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سُورَةُ يُونُسَ

  1.  यूनुस

(मक्‍का में उतरी – आयतें 109)

परि‍चय

नाम

इस सूरा का नाम नियमानुसार केवल प्रतीक के रूप में आयत 98 से लिया गया है, जिसमें संकेत रूप में हज़रत यूनुस (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है। सूरा की वार्ता का विषय हज़रत यूनुस (अलैहि०) का क़िस्सा नहीं है।

उतरने का स्थान

रिवायतों से मालूम होता है और विषयवस्तु से इसका समर्थन होता है कि यह पूरी सूरा मक्के में उतरी है।

उतरने का समय

उतरने के समय के बारे में कोई रिवायत हमें नहीं मिली। लेकिन विषय से ऐसा ही प्रतीत होता है कि यह सूरा मक्का-निवास के अन्तिम काल में उतरी होगी, जब इस्लामी संदेश के विरोधी पूरी तीव्रता से अवरोध उत्पन्न कर रहे थे। लेकिन इस सूरा में हिजरत (घर-बार छोड़ने) की ओर भी कोई संकेत नहीं पाया जाता, इसलिए इसका समय उन सूरतों से पहले का समझना चाहिए जिनमें कोई न कोई सूक्ष्म या असूक्ष्म संकेत हमें हिजरत के बारे में मिलता है --- समय के इस निर्धारण के बाद ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उल्लेख की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि इस काल को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सूरा-6 (अनआम) और सूरा-7 (आराफ़) की प्रस्तावनाओं में वर्णन किया जा चुका है।

विषय

व्याख्यान का विषय दावत (आह्वान), उपदेश और चेतावनी है । बात इस तरह शुरू होती है लोग एक इंसान के नबी होने का सन्देश प्रस्तुत करने पर चकित हैं और इसे ख़ाहमख़ाह जादूगरी का इलज़ाम दे रहे हैं, हालाँकि जो बात वह पेश कर रहा है उसमें कोई चीज़ भी न तो विचित्र ही है और न ही जादू और ज्योतिष से ताल्लुक़ रखती है। वह तो दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों से तुम्हें अवगत करा रहा है। [एक तो एकेश्वरवाद, दूसरा क़ियामत और बदला दिए जाने के दिन का आना।] ये दोनों तथ्य जो वह तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, अपने आपमें सही हैं, चाहे तुम मानो या न मानो। इन्हें अगर मान लोगे तो तुम्हारा अपना ही अंजाम अच्छा होगा वरना स्वयं ही बुरा नतीजा देखोगे।

वार्ताएँ

इस भूमिका के बाद निम्‍न वार्ताएँ एक विशेष क्रम के साथ सामने आती हैं-

(1) वे प्रमाण जो रब के एक होने और मरने के बाद की ज़िन्दगी के सिलसिले में ऐसे लोगों की बुद्धि और अन्तरात्मा को सन्तुष्ट कर सकते हैं जो अज्ञानता पूर्ण विद्वेष में ग्रस्त न हों।

(2) उन ग़लतफहमियों को दूर किया गया और उन ग़फ़लतों (भुलावों) पर चेतावनी दी गई जो लोगों को तौहीद और आख़िरत का विश्वास मानने से रोक बन रही थीं (और हमेशा ऐसा हुआ करता है)।

(3) उन सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर जो मुहम्मद (सल्ल०) के रसूल होने और आपके लाए हुए सन्देश के बारे में की जाती थीं।

(4) दूसरे जीवन में जो कुछ सामने आनेवाला है, उसकी अग्रिम सूचना ।

(5) इस बात पर चेतावनी कि इस जगत का वर्तमान जीवन वास्तव में परीक्षा का जीवन है। इस जीवन की मोहलत को अगर तुमने नष्ट कर दिया और नबी का मार्गदर्शन स्वीकार करके परीक्षा की सफलता का सामान न किया, तो फिर कोई दूसरा अवसर तुम्हें मिलना नहीं है।

(6) उन खुली-खुली अज्ञानताओं और गुमराहियों की ओर संकेत जो लोगों के जीवन में केवल इस कारण पाई जा रही थीं कि वे अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना जी रहे थे।

इस सिलसिले में नूह (अलैहि०) का क़िस्सा संक्षेप में और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा तनिक विस्तार के साथ बयान किया गया है जिससे चार बातें मन में बिठानी हैं-

एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ जो मामला तुम लोग कर रहे हो, वह इससे मिलता-जुलता है जो नूह और मूसा (अलैहि०) के साथ तुम्हारे पहले के लोग कर चुके हैं और विश्वास करो कि इस नीति का जो परिणाम वे देख चुके हैं, वही तुम्हें भी देखना पड़ेगा।

दूसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथियों को आज कमज़ोर और बेबस देखकर यह न समझ लेना कि स्थिति सदैव यही रहेगी। तुम्हें खबर नहीं कि इन लोगों के पीछे वही अल्लाह है जो मूसा और हारून के पीछे था और वह ऐसे तरीक़े से स्थिति में परिवर्तन ला देता है जिस तक किसी की दृष्टि नहीं पहुँच सकती।

तीसरे यह कि संभलने की मोहलत समाप्त हो जाने के बाद (बिलकुल) अन्तिम क्षण में तौबा की तो क्षमा नहीं किए जाओगे।

चौथे यह कि ईमानवाले, विरोधी वातावरण की तीव्रता देखकर निराश न हों और उन्हें मालूम हो कि इन परिस्थितियों में उनको किस तरह काम करना चाहिए। साथ ही वे इस बात पर भी सचेत हो जाएँ कि जब अल्लाह अपनी कृपा से उनको इस सिथति से निकाल दे तो कहीं वे इस नीति पर न चल पड़ें जो बनी-इसराईल ने मिस्र से मुक्ति पाने पर अपनाई।

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سُورَةُ يُونُسَ
10. सूरा यूनुस
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) अलिफ़० लाम० रा० ये उस किताब की आयतें हैं जो ज्ञान एवं तत्त्वदर्शिता से परिपूर्ण है।
أَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا أَنۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ رَجُلٖ مِّنۡهُمۡ أَنۡ أَنذِرِ ٱلنَّاسَ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنَّ لَهُمۡ قَدَمَ صِدۡقٍ عِندَ رَبِّهِمۡۗ قَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٞ مُّبِينٌ ۝ 1
(2) क्या लोगों के लिए यह एक अजीब बात हो गई कि हमने ख़ुद उन्हीं में से एक आदमी पर प्रकाशना भेजी कि (बेख़बरी में पड़े हुए) लोगों को चौंका दे और जो मान ले उनको ख़ुशख़बरी दे दे कि उनके लिए उनके रब के पास सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मानित पद है? (इसपर) इनकार करनेवालों ने कहा कि यह व्यक्ति तो खुला जादूगर है।1
1. नबी (सल्ल०) को जादूगर वे इस अर्थ में कहते थे कि जो व्यक्ति भी क़ुरआन सुनकर और आपके प्रचार से प्रभावित होकर ईमान क़ुबूल करता था वह जान पर खेल जाने और दुनिया भर से कट जाने और हर मुसीबत उठाने के लिए तैयार हो जाता था।
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۖ مَا مِن شَفِيعٍ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ إِذۡنِهِۦۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 2
(3) वास्तविकता यह है कि तुम्हारा रब यही ईश्वर है जिसने आसमानों और ज़मीन को छ दिनों में पैदा किया, फिर राजसिंहासन पर विराजमान होकर विश्व का इन्तिज़ाम चला रहा है। कोई सिफ़ारिश करनेवाला नहीं है सिवाय इसके कि उसकी अनुमति के बाद सिफ़ारिश करे। यही अल्लाह तुम्हारा रब है, अत: तुम इसी की बन्दगी करो। फिर क्या तुम होश में न आओगे?
إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقًّاۚ إِنَّهُۥ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 3
(4) उसी की ओर तुम सबको पलटकर जाना है, यह अल्लाह का पक्का वादा है। बेशक पैदाइश की शुरुआत वही करता है, फिर वहीं दोबारा पैदा करेगा ताकि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए उनको इनसाफ़ के साथ अच्छा बदला दें, और जिन्होंने इनकार की नीति अपनाई वे खौलता हुआ पानी पिएँ और दर्दनाक सज़ा भुगतें, सत्य के उस इनकार के बदले में जो वे करते रहे।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ ٱلشَّمۡسَ ضِيَآءٗ وَٱلۡقَمَرَ نُورٗا وَقَدَّرَهُۥ مَنَازِلَ لِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ يُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 4
(5) वही है जिसने सूरज को प्रकाशमान बनाया और चाँद को चमक दी और चाँद के घटने-बढ़ने की मंज़िलें ठीक-ठीक निश्चित कर दीं, ताकि तुम उससे वर्षों और तारीख़ों के हिसाब मालूम करो। अल्लाह ने ये सब कुछ सत्यानुकूल ही पैदा किया है। वह अपनी निशानियों को खोल-खोलकर पेश कर रहा है उन लोगों के लिए जो ज्ञानवान हैं।
إِنَّ فِي ٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَّقُونَ ۝ 5
(6) यक़ीनन रात और दिन के उलट-फेर में और हर उस चीज़़ में जो अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों में पैदा की है, निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (असत्य देखने और असत्य कार्य करने से बचना चाहते हैं।2
2. अर्थात् इन निशानियों से सत्य तक सिर्फ़ वही लोग पहुँच सकते हैं जिनमें ये गुण पाए जाएँ। एक यह कि वे अज्ञानयुक्त पक्षपात से अलग होकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन साधनों से काम लें जो अल्लाह ने इनसान को दिए हैं। दूसरे यह कि उनके भीतर ख़ुद यह इच्छा मौजूद हो कि ग़लती से बचें और सही रास्ता अपनाएँ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا وَرَضُواْ بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَٱطۡمَأَنُّواْ بِهَا وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِنَا غَٰفِلُونَ ۝ 6
(7) वास्तविकता यह है कि जो लोग हमसे मिलने की उम्मीद नहीं रखते और दुनिया की ज़िन्दगी ही पर राज़ी और सन्तुष्ट हो गए हैं, और जो लोग हमारी निशानियों की ओर से असावधानी बरत रहे हैं,
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 7
(8) उनका अन्तिम ठिकाना जहन्नम होगा उन बुराइयों के बदले में जिनका अर्जन वे (अपनी इस ग़लत धारणा और ग़लत नीति के कारण) करते रहे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ يَهۡدِيهِمۡ رَبُّهُم بِإِيمَٰنِهِمۡۖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 8
(9) और यह भी सत्य है कि जो लोग ईमान लाए (अर्थात् जिन्होंने उन सच्चाइयों को माना जो इस किताब में सामने लाई गई हैं) और अच्छे काम करते रहे; उन्हें उनका पालनकर्ता रब उनके ईमान के कारण सीधी राह चलाएगा, नेमत भरी जन्नतों में उनके नीचे नहरें बहेंगी,
دَعۡوَىٰهُمۡ فِيهَا سُبۡحَٰنَكَ ٱللَّهُمَّ وَتَحِيَّتُهُمۡ فِيهَا سَلَٰمٞۚ وَءَاخِرُ دَعۡوَىٰهُمۡ أَنِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 9
(10) वहाँ उनकी पुकार यह होगी कि “पाक है तू ऐ अल्लाह", और उनकी दुआ यह होगी कि “सलामती हो” और उनकी हर बात का अन्त इसपर होगा कि “सारी तारीफ़ सारे जहान के रब अल्लाह ही के लिए है।"
۞وَلَوۡ يُعَجِّلُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ ٱلشَّرَّ ٱسۡتِعۡجَالَهُم بِٱلۡخَيۡرِ لَقُضِيَ إِلَيۡهِمۡ أَجَلُهُمۡۖ فَنَذَرُ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 10
(11) अगर कहीं अल्लाह लोगों के साथ बुरा मामला करने में भी उतनी ही जल्दी करता जितनी वे दुनिया की भलाई माँगने में जल्दी करते है तो काम करने की उनकी मुहलत कभी की खत्म कर दी गई होती। (मगर हमारा यह तरीक़ा नहीं है) इसलिए हम उन लोगों को जो हमसे मिलने की उम्मीद नहीं रखते उनकी सरकशी में भटकने के लिए छूट दे देते हैं।
وَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ٱلضُّرُّ دَعَانَا لِجَنۢبِهِۦٓ أَوۡ قَاعِدًا أَوۡ قَآئِمٗا فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُ ضُرَّهُۥ مَرَّ كَأَن لَّمۡ يَدۡعُنَآ إِلَىٰ ضُرّٖ مَّسَّهُۥۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡمُسۡرِفِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 11
(12) इनसान का हाल यह है कि जब उसपर कोई कठिन समय आता है तो खड़े और बैठे और लेटे हमको पुकारता है, मगर जब हम उसकी मुसीबत टाल देते हैं तो ऐसा चल निकलता है कि मानो उसने कभी अपने किसी बुरे समय पर हमको पुकारा ही न था। इस तरह मर्यादा का उल्लंघन करनेवालों के लिए उनके करतूत ख़ुशनुमा बना दिए गए हैं।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 12
(13) लोगो, तुमसे पहले की क़ौमों3 को हमने तबाह कर दिया जब उन्होंने ज़ुल्म की नीति अपनाई और उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए और उन्होंने ईमान को स्वीकार ही न किया। इस तरह हम अपराधियों को उनके अपराधों का बदला दिया करते हैं।
3. मूल में “क़ुरून” शब्द इस्तेमाल हुआ है जिससे साधारणतया अरबी भाषा में मुराद “एक ज़माने के लोग” होते हैं, लेकिन क़ुरआन में जिस ढंग से विभिन्न अवसरों पर इस शब्द का प्रयोग किया गया है उससे ऐसा लगता है कि “क़र्न” से मुराद वह क़ौम या समूह है जो अपने ज़माने में उन्नति के शिखर पर रही हो। ऐसी क़ौम के विनष्ट होने का अनिवार्यतः यही अर्थ नहीं है कि उसकी नस्ल को बिलकुल ख़त्म ही कर दिया जाए। बल्कि उसका उन्नति के स्थान से गिरा दिया जाना, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का नष्ट हो जाना, उसके व्यक्तित्व का मिट जाना और उसकी टुकड़ियों का टुकड़े-टुकड़े होकर दूसरी क़ौमों में गुम हो जाना, यह भी विनाश ही का एक रूप है।
ثُمَّ جَعَلۡنَٰكُمۡ خَلَٰٓئِفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لِنَنظُرَ كَيۡفَ تَعۡمَلُونَ ۝ 13
(14) अब उनके बाद हमने तुमको ज़मीन में उनकी जगह दी है, ताकि देखें तुम कैसे कर्म करते हो।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَاتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا ٱئۡتِ بِقُرۡءَانٍ غَيۡرِ هَٰذَآ أَوۡ بَدِّلۡهُۚ قُلۡ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أُبَدِّلَهُۥ مِن تِلۡقَآيِٕ نَفۡسِيٓۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۖ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 14
(15) जब उन्हें हमारी साफ़-साफ़ बातें सुनाई जाती हैं तो वे लोग जो हमसे मिलने की उम्मीद नहीं रखते, कहते हैं कि “इसके बदले कोई और क़ुरआन लाओ या इसमें कुछ संशोधन करो।” ऐ नबी, उनसे कहो, “मेरा यह काम नहीं है कि अपनी ओर से इसमें कोई परिवर्तन कर लूँ। मैं तो बस उस प्रकाशना (वह्य) का अनुयायी हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है। अगर मैं अपने रब का आदेश न मानूँ तो मुझे एक बड़े भयंकर दिन के अज़ाब का डर है।”
قُل لَّوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا تَلَوۡتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَدۡرَىٰكُم بِهِۦۖ فَقَدۡ لَبِثۡتُ فِيكُمۡ عُمُرٗا مِّن قَبۡلِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 15
(16) और कहो, “अगर अल्लाह की इच्छा यही होती तो मैं यह क़ुरआन तुम्हें कभी न सुनाता और अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता। आख़िर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे बीच गुज़ार चुका हूँ, क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?4
4. अर्थात् मैं तुम्हारे लिए कोई अजनबी आदमी नहीं हूँ। तुम्हारे ही शहर में पैदा हुआ हूँ। तुम्हारे ही बीच बचपन से गुज़रकर इस आयु को पहुँचा। अब क्या मेरे सारे जीवन को देखते हुए तुम ईमानदारी के साथ यह कह सकते हो कि यह क़ुरआन मेरी अपनी रची हुई वाणी हो सकता है। और क्या मुझसे यह उम्मीद कर सकते हो कि मैं इतना बड़ा झूठ बोलूँगा कि ख़ुद अपने मन से कोई बात गढ़ूँ और फिर लोगों से कहूँ कि यह अल्लाह की ओर से मुझपर अवतरित हुआ है।
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 16
(17) फिर उससे बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो एक झूठी बात गढ़कर अल्लाह से जोड़े या अल्लाह की वास्तविक आयतों को झुठलाए। यक़ीनन अपराधी कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡ وَيَقُولُونَ هَٰٓؤُلَآءِ شُفَعَٰٓؤُنَا عِندَ ٱللَّهِۚ قُلۡ أَتُنَبِّـُٔونَ ٱللَّهَ بِمَا لَا يَعۡلَمُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 17
(18) ये लोग अल्लाह के सिवा उनको पूज रहे हैं जो इनको न हानि पहुँचा सकते हैं न लाभ, और कहते यह हैं कि ये अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारिशी है। ऐ नबी इनसे कहो, “क्या तुम अल्लाह को उस बात की ख़बर देते हो जिसे न वह आसमानों में जानता है और न ज़मीन में?”5 पाक है वह और उच्च है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
5. किसी चीज़़ का अल्लाह के ज्ञान में न होना यह अर्थ रखता है कि वह सिरे से मौजूद ही नहीं है, इसलिए कि सब कुछ जो मौजूद है अल्लाह के ज्ञान में है। अतः सिफ़ारिशियों के न होने के लिए यह एक बहुत ही सुन्दर वर्णन-शैली है कि अल्लाह तो जानता नहीं कि धरती या आकाश में कोई उसके यहाँ तुम्हारी सिफ़ारिश करनेवाला है, फिर यह तुम किन सिफ़ारिशियों की उसे सूचना दे रहे हो?
وَمَا كَانَ ٱلنَّاسُ إِلَّآ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَٱخۡتَلَفُواْۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡ فِيمَا فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 18
(19) शुरू में सारे इनसान एक ही समुदाय (उम्मत) के थे, बाद में उन्होंने विभिन्न धारणाएँ और पंथ बना लिए, और अगर तेरे रब की ओर से पहले ही एक बात निश्चित न कर ली गई होती तो जिस चीज़़ में वे परस्पर विभेद कर रहे हैं उसका फ़ैसला कर दिया जाता।6
6. अर्थात् अगर अल्लाह ने पहले ही यह तय न कर लिया होता कि फ़ैसला क़ियामत के दिन होगा तो यहीं उसका फ़ैसला कर दिया जाता।
وَيَقُولُونَ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۖ فَقُلۡ إِنَّمَا ٱلۡغَيۡبُ لِلَّهِ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 19
(20) और यह जो वे कहते हैं कि इस नबी पर इसके रब की ओर से कोई निशानी क्यों न उतारी गई, तो इनसे कहो “ग़ैब (परोक्ष) का मालिक और अधिकारी तो अल्लाह ही है, अच्छा इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।"
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ مِّنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُمۡ إِذَا لَهُم مَّكۡرٞ فِيٓ ءَايَاتِنَاۚ قُلِ ٱللَّهُ أَسۡرَعُ مَكۡرًاۚ إِنَّ رُسُلَنَا يَكۡتُبُونَ مَا تَمۡكُرُونَ ۝ 20
(21) लोगों का हाल यह है कि मुसीबत के बाद जब हम उनको रहमत (दयालुता) का मज़ा चखाते हैं तो तुरन्त ही वे हमारी निशानियों के मामले में चालबाज़ियाँ शुरू कर देते हैं।7 इनसे कहो, “अल्लाह अपनी चाल में तुमसे ज़्यादा तेज़ है, उसके फ़रिश्ते तुम्हारी सब मक्कारियों को लिख रहे हैं।”
7. अर्थात् मुसीबत अल्लाह की ओर से एक निशानी होती है जो इनसान को एहसास दिलाती है कि अल्लाह के सिवा कोई उसे दूर करनेवाला नहीं है। मगर जब वह टल जाती है और अच्छा समय आ जाता है तो फिर ये कहने लगते हैं कि यह हमारे देवताओं और सिफ़ारिशियों की कृपा का परिणाम है।
هُوَ ٱلَّذِي يُسَيِّرُكُمۡ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا كُنتُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَجَرَيۡنَ بِهِم بِرِيحٖ طَيِّبَةٖ وَفَرِحُواْ بِهَا جَآءَتۡهَا رِيحٌ عَاصِفٞ وَجَآءَهُمُ ٱلۡمَوۡجُ مِن كُلِّ مَكَانٖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ أُحِيطَ بِهِمۡ دَعَوُاْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ لَئِنۡ أَنجَيۡتَنَا مِنۡ هَٰذِهِۦ لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 21
(22) वह अल्लाह ही है जो तुम्हें जल और थल की सैर कराता है। अतएव जब तुम नौकाओं में सवार होकर अनुकूल हवा पर प्रसन्न और ख़ुशी के साथ सफ़र कर रहे होते हो और फिर अचानक प्रतिकूल हवा का ज़ोर होता है और हर ओर से मौजों के थपेड़े लगते हैं और मुसाफ़िर समझ लेते हैं कि तूफ़ान में घिर गए, उस समय सब अपने दीन-धर्म को अल्लाह ही के लिए ख़ालिस करके उससे दुआएँ माँगते हैं कि “अगर तूने हमको इस बला से निकाल दिया से हम शुक्रगुजार बन्दे बनेंगे।”
فَلَمَّآ أَنجَىٰهُمۡ إِذَا هُمۡ يَبۡغُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۗ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّمَا بَغۡيُكُمۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۖ مَّتَٰعَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ ثُمَّ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُكُمۡ فَنُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 22
(23) मगर जब वह उनको बचा लेता है तो फिर वही लोग सत्य से हटकर ज़मीन में विद्रोह करने लगते हैं। लोगो, तुम्हारा यह विद्रोह तुम्हारे ही विरुद्ध पड़ रहा है। दुनिया की ज़िन्दगी के थोड़े दिनों के मज़े हैं (लूट लो), फिर हमारी ओर तुम्हें पलटकर आना है, उस समय हम तुम्हें बता देंगे कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।
إِنَّمَا مَثَلُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَآءٍ أَنزَلۡنَٰهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَٱخۡتَلَطَ بِهِۦ نَبَاتُ ٱلۡأَرۡضِ مِمَّا يَأۡكُلُ ٱلنَّاسُ وَٱلۡأَنۡعَٰمُ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَخَذَتِ ٱلۡأَرۡضُ زُخۡرُفَهَا وَٱزَّيَّنَتۡ وَظَنَّ أَهۡلُهَآ أَنَّهُمۡ قَٰدِرُونَ عَلَيۡهَآ أَتَىٰهَآ أَمۡرُنَا لَيۡلًا أَوۡ نَهَارٗا فَجَعَلۡنَٰهَا حَصِيدٗا كَأَن لَّمۡ تَغۡنَ بِٱلۡأَمۡسِۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 23
(24) यह दुनिया को ज़िन्दगी (जिसके नशे में चूर होकर तुम हमारी निशानियों को अनदेखी कर रहे हो इस) की मिसाल ऐसी है जैसे आसमान से हमने जल बरसाया तो ज़मीन की उपज, जिसे आदमी और जानवर सब खाते हैं, ख़ूब घनी हो गई फिर ठीक उस समय जबकि ज़मीन अपनी बहार पर थी और खेतियाँ बनी-सँवरी खड़ी थीं और उनके मालिक समझ रहे थे कि अब हमें उनसे लाभ उठाने की सामर्थ्य प्राप्त है, अचानक रात को या दिन को हमारा आदेश आ गया और हमने उसे ऐसा ग़ारत करके रख दिया कि मानो कल वहाँ कुछ था ही नहीं। इस तरह हम निशानियाँ खोल-खोलकर पेश करते हैं उन लोगों के लिए जो सोचने-समझनेवाले हैं।
وَٱللَّهُ يَدۡعُوٓاْ إِلَىٰ دَارِ ٱلسَّلَٰمِ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 24
(25) (तुम इस अस्थायी ज़िन्दगी के धोखे में पड़ रहे हो) और अल्लाह तुम्हें सलामती के घर की ओर बुला रहा है।8 (राह पर लाना उसके अधिकार में है) जिसको वह चाहता है सीधा मार्ग दिखा देता है।
8. अर्थात् दुनिया में ज़िन्दगी व्यतीत करने के उस तरीक़े की ओर बुला रहा है जो आख़िरत (परलोक) की ज़िन्दगी में तुमको सलामती के घर (अमर लोक) का अधिकारी बनाए। सलामती के घर से मुराद है जन्नत, वह जगह जहाँ कोई आफ़त, कोई नुक़सान, कोई दुःख और कोई तकलीफ़ न हो।
۞لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ ٱلۡحُسۡنَىٰ وَزِيَادَةٞۖ وَلَا يَرۡهَقُ وُجُوهَهُمۡ قَتَرٞ وَلَا ذِلَّةٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 25
(26) जिन लोगों ने भलाई का तरीक़ा अपनाया उनके लिए भलाई है और उसके अलावा अनुग्रह। उनके चेहरों पर कालिख और रुसवाई न छाएगी। वे जन्नत के अधिकारी हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
وَٱلَّذِينَ كَسَبُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ جَزَآءُ سَيِّئَةِۭ بِمِثۡلِهَا وَتَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۖ مَّا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِنۡ عَاصِمٖۖ كَأَنَّمَآ أُغۡشِيَتۡ وُجُوهُهُمۡ قِطَعٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِ مُظۡلِمًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 26
(27) और जिन लोगों ने बुराइयाँ कमाईं उनकी बुराई जैसी है वैसा ही वे बदला पाएँगे रुसवाई उनपर छाई होगी, कोई अल्लाह से उनको बचानेवाला न होगा, उनके चेहरों पर ऐसा अंधकार छाया हुआ होगा जैसे रात के काले परदे उनपर पड़े हुए हों, वे दोज़ख के पात्र हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ مَكَانَكُمۡ أَنتُمۡ وَشُرَكَآؤُكُمۡۚ فَزَيَّلۡنَا بَيۡنَهُمۡۖ وَقَالَ شُرَكَآؤُهُم مَّا كُنتُمۡ إِيَّانَا تَعۡبُدُونَ ۝ 27
(28) जिस दिन हम उन सबको एक साथ (अपने न्यायालय में) इकट्ठा करेंगे, फिर उन लोगों से जिन्होंने साझी ठहराया है कहेंगे कि ठहर जाओ तुम भी और तुम्हारे बनाए हुए साझीदार भी, फिर हम उनके बीच से अजनबीयत (अपरिचितता) का परदा हटा देंगे9 और उनके साझीदार कहेंगे कि “तुम हमारी बन्दगी तो नहीं करते थे।
9. अर्थात् मुशरिकों को उनके देवता पहचान लेंगे कि ये वे लोग हैं जो हमें पूजते थे और मुशरिक अपने देवताओं को पहचान लेंगे कि ये हैं वे जिनकी हम पूजा करते थे।
فَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ إِن كُنَّا عَنۡ عِبَادَتِكُمۡ لَغَٰفِلِينَ ۝ 28
(29) हमारे और तुम्हारे बीच अल्लाह की गवाही काफ़ी है कि (तुम अगर हमारी बन्दगी करते भी थे तो) हम तुम्हारी इस बन्दगी से बिलकुल बेख़बर थे।”
هُنَالِكَ تَبۡلُواْ كُلُّ نَفۡسٖ مَّآ أَسۡلَفَتۡۚ وَرُدُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ مَوۡلَىٰهُمُ ٱلۡحَقِّۖ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 29
(30) उस समय हर व्यक्ति अपने किए का मज़ा चख लेगा, सब अपने वास्तविक मालिक की ओर फेर दिए जाएँगे और वे सारे झूठ जो उन्होंने घढ़ रखे थे गुम हो जाएँगे।
قُلۡ مَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ أَمَّن يَمۡلِكُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَمَن يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَمَن يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۚ فَسَيَقُولُونَ ٱللَّهُۚ فَقُلۡ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 30
(31) उनसे पूछो, कौन तुमको आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है? ये सुनने और देखने की शक्तियाँ किसके अधिकार में हैं? कौन बेजान में से जानदार को और जानदार में से बेजान को निकालता है? कौन इस विश्व की व्यवस्था का उपाय कर रहा है? वे ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह। कहो, फिर तुम (सत्य के विरुद्ध चलने से) परहेज नहीं करते?
فَذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَاذَا بَعۡدَ ٱلۡحَقِّ إِلَّا ٱلضَّلَٰلُۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ ۝ 31
(32) तब तो यही अल्लाह तुम्हारा वास्तविक रब है। फिर सत्य के बाद पथभ्रष्टता के सिवा और क्या बाक़ी रह गया? आख़िर यह तुम किधर फिराए जा रहे हो?10
10. ध्यान रहे कि सम्बोधन जन-सामान्य से है और उनसे प्रश्न यह नहीं किया जा रहा है कि “तुम किधर फिरे जाते हो।” बल्कि यह है कि “तुम किधर फिराए जा रहे हो।” इससे स्पष्ट है कि कोई ऐसा गुमराह करनेवाला व्यक्ति या गिरोह मौजूद है जो लोगों को सही दिशा से हटाकर ग़लत दिशा पर फेर रहा है। इसी लिए लोगों से कहा जा रहा है कि तुम अंधे बनकर ग़लत राह दिखानेवालों के पीछे क्यों चले जा रहे हो? अपने पास की बुद्धि से काम लेकर सोचते क्यों नहीं कि जब वास्तविकता यह है तो आख़िर तुमको किधर चलाया जा रहा है।
كَذَٰلِكَ حَقَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَى ٱلَّذِينَ فَسَقُوٓاْ أَنَّهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 32
(33) (ऐ नबी, देखो) इस तरह नाफ़रमानी करनेवालों पर तुम्हारे रब की बात सत्य घटित हो गई कि वे हरगिज़ नहीं मानेंगे।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۚ قُلِ ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 33
(34) इनसे पूछो, तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारों में कोई है जो सृष्टि का आरंभ भी करता हो और फिर उसकी पुनरावृत्ति भी करे? — कहो वह केवल अल्लाह है जो सृष्टि का आरंभ भी करता है और उसकी पुनरावृत्ति भी, फिर तुम यह किस उलटी राह पर चलाए जा रहे हो?
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّۚ قُلِ ٱللَّهُ يَهۡدِي لِلۡحَقِّۗ أَفَمَن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ أَحَقُّ أَن يُتَّبَعَ أَمَّن لَّا يَهِدِّيٓ إِلَّآ أَن يُهۡدَىٰۖ فَمَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 34
(35) इनसे पूछो, तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारों में से कोई ऐसा भी है जो सत्य का मार्ग दिखाता हो? कहो, वह सिर्फ़ अल्लाह है जो सत्य का मार्ग दिखाता है। फिर भला बताओ, जो सत्य का मार्ग दिखाता है वह इसका ज़्यादा हक़ रखता है कि उसका अनुसरण किया जाए या वह जो ख़ुद मार्ग नहीं पाता यह और बात है कि उसको मार्ग दिखाया जाए? आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, कैसे उलटे-उलटे फ़ैसले करते हो?
وَمَا يَتَّبِعُ أَكۡثَرُهُمۡ إِلَّا ظَنًّاۚ إِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 35
(36) वास्तविकता यह है कि उनमें से ज़्यादातर लोग सिर्फ़ अटकल और गुमान के पीछे चले जा रहे हैं,11 हालाँकि अटकल सत्य की ज़रूरत को कुछ भी पूरा नहीं करता, जो कुछ ये कर रहे हैं अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।
11. अर्थात् जिन्होंने धर्म बनाए, जिन्होंने दर्शनशास्त्रों की रचना की और जिन्होंने ज़िन्दगी के विधि-विधान प्रस्तावित किए, उन्होंने भी यह सब कुछ ज्ञान के आधार पर नहीं बल्कि गुमान और अटकल के आधार पर किया, और जिन्होंने उन धार्मिक और दुनिया के नेताओं का अनुसरण किया, उन्होंने भी जानकर और समझकर नहीं, बल्कि सिर्फ़ इस गुमान के आधार पर उनके पीछे चल पड़े कि ऐसे बड़े-बड़े लोग जब यह कहते हैं और बाप-दादा इनको मानते चले आ रहे हैं और एक दुनिया उनका अनुसरण कर रही है तो ज़रूर ठीक ही कहते होंगे।
وَمَا كَانَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ أَن يُفۡتَرَىٰ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا رَيۡبَ فِيهِ مِن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 36
(37) और यह क़ुरआन वह चीज़ नहीं है जो अल्लाह की प्रकाशना (वह्य) और शिक्षा के बिना रचा जा सके। बल्कि यह तो जो कुछ पहले आ चुका था उसकी पुष्टि और विशिष्ट किताब का विस्तार है। इसमें कोई शक नहीं कि यह विश्व के शासक की ओर से है।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِسُورَةٖ مِّثۡلِهِۦ وَٱدۡعُواْ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 37
(38) क्या ये लोग कहते हैं कि पैग़म्बर ने इसे ख़ुद रच लिया है? कहो, “अगर तुम अपने इस इलज़ाम में सच्चे हो तो एक सूरा इस जैसी रचकर लाओ और एक अल्लाह को छोड़कर जिस-जिस को बुला सकते हो सहायता के लिए बुला लो।”
بَلۡ كَذَّبُواْ بِمَا لَمۡ يُحِيطُواْ بِعِلۡمِهِۦ وَلَمَّا يَأۡتِهِمۡ تَأۡوِيلُهُۥۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 38
(39) वास्तविकता यह है कि जो चीज़ इनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आई और जिसका नतीजा भी इनके सामने नहीं आया, उसको इन्होंने (अकारण अटकलपच्चू) झुठला दिया। इसी तरह तो इनसे पहले के लोग भी झुठला चुके हैं, फिर देख लो उन ज़ालिमों का क्या अंजाम हुआ।
وَمِنۡهُم مَّن يُؤۡمِنُ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن لَّا يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 39
(40) इनमें से कुछ लोग ईमान लाएँगे और कुछ नहीं लाएँगे और तेरा रब उन बिगाड़ पैदा करनेवालों को ख़ूब जानता है।
وَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل لِّي عَمَلِي وَلَكُمۡ عَمَلُكُمۡۖ أَنتُم بَرِيٓـُٔونَ مِمَّآ أَعۡمَلُ وَأَنَا۠ بَرِيٓءٞ مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 40
(41) अगर ये तुझे झुठलाते हैं तो कह दे कि “मेरा कर्म मेरे लिए है और तुम्हारा कर्म तुम्हारे लिए जो कुछ मैं करता हूँ उसकी ज़िम्मेदारी से तुम बरी हो और जो कुछ तुम कर रहे हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।”12
12. अर्थात् अकारण झगड़े और कुतर्क करने की कोई ज़रूरत नहीं। अगर मैं झूठ गढ़ रहा हूँ तो अपने कर्म का ख़ुद उत्तरदायी हूँ, तुमपर उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। और अगर तुम सच्ची बात झुठला रहे हो तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ते, अपना ही कुछ बिगाड़ रहे हो।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَۚ أَفَأَنتَ تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ وَلَوۡ كَانُواْ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 41
(42) इनमें बहुत से लोग हैं जो तेरी बातें सुनते हैं मगर क्या तू बहरों को सुनाएगा चाहे वे कुछ न समझते हों13
13. एक सुनना तो उस तरह का होता है जैसे जानवर भी आवाज़ सुन लेते हैं। दूसरा सुनना वह होता है जिसमें अर्थ की ओर ध्यान हो और यह तत्परता पाई जाती हो कि बात अगर बुद्धिसंगत होगी तो उसे मान लिया जाएगा।
وَمِنۡهُم مَّن يَنظُرُ إِلَيۡكَۚ أَفَأَنتَ تَهۡدِي ٱلۡعُمۡيَ وَلَوۡ كَانُواْ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 42
(43) इनमें बहुत-से लोग हैं जो तुझे देखते हैं, मगर क्या तू अंधों को राह बताएगा चाहे उन्हें कुछ न सूझता हो?
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظۡلِمُ ٱلنَّاسَ شَيۡـٔٗا وَلَٰكِنَّ ٱلنَّاسَ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 43
(44) वास्तविकता यह है कि अल्लाह लोगों पर ज़ुल्म नहीं करता, लोग ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ كَأَن لَّمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا سَاعَةٗ مِّنَ ٱلنَّهَارِ يَتَعَارَفُونَ بَيۡنَهُمۡۚ قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱللَّهِ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 44
(45) (आज ये दुनिया की ज़िन्दगी में मस्त हैं) और जिस दिन अल्लाह इनको इकट्ठा करेगा तो (यही दुनिया की ज़िन्दगी इन्हें ऐसी लगेगी) मानो ये सिर्फ़ एक घड़ी-भर आपस में जान-पहचान करने को ठहरे थे। (उस समय सिद्ध हो जाएगा कि वास्तव में बड़े घाटे में रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह से मुलाक़ात को झुठलाया और हरगिज़ वे सीधे मार्ग पर न थे।
وَإِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ ثُمَّ ٱللَّهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا يَفۡعَلُونَ ۝ 45
(46) जिन बुरे परिणामों से हम इन्हें डरा रहे हैं उनका कोई हिस्सा हम तेरे जीते जी दिखा दें या उससे पहले ही तुझे उठा लें, हर हाल में इन्हें आना हमारी तरफ़ ही है और जो ये कुछ कर रहे हैं उसपर अल्लाह गवाह है।
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولٞۖ فَإِذَا جَآءَ رَسُولُهُمۡ قُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 46
(47) हर उम्मत (समुदाय) के लिए एक रसूल है।14 फिर जब किसी समुदाय के पास उसका रसूल आ जाता है, तो उसका फ़ैसला पूरे न्याय के साथ चुका दिया जाता है और उसपर रत्ती भर ज़ुल्म नहीं किया जाता।
14. 'उम्मत' शब्द यहाँ मात्र क़ौम के अर्थ में नहीं है, बल्कि एक रसूल के आने के बाद उसका बुलावा और सन्देश जिन-जिन लोगों तक पहुँचे वे सब उसकी “उम्मत” है और इसके लिए यह भी ज़रूरी नहीं है कि रसूल उनके बीच ज़िन्दा मौजूद हो, बल्कि रसूल के बाद भी जब तक उसकी शिक्षा मौजूद रहे और हर व्यक्ति के लिए यह मालूम करना संभव हो कि वह वास्तव में किस चीज़़ की शिक्षा देता था, उस समय तक दुनिया के सब लोग उसकी उम्मत ही ठहरेंगे और उनपर वह हुक्म लागू होगा जो आगे बयान किया जा रहा है। इस दृष्टि से मुहम्मद (सल्ल०) के आ जाने के बाद सारी दुनिया के इनसान आपकी उम्मत हैं और उस समय तक रहेंगे जब तक क़ुरआन अपने विशुद्ध रूप में मौजूद है। इसी लिए आयत में यह नहीं कहा गया कि “हर क़ौम में एक रसूल है” बल्कि कहा यह गया कि “हर उम्मत के लिए एक रसूल है।"
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 47
(48) कहते हैं अगर तुम्हारी यह धमकी सच्ची है तो आख़िर यह कब पूरी होगी?
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي ضَرّٗا وَلَا نَفۡعًا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۗ لِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٌۚ إِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَلَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 48
(49) कहो, “मेरे अधिकार में तो ख़ुद अपना नफ़ा और नुक़सान भी नहीं, सब कुछ अल्लाह की इच्छा पर अवलम्बित है। हर समुदाय के लिए मुहलत की एक अवधि है, जब यह अवधि पूरी हो जाती है तो घड़ी-घर भी आगे और पीछे नहीं होता।”
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُهُۥ بَيَٰتًا أَوۡ نَهَارٗا مَّاذَا يَسۡتَعۡجِلُ مِنۡهُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 49
(50) इनसे कहो कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर अल्लाह का अज़ाब अचानक रात को या दिन को आ जाए (तो तुम क्या कर सकते हो?) आख़िर यह ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसके लिए अपराधी जल्दी मचाएँ?
أَثُمَّ إِذَا مَا وَقَعَ ءَامَنتُم بِهِۦٓۚ ءَآلۡـَٰٔنَ وَقَدۡ كُنتُم بِهِۦ تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 50
(51) क्या जब वह तुमपर आ पड़े उसी समय तुम उसे मानोगे? — अब बचना चाहते हो? हालाँकि तुम ख़ुद ही इसके जल्दी आने की-माँग कर रहे थे!
ثُمَّ قِيلَ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡخُلۡدِ هَلۡ تُجۡزَوۡنَ إِلَّا بِمَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 51
(52) फिर ज़ालिमों से कहा जाएगा कि अब हमेशा के अज़ाब का मज़ा चखो, जो कुछ तुम कमाते रहे हो उसके बदले के सिवा और क्या बदला तुमको दिया जा सकता है?
وَلَوۡ أَنَّ لِكُلِّ نَفۡسٖ ظَلَمَتۡ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لَٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّدَامَةَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۖ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 52
(54) अगर हर उस व्यक्ति के पास जिसने ज़ुल्म किया है, सारी धरती का धन भी हो तो उस अज़ाब से बचने के लिए वह उसे फ़िदया में देने को तैयार हो जाएगा। जब ये लोग उस अज़ाब को देख लेंगे तो दिल ही दिल में पछताएँगे। मगर उनके बीच पूरे इनसाफ़ से फ़ैसला किया जाएगा, कोई ज़ुल्म उनपर न होगा।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 53
(55) सुनो! आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है। सुन रखो! अल्लाह का वादा सच्चा है मगर अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।
هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 54
(56) वही ज़िन्दगी प्रदान करता है और वही मौत देता है और उसी की ओर तुम सबको पलटना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَتۡكُم مَّوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَشِفَآءٞ لِّمَا فِي ٱلصُّدُورِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 55
(57) लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से उपदेश आ गया है। यह वह चीज़ है जो दिलों के रोगों को चंगा करने के लिए है और जो उसे स्वीकार कर लें उनके लिए मार्गदर्शन और दयालुता है।
قُلۡ بِفَضۡلِ ٱللَّهِ وَبِرَحۡمَتِهِۦ فَبِذَٰلِكَ فَلۡيَفۡرَحُواْ هُوَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 56
(58) ऐ नबी कहो कि “यह अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया है कि यह चीज़ उसने भेजी, इसपर तो लोगों को ख़ुशी मनानी चाहिए, यह उन सब चीज़़ों से उत्तम हैं जिन्हें लोग समेट रहे हैं।”
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ لَكُم مِّن رِّزۡقٖ فَجَعَلۡتُم مِّنۡهُ حَرَامٗا وَحَلَٰلٗا قُلۡ ءَآللَّهُ أَذِنَ لَكُمۡۖ أَمۡ عَلَى ٱللَّهِ تَفۡتَرُونَ ۝ 57
(59) ऐ नबी, इनसे कहो, “तुम लोगों ने कभी यह भी सोचा है कि जो रोज़ी15 अल्लाह ने तुम्हारे लिए उतारी थी उसमें से तुमने स्वयं ही किसी को हराम और किसी को हलाल ठहरा लिया !”16 इनसे पूछो, अल्लाह ने तुमको इसकी अनुमति दी थी? या तुम अल्लाह पर झूठ गढ़ रहे हो?17
15. यहाँ 'रिज़्क़' (रोज़ी) शब्द इस्तेमाल हुआ है। हमारे यहाँ रिज़्क़ (रोज़ी) सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़़ों के लिए बोला जाता है, लेकिन अरबी भाषा में रिज़्क़ सिर्फ़ ख़ुराक तक सीमित नहीं है बल्कि दान-प्रदान और भाग्य के अर्थ में सामान्य रूप से इस्तेमाल होता है। अल्लाह ने जो कुछ भी दुनिया में इनसान को दिया है वह सब उसका रिज़्क़ है।
16. अर्थात् ख़ुद अपने लिए क़ानून और धर्म-विधान बना लेने के अधिकारी बन बैठे। हालाँकि जिसका रिज़्क़ (रोज़ी) है उसी का यह हक़ है कि उसके प्रयोग में लाने की जाइज़ और नाजाइज़ स्थितियों की सीमाएँ और सिद्धान्त निर्धारित करे।
17. झूठे इलज़ाम के तीन रूप हैं, एक यह कि कोई व्यक्ति यह कहे कि ये अधिकार अल्लाह ने मानव को सौंप दिया है, दूसरा यह कि वह कहे कि अल्लाह का यह काम ही नहीं है कि हमारे लिए क़ानून और विधि-विधान मुक़र्रर करे, तीसरा यह कि वह हलाल और हराम के इन आदेशों को अल्लाह की ओर से माने, हालाँकि प्रमाण में वह अल्लाह की कोई किताब न पेश कर सके।
وَمَا ظَنُّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 58
(60) जो लोग अल्लाह पर झूठा इलज़ाम लगाते हैं उनका क्या गुमान है कि क़ियामत के दिन उनसे क्या मामला होगा? अल्लाह तो लोगों पर मेहरबानी की नज़र रखता है, मगर बहुतेरे लोग ऐसे हैं जो कृतज्ञता नहीं दिखाते।
وَمَا تَكُونُ فِي شَأۡنٖ وَمَا تَتۡلُواْ مِنۡهُ مِن قُرۡءَانٖ وَلَا تَعۡمَلُونَ مِنۡ عَمَلٍ إِلَّا كُنَّا عَلَيۡكُمۡ شُهُودًا إِذۡ تُفِيضُونَ فِيهِۚ وَمَا يَعۡزُبُ عَن رَّبِّكَ مِن مِّثۡقَالِ ذَرَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَآ أَصۡغَرَ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرَ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٍ ۝ 59
(61) ऐ नबी, तुम जिस हाल में भी होते हो और क़ुरआन में से जो कुछ भी सुनाते हो, और लोगो, तुम भी जो कुछ करते हो उस सबके बीच में हम तुमको देखते रहते हैं। कोई रत्ती-भर चीज़ आसमान और ज़मीन में ऐसी नहीं है, न छोटी न बड़ी जो तेरे रब की नज़र से छिपी हो और एक स्पष्ट चिट्ठे (दफ़्तर) में अंकित न हो।
أَلَآ إِنَّ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهِ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 60
(62) सुनो! जो अल्लाह के दोस्त हैं, जो ईमान लाए और जिन्होंने ख़ुदा से डरने की नीति अपनाई,
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 61
(63) उनके लिए किसी डर और रंज का अवसर नहीं है।
لَهُمُ ٱلۡبُشۡرَىٰ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ لَا تَبۡدِيلَ لِكَلِمَٰتِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 62
(64) दुनिया और आख़िरत दोनों ज़िन्दगी में उनके लिए ख़ुशख़बरी ही ख़ुशख़बरी है। अल्लाह की बातें बदल नहीं सकतीं। वही बड़ी सफलता है।
وَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّ ٱلۡعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعًاۚ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 63
(65) ऐ नबी, जो बातें ये लोग तुझपर बनाते हैं उससे तू शोकाकुल न हो, प्रभुत्व सारा का सारा अल्लाह के अधिकार में है, और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَمَا يَتَّبِعُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ شُرَكَآءَۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 64
(66) जान लो! आसमानों के बसनेवाले हों या ज़मीन के, सबका मालिक अल्लाह है। और जो लोग अल्लाह के सिवा कुछ (अपने मनगढ़ंत) साझीदारों को पुकार रहे हैं वे निरे भ्रम और गुमान के पीछे चल रहे हैं और सिर्फ़ अटलकलबाज़ियाँ करते हैं।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 65
(67) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई कि उसमें चैन पाओ और दिन को प्रकाशमान बनाया। इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (खुले कानों से पैग़म्बर के संदेश को) सुनते हैं।
قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ هُوَ ٱلۡغَنِيُّۖ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ إِنۡ عِندَكُم مِّن سُلۡطَٰنِۭ بِهَٰذَآۚ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 66
(68) लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। पाक है अल्लाह! वह तो निस्पृह है, आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है वह सबका मालिक है। तुम्हारे पास इसके लिए आख़िर क्या प्रमाण है? क्या तुम अल्लाह के बारे में ऐसी बातें कहते हो जो तुम्हारे ज्ञान में नहीं?
قُلۡ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ ۝ 67
(69) ऐ नबी, कह दो कि जो लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं वे हरगिज़ सफल नहीं हो सकते।
مَتَٰعٞ فِي ٱلدُّنۡيَا ثُمَّ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ ثُمَّ نُذِيقُهُمُ ٱلۡعَذَابَ ٱلشَّدِيدَ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 68
(70) थोड़े दिनों की दुनिया की ज़िन्दगी में मज़े कर लें, फिर हमारी ओर उनको पलटना है, फिर हम उस इनकार के बदले में जो वे कर रहे हैं उनको भारी अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ نُوحٍ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكُم مَّقَامِي وَتَذۡكِيرِي بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَعَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡتُ فَأَجۡمِعُوٓاْ أَمۡرَكُمۡ وَشُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُنۡ أَمۡرُكُمۡ عَلَيۡكُمۡ غُمَّةٗ ثُمَّ ٱقۡضُوٓاْ إِلَيَّ وَلَا تُنظِرُونِ ۝ 69
(71) इनको नूह का वृत्तांत सुनाओ, उस समय का हाल जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि “ऐ क़ौम के भाइयो, अगर मेरा तुम्हारे बीच रहना और अल्लाह की आयतें सुना-सुनाकर तुम्हें ग़फ़लत से जगाना तुम्हारे लिए असह्य हो गया है, तो मेरा भरोसा अल्लाह पर है, तुम अपने ठहराए हुए साझीदारों को साथ लेकर अपना एक सर्वमान्य फ़ैसला कर लो और जो योजना तुम्हारे सामने हो ख़ूब सोच-समझ लो; ताकि उसका कोई पहलू तुम्हारी दृष्टि से छिपा न रहे, फिर मेरे विरुद्ध उसे क्रियात्मक रूप दो और मुझे हरगिज़ मुहलत न दो।
فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَمَا سَأَلۡتُكُم مِّنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 70
(72) तुमने मेरे उपदेश से मुँह मोड़ा (तो मेरी क्या हानि की) मैं तुमसे कोई पारिश्रमिक नहीं माँग रहा था, मेरी मज़दूरी तो अल्लाह के ज़िम्मे है, और मुझे आदेश दिया गया है कि (चाहे कोई माने या न माने) मैं ख़ुद मुस्लिम (ईश्वर का आज्ञाकारी बनकर रहूँ।”
فَكَذَّبُوهُ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَجَعَلۡنَٰهُمۡ خَلَٰٓئِفَ وَأَغۡرَقۡنَا ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 71
(73) उन्होंने उसे झुठला दिया और परिणाम यह हुआ कि हमने उसे और उन लोगों को जो उसके साथ नाव में थे, बचा लिया और उन्हीं को ज़मीन में उत्तराधिकारी बनाया और उन सब लोगों को डुबो दिया जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया था अतः देख लो कि जिन्हें चेतावनी दी गई थी (और फिर भी उन्होंने नहीं माना) उनका क्या परिणाम हुआ।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْ بِمَا كَذَّبُواْ بِهِۦ مِن قَبۡلُۚ كَذَٰلِكَ نَطۡبَعُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 72
(74) फिर नूह के बाद हमने विभिन्न पैग़म्बरों को उनकी क़ौमों की ओर भेजा और वे उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, मगर जिस चीज़ को उन्होंने पहले झुठला दिया था, उसे फिर नहीं माना। इस तरह हम सीमा से आगे बढ़ जानेवालों के दिलों पर ठप्पा लगा देते हैं।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ وَهَٰرُونَ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ بِـَٔايَٰتِنَا فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 73
(75) फिर उनके बाद हमने मूसा और हारून को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसके सरदारों की ओर भेजा, मगर उन्होंने अपनी बड़ाई का गर्व किया और वे अपराधी लोग थे।
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُوٓاْ إِنَّ هَٰذَا لَسِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 74
(76) तो जब तुम्हारे पास से सत्य उनके सामने आया तो उन्होंने कह दिया कि यह तो खुला जादू है।
قَالَ مُوسَىٰٓ أَتَقُولُونَ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَكُمۡۖ أَسِحۡرٌ هَٰذَا وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّٰحِرُونَ ۝ 75
(77) मूसा ने कहा, “तुम सत्य को यह कहते हो जब वह तुम्हारे सामने आ गया? क्या यह जादू है? हालाँकि जादूगर सफल नहीं हुआ करते18।”
18. मतलब यह है कि देखने में जादू और चमत्कार के बीच जो एकरूपता पाई जाती है उसके आधार पर तुम लोगों ने निस्संकोच इसे जादू ठहरा दिया, मगर नादानो, तुमने यह न देखा कि जादूगर किस चरित्र और नैतिकता के लोग होते हैं और किन उद्देश्यों के लिए जादूगरी किया करते हैं। क्या किसी जादूगर का यही काम होता है कि निस्स्वार्थ और बेधड़क एक बलशाली सम्राट के दरबार में आए और उसे उसकी पथ भ्रष्टता पर धिक्कारे और ईश-भक्ति और आत्म शुद्धि अपनाने की दावत दे?
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِتَلۡفِتَنَا عَمَّا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَا وَتَكُونَ لَكُمَا ٱلۡكِبۡرِيَآءُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا نَحۡنُ لَكُمَا بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 76
(78) उन्होंने जवाब में कहा, “क्या तू इसलिए आया है कि हमें उस रास्ते से फेर दे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है और ज़मीन में तुम दोनों की बड़ाई क़ायम हो जाए? तुम्हारी बात तो हम माननेवाले नहीं है।”
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ ٱئۡتُونِي بِكُلِّ سَٰحِرٍ عَلِيمٖ ۝ 77
(79) और फ़िरऔन ने (अपने आदमियों से) कहा कि “हर कुशल जानकार जादूगर को मेरे सामने हाज़िर करो।”
فَلَمَّا جَآءَ ٱلسَّحَرَةُ قَالَ لَهُم مُّوسَىٰٓ أَلۡقُواْ مَآ أَنتُم مُّلۡقُونَ ۝ 78
(80) जब जादूगर आ गए तो मूसा ने कहा, “जो कुछ तुम्हें फेंकना है फेंको।”
فَلَمَّآ أَلۡقَوۡاْ قَالَ مُوسَىٰ مَا جِئۡتُم بِهِ ٱلسِّحۡرُۖ إِنَّ ٱللَّهَ سَيُبۡطِلُهُۥٓ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُصۡلِحُ عَمَلَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 79
(81) फिर जब उन्होंने अपने अंछर फेंक दिए, तो मूसा ने कहा, “जो कुछ तुमने फेंका है वह जादू है, अल्लाह अभी इसे व्यर्थ किए देता है, बिगाड़ पैदा करनेवालों के काम को अल्लाह सुधरने नहीं देता।
وَيُحِقُّ ٱللَّهُ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 80
(82) और अल्लाह अपने वचनों के द्वारा सत्य को सत्य कर दिखाता है, चाहे अपराधियों को वह कितना ही अप्रिय हो।"
فَمَآ ءَامَنَ لِمُوسَىٰٓ إِلَّا ذُرِّيَّةٞ مِّن قَوۡمِهِۦ عَلَىٰ خَوۡفٖ مِّن فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِمۡ أَن يَفۡتِنَهُمۡۚ وَإِنَّ فِرۡعَوۡنَ لَعَالٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 81
(83) (फिर देखो कि) मूसा को उसकी क़ौम में से कुछ नवयुवकों19 के सिवा किसी ने न माना, फ़िरऔन के डर से और अपनी क़ौम के सरदारों के डर से (जिन्हें डर था कि) फ़िरऔन उन्हें अज़ाब में डालेगा और वाक़िआ यह है कि फ़िरऔन को ज़मीन में प्रभुत्व प्राप्त था और वह उन लोगों में से था जो किसी सीमा पर रुकते नहीं हैं।20
19. मूल ग्रन्थ में ” ज़ुर्रिय्यतुन” शब्द इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थ 'औलाद' है। हमने इसका अनुवाद 'नवयुवक' किया है। वास्तव में इस विशेष शब्द के इस्तेमाल से जो बात क़ुरआन मजीद बयान करना चाहता है वह यह है कि उस भयावह समय में सत्य का साथ देने और सत्य के ध्वजावाहकों को अपना मार्गदर्शक स्वीकार करने का साहस कुछ लड़कों और लड़कियों ने तो किया मगर माओं और बाप और क़ौम के बड़े-बूढ़ों से यह न हो सका। उनपर मस्लहतपरस्ती (हेतुवाद) और सांसारिक स्वार्थों की पूजा और अपने सुरक्षित रहने की चिन्ता कुछ इस तरह छाई रही कि वे ऐसे सत्य का साथ देने पर तैयार न हुए जिसका मार्ग उन्हें ख़तरों और आशंकाओं से भरा हुआ दिखाई दे रहा था, बल्कि वे उल्टे नवयुवकों ही को रोकते रहे कि मूसा के निकट न जाओ, नहीं तो तुम ख़ुद भी फ़िरऔन के प्रकोप के भागी होंगे और हमपर भी संकट लाओगे।
20. अर्थात् अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किसी बुरे से बुरे तरीक़े को भी अपनाने से नहीं झिझकते। किसी ज़ुल्म और किसी अनैतिक व्यवहार और किसी बर्बरता से नहीं चूकते। अपनी इच्छाओं के पीछे हर अति (इन्तिहा) तक जा सकते हैं। उनके लिए कोई सीमा नहीं जिसपर जाकर वे रुक जाएँ।
وَقَالَ مُوسَىٰ يَٰقَوۡمِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ فَعَلَيۡهِ تَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّسۡلِمِينَ ۝ 82
(84) मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि “लोगो, तुम वास्तव में अल्लाह पर ईमान लाए हो, तो उसपर भरोसा करो अगर मुसलमान हो।”
فَقَالُواْ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَا رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 83
(85) उन्होंने जवाब दिया21, “हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया ऐ हमारे रब हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ितने न बना
21. यह जवाब उन नवयुवकों का था जो मूसा (अलैहि०) का साथ देने को तैयार हुए थे। यहाँ “क़ालू” (उन्होंने जवाब दिया) का सर्वनाम क़ौमवालों के लिए नहीं, बल्कि “ज़ुरिय्यतुन” (नवयुवकों) के लिए आया है जैसा कि वाक्य के संदर्भ से ख़ुद स्पष्ट है।
وَنَجِّنَا بِرَحۡمَتِكَ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 84
(86) और अपनी दयालुता से हमको अधर्मियों से छुटकारा दे।"
وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰ وَأَخِيهِ أَن تَبَوَّءَا لِقَوۡمِكُمَا بِمِصۡرَ بُيُوتٗا وَٱجۡعَلُواْ بُيُوتَكُمۡ قِبۡلَةٗ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 85
(87) और हमने मूसा और उसके भाई को संकेत दिया कि “मिस्र में कुछ घर अपनी क़ौम के लिए प्राप्त कर लो और अपने उन घरों को क़िबला ठहरा लो और नमाज़ क़ायम करो22 और ईमानवालों को ख़ुशख़बरी दे दो।"
22. मिस्र में शासन के हिंसात्मक व्यवहार से और ख़ुद इसराईलियों के अपने ईमान की कमज़ोरी के कारण इसराईली और मिस्री मुसलमानों के यहाँ सामूहिक रूप से (जमाअत के साथ) नमाज़ पढ़ने की व्यवस्था का अन्त हो चुका था और यह उनके संगठन के विघटन और उनकी धार्मिकता की भावना पर मृत्यु छा जाने का एक बहुत बड़ा कारण था। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) को आदेश दिया गया कि इस व्यवस्था को नये सिरे से स्थापित करें और मिस्र में कुछ घर इस उद्देश्य से बनाएँ या निश्चित कर लें कि वहाँ सामूहिक रूप से नमाज़ अदा की जाया करे। उन घरों को क़िबला (उपासना-दिशा) नियत करने का अर्थ यह है कि उन घरों को सम्पूर्ण समुदाय के लिए केन्द्र और रुजू होने का स्थान ठहराया जाए, और इसके बाद ही “नमाज़ क़ायम करो” कहने का अर्थ यह है कि अलग-अलग अपने स्थान पर नमाज़ पढ़ लेने के बदले लोग इन निश्चित स्थानों पर इकट्ठा होकर नमाज़ पढ़ा करें।
وَقَالَ مُوسَىٰ رَبَّنَآ إِنَّكَ ءَاتَيۡتَ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَأَهُۥ زِينَةٗ وَأَمۡوَٰلٗا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا رَبَّنَا لِيُضِلُّواْ عَن سَبِيلِكَۖ رَبَّنَا ٱطۡمِسۡ عَلَىٰٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ وَٱشۡدُدۡ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُواْ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 86
(88) मूसा ने दुआ की, “ऐ हमारे रब तूने फ़िरऔन और उसके सरदारों को दुनिया की ज़िन्दगी में शोभा और माल दे रखे हैं। ऐ रब, क्या यह इसलिए है कि वे लोगों को तेरे मार्ग से भटकाएँ? ऐ रब, उनके माल नष्ट कर दे और उनके दिलों पर ऐसा ठप्पा लगा दे कि ईमान न लाएँ जब तक दर्दनाक अज़ाब न देख लें।"23
23. यह दुआ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने मिस्र में ठहरने के बिलकुल अन्तिम समय में की थी, और उस समय की थी जब लगातार निशानियाँ देख लेने और धर्म के तर्कयुक्त सिद्ध और स्पष्ट हो जाने के बाद भी फ़िरऔन और उसके राज्य के सरदार सत्य की दुश्मनी पर अत्यन्त हठधर्मी के साथ जमे रहे। ऐसे अवसर पर पैग़म्बर जो बद्दुआ करता है वह ठीक-ठीक वही होती है जो कुफ़्र पर आग्रह करनेवालों के विषय में ख़ुद अल्लाह का फ़ैसला होता है, अर्थात यह कि फिर उन्हें ईमान का सौभाग्य प्रदान न किया जाए।
قَالَ قَدۡ أُجِيبَت دَّعۡوَتُكُمَا فَٱسۡتَقِيمَا وَلَا تَتَّبِعَآنِّ سَبِيلَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 87
(89) अल्लाह ने जवाब दिया, “तुम दोनों की दुआ क़ुबूल की गई। जमे रहो और उन लोगों के मार्ग पर हरगिज़ न चलना जो ज्ञान नहीं रखते।”
۞وَجَٰوَزۡنَا بِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡبَحۡرَ فَأَتۡبَعَهُمۡ فِرۡعَوۡنُ وَجُنُودُهُۥ بَغۡيٗا وَعَدۡوًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَدۡرَكَهُ ٱلۡغَرَقُ قَالَ ءَامَنتُ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱلَّذِيٓ ءَامَنَتۡ بِهِۦ بَنُوٓاْ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 88
(90) और हमने इसराईल की सन्तान को समुद्र पार करा दिया। फिर फ़िरऔन और उसकी सेनाएँ ज़ुल्म और ज़्यादती के उद्देश्य से उनके पीछे चली। यहाँ तक कि जब फ़िरऔन डूबने लगा तो बोल उठा, “मैंने मान लिया कि वास्तविक ख़ुदा उसके सिवा कोई नहीं है जिसपर इसराईल की सन्तान ईमान लाई, और मैं भी मुस्लिमों (आज्ञाकारियों) में से हूँ।”
ءَآلۡـَٰٔنَ وَقَدۡ عَصَيۡتَ قَبۡلُ وَكُنتَ مِنَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 89
(91) (जवाब दिया गया) “अब ईमान लाता है! हालाँकि इससे पहले तक तो नाफ़रमानी करता रहा और बिगाड़ पैदा करनेवालों में से था।
فَٱلۡيَوۡمَ نُنَجِّيكَ بِبَدَنِكَ لِتَكُونَ لِمَنۡ خَلۡفَكَ ءَايَةٗۚ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ عَنۡ ءَايَٰتِنَا لَغَٰفِلُونَ ۝ 90
(92) अब तो हम सिर्फ़ तेरी लाश ही को बचाएँगे ताकि तू बाद की नस्लों के लिए शिक्षा सामग्री बने अगरचे बहुत से इनसान ऐसे हैं जो हमारी निशानियों से गफ़लत बरतते हैं।"
وَلَقَدۡ بَوَّأۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مُبَوَّأَ صِدۡقٖ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ فَمَا ٱخۡتَلَفُواْ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 91
(93) हमने इसराईल की संतान को बहुत अच्छा ठिकाना दिया और अत्यन्त उत्तम ज़िन्दगी के साधन उन्हें प्रदान किए। फिर उन्होंने परस्पर विभेद उसी समय किया जबकि ज्ञान उनके पास आ चुका था। यक़ीनन तेरा रब क़ियामत के दिन उनके बीच उस चीज़ का फ़ैसला कर देगा जिसमें वे मतभेद करते रहे हैं।
فَإِن كُنتَ فِي شَكّٖ مِّمَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ فَسۡـَٔلِ ٱلَّذِينَ يَقۡرَءُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكَۚ لَقَدۡ جَآءَكَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 92
(94) अब अगर तुझे उस मार्गदर्शन की ओर से कुछ भी शक हो जो हमने तुझपर अवतरित किया है तो उन लोगों से पूछ ले जो पहले से किताब पढ़ रहे हैं। वास्तव में यह तेरे पास सत्य ही आया है तेरे रब की ओर से, अतः तू शक करनेवालों में से न हो,
وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَتَكُونَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 93
(95) और उन लोगों में शामिल न हो जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया है, नहीं तो तू नुक़सान उठानेवालों में से होगा।24
24. यह सम्बोधन ज़ाहिरी तौर पर तो नबी (सल्ल०) से है मगर वास्तव में बात उन लोगों को सुनानी अभीष्ट है जो आपके सन्देश में सन्देह कर रहे थे। और किताबवालों का हवाला इसलिए दिया गया है कि अरब के जन-साधारण तो आसमानी किताब के ज्ञान से बेख़बर थे, उनके लिए यह आवाज़ एक नई आवाज़ थी। मगर किताबवालों के धर्म-गुरुओं में जो लोग दीनदार और न्यायप्रिय थे वे इस बात की पुष्टि कर सकते थे कि जिस चीज़ का बुलावा क़ुरआन दे रहा है यह वही चीज़़ है जिसका बुलावा सभी पिछले नबी देते रहे हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ حَقَّتۡ عَلَيۡهِمۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 94
(96) वास्तविकता यह है कि जिन लोगों पर तेरे रब का वचन सिद्ध हो गया है25 उनके सामने चाहे कोई निशानी आ जाए
25. अर्थात् यह वचन कि जो लोग सत्य के चाहनेवाले नहीं होते, और जो अपने दिलों पर दुराग्रह, पक्षपात और हठधर्मी के ताले चढ़ाए रखते हैं, और जो दुनिया के मोह में उन्मत्त और परिणाम की ओर से लापरवाह होते हैं, उन्हें ईमान का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।
وَلَوۡ جَآءَتۡهُمۡ كُلُّ ءَايَةٍ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 95
(97) वे कभी ईमान नहीं लाते जब तक कि दर्दनाक अज़ाब सामने आता न देख लें।
فَلَوۡلَا كَانَتۡ قَرۡيَةٌ ءَامَنَتۡ فَنَفَعَهَآ إِيمَٰنُهَآ إِلَّا قَوۡمَ يُونُسَ لَمَّآ ءَامَنُواْ كَشَفۡنَا عَنۡهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 96
(98) फिर क्या ऐसा कोई उदाहरण है कि एक बस्ती अज़ाब देखकर ईमान लाई हो और उसका ईमान उसके लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ हो? यूनुस की क़ौम के सिवा (इसका कोई उदाहरण नहीं)। वह क़ौम जब ईमान ले आई थी तो अलबत्ता हमने उसपर से दुनिया की ज़िन्दगी में अपमान का अज़ाब टाल दिया26 और उसको एक अवधि तक ज़िन्दगी से लाभान्वित होने का अवसर दे दिया था।
26. टीकाकारों ने इसका कारण यह बयान किया है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) चूँकि अज़ाब की ख़बर देने के बाद अल्लाह की आज्ञा के बिना अपना निवास स्थान छोड़कर चले गए थे, इसलिए जब अज़ाब के लक्षण देखकर आशूरियों ने तौबा की और माफ़ी माँगी तो अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया।
وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ لَأٓمَنَ مَن فِي ٱلۡأَرۡضِ كُلُّهُمۡ جَمِيعًاۚ أَفَأَنتَ تُكۡرِهُ ٱلنَّاسَ حَتَّىٰ يَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 97
(99) अगर तेरे रब की इच्छा यह होती (कि ज़मीन में सब ईमानवाले और आज्ञाकारी ही हों), तो ज़मीन के सारे वासी ईमान ले आए होते। फिर क्या तू लोगों को मज़बूर करेगा कि वे ईमानवाले (मोमिन) हो जाएँ?
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تُؤۡمِنَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَجۡعَلُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 98
(100) कोई प्राणी अल्लाह की अनुमति के बिना ईमान नहीं ला सकता, और अल्लाह का तरीक़ा यह है कि जो लोग बुद्धि से काम नहीं लेते वह उनपर गन्दगी डाल देता है।
قُلِ ٱنظُرُواْ مَاذَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَا تُغۡنِي ٱلۡأٓيَٰتُ وَٱلنُّذُرُ عَن قَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 99
(101) इनसे कहो, “ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसे आँखें खोलकर देखो।” और जो लोग ईमान लाना ही नहीं चाहते उनके लिए निशानियाँ और चेतावनियाँ आख़िर क्या लाभप्रद हो सकती हैं?
فَهَلۡ يَنتَظِرُونَ إِلَّا مِثۡلَ أَيَّامِ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِهِمۡۚ قُلۡ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 100
(102) अब ये लोग इसके सिवा और किस चीज़़ के इन्तिज़ार में हैं कि वही बुरे दिन देखें जो इनसे पहले गुज़रे हुए लोग देख चुके हैं? इनसे कहो, “अच्छा इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।”
ثُمَّ نُنَجِّي رُسُلَنَا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ كَذَٰلِكَ حَقًّا عَلَيۡنَا نُنجِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 101
(103) फिर (जब ऐसा समय आता है तो) हम अपने रसूलों को और उन लोगों को बचा लिया करते हैं जो ईमान लाए हों। हमारा यही तरीक़ा है। हमपर यह हक़ है कि ईमानवालों को बचा लें।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي شَكّٖ مِّن دِينِي فَلَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِنۡ أَعۡبُدُ ٱللَّهَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُمۡۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 102
(104) (ऐ नबी) कह दो कि “लोगो, 'अगर तुम अभी तक मेरे धर्म (दीन) के बारे में किसी शक में हो तो सुन लो कि तुम अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करते हो मैं उनकी बन्दगी नहीं करता बल्कि सिर्फ़ उसी अल्लाह की बन्दगी करता हूँ जिसके अधिकार में तुम्हारी मौत है। मुझे आदेश दिया गया है कि मैं ईमानवालों में से हूँ।
وَأَنۡ أَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗا وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 103
(105) और मुझसे कहा गया है कि एकाग्र होकर अपने आप को ठीक-ठीक इस धर्म पर जमा दे27, और हरगिज़, हरगिज़ मुशरिकों में से न हो।
27. मूल शब्द ये हैं, “अक़िम वज-ह-क लिद्दीनि हनीफ़ा” 'अक़िम वज-ह-क' का शाब्दिक अर्थ है “अपना चेहरा जमा दे।” इसका मतलब यह है कि तेरा रुख़ एक ही ओर स्थिर हो। डगमगाता और हिलता डुलता न हो। कभी पीछे, कभी आगे और कभी दाएँ और कभी बाएँ न मुड़ता रहे। बिलकुल नाक की सीध में उसी मार्ग पर दृष्टि जमाकर चल जो तुझे दिखाया गया है। यह पाबन्दी ख़ुद बहुत सुदृढ़ थी, मगर इसपर बस न किया गया। इसपर एक और क़ैद 'हनीफ़ा' की बढ़ाई गई। हनीफ़ उसको कहते हैं जो सब ओर से मुड़कर एक और का हो रहा हो।
وَلَا تَدۡعُ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكَ وَلَا يَضُرُّكَۖ فَإِن فَعَلۡتَ فَإِنَّكَ إِذٗا مِّنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 104
(106) और अल्लाह को छोड़कर किसी ऐसी सत्ता को न पुकार जो तुझे न फ़ायदा पहुँचा सकती है न नुक़सान, अगर तू ऐसा करेगा तो ज़ालिमों में से होगा।
وَإِن يَمۡسَسۡكَ ٱللَّهُ بِضُرّٖ فَلَا كَاشِفَ لَهُۥٓ إِلَّا هُوَۖ وَإِن يُرِدۡكَ بِخَيۡرٖ فَلَا رَآدَّ لِفَضۡلِهِۦۚ يُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 105
(107) अगर अल्लाह तुझे किसी मुसीबत में डाले तो ख़ुद उसके सिवा कोई नहीं जो उस मुसीबत को टाल दे, और अगर वह तेरे हक़ में किसी भलाई का इरादा करे तो उसके उदार अनुग्रह को फेरनेवाला भी कोई नहीं है। वह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है अनुगृहीत करता है और वह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला हैं।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۖ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِوَكِيلٖ ۝ 106
(108) ऐ मुहम्मद, कह दो कि “लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से सत्य आ चुका है। अब जो सीधा मार्ग अपनाए उसका सीधा मार्ग ग्रहण करना उसी के लिए लाभदायक है, और जो गुमराह रहे उसकी गुमराही उसी के लिए विनाशकारी है और मैं तुम्हारे ऊपर कोई हवालेदार नहीं हूँ।
وَٱتَّبِعۡ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ وَٱصۡبِرۡ حَتَّىٰ يَحۡكُمَ ٱللَّهُۚ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 107
(109) और ऐ नबी, तुम उस आदेश का अनुसरण किए जाओ जो तुम्हारी ओर वह्य (प्रकाशना) द्वारा अवतरित किया जा रहा है, और सब्र से काम लो यहाँ तक कि अल्लाह फ़ैसला कर दे, और वही सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।
۞وَيَسۡتَنۢبِـُٔونَكَ أَحَقٌّ هُوَۖ قُلۡ إِي وَرَبِّيٓ إِنَّهُۥ لَحَقّٞۖ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 108
(53) फिर पूछते हैं क्या वास्तव में यह सच है जो तुम कह रह हो? कहो, “मेरे रब की क़सम, यह बिलकुल सच है, और तुम इतना बल-बूता नहीं रखते कि उसे प्रकट होने से रोक दो।”