظَمُ دَرَجَةً عِندَ ٱللَّهِۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 23
(20) अल्लाह के यहाँ तो उन्हीं लोगों का दरजा बड़ा है जो ईमान लाए और जिन्होंने उसकी राह में घर-बार छोड़े और जान व माल से जिहाद किया, वही कामयाब हैं।
يُبَشِّرُهُمۡ رَبُّهُم بِرَحۡمَةٖ مِّنۡهُ وَرِضۡوَٰنٖ وَجَنَّٰتٖ لَّهُمۡ فِيهَا نَعِيمٞ مُّقِيمٌ ۝ 24
(21) उनका रब उन्हें अपनी रहमत और ख़ुशनूदी और ऐसी जन्नतों की बशारत देता है जहाँ उनके लिए पाएदार ऐश के सामान हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡمُشۡرِكُونَ نَجَسٞ فَلَا يَقۡرَبُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ بَعۡدَ عَامِهِمۡ هَٰذَاۚ وَإِنۡ خِفۡتُمۡ عَيۡلَةٗ فَسَوۡفَ يُغۡنِيكُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦٓ إِن شَآءَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 25
(28) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! मुशरिकीन नापाक हैं, लिहाज़ा इस साल के बाद ये मस्जिदे-हराम की तरफ़ न फटकने पाएँ।13 और तुम्हें तंगदस्ती का ख़ौफ़ है तो बईद नहीं कि अल्लाह चाहे तो तुम्हें अपने फ़ज़्ल से ग़नी कर दे, अल्लाह अलीम व हकीम है।
13. यानी आइन्दा के लिए उनका हज और उनकी ज़ियारत ही बन्द नहीं, बल्कि मस्जिदे-हराम की हुदूद में उनका दाख़िला भी बन्द है।
خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 26
(22) उनमें वे हमेशा रहेंगे। यक़ीनन अल्लाह के पास ख़िदमात का सिला देने को बहुत कुछ है।
قَٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ ٱلۡحَقِّ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حَتَّىٰ يُعۡطُواْ ٱلۡجِزۡيَةَ عَن يَدٖ وَهُمۡ صَٰغِرُونَ ۝ 27
(29) जंग करो अहले-किताब में से उन लोगों के ख़िलाफ़ जो अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान नहीं लाते और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम क़रार दिया है उसे हराम नहीं करते और दीने-हक़ को अपना दीन नहीं बनाते। (उनसे लड़ो) यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या दें और छोटे बनकर रहें।14
14. यानी लड़ाई की ग़ायत यह नहीं है कि वे ईमान ले आएँ और दीने-हक़ के पैरौ बन जाएँ, बल्कि इसकी ग़ायत यह है कि उनकी हुक्मरानी ख़त्म हो जाए। वे ज़मीन में हाकिम और साहिबे-अम्र बनकर न रहें, बल्कि ज़मीन के निज़ामे-ज़िन्दगी की बागें और फ़रमाँरवाई व इमामत के इख़्तियारात पैरवाने-दीने-हक़ के हाथों में हों और अहले-किताब उनके मातहत, ताबे व मुतीअ बनकर रहें। इसके बाद उनमें से जिसका जी चाहे वह ख़ुद अपनी मर्ज़ी से मुसलमान हो जाए वरना जिज़या देता रहे। जिज़या बदल है उस अमान और हिफ़ाज़त का जो ज़िम्मियों को इस्लामी हुकूमत में अता की जाती है। नीज़ वह अलामत है इस अम्र की कि ये लोग ताबे-अम्र बनने पर राज़ी हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَابَآءَكُمۡ وَإِخۡوَٰنَكُمۡ أَوۡلِيَآءَ إِنِ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡكُفۡرَ عَلَى ٱلۡإِيمَٰنِۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 28
(23) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अपने बापों और भाइयों को भी अपना रफ़ीक़ न बनाओ, अगर वे ईमान पर कुफ़्र को तरजीह दें। तुममें से जो उनको रफ़ीक़ बनाएँगे वही ज़ालिम होंगे।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ عُزَيۡرٌ ٱبۡنُ ٱللَّهِ وَقَالَتِ ٱلنَّصَٰرَى ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ ٱللَّهِۖ ذَٰلِكَ قَوۡلُهُم بِأَفۡوَٰهِهِمۡۖ يُضَٰهِـُٔونَ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَبۡلُۚ قَٰتَلَهُمُ ٱللَّهُۖ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 29
(30) यहूदी कहते हैं कि उज़ैर अल्लाह का बेटा है, और ईसाई कहते हैं कि मसीह अल्लाह का बेटा है, ये बे-हक़ीकत बातें हैं जो वे अपनी ज़बानों से निकालते हैं, उन लोगों की देखा-देखी जो उनसे पहले कुफ़्र में मुब्तला हुए थे। ख़ुदा की मार इनपर, ये कहाँ से धोखा खा रहे हैं।
ٱتَّخَذُوٓاْ أَحۡبَارَهُمۡ وَرُهۡبَٰنَهُمۡ أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَمَآ أُمِرُوٓاْ إِلَّا لِيَعۡبُدُوٓاْ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗاۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ سُبۡحَٰنَهُۥ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 30
(31) उन्होंने अपने उलमा और दरवेशों को अल्लाह के सिवा अपना रब बना लिया है15 और इसी तरह मसीह इब्ने-मरयम को भी। हालाँकि उनको एक माबूद के सिवा किसी की बन्दगी करने का हुक्म नहीं दिया गया था, वह जिसके सिवा कोई मुस्तहिक़े-इबादत नहीं, पाक है वह उन मुशरिकाना बातों से जो ये लोग करते हैं।
15. हदीस में आता है कि हज़रत अदी-बिन-हातिम (रज़ि०), जो पहले ईसाई थे, जब नबी (सल्ल०) के पास हाज़िर होकर मुशर्रफ़ ब-इस्लाम हुए तो उन्होंने आप (सल्ल०) से सवाल किया कि इस आयत में हमपर अपने उलमा और दरवेशों को ख़ुदा बना लेने का जो इलज़ाम आइद किया गया है उसकी असलियत क्या है? जवाब में हुज़ूर (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या यह वाक़िआ नहीं है कि जो कुछ ये लोग हराम क़रार देते हैं उसे तुम हराम मान लेते हो और जो कुछ ये हलाल क़रार देते हैं उसे हलाल मान लेते हो?” उन्होंने अर्ज़ किया कि यह तो ज़रूर हम करते हैं। फ़रमाया, “बस यही उनको रब बना लेना है।” इससे मालूम हुआ कि किताबुल्लाह की सनद के बग़ैर जो लोग इनसानी ज़िन्दगी के लिए जाइज़ व नाजाइज़ की हुदूद मुक़र्रर करते हैं वे दरअस्ल ख़ुदाई के मक़ाम पर बज़ोमे-ख़ुद-मु-तमक्किन होते हैं और जो उनके इस हक़्क़े-शरीअतसाज़ी को तसलीम करते हैं वे उन्हें ख़ुदा बनाते हैं।
يُرِيدُونَ أَن يُطۡفِـُٔواْ نُورَ ٱللَّهِ بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَيَأۡبَى ٱللَّهُ إِلَّآ أَن يُتِمَّ نُورَهُۥ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 31
ये लोग चाहते हैं कि अल्लाह की रौशनी को अपनी फूँकों से बुझा दें। मगर अल्लाह अपनी रौशनी को मुकम्मल किए बग़ैर माननेवाला नहीं है, ख़ाह क़ाफिरों को यह कितना ही नागवार हो।
إِلَّا تَنصُرُوهُ فَقَدۡ نَصَرَهُ ٱللَّهُ إِذۡ أَخۡرَجَهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ثَانِيَ ٱثۡنَيۡنِ إِذۡ هُمَا فِي ٱلۡغَارِ إِذۡ يَقُولُ لِصَٰحِبِهِۦ لَا تَحۡزَنۡ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَنَاۖ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَيۡهِ وَأَيَّدَهُۥ بِجُنُودٖ لَّمۡ تَرَوۡهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلسُّفۡلَىٰۗ وَكَلِمَةُ ٱللَّهِ هِيَ ٱلۡعُلۡيَاۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 32
(40) तुमने अगर नबी की मदद न की तो कुछ परवाह नहीं, अल्लाह उसकी मदद उस वक़्त कर चुका है जब काफ़िरों ने उसे निकाल दिया था, जब वह सिर्फ़ दो में का दूसरा था, जब वे दोनों ग़ार में थे, जब वह अपने साथी से कह रहा था कि “ग़म न कर अल्लाह हमारे साथ है।”21 उस वक़्त अल्लाह ने उसपर अपनी तरफ़ से सुकूने-क़ल्ब नाज़िल किया और उसकी मदद ऐसे लश्करों से की जो तुमको नज़र न आते थे और काफ़िरों का बोल नीचा कर दिया। और अल्लाह का बोल तो ऊँचा ही है, अल्लाह ज़बरदस्त और दाना व बीना है।
21. यह उस मौक़े का ज़िक्र है जब कुफ़्फ़ारे-मक्का ने नबी (सल्ल०) के क़त्ल का तहैया कर लिया था और आप ऐन उस रात को जो क़त्ल के लिए मुक़र्रर की गई थी, मक्का से निकलकर ग़ारे-सौर में तीन दिन तक छिपे रहे और फिर मदीना की तरफ़ हिजरत फ़रमा गए। उस वक़्त ग़ार में सिर्फ़ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) आप (सल्ल०) के साथ थे।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُشۡرِكُونَ ۝ 33
(33) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को हिदायत और दीने-हक़ के साथ भेजा है ताकि उसे पूरी जिंसे-दीन पर ग़ालिब कर दे,16 ख़ाह मुशरिकों को यह कितना ही नागवार हो।
6. 'अद-दीन' का तर्जमा हमने 'जिंसे-दीन' किया है। दीन का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में उस निज़ामे-ज़िन्दगी या तरीक़े-ज़िन्दगी के लिए इस्तेमाल होता है जिसके क़ायम करनेवाले को सनद और मुताअ तसलीम करके उसका इत्तिबाअ किया जाए। पस बिअसते-रसूल की ग़रज़ इस आयत में यह बताई गई है कि जिस हिदायत और दीने-हक़ को वह ख़ुदा की तरफ़ से लाया है उसे दीन की नौईयत रखनेवाले तमाम तरीक़ों और निज़ामों पर ग़ालिब कर दे। रसूल की बिअसत कभी इस ग़रज़ के लिए नहीं हुई कि जो निज़ामे-ज़िन्दगी वह लेकर आया है वह किसी दूसरे निज़ामे-ज़िन्दगी का ताबे और उससे मग़लूब बनकर और उसकी दी हुई रिआयतों और गुंजाइशों में सिमटकर रहे, बल्कि वह बादशाहे-अर्ज़ व समा का नुमाइन्दा बनकर आता है और अपने बादशाह के निज़ामे-हक़ को ग़ालिब देखना चाहता है। अगर कोई दूसरा निज़ामे- ज़िन्दगी दुनिया में रहे भी तो उसे ख़ुदाई निज़ाम की बख़्शी हुई गुंजाइशों में सिमटकर रहना चाहिए जैसा कि जिज़या अदा आने की सूरत में ज़िम्मियों का निज़ामे-ज़िन्दगी रहता है। न यह कि कुफ़्फ़ार ग़ालिब हों और दीने-हक़ के माननेवाले ज़िम्मी बनकर रहें।
ٱنفِرُواْ خِفَافٗا وَثِقَالٗا وَجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 34
(41) निकलो, ख़ाह हल्के हो या बोझल, और जिहाद करो अल्लाह की राह में अपने मालों और अपनी जानों के साथ, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡأَحۡبَارِ وَٱلرُّهۡبَانِ لَيَأۡكُلُونَ أَمۡوَٰلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَٰطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۗ وَٱلَّذِينَ يَكۡنِزُونَ ٱلذَّهَبَ وَٱلۡفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 35
(34) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! इन अहले-किताब के अकसर उलमा और दरवेशों का हाल यह है कि वे लोगों के माल बातिल तरीक़ों से खाते हैं और उन्हें अल्लाह की राह से रोकते हैं। दर्दनाक सज़ा की ख़ुशख़बरी दो उनको जो सोने और चाँदी जमा करके रखते हैं और उन्हें ख़ुदा की राह में ख़र्च नहीं करते।
لَوۡ كَانَ عَرَضٗا قَرِيبٗا وَسَفَرٗا قَاصِدٗا لَّٱتَّبَعُوكَ وَلَٰكِنۢ بَعُدَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلشُّقَّةُۚ وَسَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَوِ ٱسۡتَطَعۡنَا لَخَرَجۡنَا مَعَكُمۡ يُهۡلِكُونَ أَنفُسَهُمۡ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 36
(42) (ऐ नबी!) अगर फ़ायदा सहलुल-हुसूल होता और सफ़र हल्का होता तो वह ज़रूर तुम्हारे पीछे चलने पर आमादा हो जाते, मगर उनपर तो रास्ता बहुत कठिन हो गया। अब वे ख़ुदा की क़सम खा-खाकर कहेंगे कि अगर हम चल सकते तो यक़ीनन तुम्हारे साथ चलते। वे अपने-आपको हलाकत में डाल रहे हैं। अल्लाह ख़ूब जानता है कि वे झूठे हैं।
22. यानी यह देखकर कि मुक़ाबला रूम जैसी ताक़त से है और ज़माना शदीद गर्मी का है और मुल्क में क़हत बरपा है और नए साल की फ़सलें, जिनसे आस लगी हुई थी, कटने के क़रीब हैं, उनको तबूक का सफ़र बहुत ही गिराँ महसूस होने लगा।
يَوۡمَ يُحۡمَىٰ عَلَيۡهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكۡوَىٰ بِهَا جِبَاهُهُمۡ وَجُنُوبُهُمۡ وَظُهُورُهُمۡۖ هَٰذَا مَا كَنَزۡتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡ فَذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَكۡنِزُونَ ۝ 37
(35) एक दिन आएगा कि इसी सोने-चाँदी पर जहन्नम की आग दहकार्ड जाएगी और फिर इसी से इन लोगों की पेशानियों और पहलुओं और पीठों को दाग़ा जाएगा। — यह है वह ख़ज़ाना जो तुमने अपने लिए जमा किया था, लो अब अपनी समेटी हुई दौलत का मज़ा चखो।
عَفَا ٱللَّهُ عَنكَ لِمَ أَذِنتَ لَهُمۡ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكَ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْ وَتَعۡلَمَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 38
(43) (ऐ नबी!) अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, तुमने क्यों उन्हें रुख़्सत दे दी? (तुम्हें चाहिए था कि बुद रुख़्सत न देते) ताकि तुमपर खुल जाता कि कौन लोग सच्चे हैं, और झूठों को भी तुम जान लेते।
إِنَّ عِدَّةَ ٱلشُّهُورِ عِندَ ٱللَّهِ ٱثۡنَا عَشَرَ شَهۡرٗا فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ يَوۡمَ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ مِنۡهَآ أَرۡبَعَةٌ حُرُمٞۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُۚ فَلَا تَظۡلِمُواْ فِيهِنَّ أَنفُسَكُمۡۚ وَقَٰتِلُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ كَآفَّةٗ كَمَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ كَآفَّةٗۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 39
(36) हक़ीक़त यह है कि महीनों की तादाद जब से अल्लाह ने आसमान व ज़मीन को पैदा किया है अल्लाह के नविश्ते में बारह ही है और इनमें से चार महीने हराम हैं।17 यही ठीक ज़ाब्ता है, लिहाज़ा इन चार महीनों में अपने ऊपर ज़ुल्म न करो और मुशरिकों से सब मिलकर लड़ो जिस तरह वे सब मिलकर तुमसे लड़ते हैं, और जान रखो कि अल्लाह मुत्तक़ियों के साथ है।18
17. चार हराम महीनों से मुराद हैं ज़िल-कादा, ज़िल-हिज्जा और मुहर्रम हज के लिए और रजब उमरे के लिए।
18. यानी अगर मुशरिकीन इन महीनों में भी लड़ने से बाज़ न आएँ तो जिस तरह वे मुत्तफ़िक़ होकर तुमसे लड़ते हैं, तुम भी मुत्तफ़िक होकर उनसे लड़ो। सूरा-2 बक़रा, आयत-194 इस आयत की तफ़सीर करती है।
لَا يَسۡتَـٔۡذِنُكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أَن يُجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 40
(44) जो लोग अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखते हैं वे तो कभी तुमसे यह दरख़ास्त न करेंगे की उन्हें अपनी जान व माल के साथ जिहाद करने से माफ़ रखा जाए। अल्लाह मुत्तक़ियों को ख़ूब जनता है।
إِنَّمَا ٱلنَّسِيٓءُ زِيَادَةٞ فِي ٱلۡكُفۡرِۖ يُضَلُّ بِهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُحِلُّونَهُۥ عَامٗا وَيُحَرِّمُونَهُۥ عَامٗا لِّيُوَاطِـُٔواْ عِدَّةَ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُ فَيُحِلُّواْ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُۚ زُيِّنَ لَهُمۡ سُوٓءُ أَعۡمَٰلِهِمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 41
(37) ‘नसी’ तो कुफ़्र में एक मजीद काफ़िराना हरकत है जिससे ये काफ़िर लोग गुमराही में मुब्तला किए जाते हैं। किसी साल एक महीने को हलाल कर लेते हैं और किसी साल उसको हराम कर देते हैं, ताकि अल्लाह के हराम किए महीनों की तादाद पूरी भी कर दें और अल्लाह का हराम किया हुआ हलाल भी कर लें।19 — उनके बुरे आमाल उनके लिए ख़ुशनुमा बना दिए गए हैं और अल्लाह मुनकिरीने-हक़ को हिदायत नहीं दिया करता।
19. अरब में महीने को हटाने की प्रथा दो तरह की थी। एक तो यह कि लड़ने-भिड़ने और लूटपाट करने और ख़ून का बदला लेने के लिए किसी हराम महीने को हलाल (वैध) ठहरा लेते थे और उसके बदले में किसी हलाल महोने को हराम करके महीनों की संख्या पूरी कर देते थे। दूसरे यह कि चंद्र वर्ष को सौर वर्ष के अनुरूप करने के लिए उसमें लौंद का एक महीना बढ़ा देते थे, ताकि हज हमेशा एक ही मौसम में आता रहे और वे उन कष्टों से बच जाएँ जिनका सामना चंद्रमा के हिसाब के अनुसार विभिन्न मौसमों में हज के गर्दिश करते रहने से करना पड़ता है। इस तरह 33 वर्ष तक हज अपने वास्तविक समय के विपरीत दूसरी तिथियों में होता रहता था और सिर्फ़ चौंतीसवें वर्ष एक बार वास्तविक ज़िलहिज्जा की 9-10 तारीख़ को अदा होता था। नबी (सल्ल०) ने जिस वर्ष हिज्जतुल-विदाअ (अंतिम हज) अदा किया है उस वर्ष हज अपनी वास्तविक तिथियों में आया था और उसी समय से महीने के हटाने का तरीक़ा वर्जित कर दिया गया।
إِنَّمَا يَسۡتَـٔۡذِنُكَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَٱرۡتَابَتۡ قُلُوبُهُمۡ فَهُمۡ فِي رَيۡبِهِمۡ يَتَرَدَّدُونَ ۝ 42
(45) ऐसी दरख़ास्त तो सिर्फ़ वही लोग करते हैं जो अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान नहीं रखते, जिनके दिलों में शक है। और वे अपने शक ही में मुतरदिद्द हो रहे हैं।
۞وَلَوۡ أَرَادُواْ ٱلۡخُرُوجَ لَأَعَدُّواْ لَهُۥ عُدَّةٗ وَلَٰكِن كَرِهَ ٱللَّهُ ٱنۢبِعَاثَهُمۡ فَثَبَّطَهُمۡ وَقِيلَ ٱقۡعُدُواْ مَعَ ٱلۡقَٰعِدِينَ ۝ 43
(46) अगर वाक़ई उनका इरादा निकलने का होता तो वे उसके लिए कुछ तैयारी करते। लेकिन अल्लाह को उनका उठना पसन्द ही न था, इसलिए उसने उन्हें सुस्त कर दिया और कह दिया गया कि बैठ रहो बैठनेवालों के साथ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَا لَكُمۡ إِذَا قِيلَ لَكُمُ ٱنفِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱثَّاقَلۡتُمۡ إِلَى ٱلۡأَرۡضِۚ أَرَضِيتُم بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِۚ فَمَا مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا قَلِيلٌ ۝ 44
(38) ऐ लोगो,20जो ईमान लाए हो! तुम्हें क्या हो गया कि जब तुमसे अल्लाह की राह में निकलने के लिए कहा गया तो तुम ज़मीन से चिमटकर रह गए? क्या तुमने आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया की ज़िन्दगी को पसन्द कर लिया? ऐसा है तो तुम्हें मालूम हो कि दुनयवी ज़िन्दगी का यह सब सरो-सामान आख़िरत में बहुत थोड़ा निकलेगा।
20. ये आयात रुकूअ 9 के आख़िर तक गज़वा-ए-तबूक की तैयारी के ज़माने में नाज़िल हुई हैं।
لَوۡ خَرَجُواْ فِيكُم مَّا زَادُوكُمۡ إِلَّا خَبَالٗا وَلَأَوۡضَعُواْ خِلَٰلَكُمۡ يَبۡغُونَكُمُ ٱلۡفِتۡنَةَ وَفِيكُمۡ سَمَّٰعُونَ لَهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 45
(47) अगर वे तुम्हारे साथ निकलते तो तुम्हारे अंदर ख़राबी के सिवा किसी चीज का इज़ाफ़ा न करते। वे तुम्हारे दरमियान फ़ितनापरदाज़ी के लिए दौड़-धूप करते, और तुम्हारे गरोह का हाल यह है कि अभी उनमें बहुत-से ऐसे लोग मौजूद हैं जो उनकी बात कान लगाकर सुनते हैं, अल्लाह इन ज़ालिमों को ख़ूब जानता है।
إِلَّا تَنفِرُواْ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا وَيَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ وَلَا تَضُرُّوهُ شَيۡـٔٗاۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 46
(39) तुम न उठोगे तो ख़ुदा तुम्हें दर्दनाक सज़ा देगा, और तुम्हारी जगह किसी और गरोह को उठाएगा, और तुम ख़ुदा का कुछ भी न बिगाड़ सकोगे, वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
لَقَدِ ٱبۡتَغَوُاْ ٱلۡفِتۡنَةَ مِن قَبۡلُ وَقَلَّبُواْ لَكَ ٱلۡأُمُورَ حَتَّىٰ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَظَهَرَ أَمۡرُ ٱللَّهِ وَهُمۡ كَٰرِهُونَ ۝ 47
(48) इससे पहले भी इन लोगों ने फ़ितनाअंगेज़ी की कोशिशें की हैं और तुम्हें काम करने के लिए ये हर तरह की तदबीरों का उलट-फेर कर चुके हैं यहाँ तक कि इनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हक़ आ गया और अल्लाह का काम होकर रहा।
وَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ ٱئۡذَن لِّي وَلَا تَفۡتِنِّيٓۚ أَلَا فِي ٱلۡفِتۡنَةِ سَقَطُواْۗ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 48
(49) इनमें से कोई है जो कहता है कि “मुझे रुख़्सत दे दीजिए और मुझको फ़ितने में न डालिए।” — सुनरखो! फ़ितने ही में तो ये लोग पड़े हुए हैं और जहन्नम ने इन काफ़िरों को घेर रखा है।
إِن تُصِبۡكَ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡۖ وَإِن تُصِبۡكَ مُصِيبَةٞ يَقُولُواْ قَدۡ أَخَذۡنَآ أَمۡرَنَا مِن قَبۡلُ وَيَتَوَلَّواْ وَّهُمۡ فَرِحُونَ ۝ 49
(50) तुम्हारा भला होता है तो इन्हें रंज होता है और तुमपर कोई मुसीबत आती है तो ये मुँह फेरकर ख़ुश-ख़ुश पलटते हैं और कहते जाते हैं कि अच्छा हुआ हमने पहले ही अपना मामला ठीक कर लिया था।
قُل لَّن يُصِيبَنَآ إِلَّا مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَنَا هُوَ مَوۡلَىٰنَاۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 50
(51) उनसे कहो, “हमें हरगिज़ कोई (बुराई या भलाई) नहीं पहुँचती मगर वह जो अल्लाह ने हमारे लिए लिख दी है। अल्लाह ही हमारा मौला है। और अहले-ईमान को उसी पर भरोसा करना चाहिए।”
وَمَا مَنَعَهُمۡ أَن تُقۡبَلَ مِنۡهُمۡ نَفَقَٰتُهُمۡ إِلَّآ أَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَبِرَسُولِهِۦ وَلَا يَأۡتُونَ ٱلصَّلَوٰةَ إِلَّا وَهُمۡ كُسَالَىٰ وَلَا يُنفِقُونَ إِلَّا وَهُمۡ كَٰرِهُونَ ۝ 51
(54) उनके दिए हुए माल क़ुबूल न होने की कोई वजह इसके सिवा नहीं है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से कुफ़्र किया है, नमाज़ के लिए आते हैं तो कसमसाते हुए आते हैं, और राहे-ख़ुदा में ख़र्च करते हैं तो बादिले-नाख़ास्ता ख़र्च करते हैं।
قُلۡ هَلۡ تَرَبَّصُونَ بِنَآ إِلَّآ إِحۡدَى ٱلۡحُسۡنَيَيۡنِۖ وَنَحۡنُ نَتَرَبَّصُ بِكُمۡ أَن يُصِيبَكُمُ ٱللَّهُ بِعَذَابٖ مِّنۡ عِندِهِۦٓ أَوۡ بِأَيۡدِينَاۖ فَتَرَبَّصُوٓاْ إِنَّا مَعَكُم مُّتَرَبِّصُونَ ۝ 52
(52) उनसे कहो, “तुम हमारे मामले में जिस चीज़ के मुन्तज़िर हो वह इसके सिवा और क्या है कि दो भलाइयों में से एक भलाई है।23 और हम तुम्हारे मामले में जिस चीज़ के मुन्तज़िर हैं वह यह है कि अल्लाह ख़ुद तुमको सज़ा देता है या हमारे हाथों दिलवाता है? अच्छा तो अब तुम भी इन्तिज़ार करो और हम भी तुम्हारे साथ मुन्तज़िर हैं।”
23. यानी अल्लाह की राह में शहादत या इस्लाम की फ़त्‌ह।
فَلَا تُعۡجِبۡكَ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُمۡۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُم بِهَا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَتَزۡهَقَ أَنفُسُهُمۡ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 53
(55) इनके माल व दौलत और इनकी कसरते-औलाद को देखकर धोखा न खाओ, अल्लाह तो यह चाहता है कि इन्हीं चीज़ों के ज़रिए से इनको दुनिया की ज़िन्दगी में भी मुब्तला-ए-अज़ाब करे और ये जान भी दें तो इनकारे-हक़ ही की हालत में दें।
وَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنَّهُمۡ لَمِنكُمۡ وَمَا هُم مِّنكُمۡ وَلَٰكِنَّهُمۡ قَوۡمٞ يَفۡرَقُونَ ۝ 54
(56) वे ख़ुदा की क़सम खा-खाकर कहते हैं कि हम तुम ही में से हैं, हालाँकि वे हरगिज़ तुममें से नहीं है। अस्ल में तो वे ऐसे लोग हैं जो तुमसे ख़ौफ़ज़दा हैं।
قُلۡ أَنفِقُواْ طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا لَّن يُتَقَبَّلَ مِنكُمۡ إِنَّكُمۡ كُنتُمۡ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 55
(53) उनसे कहो, “तुम अपने माल ख़ाह राज़ी-खुशी ख़र्च करो या बकराहत, बहरहाल वे क़ुबूल न किए जाएँगे। क्योंकि तुम फ़ासिक़ लोग हो।
لَوۡ يَجِدُونَ مَلۡجَـًٔا أَوۡ مَغَٰرَٰتٍ أَوۡ مُدَّخَلٗا لَّوَلَّوۡاْ إِلَيۡهِ وَهُمۡ يَجۡمَحُونَ ۝ 56
(57) अगर वे कोई जाए-पनाह पा लें या कोई खोह या घुस बैठने की जगह, तो भागकर उसमें जा छिपें।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُمۡ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلۡعَبُۚ قُلۡ أَبِٱللَّهِ وَءَايَٰتِهِۦ وَرَسُولِهِۦ كُنتُمۡ تَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 57
(65) अगर इनसे पूछो कि तुम क्या बातें कर रहे थे, तो झट कह देंगे कि हम तो हँसी-मज़ाक़ और दिल्लगी कर रहे थे।30 इनसे कहो, “क्या तुम्हारी हँसी-दिल्लगी अल्लाह और उसकी आयात और उसके रसूल ही के साथ थी?
30. ग़ज़वा-ए-तबूक के जमज़ने में मुनाफ़िक़ीन अकसर अपनी मजलिसों में बैठकर नबी (सल्ल०) और मुसलमानों का मज़ाक़ उड़ाते थे और अपनी तज़हीक से उन लोगों की हिम्मते पस्त करने की कोशिश करते थे जिन्हें वे नेक नीयती के साथ आमादा-ए-जिहाद पाते। चुनाँचे रिवायात में उन लोगों के बहुत-से अक़वाल मनक़ूल हुए हैं। मसलन एक महफ़िल में चंद मुनाफ़िक़ बैठे गप लड़ा रहे थे। एक ने कहा, “अजी क्या रूमियों को भी तुमने कुछ अरबों की तरह समझ रखा है? कल देख लेना, ये सब सूरमा जो लड़ने तशरीफ़ लाए हैं, रस्सियों में बंधे हुए होंगे।” दूसरा बोला, “मज़ा हो जो ऊपर से सौ-सौ कोड़े लगाने का हुक्म हो जाए।” एक और मुनाफ़िक़ ने हुज़ूर (सल्ल०) को जंग की सरगर्म तैयारियाँ करते देखकर अपने यार-दोस्तों से कहा, “आपको देखिए, आप रूम व शाम के क़िले फ़त्‌ह करने चले हैं।”
وَمِنۡهُم مَّن يَلۡمِزُكَ فِي ٱلصَّدَقَٰتِ فَإِنۡ أُعۡطُواْ مِنۡهَا رَضُواْ وَإِن لَّمۡ يُعۡطَوۡاْ مِنۡهَآ إِذَا هُمۡ يَسۡخَطُونَ ۝ 58
(58) (ऐ नबी !) उनमें से बाज़ लोग सदक़ात24 की तक़सीम में तुमपर एतिराज़ात करते हैं, अगर उस माल में से उन्हें कुछ दे दिया जाए तो ख़ुश हो जाएँ, और न दिया जाए तो बिगड़ने लगते हैं।
24. यानी अमवाले-ज़कात।
لَا تَعۡتَذِرُواْ قَدۡ كَفَرۡتُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡۚ إِن نَّعۡفُ عَن طَآئِفَةٖ مِّنكُمۡ نُعَذِّبۡ طَآئِفَةَۢ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 59
(66) अब उज़्रात न तराशो। तुमने ईमान लाने के बाद कुफ़्र किया। है। अगर हमने तुममें से एक गरोह को माफ़ कर भी दिया तो दूसरे गरोह को तो हम ज़रूर सज़ा देंगे क्योंकि वह मुजरिम है।”
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ رَضُواْ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَقَالُواْ حَسۡبُنَا ٱللَّهُ سَيُؤۡتِينَا ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ وَرَسُولُهُۥٓ إِنَّآ إِلَى ٱللَّهِ رَٰغِبُونَ ۝ 60
(59) क्या अच्छा होता कि अल्लाह और रसूल ने जो कुछ भी उन्हें दिया था उसपर वे राज़ी रहते और कहते कि “अल्लाह हमारे लिए काफ़ी है, वह अपने फ़ज़्ल से हमें और बहुत कुछ देगा और उसका रसूल भी हमपर इनायत फ़रमाएगा, हम अल्लाह ही की तरफ़ नजर जमाए हुए हैं।”
ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتُ بَعۡضُهُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمُنكَرِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَقۡبِضُونَ أَيۡدِيَهُمۡۚ نَسُواْ ٱللَّهَ فَنَسِيَهُمۡۚ إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 61
(67) मुनाफ़िक़ मर्द और मुनाफिक़ औरतें सब एक-दूसरे के हमरंग हैं। बुराई का हुक्म देते हैं और भलाई से मना करते हैं और अपने हाथ ख़ैर से रोके रखते हैं। ये अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने भी इन्हें भुला दिया। यक़ीनन ये मुनाफ़िक़ ही फ़ासिक़ हैं।
۞إِنَّمَا ٱلصَّدَقَٰتُ لِلۡفُقَرَآءِ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡعَٰمِلِينَ عَلَيۡهَا وَٱلۡمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمۡ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَٱلۡغَٰرِمِينَ وَفِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۖ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 62
(60) ये सदक़ात तो दरअस्ल फ़क़ीरों और मिसकीनों के लिए है25 और उन लोगों के लिए जो सदक़ात के काम पर मामूर हों, और उनके लिए जिनकी तालीफ़े-क़ल्ब मतलूब हो।26 नीज़ ये गर्दनों के छुड़ाने27 और क़र्ज़दारों की मदद करने और राहे-ख़ुदा28 में और मुसाफ़िरनवाज़ी29 में इस्तेमाल करने के लिए हैं। एक फ़रीज़ा है अल्लाह की तरफ़ से, और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और दाना व बीना है।
25. 'फ़क़ीर' से मुराद वह शख़्स है जो अपनी मईशत के लिए दूसरे की मदद का मुहताज हो और 'मसाकीन' वे लोग हैं जो आम हाजतमदों की बनिस्बत ज़्यादा ख़स्ता हाल हों।
26. 'तालीफ़े-क़ल्ब' के मानी हैं दिल मोहना। इस हुक्म से मक़सूद यह है कि जो लोग इस्लाम की मुख़ालफ़त में सरगर्म हों और माल देकर उनके जोशे-अदावत को ठंडा किया जा सकता हो, या जो लोग कुफ़्फ़ार के कैम्प में ऐसे हों कि अगर माल से उन्हें तोड़ा जाए तो टूटकर मुसलमानों के मददगार बन सकते हों, या जो लोग नए इस्लाम में दाख़िल हुए हों और उनकी कमज़ोरियों को देखते हुए अंदेशा हो कि अगर माल से उनकी मदद न की गई तो फिर कुफ़्र की तरफ़ पलट जाएँगे, ऐसे लोगों को मुस्तक़िल वज़ाइफ़ या वक़्ती अतिए देकर इस्लाम का हामी व मददगार, या मुतीअ व फ़रमाँबरदार या कम-अज़-कम बेज़रर दुश्मन बना लिया जाए।
27. 'गर्दने छुड़ाने से’ मुराद ग़ुलामों को आजाद कराना है।
28. राहे-ख़ुदा का लफ़्ज़ आम है। तमाम वे नेकी के काम जिनमें अल्लाह की रिज़ा हो, इस लफ़्ज़ के मफ़हूम में दाख़िल हैं। उलमा के एक गरोह ने यह राय ज़ाहिर की है कि इस हुक्म की रू से ज़कात का माल हर क़िस्म के नेक कामों में सर्फ़ किया जा सकता है, लेकिन बड़ी अकसरियत इस बात की क़ायल है कि यहाँ फ़ी सबीलिल्लाह से मुराद जिहाद फ़ी-सबीलिल्लाह है यानी वह जिद्दो-जुहद जिसका मक़सद कुफ़्र को मिटाना और उसकी जगह निज़ामे-इस्लामी को क़ायम करना हो। इस जिद्दो-जुहद में जो लोग काम करें उनको सफ़र-ख़र्च के लिए, सवारी के लिए, आलात व अस्लिहा और सरो-सामान की फ़राहमी के लिए ज़कात से मदद दी जा सकती है, ख़ाह वे बजाय ख़ुद खाते-पीते लोग हों और अपनी ज़रूरियात के लिए उनको मदद की ज़रूरत न हो।
29. मुसाफिर ख़ाह अपने घर में ग़नी हो, लेकिन हालते-सफ़र में अगर वह मदद का मुहताज हो जाए तो उसकी मदद ज़कात की मद से की जाएगी।
يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ مَا قَالُواْ وَلَقَدۡ قَالُواْ كَلِمَةَ ٱلۡكُفۡرِ وَكَفَرُواْ بَعۡدَ إِسۡلَٰمِهِمۡ وَهَمُّواْ بِمَا لَمۡ يَنَالُواْۚ وَمَا نَقَمُوٓاْ إِلَّآ أَنۡ أَغۡنَىٰهُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ مِن فَضۡلِهِۦۚ فَإِن يَتُوبُواْ يَكُ خَيۡرٗا لَّهُمۡۖ وَإِن يَتَوَلَّوۡاْ يُعَذِّبۡهُمُ ٱللَّهُ عَذَابًا أَلِيمٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَمَا لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 63
(74)ये लोग ख़ुदा की क़सम खा-खाकर कहते हैं कि हमने वह बात नहीं कहीं, हालाँकि उन्होंने ज़रूर वह काफ़िराना बात कही है।33 वे इस्लाम लाने के बाद कुफ़्र के मुर्तकिब हुए और उन्होंने वह कुछ करने का इरादा किया जिसे कर न सके।34 यह उनका सारा ग़ुस्सा इसी बात पर है ना कि अल्लाह और उसके रसूल ने अपने फ़ज़्ल से उनको ग़नी कर दिया है! अब अगर ये अपनी इस रविश से बाज़ आएँ तो इन्हीं के लिए बेहतर है, और अगर ये बाज़ न आएँ तो अल्लाह इनको निहायत दर्दनाक सज़ा देगा, दुनिया में भी और आख़िरत में भी, और ज़मीन में कोई नहीं जो इनका हिमायती और मददगार हो।
33. वह बात क्या थी जिसकी तरफ़ यहाँ इशारा किया गया है, उसके मुताल्लिक़ कोई यक़ीनी मालूमात हम तक नहीं पहुँची हैं, अलबत्ता रिवायात में मुतअद्दद ऐसी काफ़िराना बातों का ज़िक्र आया है जो उस ज़माने में मुनाफ़िक़ीन ने की थीं। मसलन एक मुनाफ़िक ने एक मुसलमान नौजवान से गुफ़्तगू करते हुए कहा कि “अगर वाक़ई वह सब कुछ बरहक़ है जो यह शख़्स (यानी नबी सल्ल०) पेश करता है तो हम सब गधों से भी बदतर हैं।” एक और रिवायत में है कि तबूक के सफ़र में एक जगह नबी (सल्ल०) की ऊँटनी गुम हो गई। उस वक़्त मुनाफ़िक़ों के एक गरोह ने अपनी मजलिस में बैठकर ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया और आपस में कहा कि “ये हज़रत आसमान की ख़बरें तो सुनाते हैं मगर इनको अपनी ऊँटनी की कुछ ख़बर नहीं कि वह इस वक़्त कहाँ है।”
34. यह इशारा है उन साज़िशों की तरफ़ जो मुनाफ़िक़ों ने ग़ज़वा-ए-तबूक के ज़माने में की थीं। एक मौक़े पर उन्होंने यह स्कीम बनाई कि रात के वक़्त सफ़र के दौरान में हुज़ूर (सल्ल०) को किसी खड्ड में फेंक दें। उन्होंने आपस में यह भी तय कर लिया था कि अगर तबूक में मुसलमानों को शिकस्त हो तो फ़ौरन मदीना में अब्दुल्लाह-बिन-उबैय्य के सर पर ताजे-शाही रख दिया जाए।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ هِيَ حَسۡبُهُمۡۚ وَلَعَنَهُمُ ٱللَّهُۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 64
(68) इन मुनाफ़िक़ मर्दों और औरतों और काफ़िरों के लिए अल्लाह ने आतिशे-दोज़ख़ का वादा किया है जिसमें वे हमेशा रहेंगे, वही इनके लिए मौजूँ है। इनपर अल्लाह की फिटकार है और इनके लिए क़ायम रहनेवाला अज़ाब है।
وَمِنۡهُمُ ٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱلنَّبِيَّ وَيَقُولُونَ هُوَ أُذُنٞۚ قُلۡ أُذُنُ خَيۡرٖ لَّكُمۡ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَيُؤۡمِنُ لِلۡمُؤۡمِنِينَ وَرَحۡمَةٞ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ رَسُولَ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 65
(61) इनमें से कुछ लोग हैं जो अपनी बातों से नबी को दुख देते हैं और कहते हैं कि यह शख़्स कानों का कच्चा है। कहो, “वह तुम्हारी भलाई के लिए ऐसा है, अल्लाह पर ईमान रखता है और अहले-ईमान पर एतिमाद करता है और सरासर रहमत है उन लोगों के लिए जो तुममें से ईमानदार हैं। और जो लोग अल्लाह के रसूल को दुख देते हैं उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।”
۞وَمِنۡهُم مَّنۡ عَٰهَدَ ٱللَّهَ لَئِنۡ ءَاتَىٰنَا مِن فَضۡلِهِۦ لَنَصَّدَّقَنَّ وَلَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 66
(75) उनमें से बाज़ ऐसे भी हैं जिन्होंने अल्लाह से अह्द किया था कि अगर उसने अपने फ़ज़्ल से हमको नवाज़ा तो हम ख़ैरात करेंगे और सॉलेह बनकर रहेंगे।
كَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنكُمۡ قُوَّةٗ وَأَكۡثَرَ أَمۡوَٰلٗا وَأَوۡلَٰدٗا فَٱسۡتَمۡتَعُواْ بِخَلَٰقِهِمۡ فَٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِخَلَٰقِكُمۡ كَمَا ٱسۡتَمۡتَعَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُم بِخَلَٰقِهِمۡ وَخُضۡتُمۡ كَٱلَّذِي خَاضُوٓاْۚ أُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 67
(69) — तुम लोगों के रंग-ढंग वही हैं जो तुम्हारे पेश-रौओं के थे। वे तुमसे ज़्यादा ज़ोरआवर और तुमसे बढ़कर माल और औलादवाले थे। फिर उन्होंने दुनिया में अपने हिस्से के मज़े लूट लिए और तुमने भी अपने हिस्से के मज़े उसी तरह लूटे जैसे उन्होंने लूटे थे, और वैसी ही बहसों में तुम भी पड़े जैसी बहसों में वे पड़े थे, सो उनका अंजाम यह हुआ कि दुनिया और आख़िरत में उनका सब किया-धरा ज़ाया हो गया और वही ख़सारे में हैं।
يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَكُمۡ لِيُرۡضُوكُمۡ وَٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ أَحَقُّ أَن يُرۡضُوهُ إِن كَانُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 68
(62) ये लोग तुम्हारे सामने क़समें खाते हैं ताकि तुम्हें राज़ी करें, हालाँकि अगर ये मोमिन हैं तो अल्लाह और रसूल इसके ज़्यादा हक़दार हैं कि ये उनको राज़ी करने की फ़िक्र करें।
فَلَمَّآ ءَاتَىٰهُم مِّن فَضۡلِهِۦ بَخِلُواْ بِهِۦ وَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 69
(76) मगर जब अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल से उनको दौलतमन्द कर दिया तो वे बुख़्ल पर उतर आए और अपने अह्द से ऐसे फिरे कि उन्हें इसकी परवा तक नहीं है।
أَلَمۡ يَأۡتِهِمۡ نَبَأُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَقَوۡمِ إِبۡرَٰهِيمَ وَأَصۡحَٰبِ مَدۡيَنَ وَٱلۡمُؤۡتَفِكَٰتِۚ أَتَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 70
(70) — क्या इन लोगों को अपने पेश-रौओं की तारीख़ नहीं पहुँची? नूह की क़ौम, आद, समूद, इबराहीम की क़ौम, मदयन के लोग और व बस्तियाँ जिन्हें उलट दिया गया। उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ ले कर आए, फिर यह अल्लाह का काम न था कि उनपर ज़ुल्म करता मगर वे आप ही अपने ऊपर ज़ुल्म करनेवाले थे।
31. यानी क़ौमे-लूत की बस्तियाँ जिन्हें तलपट करके रख दिया गया था।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّهُۥ مَن يُحَادِدِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَأَنَّ لَهُۥ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدٗا فِيهَاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡخِزۡيُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 71
(63) क्या इन्हें मालूम नहीं है कि जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करता है उसके लिए दोज़ख़ की आग है जिसमें वह हमेशा रहेगा! यह बहुत बड़ी रुसवाई है।
فَأَعۡقَبَهُمۡ نِفَاقٗا فِي قُلُوبِهِمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ يَلۡقَوۡنَهُۥ بِمَآ أَخۡلَفُواْ ٱللَّهَ مَا وَعَدُوهُ وَبِمَا كَانُواْ يَكۡذِبُونَ ۝ 72
(77) नतीजा यह निकला कि उनकी इस बदअह्दी की वजह से जो उन्होंने अल्लाह के साथ की, और उस झूठ की वजह से जो वे बोलते रहे, अल्लाह ने उनके दिलों में निफ़ाक़ बिठा दिया जो उसके हुज़ूर उनकी पेशी के दिन तक उनका पीछा न छोड़ेगा।
وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَيُطِيعُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ سَيَرۡحَمُهُمُ ٱللَّهُۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 73
(71) मोमिन मर्द और मोमिन औरतें, ये सब एक-दूसरे के रफ़ीक़ हैं, भलाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करते हैं। ये वे लोग हैं जिनपर अल्लाह की रहमत नाज़िल होकर रहेगी, यक़ीनन अल्लाह सबपर ग़ालिब और हकीम व दाना है।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ سِرَّهُمۡ وَنَجۡوَىٰهُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 74
(78) क्या ये लोग जानते नहीं हैं कि अल्लाह को इनके मख़फ़ी राज़ और इनकी पोशीदा सरगोशियाँ तक मालूम हैं और वह तमाम ग़ैब की बातों से पूरी तरह बाख़बर है?
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَمَسَٰكِنَ طَيِّبَةٗ فِي جَنَّٰتِ عَدۡنٖۚ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِ أَكۡبَرُۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 75
(72) इन मोमिन मर्दों और औरतों से अल्लाह का वादा है कि उन्हें ऐसे बाग़ देगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें हमेशा रहेंगे। उन सदाबहार बाग़ों में उनके लिए पाकीज़ा क़ियामगाहें होंगी, और सबसे बढ़कर यह कि अल्लाह की ख़ुशनूदी उन्हें हासिल होगी। यही बड़ी कामयाबी है।
ٱلَّذِينَ يَلۡمِزُونَ ٱلۡمُطَّوِّعِينَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فِي ٱلصَّدَقَٰتِ وَٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهۡدَهُمۡ فَيَسۡخَرُونَ مِنۡهُمۡ سَخِرَ ٱللَّهُ مِنۡهُمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 76
(79) (वह ख़ूब जानता है उन कंजूस दौलतमन्दों को) जो बरिज़ि व रग़बत देनेवाले अहले-ईमान की माली क़ुरबानियों पर बातें छाँटते हैं और उन लोगों का मज़ाक़ उड़ाते हैं जिनके पास (राहे-ख़ुदा में देने के लिए) उसके सिवा कुछ नहीं है जो वे अपने ऊपर मशक़्क़त बरदाश्त करके देते हैं। अल्लाह इन मज़ाक़ उड़ानेवालों का मज़ाक़ उड़ाता है और इनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ جَٰهِدِ ٱلۡكُفَّارَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱغۡلُظۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 77
(73) ऐ नबी,32 कुफ़्फ़ार और मुनाफ़िक़ीन दोनों का पूरी क़ुव्वत से मुक़ाबला करो और उनके साथ सख़्ती से पेश आओ। आख़िरकार इनका ठिकाना जहन्नम है और वह बदतरीन जाए-क़रार है।
32. यहाँ से वे आयात शुरू होती हैं जो ग़ज़वा-ए-तबूक के बाद नाज़िल हुई थीं।
يَحۡذَرُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ أَن تُنَزَّلَ عَلَيۡهِمۡ سُورَةٞ تُنَبِّئُهُم بِمَا فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلِ ٱسۡتَهۡزِءُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ مُخۡرِجٞ مَّا تَحۡذَرُونَ ۝ 78
(64) ये मुनाफ़िक़ डर रहे हैं कि कहीं मुसलमानों पर कोई ऐसी सूरत नाज़िल न हो जाए जो उनके दिलों के भेद खोलकर रख दे। (ऐ नबी!) इनसे कहो, “और मज़ाक़ उड़ाओ! अल्लाह उस चीज़ को खोल देनेवाला है जिसके खुल जाने से तुम डरते हो।”
ٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ أَوۡ لَا تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ إِن تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ سَبۡعِينَ مَرَّةٗ فَلَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 79
(80) (ऐ नबी!) तुम ख़ाह ऐसे लोगों के लिए माफ़ी की दरख़ास्त करो या न करो, अगर तुम सत्तर मर्तबा भी इन्हें माफ़ कर देने की दरख़ास्त करोगे तो अल्लाह इन्हें हरगिज़ माफ़ न करेगा। इसलिए कि इन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है, और अल्लाह फ़ासिक़ लोगों को राहे-नजात नहीं दिखाता।
وَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٌ أَنۡ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَجَٰهِدُواْ مَعَ رَسُولِهِ ٱسۡتَـٔۡذَنَكَ أُوْلُواْ ٱلطَّوۡلِ مِنۡهُمۡ وَقَالُواْ ذَرۡنَا نَكُن مَّعَ ٱلۡقَٰعِدِينَ ۝ 80
(86) जब कभी कोई सूरा इस मज़मून की नाज़िल हुई कि अल्लाह को मानो और उसके रसूल के साथ मिलकर जिहाद करो तो तुमने देखा कि जो लोग उनमें से साहिबे-मक़दिरत थे वही तुमसे दरख़ास्त करने लगे कि उन्हें जिहाद की शिर्कत से माफ़ रखा जाए और उन्होंने कहा कि हमें छोड़ दीजिए कि हम बैठनेवालों के साथ रहें।
ٱلۡأَعۡرَابُ أَشَدُّ كُفۡرٗا وَنِفَاقٗا وَأَجۡدَرُ أَلَّا يَعۡلَمُواْ حُدُودَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 81
(97) ये बदवी अरब कुफ़्र व निफ़ाक़ में ज़्यादा सख़्त हैं और इनके मामले में इस अम्र के इमकानात ज़्यादा हैं कि उस दीन के हुदूद से नावाक़िफ़ रहें जो अल्लाह ने अपने रसूल पर नाज़िल किया है।36 अल्लाह सब कुछ जानता है और हकीम व दाना है।
36. बदवी अरबों से मुराद वे देहाती व सहराई अरब हैं जो मदीना के अतराफ़ में आबाद थे। ये लोग मदीना में एक मज़बूत और मुनज़्ज़म ताक़त को उठते देखकर पहले तो मरऊब हुए। फिर इस्लाम और कुफ़्र की आवेज़िशों के दौरान में मुद्दत तक मौक़ा-शनासी व इब्नुल-वक़्ती की रविश पर चलते रहे। फिर जब इस्लामी हुकूमत का इक़तिदार हिजाज़ व नज्द के एक बड़े हिस्से पर छा गया और मुख़ालिफ़ क़बीलों का ज़ोर उसके मुक़ाबले में टूटने लगा तो उन लोगों ने मस्लहते-वक़्त इसी में देखी कि दायरा-ए-इस्लाम में दाख़िल हो जाएँ, लेकिन उनमें कम लोग ऐसे थे जो इस दीन को दीने-हक़ समझकर सच्चे दिल से ईमान लाए हों और मुख़लिसाना तरीक़े से उसके तक़ाज़ों को पूरा करने पर आमादा हों। उनकी इसी हालत को यहाँ इस तरह बयान किया गया है कि शहरियों की बनिस्बत ये देहाती व सहराई लोग ज़्यादा मुनाफ़िक़ाना रवैया रखते हैं और हक़ से इनकार की कैफ़ियत उनके अन्दर ज़्यादा पाई जाती है। फिर इसकी वजह भी बता दी है कि शहरी लोग तो अहले-इल्म और अहले-हक़ की सोहबत से मुस्तफ़ीद होकर कुछ दीन को और उसके हुदूद को जान भी लेते हैं, मगर ये बदवी चूँकि सारी-सारी उम्र बिलकुल एक मआशी हैवान की तरह शबो-रोज़ रिज़्क़ के फेर ही में पड़े रहते हैं और हैवानी ज़िन्दगी की ज़रूरियात से बलंदतर किसी चीज़ की तरफ़ तवज्जुह करने का उन्हें मौक़ा ही नहीं मिलता, इसलिए दीन और उसके हुदूद से उनके नावाक़िफ़ रहने के इमकानात ज़्यादा हैं। आगे आयत 122 में उनके इस मरज़ का इलाज तजवीज़ किया गया है।
رَضُواْ بِأَن يَكُونُواْ مَعَ ٱلۡخَوَالِفِ وَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 82
(87) उन लोगों ने घर बैठनेवालियों में शामिल होना पसन्द किया और उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया गया, इसलिए उनकी समझ में अब कुछ नहीं आता।
لَٰكِنِ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ جَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلۡخَيۡرَٰتُۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 83
(88) बख़िलाफ़ इसके रसूल ने और उन लोगों ने जो रसूल के साथ ईमान लाए थे अपनी जान व माल से जिहाद किया और अब सारी भलाइयाँ उन्हीं के लिए हैं और वही फ़लाह पानेवाले हैं।
وَمِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مَن يَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ مَغۡرَمٗا وَيَتَرَبَّصُ بِكُمُ ٱلدَّوَآئِرَۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 84
(98) इन बदवियों में ऐसे-ऐसे लोग मौजूद हैं जो राहे-ख़ुदा में कुछ ख़र्च करते हैं तो उसे अपने ऊपर ज़बरदस्ती की चट्टी समझते हैं और तुम्हारे हक़ में ज़माने की गरदिशों का इन्तिज़ार कर रहे हैं (कि तुम किसी चक्कर में फँसो तो वे अपनी गर्दन से इस निज़ाम की इताअत का क़िलादा उतार फेंकें जिसमें तुमने उन्हें कस दिया है)। हालाँकि बदी का चक्कर ख़ुद इन्हीं पर मुसल्लत है और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 85
(89) अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, उनमें वे हमेशा रहेंगे। यह है अज़ीमुश्शान कामयाबी।
وَمِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ قُرُبَٰتٍ عِندَ ٱللَّهِ وَصَلَوَٰتِ ٱلرَّسُولِۚ أَلَآ إِنَّهَا قُرۡبَةٞ لَّهُمۡۚ سَيُدۡخِلُهُمُ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 86
(99) और इन्हीं बदवियों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखते हैं और जो कुछ ख़र्च करते हैं उसे अल्लाह के यहाँ तक़र्रुब का और रसूल की तरफ़ से रहमत की दुआएँ लेने का ज़रिआ बनाते हैं। हाँ! वह उनके लिए तक़र्रुब का ज़रिआ है और अल्लाह ज़रूर उनको अपनी रहमत में दाख़िल करेगा, यक़ीनन अल्लाह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
وَجَآءَ ٱلۡمُعَذِّرُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ لِيُؤۡذَنَ لَهُمۡ وَقَعَدَ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ سَيُصِيبُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 87
(90) बदवी अरबों में से भी बहुत-से लोग आए जिन्होंने उज़्र किए ताकि उन्हें भी पीछे रह जाने की इजाज़त दी जाए। इस तरह बैठ रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से ईमान का झूठा अह्द किया था। इन बदवियों में से जिन लोगों ने कुफ़्र का तरीक़ा इख़्तियार किया है अन-क़रीब वे दर्दनाक सज़ा से दो-चार होंगे।
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلۡأَوَّلُونَ مِنَ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ وَٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُم بِإِحۡسَٰنٖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي تَحۡتَهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 88
(100) वे मुहाजिर व अनसार जिन्होंने सबसे पहले दावते-ईमान पर लब्बैक कहने में सबक़त की, नीज़ वे जो बाद में रास्तबाज़ी के साथ उनके पीछे आए, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राज़ी हुए। अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ मुहैया कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें हमेशा रहेंगे, यही अज़ीमुश्शान कामयाबी है।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلضُّعَفَآءِ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرۡضَىٰ وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ مَا يُنفِقُونَ حَرَجٌ إِذَا نَصَحُواْ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ مِن سَبِيلٖۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 89
(91) ज़ईफ़ और बीमार लोग और वे लोग जो शिर्कते-जिहाद के लिए ज़ादे-राह नहीं पाते, अगर पीछे रह जाएँ तो कोई हरज नहीं, जबकि वे ख़ुलूसे-दिल के साथ अल्लाह और उसके रसूल के वफ़ादार हों।35 ऐसे मोहसिनीन पर एतिराज़ की कोई गुंजाइश नहीं है, और अल्लाह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
35. इससे मालूम हुआ कि जो लोग बज़ाहिर माज़ूर हों उनके लिए भी मुजर्रद ज़ईफ़ी और बीमारी या मह्ज़ नादारी काफ़ी नहीं है, बल्कि उनकी ये मजबूरियाँ सिर्फ़ उस सूरत में उनके लिए वजहे-माफ़ी हो सकती हैं जबकि वे अल्लाह और उसके रसूल के सच्चे वफ़ादार हों, वरना अगर वफ़ादारी मौजूद न हो तो कोई शख़्स सिर्फ़ इसलिए माफ़ नहीं किया जा सकता कि वह अदा-ए-फ़र्ज़ के मौक़े पर बीमार या नादार था।
وَمِمَّنۡ حَوۡلَكُم مِّنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مُنَٰفِقُونَۖ وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡمَدِينَةِ مَرَدُواْ عَلَى ٱلنِّفَاقِ لَا تَعۡلَمُهُمۡۖ نَحۡنُ نَعۡلَمُهُمۡۚ سَنُعَذِّبُهُم مَّرَّتَيۡنِ ثُمَّ يُرَدُّونَ إِلَىٰ عَذَابٍ عَظِيمٖ ۝ 90
(101) तुम्हारे गिर्दो-पेश जो बदवी रहते हैं उनमें बहुत-से मुनाफ़िक़ हैं और इसी तरह ख़ुद मदीना के बाशिन्दों में भी मुनाफ़िक़ मौजूद हैं जो निफ़ाक़ में ताक़ हो गए हैं। तुम उन्हें नहीं जानते, हम उनको जानते हैं। क़रीब है वह वक़्त जब हम उनको दोहरी सज़ा देंगे, फिर वे ज़्यादा बड़ी सज़ा के लिए वापस लाए जाएँगे।
وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ إِذَا مَآ أَتَوۡكَ لِتَحۡمِلَهُمۡ قُلۡتَ لَآ أَجِدُ مَآ أَحۡمِلُكُمۡ عَلَيۡهِ تَوَلَّواْ وَّأَعۡيُنُهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ حَزَنًا أَلَّا يَجِدُواْ مَا يُنفِقُونَ ۝ 91
(92) इसी तरह उन लोगों पर भी कोई एतिराज़ का मौक़ा नहीं है जिन्होंने ख़ुद आकर तुमसे दरख़ास्त की थी कि हमारे लिए सवारियाँ बहम पहुँचाई जाएँ, और जब तुमने कहा कि मैं तुम्हारे लिए सवारियों का इन्तिज़ाम नहीं कर सकता तो वे मजबूरन वापस गए और हाल यह था कि उनकी आँखों से आँसू जारी थे और उन्हें इस बात का बड़ा रंज था कि वे अपने ख़र्च पर शरीके-जिहाद होने की मक़दिरत नहीं रखते।
وَءَاخَرُونَ ٱعۡتَرَفُواْ بِذُنُوبِهِمۡ خَلَطُواْ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَءَاخَرَ سَيِّئًا عَسَى ٱللَّهُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 92
(102) कुछ और लोग हैं जिन्होंने अपने क़ुसूरों का एतिराफ़ कर लिया है। उनका अमल मख़लूत है, कुछ नेक हैं और कुछ बद। बईद नहीं कि अल्लाह उनपर फिर मेहरबान हो जाए क्योंकि वह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
۞إِنَّمَا ٱلسَّبِيلُ عَلَى ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ وَهُمۡ أَغۡنِيَآءُۚ رَضُواْ بِأَن يَكُونُواْ مَعَ ٱلۡخَوَالِفِ وَطَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 93
(93) अलबत्ता एतिराज़ उन लोगों पर है जो मालदार हैं और फिर भी तुमसे दरख़ास्त करते हैं कि उन्हें शिर्कते-जिहाद से माफ़ रखा जाए। उन्होंने घर बैठनेवालियों में शामिल होना पसन्द किया और अल्लाह ने उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया, इसलिए अब ये कुछ नहीं जानते (कि अल्लाह के यहाँ इनकी इस रविश का क्या नतीजा निकलनेवाला है)।
خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡ صَدَقَةٗ تُطَهِّرُهُمۡ وَتُزَكِّيهِم بِهَا وَصَلِّ عَلَيۡهِمۡۖ إِنَّ صَلَوٰتَكَ سَكَنٞ لَّهُمۡۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 94
(103) (ऐ नबी!) तुम उनके अमवाल में से सदक़ा लेकर उन्हें पाक करो और (नेकी की राह में) उन्हें बढ़ाओ और उनके हक़ में दुआ-ए-रहमत करो, क्योंकि तुम्हारी दुआ उनके लिए वजहे-तसकीन होगी, अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
يَعۡتَذِرُونَ إِلَيۡكُمۡ إِذَا رَجَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡۚ قُل لَّا تَعۡتَذِرُواْ لَن نُّؤۡمِنَ لَكُمۡ قَدۡ نَبَّأَنَا ٱللَّهُ مِنۡ أَخۡبَارِكُمۡۚ وَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 95
(94) तुम जब पलटकर उनके पास पहुँचोगे तो ये तरह-तरह के उज़्रात पेश करेंगे। मगर तुम साफ़ कह देना कि “बहाने न करो, हम तुम्हारी किसी बात का एतिबार न करेंगे। अल्लाह ने हमको तुम्हारे हालात बता दिए हैं। अब अल्लाह और उसका रसूल तुम्हारे तर्ज़े-अमल को देखेगा, फिर तुम उसकी तरफ़ पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबका जाननेवाला है और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।”
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ يَقۡبَلُ ٱلتَّوۡبَةَ عَنۡ عِبَادِهِۦ وَيَأۡخُذُ ٱلصَّدَقَٰتِ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 96
(104) क्या इन लोगों को मालूम नहीं है कि वह अल्लाह ही है जो अपने बन्दों की तौबा क़ुबूल करता है और उनकी ख़ैरात को क़ुबूलियत अता फ़रमाता है, और यह कि अल्लाह बहुत माफ़ करनेवाला और रहीम है?
سَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَكُمۡ إِذَا ٱنقَلَبۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ لِتُعۡرِضُواْ عَنۡهُمۡۖ فَأَعۡرِضُواْ عَنۡهُمۡۖ إِنَّهُمۡ رِجۡسٞۖ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 97
(95) तुम्हारी वापसी पर ये तुम्हारे सामने क़समें खाएँगे ताकि तुम उनसे सर्फ़े-नज़र करो। तो बेशक तुम उनसे सर्फ़े-नज़र ही कर लो, क्योंकि ये गन्दगी हैं और इनका अस्ली मक़ाम जहन्नम है जो इनकी कमाई के बदले में इन्हें नसीब होगी।
وَقُلِ ٱعۡمَلُواْ فَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۖ وَسَتُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 98
(105) और (ऐ नबी!) इन लोगों से कह दो कि तुम अमल करो, अल्लाह और उसका रसूल और मोमिनीन सब देखेंगे कि तुम्हारा तर्ज़े-अमल अब क्या रहता है, फिर तुम उसकी तरफ़ पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबको जानता है, और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
يَحۡلِفُونَ لَكُمۡ لِتَرۡضَوۡاْ عَنۡهُمۡۖ فَإِن تَرۡضَوۡاْ عَنۡهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يَرۡضَىٰ عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 99
(96) ये तुम्हारे सामने क़समें खाएँगे ताकि तुम इनसे राज़ी हो जाओ। हालाँकि अगर तुम इनसे राज़ी हो भी गए तो अल्लाह हरगिज़ ऐसे फ़ासिक़ लोगों से राज़ी न होगा।
وَءَاخَرُونَ مُرۡجَوۡنَ لِأَمۡرِ ٱللَّهِ إِمَّا يُعَذِّبُهُمۡ وَإِمَّا يَتُوبُ عَلَيۡهِمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 100
(106) कुछ दूसरे लोग हैं जिनका मामला अभी ख़ुदा के हुक्म पर ठहरा हुआ है, चाहे उन्हें सज़ा दे और चाहे उनपर अज़-सरे-नौ मेहरबान हो जाए। अल्लाह सब कुछ जानता है और हकीम व दाना है।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مَسۡجِدٗا ضِرَارٗا وَكُفۡرٗا وَتَفۡرِيقَۢا بَيۡنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَإِرۡصَادٗا لِّمَنۡ حَارَبَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ مِن قَبۡلُۚ وَلَيَحۡلِفُنَّ إِنۡ أَرَدۡنَآ إِلَّا ٱلۡحُسۡنَىٰۖ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 101
(107) कुछ और लोग हैं जिन्होंने एक मस्जिद बनाई इस ग़रज़ के लिए कि (दावते-हक़ को) नुक़सान पहुँचाएँ, और (ख़ुदा की बन्दगी करने के बजाय) कुफ़्र करें, और अहले-ईमान में फूट डालें, और (इस बज़ाहिर इबादतगाह को) उस शख़्स के लिए कमीनगाह बनाएँ जो इससे पहले ख़ुदा और उसके रसूल के ख़िलाफ़ बरसरे-पैकार हो चुका है। वे ज़रूर क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हमारा इरादा तो भलाई के सिवा किसी दूसरी चीज़ का न था। मगर अल्लाह गवाह है कि वे क़तई झूठे हैं।
لَا تَقُمۡ فِيهِ أَبَدٗاۚ لَّمَسۡجِدٌ أُسِّسَ عَلَى ٱلتَّقۡوَىٰ مِنۡ أَوَّلِ يَوۡمٍ أَحَقُّ أَن تَقُومَ فِيهِۚ فِيهِ رِجَالٞ يُحِبُّونَ أَن يَتَطَهَّرُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُطَّهِّرِينَ ۝ 102
(108) तुम हरगिज़ उस इमारत में खड़े न होना। जो मस्जिद अव्वल रोज़ से तक़वा पर क़ायम की गई थी वही इसके लिए ज़्यादा मौजूँ है कि तुम उसमें (इबादत के लिए) खड़े हो, उसमें ऐसे लोग हैं जो पाक रहना पसन्द करते हैं और अल्लाह को पाकीज़गी इख़्तियार करनेवाले ही पसन्द हैं।37
37. मदीना में उस वक़्त दो मस्जिदें थीं। एक मस्जिदे-क़ुबा जो शहर के मुज़ाफ़ात में थी, दूसरी मस्जिदे-नबवी जो शहर के अन्दर थी। इन दो मस्जिदों की मौजूदगी में एक तीसरी मस्जिद बनाने की कोई ज़रूरत न थी। मगर मुनाफ़िक़ीन ने यह बहाना बनाया कि बारिश में और जाड़े की रातों में आम लोगों को और ख़ुसूसन ज़ईफ़ों और माज़ूरों को, जो इन दोनों मस्जिदों से दूर रहते हैं, पाँचों वक़्त हाज़िरी देनी मुशकिल होती है। लिहाज़ा हम मह्ज़ नमाज़ियों की आसानी के लिए यह एक नई मस्जिद तामीर करना चाहते हैं। इस तरह उन्होंने उसकी तामीर की इजाज़त ली और उसे अपनी साज़िशों का अड्डा बना लिया। वे चाहते थे कि नबी (सल्ल०) को धोखा देकर आप (सल्ल०) से उसका इफ़तिताह कराएँ मगर अल्लाह तआला ने हुज़ूर (सल्ल०) को उनके इरादों से पहले ही ख़बरदार कर दिया और तबूक से वापस आकर आप (सल्ल०) ने इस मस्जिदे-ज़िरार को मिस्मार कर दिया।
إِنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۚ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 103
(116) और यह भी वाक़िआ है कि अल्लाह ही के क़ब्ज़े में ज़मीन और आसमानों की सल्तनत है, उसी के इख़्तियार में ज़िन्दगी और मौत है, और तुम्हारा कोई हामी व मददगार ऐसा नहीं है जो तुम्हें उससे बचा सके।
أَفَمَنۡ أَسَّسَ بُنۡيَٰنَهُۥ عَلَىٰ تَقۡوَىٰ مِنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٍ خَيۡرٌ أَم مَّنۡ أَسَّسَ بُنۡيَٰنَهُۥ عَلَىٰ شَفَا جُرُفٍ هَارٖ فَٱنۡهَارَ بِهِۦ فِي نَارِ جَهَنَّمَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 104
(109) फिर तुम्हारा क्या ख़याल है कि बेहतर इनसान वह है जिसने अपनी इमारत की बुनियाद ख़ुदा के ख़ौफ़ और उसकी रिज़ा की तलब पर रखी हो या वह जिसने अपनी इमारत एक वादी की खोखली बेसबात कगार पर उठाई और वह उसे लेकर सीधी जहन्नम की आग में जा गिरी? ऐसे ज़ालिम लोगों को अल्लाह कभी सीधी राह नहीं दिखाता।
لَا يَزَالُ بُنۡيَٰنُهُمُ ٱلَّذِي بَنَوۡاْ رِيبَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡ إِلَّآ أَن تَقَطَّعَ قُلُوبُهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 105
(110) यह इमारत जो उन्होंने बनाई है, हमेशा उनके दिलों में बेयक़ीनी की जड़ बनी रहेगी (जिसके निकलने की अब कोई सूरत नहीं) बजुज़ इसके कि उनके दिल ही पारा-पारा हो जाएँ। अल्लाह निहायत बाख़बर और हकीम व दाना है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱشۡتَرَىٰ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَنفُسَهُمۡ وَأَمۡوَٰلَهُم بِأَنَّ لَهُمُ ٱلۡجَنَّةَۚ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيَقۡتُلُونَ وَيُقۡتَلُونَۖ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ وَٱلۡقُرۡءَانِۚ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ مِنَ ٱللَّهِۚ فَٱسۡتَبۡشِرُواْ بِبَيۡعِكُمُ ٱلَّذِي بَايَعۡتُم بِهِۦۚ وَذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 106
(111) हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ने मोमिनों से उनके नफ़्स और उनके माल जन्नत के बदले में ख़रीद लिए हैं।38 वे अल्लाह की राह में लड़ते और मारते और मरते हैं। उनसे (जन्नत का वादा) अल्लाह के ज़िम्मे एक पुख़्ता वादा है तौरात और इंजील और क़ुरआन में। और कौन है जो अल्लाह से बढ़कर अपने अद का पूरा करनेवाला हो? पस ख़ुशियाँ मनाओ अपने उस सौदे पर जो तुमने ख़ुदा से चुका लिया है, यही सबसे बड़ी कामयाबी है।
38. यहाँ ईमान के इस मामले को जो ख़ुदा और बन्दे के दरमियान होता है ‘बैअ' से ताबीर किया गया है। इसके मानी ये हैं कि ईमान दरअस्ल एक मुआहदा है जिसकी रू से बन्दा अपना नफ़्स और अपना माल ख़ुदा के हाथ फ़रोख़्त कर देता है और उसके मुआवज़े में ख़ुदा की तरफ़ से इस वादे को क़ुबूल कर लेता है कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में वह उसे जन्नत अता करेगा।
ٱلتَّٰٓئِبُونَ ٱلۡعَٰبِدُونَ ٱلۡحَٰمِدُونَ ٱلسَّٰٓئِحُونَ ٱلرَّٰكِعُونَ ٱلسَّٰجِدُونَ ٱلۡأٓمِرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَٱلنَّاهُونَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡحَٰفِظُونَ لِحُدُودِ ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 107
(112) अल्लाह की तरफ़ बार-बार पलटनेवाले,39 उसकी बन्दगी बजा लानेवाले, उसकी तारीफ़ के गुन गानेवाले, उसकी ख़ातिर ज़मीन में गरदिश करनेवाले,40 उसके आगे रुकूअ और सजदे करनेवाले, नेकी का हुक्म देनेवाले और बदी से रोकनेवाले और अल्लाह के हुदूद की हिफ़ाज़त करनेवाले, (इस शान के होते हैं वे मोमिन जो अल्लाह से बैअ का यह मामला तय करते हैं) और (ऐ नबी।) इन मोमिनों को ख़ुशखबरी दे दो।
39. अस्ल में लफ़्ज़ 'अत्ताइबून' इस्तेमाल हुआ है जिसका लफ़ज़ी तर्जमा 'तौबा करनेवाले' है लेकिन जिस अन्दाज़े-कलाम में यह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है उससे साफ़ ज़ाहिर है कि तौबा करना अहले-ईमान की मुस्तक़िल सिफ़ात में से है। इसलिए इसका सही मफ़हूम यह है कि वे एक ही मर्तबा तौबा नहीं करते, बल्कि हमेशा तौबा करते रहते हैं और तौबा के अस्ल मानी रुजूअ करने पलटने के हैं, लिहाज़ा इस की हक़ीक़ी रूह ज़ाहिर करने के लिए हमने उसका तशरीही तर्जमा यूँ किया है —'वे अल्लाह की तरफ़ बार-बार पलटते हैं।'
40. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि रोज़े रखनेवाले।
مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن يَسۡتَغۡفِرُواْ لِلۡمُشۡرِكِينَ وَلَوۡ كَانُوٓاْ أُوْلِي قُرۡبَىٰ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمۡ أَنَّهُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 108
(113) नबी को और उन लोगों को जो ईमान लाए हैं, ज़ेबा नहीं है कि मुशरिकों के लिए मग़फ़िरत की दुआ करें, चाहे वे उनके रिश्तेदार ही क्यों न हों, जबकि उनपर यह बात खुल चुकी है कि वे जहन्नम के मुस्तहिक़ हैं।
وَمَا كَانَ ٱسۡتِغۡفَارُ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ إِلَّا عَن مَّوۡعِدَةٖ وَعَدَهَآ إِيَّاهُ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥٓ أَنَّهُۥ عَدُوّٞ لِّلَّهِ تَبَرَّأَ مِنۡهُۚ إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَأَوَّٰهٌ حَلِيمٞ ۝ 109
(114) इबराहीम ने अपने बाप के लिए जो दुआ-ए-मग़फ़िरत की थी वह तो उस वादे की वजह से थी जो उसने अपने बाप से किया था, मगर जब उसपर ये बात खुल गई कि उसका बाप ख़ुदा का दुश्मन है तो वह उससे बेज़ार हो गया, हक़ यह है कि इबराहीम बड़ा रक़ीक़ुल-क़ल्ब व ख़ुदा-तरस और बुर्दबार आदमी था।
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِلَّ قَوۡمَۢا بَعۡدَ إِذۡ هَدَىٰهُمۡ حَتَّىٰ يُبَيِّنَ لَهُم مَّا يَتَّقُونَۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 110
(115) अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि लोगों को हिदायत देने के बाद फिर गुमराही में मुब्तला करे जब तक कि उन्हें साफ़-साफ़ बता न दे कि उन्हें किन चीज़ों से बचना चाहिए। दर-हक़ीक़त अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
أَوَلَا يَرَوۡنَ أَنَّهُمۡ يُفۡتَنُونَ فِي كُلِّ عَامٖ مَّرَّةً أَوۡ مَرَّتَيۡنِ ثُمَّ لَا يَتُوبُونَ وَلَا هُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 111
(126) क्या ये लोग देखते नहीं कि हर साल एक-दो मर्तबा ये आज़माइश में डाले जाते हैं?46 मगर इसपर भी न तौबा करते हैं न कोई सबक़ लेते हैं।
46. यानी कोई साल ऐसा नहीं गुज़र रहा है जब कि एक-दो मर्तबा ऐसे हालात न पेश आ जाते हों जिनमें उनका दावा-ए-ईमान आज़माइश की कसौटी पर कसा न जाता हो और उसकी खोट का राज़ फ़ाश न हो जाता हो।
وَإِذَا مَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ نَّظَرَ بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٍ هَلۡ يَرَىٰكُم مِّنۡ أَحَدٖ ثُمَّ ٱنصَرَفُواْۚ صَرَفَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُم بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 112
(127) जब कोई सूरत नाज़िल होती है तो ये लोग आँखों-ही-आँखों में एक-दूसरे से बातें करते हैं कि कहीं कोई तुमको देख तो नहीं रहा है, फिर चुपके से निकल भागते हैं। अल्लाह ने उनके दिल फेर दिए हैं क्योंकि ये नासमझ लोग हैं।
لَقَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ عَزِيزٌ عَلَيۡهِ مَا عَنِتُّمۡ حَرِيصٌ عَلَيۡكُم بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 113
(128) देखो! तुम लोगों के पास एक रसूल आया है जो ख़ुद तुम ही में से है, तुम्हारा नुक़सान में पड़ना उसपर शाक़ है, तुम्हारी फ़लाह का वह हरीस है, ईमान लानेवालों के लिए वह शफ़ीक़ और रहीम है।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ حَسۡبِيَ ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَهُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 114
(129) — अब अगर ये लोग तुमसे मुँह फेरते हैं तो (ऐ नबी!) इनसे कह दो कि “मेरे लिए अल्लाह बस करता है, कोई माबूद नहीं मगर वह, उसी पर मैंने भरोसा किया और वह मालिक है अर्शे-अज़ीम का।
فَرِحَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ بِمَقۡعَدِهِمۡ خِلَٰفَ رَسُولِ ٱللَّهِ وَكَرِهُوٓاْ أَن يُجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَقَالُواْ لَا تَنفِرُواْ فِي ٱلۡحَرِّۗ قُلۡ نَارُ جَهَنَّمَ أَشَدُّ حَرّٗاۚ لَّوۡ كَانُواْ يَفۡقَهُونَ ۝ 115
(81) जिन लोगों को पीछे रह जाने की इजाज़त दे दी गई थी वे अल्लाह के रसूल का साथ न देने और घर बैठे रहने पर ख़ुश हुए और उन्हें गवारा न हुआ कि अल्लाह की राह में जान व माल से जिहाद करें। उन्होंने लोगों से कहा कि “इस सख़्त गर्मी में न निकलो!” इनसे कहो कि जहन्नम की आग इससे ज़्यादा गर्म है। काश, इन्हें इसका शुऊर होता!
فَلۡيَضۡحَكُواْ قَلِيلٗا وَلۡيَبۡكُواْ كَثِيرٗا جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 116
(82) अब चाहिए कि ये लोग हँसना कम करें और रोएँ ज़्यादा, इसलिए कि जो बदी ये कमाते रहे हैं उसकी जज़ा ऐसी ही है (कि इन्हें इसपर रोना चाहिए)।
فَإِن رَّجَعَكَ ٱللَّهُ إِلَىٰ طَآئِفَةٖ مِّنۡهُمۡ فَٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِلۡخُرُوجِ فَقُل لَّن تَخۡرُجُواْ مَعِيَ أَبَدٗا وَلَن تُقَٰتِلُواْ مَعِيَ عَدُوًّاۖ إِنَّكُمۡ رَضِيتُم بِٱلۡقُعُودِ أَوَّلَ مَرَّةٖ فَٱقۡعُدُواْ مَعَ ٱلۡخَٰلِفِينَ ۝ 117
(83) अगर अल्लाह उनके दरमियान तुम्हें वापस ले जाए और आइन्दा उनमें से कोई गरोह जिहाद के लिए निकलने की तुमसे इजाज़त माँगे तो साफ़ कह देना, “अब तुम मेरे साथ हरगिज़ नहीं चल सकते और न मेरी मईयत में किसी दुश्मन से लड़ सकते हो? तुमने पहले बैठ रहने को पसन्द किया था तो अब घर बैठनेवालों ही के साथ बैठे रहो।”
وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰٓ أَحَدٖ مِّنۡهُم مَّاتَ أَبَدٗا وَلَا تَقُمۡ عَلَىٰ قَبۡرِهِۦٓۖ إِنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَمَاتُواْ وَهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 118
(84) और आइन्दा उनमें से जो कोई मरे उसकी नमाज़े-जनाज़ा भी तुम हरगिज़ न पढ़ना और न कभी उसकी क़ब्र पर खड़े होना, क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और वे मरे हैं इस हाल में कि वे फ़ासिक़ थे।
وَلَا تُعۡجِبۡكَ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَأَوۡلَٰدُهُمۡۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُعَذِّبَهُم بِهَا فِي ٱلدُّنۡيَا وَتَزۡهَقَ أَنفُسُهُمۡ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 119
(85) उनकी मालदारी और उनकी कसरते-औलाद तुमको धोखे में न डाले। अल्लाह ने तो इरादा कर लिया है कि इस माल व औलाद के ज़रिए से उनको इसी दुनिया में सज़ा दे और उनकी जानें इस हाल में निकलें कि वे काफ़िर हों।
لَّقَد تَّابَ ٱللَّهُ عَلَى ٱلنَّبِيِّ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ ٱلۡعُسۡرَةِ مِنۢ بَعۡدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٖ مِّنۡهُمۡ ثُمَّ تَابَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّهُۥ بِهِمۡ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 120
(117) अल्लाह ने माफ़ कर दिया नबी को और उन मुहाजिरीन व अनसार को जिन्होंने बड़ी तंगी के वक़्त में नबी का साथ दिया। अगरचे उनमें से कुछ लोगों के दिल कजी की तरफ़ माइल हो चुके थे,41 ( मगर जब उन्होंने इस कजी का इत्तिबाअ न किया बल्कि नबी का साथ दिया तो) अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया, बेशक उसका मामला इन लोगों के साथ शफ़क़त व मेहरबानी का है।
41. यानी बाज़ मुख़लिस सहाबा (रज़ि०) भी उस सख़्त वक़्त में जंग पर जाने से किसी-न-किसी हद तक जी चुराने लगे थे, मगर चूँकि उनके दिलों में ईमान था और वे सच्चे दिल से दीने-हक़ के साथ मोहब्बत रखते थे इसलिए आख़िरकार वे अपनी इस कमज़ोरी पर ग़ालिब आ गए।
وَعَلَى ٱلثَّلَٰثَةِ ٱلَّذِينَ خُلِّفُواْ حَتَّىٰٓ إِذَا ضَاقَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ وَضَاقَتۡ عَلَيۡهِمۡ أَنفُسُهُمۡ وَظَنُّوٓاْ أَن لَّا مَلۡجَأَ مِنَ ٱللَّهِ إِلَّآ إِلَيۡهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيۡهِمۡ لِيَتُوبُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 121
(118) और उन तीनों को भी उसने माफ़ किया जिनके मामले को मुल्तवी कर दिया गया था। जब ज़मीन अपनी सारी वुसअत के बावजूद उनपर तंग हो गई और उनकी अपनी जानें भी उनपर बार होने लगीं और उन्होंने जान लिया कि अल्लाह से बचने के लिए कोई जाए-पनाह ख़ुद अल्लाह ही के दामने-रहमत के सिवा नहीं है तो अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनकी तरफ़ पलटा ताकि वे उसकी तरफ़ पलट आएँ, यक़ीनन वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहीम है।42
42. ये तीनों साहब काब-बिन-मालिक (रज़ि०), हिलाल-बिन-उमय्या (रज़ि०) और मुरारा-बिन-रबीअ (रज़ि०) थे। तीनों सच्चे मोमिन थे, इससे पहले अपने इख़लास का बारहा सुबूत दे चुके थे, क़ुरबानियाँ दे चुके थे, मगर इन ख़िदमात के बावजूद जो सुस्ती जंगे-तबूक के नाज़ुक मौक़े पर, जबकि तमाम क़ाबिले-जंग अहले-ईमान को जंग के लिए निकल आने का हुक्म दिया गया था, इन हज़रात ने दिखाई, उसपर सख़्त गिरिफ़्त की गई। नबी (सल्ल०) ने तबूक से वापस तशरीफ लाकर मुसलमानों को हुक्म दे दिया कि कोई उनसे सलाम-कलाम न करे। 40 दिन के बाद उनकी बीवियों को उनसे अलग रहने की ताकीद कर दी गई। फ़िल-वाक़े मदीना की बस्ती में उनका वही हाल हो गया था जिसकी तसवीर इस आयत में खींची गई है। आख़िरकार जब उनके मुक़ातए के 50 दिन हो गए तब माफ़ी का यह हुक्म नाज़िल हुआ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَكُونُواْ مَعَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 122
(119) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो। अल्लाह से डरो और सच्चे लोगों का साथ दो।
مَا كَانَ لِأَهۡلِ ٱلۡمَدِينَةِ وَمَنۡ حَوۡلَهُم مِّنَ ٱلۡأَعۡرَابِ أَن يَتَخَلَّفُواْ عَن رَّسُولِ ٱللَّهِ وَلَا يَرۡغَبُواْ بِأَنفُسِهِمۡ عَن نَّفۡسِهِۦۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ لَا يُصِيبُهُمۡ ظَمَأٞ وَلَا نَصَبٞ وَلَا مَخۡمَصَةٞ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَطَـُٔونَ مَوۡطِئٗا يَغِيظُ ٱلۡكُفَّارَ وَلَا يَنَالُونَ مِنۡ عَدُوّٖ نَّيۡلًا إِلَّا كُتِبَ لَهُم بِهِۦ عَمَلٞ صَٰلِحٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 123
(120) मदीना के बाशिन्दों और गिर्दो-नवाह के बदवियों को यह हरगिज़ ज़ेबा न था कि अल्लाह के रसूल को छोड़कर घर बैठ रहते और उसकी तरफ़ से बेपरवा होकर अपने-अपने नफ़्स की फ़िक्र में लग जाते। इसलिए कि ऐसा कभी न होगा कि अल्लाह की राह में भूख-प्यास और जिस्मानी मशक़्क़त की कोई तकलीफ़ वे झेलें, और मुनकिरीने-हक़ को जो राह नागवार है उसपर कोई क़दम वे उठाएँ, और किसी दुश्मन से (अदावते-हक़ का) कोई इन्तिक़ाम वे लें, और इसके बदले उनके हक़ में एक अमले-सॉलेह न लिखा जाए। यक़ीनन अल्लाह के यहाँ मोहसिनों का हक़्क़ुल-ख़िदमत मारा नहीं जाता है।
وَلَا يُنفِقُونَ نَفَقَةٗ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةٗ وَلَا يَقۡطَعُونَ وَادِيًا إِلَّا كُتِبَ لَهُمۡ لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 124
(121) इसी तरह यह भी कभी न होगा कि वे (राहे-ख़ुदा में) थोड़ा या बहुत कोई ख़र्च उठाएँ और (सई व जिहाद में) कोई वादी वे पार करें और उनक हक़ में उसे लिख न लिया जाए ताकि अल्लाह उनके इस अच्छे कारनामे का सिला उन्हें अता करे।
۞وَمَا كَانَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لِيَنفِرُواْ كَآفَّةٗۚ فَلَوۡلَا نَفَرَ مِن كُلِّ فِرۡقَةٖ مِّنۡهُمۡ طَآئِفَةٞ لِّيَتَفَقَّهُواْ فِي ٱلدِّينِ وَلِيُنذِرُواْ قَوۡمَهُمۡ إِذَا رَجَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَحۡذَرُونَ ۝ 125
(122) और यह कुछ ज़रूरी न था कि अहले-ईमान सारे-के-सारे ही निकल खड़े होते, मगर ऐसा क्यों न हुआ कि उनकी आबादी के हर हिस्से में से कुछ लोग निकलकर आते और दीन की समझ पैदा करते और वापस जाकर अपने इलाक़े के बाशिन्दों को ख़बरदार करते ताकि वे (ग़ैर-मुस्लिमाना रविश से) परहेज़ करते।43
43. मुराद यह है कि तमाम बदवियों का मदीना आ जाना कुछ ज़रूरी न था। हर बस्ती और इलाक़े के लोगों में से अगर कुछ लोग मदीना में आकर इल्मे-दीन हासिल करते और वापस जाकर अपने इलाक़े के लोगों को दीन सिखाते तो बदवियों में वह जहालत बाक़ी न रहती जिसकी वजह से वे मुनाफ़क़त की बीमारी में मुब्तला हैं और इस्लाम क़ुबूल कर लेने के बावजूद मुसलमान होने का हक़ अदा नहीं करते।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ يَلُونَكُم مِّنَ ٱلۡكُفَّارِ وَلۡيَجِدُواْ فِيكُمۡ غِلۡظَةٗۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 126
(123) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जंग करो उन मुनकिरीने-हक़ से जो तुम्हारे पास हैं।44 और चाहिए कि वे तुम्हारे अन्दर सख़्ती पाएँ,45 और जान लो कि अल्लाह मुत्तक़ियों के साथ है।
44. सियाक़े-कलाम पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ ज़ाहिर हो जाती है कि यहाँ कुफ़्फ़ार से मुराद वे मुनाफ़िक़ लोग हैं जिनका इनकारे-हक़ पूरी तरह नुमायाँ हो चुका था और जिनके इस्लामी सोसाइटी में ख़ल्त-मल्त रहने से सख़्त नुक़सानात पहुँच रहे थे।
45. यानी अब वह नर्म सुलूक ख़त्म हो जाना चाहिए जो अब तक उनके साथ होता रहा है।
وَإِذَا مَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ فَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ أَيُّكُمۡ زَادَتۡهُ هَٰذِهِۦٓ إِيمَٰنٗاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَزَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَهُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 127
(124) जब कोई नई सूरत नाज़िल होती है तो उनमें से बाज़ लोग (मज़ाक़ के तौर पर मुसलमानों से) पूछते हैं कि “कहो, तुममें से किसके ईमान में इससे इज़ाफ़ा हुआ?” जो लोग ईमान लाए हैं उनके ईमान में तो फ़िल-वाक़े (हर नाज़िल होनेवाली सूरत ने) इज़ाफ़ा ही किया है और वे इससे दिलशाद हैं,
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ فَزَادَتۡهُمۡ رِجۡسًا إِلَىٰ رِجۡسِهِمۡ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 128
(125) अलबत्ता जिन लोगों के दिलों को (निफ़ाक़ का) रोग लगा हआ था उनकी साबिक़ नजासत पर (हर नई सूरत ने) एक और नजासत का इज़ाफ़ा कर दिया और वे मरते दम तक कुफ़्र ही में मुब्तला रहे।