14. इबराहीम
(मक्का में उतरी-आयतें 52)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम इसकी आयत 35 के वाक्य “याद करो वह समय जब इबराहीम ने दुआ की थी कि पालनहार ! इस नगर (मक्का) को शांति का नगर बना” से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह नहीं है कि इस सूरा में हज़रत इबराहीम की आत्मकथा बयान हुई है, बल्कि यह भी अधिकतर सूरतों के नामों की तरह प्रतीक के रूप में है, अर्थात् वह सूरा जिसमें इबराहीम (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है।
उतरने का समय
सामान्य वर्णनशैली मक्का के अन्तिम काल की सूरतों की-सी है। सूरा-13 (रअ़द) से क़रीब ज़माने ही की उतरी सूरा मालूम होती है। मुख्य रूप से आयत 13 के शब्द 'व क़ालल्लज़ी-न क-फ़-रू लिरुसुलिहिम ल-नुख़रिजन्नकुम मिन अरज़िना अव ल-त-ऊदुन-न फ़ी मिल्लतिना अर्थात् "इंकार करनेवालों ने अपने रसूलों से कहा कि या तो तुम्हें हमारी मिल्लत (पंथ) में वापस आना होगा वरना हम तुम्हें अपने देश से निकाल देंगे” का स्पष्ट संकेत इस ओर है कि उस समय मक्का में मुसलमानों पर अत्याचार अपनी चरम सीमा को पहुँच चुका था और मक्कावाले पिछली काफ़िर क़ौमों की तरह अपने यहाँ के ईमानवालों को शहर से निकाल देने पर तुल गए थे। इसी आधार पर उन्हें वह धमकी सुनाई गई जो उन्हीं के जैसे रवैये पर चलनेवाली पिछली क़ौमों को दी गई थी कि “हम ज़ालिमों को हलाक करके रहेंगे” और ईमानवालों को वही तसल्ली दी गई जो उनके अगलों को दी जाती रही है कि “हम इन ज़ालिमों को समाप्त करने के बाद तुम ही को इस भू-भाग पर आबाद करेंगे।"
इसी तरह अन्तिम आयतों के तेवर भी यही बताते हैं कि यह सूरा मक्का के अन्तिम युग से संबंध रखती है।
केन्द्रीय विषय और उद्देश्य
जो लोग नबी (सल्ल०) की रिसालत (रसूल होने) को मानने से इंकार कर रहे थे और आप (सल्ल०) के सन्देश को विफल करने के लिए हर प्रकार की बुरी से बुरी चालें चल रहे थे, उन्हें समझाया-बुझाया गया और चेतावनी दी गई, लेकिन समझाने-बुझाने की अपेक्षा इस सूरा में चेतावनी, निन्दा और डाँट-फटकार का अंदाज़ ज़्यादा तेज़ है। इसका कारण यह है कि समझाने-बुझाने का हक़ इससे पहले की सूरतों में अच्छी तरह अदा किया जा चुका था और इसके बाद भी क़ुरैश के कुफ़्फ़ार (अवज्ञाकारियों) की हठधर्मी, शत्रुता, विरोध, दुष्टता और अत्याचार दिन-पर-दिन अधिक ही होता चला जा रहा था।
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الٓرۚ كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ لِتُخۡرِجَ ٱلنَّاسَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ
(1) अलिफ़० लाम० रा०। ऐ मुहम्मद, यह एक किताब है जिसको हमने तुम्हारी और अवतरित किया है ताकि तुम लोगों को अंधेरों से निकालकर प्रकाश में लाओ, उनके रब की मेहरबानी से, उस ईश्वर के मार्ग पर जो प्रभुत्वशाली और अपने आप में प्रशंसनीय1 है
1. यहाँ “हमीद” शब्द इस्तेमाल हुआ है। “हमीद” का शब्द यद्यपि 'महमूद' (प्रशंसित) का ही समानार्थी है, मगर दोनों शब्दों में एक सूक्ष्म अन्तर है। महमूद किसी को उसी समय कहेंगे जबकि उसकी प्रशंसा की गई हो या की जाती हो। मगर 'हमीद' आपसे आप प्रशंसा का अधिकारी है, चाहे कोई उसकी प्रशंसा करे या न करे।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا بِلِسَانِ قَوۡمِهِۦ لِيُبَيِّنَ لَهُمۡۖ فَيُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ 3
(4) हमने अपना सन्देश पहुँचाने के लिए जब कभी कोई रसूल भेजा है, उसने अपनी क़ौम ही की भाषा में सन्देश पहुँचाया है ताकि वह उन्हें अच्छी तरह खोलकर बात समझाए। फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधा मार्ग प्रदान करता है, वह प्रभुत्वशाली और तत्त्वज्ञानी है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ أَنۡ أَخۡرِجۡ قَوۡمَكَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ وَذَكِّرۡهُم بِأَيَّىٰمِ ٱللَّهِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ 4
(5) हम इससे पहले मूसा को भी अपनी निशानियों के साथ भेज चुके हैं। उसे भी हमने आदेश दिया था कि अपनी क़ौम को अँधेरों से निकालकर प्रकाश में ला और उन्हें ईश्वरीय इतिहास2 की शिक्षाप्रद घटनाएँ सुनाकर उपदेश कर। इन घटनाओं में बड़ी निशानियाँ हैं हर उस व्यक्ति के लिए जो सब्र करने और कृतज्ञता दिखानेवाला हो।3
2. यहाँ “अय्यामिल्लाह” शब्द इस्तेमाल हुआ है। “अय्याम” का शब्द अरबी भाषा में पारिभाषिक रूप में यादगार ऐतिहासिक घटनाओं के लिए बोला जाता है। “अय्यामुल्लाह” से मुराद मानव इतिहास के वे महत्वपूर्ण अध्याय हैं जिनमें अल्लाह ने विगत समय की क़ौमों और बड़े-बड़े व्यक्तियों को उनके कर्म के अनुसार बदला या सज़ा दी है।
3. अर्थात् ये निशानियाँ तो अपनी जगह मौजूद हैं लेकिन इनसे लाभान्वित होना सिर्फ़ उन्हीं लोगों का काम है जो अल्लाह की परीक्षाओं से सब्र और दृढ़ता के साथ गुज़रनेवाले, और अल्लाह की कृपाओं और उपकारों को ठीक-ठीक महसूस करके उनके प्रति उचित कृतज्ञता दिखानेवाले हों।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ أَنجَىٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ وَيُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ 5
(6) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम के लोगों से कहा, “अल्लाह के उस उपकार को याद रखो जो उसने तुमपर किया है। उसने तुमको फ़िरऔनवालों से छुड़ाया जो तुम्हें कठोर तकलीफ़ें देते थे, तुम्हारे लड़कों को क़त्ल कर डालते थे और तुम्हारी लड़कियों को ज़िन्दा बचा रखते थे, इसमें तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी बड़ी परीक्षा थी।
أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَبَؤُاْ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا ٱللَّهُۚ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَرَدُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فِيٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَقَالُوٓاْ إِنَّا كَفَرۡنَا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ وَإِنَّا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَنَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ 8
(9) क्या तुम्हें4 उन क़ौमों के हालात नहीं पहुँचे जो तुमसे पहले हुई हैं? नूह की क़ौम, आद समूद और उनके बाद में आनेवाली बहुत-सी क़ौमें जिनकी गिनती अल्लाह को ही मालूम है? उनके रसूल जब उनके पास साफ़-साफ़ बातें और खुली-खुली निशानियाँ लिए हुए आए तो उन्होंने अपने मुँह में हाथ दबा लिए5 और कहा कि “जिस सन्देश के साथ तुम भेजे गए हो हम उसको नहीं मानते और जिस चीज़ का तुम हमें आमंत्रण देते हो उसकी ओर से हम बहुत संशय एवं दुविधाजनक सन्देह में पड़े हुए हैं।”
4. हज़रत मूसा (अलैहि०) का भाषण ऊपर समाप्त हो गया। अब सीधे मक्का के अधर्मियों से सम्बोधन शुरू होता है।
۞قَالَتۡ رُسُلُهُمۡ أَفِي ٱللَّهِ شَكّٞ فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَدۡعُوكُمۡ لِيَغۡفِرَ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُؤَخِّرَكُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ قَالُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا تُرِيدُونَ أَن تَصُدُّونَا عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتُونَا بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ 9
(10) उनके रसूलों ने कहा, “क्या अल्लाह के बारे में शक है जो आसमानों और ज़मीन का स्रष्टा है? वह तुम्हें बुला रहा है ताकि तुम्हारे गुनाह माफ़ करे और तुमको नियत समय तक मुहलत दे।” उन्होंने जवाब दिया, “तुम कुछ नहीं हो, मगर वैसे ही इनसान, जैसे हम हैं। तुम हमें उन हस्तियों की बन्दगी (पूजा) से रोकना चाहते हो जिनकी बन्दगी बाप-दादा से होती चली आ रही है। अच्छा, तो लाओ कोई स्पष्ट प्रमाण।”
5. यह ऐसी ही वर्णनशैली है जैसे हम अपनी भाषा में कहते हैं कानों पर हाथ रखे, या दाँतों में उंगली दबाई।
قَالَتۡ لَهُمۡ رُسُلُهُمۡ إِن نَّحۡنُ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَمُنُّ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَمَا كَانَ لَنَآ أَن نَّأۡتِيَكُم بِسُلۡطَٰنٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ 10
(11) उनके रसूलों ने उनसे कहा “वास्तव में हम कुछ नहीं हैं, मगर तुम ही जैसे इनसान। लेकिन अल्लाह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है अपना कृपापात्र बनाता है, और यह हमारे अधिकार में नहीं है कि तुम्हें कोई प्रमाण लाकर दें। प्रमाण तो अल्लाह ही की अनुज्ञा से आ सकता है और अल्लाह ही पर ईमानवालों को भरोसा करना चाहिए।
وَلَنُسۡكِنَنَّكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَافَ مَقَامِي وَخَافَ وَعِيدِ 13
(14) और उनके बाद तुम्हें ज़मीन में बसाएँगे। यह इनाम है उसका जो मेरे सामने जवाबदेही का डर रखता हो और मेरी चेतावनी से डरता हो।”
6. इसका अर्थ यह नहीं है कि पैग़म्बर (अलैहि०) पैग़म्बरी के पद पर नियुक्त होने से पहले अपनी गुमराह क़ौमों के संगठन में शामिल हुआ करते थे, बल्कि इसका अर्थ यह है कि पैग़म्बरी से पहले चूँकि वे एक प्रकार का मौन जीवन व्यतीत करते थे, किसी धर्म का प्रचार और समय के किसी प्रचलित धर्म का खंडन नहीं करते थे, इसलिए उनकी क़ौम यह समझती थी कि वे हमारे ही पन्थ में हैं, और पैग़म्बरी का काम शुरू कर देने के बाद उनपर यह इलज़ाम लगाया जाता था कि वे बाप-दादा के पंथ से निकल गए है। हालाँकि वे पैग़म्बरो से पहले भी कभी मुशरिकों (बहुदेववादियों) के पन्थ में शामिल नहीं हुए थे कि उससे निकलने का इलज़ाम उनपर लग सकता।
وَبَرَزُواْ لِلَّهِ جَمِيعٗا فَقَالَ ٱلضُّعَفَٰٓؤُاْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُنَّا لَكُمۡ تَبَعٗا فَهَلۡ أَنتُم مُّغۡنُونَ عَنَّا مِنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ قَالُواْ لَوۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ لَهَدَيۡنَٰكُمۡۖ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَجَزِعۡنَآ أَمۡ صَبَرۡنَا مَا لَنَا مِن مَّحِيصٖ 20
(21) और ये लोग जब इकट्ठे अल्लाह के सामने खुलकर आ जाएँगे तो उस समय उनमें से जो दुनिया में कमज़ोर थे वे उन लोगों से जो बड़े बने हुए थे, कहेंगे, “दुनिया में हम तुम्हारे पीछे चलते थे, अब क्या तुम अल्लाह के अज़ाब से हमको बचाने के लिए भी कुछ कर सकते हो"? वे जवाब देंगे, “अगर अल्लाह ने हमें छुटकारे की कोई राह दिखाई होती तो हम ज़रूर तुम्हें दिखा देते। अब तो समान है चाहे हम हाय-हाय करें या सब्र, किसी हाल में भी हमारे बचने का कोई उपाय नहीं।"
وَقَالَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَمَّا قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ إِنَّ ٱللَّهَ وَعَدَكُمۡ وَعۡدَ ٱلۡحَقِّ وَوَعَدتُّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُكُمۡۖ وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيۡكُم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّآ أَن دَعَوۡتُكُمۡ فَٱسۡتَجَبۡتُمۡ لِيۖ فَلَا تَلُومُونِي وَلُومُوٓاْ أَنفُسَكُمۖ مَّآ أَنَا۠ بِمُصۡرِخِكُمۡ وَمَآ أَنتُم بِمُصۡرِخِيَّ إِنِّي كَفَرۡتُ بِمَآ أَشۡرَكۡتُمُونِ مِن قَبۡلُۗ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 21
(22) और जब फ़ैसला चुका दिया जाएगा तो शैतान कहेगा “सच यह है कि अल्लाह ने जो वादे तुमसे किए थे वे सब सच्चे थे और मैंने जितने वादे किए उनमें से कोई भी पूरा न किया। मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं, मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि अपने मार्ग की ओर तुम्हें बुलाया और तुमने मेरे आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। अब मुझे मलामत न करो, अपने आप ही को मलामत करो। यहाँ न मैं तुम्हारी फ़रियाद सुन सकता हूँ और न तुम मेरी। इससे पहले जो तुमने मुझे ईश्वरत्व में साझीदार बना रखा था7 मैं उसके उत्तरदायित्व से मुक्त हूँ। ऐसे ज़ालिमों के लिए तो दर्दनाक सज़ा निश्चित है।"
7. यह बात स्पष्ट है कि शैतान को धारणा की हैसियत से तो कोई भी न ईश्वरत्व में साझीदार ठहराता है और न उसकी पूजा करता है, सब उसपर लानत ही भेजते हैं। अलबत्ता उसका आज्ञापालन और दासता और उसकी रीति-नीति का अन्धतापूर्वक या जान-बूझकर अनुसरण ज़रूर किया जा रहा है और इसी बात के लिए यहाँ 'शिर्क' (साझीदार बनाने) का शब्द प्रयोग किया गया है।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ دَآئِبَيۡنِۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ 32
(33) जिसने सूरज और चाँद को तुम्हारे लिए काम में लगा दिया कि लगातार चले जा रहे हैं और रात और दिन को तुम्हारे लिए वशवर्ती किया8
8. “तुम्हारे लिए वशवर्ती किया” को साधारणतया लोग ग़लती से “तुम्हारे अधीन कर दिया” के अर्थ में ले लेते हैं, और फिर इस तरह की आयतों से अनोखे अर्थ पैदा करने लगते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग तो यहाँ तक समझ बैठे कि इन आयतों के अनुसार आसमानों और ज़मीन को अपने अधीन करना इनसान का अन्तिम लक्ष्य है। हालाँकि इनसान के लिए इन चीज़़ों को वशवर्ती करने का अर्थ इसके सिवा कुछ नहीं कि अल्लाह ने इनको ऐसे नियमों का पाबन्द बना रखा है जिनके कारण ये मानव के लिए लाभदायक हो गई हैं।
وَءَاتَىٰكُم مِّن كُلِّ مَا سَأَلۡتُمُوهُۚ وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَظَلُومٞ كَفَّارٞ 33
(34) जिसने वह सब कुछ तुम्हें दिया जो तुमने माँगा।9 अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनना चाहो तो नहीं गिन सकते। वास्तविकता यह है कि इनसान बड़ा ही बेइनसाफ़ और अकृतज्ञ है।
9. अर्थात् तुम्हारी हर प्राकृतिक माँग पूरी की, तुम्हारे जीवन के लिए जो कुछ चाहिए था जुटाया, तुम्हारे अस्तित्त्व के बाक़ी रहने और उसके विकास के लिए जिन-जिन साधनों की ज़रूरत थी सब उपलब्ध कर दिए।
رَّبَّنَآ إِنِّيٓ أَسۡكَنتُ مِن ذُرِّيَّتِي بِوَادٍ غَيۡرِ ذِي زَرۡعٍ عِندَ بَيۡتِكَ ٱلۡمُحَرَّمِ رَبَّنَا لِيُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱجۡعَلۡ أَفۡـِٔدَةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ تَهۡوِيٓ إِلَيۡهِمۡ وَٱرۡزُقۡهُم مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡكُرُونَ 36
(37) पालनहार, मैंने एक निर्जल और ऊसर घाटी में अपनी सन्तान के एक भाग को तेरे प्रतिष्ठित घर के पास ला बसाया है। पालनहार, यह मैंने इसलिए किया है कि ये लोग यहाँ नमाज़ क़ायम करें, अतः तू लोगों के दिलों को इनका इच्छुक बना और इन्हें खाने को फल दे, शायद कि ये कृतज्ञ बनें।
رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لِي وَلِوَٰلِدَيَّ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ يَوۡمَ يَقُومُ ٱلۡحِسَابُ 40
(41) पालनहार, मुझे और मेरे माँ-बाप10 को और सब ईमान वालों को उस दिन माफ़ कर देना जबकि हिसाब क़ायम होगा।"
10. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने इस क्षमा की प्रार्थना में अपने बाप को उस वादे के कारण सम्मिलित कर लिया था जो उन्होंने स्वदेश से निकलते समय किया था “मैं तुम्हारे लिए अपने रब से माफ़ी की दुआ करूँगा।” (क़ुरआन, 19:47)। मगर बाद में जब उन्हें एहसास हुआ कि वह तो अल्लाह का दुश्मन था तो उन्होंने उससे साफ़ तौर पर अपनी विरक्ति व्यक्त कर दी। (क़ुरआन, 9 :114)
وَأَنذِرِ ٱلنَّاسَ يَوۡمَ يَأۡتِيهِمُ ٱلۡعَذَابُ فَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رَبَّنَآ أَخِّرۡنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ نُّجِبۡ دَعۡوَتَكَ وَنَتَّبِعِ ٱلرُّسُلَۗ أَوَلَمۡ تَكُونُوٓاْ أَقۡسَمۡتُم مِّن قَبۡلُ مَا لَكُم مِّن زَوَالٖ 43
(44) ऐ नबी, उस दिन से तुम उन्हें डरा दो जबकि अज़ाब उन्हें आ लेगा। उस समय ये ज़ालिम कहेंगे, ” हमारे रब, हमें थोड़ी-सी मुहलत और दे दे, हम तेरे पैग़ाम को स्वीकार करेंगे और रसूलों का अनुसरण करेंगे।” (मगर उन्हें साफ़ जवाब दिया जाएगा कि) “क्या तुम वही लोग नहीं हो जो इससे पहले क़समें खा-खाकर कहते थे कि हमारा पतन तो कभी होने का नहीं है?”
يَوۡمَ تُبَدَّلُ ٱلۡأَرۡضُ غَيۡرَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱلسَّمَٰوَٰتُۖ وَبَرَزُواْ لِلَّهِ ٱلۡوَٰحِدِ ٱلۡقَهَّارِ 47
(48) डराओ इन्हें उस दिन से जबकि ज़मीन और आसमान बदलकर कुछ से कुछ कर दिए जाएँगे11 और सबके सब खुलकर अल्लाह के सामने उपस्थित हो जाएँगे जो अकेला और प्रभुत्वशाली है।
11. इस आयत से और क़ुरआन के दूसरे संकेतों से मालूम होता है कि क़ियामत में ज़मीन और आसमान बिलकुल ध्वस्त नहीं हो जाएँगे, बल्कि सिर्फ़ वर्तमान भौतिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर डाला जाएगा। उसके बाद पहली बार नरसिंघा (सूर) में फूँक मारे जाने और अन्तिम बार नरसिंघा फूँकने के बीच एक विशेष अवधि में, जिसे अल्लाह ही जानता है, ज़मीन और आसमानों का वर्तमान रूप बदल दिया जाएगा और एक दूसरी व्यवस्था एवं प्रणाली दूसरे प्राकृतिक नियमों के साथ बना दी जाएगी। वही परलोक (आख़िरत) का संसार होगा। फिर अन्तिम बार नरसिंघा फूँकने के साथ ही सारे वे लोग जो आदम की पैदाइश से लेकर प्रलय (क़ियामत) तक पैदा हुए थे, फिर नए सिरे से ज़िन्दा किए जाएँगे और अल्लाह के सामने पेश होंगे। इसी का नाम क़ुरआन की भाषा में 'हश्र' है जिसका शाब्दिक अर्थ है समेटना और इकट्ठा करना।