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سُورَةُ المَاعُونِ

107. अल-माऊन

(मक्का में उतरी—आयतें 7)

परिचय

नाम

इसी सूरा की अन्तिम आयत के अन्तिम शब्द 'अल-माऊन' (मामूली ज़रूरत की चीजें) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इब्ने-मर्दूया ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) का कथन उल्लेख किया है कि यह सूरा मक्की है और यही कथन अता और जाबिर का भी है। लेकिन अबू-हैयान ने 'अल-बहरुल-मुहीत' में इब्ने-अब्बास और क़तादा और ज़हहाक का यह कथन उल्लेख किया है कि यह मदीना में उतरी है। हमारे नज़दीक स्वयं इस सूरा के अन्दर एक अन्दरूनी गवाही ऐसी मौजूद है जो इसके मदनी होने का प्रमाण बनती है और वह यह है कि इसमें उन नमाज़ पढ़नेवालों को तबाही की धमकी, सुनाई गई है जो अपनी नमाज़ों से ग़फ़लत बरतते और दिखावे के लिए नमाज़ पढ़ते हैं। मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की यह क़िस्म मदीना ही में पाई जाती थी, मक्का में नहीं।

विषय और वार्ता

इसका विषय यह बताता है कि आख़िरत पर ईमान न लाना इंसान के अन्दर किस प्रकार के चरित्र पैदा करता है। आयत 2 और 3 में उन कुफ़्फ़ार (विधर्मियों) की हालत बयान की गई है जो खुल्लम-खुल्ला आख़िरत को झुठलाते हैं। और आख़िरी चार आयतों में उन मुनाफ़िक़ों का हाल बयान किया गया है जो देखने में तो मुसलमान हैं, मगर मन में आख़िरत और उसकी जज़ा और सज़ा और उसके सवाब और अज़ाब की कोई कल्पना ही नहीं रखते। कुल मिलाकर दोनों प्रकार के गिरोहों के तरीक़े को बयान करने से अभिप्राय यह वास्तविकता लोगों के मन में बिठा देनी है कि इंसान के अन्दर एक मज़बूत और सुदृढ़ पवित्र चरित्र आख़िरत के अक़ीदे के बिना पैदा नहीं हो सकता।

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سُورَةُ المَاعُونِ
107. अल-माऊन
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
أَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي يُكَذِّبُ بِٱلدِّينِ
(1) तुमने देखा उस व्यक्ति को जो आख़िरत के प्रतिदान और सज़ा को झुठलाता है?
فَذَٰلِكَ ٱلَّذِي يَدُعُّ ٱلۡيَتِيمَ ۝ 1
(2) वही तो है जो अनाथ को धक्के देता है,
وَلَا يَحُضُّ عَلَىٰ طَعَامِ ٱلۡمِسۡكِينِ ۝ 2
(3) और मुहताज को खाना देने पर नहीं उकसाता1।
1. अर्थात् न अपने-आपको इस काम पर राज़ी करता है, और न अपने घरवालों से कहता है कि मुहताज को खाना दिया करें, और न लोगों को मुहताजों की मदद पर उकसाता है।
فَوَيۡلٞ لِّلۡمُصَلِّينَ ۝ 3
(4) फिर तबाही है उन नमाज़ पढ़नेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ هُمۡ عَن صَلَاتِهِمۡ سَاهُونَ ۝ 4
(5) जो अपनी नमाज़ से ग़फ़लत बरतते हैं2,
2. इससे मुराद नमाज़ में भूलना नहीं है, बल्कि नमाज़ की तरफ़ से बेपरवाह हो जाना है।
ٱلَّذِينَ هُمۡ يُرَآءُونَ ۝ 5
(6) जो दिखावे का काम करते हैं,
وَيَمۡنَعُونَ ٱلۡمَاعُونَ ۝ 6
(7) और साधारण ज़रूरत की चीज़़ें (लोगों को) देने से कतराते हैं।