17. बनी-इसराईल
(मक्का में उतरी-आयतें 111)
परिचय
नाम
इस सूरा की आयत 4 के वाक्य “व क़ज़ैना इला बनी इसराई-ल फ़िल-किताब” से लिया गया है। यह नाम भी अधिकतर क़ुरआनी सूरतों की तरह केवल निशानी के रूप में रखा गया है।
उतरने का समय
पहली ही आयत इस बात की निशानदेही कर देती है कि यह सूरा मेराज के मौक़े पर अर्थात् मक्की दौर के अन्तिम काल में उतरी थी। मेराज की घटना हदीस और सीरत (नबी सल्ल० को जीवन-चर्या) की अधिकतर रिवायतों के अनुसार हिजरत से एक साल पहले घटित हुई थी।
पृष्ठभूमि
उस समय नबी (सल्ल०) को तौहीद (एकेश्वरवाद) की आवाज़ बुलन्द करते हुए 12 साल बीत चुके थे। विरोधियों की डाली तमाम रुकावटों के बावजूद आपकी आवाज़ अरब के कोने-कोने में पहुँच गई थी। अब वह समय क़रीब आ गया था जब आप (सल्ल०) को मक्का से मदीना की ओर चले जाने और बिखरे मुसलमानों को समेटकर इस्लामी सिद्धातों पर एक राज्य स्थापित कर देने का अवसर मिलनेवाला था - इन हालात में मेराज पेश आई और वापसी पर यह सन्देश नबी (सल्ल०) ने दुनिया को सुनाया।
विषय और वार्ताएँ
इस सूरा में चेतावनी, समझाना-बुझाना और शिक्षा, तीनों को एक संतुलित शैली में इकट्ठा कर दिया गया है।
चेतावनी मक्का के विधर्मियों को दी गई है कि बनी-इसराईल और दूसरी कौमों के अंजाम से सबक़ लो और इस दावत को स्वीकार कर लो, वरना मिटा दिए जाओगे। साथ ही बनी-इसराईल को भी जिन्हें हिजरत के बाद बहुत जल्द वह्य द्वारा सम्बोधित किया जानेवाला था, यह चेतावनी दी गई है कि पहले जो सज़ाएँ तुम्हें मिल चुकी हैं उनसे शिक्षा लो और अब जो अवसर मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने से तुम्हें मिल रहा है उससे फ़ायदा उठाओ। यह अन्तिम अवसर भी अगर तुमने खो दिया तो दर्दनाक अंजाम से दो-चार होगे।
समझाने-बुझाने के अंदाज़ में बड़े दिलनशीं तरीक़े से बताया गया है कि इंसान के सौभाग्य एवं दुर्भाग्य और सफलता एवं विफलता की निर्भरता वास्तव में किन चीज़ों पर है। तौहीद, आख़िरत, नुबूवत और क़ुरआन के सत्य पर होने के प्रमाण दिए गए हैं, उन सन्देहों को दूर किया गया है जो इन बुनियादी सच्चाइयों के बारे में मक्का के इस्लाम-विरोधियों की ओर से पेश किए जाते थे।
शिक्षा के पहलू में नैतिकता एवं सभ्यता के वे बड़े-बड़े उसूल बयान किए गए हैं जिनपर जीवन की व्यवस्था को स्थापित करना हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की दावत (अह्वान) के समक्ष था। यह मानो इस्लामी घोषणा-पत्र था जो इस्लामी राज्य की स्थापना से एक साल पहले अरबवालों के सामने प्रस्तुत किया गया था।
इन सब बातों के साथ नबी (सल्ल०) को निरदेश दिया गया है कि कठिनाइयों के इस तूफ़ान में दृढ़ता के साथ अपनी नीति पर जमे रहें और कुफ़्र (अथर्म) के साथ समझौते का ख़याल तक न लाएँ। साथ ही मुसलमानों को बताया गया है कि पूरे धैर्य और शान्ति के साथ परिस्थितियों का मुक़ाबला करते रहें और प्रचार तथा सुधार के काम में अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखें। इस सिलसिले में आत्म-सुधार और उसे शुद्ध बनाने के लिए उनको नमाज़ का नुस्ख़ा बताया गया है। रिवायतों से मालूम होता है कि यह पहला मौक़ा है जब पाँच वक़्त की नमाज़ समय की पाबंदी के साथ मुसलमानों पर फ़र्ज़ की गई।
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سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِيٓ أَسۡرَىٰ بِعَبۡدِهِۦ لَيۡلٗا مِّنَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ إِلَى ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡأَقۡصَا ٱلَّذِي بَٰرَكۡنَا حَوۡلَهُۥ لِنُرِيَهُۥ مِنۡ ءَايَٰتِنَآۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ
(1) पाक है वह जो ले गया एक रात अपने बन्दे को प्रतिष्ठित मसजिद (मसजिदे-हराम) से दूर को उस मसजिद तक जिसके माहौल को उसने बरकत दी है ताकि उसे अपनी कुछ निशानियाँ दिखाएँ1, वास्तव में वही है सब कुछ सुनने और देखनेवाला।
1. यह घटना वही है जो पारिभाषिक रूप से ‘मेराज’ के नाम से सुप्रसिद्ध है। ज़्यादातर और विश्वसनीय उल्लेखों के अनुसार यह घटना हिजरत से एक वर्ष पहले घटित हुई। हदीस और सीरत की किताबों में इस घटना का विवरण बहुत-से ‘सहाबियों’ के द्वारा उल्लिखित है जिनकी संख्या 25 तक पहुँचती है। क़ुरआन मजीद सिर्फ़ प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) से मसजिदे अक़्सा (अर्थात् बैतुल-मक़दिस) तक नबी (सल्ल०) के जाने को स्पष्ट करता है और हदीसों में बैतुल-मक़दिस से ऊपरी लोक की अत्यन्त उच्चता पर पहुँचकर अल्लाह की सेवा में आपके उपस्थित होने का सविस्तार उल्लेख किया गया है। इस यात्रा की कैफ़ियत क्या थी? यह स्वप्न में घटित हुआ था या जाग्रत अवस्था में? और क्या ऐसा है कि नबी (सल्ल०) ख़ुद गए थे या अपने स्थान पर बैठे-बैठे सिर्फ़ रूहानी तौर पर ही आपको यह साक्षात्कार करा दिया गया? इन सवालों का जवाब क़ुरआन मजीद के शब्द ख़ुद दे रहे हैं। “पाक है वह जो ले गया” से बयान का आरंभ करना ख़ुद बता रहा है। कि यह कोई बहुत असाधारण घटना थी जो अल्लाह की असाधारण शक्ति एवं सामर्थ्य से घटित हुई। विदित है कि स्वप्न में किसी व्यक्ति का इस तरह की चीज़़ें देख लेना, या आत्मप्रकाश (कश्फ़) के द्वारा देखना यह महत्त्व नहीं रखता कि उसे बयान करने के लिए इस भूमिका की ज़रूरत हो कि तमाम दुर्बलताओं और दोषों से मुक्त है वह सत्ता जिसने अपने बन्दे को यह स्वप्न दिखाया या आत्मप्रकाश (कश्फ़) में यह कुछ दिखाया। फिर ये शब्द भी कि “एक रात अपने बन्दे को ले गया” शारीरिक यात्रा के स्पष्ट सूचक हैं। स्वप्न यात्रा या आत्मप्रकाश से सम्बन्धित यात्रा के लिए ये शब्द किसी तरह उपयुक्त नहीं हो सकते। अतः हमारे लिए यह माने बिना चारा नहीं कि यह सिर्फ़ एक आत्मिक अनुभव न था बल्कि एक शारीरिक यात्रा और आँख का प्रत्यक्ष निरीक्षण था जो अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को कराया।
وَءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَلَّا تَتَّخِذُواْ مِن دُونِي وَكِيلٗا 1
(2) हमने इससे पहले मूसा को किताब दी थी और उसे बनी-इसराईल के लिए मार्गदर्शन का साधन बनाया था इस ताकीद के साथ कि मेरे सिवा किसी को अपना कार्यसाधक न बनाना।2
2. अर्थात् विश्वास और भरोसे का अवलंब, जिसपर भरोसा किया जाए, जिसे अपने मामलों को सौंप दिया जाए. जिसकी ओर मार्गदर्शन और सहायता के लिए रुजू किया जाए।
وَقَضَيۡنَآ إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَتُفۡسِدُنَّ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَّتَيۡنِ وَلَتَعۡلُنَّ عُلُوّٗا كَبِيرٗا 3
(4) फिर हमने अपनी किताब3 में बनी-इसराईल को इस बात से भी सावधान कर दिया था कि तुम दो बार ज़मीन में बड़ा उपद्रव मचाओगे और बड़ी सरकशी दिखाओगे।
3. किताब से मुराद यहाँ तौरात नहीं है, बल्कि आसमानी किताबों का संग्रह है जिसके लिए क़ुरआन में पारिभाषिक रूप से 'अल-किताब' शब्द कई स्थान पर इस्तेमाल हुआ है।
فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ أُولَىٰهُمَا بَعَثۡنَا عَلَيۡكُمۡ عِبَادٗا لَّنَآ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ فَجَاسُواْ خِلَٰلَ ٱلدِّيَارِۚ وَكَانَ وَعۡدٗا مَّفۡعُولٗا 4
(5) आख़िरकार जब उनमें से पहली सरकशी का अवसर आया तो ऐ बनी-इसराईल! हमने तुम्हारे मुक़ाबले पर अपने ऐसे बन्दे उठाए जो बड़े ही शक्तिशाली थे और वे तुम्हारे देश में घुसकर हर ओर फैल गए।4 यह एक वादा था जिसे पूरा होकर ही रहना था।
4. इससे मुराद वह भयंकर तबाही है जो आशूरियों और बाबिलवालों के हाथों इसराईलियों पर उतरी।
إِنۡ أَحۡسَنتُمۡ أَحۡسَنتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡۖ وَإِنۡ أَسَأۡتُمۡ فَلَهَاۚ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ لِيَسُـُٔواْ وُجُوهَكُمۡ وَلِيَدۡخُلُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ كَمَا دَخَلُوهُ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَلِيُتَبِّرُواْ مَا عَلَوۡاْ تَتۡبِيرًا 6
(7) देखो! तुमने भलाई की तो वह तुम्हारे अपने ही लिए भलाई थी, और बुराई की तो वह तुम्हारे अपने ही लिए बुराई सिद्ध हुई। फिर जब दूसरे वादे का समय आया तो हमने दूसरे दुश्मनों को तुमपर आच्छादित (मुसल्लत) किया ताकि वे तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दें और मसजिद (बैतुल-मक़दिस) में उसी तरह घुस जाएँ जिस तरह पहले दुश्मन घुसे थे और जिस चीज़ पर उनका हाथ पड़े उसे तबाह करके रख दें।5
5. इससे मुराद रूमी लोग हैं जिन्होंने बैतुल-मक़दिस को बिलकुल तबाह कर दिया, इसराईलियों को मार-मारकर फ़िलस्तीन से निकाल दिया और उसके बाद आज दो हज़ार वर्ष से वे दुनिया भर में तितर-बितर हैं।
وَيَدۡعُ ٱلۡإِنسَٰنُ بِٱلشَّرِّ دُعَآءَهُۥ بِٱلۡخَيۡرِۖ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ عَجُولٗا 10
(11) इनसान बुराई उस तरह माँगता है जिस तरह भलाई माँगनी चाहिए। इनसान बड़ा ही उतावला है।6
6. यह जवाब है मक्का के अधर्मियों की उन मूर्खतापूर्ण बातों का जो वे बार-बार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि बस ले आओ वह अज़ाब जिससे तुम हमें डराया करते हो। ऊपर के बयान के बाद तुरन्त यह कथन कहने का उद्देश्य इस बात की चेतावनी देनी है कि मूर्खो, भलाई माँगने के बदले अज़ाब माँगते हो? तुम्हें कुछ अनुमान भी है कि अल्लाह का अज़ाब जब किसी क़ौम पर आता है तो उसकी क्या गति बनती है? इसके साथ इस वाक्य में एक सूक्ष्म चेतावनी मुसलमानों के लिए भी थी जो अधर्मियों के ज़ुल्म व सितम और उनकी हठधर्मियों से तंग आकर कभी-कभी उनके लिए अज़ाब की दुआ करने लगते थे, हालाँकि अभी उन्हीं अधर्मियों में बहुत-से वे लोग मौजूद थे जो आगे चलकर ईमान लानेवाले और दुनिया भर में इस्लाम का झण्डा ऊँचा करनेवाले थे। इसपर अल्लाह कहता है कि इनसान बड़ा ही जल्दबाज़ सिद्ध हुआ है, हर वह चीज़ माँग बैठता है जिसकी तत्काल ज़रूरत जान पड़ती है, हालाँकि आगे चलकर उसे ख़ुद अनुभव से मालूम हो जाता है। कि अगर उस समय उसकी दुआ सुन ली जाती तो वह उसके लिए भलाई न होती।
وَجَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ ءَايَتَيۡنِۖ فَمَحَوۡنَآ ءَايَةَ ٱلَّيۡلِ وَجَعَلۡنَآ ءَايَةَ ٱلنَّهَارِ مُبۡصِرَةٗ لِّتَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡ وَلِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ وَكُلَّ شَيۡءٖ فَصَّلۡنَٰهُ تَفۡصِيلٗا 11
(12) देखो, हमने रात और दिन को दो निशानियाँ बनाया है। रात की निशानी को हमने प्रकाशहीन बनाया और दिन की निशानी को प्रकाशयुक्त कर दिया ताकि तुम अपने रब का अनुग्रह (रोज़ी) खोज सको और महीने और वर्ष का हिसाब मालूम कर सको। इसी तरह हमने हर चीज़़ को अलग-अलग स्पष्ट करके रखा है।
وَكُلَّ إِنسَٰنٍ أَلۡزَمۡنَٰهُ طَٰٓئِرَهُۥ فِي عُنُقِهِۦۖ وَنُخۡرِجُ لَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ كِتَٰبٗا يَلۡقَىٰهُ مَنشُورًا 12
(13) हर इनसान का शकुन हमने उसके अपने गले में लटका रखा है,7 और क़ियामत के दिन हम एक लेख्य उसके लिए निकालेंगे जिसे वह खुली किताब की तरह पाएगा।
7. अर्थात् हर इनसान के सौभाग्य और दुर्भाग्य और उसके परिणाम की भलाई और बुराई के कारण व साधन ख़ुद उसके अपने अस्तित्व ही में मौजूद हैं।
مَّنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۗ وَمَا كُنَّا مُعَذِّبِينَ حَتَّىٰ نَبۡعَثَ رَسُولٗا 14
(15) जो कोई सीधा मार्ग अपनाए उसका सीधे मार्ग को अपनाना उसके अपने ही लिए लाभकारी है, और जो पथभ्रष्ट हो उसकी पथभ्रष्टता का वबाल उसी पर है। कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ न उठाएगा।8 और हम अज़ाब देनेवाले नहीं है जब तक कि (लोगों को सत्य और असत्य का अन्तर समझाने के लिए एक सन्देशवाहक न भेज दें।
8. अर्थात् हर इनसान का स्थायी रूप से एक नैतिक दायित्व है और व्यक्तिगत रूप से वह अल्लाह के सामने उत्तरदायी है। इस व्यक्तिगत दायित्व में कोई दूसरा व्यक्ति उसके साथ शरीक नहीं है।
وَإِذَآ أَرَدۡنَآ أَن نُّهۡلِكَ قَرۡيَةً أَمَرۡنَا مُتۡرَفِيهَا فَفَسَقُواْ فِيهَا فَحَقَّ عَلَيۡهَا ٱلۡقَوۡلُ فَدَمَّرۡنَٰهَا تَدۡمِيرٗا 15
(16) जब हम किसी बस्ती को विनष्ट करने का इरादा करते हैं तो उसके सम्पन्न लोगों को आदेश देते है और वे उसमें नाफ़रमानियाँ करने लगते है, तब अज्ञान का फ़ैसला उस बस्ती पर चस्पाँ हो जाता है और हम उसे तबाह करके रख देते हैं।9
9. जिस वास्तविकता के विषय में इस आयत में सावधान किया गया है वह यह है कि एक समाज को आख़िरकार जो चीज़़ तबाह करती है वह उसके खाते-पीते, सम्पन्न लोगों और उच्च वर्ग के लोगों का बिगाड़ है। जब किसी क़ौम की शामत आने को होती है तो उसके धनवान और सत्ताधारी लोग अवज्ञा और दुस्साहस पर उत्तर आते हैं, अत्याचार और दुष्कर्म और शरारतें करने लगते हैं, और अन्त में यही उपद्रव पूरी क़ौम को ले डूबता है। अतः जो समाज आप अपना दुश्मन न हो उसे चिन्ता होनी चाहिए कि उसके यहाँ सत्ता की बागडोर और आर्थिक धन की कुंजियाँ अनुदार और दुराचारी लोगों के हाथों में न जाने पाएँ।
وَمَنۡ أَرَادَ ٱلۡأٓخِرَةَ وَسَعَىٰ لَهَا سَعۡيَهَا وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ كَانَ سَعۡيُهُم مَّشۡكُورٗا 18
(19) और जो आख़िरत का इच्छुक हो और उसके लिए प्रयास करे जैसा कि उसके लिए प्रयास करना चाहिए और हो वह ईमानवाला, तो ऐसे हर व्यक्ति के प्रयास की क़द्र की जाएगी।10
10. अर्थात् उसके कामों की क़द्र की जाएगी और जितनी और जैसी कोशिश भी उसने आख़िरत की कामयाबी के लिए की होगी उसका फल वह ज़रूर पाएगा।
كُلّٗا نُّمِدُّ هَٰٓؤُلَآءِ وَهَٰٓؤُلَآءِ مِنۡ عَطَآءِ رَبِّكَۚ وَمَا كَانَ عَطَآءُ رَبِّكَ مَحۡظُورًا 19
(20) इनको भी और उनको भी, दोनों पक्षवालों को हम (दुनिया में) जीने का सामान दिए जा रहे है, यह तेरे रब का प्रदान है, और तेरे रब के प्रदान को रोकनेवाला कोई नहीं है,
ٱنظُرۡ كَيۡفَ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ وَلَلۡأٓخِرَةُ أَكۡبَرُ دَرَجَٰتٖ وَأَكۡبَرُ تَفۡضِيلٗا 20
(21) मगर देख लो, दुनिया ही में हमने एक गिरोह को दूसरे के मुक़ाबले में कैसा आगे रखा है,11 और आख़िरत में उसके दर्जे और भी अधिक होंगे और उसकी प्रतिष्ठा और भी ज़्यादा बढ़-चढ़कर होगी।
11. अर्थात् दुनिया ही में यह स्पष्ट अन्तर दीख पड़ता है कि आख़िरत के इच्छुक दुनिया के पुजारियों को अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। यह श्रेष्ठता इस पहलू से नहीं है कि उनके भोजन और वस्त्र और मकान और सवारियाँ और सभ्यता एवं संस्कृति के ठाठ उनसे कुछ बढ़कर हैं। बल्कि इस पहलू से है कि ये जो कुछ भी पाते हैं सत्यता, दियानतदारी और अमानतदारी के साथ पाते हैं, और वे जो कुछ पा रहे है ज़ुल्म से, बेईमानियों से, और तरह-तरह की हरामख़ोरियों से पा रहे हैं। फिर इनको जो कुछ मिलता है वह सन्तुलित रूप से ख़र्च होता है, उसमें से हक़दारों के हक़ अदा होते हैं, उसमें से माँगनेवालों और निर्धन लोगों का हिस्सा भी निकलता है और उसमें से अल्लाह की प्रसन्नता के लिए दूसरे भले कामों पर भी माल ख़र्च किया जाता है। इसके विपरीत दुनिया के पुजारियों को जो कुछ मिलता है वह ज़्यादातर भोग-विलास और अवैध कार्यों और तरह-तरह के बिगाड़ पैदा करनेवाले और उपद्रवजनक कामों में पानी की तरह बहाया जाता है। इसी तरह हर हैसियत से आख़िरत के इच्छुक की ज़िन्दगी दुनिया के पुजारी की ज़िन्दगी से श्रेष्ठ होती है।
۞وَقَضَىٰ رَبُّكَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنًاۚ إِمَّا يَبۡلُغَنَّ عِندَكَ ٱلۡكِبَرَ أَحَدُهُمَآ أَوۡ كِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَآ أُفّٖ وَلَا تَنۡهَرۡهُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوۡلٗا كَرِيمٗا 22
(23) तेरे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि तुम लोग किसी की बन्दगी न करो, मगर सिर्फ़ उसकी। माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, अगर तुम्हारे पास उनमें से कोई एक या दोनों बूढ़े होकर रहें तो उन्हें उफ़ (धिक) तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि उनसे आदर के साथ बात करो,
وَإِمَّا تُعۡرِضَنَّ عَنۡهُمُ ٱبۡتِغَآءَ رَحۡمَةٖ مِّن رَّبِّكَ تَرۡجُوهَا فَقُل لَّهُمۡ قَوۡلٗا مَّيۡسُورٗا 27
(28) अगर उनसे (अर्थात् मुहताज नातेदारों, ग़रीबों और मुसाफ़िरों से) तुम्हें कतराना हो, इस कारण कि अभी तुम अल्लाह की उस दयालुता को जिसके तुम उम्मीदवार हो, तलाश कर रहे हो, तो उन्हें नर्म जवाब दे दो।
وَلَا تَجۡعَلۡ يَدَكَ مَغۡلُولَةً إِلَىٰ عُنُقِكَ وَلَا تَبۡسُطۡهَا كُلَّ ٱلۡبَسۡطِ فَتَقۡعُدَ مَلُومٗا مَّحۡسُورًا 28
(29) न तो अपना हाथ गरदन से बाँध रखो और न उसे बिलकुल ही खुला छोड़ दो कि निन्दित और बेबस बनकर रह जाओ।12
12. हाथ बाँधना बोला जाता है कंजूसी के लिए, और उसे खुला छोड़ देने से मुराद है अपव्यय और फ़ुज़ूलख़र्ची।
وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَمَن قُتِلَ مَظۡلُومٗا فَقَدۡ جَعَلۡنَا لِوَلِيِّهِۦ سُلۡطَٰنٗا فَلَا يُسۡرِف فِّي ٱلۡقَتۡلِۖ إِنَّهُۥ كَانَ مَنصُورٗا 32
(33) किसी जान को न मारो जिसे अल्लाह ने हराम किया है सिवाय इसके कि हक़ और इनसाफ़ को यही अपेक्षित हो। और जिसका क़त्ल ज़ुल्म के साथ किया गया हो उसके वली को हमने क़िसास की माँग का हक़ दिया है,13 अतः चाहिए कि वह क़त्ल में सीमा से आगे न बढ़े14 उसकी सहायता की जाएगी।15
13. मूल शब्द है “उसके वली को हमने सुलतान प्रदान किया है।” सुलतान से मुराद यहाँ 'तर्क और प्रमाण' है जिसके आधार पर वह हत्या-दण्ड (क़िसास) की माँग कर सकता है।
14. क़त्ल करने में सीमा से आगे बढ़ने के कई रूप हो सकते हैं और वे सब वर्जित है, उदाहरणार्थ प्रतिशोध के आवेश में अपराधी के अतिरिक्त दूसरों को क़त्ल करना, या अपराधी को अज़ाब दे-देकर मारना, या मार देने के बाद उसकी लाश पर ग़ुस्सा निकालना या ख़ून के बदले अर्थदण्ड लेने के बाद फिर उसे क़त्ल करना आदि।
15. चूँकि उस समय तक इस्लामी राज्य की स्थापना न हुई थी इसलिए इस बात को नहीं खोला गया कि उसकी सहायता कौन करेगा। हिजरत के बाद जब इस्लामी राज्य स्थापित हो गया तो यह निश्चित कर दिया गया कि उसको सहायता करना उसके क़बीले या उसके मित्रों का काम नहीं बल्कि इस्लामी हुकूमत और उसकी न्यायपालिका का काम है। कोई व्यक्ति या गिरोह ख़ुद ही क़त्ल का बदला लेने का अधिकारी नहीं है, बल्कि यह पद इस्लामी हुकूमत का है कि न्याय प्राप्त करने के लिए उससे सहायता माँगी जाए।
وَلَا تَقۡفُ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۚ إِنَّ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡبَصَرَ وَٱلۡفُؤَادَ كُلُّ أُوْلَٰٓئِكَ كَانَ عَنۡهُ مَسۡـُٔولٗا 35
(36) किसी ऐसी चीज़़ के पीछे न लगो जिसका तुम्हें ज्ञान न हो।16 यक़ीनन आँख, कान और दिल सब ही के विषय में पूछा जाएगा।
16. इस कथन का उद्देश्य यह है कि लोग अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक ज़िन्दगी में भ्रम और अटकल के बदले “ज्ञान” का अनुसरण करें।
ذَٰلِكَ مِمَّآ أَوۡحَىٰٓ إِلَيۡكَ رَبُّكَ مِنَ ٱلۡحِكۡمَةِۗ وَلَا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتُلۡقَىٰ فِي جَهَنَّمَ مَلُومٗا مَّدۡحُورًا 38
(39) ये वे तत्तदर्शिता की बातें हैं जिनकी तेरे रब ने तुझपर वह्य की है। और देख! अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य न बना बैठ, नहीं तो तू जहन्नम में डाल दिया जाएगा निन्दित और हर भलाई से वंचित होकर18
18. इस आदेश का संबोधन हर इनसान से है। अर्थ यह है कि ऐ इनसान! तू यह काम न कर।
تُسَبِّحُ لَهُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ ٱلسَّبۡعُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا يُسَبِّحُ بِحَمۡدِهِۦ وَلَٰكِن لَّا تَفۡقَهُونَ تَسۡبِيحَهُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حَلِيمًا غَفُورٗا 43
(44) उसकी पाकी तो सातों आसमान और ज़मीन और वे सारी चीज़़ें बयान कर रही हैं जो आसमान और ज़मीन में हैं।19 कोई चीज़ ऐसी नहीं जो उसकी प्रशंसा के साथ उसकी तसबीह (पाकी बयान) न कर रही हो, मगर तुम उनकी तसबीह समझते नहीं हो। वास्तविकता यह है कि वह बड़ा ही सहनशील और माफ़ करनेवाला है।
19. अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड और उसकी प्रत्येक वस्तु अपने पूरे अस्तित्व से इस सत्य की गवाही दे रही है कि जिसने उसको पैदा किया है और जो उसका पालनकर्ता और निगहबान है। उसकी हस्ती प्रत्येक दोष और कमी और दुर्बलता से मुक्त है और वह इससे बिलकुल पाक है कि ईश्वरत्व में कोई उसका साझी और समकक्ष हो।
وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِذَا ذَكَرۡتَ رَبَّكَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِ وَحۡدَهُۥ وَلَّوۡاْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِمۡ نُفُورٗا 45
(46) और उनके दिलों पर ऐसा ख़ोल चढ़ा देते हैं कि वे कुछ नहीं समझते, और उनके कानों में बोझ पैदा कर देते हैं।20 और जब तुम क़ुरआन में अपने एक ही रब की चर्चा करते हो तो वे नफ़रत से मुँह मोड़ लेते हैं।21
20. अर्थात् आख़िरत पर ईमान न लाने का यह स्वाभाविक परिणाम है कि आदमी के दिल पर ताले लग जाएँ और उसके कान उस आमंत्रण के लिए बन्द हो जाएँ जो क़ुरआन पेश करता है। क़ुरआन का तो आमंत्रण ही इस आधार पर है कि दुनिया की ज़िन्दगी के बाह्य पक्ष से धोखा न खाओ। सत्य और असत्य के निर्णय इस दुनिया में नहीं बल्कि आख़िरत में होंगे। नेकी वह है जिसका अच्छा परिणाम आख़िरत में सामने आएगा भले हो दुनिया में उसके कारण इनसान को कितनी हो तकलीफ़ें पहुँचे और बुराई वह है जिसका परिणाम आख़िरत में अनिवार्यतः बुरा निकलेगा, चाहे दुनिया में वह कितनी ही स्वादिष्ट और लाभकारी हो। अब जो व्यक्ति परलोक हो को नहीं मानता वह क़ुरआन के इस आमंत्रण और सन्देश पर कैसे ध्यान दे सकता है।
21 अर्थात् उन्हें यह बात बहुत अप्रिय लगती है कि तुम बस एक अल्लाह ही को मालिक और अधिकारी ठहराते हो और उसी की प्रशंसा के गुण गाते हो। वे कहते हैं कि यह अजीब आदमी है जिसकी दृष्टि में परोक्ष (ग़ैब) का ज्ञान है तो अल्लाह को, सामर्थ्य है तो अल्लाह की, क्रियाशीलताएँ और अधिकार है तो बस एक अल्लाह ही के। आख़िर ये हमारे आस्तानोंवाले भी कोई चीज़़ है कि नहीं जिनके यहाँ से हमें औलाद मिलती है, बीमारों के रोग दूर होते हैं, कारोबार चमकते हैं, और मुँह माँगी मुरादें पूरी होती हैं।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَسۡتَمِعُونَ بِهِۦٓ إِذۡ يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَ وَإِذۡ هُمۡ نَجۡوَىٰٓ إِذۡ يَقُولُ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا 46
(47) हमें मालूम है कि जब वे कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं तो वास्तव में क्या सुनते हैं, और जब बैठकर आपस में कानाफूसियाँ करते हैं तो क्या कहते हैं। ये ज़ालिम आपस में कहते हैं कि यह तो जादू का मारा आदमी है। जिसके पीछे तुम लोग जा रहे हो22
22. मक्का में इनकार करनेवालों का हाल यह था कि छिप-छिपकर क़ुरआन सुनते और फिर आपस में मशवरा करते थे कि इसका तोड़ क्या होना चाहिए। कभी-कभी उन्हें अपने ही आदमियों में से किसी पर यह शक हो जाता था कि शायद यह व्यक्ति क़ुरआन सुनकर कुछ प्रभावित हो गया है। इसलिए वे सब मिलकर उसको समझाते थे कि अजी, यह किसके चक्कर में आ रहे हो। यह व्यक्ति तो जादू का मारा है, अर्थात् किसी दुश्मन ने इसपर जादू कर दिया है, इसलिए बहकी-बहकी बातें करने लगा है।
أَوۡ خَلۡقٗا مِّمَّا يَكۡبُرُ فِي صُدُورِكُمۡۚ فَسَيَقُولُونَ مَن يُعِيدُنَاۖ قُلِ ٱلَّذِي فَطَرَكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖۚ فَسَيُنۡغِضُونَ إِلَيۡكَ رُءُوسَهُمۡ وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هُوَۖ قُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَرِيبٗا 50
(51) या इससे भी ज़्यादा कठोर कोई चीज़़ जो तुम्हारे जी में ज़िन्दगी पाने से बहुत दूर हो (फिर भी तुम उठकर रहोगे)"। वे अवश्य पूछेंगे, “कौन है वह जो हमें फिर जीवन की ओर पलटाकर लाएगा? जवाब में कहो, “वही जिसने पहली बार तुमको पैदा किया।” वे सिर हिला-हिलाकर पूछेंगे,23 “अच्छा यह होगा कब?” तुम कहो, “आश्चर्य क्या कि वह समय निकट ही आ लगा हो।
23. यहाँ 'युनग़िज़ून' शब्द का इस्तेमाल हुआ है। 'इनग़ाज़' का अर्थ है सिर को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊमर की ओर हिलाना जिस तरह आश्चर्य व्यक्त करने के लिए या हँसी उड़ाने के लिए आदमी करता है।
يَوۡمَ يَدۡعُوكُمۡ فَتَسۡتَجِيبُونَ بِحَمۡدِهِۦ وَتَظُنُّونَ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا 51
(52) जिस दिन वह तुम्हें पुकारेगा तो तुम उसकी प्रशंसा करते हुए उसकी पुकार के जवाब में निकल आओगे और तुम्हारा गुमान उस समय यह होगा कि हम बस थोड़ी देर ही इस हालत में पड़े रहे हैं।”24
24. अर्थात् दुनिया में मरने के समय से लेकर क़ियामत के दिन उठने के समय तक की अवधि तुमको कुछ घंटो से ज़्यादा महसूस न होगी। तुम उस समय यह समझोगे कि हम तनिक देर सोए पड़े थे कि अचानक क़ियामत में लोगों के उठाए जाने के इस शोर-गुल ने हमें जगा उठाया।
وَقُل لِّعِبَادِي يَقُولُواْ ٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ يَنزَغُ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ كَانَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٗا مُّبِينٗا 52
(53) और ऐ नबी, मेरे बन्दों (अर्थात् ईमानवाले बन्दों) से कह दो कि मुँह से वह बात निकाला करें जो उत्तम हो।25 वास्तव में यह शैतान है जो इनसानों के बीच बिगाड़ पैदा कराने की कोशिश करता है। वास्तव में यह शैतान इनसान का खुला दुश्मन है।
25. अर्थात् विरोधी चाहे कैसी ही अप्रिय बातें करें मुसलमानों को हर हाल में न तो कोई बात सत्य के विरुद्ध मुँह से निकालनी चाहिए और न ग़ुस्से में आपे से बाहर होकर बेहूदगी का जवाब बेहूदगी से देना चाहिए। उन्हें ठण्डे दिल से वही बात कहनी चाहिए जो जँची-तुलो हो, सत्य और उनके सन्देश की प्रतिष्ठा के अनुकूल हो।
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِكُمۡۖ إِن يَشَأۡ يَرۡحَمۡكُمۡ أَوۡ إِن يَشَأۡ يُعَذِّبۡكُمۡۚ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا 53
(54) तुम्हारा रब तुम्हारे हाल से ख़ूब परिचित है। वह चाहे तो तुमपर दया करे और चाहे तो तुम्हें अज़ाब दे दे।26 और ऐ नबी, हमने तुमको लोगों पर हवालेदार बनाकर नहीं भेजा है।
26. अर्थात् ईमानवालों की ज़बान पर कभी ऐसे दावे न आने चाहिएँ कि हम जन्नती हैं और अमुक व्यक्ति या गिरोह दोज़ख़ी है। इस चीज़़ का फ़ैसला अल्लाह के अधिकार में है। वही सब इनसानों की बाहरी और भीतरी हालत और उनके वर्तमान और भविष्य को जानता है। उसी को यह फ़ैसला करना है कि किसपर दया करे और किसे अज़ाब दे। एक मुसलमान को सैद्धान्तिक रूप से तो यह कहने का अवश्य अधिकार प्राप्त है कि अल्लाह की किताब की दृष्टि से किस तरह के इनसान दयालुता के अधिकारी हैं और किस तरह के इनसान अज़ाब के अधिकारी। मगर किसी को यह कहने का अधिकार नहीं है कि अमुक व्यक्ति को अज़ाब दिया जाएगा और अमुक व्यक्ति को माफ़ कर दिया जाएगा।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِهِۦ فَلَا يَمۡلِكُونَ كَشۡفَ ٱلضُّرِّ عَنكُمۡ وَلَا تَحۡوِيلًا 55
(56) इनसे कहो, पुकार देखो उन पूज्यों को जिनको तुम अल्लाह के सिवा (अपना कार्यसाधक) समझते हो, वे किसी तकलीफ़ को तुमसे न हटा सकते हैं न बदल सकते हैं।27
27. इससे साफ़ मालूम होता है कि अल्लाह के सिवा दूसरे को सजदा करना ही शिर्क (बहुदेववाद) के अन्तर्गत नहीं आता, बल्कि अल्लाह के सिवा किसी दूसरे से प्रार्थना करना, या उसको सहायता के लिए पुकारना भी 'शिर्क' (बहुदेववाद) है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ يَبۡتَغُونَ إِلَىٰ رَبِّهِمُ ٱلۡوَسِيلَةَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ وَيَرۡجُونَ رَحۡمَتَهُۥ وَيَخَافُونَ عَذَابَهُۥٓۚ إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ كَانَ مَحۡذُورٗا 56
(57) जिनको ये लोग पुकारते हैं वे तो ख़ुद अपने रब के पास पहुँच प्राप्त करने का वसीला ढूँढ़ रहे हैं कि कौन उससे अधिक निकट हो जाए और वे उसकी दयालुता के उम्मीदवार और उसके अज़ाब से डरे हुए हैं।28 वास्तविकता यह है कि तेरे रब का अज़ाब है ही डरने के योग्य।
28. ये शब्द साफ़ बता रहे हैं कि मुशरिकों (बहुदेववादियों) के जिन पूज्यों और सहायकों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है उनसे अभिप्रेत पत्थर की मूर्तियाँ नहीं हैं, बल्कि या तो फ़रिश्ते हैं या बीते हुए समय के महापुरुष और बड़े लोग।
وَمَا مَنَعَنَآ أَن نُّرۡسِلَ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّآ أَن كَذَّبَ بِهَا ٱلۡأَوَّلُونَۚ وَءَاتَيۡنَا ثَمُودَ ٱلنَّاقَةَ مُبۡصِرَةٗ فَظَلَمُواْ بِهَاۚ وَمَا نُرۡسِلُ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّا تَخۡوِيفٗا 58
(59) और हमको निशानियाँ भेजने से नहीं रोका मगर इस बात ने कि इनसे पहले के लोग उनको झुठला चुके हैं। 29 (अतः देख लो) समूद को हमने खुल्लम-खुल्ला ऊँटनी लाकर दी और उन्होंने उसपर ज़ुल्म किया। हम निशानियाँ इसी लिए तो भेजते हैं कि लोग उन्हें देखकर डरें।
29. यह इनकार करनेवालों की इस माँग का जवाब है कि मुहम्मद (सल्ल०) उनको कोई चमत्कार दिखाएँ। मतलब यह है कि ऐसा चमत्कार देख लेने के बाद जब लोग उसे झुठलाते हैं, तो फिर अवश्य हो उनपर अज़ाब का अवतरित होना अनिवार्य हो जाता है और फिर ऐसी क़ौम को तबाह किए बिना नहीं छोड़ा जाता। अब यह सर्वथा अल्लाह की दयालुता है कि वह ऐसा कोई चमत्कार (मोजिज़ा) नहीं भेज रहा है, मगर तुम ऐसे मूर्ख लोग हो कि चमत्कार को माँग कर-करके समूद जैसे परिणाम को पहुँचना चाहते हो।
وَإِذۡ قُلۡنَا لَكَ إِنَّ رَبَّكَ أَحَاطَ بِٱلنَّاسِۚ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلرُّءۡيَا ٱلَّتِيٓ أَرَيۡنَٰكَ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلنَّاسِ وَٱلشَّجَرَةَ ٱلۡمَلۡعُونَةَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِۚ وَنُخَوِّفُهُمۡ فَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا طُغۡيَٰنٗا كَبِيرٗا 59
(60) याद करो ऐ नबी, हमने तुमसे कह दिया था कि तेरे रब ने इन लोगों को घेर रखा है। और यह जो कुछ अभी हमने तुम्हें दिखाया है,30 उसको और उस पेड़ को जिसपर क़ुरआन में लानत की गई है31 हमने इन लोगों के लिए बस एक आज़माइश बनाकर रख दिया।32 हम इन्हें चेतावनी पर चेतावनी दिए जा रहे हैं मगर हर चेतावनी इनकी सरकशी में अभिवृद्धि किए जाती है।
30. इशारा है 'मेराज' की ओर। यहाँ 'रुअया' शब्द “स्वप्न” के अर्थ में नहीं है बल्कि आँखों से देखने के अर्थ में है।
31. अर्थात् जक़्क़ूम (थूहड़) जिसके विषय में क़ुरआन में सूचना दी गई है कि वह दोज़ख़ की तह में पैदा होगा और दोज़ख़ में रहनेवालों को उसे खाना पड़ेगा। उसपर लानत करने से मुराद उसका अल्लाह की दयालुता (रहम) से दूर होना है।
32. अर्थात् हमने उनकी भलाई के लिए तुमको 'मेराज' में दर्शनीय चीज़़ें दिखाईं, ताकि तुम जैसे सच्चे और विश्वासपात्र इनसान के द्वारा इन लोगों को मूल सत्य का ज्ञान प्राप्त हो और ये सावधान होकर सीधे मार्ग पर आ जाएँ, मगर इन लोगों ने उलटा इसपर तुम्हारी हँसी उड़ाई। हमने तुम्हारे द्वारा इनको सावधान किया कि यहाँ की हरामख़ोरियाँ आख़िरकार तुम्हें थूहड़ के निवाले (कौर) खिलाकार रहेंगी, मगर इन्होंने उसपर एक ठट्ठा लगाया और कहने लगे, तनिक इस व्यक्ति को देखो, एक ओर कहता है कि दोज़ख़ में प्रचण्ड आग भड़क रही होगी, और दूसरी ओर ख़बर देता है कि वहाँ पेड़ उगेंगे।
قَالَ أَرَءَيۡتَكَ هَٰذَا ٱلَّذِي كَرَّمۡتَ عَلَيَّ لَئِنۡ أَخَّرۡتَنِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَأَحۡتَنِكَنَّ ذُرِّيَّتَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٗا 61
(62) फिर वह बोला, “देखो तो सही, क्या यह इस योग्य था कि तूने इसे मेरे मुक़ाबले में श्रेष्ठता दी? अगर तू मुझे क़ियामत के दिन तक मुहलत दे तो मैं इसकी पूरी नस्ल का उन्मूलन कर डालूँ, बस थोड़े ही लोग मुझसे बच सकेंगे।”
وَٱسۡتَفۡزِزۡ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتَ مِنۡهُم بِصَوۡتِكَ وَأَجۡلِبۡ عَلَيۡهِم بِخَيۡلِكَ وَرَجِلِكَ وَشَارِكۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِ وَعِدۡهُمۡۚ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا 63
(64) तू जिस-जिसको अपने आमंत्रण से फिसला सकता है फिसला ले, उनपर अपने सवार और पैदल चढ़ा ला, धन और सन्तान में उनके साथ साझा लगा, और उनको वादे के जाल में फाँस- और शैतान के वादे एक धोखे के सिवा और कुछ भी नहीं
أَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِدُلُوكِ ٱلشَّمۡسِ إِلَىٰ غَسَقِ ٱلَّيۡلِ وَقُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِۖ إِنَّ قُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِ كَانَ مَشۡهُودٗا 77
(78) नमाज़ क़ायम करो सूरज ढलने से लेकर रात के अँधेरे तक33 और फ़ज्र के क़ुरआन को भी आवश्यक ठहराओ क्योंकि फ़ज्र का क़ुरआन साक्षात् होता है।34
33. इसमें 'ज़ुहर' से लेकर 'इशा' तक की चारों नमाज़ें आ जाती हैं।
34. फ़ज़्र के क़ुरआन से मुराद सुबह (फ़ज़्र) की नमाज़ में क़ुरआन पढ़ना है और फ़ज्र के क़ुरआन के साक्षात् होने का अर्थ यह है कि अल्लाह के फ़रिश्ते विशेष रूप से उसके गवाह बनते हैं क्योंकि उसे एक विशेष महत्व प्राप्त है।
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَتَهَجَّدۡ بِهِۦ نَافِلَةٗ لَّكَ عَسَىٰٓ أَن يَبۡعَثَكَ رَبُّكَ مَقَامٗا مَّحۡمُودٗا 78
(79) 'और रात को 'तहज्जुद' पढ़ो35, यह तुम्हारे लिए उसके अतिरिक्त (नफ़्ल) है, दूर नहीं कि तुम्हारा रब तुम्हें प्रशंसा योग्य स्थान पर पदासीन कर दे।36
35. 'तहज्जुद' का अर्थ है 'नींद तोड़कर उठना'। अतः रात के समय तहज्जुद करने का अर्थ यह है कि रात का एक भाग सोने के बाद फिर उठकर नमाज़ पढ़ी जाए।
36. अर्थात् दुनिया और आख़िरत में तुमको ऐसे पद पर पहुँचा दे जहाँ तुम सब में प्रशंसापात्र होकर रहो। हर ओर से तुमपर प्रशंसा एवं सराहना की वर्षा हो और तुम्हारा अस्तित्व एक प्रशंसा के योग्य अस्तित्व बनकर रहे।
وَقُل رَّبِّ أَدۡخِلۡنِي مُدۡخَلَ صِدۡقٖ وَأَخۡرِجۡنِي مُخۡرَجَ صِدۡقٖ وَٱجۡعَل لِّي مِن لَّدُنكَ سُلۡطَٰنٗا نَّصِيرٗا 79
(80) और दुआ करो कि पालनहार मुझको जहाँ भी तू ले जा सच्चाई के साथ ले जा और जहाँ से भी निकाल सच्चाई के साथ निकाल और अपनी ओर से एक सत्ता एवं अधिकार को मेरा सहायक बना।37
37. अर्थात् या तो मुझे ख़ुद सत्ता एवं अधिकार प्रदान कर, या किसी हुकूमत को मेरा सहायक बना दे ताकि उसकी शक्ति से मैं दुनिया के इस बिगाड़ को ठीक कर सकूँ, अश्लीलता और अवज्ञा की इस बाढ़ को रोक सकूँ, और तेरे इनसाफ़ के क़ानून को लागू कर सकूँ।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلرُّوحِۖ قُلِ ٱلرُّوحُ مِنۡ أَمۡرِ رَبِّي وَمَآ أُوتِيتُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِ إِلَّا قَلِيلٗا 84
(85) ये लोग तुमसे रूह के विषय में पूछते हैं। कहो, “यह रूह मेरे रब के आदेश से आती है, मगर तुम लोगों ने ज्ञान का थोड़ा ही भाग पाया है।"38
38. आम तौर पर यह समझा जाता है कि यहाँ रूह से मुराद प्राण (जान) है। अर्थात् लोगों ने नबी (सल्ल०) से ज़िन्दगी की रूह के विषय में पूछा था कि उसकी वास्तविकता क्या है और इसका जवाब यह दिया गया कि वह अल्लाह के आदेश से आती है। लेकिन संदर्भ को दृष्टि में रखकर देखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ रूह से मुराद नबूवत की रूह या प्रकाशना (वहय, Revelation) है और यही बात सूरा 16 (नह्ल), आयत 2, सूरा 40 (मोमिन) आयत 15 और सूरा 42 (शूरा) आयत 52 में बयान हुई है। प्राचीन विद्वानों में से इब्ने-अब्बास (रज़ि०) क़तादह और हसन बसरी (रह०) ने भी यही अर्थ लिया है और क़ुरआन की टीका ‘रूहुल-मआनी' के लेखक ने हसन और क़तादह के ये शब्द उद्धृत किए हैं कि रूह से मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं और सवाल वास्तव में यह था कि वे कैसे उतरते हैं और किस तरह नबी (सल्ल०) के दिल पर वह्य की जाती है।
أَوۡ يَكُونَ لَكَ بَيۡتٞ مِّن زُخۡرُفٍ أَوۡ تَرۡقَىٰ فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَن نُّؤۡمِنَ لِرُقِيِّكَ حَتَّىٰ تُنَزِّلَ عَلَيۡنَا كِتَٰبٗا نَّقۡرَؤُهُۥۗ قُلۡ سُبۡحَانَ رَبِّي هَلۡ كُنتُ إِلَّا بَشَرٗا رَّسُولٗا 92
(93) या तेरे लिए सोने का एक घर बन जाए या तू आसमान पर चढ़ जाए, और तेरे चढ़ने का भी हम विश्वास न करेंगे जब तक कि तू हमारे ऊपर एक लेख्य न उतार लाए जिसे हम पढ़ें — (ऐ नबी), उनसे कहो, “पाक है मेरा पालनहार! क्या मैं एक सन्देश लानेवाले इनसान के सिवा और भी कुछ हूँ?”
وَمَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُمۡ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِهِۦۖ وَنَحۡشُرُهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ عُمۡيٗا وَبُكۡمٗا وَصُمّٗاۖ مَّأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ كُلَّمَا خَبَتۡ زِدۡنَٰهُمۡ سَعِيرٗا 96
(97) जिसको अल्लाह मार्ग दिखाए वही मार्ग पानेवाला है, और जिसे वह गुमराही में डाल दे तो उसके सिवा ऐसे लोगों के लिए तू कोई हामी और मददगार नहीं पा सकता। उन लोगों को हम क़ियामत के दिन औंधे मुँह खींच लाएँगे, अन्धे, गूँगे और बहरे। उनका ठिकाना जहन्नम है। जब कभी उसकी आग धीमी होने लगेगी हम उसे और भड़का देंगे।
قُل لَّوۡ أَنتُمۡ تَمۡلِكُونَ خَزَآئِنَ رَحۡمَةِ رَبِّيٓ إِذٗا لَّأَمۡسَكۡتُمۡ خَشۡيَةَ ٱلۡإِنفَاقِۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ قَتُورٗا 99
(100) ऐ नबी, उनसे कहो, अगर कहीं मेरे रब की दयालुता के ख़ज़ाने तुम्हारे अधिकार में होते तो तुम ख़र्च हो जाने की आशंका से ज़रूर उनको रोक रखते वास्तव में इनसान बड़ा तंग दिल है।39
39. मक्का के मुशरिक (बहुदेववादी) जिन मनोवृत्तियों के कारण नबी (सल्ल०) की नुबूवत (पैग़म्बरों) का इनकार करते थे उनमें से एक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इस तरह उन्हें आपकी श्रेष्ठता माननी पड़ती थी, और अपने किसी समकालीन और अपने स्तर के किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता को स्वीकार करने के लिए इनसान मुश्किल से ही तैयार हुआ करता है। इसी पर कहा जा रहा है कि जिन लोगों की कृपणता और कंजूसी का हाल यह है कि किसी के वास्तविक दर्जे को स्वीकार करते हुए भी उनका दिल दुखता है, उन्हें अगर कहीं अल्लाह ने अपनी दयालुता के ख़ज़ानों की कुंजियाँ सौंप दी होतीं तो वे किसी को फूटी कौड़ी भी न देते।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ تِسۡعَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ فَسۡـَٔلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِذۡ جَآءَهُمۡ فَقَالَ لَهُۥ فِرۡعَوۡنُ إِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰمُوسَىٰ مَسۡحُورٗا 100
(101) हमने मूसा को नौ निशानियाँ प्रदान की थीं जो स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थीं।40 अब यह तुम ख़ुद बनी-इसराईल से पूछ लो कि जब मूसा उनके यहाँ आए तो फ़िरऔन ने यही कहा था ना कि ऐ मूसा मैं समझता हूँ कि तू ज़रूर जादू का मारा हुआ एक आदमी है।”
40. इन 9 निशानियों का विवरण सूरा-7 (आराफ़) में आ चुका है।
قَالَ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَآ أَنزَلَ هَٰٓؤُلَآءِ إِلَّا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ بَصَآئِرَ وَإِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰفِرۡعَوۡنُ مَثۡبُورٗا 101
(102) मूसा ने इसके जवाब में कहा “तू ख़ूब जानता है कि ये सूझ-बूझ बढ़ानेवाली निशानियाँ ज़मीन और आसमानों के रब के सिवा किसी ने नहीं उतारी हैं,41 और मैं समझता हूँ कि ऐ फ़िरऔन, तू ज़रूर ही शामत का मारा हुआ एक व्यक्ति है।”
41. यह बात हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इसलिए कही कि एक पूरे देश में अकाल पड़ जाना, या लाखों वर्ग मील ज़मीन पर फैले हुए इलाक़े में मेंढकों का एक बला की तरह निकलना, या सारे देश में अनाज के गोदामों में घुन लग जाना, और इसी तरह की दूसरी सभी मुसीबतें किसी जादूगर के जादू, या किसी इनसानी ताक़त के चमत्कार से प्रकट नहीं हो सकतीं। जादूगर सिर्फ़ एक सीमित स्थान में एक मजमे की दृष्टि पर जादू करके उन्हें कुछ चमत्कार दिखा सकता है और वे भी सत्य नहीं होते, बल्कि निगाह का धोखा होते हैं।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱللَّهَ أَوِ ٱدۡعُواْ ٱلرَّحۡمَٰنَۖ أَيّٗا مَّا تَدۡعُواْ فَلَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَلَا تَجۡهَرۡ بِصَلَاتِكَ وَلَا تُخَافِتۡ بِهَا وَٱبۡتَغِ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلٗا 109
(110) ऐ नबी, इनसे कहो, “अल्लाह कहकर पुकारो या रहमान कहकर, जिस नाम से भी पुकारो उसके लिए सब अच्छे ही नाम हैं।”42 और अपनी नमाज़ न बहुत ज़्यादा ऊँची आवाज़ से पढ़ो और न बहुत दबी आवाज़ से, इन दोनों के बीच औसत दर्जे का लहजा अपनाओ।43
42. यह जवाब है मक्का के मुशरिकों (बहुदेववादियों) की इस आपत्ति का कि स्रष्टा के लिए “अल्लाह” का नाम तो हमने सुना था, मगर यह “रहमान” (करुणामय) का नाम तुमने कहाँ से निकाला? उनके यहाँ चूँकि अल्लाह के लिए यह नाम प्रचलित न था इसलिए वे इसपर नाक-भौं चढ़ाते थे।
43. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि मक्का में जब नबी (सल्ल०) या दूसरे सहाबा नमाज़ पढ़ते समय ऊँची आवाज़ से क़ुरआन पढ़ते थे तो अधर्मी लोग शोर मचाने लगते और बहुधा ऐसा होता कि गालियों की बौछार शुरू कर देते थे। इसपर आदेश हुआ कि न तो इतने ज़ोर से पढ़ो कि अधर्मी लोग सुनकर भीड़ लगाएँ, और न इतना धीरे से पढ़ो कि तुम्हारे अपने साथी भी न सुन सकें। यह आदेश सिर्फ़ उन स्थितियों के लिए ही था। मदीना में जब परिस्थितियाँ बदल गई तो यह आदेश बाक़ी न रहा। अलबत्ता जब कभी मुसलमानों को मक्का जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो उन्हें इसी आदेश का पालन करना चाहिए।
وَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلِيّٞ مِّنَ ٱلذُّلِّۖ وَكَبِّرۡهُ تَكۡبِيرَۢا 110
(111) और कहो प्रशंसा है उस अल्लाह के लिए जिसने न किसी को बेटा बनाया, न कोई शासन ही में उसका साझीदार है, और न वह बेबस है कि कोई उसका हिमायती हो।” और उसकी बड़ाई बयान करो, उच्च कोटि की बड़ाई।