- अन-नहल
(मक्का में उतरी-आयतें 128)
परिचय
नाम
आयत 68 के वाक्य ‘व औहा रब्बु-क इलन्नह्ल' से लिया गया है। नह्ल शब्द का अर्थ है- मधुमक्खी । यह भी केवल संकेत है, न कि वार्ता के विषय का शीर्षक ।
उतरने का समय
बहुत-सी अदरूनी गवाहियों से इसके उतरने के समय पर रौशनी पड़ती है। जैसे आयत 41 के वाक्य 'वल्लज़ी-न हाजरू फ़िल्लाहि मिम-बादि मा ज़ुलिमू’ (जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए) से स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय हब्शा की हिजरत हो चुकी थी। आयत 106 'मन क-फ़-र बिल्लाहि मिम-बादि ईमानिही' (जो आदमी ईमान लाने के बाद इनकार करे) से मालूम होता है कि उस समय अन्याय उग्र रूप धारण किए हुए था और यह प्रश्न पैदा हो गया था कि अगर कोई व्यक्ति असह्य पीड़ा से विवश होकर कुफ़्र (अधर्म) के शब्द कह बैठे तो उसका क्या हुक्म है।
आयत 112-114 का स्पष्ट संकेत इस ओर है कि मक्का में जो ज़बरदस्त सूखा पड़ गया था, वह इस सूरा के उतरते समय समाप्त हो चुका था। -इस सूरा में एक आयत 115 ऐसी है जिसका हवाला सूरा-6 अनआम की आयत 119 में दिया गया है और दूसरी आयत (118) ऐसी है जिसमें सूरा अनआम की आयत 146 का हवाला दिया गया है। यह इस बात की दलील है कि इन दोनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब है।
इन गवाहियों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय भी मक्का का अन्तिम काल ही है।
शीर्षक और केन्द्रीय विषय
शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन, तौहीद (एकेश्वरवाद) का प्रमाण, पैग़म्बर की दावत को न मानने के बुरे नतीजों पर चेतावनी और समझाना-बुझाना और सत्य के विरोध और उसके लिए रुकावटें खड़ी करने पर डाँट-फटकार।
वार्ताएँ
सूरा का आरंभ बिना किसी भूमिका के एकाएक एक चेतावनी भरे वाक्य से होता है। मक्का के कुफ़्फ़ार (अधर्मी) बार-बार कहते थे कि 'जब हम तुम्हें झुठला चुके है और खुल्लम-खुल्ला तुम्हारा विरोध कर रहे है तो आख़िर वह अल्लाह का अज़ाब आ क्यों नहीं जाता जिसकी तुम हमें धमकियाँ देते हो।' इसपर कहा गया कि मूर्खो! अल्लाह का अज़ाब तो तुम्हारे सिर पर तुला खड़ा है। अब इसके टूट पड़ने के लिए जल्दी न मचाओ, बल्कि जो तनिक भर मोहलत बाक़ी है उससे लाभ उठाकर बात समझने की कोशिश करो। इसके बाद तुरन्त ही समझाने-बुझाने के लिए व्याख्यान आरंभ हो जाता है और निम्नलिखित विषय बार-बार एक के बाद एक सामने आने शुरू होते हैं।
- दिल लगती दलीलों और सृष्टि और निज की निशानियों की खुली-खुली गवाहियों से समझाया जाता है कि शिर्क असत्य है और तौहीद ही सत्य है
- इंकारियों की आपत्ति, सन्देह, दुराग्रह और हीले-बहानों का एक-एक करके उत्तर दिया जाता है।
- असत्य पर आग्रह और सत्य के मुक़ाबले में घमंड व्यक्त करने के बुरे नतीजों से डराया जाता है।
- उन नैतिक और व्यावहारिक परिवर्तनों को संक्षेप में, मगर मन में बैठ जानेवाली शैली में, बयान किया जाता है जो मुहम्मद (सल्ल०) का लाया हुआ दीन मानव-जीवन में लाना चाहता है।
- नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की ढाढ़स बँधाई जाती है और साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि कुफ़्फ़ार की रुकावटों और अत्याचारों के मुक़ाबले में उनका रवैया क्या होना चाहिए।
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يُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ بِٱلرُّوحِ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ أَنۡ أَنذِرُوٓاْ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱتَّقُونِ 1
(2) वह इस रूह2 को अपने जिस बन्दे पर चाहता है अपने आदेश से फ़रिश्तों के द्वारा उतार देता है (इस आदेश के साथ कि लोगों को) “सावधान कर दो, मेरे सिवा कोई तुम्हारा पूज्य प्रभु नहीं है, अत: तुम मुझी से डरो।”
2. रूह से मुराद है पैग़म्बरी की रूह और प्रकाशना जिससे भरकर नबी काम और कलाम करता है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ 3
(4) उसने इनसान को एक ज़रा-सी बूँद से पैदा किया और देखते-देखते स्पष्टतः वह एक झगड़ालू प्राणी बन गया।3
3. इसके दो अर्थ हो सकते हैं और संभवतः दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि अल्लाह ने वीर्य की तुच्छ-सी बूँद से वह इनसान पैदा किया जो बहस और तर्क-वितर्क की योग्यता रखता है और अपने अभिप्राय के लिए प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है। दूसरे यह कि जिस इनसान को अल्लाह ने वीर्य जैसी तुच्छ चीज़़ से पैदा किया है, उसके अहंकार की उदण्डता तो देखो कि वह ख़ुद अल्लाह ही के मुक़ाबले में झगड़ने पर उतर आया है।
وَٱلۡخَيۡلَ وَٱلۡبِغَالَ وَٱلۡحَمِيرَ لِتَرۡكَبُوهَا وَزِينَةٗۚ وَيَخۡلُقُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ 7
(8) उसने घोड़े और ख़च्चर और गधे पैदा किए ताकि तुम उनपर सवार हो और वे तुम्हारी ज़िन्दगी की शोभा बनें। वह और बहुत-सी चीज़़ें (तुम्हारे फ़ायदे के लिए) पैदा करता है जिनका तुम्हें ज्ञान तक नहीं है।4
4. अर्थात् बहुत-सी ऐसी चीज़़ें हैं जो इनसान की भलाई के लिए काम कर रही हैं और इनसान को ख़बर तक नहीं है कि कहाँ-कहाँ कितने सेवक उसकी सेवा में लगे हुए हैं और क्या सेवा कर रहे हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي سَخَّرَ ٱلۡبَحۡرَ لِتَأۡكُلُواْ مِنۡهُ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُواْ مِنۡهُ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ مَوَاخِرَ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 13
(14) वही है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को वशीभूत कर रखा है ताकि तुम उससे तरोताज़ा गोश्त (माँस) लेकर खाओ और उससे साज-सज्जा की वे चीज़़ें निकालो जिन्हें तुम पहना करते हो। तुम देखते हो कि नौका समुद्र का सीना चीरती हुई चलती है। ये सब कुछ इसलिए है कि तुम अपने रब का अनुग्रह (फ़ज़्ल) तलाश करो5 और उसके कृतज्ञ बनो।
5. अर्थात् हलाल तरीक़ों से अपनी रोज़ी हासिल करने की कोशिश करो।
أَمۡوَٰتٌ غَيۡرُ أَحۡيَآءٖۖ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ 20
(21) निर्जीव, हैं न कि जीवित। और उनको कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब (दोबारा जीवित करके) उठाया जाएगा।6
6. ये शब्द स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि यहाँ विशेष रूप से जिन बनावटी पूज्यों का खण्डन किया जा रहा है वे मरे हुए इनसान हैं, क्योंकि फ़रिश्ते तो ज़िन्दा हैं, मुर्दा नहीं हैं और लकड़ी-पत्थर की मूर्तियों के बारे में दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
وَإِذَا قِيلَ لَهُم مَّاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡ قَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ 23
(24) और जब कोई उनसे पूछता है कि तुम्हारे रब ने यह क्या चीज़ उतारी है7, तो कहते हैं, “अजी वह तो अगले समयों की पुरातन कहानियाँ हैं।”
7. अरब में जब नबी (सल्ल०) की चर्चा होने लगी तो बाहर के लोग मक्कावालों से आपके और क़ुरआन के बारे में सवाल और पूछ-ताछ करते थे।
ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُخۡزِيهِمۡ وَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تُشَٰٓقُّونَ فِيهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ إِنَّ ٱلۡخِزۡيَ ٱلۡيَوۡمَ وَٱلسُّوٓءَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ 26
(27) फिर क़ियामत के दिन अल्लाह उन्हें अपमानित करेगा और उनसे कहेगा, “बताओ अब कहाँ है मेरे वे साझीदार जिनके लिए तुम (सत्यवादियों से) झगड़े किया करते थे? — जिन लोगों को दुनिया में ज्ञान मिला था वे कहेंगे, “आज अपमान और दुर्भाग्य है इनकार करनेवालों के लिए।”
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡۖ فَأَلۡقَوُاْ ٱلسَّلَمَ مَا كُنَّا نَعۡمَلُ مِن سُوٓءِۭۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ 27
(28)—हाँ, उन्हीं इनकार करनेवालों के लिए जो अपने आपपर ज़ुल्म करते हुए जब फ़रिश्तों के हाथों पकड़े जाते हैं तो (उद्दण्डता त्यागकर) तुरन्त डगे डाल देते हैं और कहते हैं, “हम तो कोई बुरा काम नहीं कर रहे थे।” फ़रिश्ते जवाब देते है, “कर कैसे नहीं रहे थे! अल्लाह तुम्हारी करतूतों से ख़ूब परिचित है।
۞وَقِيلَ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ مَاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡۚ قَالُواْ خَيۡرٗاۗ لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۚ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞۚ وَلَنِعۡمَ دَارُ ٱلۡمُتَّقِينَ 29
(30) दूसरी ओर जब अल्लाह का डर रखनेवाले लोगों से पूछा जाता है कि यह क्या चीज़ है जो तुम्हारे रब की ओर से अवतरित हुई है, तो वे जवाब देते हैं कि “बेहतरीन चीज़ उतरी है।” इस तरह के उत्तमकार लोगों के लिए इस दुनिया में भी भलाई है और आख़िरत का घर तो ज़रूर ही उनके हक़ में ज़्यादा अच्छा है। बड़ा अच्छा घर है डर रखनेवाले लोगों का,
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ لَهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَۚ كَذَٰلِكَ يَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلۡمُتَّقِينَ 30
(31) हमेशा रहने की जन्नतें, जिनमें वे प्रवेश करेंगे, नीचे नहरें बह रही होंगी, और सब कुछ वहाँ बिलकुल उनकी इच्छा के अनुकूल होगा। यह बदला देता है अल्लाह डर रखनेवालों को
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ أَمۡرُ رَبِّكَۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ 32
(33) ऐ नबी, अब जो ये लोग इन्तिज़ार कर रहे हैं तो इसके सिवा अब और क्या बाक़ी रह गया है कि फ़रिश्ते ही आ पहुँचें या तेरे रब का फ़ैसला लागू हो जाए? इसी तरह की ढिठाई इससे पहले बहुत से लोग कर चुके हैं। फिर जो कुछ उनके साथ हुआ वह उनपर अल्लाह का ज़ुल्म न था बल्कि उनका अपना ज़ुल्म था जो उन्होंने ख़ुद अपने ऊपर किया।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا عَبَدۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖ نَّحۡنُ وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ فَهَلۡ عَلَى ٱلرُّسُلِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ 34
(35) ये मुशरिक (बहुदेववादी) कहते हैं, “अगर अल्लाह चाहता तो न हम और न हमारे बाप-दादा उसके सिवा किसी और की बन्दगी करते और न उसके आदेश के बिना किसी चीज़़ को हराम (अवैध) ठहराते। ऐसे ही बहाने इनसे पहले के लोग भी बनाते रहे हैं। तो क्या रसूलों पर साफ़-साफ़ बात पहुँचा देने के सिवा और भी कोई जिम्मेदारी है?
وَلَقَدۡ بَعَثۡنَا فِي كُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱجۡتَنِبُواْ ٱلطَّٰغُوتَۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ هَدَى ٱللَّهُ وَمِنۡهُم مَّنۡ حَقَّتۡ عَلَيۡهِ ٱلضَّلَٰلَةُۚ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ 35
(36) हमने हर उम्मत में एक रसूल भेज दिया, और उसके द्वारा सबको सूचित कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और बढ़े हुए अवज्ञाकारी (ताग़ूत) की बन्दगी से बचो।” इसके बाद उनमें से किसी को अल्लाह ने मार्ग दिखाया और किसी पर गुमराही छा गई। फिर तनिक ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालो का क्या अंजाम हो चुका है।
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْ لَنُبَوِّئَنَّهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ 40
(41) जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए अपना घर-बार छोड़ (हिजरत कर) गए हैं उनको हम इस दुनिया ही में अच्छा ठिकाना देंगे और आख़िरत का प्रतिदान तो बहुत बड़ा है।8 क्या ही अच्छा होता कि जान लेते
8. यह संकेत है उन घरबार छोड़नेवालों (मुहाजिरीन) की ओर जो अधर्मियों के असह्य अत्याचारों से तंग आकर हबश की तरफ़ घरबार छोड़कर चले गए थे।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ 42
(43) ऐ नबी, हमने तुमसे पहले भी जब कभी रसूल भेजे आदमी ही भेजे हैं जिनकी ओर हम अपने सन्देशों की वह्य (प्रकाशना) किया करते थे, ज़िक्रवालों से पूछ9 लो अगर तुम लोग नहीं जानते।
9. अर्थात् उन लोगों से पूछ लो जिन्हें आसमानी किताबों का ज्ञान है कि नबी इनसान ही होते थे या कुछ और।
بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِۗ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّكۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ 43
(44) पिछले रसूलों को भी हमने स्पष्ट निशानियाँ और किताबें देकर भेजा था, और ख़ुद अब यह ज़िक्र तुमपर अवतरित किया है ताकि तुम लोगों के सामने उस शिक्षा की व्याख्या और स्पष्टीकरण करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है10, और ताकि लोग (ख़ुद भी) सोच-विचार करें।
10. अर्थात् अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर किताब इसलिए उतारी गई थी कि आप (सल्ल०) अपने कथन और कर्म के माध्यम से उसकी शिक्षाओं और उसके आदेशों की व्याख्या और स्पष्टीकरण करते रहें। इससे ख़ुद ही यह बात सिद्ध होती है कि नबी (सल्ल०) का तरीक़ा और जीवन-पद्धति क़ुरआन की प्रामाणिक सरकारी व्याख्या हैं।
أَفَأَمِنَ ٱلَّذِينَ مَكَرُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن يَخۡسِفَ ٱللَّهُ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ 44
(45) फिर क्या वे लोग जो (पैग़म्बर के संदेश के विरोध में) बुरी से बुरी चालें चल रहे हैं, इस बात से बिलकुल ही निश्चिन्त हो गए हैं कि अल्लाह उनको ज़मीन में धँसा दे, या ऐसी दिशा से इस उनपर अज़ाब ले आए जिधर से उसके आने का उनको गुमान तक न हो,
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ يَتَفَيَّؤُاْ ظِلَٰلُهُۥ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَٱلشَّمَآئِلِ سُجَّدٗا لِّلَّهِ وَهُمۡ دَٰخِرُونَ 47
(48) और क्या ये लोग अल्लाह की पैदा की हुई किसी चीज़़ को भी नहीं देखते कि उसकी छाया किस तरह अल्लाह के सामने सजदा करते हुए दाएँ और बाएँ गिरती है?11 सब के सब इस तरह विवशता दिखा रहे हैं।
11. अर्थात् सभी देहधारी वस्तुओं की छाया इस बात का लक्षण है कि पहाड़ हों या वृक्ष, जानवर हों या इनसान सब के सब एक व्यापक नियम और क़ानून के बंधन में जकड़े हुए हैं, सबके ललाट पर बन्दगी का दाग़ लगा हुआ है, ईश्वरत्व में किसी का कोई किंचित हिस्सा भी नहीं है। छाया पड़नी एक चीज़ के भौतिक होने का खुला लक्षण है, और भौतिक होना दास और पैदा किया हुआ होने का खुला प्रमाण है।
وَلَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلدِّينُ وَاصِبًاۚ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَتَّقُونَ 51
(52) उसी का है वह सब कुछ जो आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, और विशुद्ध रूप से उसी का धर्म (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में) चल रहा है 13। फिर क्या अल्लाह को छोड़कर तुम किसी और का डर रखोगे?
13. दूसरे शब्दों में उसी की आज्ञा के पालन पर इस पूरे अस्तित्व जगत् के कार्यकलाप की व्यवस्था निर्भर करती है।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ ٱلۡبَنَٰتِ سُبۡحَٰنَهُۥ وَلَهُم مَّا يَشۡتَهُونَ 56
(57) ये अल्लाह के लिए बेटियाँ ठहराते हैं।14 पाक हैं अल्लाह! और इनके लिए वह जो ये ख़ुद चाहें?15
14. अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) के इष्ट पूज्यों में देवता कम थे, देवियाँ ज़्यादा थीं, और उन देवियों के सम्बन्ध में उनका विश्वास यह था कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। इसी तरह फ़रिश्तों को भी वे अल्लाह की बेटियाँ ठहराते थे।
15. अर्थात् बेटे।
يَتَوَٰرَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ مِن سُوٓءِ مَا بُشِّرَ بِهِۦٓۚ أَيُمۡسِكُهُۥ عَلَىٰ هُونٍ أَمۡ يَدُسُّهُۥ فِي ٱلتُّرَابِۗ أَلَا سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ 58
(59) लोगों से छिपता फिरता है कि इस बुरी ख़बर के बाद क्या किसी को मुँह दिखाए। सोचता है कि अपमानपूर्वक बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दबा दे? देखो कैसे बुरे हुक्म हैं जो ये अल्लाह के बारे में लगाते हैं।16
16. अर्थात् अपने लिए जिस बेटी को ये लोग इतनी शर्म की चीज़ समझते हैं, उसी को अल्लाह के लिए बेझिझक ठहरा देते हैं।
تَٱللَّهِ لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَهُوَ وَلِيُّهُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 62
(63) अल्लाह की क़सम, ऐ नबी, तुमसे पहले भी बहुत-से समुदायों (क़ौमों में हम रसूल भेज चुके हैं (और पहले भी यही होता रहा है कि) शैतान ने उनकी बुरी करतूतें उन्हें मोहक बनाकर दिखाईं (और रसूलों की बात उन्होंने कदापि न मानी)। वही शैतान आज इन लोगों का भी अभिवाहक बना हुआ है और ये दर्दनाक सज़ा के पात्र बन रहे हैं।
وَٱللَّهُ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ 64
(65) (तुम हर बरसात में देखते हो कि) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और अचानक मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन में उसके कारण जान डाल दी।17 यक़ीनन इसमें एक निशानी है सुननेवालों के लिए।
17. अर्थात् यह दृश्य हर वर्ष तुम्हारी आँखों के सामने गुज़रता है कि ज़मीन बिलकुल चटियल मैदान पड़ी हुई है, ज़िन्दगी के कोई लक्षण मौजूद नहीं, न पास-फूस है, न बेल-बूटे, न फूल-पत्ती, और न किसी तरह के कीड़े-मकोड़े। इतने में वर्षा ऋतु आ गई और एक-दो छीटे पड़ते हो उसी ज़मीन से ज़िन्दगी के स्रोत उबलने शुरू हो गए। ज़मीन की तहों में दबी हुई अनगिनत जड़ें अचानक जीवत हो उठीं और हर एक के भीतर से वही वनस्पति फिर निकल आई जो पिछली बरसात में पैदा होने के बाद मर चुकी थी। अनगिनत कीड़े-मकोड़े जिनका नामोनिशान तक गर्मी के समय में बाक़ी न रहा था, अचानक फिर उसी शान से प्रकट हो गए जैसे पिछली बरसात में देखे गए थे। ये सब कुछ अपनी ज़िन्दगी में बार-बार तुम देखते रहते हो, और फिर भी तुम्हें नबी के मुँह से यह सुनकर आश्चर्य होता है कि अल्लाह सारे इनसानों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा करेगा।
وَمِن ثَمَرَٰتِ ٱلنَّخِيلِ وَٱلۡأَعۡنَٰبِ تَتَّخِذُونَ مِنۡهُ سَكَرٗا وَرِزۡقًا حَسَنًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 66
(67) (इसी तरह) खजूरों के पेड़ों और अंगूर की बेलों से भी हम एक चीज़़ तुम्हें पिलाते हैं। जिसे तुम मादक (नशीली) भी बना लेते हो और पाक रोज़ी भी।18 यक़ीनन इसमें एक निशानी है। बुद्धि से काम लेनेवालों के लिए।
18. इसमें एक हलका संकेत शराब की अवैधता को ओर भी है कि वह पाक और शुद्ध रोज़ी नहीं है।
وَأَوۡحَىٰ رَبُّكَ إِلَى ٱلنَّحۡلِ أَنِ ٱتَّخِذِي مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا وَمِنَ ٱلشَّجَرِ وَمِمَّا يَعۡرِشُونَ 67
(68) और देखो, तुम्हारे रब ने मधुमक्खी पर इस बात की प्रकाशना (वह्य) कर दी19 कि पहाड़ों में और पेड़ों में और टट्टियों पर चढ़ाई हुई बेलों में, अपने छते बना,
19. यहाँ 'वह्य' शब्द इस्तेमाल हुआ है। 'वह्य' का शाब्दिक अर्थ है गुप्त और सूक्ष्म संकेत, जो संकेत करनेवाले और संकेत पानेवाले के सिवा और किसी को महसूस न हो सके। इसी समानता के कारण यह शब्द 'इलक़ा' (दिल में बात डालने) और 'इलहाम' (गुप्त शिक्षा और उपदेश) के अर्थ में इस्तेमाल होता है।
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ ثُمَّ يَتَوَفَّىٰكُمۡۚ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡ لَا يَعۡلَمَ بَعۡدَ عِلۡمٖ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٞ قَدِيرٞ 69
(70) और देखो, अल्लाह ने तुमको पैदा किया, फिर वह तुमको मौत देता है, और तुममें से कोई निकृष्टतम आयु को पहुँचा दिया जाता है, ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने। सच यह है कि अल्लाह ही ज्ञान में भी पूर्ण है और सामर्थ्य में भी।
وَٱللَّهُ فَضَّلَ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلرِّزۡقِۚ فَمَا ٱلَّذِينَ فُضِّلُواْ بِرَآدِّي رِزۡقِهِمۡ عَلَىٰ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَهُمۡ فِيهِ سَوَآءٌۚ أَفَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ 70
(71) और देखो अल्लाह ने तुममें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में रोज़ी में आगे रखा है। फिर जिन लोगों को इस प्रकार आगे रखा है वे ऐसे नहीं है कि अपनी रोज़ी अपने ग़ुलामों की ओर फेर दिया करते हों, ताकि दोनों इस रोज़ी में बराबर के हिस्सेदार बन जाएँ। तो क्या अल्लाह ही का उपकार स्वीकार करने से इन लोगों को इनकार है?20
20. वर्तमान युग में कुछ लोगों ने इस आयत से यह मतलब निकाल लिया है कि जिन लोगों को अल्लाह ने रोज़ी में आगे रखा हो उन्हें अपनी रोज़ी अपने नौकरों और ग़ुलामों की ओर ज़रूर लौटा देनी चाहिए, अगर न लौटाएँगे तो अल्लाह के उपकार के इनकार करनेवाले ठहरेंगे। हालाँकि ऊपर से पूरी वार्ता शिर्क (बहुदेववाद) के खण्डन और एकेश्वरवाद की पुष्टि में होती चली आ रही है और आगे भी निरन्तर यही विषय चल रहा है। वार्ता के अगले-पिछले भाग को दृष्टि में रखकर देखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यहाँ तर्क यह पेश किया गया है कि तुम ख़ुद अपने माल में अपने ग़ुलामों और नौकरों को जब बराबर का दर्जा नहीं देते तो आख़िर किस प्रकार यह बात तुम सही समझते हो कि जो उपकार अल्लाह ने तुमपर किए हैं उनके शुक्रिए में अल्लाह के साथ उसके अधिकारहीन ग़ुलामों को भी साझीदार बना लो और अपनी जगह यह समझ बैठो कि अधिकार और हक़ में अल्लाह के ये ग़ुलाम भी उसके साथ बराबर के हिस्सेदार है।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُم بَنِينَ وَحَفَدَةٗ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَتِ ٱللَّهِ هُمۡ يَكۡفُرُونَ 71
(72) और वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए तुम्हारी सहजाति पत्नियाँ बनाईं और उसी ने उन पत्नियों से तुम्हें बेटे, पोते प्रदान किए और अच्छी-अच्छी चीज़़ें तुम्हें खाने को दीं। फिर क्या ये लोग (ये सब कुछ देखते और जानते हुए भी) असत्य को मानते हैं21 और अल्लाह के उपकार को स्वीकार करने से इनकार करते हैं
21. अर्थात् इनकी निराधार झूठी धारणा है कि उनके भाग्य का बनाना और बिगाड़ना, उनकी कामनाएँ पूरी करना और दुआएँ सुनना, उन्हें औलाद देना, उनको रोज़गार दिलवाना, उनके मुक़द्दमे जितवाना और उन्हें बीमारियों से बचाना कुछ देवियों और देवताओं और जिन्नों और अगले-पिछले बुज़ुर्गों के अधिकार में है।
فَلَا تَضۡرِبُواْ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡثَالَۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ 73
(74) अत: अल्लाह के लिए मिसालें न गढ़ो22 अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
22. अर्थात् अल्लाह को दुनिया के बादशाहों और राजाओं-महाराजाओं की तरह न समझो कि जिस तरह कोई उनके सभासदों और दरबार के निकटवर्ती कार्यकर्ताओं को माध्यम बनाए बिना उन तक अपनी प्रार्थना और निवेदन नहीं पहुँचा सकता उसी तरह अल्लाह के बारे में भी तुम यह समझने लगो कि वह अपने राजमहल में फ़रिश्तों और महात्माओं और दूसरे निकटवर्तियों के बीच घिरा बैठा है और किसी का कोई काम इन मध्यवर्तियों के बिना उसके यहाँ से नहीं बन सकता।
۞ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلًا عَبۡدٗا مَّمۡلُوكٗا لَّا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَمَن رَّزَقۡنَٰهُ مِنَّا رِزۡقًا حَسَنٗا فَهُوَ يُنفِقُ مِنۡهُ سِرّٗا وَجَهۡرًاۖ هَلۡ يَسۡتَوُۥنَۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ 74
(75) अल्लाह एक मिसाल देता है। एक तो है ग़ुलाम जिसपर दूसरे का अधिकार है और ख़ुद उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं दूसरा व्यक्ति ऐसा है जिसे हमने अपनी ओर से अच्छी रोज़ी दी है और वह उसमें से खुले और छिपे ख़ूब ख़र्च करता है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर हैं? — प्रशंसा है अल्लाह के लिए23, मगर ज़्यादातर लोग (इस सीधी बात को) नहीं जानते।
23. चूँकि इस सवाल के जवाब में मुशरिक (बहुदेववादी) यह नहीं कह सके कि दोनों बराबर हैं, इसलिए कहा, प्रशंसा है अल्लाह के लिए, कि इतनी बात तो तुम्हारी समझ में आई।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلَيۡنِ أَحَدُهُمَآ أَبۡكَمُ لَا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُوَ كَلٌّ عَلَىٰ مَوۡلَىٰهُ أَيۡنَمَا يُوَجِّههُّ لَا يَأۡتِ بِخَيۡرٍ هَلۡ يَسۡتَوِي هُوَ وَمَن يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَهُوَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ 75
(76) अल्लाह एक और मिसाल देता है। दो आदमी हैं। एक गूँगा-बहरा है, कोई काम नहीं कर सकता, अपने मालिक पर बोझ बना हुआ है, जिधर भी वह उसे भेजे कोई भला काम उससे बन न आए। दूसरा व्यक्ति ऐसा है कि न्याय का आदेश देता है और ख़ुद सीधे मार्ग पर है। बताओ क्या ये दोनों समान हैं?
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۢ بُيُوتِكُمۡ سَكَنٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّن جُلُودِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ بُيُوتٗا تَسۡتَخِفُّونَهَا يَوۡمَ ظَعۡنِكُمۡ وَيَوۡمَ إِقَامَتِكُمۡ وَمِنۡ أَصۡوَافِهَا وَأَوۡبَارِهَا وَأَشۡعَارِهَآ أَثَٰثٗا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ 79
(80) अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारे घरों को ठहरने की जगह बनाया। उसने जानवरों की खालों से तुम्हारे लिए ऐसे घर पैदा किए जिन्हें तुम यात्रा और ठहरने, दोनों हालतों में हलका पाते हो।24 उसने जानवरों के ऊन और बालों से तुम्हारे लिए पहनने और बरतने की बहुत-सी चीज़़ें पैदा कर दीं जो ज़िन्दगी की निश्चित अवधि तक तुम्हारे काम आती हैं।
24. अर्थात् चमड़े के ख़ेमे जिनका रिवाज अरब में बहुत है।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّمَّا خَلَقَ ظِلَٰلٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡجِبَالِ أَكۡنَٰنٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ سَرَٰبِيلَ تَقِيكُمُ ٱلۡحَرَّ وَسَرَٰبِيلَ تَقِيكُم بَأۡسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡلِمُونَ 80
(81) उसने अपनी पैदा की हुई बहुत-सी चीज़़ों से तुम्हारे लिए छायों का प्रबन्ध किया, पहाड़ों में तुम्हारे लिए पनाहगाहें बनाई, और तुम्हें ऐसे वस्त्र दिए जो तुम्हें गर्मी से बचाते हैं और कुछ दूसरे वस्त्र जो आपस के युद्ध में तुम्हारी रक्षा करते हैं। इस तरह वह तुमपर अपनी नेमतों (कृपादानों) को पूरा करता है शायद कि तुम आज्ञाकारी बनो।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا ثُمَّ لَا يُؤۡذَنُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ 83
(84) (इन्हें कुछ होश भी है कि उस दिन क्या बनेगी) जबकि हम हर उम्मत में से एक गवाह खड़ा करेंगे, फिर अधर्मियों को न तर्क प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाएगा25, न उनसे तौबा और माफ़ी ही की माँग की जाएगी।
25. यह अर्थ नहीं है कि उन्हें सफ़ाई पेश करने की इजाज़त नहीं दी जाएगी, बल्कि अर्थ यह है कि उनके अपराध ऐसी खुली हुई गवाहियों से जिनका इनकार सम्भव नहीं और न जिनका कोई और अभिप्राय हो सकता है सिद्ध कर दिए जाएँगे कि उनके लिए सफ़ाई पेश करने को कोई गुंजाइश न रहेगी।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ شُرَكَآءَهُمۡ قَالُواْ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ شُرَكَآؤُنَا ٱلَّذِينَ كُنَّا نَدۡعُواْ مِن دُونِكَۖ فَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلَ إِنَّكُمۡ لَكَٰذِبُونَ 85
(86) और जब वे लोग जिन्होंने दुनिया में साझी ठहराया था, अपने ठहराए हुए साझीदारों को देखेंगे तो कहेंगे, “ऐ पालनहार, यही हैं हमारे वे साझीदार जिन्हें हम तुझे छोड़कर पुकारा करते थे।” इसपर उनके वे इष्ट-पूज्य उन्हें साफ़ जवाब देंगे कि “तुम झूठे हो।”26
26. अर्थात् हमने कभी तुमसे यह नहीं कहा था कि तुम अल्लाह को छोड़कर हमें पुकारा करो, न हम तुम्हारी इस हरकत पर राज़ी थे, बल्कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमें पुकार रहे हो।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ فِي كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدًا عَلَيۡهِم مِّنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَجِئۡنَا بِكَ شَهِيدًا عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ تِبۡيَٰنٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ 88
(89) (ऐ नबी, इन्हें उस दिन से सावधान कर दो) जबकि हम हर उम्मत में ख़ुद उसी के अन्दर से एक गवाह उठा खड़ा करेंगे जो उसके मुक़ाबले में गवाही देगा, और इन लोगों के मुक़ाबले में गवाही देने के लिए हम तुम्हें लाएँगे। और (यह इसी गवाही की तैयारी है कि) हमने यह किताब तुमपर अवतरित कर दी है जो हर चीज़ को साफ-साफ स्पष्ट करनेवाली है और मार्गदर्शन एवं दयालुता और शुभ सूचना है उन लोगों के लिए जो आज्ञाकारी हो गए हैं।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّتِي نَقَضَتۡ غَزۡلَهَا مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٍ أَنكَٰثٗا تَتَّخِذُونَ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ أَن تَكُونَ أُمَّةٌ هِيَ أَرۡبَىٰ مِنۡ أُمَّةٍۚ إِنَّمَا يَبۡلُوكُمُ ٱللَّهُ بِهِۦۚ وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ 91
(92) तुम्हारी हालत उस औरत जैसी न हो जाए जिसने अपनी ही मेहनत से सूत काता और फिर ख़ुद ही उसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तुम अपनी क़समों को आपस के मामलों में छल-कपट का साधन बनाते हो, ताकि एक क़ौम दूसरी क़ौम से बढ़कर लाभ प्राप्त करे। हालाँकि बात यह है कि अल्लाह इस प्रतिज्ञा के द्वारा तुमको परीक्षा में डालता है, और ज़रूर वह क़ियामत के दिन तुम्हारे सभी विभेदों की वास्तविकता तुमपर स्पष्ट कर देगा।
وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ فَتَزِلَّ قَدَمُۢ بَعۡدَ ثُبُوتِهَا وَتَذُوقُواْ ٱلسُّوٓءَ بِمَا صَدَدتُّمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَكُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ 93
(94) (और ऐ मुसलमानो) तुम अपनी क़समों को आपस में एक-दूसरे को धोखा देने का साधन न बना लेना, कहीं ऐसा न हो कि कोई क़दम जमने के बाद उखड़ जाए और तुम इस अपराध के बदले में कि तुमने लोगों को अल्लाह के मार्ग से रोका, बुरा नतीजा देखो और सज़ा भुगतो।27
27. अर्थात् ऐसा न हो कि कोई व्यक्ति इस्लाम की सत्यता को स्वीकार करने के बाद सिर्फ़ तुम्हारे दुराचार को देखकर इस धर्म से फिर जाए और इस कारण वह ईमानवालों के गिरोह में शामिल होने से रुक जाए कि इस गिरोह के जिन लोगों से उसका मामला पड़ा हो उनको आचार और व्यवहार में उसने अधर्मियों से कुछ भी भिन्न न पाया हो।
فَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ 97
(98) फिर जब तुम क़ुरआन पढ़ने लगो तो फिटकारे हुए शैतान से अल्लाह की पनाह माँग लिया करो।28
28. इसका अर्थ सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि मुख से 'अऊज़ु बिल्लाहि मिनश-शैतानिर-रजीम' (मैं फिटकारे हुए शैतान से अल्लाह को पनाह माँगता हूँ) कहा जाए बल्कि इसके साथ वास्तव में दिल की गहराई के साथ अल्लाह से यह दुआ भी करनी चाहिए कि क़ुरआन पढ़ते समय वह शैतान के पथभ्रष्ट करनेवाले वसवसों से उसको सुरक्षित रखे, क्योंकि जिसे यहाँ से सीधा मार्ग न मिला उसे फिर कहीं से मार्ग न मिल सकेगा, और जो इस किताब से पथभ्रष्टता ग्रहण कर बैठा उसे फिर दुनिया को कोई चीज़ गुमराहियों के चक्कर से न निकाल सकेगी।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ هَاجَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا فُتِنُواْ ثُمَّ جَٰهَدُواْ وَصَبَرُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ 100
(110) इसके विपरीत जिन लोगों का हाल यह है कि जब (ईमान लाने के कारण) वे सताए गए तो उन्होंने घर-बार छोड़ दिए, हिजरत की, अल्लाह के मार्ग में कठिनाइयाँ झेलीं और सब्र से काम लिया, उनके लिए यक़ीनन तेरा रब बड़ा ही माफ़ करनेवाला और दयावान है।
وَلَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡهُمۡ فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ 103
(113) उनके पास उनकी अपनी क़ौम में से एक रसूल आया। मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। आख़िरकार अज़ाब ने उनको आ लिया जबकि वे ज़ालिम हो चुके थे।33
33. हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का कहना है कि यहाँ ख़ुद मक्का को नाम लिए बिना मिसाल के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। इस व्याख्या के अनुसार डर और भूख में जिस मुसीबत के छा जाने का यहाँ उल्लेख किया गया है उससे मुराद वह अकाल है जो नबी (सल्ल०) के नबी होने के बाद एक समय तक मक्कावालों पर छाया रहा।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 105
(115) अल्लाह ने जो कुछ तुम्हारे लिए हराम (अवैध) किया है वह है मुरदार और ख़ून और सुअर का गोश्त और वह जानवर जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। हाँ, भूख से मज़बूर और विकल होकर अगर कोई इन चीज़़ों को खा ले, बिना इसके कि वह ईश्वरीय नियम के उल्लंघन का इच्छुक हो या आवश्यकता की सीमा से आगे बढ़े, तो यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान है।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَا تَصِفُ أَلۡسِنَتُكُمُ ٱلۡكَذِبَ هَٰذَا حَلَٰلٞ وَهَٰذَا حَرَامٞ لِّتَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ 106
(116) और यह जो तुम्हारी ज़बानें झूठे आदेश आरोपित किया करती हैं कि वह चीज़ हलाल है और वह हराम34, तो इस तरह के आदेश आरोपित करके अल्लाह पर झूठ न बाँधो जो लोग अल्लाह पर झूठ आरोपित करते हैं, वे हरगिज़ सफलता को प्राप्त नहीं हुआ करते।
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 107
(117) दुनिया का सुख थोड़े दिनों का है। आख़िरकार उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
34. यह आयत साफ़ स्पष्ट करती है कि अल्लाह के सिवा हलाल (वैध) और हराम (अवैध) ठहराने का अधिकार किसी को भी नहीं है। दूसरा जो व्यक्ति भी वैध और अवैध का निर्णय करने का दुस्साहस करेगा वह अपनी सीमा से आगे बढ़ेगा, यह और बात है कि यह अल्लाह के क़ानून को प्रमाण मानकर उसके आदेशों से निष्कर्षण द्वारा यह कहे कि अमुक चीज़़ या अमुक कर्म वैध है और अमुक अवैध। स्वतंत्र होकर वैध और अवैध घोषित करने को अल्लाह पर झूठ और असत्यापरोण इसलिए कहा गया कि जो व्यक्ति इस तरह के आदेश आरोपित करता है उसका यह कर्म दो हाल से ख़ाली नहीं हो सकता। या वह इस बात का दावा करता है कि जिसे वह ईश्वरीय ग्रन्थ के प्रमाण से बेपरवाह होकर वैध और अवैध कर रहा है उसे अल्लाह ने वैध या अवैध ठहराया है, या उसका यह दावा है कि अल्लाह ने वैध और अवैध के निर्धारण से अपने को अलग करके इनसान को ख़ुद अपनी इच्छा का क़ानून बना लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है। इनमें से जो दावा भी वह करे, वह अनिवार्यतः झूठ और अल्लाह पर असत्य बात का आरोपण है।
ٱدۡعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِٱلۡحِكۡمَةِ وَٱلۡمَوۡعِظَةِ ٱلۡحَسَنَةِۖ وَجَٰدِلۡهُم بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ 115
(125) ऐ नबी, अपने रब के मार्ग की ओर बुलाओ तत्त्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ, और उन लोगों से विवाद करो ऐसे ढंग से जो उत्तम हो। तुम्हारा रब ही ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसके मार्ग से भटका हुआ है और कौन सीधे मार्ग पर है।
أَتَىٰٓ أَمۡرُ ٱللَّهِ فَلَا تَسۡتَعۡجِلُوهُۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ
(1) आ गया अल्लाह का फ़ैसला1, अब उसके लिए जल्दी न मचाओ। पाक है वह और उच्चतर है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।
1. अर्थात् उसके प्रकट और लागू होने का समय निकट आ गया है। संभवतः इस फ़ैसले से मुराद नबी (सल्ल०) की मक्का से हिजरत (वतन त्यागना) है जिसका आदेश थोड़े समय के बाद ही दे दिया गया। क़ुरआन के अध्ययन से मालूम होता है कि नबी जिन लोगों के बीच भेजा जाता है, वे जब इनकार की आख़िरी हद तक पहुँच जाते हैं तो नबी को 'हिजरत' (वतन त्यागने) का आदेश दे दिया जाता है और यह आदेश उनके भाग्य का फ़ैसला कर देता है। इसके बाद या तो उनपर सर्वनाश कर देनेवाला अज़ाब आ जाता है, या फिर नबी और उसके अनुयायियों के हाथों उनकी जड़ काटकर रख दी जाती है।
قُلۡ نَزَّلَهُۥ رُوحُ ٱلۡقُدُسِ مِن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّ لِيُثَبِّتَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ 122
(102) उनसे कहो कि उसे तो पवित्र आत्मा (रूहुल-क़ुद्स) ने ठीक-ठीक मेरे रब की ओर से क्रमशः उतारा है29 ताकि ईमान लानेवालों के ईमान को सुदृढ़ता प्रदान करे और आज्ञाकारी लोगों को ज़िन्दगी के मामलों में सीधी राह बताए। और उन्हें सफलता और सौभाग्य की ख़ुशख़बरी दे।
29. यहाँ 'रूहुल-क़ुद्स' शब्द इस्तेमाल हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है “पवित्र आत्मा” या “पवित्रता की आत्मा” और पारिभाषिक रूप से यह उपाधि हज़रत जिबरील (अलैहि०) को दी गई है। यहाँ 'वह्य' (प्रकाशना) लानेवाले फ़रिश्ते का नाम लेने के बदले उसकी उपाधि इस्तेमाल करने का उद्देश्य श्रोताओं को इस सच्चाई के प्रति सावधान करना है कि इस वाणी को एक ऐसी आत्मा लेकर आ रही है जो मानवीय दुर्बलताओं और दोषों से मुक्त है और बिलकुल अमानतदारी के साथ अल्लाह की वाणी पहुँचाती है।
إِنَّمَا يَفۡتَرِي ٱلۡكَذِبَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ 125
(105) (झूठी बातें नबी नहीं गढ़ता बल्कि) झूठ वे लोग गढ़ रहे हैं जो अल्लाह की आयतों को नहीं मानते,30 वही वास्तव में झूठे हैं।
30. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “झूठ तो वे लोग गढ़ा करते हैं जो अल्लाह की आयतों पर ईमान नहीं लाते।"
مَن كَفَرَ بِٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِهِۦٓ إِلَّا مَنۡ أُكۡرِهَ وَقَلۡبُهُۥ مُطۡمَئِنُّۢ بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَٰكِن مَّن شَرَحَ بِٱلۡكُفۡرِ صَدۡرٗا فَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ 126
(106) जो व्यक्ति ईमान लाने के बाद इनकार करे (वह अगर) मज़बूर किया गया हो और दिल उसका ईमान पर सन्तुष्ट हो (तब तो ठीक है) मगर जिसने दिल की रज़ामन्दी से कुफ़्र (अधर्म) को स्वीकार कर लिया उसपर अल्लाह का ग़ज़ब है और ऐस सब लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।31
31. यह आयत उन मुसलमानों के बारे में है जिनपर उस समय भारी अत्याचार किए जा रहे थे और असहनीय दुख दे-देकर इनकार और कुफ़्र (अधर्म) पर उन्हें बाध्य किया जा रहा था। उनको बताया गया है कि अगर तुम किसी समय ज़ुल्म से मज़बूर होकर सिर्फ़ जान बचाने के लिए इनकार और धर्मविरुद्ध शब्द मुख से कह दो, और दिल तुम्हारा धर्मविरुद्ध धारणा से सुरक्षित हो, तो माफ़ कर दिया जाएगा, लेकिन अगर दिल से तुमने कुछ को स्वीकार कर लिया तो दुनिया में भले ही जान बचा लो, अल्लाह के अज़ाब से न बच सकोगे।